Saturday, December 31, 2011

लखनऊ की सरजमीं


साहित्य ,संगीत और कला के क्षेत्र में लखनऊ का नाम बड़े अदब से लिया जाता है पर हमारी संस्कृति का एक अहम हिस्सा बन चुकी फिल्मों के मामले में हम पिछड़ जाते हैं बात जब भी फिल्मों की होती है हमारे जेहन में सिर्फ एक ही नाम उभरता है मुंबई , हालाँकि उत्तर भारत के कई कलाकारों ,संगीतकारों और लेखकों ने अपने रचनाकर्म से दर्शकों को न भूलने वाली प्रस्तुतियाँ दी हैं पर उत्तर प्रदेश फिल्म निर्माण के मामले में भूला दिया गया. मेरे हुजूर, सावन को आने दो, और  'उमराव जान' जैसी कुछ फ़िल्में ही थी | प्रदेश में फिल्म निर्माण को बढ़ावा देने के लिए करीब चार दशक पहले ही उत्तर प्रदेश चलचित्र निगम की स्थापना हुई .इसके बाद 1984 में प्रदेश की फिल्म निर्माण नीति भी घोषित कर दी गयी .वर्ष 1999 में तत्कालीन सरकार ने प्रदेश में फिल्म निर्माण को बढ़ावा देने में गंभीरता दिखाते हुए मल्टी प्लेक्स के निर्माण में छूट ,मनोरंजन कर में कमी ,फिल्मों के निर्माण के लिए बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध कराने के लिए फिल्म निधि जैसे प्रस्ताव शामिल थे परन्तु बाद की सरकारों ने इन योजनाओं के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखाई .साल 2001 में एक बार फिर प्रदेश सरकार ने प्रदेश में फिल्म निर्माण को बढ़ावा देने के लिए फिल्म बंधु सोसाईटी की स्थापना की लेकिन दस साल बीत जाने के बाद भी व्यवहार में कोई आश्चर्य जनक परिणाम देखने को नहीं मिले और ये तमाम योजनाएं लालफीता शाही और राजनैतिक प्रतिबद्धता के अभाव में कागज के मात्र कोरे शब्द ही साबित हुईं |
पिछले तीन सालों में तहजीब का यह शहर कई सारी फिल्मों की शूटिंग का गवाह बना जिसमे बाबर , तनु वेड्स मनु ,ओंकारा , या रब, लेडीज वर्सेज रिक्की बहल' जैसी फ़िल्में शामिल हैं |आने वाले दिनों में  'कुछ लोग', 'रक्तबीज' और 'ये इश्क नहीं' जैसी फिल्मों की शूटिंग लखनऊ में होने वाली है।यह बदलाव सुखद तो है पर इस बदलाव के पीछे निजी प्रयास ज्यादा जिम्मेदार हैं या यूँ कहें लखनऊ जैसे क्षेत्रों में फिल्मों की शूटिंग होना सरकारी प्रयास का नतीजा नहीं है वरन कहानी की मांग या निर्देशक की अपनी सोच ज्यादा जिम्मेदार है जो  सेट की बजाय वास्तविक स्थल को तरजीह दे रहे हैं|इसके पीछे एक और कारण है मल्टीप्लेक्स का आना और कम बजट की फिल्मों का बहुतायत में बनना |
ऐतिहासिक ईमारतों और अनूठे वास्तु शिल्प के बावजूद लखनऊ में शूटिंग के लिए लोकेशन का न तो विकास किया गया और न ही फिल्म निर्माताओं को प्रेरित | जिसमे ट्रैफिक और पर्याप्त सुरक्षा बंदोबस्त भी शामिल है .मायानगरी मुंबई और बागों की नगरी लखनऊ के बीच इस दूरी को घटाने के लिए बस पूर्व में बनाई गयी नीतियों के सही क्रियान्वयन की आवश्यकता है .अब समय आ गया है कि हम लखनऊ की ब्रांडिंग के लिए टुडे कबाब ,भूलभुलैया और चिकन की कढाई से आगे सोचें और तभी लखनऊ समेत प्रदेश की खूबसूरती को रूपहले परदे पर देखा जाना आम हो जाएगा और हम कह सकेंगे कि मुस्कुराइए आप लखनऊ में हैं .

Tuesday, December 27, 2011

विज्ञान कथाओं के वैश्विक घटक और भारतीय विज्ञान कथाएं


विज्ञान को किस तरह आसान बनाया जाए...किस तरह सिम्लिफाई किया जाए...दरअसल चुनौती यही है...जिससे टीचर्स और कथित विज्ञान पत्रकार समझने की कोशिश नहीं करते...विज्ञान को इतना दुरूह बनाकर रख दिया गया है कि आज उसका परिणाम विज्ञान से भागते विद्यार्थियों के रुप में देखा जा सकता है। जो कि भविष्य के लिए किसी भी लिहाज से ठीक नहीं है। विज्ञान को लोकप्रिय विषय बनाने के लिए जो-जो प्रयास किए जाने चाहिए...वो सरासर नाकाफी हैं।
आज आइंस्टाइन को समझने के लिए हमें वैज्ञानिक दृष्टि जरुर चाहिए लेकिन सभी आइंस्टाइन बन जाएं ये जरुरी नहीं है। थ्योरि ऑफ रिलेटिविटि को इस अंदाज में फिर से समझाने की जरुरत है जिसे पानवाले से लेकर प्रोफेसर तक सरलता से समझ ले।
विज्ञान को समझने के लिए किसी वैज्ञानिक की जरुरत नहीं है बल्कि वैज्ञानिक सोच की जरुरत होती है। इसके लिए सबसे सटीक उदाहरण थ्रीइडियट फिल्म मेंसहस्त्रबुद्दे का पैनहै। दरअसल फिल्म में उस स्पेशल बॉल पॉइंट को रुस और अमेरिका में चले अंतरिक्ष शीत युद्द में अमेरिका द्वारा लाखों डॉलर खर्च करके बनाए गए उस पैन की कहानी को बड़े ही रोचक ढंग से पेश किया गया। वैसे फिल्म में फिल्मकार उस कहानी का कुछ संदर्भ डाल देता तो शायद विज्ञान का वो पहलु और भी रोचक बनकर उभर आता...खैर जिस पैन को ईजाद करने में अमेरिका ने लाखों डॉलर खर्च कर डाले...हालांकि उस पैन की खाशियत भी थी...वो जीरो जिग्री गेविटी पर काम कर सकता था...उपर-नीचेभी लिख सकता था...लेकिन इसके जवाब में रुस ने मात्र एक पेंसिल से वही काम कर दिखाया...जिसे बनाने में अमेरिकी वैज्ञानिकों ने लाखों डॉलर खर्च कर दिए।एक और उदहारण आप सभी से बाँटना चाहता हूँ जिस नासा का एक साल का चाय पानी का जितना बजट होता है उतने ही पैसे में भारत ने (350 करोड़) एक सफल चंद्रयान भेजकर दुनिया में एक नया इतिहास रच दिया....यानी भारत में प्रतिभा की कोई कमी नहीं हैं....बल्कि दूसरी चीजों की  कमी है उसे दूर की जानी चाहिए...लेकिन कैसे ? इसे नए तरीके से सोचने की जरुरत है...बेसिक साइंस को जब तक सिम्प्लीफाई नहीं किया जाएगा...तब तक नतीजे अनुकूल आने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए...जब तक ऐसा नहीं किया जाता तब तक विज्ञान को लोकप्रिय बनाने में मीडिया की भूमिका कर्मकांडी ब्राह्मण से ज्यादा नहीं हो सकती।असल में ये भूमिका मुझे इसलिए बांधनी पड़ रही है कि विज्ञान को सरल बनाने के लिए हम सभी को विषय को पहले स्वयं समझना होगा...जिसे शायद हम ठीक से समझना नहीं चाहते...क्योंकि हम खुद को सर्वज्ञ समझने की भूल जो कर बैठते हैं। यही भूल हमारे सभी कामों पर असर डालती...अब जैसे आजकल घनघोर सर्दियों का मौसम है।सभी घरों में हीटर...हीट कन्वेक्टर चल रहे हैं। आखिर ये हीट कन्वेक्टर ऐसा क्या करते हैं कि पूरा कमरा ही गर्म हो जाता है...इसे अगर सरल और रोचक ढंग से कथा में पिरोकर पेश किया जाए तो क्या वो बच्चों के दिमाग में उससे अच्छी तरह प्रवेश नहीं करेगी जिस तरह परंपरागत तरीकों से हम ठूंस देना चाहते हैं।
चंद्रयान की सफलता के बाद भले ही भारत ने विज्ञान के क्षेत्र में अपना रूतबा दिखाया हो, लेकिन एक शोध के मुताबिक देश में हर साल केवल 13 प्रतिशत डिग्रियां विज्ञान विषयों में दी जाती हैं। यह तथ्य छात्रों में विज्ञान के प्रति तेजी से कम होते रूझान की ओर इशारा करता है।
अंतर्राष्टीय स्तर पर जहां विज्ञान की कथाएं बेहद रोचक हैं...क्योंकि वहां विज्ञान जीने का अंदाज है। जहां विज्ञान जीने का अंदाज हो वहां पर बच्चों से लेकर बूढ़ों तक में आविष्कारक बुद्धि काम करती है। वहां किस तरह जीवन और बेहतर हो सकता है इस पर सोचने का काम किसी खास व्यक्ति की बपौती की तरह नहीं होता। वहां कोई भी कुछ भी कर लेता है। और चीजें सरलता से आगे बढ़ती हैं। हमारे लिए चुनौती जरुर बड़ी है लेकिन हम उसे आसानी से पार कर सकते हैं। बस हमें बदलने होंगे अपने चरित्र और अपनी कहानियां। हमें उनमें देशी अंदाज की सामग्री शामिल करनी होगी। हमें उसमें भारतीय संदर्भ सही अनुपात में डालना होगा।भारतीय विज्ञान कथाएं, वैश्विक  घटकों से खुद को कतई अलग न करे लेकिन उसमें सावधानी से स्वयं की पहचान बरकरार रखते हुए आगे बढ़ती रहे। कॉपी करने के चक्कर में खुद से भी जाते हैं और नया आभामंडल विकसित भी नहीं हो पाता है।आइये थोडा मिल बैठ कर सोचते हैं कि हमें विज्ञान की जागरूकता बढ़ाने के लिए इस तरह की कार्यशालाओं की जरुरत क्यों पडी और यही वक्त क्यों आप सबने सुना होगा आवश्यकता आविष्कार की जननी है मानव सभ्यता के इतिहास में इक्सवीं शातब्दी में विज्ञान अपने चरम पर है और भारत भी इसमें पीछे नहीं है तकनीक किसी की बपौती नहीं रही पर भारत का पिछडापन इसमें आड़े आता है चूँकि निरक्षरता का दैत्य अभी भी भारत में जिन्दा है लेकिन तकनीक की भाषा अभी भी अंगरेजी है भारतीय भाषाएँ आगे तो बढ़ रही हैं पर विज्ञान संचार के लिए अभी लंबा रास्ता तय करना है कारन सीधा है हमारे दैनिक जीवन में तकनीक पश्चिम के देशों के मुकाबले अभी हावी नहीं है और दूसरा कारण  सवाल न करने की हमारी आदत वाचिक परम्परा से ली गयी है यानि जो बता दिया गया या सुन लिया वो मान लिया समस्या यहीं है | दादा दादी की कहानियों में विज्ञान कथाओं का न होना ये बताता है कि अज्ञानता की कीमत कैसे एक पूरी पीढ़ी को चुकानी पड़ रही है |
कथाओं से हमारा पहला परिचय दादा दादी की कहानियों से होता है जहाँ से कहानियों उसके कथानक से हमारा वास्ता पड़ता है और हमारी रुचियों का निर्माण होता है . ये कमजोर कड़ी अब आप जैसे जागरूक नागरिकों से मज़बूत हो रही है.इसमें एक बड़ी भूमिका होलीवुड की क्षेत्रीय भाषाओं में डब फ़िल्में भी निभा रही हैं स्पाइडरमैन भोजपुरी ,हिन्दी ,तमिल ,तेलगु सब एक साठ बोल रहा है .डिस्कवरी साइंस जैसे चैनल हमारी सोच के आकाश को नयी ऊँचाइयाँ दे रहे हैं .प्रेम कथाओं से आगे फिल्मे ,साहित्य , चैनल सभी आगे बढ़ रहे हैं ,अभिव्यक्ति के नए दरवाजे खुल रहे हैं और इसमें एक विज्ञान संचार भी है .हिस्ट्री चैनल पर स्पलाएस जैसे कर्यकर्म दिन भर हमें बताते है कि चीजें काम कैसे करती हैं और ये तो आप सभी जानते हैं कि बात से बात निकलती है और जब बात निकलती है तो दूर तलक जाती है . जब हम हैं नए तो अंदाज़ क्यों हो पुराना आज की पीढ़ी ज्यादा जागरूक है और उसकी सोच में वैज्ञानिकता भी है .हम उम्मीद कर सकते हैं कि अब भारत में भी बदलाव दिखेगा यूनीकोड फॉण्ट के आ जाने से कंप्यूटर की दुनिया में हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओँ में काम करना आसान हो गया है .कुछ कहने के लिए किसी का इन्तिज़ार नहीं करना बस इंटरनेट की गोद में बैठ जाना और सारी दुनिया का हाल ले लेना और अपना पता दे देना कितना आसान हो गया है.
क्षेत्रीय भाषाओं में विज्ञान कथा लेखन,दो दिवसीय (25-26 दिसम्बर, 2011) कार्यशिविर
विज्ञान प्रसार, नेशनल बुक ट्रस्‍ट एवं तस्लीम के  संयुक्त आयोजन में दिनांक 27/12/11  को दिया गया व्याख्यान 

Tuesday, December 20, 2011

अक्षम है साइबर अपराध कानून


इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया की ओर से जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार भारत में इंटरनेट सेवा प्रयोक्ताओं की संख्या 10 करोड़ से भी ज्यादा हो चुकी है. वैसे इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों की वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा है. इस समय देश में पीसी पर या अन्य तरीकों से इंटरनेट का इस्तेमाल करने के अलावा मोबाइल पर इंटरनेट की इस्तेमाल करने वालों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है. मोबाइल क्रांति के कारण इंटरनेट अब लोगों की जेब में पहुंच चुका है और इसमें आने वाले समय में और भी तेजी से विकास की संभावना है. भारत सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना आकाश के तहत छात्रों  के लिए जो टेबलेट कंप्यूटर जारी किया है और उसके साथ ही अन्य कंपनियों ने उससे लोगों के इंटरनेट इस्तेमाल में और भी तेजी आने की संभावना है. आशा व्यक्त की जा रही है कि आने वाले वर्षों में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की यह संख्या दो से तीन गुनी की रफ्तार से बढ़ेगी. इसी के साथ ही इंटरनेट से जुड़े अपराधों यानि साइबर क्राइम का भी  संकट बढ़ गया है. जिस तरह से इंटरनेट का इस्तेमाल सरकारी और बैंकिंग क्षेत्रों समेत हमारे दैनिक जीवन में  बढ़ रहा है उसी तेजी से इसमें अपराधियों की गतिविधियां भी बढ़ रही हैं. आज कहीं से भी इंटरनेट का इस्तेमाल  करना उतना सुरक्षित नहीं माना जा रहा है. सोशल नेटवर्किंग साइट से लेकर ई मेल तक  लोगों की तमाम व्यक्तिगत और गोपनीय जानकारियों पर अपराधियों की नजर है .साइबर अपराध में मुख्यतः वायरस से दूषित किया गया, हैकर द्वारा आक्रमण किया गया,स्पायवेयर,फ़िशिंग,स्पैम,पहचान चुरा ली गई,ऑनलाइन खरीदारी धोखा, जैसे अपराध शामिल हैं .साइबर अपराधों के बढ़ने में एक बड़ी भूमिका सोशल नेटर्किंग साईट्स की है जिसमे कई तरह के माल वेयर आ जाते हैं .प्रयोगकर्ता अनजाने में इन लिंक को क्लिक कर बैठता है और हैकर का शिकार हो जाता है . साइबर अपराध का एक नया चलन मोबाईल द्वारा इंटरनेट के इस्तेमाल से भी बढ़ा है जिसमे उपभोक्ता के मोबाईल से जानकारियों को चुरा लिया जाता है .असुरक्षित वाई फाई नेटवर्क के इस्तेमाल ने भी साइबर अपराधों को बढ़ावा दिया है .  एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में होने वाले कुल साइबर अपराध में करीब सत्ररह प्रतिशत  अपराध मोबाइल के द्वारा हुआ है. इसके साथ ही भारत वैश्विक स्तर पर छठें सबसे अधिक मालवेयर से पीड़ित देश के रूप में चिन्हित किया गया है .माइक्रोसॉफ्ट की सिक्युरिटी इंटेलिजेंस रिपोर्ट के मुताबिक जहाँ पूरी दुनिया में मालवेयर संक्रमण (इन्फेक्शन ) के मामले घट रहे हैं वहीं भारत में इस तरह के मामलों की संख्या बढ़ रही है. मई 2000 को भारतीय संसद के दोनों सदनों में सूचना प्रौद्योगिकी बिल पारित किया गया था. अगस्त 2000 में राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने के बाद बिल को सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम,2000 के रूप में जाना गया. साइबर कानून IT अधिनियम, 2000 में शामिल हैं.उल्लेखनीय है कि भारत में इन्टरनेट का प्रयोग तो बढ़ रहा है पर साईबर अपराधों के मामले में कोई जागरूकता नहीं फ़ैल रही है.जिस तेजी से साइबर तकनीक में निरंतर परिवर्तन हो रहा है उस अनुपात में हमारा साइबर अधिनियम पुराना हो चुका है . लोग इंटरनेट पर सुरक्षा संबंधी मुद्दों को जाने बगैर उसका इस्तेमाल धड़ल्ले से शुरू कर देते हैं फिर साइबर अपराध का शिकार हो जाते हैं महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 ई कॉमर्स को ध्यान में रख कर बनाया गया था. सोशल नेटवर्किंग साईट्स के बढते चलन से साइबर उत्पीडन और साइबर मानहानि जैसे मामले बढ़ रहे हैं पर सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 इन मुद्दों पर लगाम लगाने में प्रभावी भूमिका नहीं निभा पा रहा है .भारत जैसे देश में जहाँ विकास में इंटरनेट एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है साइबर अपराधों के प्रति लोगों का जागरूक न होना एक खतरनाक स्थिति की ओर इशारा कर रहा है .साइबर अपराध के शिकार हुए ज्यादातर लोग अपराध दर्ज ही नहीं कराते हैं वहीं दूसरी ओर बड़े साइबर अपराधी भौगोलिक सीमाओं से परे जाकर इस तरह के अपराधों को अंजाम देते हैं जिससे वे पुलिस के चंगुल में आसानी से नहीं आ पाते हैं  यद्यपि इंटरनेट को सुरक्षित स्थान बनाने के लिए विश्वव्यापी प्रयास किया जा रहा है, परन्तु सावधानी से श्रेष्ठ बचाव है ,वहीं सरकार को भी इस ओर ध्यान देने की जरुरत है जिससे ज्यादा प्रभावी साइबर क़ानून बनाया जा सके और लोग निश्चित होकर साइबर दुनिया में विचरण कर सकें .
 अमर उजाला में 20/12/11 को प्रकाशित 

Thursday, December 8, 2011

Winds of Change


सर्दी में भी गर्मी का एहसास कैसे होता है अरे ये कोई लाख टके का सवाल नहीं है बस गर्म कपडे पहन कर आग जलाकर है ना पर माहौल को ठंडा होने से कैसे बचाया जाए यूँ तो ठण्ड का मौसम बड़ा अच्छा तभी तक होता है जब आपके पास ठण्ड से बचाव का तरीका हो ,नहीं तो क्या होगा आपको पता है इसीलिए तो देखिये ना ठण्ड में गर्मी की डिमांड बढ़ जाती है गर्म पराठे ,गर्म चाय और ना जाने क्या क्या .अब देखिये ना भले ही ठण्ड का मौसम शुरू हो गया है पर माहौल में अभी काफी गर्मी है. सर्दियों में माहौल  को गर्मी देने की ज़िम्मेदारी मानो डर्टी पिक्चर को दे दी गई है.डर्टी पिक्चर की सफलता ने बताया कि हमारा समाज बदल रहा है. भारतीय फ़िल्मों में सेक्शुएलिटी के प्रदर्शन और महिलाओं के चित्रण को लेकर हमेशा से ग़लत-सही की बहस होती रही है और इस फिल्म के बाद ये बहस और आगे बढ़ी है और फिल्म के संवादों में सत्तर के दशक की फिल्मों वाला पैनापन है जो फेसबुक की वाल पर बहुत से यांगिस्तानियों का स्टेटस अपडेट बना है:  “दिल भले लेफ्ट में होता है, लेकिन उसके फैसले हमेशा राइट होते हैं” . यह ऐसी सशक्त फिल्म है जो पूरी होने के लिए हीरो पर निर्भर नहीं करती. पूरी फिल्म के केंद्र में एक स्त्री है.थोडा सा पीछे ले चलते हैं  आपको  इस तरह के विषयों पर फ़िल्में पहले बनी हैं पर लोगों की महिलाओं से यही अपेक्षा रहती है कि वे पुरुषों की बराबरी ना करें सेक्स सिम्बल के साथ एक नैतिकता का टैग जोड़ दिया जाता था यानि जो सेक्सी है वो मोरालटी के बैकग्राउंड में नहीं आ सकता .सत्तर के दशक में “चेतना” नाम की  फिल्म ने भी ऐसी ही सुर्खियाँ बटोरी थी जिसमे रेहाना सुलतान ने एक सिगरेट ,शराब पीने वाली एक वेश्या का किरदार निभाया था पर इस फिल्म में ऐसा बोल्ड रोल करने के बाद दर्शक उन्हें एक अभिनेत्री के रूप में स्वीकार नहीं कर सके पर डर्टी पिक्चर इस मायने अलग है . डर्टी पिक्चर की नायिका विद्या बालन आज सत्तर के दशक के सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त हैं .जाहिर है समाज बदला है लोग बदले हैं और फ़िल्में भी .हम इस बहस में नहीं पड़ते कि ये बदलाव कैसा है क्योंकि हम जिस सोसायटी में रहते हैं वहां बदलाव का स्वागत हमेशा विरोध के साथ किया जाता है पर बाद में सभी उस बदलाव में शामिल हो जाते हैं इसीलिये तो “बुम्बाट” पूरा देश गा रहा है तो आज की जेनरेशन का मंत्र खुश रहो ना यार जो अच्छा लगे बस उसका हिस्सा बन जाओ क्योंकि जिंदगी जब एक बार मिली है तो उसके लिए दो बार क्या सोचना क्योंकि आज का ये दिन कल बन जाएगा कल तो पीछे मुड के क्या देखना. डर्टी पिक्चर इस मायने में साठ और सत्तर के दशक की उन फिल्मों से अलग जहाँ अभिनेत्रियों और वैम्प के अलग अलग खांचे थे और उसमे मिलन की कोई सम्भावना नहीं थी इसको कुछ यूँ समझिए उस वक्त की अभिनेत्रियों को रोल एक निश्चित में दायरे में ही मिलते थे वे सिर्फ समाज के आदर्श रूप की महिलाओं को चित्रित करते थे वैम्प का काम बुरी महिलाओं को दिखाना है पर ये तो आप सभी जानते ही ना Life isn't black and white. It's a million shades of grey .अच्छा बुरा भी हो सकता है और बुरा अच्छा भी वैसे भी हमारा नजरिया ही चीज़ों को अच्छा या बुरा बनाता है इसलिए तो माना जाता है वल्गैरिटी तो देखने वालों की आँखों में होती है.मौसम भले ही ठंडा हो पर अपने आस पास रिश्तों की, सोच की गर्माहट को बनाये रखिये नयी चीज़ों का स्वागत करें . नई आकाँक्षाओं को पूरा करने के लिए नए संघर्ष ज़रूरी हैं. व्यावहारिकता का तक़ाज़ा भी यही  है कि अतीतजीवी बनकर ना रहा जाए .  वैसे भी नया साल आने को है तो चलते चलते डर्टी पिक्चर का ये डायलोग “जिंदगी जब मायूस होती है, तभी महसूस होती है” मतलब मायूसी भले ही आपको डर्टी लगे पर जिंदगी को करीब से देखने लिए थोड़ी बहुत मायूसी बुरी भी तो नहीं क्योंकि जिंदगी जब सिखाती है तो अच्छा ही सिखाती है.
08/12/11 को आई नेक्स्ट में प्रकाशित 

Tuesday, December 6, 2011

संस्कृति को प्रभावित करते रियल्टी शो


यह तीव्र परिवर्तन का दौर है। हर दूसरे पल हमारी पीढी एक नए बदलाव की साक्षी बन जाती है। जिस तेजी से दुनिया बदल रही है उसी तेजी से टेलीविजन भी ,भारत के पहले सोप ऑपेरा हम लोग से जो बदलाव का सफर शुरू हुआ वो लगातार जारी है कथ्य और प्रस्तुतिकरण में अभिनव प्रयोग होते रहे पर अब इन प्रयोगों का केंद्र धारावाहिकों के काल्पनिक चरित्र नहीं बल्कि हम लोग खुद हैं यानि दर्शक अब मात्र दर्शक न होकर अभिनेता भी हो गया है .इन रियल्टी शो ने भारतीय टेलीविजन के परदे को हमेशा के लिए बदल दिया ये शादियाँ करा रहे हैं लोगों को मिला रहे हैं उनकी समस्याएं सुलझा रहे हैं नयी प्रतिभाओं को सामने ला रहे हैं यानि घर के बड़े बूढ़े से लेकर यार दोस्त तक सभी भूमिकाओं को ये बुद्धू बक्सा बखूबी निभा रहा है .दर्शक इनको लेकर कभी हाँ ,कभी ना वाली स्थिति में हैं ये इन्हें स्वीकारना भी चाहते हैं और नहीं भी एक दर्शक के तौर पर वो संक्रमण की स्थिति में हैं . अगर हम थोडा सा पीछे मुडकर टेलीविजन जगत का इतिहास रचने वाले इन रियलिटी शोज के इतिहाज पर नजर डालें तो भारत में इनका सफर अभी दो दशक से भी कम समय का है। भारत के पहले रियलिटी शो का श्रेय अंताक्षरी कार्यक्रम को प्राप्त है। 3सितम्बर 1993 को शुरू हुए इस शो के करीब 600 एपीसोड दर्शकों तक पहुंचे और हजारों प्रतिभागियों ने इसमें हिस्सा लिया। इस शो को भारतीय तौर तरीकों के लिहाज से तैयार किया गया अैर इसके बाद ही दुनिया के सामने साबित हुआ कि इस तरह के कार्यक्रम तैयार करने और प्रसारित करने के लिए तैयार है अैर इसके दर्शक भी इसके लिए तैयार हैं।1995 में भारतीय दर्शकों से रूबरू हुआ संगीत की सरगम पर आधारित कार्यक्रम सारेगामापा। सारेगामापा ने न सिर्फ दर्शकों को एक नया अहसास दिया बल्कि भारतीय सिने और संगीत जगत को कुछ अच्छी प्रतिभाएं भी दी . वर्ष 2000 में टेलीविजन के छोटे पर्दे पर अवतरित हुए कौन बनेगा करोडपति ने छोटे पर्दे को लोकप्रियता के उस पायदान पर ले गया  कि छोटा पर्दा छोटा न रह गया। सदी के महानायक और सिनेजगत के एंग्री यंग मैन अमिताभ बच्चन की शो में मौजूदगी और दर्शकों से उनके संवाद ने कार्यक्रम को कामयाबी की बुलंदियों तक पहुंचा दिया। फिर शुरू हुआ टी वी चैनलों पर रियलिटी शोज की एक बाढ सी आ गई और यहीं से शुरू हुआ चैनलों के बीच गलाकाट प्रतिस्पर्धा का दौर। हर चैनल ने दर्शकों को अपनी ओर मोड़ने  और टीआरपी बढाने के लिए केबीसी की तरह का एक गेम शो लांच किया इसमें दस का दम, सवाल दस करोड का, जैसे तमाम सारे नाम शामिल हैं पर वह सफलता किसी को नसीब नहीं हुई जो केबीसी को मिली थी। भारतीय रियलिटी शो  की चर्चा के दौरान हमें एक और मील का पत्थर दिखता हैं इंडियन आइडल। भारत के कोने कोने  से संगीत की छुपी प्रतिभाओं को सामने लाने में इसकी उल्लेखनीय भूमिका है .बात गेम शो और संगीत के कार्यक्रमों तक सीमित रहती तो ठीक रहता
पर टीवी जिस तरह धीरे धीरे ड्राइंग रूम से होता हमारे बेड रूम में पहुँच गया उसी तरह इन रियल्टी शो के कार्यक्रम कंटेंट हमारे निजी जीवन में तांक झाँक करने लग गए जिसमे सच का सामना , राखी का स्वयम्वर ,इमोशनल अत्याचार , स्प्लिट्सविला और बिगबॉस जैसे धारावाहिक शामिल हैं और यहीं से शुरू हुआ इस तरह के कार्यक्रमों की आलोचना का दौर पर उससे पहले ये समझना ये आवश्यक है इन रियल्टी शो की बाढ़ वर्ष  २००० के बाद ही क्यों आयी भारत में उदारीकरण की शुरुवात और निजी सेटेलाईट चैनल की शुरुवात लगभग आस पास ही रही है यानि बाजार आने वाले दिनों में एक बड़ी भूमिका निभाने वाला था और ऐसा हुआ भी पहले दर्शक उपभोक्ता में तब्दील नहीं हुआ था दूरदर्शन के पास ना तो बाजार का दबाव था ना किसी अन्य चैनल से प्रतिस्पर्धा और शायद इसी लिए 1984 से 1994 तक का दौर कार्यक्रमों की गुणवत्ता और विविधता के हिसाब से टेलीविजन का स्वर्णिम दौर था पर धीरे धीरे दर्शक उपभोक्ता में तब्दील होते गए और कार्यक्रमों में विविधता के दबाव के फलस्वरूप रियल्टी के नाम पर क्या कुछ दिखाया जा सकता है होड इस बात पर लगी है चूँकि सब कुछ बाजार निर्धारित कर रहा है इसलिए मूल्य और नैतिकता की बात बेमानी है गिरावट हर जगह है पर समाज की गिरावट जब इन रीयल्टी शो के जरिये दुबारा हम तक पहुंचती है तब उसे पचा पाना एक दर्शक के तौर पर हमारे लिए मुश्किल होता है ये फील गुड फैकटर अक्सर इन रीयल्टी शो की आलोचनाओं का कारण बनता है .
 इन रीयल्टी शो के लोकप्रियता की कहानी भारत में मोबाईल क्रांति से भी जुडी हुई है क्योंकि इन शो की आमदनी का एक बड़ा जरिया दर्शकों द्वारा किये गए एस एम् एस से आता है जैसे जैसे भारत में मोबाईल का प्रयोग बढ़ा इन रीयल्टी शो की बाढ़ सी आ गयी है .पर कुछ अच्छे संकेत भी हैं डिस्कवरी ,नेशनल ज्योग्राफिक ,टी एल सी जैसे चैनल सभ्यता और संस्कृति के नए फ्यूजन रचने में लगे हैं वो नए पर्यटन स्थलों की जानकारी हो या खान पान ऐसी अनेक जानकारी हमारे आस पास के लोग हमें पहुँचाने में लगे हैं हिस्ट्री जैसे चैनल इतिहास को दुबारा जीवंत बना रहे हैं .टेलीविजन पर अपनी सफलता का परचम लहराने के बाद ये रियलिटी शो इंटरनेट की दुनिया में अपनी जोर  आजमाइश करने की कवायद में है। टेलीविजन पर रियलिटी शोज की अपार सफलता को देखने के बाद इसे आनलाइन लाने की पहल करने का श्रेय मिला एमटीवी को जिसने इन डॉट कॉम के साथ मिलकर भारत में चौबीसों घंटें चलने वाले ऑनलाइन रियलिटी शो की शुरूआत की। हाल ही में जुलाई में आइडिया द्वारा प्रायोजित ऑनलाइन रियलिटी शो ने अपना पहला चरण पूरा किया और इसकी सफलता को अप्रत्याशित तो नहीं पर उम्मीद जगाने वाला माना गया.रीयल्टी शो खूब आ रहे हैं पर रीयल्टी के नाम पर कितना और क्या दिखाया जा सकता है इसकी लक्ष्मण रेखा अभी भी बाजार निर्धारित कर रहा है यह जरुर एक चिंतनीय प्रश्न है जिसका उत्तर मिलना अभी बाकी है .
6/12/11 को अमर उजाला कॉम्पेक्ट में प्रकाशित लेख 

Saturday, December 3, 2011

अब आपके सारे राज बताता है मोबाईल


वक्त के बदलाव के साथ काफी कुछ बदला है अब देखिये ना मोबाईल जिसे इस देश में आये अभी ज्यादा वक्त नहीं हुआ (वैसे भी पन्द्रह साल का वक्त ज्यादा होता भी नहीं ) कितना तेजी से बदल गया पहले सिर्फ बात करने से शुरू हुआ सफर अब मल्टीमीडिया सेट के सहारे मनोरंजन ,जानकारी और काम के मामले में कहाँ से कहाँ पहुँच गया .हमारी पीढ़ी के लोगों के लिए बेसिक फोन स्टेटस सिम्बल हुआ करते थे और क्लास से मॉस तक का सफर तय करने में फोन ने ज्यादा वक्त नहीं लिया वैसे इसमें फिल्मों का भी बड़ा योगदान रहा है तकनीक को जब जनसंचार का साथ मिल जाता है तो वो लोगों तक जल्दी पहुँचती है और उसके प्रति लोगों की जागरूकता भी बढ़ती है पुराने वक्त में फोन की लोकप्रियता का अंदाजा इस गाने से लगाया जा सकता है जो आज भी लोगों की जुबान पर चढा हुआ है मेरा पिया गए रंगून वहां से किया है टेलीफोनअब तो आप समझ गए होंगे कि मैं मोबाईल फोन और संगीत के सम्बन्ध पर बात कर रहा हूँ वक्त के साथ साथ टेलीफोन बदल गया है और उनकी जगह मोबाईल ने ले ली है और अब गाने भी बदल गए हैं. जी हाँ व्हाट इस योर मोबाईल नम्बर करूँ क्या डायल नम्बरचलिए मुद्दे पर लौटते हैं आज की दौड़ती-भागती जिंदगी में इंसान के पास अगर कुछ नहीं है तो वो है वक्त..जिसके सामाधान के लिए उसने मोबाइल से दोस्ती कर ली है। इस 8-10 इंच की मशीन ने व्यक्ति की जिंदगी में वो जगह बना ली है जो शायद उसके अपनों की भी नहीं होगी। क्योंकि भागदौड़ के सफर में उसके पास अपनों का साथ तो रह नहीं पाता लेकिन मोबाइल के जरिये अपनी इस दूरी को वो कम जरूर कर लेता है। मोबाइल ने जहां उसे अपनों के करीबकिया है, वहीं उसके शौक को भी जिंदा रखा हुआ है। अब आप पूछेगें कि भईकैसे? तो गौर से सुनिए...हम में से काफी लोग ऐसे हैं जिन्हें काम से लौटते समय काफी देर हो जाती है...अपनी थकान को मिटाने के लिए और अपने आप को रीफ्रेश करने के लिए अपने मोबाइल पर वो गाने सुनते हैं।  क्योंकि संगीत के बिना हर आदमी का लगभग जीवन अधूरा है, यहां लगभग इसलिए बोला क्योंकि ये बात वो लोग नहीं मानेगें जिन्हें संगीत से कोई लेना देना नहीं है।अपने मनपसंद पुराने गीतों  को अपने मोबाइल के एफएम पर या अपने रिकार्डिंग सेटअप पर सुनने का मजा ही कुछ और होता है। मधुर संगीत के बीच व्यक्ति अपनी थकान,अपनी परेशानियां भूलकर कुछ देर के लिए उस दुनिया में पहुंच जाता है जहां कोई गम नहीं होता। ये तो इंसान, मोबाइल और फिल्मी गानो का एक रिश्ता हमने आपको बताया लेकिन फिल्मी गानों से तो इंसान की जिंदगी का हर पहलू जुड़ा हुआ है, इस बात से तो कोई इंकार नहीं कर सकता। कुछ लोग अपने मनपसंद गीतों को अपनी मोबाइल की रिंगटोन या कॉलर टोन बना लेते हैं। अपनी खुशी और गम को अपने गीतों से व्यक्त करनेवाले इन लोगों के बारे में अंकशास्त्रियों का कहना है कि अगर आप किसी व्यक्ति के स्वभाव और हाव-भाव जानना चाहते हैं तो उसके मोबाइल पर कॉल कीजिये। आप उसकी रिंगटोन या कॉलर ट्यून सुनकर उसके बारे में पता लगा सकते हैं। जैसे कि अगर कोई रोमांटिक धुन सुनायी दे तो आप समझिये वो इंसान प्यार की कद्र करता है, अगर आपको कोई कॉमेडी धुन सुनायी दे तो ये समझ लीजिये वो इंसान काफी मस्त-मौला है और अगर किसी की रिंगटोन या कॉलर पर आपको किसी के चीखने, हंसने या कोई डॉयलॉग सुनायी पड़े तो समझ लीजिये वो इंसान काफी आक्रामक है। सोचिए अंकशास्त्री इस तरह की बातें करते हैं,जब इस विद्या की खोज हुई थी किसी ने नहीं सोचा होगा कि  मोबाइल नाम की किसी चीज का अविष्कार भी होगा,लेकिन हमारे अंकशास्त्रियों ने इस पर भी रिसर्च करके एक नया सिद्धांत लोगों के सामने प्रस्तुत कर दिया, जिसके पीछे कारण एक ही है कि आज लोगों की जरूरत बना मोबाइल उसके व्यक्तित्व की परिभाषा और उसपर बजने वाले गीतों से उसके स्वभाव को जानने का जरिया बन गया  है। तो सोच क्या रहे हैं अपने स्वभाव के अनुसार जरा अपनी कॉलर टोन सेट कीजिये यदि आप ज्यादा नेट फ्रेंडली नहीं तो भी कोई मुश्किल वाली बात नहीं है बस आपको अपने सर्विस प्रोवाईडर की वेबसाईट पर जाना है और वहां से अपने मनपसंद संगीत को चुनना है कुछ सेवाएं मुफ्त हैं कुछ के लिए आपको पैसे देने पड़ सकते हैं पर जब बात आपकी पर्सनाल्टी से जुडी हो तो कुछ पैसे खर्च करने में बुराई क्या है .
जनसंदेश टाईम्स में 3/12/11 को प्रकाशित 

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