Sunday, August 31, 2014

इंटरनेट के बजाय मेहनत पर करें भरोसा

सुबह सुबह जल्दी उठकर पढना चाहिए बचपने में मेरे पिता जी कहा करते थे कि सुबह दिमाग फ्रेश होता है इसलिए जो पढो वो जल्दी याद हो जाता है,जिन्दगी आगे बढ़ चली पर हम इस बात से चिपक के रह गए तो ऐसी ही एक सुबह मेरी कुछ आंकड़ों पर नजर पडी जो मेरे जेहन में रह गयी| जितना मुझे याद रहा उस हिसाब से देश में 20 से 35 वर्ष के आयु वर्ग की आबादी2021 तक बढ़कर 64 प्रतिशत तक पहुंचने की संभावना है जो 2001 में करीब 58 प्रतिशत थी। वर्ष 2020 में भारत की 125 अरब की आबादी की औसत आयु 29 साल की होगी जो चीन और अमेरिका के लोगों से भी युवा होगी ,बात है न मजेदार अब जरा सोचिये इतने सारे युवा आंकड़े और भी हैं वर्ष 2011 और 2016 के बीच करीब 6.35 करोड़ नए लोग कामकाजी आबादी में शामिल होंगे जिनमें20 से 35 वर्ष की आयु के लोगों की संख्या सबसे अधिक होगी।युवा आबादी का अधिक होना अच्छी बात है पर ये युवा, मानव संसाधन की द्रष्टिकोण से भी बेहतर होना चाहिए.अब आपके दिमाग की घंटी बजी होगी मानवसंसाधन को बेहतर होने के लिए युवा आबादी का पढालिखा और स्किल्ड होना चाहिए|  पढने लिखने और कुछ सीखने की जगह है कैम्पस,कैम्पस के दिन बोले तो ख्वाब,आजादी, और हसरतों को थोड़ा सा अगर आपस में मिला दिया जाए तो जो पहला ख्याल किसी के दिल में आएगा वो अपने कैम्पस या कॉलेज के दिनों का ही आएगा|  वही कैम्पस जहाँ कभी मस्ती की पाठशाला सजती है तो कभी किसी लेक्चर से आपका जीवन हमेशा के लिए बदल जाता है |जब मेरे पिता जी सुबह जल्दी उठने की सलाह दिया करते थे तब के कैम्पस और आजकल के कैम्पस में जमीन आसमान का अंतर आ गया है.खड़िया डस्टर की जगह व्हाईट बोर्ड, मार्कर आ गए हैं क्लास रूम स्मार्ट हो गए हैं जहाँ पढ़ाई आडिओ वीडिओ के साथ होती है|पर कुछ चीजें कभी नहीं बदलती जैसे जब तक हम पढेंगे नहीं तब तक आगे बढ़ेंगे नहीं| जैसे डरना जरुरी है वैसे पढना भी| तो डरने और बढ़ने के इस सिलसिले में पढ़ाई का रूप बदला है अब नोट्स एक्सचेंज करने के लिए व्हाट्स एप पर ग्रुप है तो क्लासेज की सूचना के लिए फेसबुक पेज,सब कुछ इतना आसान हो गया है |आप हर पल हर क्षण कनेक्टेड हैं अब देखिये न सोशल नेटवर्किंग की इस दुनिया में आधी से ज्यादा आबादी युवाओं की है जिनके पास कहने को बहुत कुछ है पर इस पूरी प्रक्रिया में आपने गौर किया होगा हमारी निर्भरता “गूगल” देव और तकनीक  पर ज्यादा बढ़ी है और सेल्फ स्टडी पर जोर कम हुआ है| 2 का स्क्वायर रूट रटने निकालने की जरुरत नहीं गूगल कर लो यार,कुछ जोड़ना या घटाना है, मोबाईल निकला जेब से और उँगलियाँ उसके टच पर थिरकने लग गयीं|पुराने लोगों की सारी बातों को ओल्ड फैशंड कह कर खारिज कर देना ठीक नहीं | अब सुबह उठकर स्टडी करना वाकई बीते वक्त की बात होती जा रही है हम तो रात में ही पढेंगे और सुबह देर तक सोयेंगे|पढ़ाई किस वक्त करनी है ये आपका निजी फैसला है पर जिन्दगी में अनुशासन बहुत जरुरी है मतलब सुबह पढ़ें या शाम को पर नियमित रूप से पढ़ें |हर चीज पर गूगल की शरण में जाने की बजाय अपने दिमाग का भी इस्तेमाल करें ये तो आपको भी पता है कि अगर दिमाग का इस्तेमाल ज्यादा नहीं किया जाएगा तो वो बेकार हो जाएगा वही  बात दिमाग पर भी लागू होती है| गूगल इंसानी दिमाग ने ही बनाया है तो गूगल हर समस्या का निदान नहीं दे सकता है|गूगल पर जो लोग जानकारियाँ डाल रहे हैं वो हमारे आपके जैसे ही लोग हैं अगर सब गूगल पर निर्भर हो जायेंगे तो गूगल पर  नयी जानकारियां कहाँ से आयेंगी तो पढने में लीडर बनिए,कुछ नयी किताबें खोजिये कुछ नया पढ़िए और फिर उन जानकारियों को लोगों के साथ साझा कीजिये  जिससे आपकी दी हुए जानकरियों से गूगल का खजाना बढे और आपके फालोवर भी|उन्हीं जानकारियों को आगे बढ़ने का क्या फायदा जो पहले से ही गूगल पर हैं| जब हम हैं है नए  तो अंदाज़ भी नया होना चाहिए क्यूंकि अभी भी गूगल और विकीपीडिया पर पढ़ाई से सम्बन्धित विदेशी सामग्री ज्यादा है तो डूड स्मार्ट क्लास में पढ़ भर लेने से कोई स्मार्ट नहीं हो जाता उसके लिए एक्शन में भी स्मार्टनेस होनी चाहिए तो सोच क्या रहे हैं आप भी उसी युवा आबादी  का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जो कल रोजगार पायेंगे और रोजगार के लिए स्किल्स का होना जरुरी है तो स्किल्स डेवेलप कीजिये और अपनी स्किल्स को इंटरनेट के साथ साझा कीजिये जिससे गूगल पर कुछ नयी बातें आयें और हमारा ह्युमन रिसोर्स बेहतर हो सके| अब सोच क्या रहे हैं चलिए आज कुछ नयी किताबें खरीदीं जाएँ कुछ नया पढ़ा जाए|  
हिन्दुस्तान युवा में 31/08/14 को प्रकाशित 

Friday, August 29, 2014

मुद्दा शिक्षकों को जिम्मेदार बनाने का भी है

निःशुल्क एवं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हर बच्चे का अधिकार है। इसी को ध्यान में रखते हुए विश्व के सभी शीर्ष नेताओं ने इसे सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों का एक हिस्सा बनाया और वर्ष 2015 तक हर बच्चे को प्राइमरी शिक्षा मुहैया कराने का निर्णय लिया। भारत के लिए इस आज की तारीख में इस लक्ष्य की प्राप्ति सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद भी लगभग असंभव दिखती है। किसी भी देश का भविष्य उसके बच्चों के हाथ में होता है और बच्चों का भविष्य उनके शिक्षकों के हाथ में। इसका सीधा-सीधा मतलब यह है की देश का भविष्य शिक्षकों के हाथ में होता है। पर देश के भविष्य के ये कर्णधार आजकल कक्षाओं से अदृश्य होते जा रहे हैं। हाल ही में बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक मध्य प्रदेश के एक विद्यालय की एक अध्यापिका पिछले तेईस वर्षों से अनुपस्थित चल रही हैं। हालांकि यह  एकाकी घटना हो सकती है जिसे हर शिक्षक के संदर्भ में सही नहीं ठहराया जा सकता है। पर यह भी एक कटु सत्य है कि कक्षाओं से शिक्षकों की अनुपस्थिति भारत में एक चिरकालिक समस्या है। शिक्षकों की कक्षाओं से अनुपस्थिति शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के सबसे निंदनीय स्वरूपों में से एक है। वैसे तो कक्षाओं से शिक्षकों की अनुपस्थिति के कई कारण हैं जिनमें से कुछ वास्तविक भी हैं परंतु इसका सबसे बड़ा कारण है शिक्षकों का सरकारी वेतन  लेते हुए भी दूसरे कार्यों जैसे निजी कोचिंग चलाने में व्यस्त रहना। शिक्षकों की अनुपस्थिति का एक और प्रमुख कारण है उनको अन्य सरकारी कार्यों जैसे चुनावों में लगा देना। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार विकासशील देशों में अनुपस्थित रहने वाले शिक्षकों का प्रतिशत 11 से 30 के बीच में है।कार्तिक मुरलीधरन कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय सेन डीयोगे, के शोध के मुताबिक  शिक्षकों की अनुपस्थिति से भारत को प्रतिवर्ष लगभग 1.5 बिलियन डॉलर का नुकसान उठाना पड़ता है। भारत के संदर्भ में चिंतनीय बात यह है कि अनुपस्थित होने के वैध कारण जैसे मेडिकल, आधिकारिक छुट्टी, प्रतिनियुक्ति, राजपत्रित छुट्टियाँ, कुल अनुपस्थिति के केवल 10 प्रतिशत हिस्से को दर्शाते हैं। अनाधिकारिक छुट्टियों से न केवल आर्थिक नुकसान होता है बल्कि पढ़ाई की गुणवत्ता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यह सबसे ज्यादा नुकसानदायक आर्थिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़े छात्रों के लिए होता है जिनके लिए शिक्षा ही उन्नति का एक मात्र जरिया है। भारत सरकार ने सर्व शिक्षा अभियान पर बहुत खर्च किया है। यह खर्च जुटाने के लिए अतिरिक्त कर भी लगाया गया। पर इस अभियान का मूल उद्देश्य जो कि शिक्षा के आधारभूत ढांचे और उसकी गुणवत्ता को बेहतर बनाना था पूर्ण नहीं हो पाया है। चूंकि शिक्षा पर होने वाले खर्च का एक सबसे बड़ा भाग शिक्षकों की तनख़्वाह पर खर्च होता है, इतने बड़े पैमाने पर कक्षाओं से शिक्षकों की अनुपस्थिति का सीधा मतलब है बहुमूल्य सार्वजनिक धन का दुरुपयोग। विश्व बैंक की एक शोध  के अनुसार भारत के सरकारी स्कूलों के औचक निरीक्षण के दौरान लगभग 25 प्रतिशत शिक्षक अनुपस्थित पाये गए और जो उपस्थित थे उनमें से  भी केवल आधे ही कक्षाओं में पढ़ाते मिले। अनुपस्थिति का प्रतिशत महाराष्ट्र, जो कि एक अधिक सम्पन्न राज्य है, में लगभग 15 प्रतिशत था जबकि अपेक्षाकृत पिछड़े राज्य झारखंड में 42 प्रतिशत। साथ ही इस स्टड़ी में यह भी पाया गया कि तनख़्वाह की कमी या अधिकता का शिक्षकों की अनुपस्थिति से कोई संबंध नहीं पाया गया। जो शिक्षक अधिक अनुभवी थे और ज्यादा तनख़्वाह आहरित करते हैं वे भी उतना ही अनुपस्थित रहते हैं जितना की अनुबंध पर कार्य करने वाले वे शिक्षक जो कम तनख़्वाह पाते हैं। प्राइवेट स्कूलों में अनुपस्थिति की समस्या न के बराबर है। वर्ष 2010 में एम॰आइ॰टी द्वारा कराये गए एक सर्वे के अनुसार भारत में अनुपस्थित रहने वाले शिक्षकों पर जब कैमरों से निगाह रखी गयी और उनकी तनख़्वाह को उनके काम करने के वास्तविक दिनों से जोड़ दिया गया तो अनुपस्थित रहने वाले शिक्षकों की संख्या में लगभग 21 प्रतिशत की कमी आई। यह आंकड़ा इस तथ्य को इंगित करता है कि यदि शिक्षकों की तनख़्वाह को उनके काम करने के दिनों से सीधे जोड़ दिया जाये तो शिक्षकों के अनुपस्थित रहने की समस्या से काफी हद तक छुटकारा पाया जा सकता है। इसके अलावा बेहतर निरीक्षण के तरीकों और कठोर अनुशासनिक निर्णयों द्वारा भी इस समस्या से निपटारा पाया जा सकता है। साथ ही विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार यदि शिक्षकों को स्कूलों बेहतर मूलभूत सुविधाएं प्रदान की जाएँ तो भी उनके अनुपस्थित होने की दर में कमी आती है। हालांकि इन सबसे अधिक आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षकों को उनकी ज़िम्मेदारी और उनके कार्य की महत्ता का एहसास दिलाया जाए।
अमर उजाला में 29/08/12 को प्रकाशित 

Monday, August 25, 2014

आधी आबादी के स्वास्थ्य व स्वच्छता का मसला

स्वच्छता सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों में से एक बड़ा मुद्दा है विकासशील देशों के विशेष सन्दर्भ में  इस परिस्थिति में  विशेषकर महिलाओं के स्वास्थ्य और  स्वच्छता के सम्बन्ध में मासिक धर्म पर बात करना भारत में अभी भी ऐसे विषयों की श्रेणी में आता है जिस पर बात करना वर्जित है|स्वतंत्रता दिवस पर दिए गए अपने पहले भाषण  में प्रधान मंत्री मोदी ने महिलाओं की स्वच्छता के मुद्दे की तरफ देश का ध्यान खींचा
भारत में जहाँ पहले से ही इतनी स्वास्थ्य समस्याएं हैं वहां देश की आधी आबादी किस गंभीर समस्या से जूझ रही है इसका सिर्फ अंदाज़ा लगाया जा सकता है |महिलाओं का मासिक धर्म एक सहज वैज्ञानिक और शारीरिक क्रिया है|इस मुद्दे पर हाल ही में सेनेटरी नैपकिन कंपनी व्हिस्पर और मार्किट रिसर्च आई पी एस ओ एस के सर्वे के मुताबिक मासिक धर्म को लेकर गाँवों में ही नहीं बल्कि दिल्ली मुंबई चेन्नई और कोलकाताजैसे शहरों के निवासियों में में भी कई तरह की भ्रांतियां हैं|सर्वे में भाग लेने वाली महिलाओं ने माना कि मासिक धर्म के दिनों में वे अचार का जार नहीं छूती,मंदिरों में नहीं जाती और अपने पतियों के साथ एक बिस्तर पर नहीं सोती|
 सेक्स शिक्षा के अभाव और मासिक धर्म जैसे संवेदनशील विषयों पर बात न करने जैसी परम्परा किशोरियों को एक ऐसे दुष्चक्र में फंसा देती है जिससे निकलने के लिए वो जीवन भर छटपटाती रहती हैं|यह एक ऐसा विषय है जिस पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों मेंप्रजनन स्वास्थ्य का यह सवाल प्रत्यक्ष रूप से सुरक्षित मातृत्व के अधिकार से भी जुड़ता है।जब प्रजनन स्वास्थ्य की बात होगी  तो मासिक धर्म की बात अवश्यम्भावी हो जायेगी| ए सी नील्सन की रिपोर्ट “सेनेटरी प्रोटेक्शन:एवरी विमेंस हेल्थ राईट के अनुसार मासिक धर्म के समय स्वच्छ सेनेटरी  पैड के अभाव में देश की सत्तर प्रतिशत महिलायें प्रजनन प्रणाली संक्रमण का शिकार होती हैं जो कैंसर होने के खतरे को बढाता हैपर्याप्त साफ़ सफाई और स्कूल में उचित शौचालयों के अभाव में देश की तेईस प्रतिशत किशोरियां स्कूल जाना छोड़ देती हैं|भारत में सांस्कृतिक - धार्मिक वर्जनाओं के कारण मासिक धर्म को प्रदूषित कर्म की श्रेणी में माना जाता है|यह वर्जनाएं भारत में क्षेत्र की विविधता के बावजूद सभी संस्कृतियों में समान रूप से मौजूद हैं|
मासिक धर्म के दिनों में महिलाओं और किशोरियों को  घर के सामान्य काम से दूर कर दिया जाता है जिनमें खाना बनाने से लेकर से पूजापाठ जैसे काम शामिल हैं|वैज्ञानिक द्रष्टिकोण और सोच के अभाव में यह परम्परा अभी भी शहरी और ग्रामीण इलाकों में जारी है|किशोरियां भारत की आबादी का पांचवा हिस्सा है पर उनकी स्वास्थ्य जरूरतों के मुताबिक़ स्वास्थ्य कार्यक्रमों का कोई ढांचा हमारे सामने नहीं है|
छोटे शहरों और कस्बों के स्कूलों में महिला शिक्षकों की कमी और ग्रामीण भारत में सह शिक्षा के लिए परिपक्व वातावरण का न होना समस्या को और भी जटिल बना देता है |क्षेत्रीय भाषाओँ में प्रजनन अंगों के बारे में जानकारी देना शिक्षकों के लिए अभी भी एक चुनौती है|पाठ्यक्रम में शामिल ऐसे विषयों पर बात करने से स्वयम शिक्षक भी हिचकते हैं और छात्र छात्राओं को ऐसे विषय खुद ही पढ़ कर समझने होते हैं|
सेक्स शिक्षा की जरुरत पर अभी भी देश में कोई सर्व स्वीकार्यता नहीं बन पायी है,जब भी इस मुद्दे पर एक सर्व स्वीकार्यता की बात शुरू होती है हम अभी इसके लिए तैयार नहीं हमारी संस्कृति को इसकी जरुरत नहीं है जैसे कुतर्क ऐसे किसी भी प्रयास को नाकाम कर देते हैं |हिन्दुस्तान लेटेक्स फैमली प्लानिंग प्रमोशन ट्रस्ट की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में सेनेटरी पैड का प्रयोग कुल महिला जनसँख्या का मात्र दस से ग्यारह प्रतिशत होता है जो यूरोप और अमेरिका के 73 से 92 प्रतिशत के मुकाबले नगण्य है|आंकड़े खुद ही अपनी कहानी कह रहे हैं कि मासिक धर्म जैसे संवेदनशील मुद्दे पर देश अभी भी अठारहवीं शताब्दी की मानसिकता में जी रहा है|
शहरों में विज्ञापन और जागरूकता के कारण यह आंकड़ा पचीस प्रतिशत के करीब है पर ग्रामीण भारत में सेनेटरी पैड और मासिक धर्म,स्वच्छता स्वास्थ्य जैसे मुद्दे एकदम गायब हैं|सेनेटरी पैड के कम इस्तेमाल के कारणों में जागरूकता का अभाव,उपलब्धता और आर्थिक सामर्थ्य का न होना जैसे घटक शामिल हैं|सरकार ने 2010 में मासिक धर्म स्वच्छता योजना,राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत शुरू की थी जिसमें सस्ती दरों पर सेनेटरी पैड देने का कार्यक्रम शुरू किया पर सामजिक रूढिगत वर्जनाओं के कारण इस प्रयास को अपेक्षित सफलता नहीं मिल रही है|सेनेटरी पैड तक पहुँच होना ही एक चुनौती नहीं  है प्रयोग किये गए सेनेटरी पैड का क्या किया जाए यह भी एक गंभीर प्रश्न है|मेरीलैंड विश्वविद्यालय के डॉ विवियन होफमन ने अपने एक शोध में पाया कि बिहार की साठ प्रतिशत महिलायें  प्रयोग किये गए सेनेटरी पैड या कपड़ों को खुले में फैंक देती हैं|प्रजनन अंग संबंधी स्वास्थ्य समस्याओं में सेनेटरी पैड के अलावा साफ़ पानी और निजता(प्राइवेसी ) की कमी भी समस्या एक अन्य आयाम है|मेडिकल प्रोफेशनल भी इस मुद्दे को उतनी गंभीरता से नहीं लेते जितना की अपेक्षित हैमेडिकल स्नातक स्तर इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर एक भी अध्याय पाठ्यपुस्तकों में शामिल नहीं है|सरकारी स्वास्थ्य कार्यक्रमों जैसे पल्स पोलियो,परिवार नियोजन,चेचक खसरा  पर जितना जोर दिया गया है उतना जोर मासिक धर्म,प्रजनन अंगों के स्वास्थ्य आदि मुद्दों पर नहीं दिया जा रहा है | पल्स पोलियो,परिवार नियोजन,चेचक खसरा आदि बीमारियों से बचाव के लिए अनेक जागरूकता कार्यक्रम चलाये गए और दवाओं पर भी पर्याप्त मात्रा में धन खर्च किया गया पर मासिक धर्म स्वास्थ्य जैसा मुद्दा देश में महिलाओं की स्थिति की तरह हाशिये पर ही पडा रहा|
इस दिशा में मेडिकल और पैरा मेडिकल हेल्थ प्रोफेशनल को संयुक्त रूप से  ज्यादा ध्यान देने की आवश्यकता है|
महज़ सेनेटरी पैड बाँट भर देने से जागरूकता आने की उम्मीद करना बेमानी है | राष्‍ट्रीय ग्रामीण स्‍वास्‍थ्‍य मिशन के अंतर्गत सरकार ने प्रत्‍येक गांव में एक महिला प्रत्‍यायित सामाजिक स्‍वास्‍थ्‍य कार्यकर्ता (आशा) की नियुक्ति का प्रावधान किया है प्रत्‍यायित सामाजिक स्‍वास्‍थ्‍य कार्यकर्ता (आशा) समुदायों के बीच स्‍वास्‍थ्‍य सक्रियता पहल करने में सक्रिय है,उन्हें मासिक धर्म स्वास्थ्य जैसे मुद्दे पर जोड़ा जाए और आशा कार्यकर्ता गाँव -गाँव जा कर लोगों को जागरूक करें और महिलाओं की इस मुद्दे के प्रति हिचक तोड़ने का प्रयास करें. जिससे इस समस्या से लोग रूबरू हो सकें और एक बड़े स्तर पर एक संवाद शुरू हो सके और रूढिगत वर्जनाओं  पर प्रहार हो|
आमतौर पर जब तक समाज में यह धारणा रहेगी कि मासिक धर्म महिलाओं से जुड़ा एक स्वास्थ्य मुद्दा मात्र है तब तक समस्या का वास्तविक समाधान होना मुश्किल है यह मुद्दा मानव समाज से जुड़ा मुद्दा है जिसका सीधा सम्बन्ध देश के मानव संसाधन से जुड़ा है.स्वस्थ और विकसित समाज का रास्ता स्वस्थ और शिक्षित महिलाओं से होकर ही गुजरता है|
राष्ट्रीय सहारा में 25/08/14 को प्रकाशित 

Wednesday, August 13, 2014

मोबाइल बदल रहा है विज्ञापन के बाजार को

हमारे जीवन में स्थायी जगह बना चुका मोबाइल फोन अब उन व्यवसायों में सेंध लगाने लगा है, जो इसके पहले तक हमारी दिनचर्या के साथ काफी करीब से जुड़े थे। इंटरनेट सुविधा से लैस सस्ते मोबाइल और स्मार्टफोन बाजार में आने के साथ ही, मीडिया के समीकरण बदलने लगे हैं। माना जा रहा है कि निकट भविष्य में रेडियो, टीवी और समाचार-पत्रों की विज्ञापनों से होने वाली आय में कमी होगी, क्योंकि ये माध्यम एकतरफा हैं। मोबाइल के मुकाबले इन माध्यमों पर विज्ञापनों का रिटर्न ऑफ इन्वेस्टमेंट (आरओआई) कम है। मोबाइल आपको जानता है, उसे पता है कि आप क्या देखना चाहते हैं और क्या नहीं देखना चाहते हैं। मोबाइल फोन के इस्तेमाल से जुड़ा एक दिलचस्प आंकड़ा यह भी है कि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में मोबाइल उपभोक्ताओं की संख्या में कोई खास अंतर नहीं है। मोबाइल के जरिये अब बेहद कम खर्च पर देश के निचले तबके तक पहुंचा जा सकता है।मोबाइल मार्केटिंग एसोसिएशन के अनुसार, भारत में वित्तीय वर्ष 2013 में मोबाइल विज्ञापन 60 प्रतिशत की दर से बढ़ा है। वैश्विक परिदृश्य में शोध संस्था ई मार्केटियर के अनुसार, मोबाइल विज्ञापनों से होने वाली आय में 103 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। साल 2014 की पहली तिमाही में इंटरनेट विज्ञापनों पर व्यय की गई कुल राशि का 25 प्रतिशत मोबाइल विज्ञापनों पर किया गया। इसमें बड़ी भूमिका फ्री मोबाइल ऐप निभा रही हैं, जिनके साथ विज्ञापन भी आते हैं। इस बात ने विज्ञापनदाताओं का भी ध्यान बहुत तेजी से अपनी ओर आकर्षित किया है। इस समय भारत में दिए जाने वाले कुल मोबाइल विज्ञापनों का लगभग 60 प्रतिशत टेक्स्ट के रूप में होता है। आधुनिक होते मोबाइल फोन के साथ अब वीडियो और अन्य उन्नत प्रकार के विज्ञापन भी चलन में आने लगे हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, मार्च 2015 तक भारत में मोबाइल के माध्यम से इंटरनेट का उपभोग करने वालों की संख्या 16 करोड़ से भी अधिक हो जाएगी।मोबाइल फोन एक अत्यंत ही व्यक्तिगत माध्यम है और इसीलिए इसके माध्यम से इसको उपयोग करने वाले के बारे में सटीक जानकारी एकत्रित की जा सकती है। यही इसकी सबसे बड़ी कमजोरी भी है, क्योंकि इसके माध्यम से जुटाई गई जानकारी काफी संवेदनशील हो सकती  है और उस पर आधारित विज्ञापनों को उपभोक्ता अपनी निजी जिंदगी पर हमले के रूप में ले सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि मोबाइल विज्ञापनों को उपभोक्ताओं की मंजूरी के बाद ही उन तक भेजा जाए। यह अत्यंत ही व्यक्तिगत उपकरण है, इसलिए उपभोक्ताओं की मंजूरी से उन वस्तुओं के भी विज्ञापन उन्हें भेजे जा सकते हैं, जिन्हें पारंपरिक माध्यमों द्वारा भेजा जाना संभव नहीं होता है। बावजूद इसके जल्द ही हर तरह के मोबाइल विज्ञापन हमारी जिंदगी का हिस्सा बनने जा रहे हैं।
हिंदुस्तान में 13/08/14 को प्रकाशित 

Tuesday, August 12, 2014

रिश्तों को न बनने दें इतिहास


मेरे एक खुशमिजाज मित्र थे.थे” इसलिए लिख रहा हूँ कि अब उनसे कभी कभार ही बात होती है वो भी मतलब की पर एक वक्त ऐसा भी गुजरा है कि जब  हम बेमतलब की ढेर सारी बातें किया करते थे. फिर हम दोनों के रिश्तों में समस्या आयी क्यूंकि उनकी प्रायरटी बदलने लग गयी पर उस दौर में जब बात करने के सिलसिले कम होने लग गए थे.जब भी उनसे बात होती वो  मुझसे कहते कि काश सब पहले जैसा हो जाए और मैं अक्सर ये सोचा करता था कि क्या सब पहले जैसा हो सकता है और जवाब मिलता नहीं क्यूंकि ज़िन्दगी की कहानी बदल चुकी थी जाहिर है वो मुझसे किनारा करना चाहते थे.जाहिर है मेरी उनसे फिर वो पहले जैसी दोस्ती नहीं हो पायी क्यूंकि जो बीत जाता है वो बीत ही जाता है.वैसे आपको मेरी कहानी में इंटरेस्ट नहीं आया होगा छोडिये इस किस्से को ये बताइए कि आपने ज़िन्दगी के किसी न किसी मोड़ पर कोई कहानी जरुर पढी या सुनी होगी. ज़िन्दगी के साथ साथ हमारे साथ चलने वाली कहानियों के नायक नायिका बदलते जाते हैं पर हर कहानी में एक चीज कॉमन रहती है.आप गेस करेंगे क्या?न आप गलत हैं वो कॉमननेस है एक शब्द की जिसका नाम है थाया थीयानि कहानी में जो कुछ भी होता है वो बीत चुका होता है पर उन कहानियों के माध्यम से हम इंसानी रिश्तों, संघर्षों,तकलीफों को समझ कर आने वाले कल को बेहतर करने की कोशिश करते हैं. छोडिये मैं भी क्या ले बैठा आपको पता है कि इस साल यानि 2014 में  ट्रैफिक लाईट सौ साल की हो गयी मतलब आज से सौ साल पहले ट्रैफिक के लिए इन लाल हरी और पीली बत्तियों का इस्तेमाल होना शुरू हुआ था.लीजिये एक और कहानी ,ट्रैफिक लाईट के इतिहास की कहानी वैसे सुबह सुबह मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं है कि मैं आपके इतिहास ज्ञान को जांचू पर  जब सवाल  इतिहास का हो तो कहानियों का जिक्र आना स्वाभाविक है .बात कहानी से शुरू हुई तो बगैर रिश्ते के कोई कहानी नहीं बनती और हर इतिहास की अपनी एक  कहानी होती है,मतलब कहानी ,रिश्ते और इतिहास तीनों एक दूसरे से इंटरकनिक्टेड हैं.चलिए आज इतिहास की कहानी से ज़िन्दगी के रिश्तों को समझने की कोशिश करते हैं. इतिहास आप के हिसाब से दुनिया का सबसे बोरिंग सब्जेक्ट होगा पर असल में ऐसा है नहीं  इतिहास की बहुत इम्पोर्टेंस है पर हम तो इतिहास को रटने का सब्जेक्ट ही समझते रहे पर इतिहास को समझे बगैर जिन्दगी और रिश्तों की कहानी नहीं समझ सकते .क्या समझे ? समय अच्छा हो या बुरा बीतने को  तो बीत जाता है पर अपने बीतने के निशान जरुर छोड़ जाता है आपने कभी सोचा जो कुछ “था” या “थे” हो जाता है वो सब इतिहास की कहानी बन जाता है. बगैर इतिहास की नींव के हम भविष्य की ईमारत तो नहीं खड़ा कर सकते. बात इतिहास की हो रही थी अब देखिये न हर रिश्ते का एक इतिहास होता है पर जबतक रिश्ते सामान्य रहते हैं हम इस इतिहास पर ध्यान ही  नहीं देते कि ये रिश्ता कैसे बना,कैसे कोई पति ,दोस्त रिश्तेदार बन जाता है  पर जब रिश्ते बिगड़ते हैं तब हम सोचते हैं ऐसा क्यूँ हुआ.जो अपनी गलती से सबक सीख लेते हैं वो इतिहास बना देते हैं  और जो नहीं सीखते हैं वो दूसरों के इतिहास को रटते हैं.कभी बचपने में पढ़ा था की इतिहास अपने आप को दोहराता है पर उसका दुहराव हर बार अलग तरीके से होता है.कहानियां हम सब पढ़ते ,सुनते हैं कुछ सच्ची होती हैं कुछ काल्पनिक पर उनसे सीख क्या लेते हैं ये ज्यादा इम्पोर्टेंट है,रिश्ते बनाना इंसानी फितरत है पर रिश्ते निभाना सबको नहीं आता इसको सीखना पड़ता है.रिश्ते प्यार की नींव,अपनेपन के एहसास और समर्पण की ऊर्जा से चलते हैं. अगर इनमें कमी आती है तो रिश्तों का इतिहास बनते देर नहीं लगती यानि सब कुछ थाया थेहो जाता है तो रिश्तों की कहानी को इतिहास बनने से बचाइये .

 आई नेक्स्ट में 12/08/14 को प्रकाशित 


Friday, August 1, 2014

जो तेरा है वो मेरा है जैसा हक देती दोस्ती

बारिश के मौसम में सिर्फ पानी नहीं बरसता भावनाएं भी बरसती हैं. एहसास से भीगे एक ऐसे ही मौसम में मैं थोडा फलसफाना हुआ जा रहा हूँ.ज़िन्दगी का असल मतलब तो रिश्ते बनाने और निभाने में ही है.ज़िन्दगी कैसी भी हो पर खुबसूरत तो है पर इसकी असल खूबसूरती तो रिश्तों से ही है न अच्छा सोचिये जब बारिश होती है तो इसका लुत्फ़ तो आप तभी उठा सकते हैं जब आपके आस पास लोग हों या उनकी यादें हो सोचिये तो जरा कि बारिश हो रही हो और आपके आस पास न लोग हों और न कोई यादें तब क्या आप ज़िन्दगी की बारिश का मजा ले पायेंगे.मैं भी सोच रहा हूँ कितने लोग मिले बिछड़े सब मुझे याद नहीं हैं पर कुछ दोस्त ऐसे भी हैं जो अब मेरे साथ नहीं हैं पर  उनकी यादें मेरे साथ हैं जिनके साथ का लुत्फ़ मैं बारिश के इस मौसम में उठा रहा हूँ.अच्छा आपके भी कुछ बेस्ट वाले फ्रैंड रहे होंगे पर शायद अब उनसे कभी बात भी न हो पाती हो कारण कुछ भी रहा हो पर आप उन्हें याद तो करते होंगे.
बारिश का मौसम हमेशा नहीं रहता वैसे रिश्ते कोई भी हों हमेशा एक जैसे नहीं रहते अब दोस्ती को ही ले लीजिये न ये रिश्ता इसलिए ख़ास है क्यूंकि सामाजिक रूप से इसको निभाने का कोई मानक नहीं है ऐसे में ये रिश्ता बहुत डेलीकेट हो जाता है.मैं थोडा विस्तार से समझाता हूँ भाई चाचा, चाची, नाना, ताऊ से कैसे बिहेव करना हमें बचपने से सिखाया जाता है पर दोस्ती करना और उसे निभाना हमें कभी नहीं सिखाया जाता है फिर भी बाकी रिश्तों में ये रिश्ता सबसे ख़ास होता है क्यूंकि दोस्ती हम किसी से पूछ के नहीं करते ये तो बस हो जाती है बिंदास जिसमें कोई भी पर्देदारी नहीं होती है “जो तेरा है वो मेरा है” जैसा हक़ और किसी रिश्ते में नहीं होता,दोस्तों में कोई तो हमारा ख़ास दोस्त जरुर  होता है.हमारा सबसे बड़ा राजदार, जिसको हम प्रायरटी देते हैं पर दोस्ती का इम्तिहान तो तब शुरू होता है जब ज़िन्दगी में नए दोस्त बनते हैं.यहाँ कहानी में थोडा ट्विस्ट है कई बार हम जिसे अपना बेस्ट फ्रैंड समझ रहे होते हैं वो बहुतों का बेस्ट फ्रैंड होता है तब शुरू होती हैं प्रोब्लम अब भाई उस दोस्त को सबसे दोस्ती निभानी है और हम हैं कि चाहते हैं वो हमें उतनी प्रायरटी,केयर दे जितनी हम उसे देते हैं और तब शुरू होता है इस रिश्ते का असली इम्तिहान,तुम मुझे फोन नहीं करते तो मैं क्यूँ करूँ,तुम्हारे पास तो टाईम ही नहीं जैसी बातों से शुरू हुआ ये सिलसिला शक और लड़ाई झगडे में तब्दील हो जाता है.जानते हैं ऐसा क्यूँ हो रहा होता क्यूंकि दोस्ती में वो ट्रस्ट का एलिमेंट मिसिंग होने लग जाता है,मेसेज लिख के बगैर भेजे डीलीट कर देना ,कॉल करते करते रुक जाना ऐसा इसलिए होता है क्यूंकि  वो हक़ गायब हो जाता है जो उस “दोस्ती” की जान हुआ करता था और इसके लिए किसी एक को दोषी नहीं ठहराया जा सकता.
इसलिए दोस्ती जब दरकती है तो कष्ट बहुत ज्यादा होता है क्यूंकि इस रिश्ते के चलने या न चलने के पीछे सिर्फ और सिर्फ हम ही जिम्मेदार होते हैं,भाई दोस्ती तो हम ही ने की थी.किसी ने आपसे जबरदस्ती करवाई नहीं थी.आप समझ रहें न रिश्ते कोई भी हों अटेंशन चाहते हैं पर ऐसी सिचुएशन आने पर आप जबरदस्ती किसी दोस्त से दोस्ती नहीं पा सकते तो क्यूँ न ऐसी दोस्ती को एक खूबसूरत मोड़ देकर अपने हाल पर छोड़ दें पर बात इतनी आसान भी नहीं है वैसे कभी आपने सोचा ऐसा क्यूँ हुआ ? आप रिश्ते में डिमांडिंग हो रहे थे और किसी भी रिश्ते में डिमांड नहीं की जाती है रिश्ते तो वही चलते हैं जिनमें प्यार अपनापन ,ट्रस्ट अपने आप मिल जाता है माँगा नहीं जाता और गर दोस्ती में आपको इन सब चीजों की मांग करनी पड़ रही है तो समझ लीजिये कि आपने सही शख्स से दोस्ती नहीं की है.दोस्ती देने का नाम है आपने अपना काम किया पर बगैर किसी अपेक्षा के अपनी कद्र खुद कीजिये जो दोस्त आपकी कद्र न करे उसके जीवन से चुपचाप निकल जाइए जिससे कल किसी बारिश में आप जब पीछे मुड़ कर देखें तो ये पछतावा न हो कि आपके पास दोस्ती की यादों का एल्बम सूना है.
आई नेक्स्ट में 1/08/14 को प्रकाशित 

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