भारत
में महिलाओं का मी टू अभियान पूरी ताकत के साथ खड़ा हो गया है और इसकी धमक के साथ
सत्ता के बड़े बड़े केंद्र हिल गए हैं |विदेश राज्यमंत्री एम् जे अकबर का इस्तीफा उस
हलचल का एक संकेत भर है |इस आन्दोलन के तहत जो खुलासे हुए हैं उनसे साफ़ पता चलता
है की सुशिक्षित ,आधुनिक और संभ्रांत पुरुषों का एक तबका स्त्रियों के प्रति घोर
सामंती नजरिया रखता है |वह मानकर चलता है कि स्त्री उपभोग की वस्तु है |ज्यादा से
ज्यादा औरतों का औप्भोग करना उसके लिए मर्दानगी की सार्थकता है |उसे लगता है अपनी
ताकत और रसूख के बल पर वह महिलाओं को झुकाकर उन्हें कब्जे में कर सकता है |एक औसत
भारतीय पुरुष के अचेतन मन में यह बात बैठी रहती है |अनेक स्रोतों से उसके मन में
बिठा दिया गया है की स्त्री उपभोग के लिए ही बनी है ,लिहाजा रिझाकर या डरा धमका कर उन्हें फांस
लेना चाहिए |और यह जीवन भर चलने वाला सिलसिला है |
औरतों
के बारे में यह राय बना दी गयी है कि वे तो खुद ही फंसना चाहती हैं ,भले ही ऊपर से
वे इसके उलट व्यवहार करें |इस तरह की मान्यताएं ,धर्म शास्त्रों ,साहित्य और समाज
की बतकही के जरिये प्रचारित होती हैं इलेकिन अभी उन्हें बढाने का कार्य हिन्दी
फ़िल्में सबसे ज्यादा उत्साह से कर रही हैं |फिल्म निर्माता निर्देशक अपने साथ
पुरुषवादी मूल्य ही लेकर आते हैं लिहाजा फिल्मों के विषय भी वैसे ही होते
आये हैं |तमाम रौशन ख्याली के बावजूद अपनी पितृ सत्तात्मक सोच से वे मुक्त नहीं हो
सके इसलिए ज्यादातर फ़िल्में स्त्री को दोयम दर्जे का ही रखती हैं |कई फिल्मों में
छेड़ छाड़ को एक रूमानी नजरिये से पेश किया जाता है |अपराधी किस्म का का लड़का नायिका
को तरेह –तरह से तंग करता है और अंत में नायिका उसी से प्रेम करने लगती है |इससे
यह मान्यता स्थापित होती है कि लड़कियों की “न” का मतलब “हाँ” है |यानि उनके पीछे
पड़े रहे तो उन्हें पटाया जा सकता है |लडकी खुद भी कोई निर्णय कर सकती है ,यह बात
निर्माता निर्देशकों के दिमाग में प्रायः नहीं आती |
उनके
गाने सुनिए |उनमें भी पुरुषवादी सोच हावी है |गाने गाते या सुनते वक्त हम अक्सर इस बात पर गौर करना भूल जाते हैं
कि गाने भी एक सोच को ही आगे बढाते हैं |हमारा सिनेमा भले ही सौ साल से ज्यादा का
हो चुका है और हमारी फ़िल्में भी काफी बदली हैं पर गानों में वो पितृ सत्तात्मक सोच लगातार हावी दिखती है
|गानों पर चर्चा करते वक्त हमें यह नहीं भूलना चाहिए ये वही फ़िल्मी गाने हैं जिनके
सहारे भारत में सबसे ज्यादा लडकिया छेड़ी जाती हैं |मुझे याद आता है साल 1993 का वो वाकया जब हम जवान हो रहे थे तब गोविंदा
अभिनीत फिल्म “आँखें” का एक गाना बड़ा प्रसिद्ध
हुआ था जिसके बोल थे “ओ लाल दुप्पट्टे वाली अपना नाम तो बता ओ काले कुरते
वाली अपना नाम तो बता” उस वक्त सड़क पर लाल दुप्पट्टे और काले कुरते पहन के निकलना
लड़कियों के लिए ख़ासा मुश्किल हुआ करता था |बात चाहे मुन्नी की बदनामी हो या शीला
की जवानी चर्चा हमेशा महिलाओं की होती है |बहुत खोजने पर भी आपको लड़कों
के नाम से बने इस तरह के गाने सुनने को नहीं मिलेंगे |फिल्म दिल ही तो है (1963)का
एक गाना है जिसके बोल हैं “तुम मुझे न चाहो तो कोई बात नहीं पर तुम किसी और को
चाहेगी तो मुश्किल होगी”|इस गाने के बोल में प्रेम कम धमकी ज्यादा दिखती है भले ही
फिल्म में नायक अपने प्रेम की पराकाष्ठा को नायिका के सामने दर्शाना चाहता है
|गानों की चर्चा करते हमें यह भी याद रखना होगा कि गानों को गुनगुनाने के लिए पूरी
फिल्म या उसका संदर्भ जानना जरुरी नहीं है |कहीं दिन कहीं रात (1968) फिल्म के
गाने के बोल हैं “तुम्हारा चाहने वाला खुदा कि दुनिया में मेरे सिवा कोई और हो
खुदा न करे” अपनी प्रेमिका के प्रति इस तरह की असुरक्षा समाज में कई तरह की
समस्याओं का कारण बनती है और यह कुछ इसी तरह की सोच है कि महिलाओं को छुपा कर घर
के भीतर ही रखना चाहिए |होली हमारे फिल्मों में हमारे फिल्मकारों का पसंदीदा
त्यौहार रहा है और यह भी इसी सोच की पुष्टि करता है कि हमारे फिल्मकार अभी भी उस पितृ
सत्तात्मक सोच के शिकार हैं |
वो चाहे ये जवानी है दीवानी (2013)का प्रसिद्ध गीत
“बलम पिचकारी जो तूने मुझे मारी” हो जिसमें सीधी सादी छोरी शराबी हो जाती है या
फिर हद दर्जे की जबरदस्ती करने को उकसाता गाना फिल्म कटीपतंग (1971) “आज न छोड़ेंगे
बस हमजोली खेलेंगे हम होली चाहे भीगे तेरी चुनरिया चाहे चोली रे” नायक को किसी भी
तरह से बस होली खेलने से मतलब है |होली से जुड़े ज्यादातर गानों के बोलों में
लड़कियों के कपड़ों पर ज्यादा ध्यान केन्द्रित किया जाता है |घराना (1988) फिल्म का
एक प्रसिद्द गाना है “तेरे डैडी ने दिया है मुझे परमिट तुझे पटाने का”अपने वक्त
में यह गाना भी लम्बे समय तक लोगों के मुंह पर चढ़ा रहा बगैर यह सोचे कि वे क्या गा
रहे हैं लोग गाते रहे |शायद इसका बड़ा कारण हिन्दी फिल्मों में हमेशा से महिला
गीतकारों का कम होना रहा हो इसलिए महिलाओं का पक्ष भी पुरुषवादी नज़रिए से लिखा गया
|यह भी उल्लेखनीय है कि साधना (1958) फिल्म में एक पुरुष साहिर लुधियानवी द्वारा
लिखा गया गीत “औरत ने जन्म दिया मर्दों को,मर्दों ने उसे बाजार दिया” समाज को आज
पचास साल बीतने के बाद भी आईना दिखा रहा है |ये अलग बात है अब भी उसी सोच को आगे
बढाने वाले गाने लगातार लिखे जा रहे है |”ए बी सी डी पढ़ ली बहुत ,अच्छी बातें कर
ली बहुत ,अब करूँगा तेरे साथ गंदी बात”फिल्म :आर राजकुमार (2013) उसी सोच को आगे
बढ़ा रहा है जिस सोच ने महिलाओं को हमेशा एक वस्तु समझा | हालांकि पचास के दशक में सरोज मोहिनी नैय्यर, माया गोविंद, जद्दनबाई फिर नब्बे के
दशक में रानी मलिक और माया गोविन्द के नाम जरुर सामने आते हैं पर
इनमें से कोई भी महिला गीतकार उतनी लम्बी पारी नहीं खेल पाईं जो
पुरुष गीतकारों को हासिल हुईं । समकालीन महिला गीतकारों में कौसर मुनीर अनविता
दत्त गुप्तन और प्रिया पांचाल अपनी पहचान बना पाने में सफल हुई हैं लेकिन इन जैसी
गीतकारों की संख्या जैसे जैसे आगे बढ़ेगी हमारे गाने भी महिलाओं को एक व्यक्ति के
रूप में चित्रित कर पाने में सफल होंगे |
नवभारत टाईम्स में 20/10/18को प्रकाशित
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