Thursday, March 27, 2025
शोर्ट कंटेंट का बढ़ता चलन
Tuesday, March 11, 2025
जीवन जीने का तरीका
Friday, March 7, 2025
सोशल मीडिया और डिजीटल उपनिवेशवाद
स्टैस्टिका के मुताबिक भारत में 90 करोड़ से अधिक
इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं और यह संख्या हर दिन बढ़ रही है। स्मार्टफोन से लेकर सोशल मीडिया तक देश की
अर्थव्यवस्था और सामाजिक ताना-बाना तेजी से डिजिटल हो रहा है। इसमे कोई दो राय
नहीं है कि डिजिटलीकरण हमारे लिए सुविधा, संपर्क और समृद्धि के नए रास्ते खोल
रहा है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या हम सचमुच इस डिजिटल क्रांति के सूत्रधार
हैं, या
फिर बस किसी और के बनाए डिजिटल तंत्र के उपभोक्ता बनकर रह गए हैं? एक समय था जब
औपनिवेशिक ताकतों ने दुनिया पर कब्जा जमाकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया था,
फिर
बारी आई सॉफ्ट पावर यानी संस्कृति, भाषा, मीडिया और कूटनीति के जरिये अपना
प्रभाव बनाने की। अब यह दौर डिजिटल उपनिवेशवाद का है, जहाँ किसी देश
की शक्ति केवल सैन्य बल या सांस्कृतिक प्रभाव से नहीं बल्कि डेटा पर नियंत्रण से
तय होती है।
दुनिया की शीर्ष 10 टेक
प्लेटफॉर्म्स गूगल, फेसबुक, इंस्टाग्राम, अमेजन, एक्स आदि पर भारतीय उपभोक्ताओं की भारी
संख्या है। लेकिन इनमें से एक भी कंपनी भारतीय नहीं हैं। हमारे लोगों का डेटा भारत
में नहीं बल्कि विदेशी कंपनियों के नियंत्रण में है। यह एक तरह के डिजिटल
उपनिवेशवाद को जन्म दे रहा है। जहाँ सूचना और डेटा पर नियंत्रण कुछ गिनी चुनी
वैश्विक कंपनियों के हाथों में केंद्रित हो रही है। इन कंपनियों का नियंत्रण मुख्य
रूप से अमेरिका और कुछ यूरोपीय देशों के हाथों में है। जिससे भारत का डिजिटल
भविष्य बाहरी शक्तियों की नीतियों और व्यावसायिक हितों पर निर्भर होता जा रहा है।
सोशल मीडिया के इस्तेमाल के मामले में 47 करोड़ यूजर्स के साथ भारत , चीन के बाद
विश्व में दूसरा स्थान रखता है। देश में फेसबुक, इंस्टाग्राम,
व्हाट्सअप,
एक्स
और यूट्यूब जैसे वैश्विक प्लेटफॉर्म्स सबसे अधिक प्रचलित हैं। मगर ये कंपनियाँ न केवल हमारे डेटा का आर्थिक शोषण
कर रही ही हैं, बल्कि भारत की चुनाव प्रणाली, न्यायिक फैसलों
और समाज में वैचारिक ध्रुवीकरण को भी प्रभावित कर रही हैं। हैरानी की बात यह है कि
140
करोड़ लोगों के इस देश में कोई भी ऐसा देशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म नहीं है,
जो
इन विदेशी को एप्स के सामने खड़ा हो सके।
पिछले कुछ सालों में इन विदेशी
प्लेटफॉर्म्स ने देश के सामने कई तरह की चुनौतियाँ पेश की हैं। जिनमें डेटा
सुरक्षा, फेक
न्यूज और पक्षपातपूर्ण प्रचार जैसे मुद्दे शामिल हैं। भारत जो दुनिया का सबसे बड़ा
लोकतंत्र है, यहाँ की चुनावी प्रक्रिया में भी इन कंपनियों का हस्तक्षेप लगातार
बढ़ रहा है। संस्था ईको की रिपोर्ट के मुताबिक बीते साल सम्पन्न हुए लोकसभा और
विधानसभा चुनावों में मेटा प्लेटफॉर्म्स पर चुनावी पेड प्रचार और शेडो विज्ञापनों
के जरिये राजनीतिक पार्टियों को लाभ पहुँचाने के आरोप लगे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक
इन प्लेटफॉर्म्स ने ऐसे कई विज्ञापनों को प्रमोट किया जो चुनावी नियमों का उल्लंघन
और भ्रामक जानकारी दे रहे थे। ऐसा ही
मामला साल 2018 में आए कैम्ब्रिज एनालिटिका स्कैंडल ने भी यह उजागर किया था कि कैसे
ये विदेशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स भारतीय मतदाताओं के डेटा का दुरुपयोग कर सकते
हैं। वहीं फेक न्यूज के मामले में साल 2023 में यूनेस्को इपसोस द्वारा किये गये
एक सर्वेक्षण के मुताबिक , देश में शहरी क्षेत्रों के 64 प्रतिशत लोगों
ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को गलत सूचनाओं और फेक न्यूज का प्राथमिक स्रोत माना,
इन
फेक न्यूज के प्रसार में खासकर फेसबुक, व्हाट्सअप और एक्स इनमें प्रमुख भूमिका
निभाते नजर आये। फेसबुक की इंटरनल रिपोर्ट कम्यूनल कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंडिया के
मुताबिक, 2020 में हुए दिल्ली दंगों में फेसबुक और व्हाट्सएप पर 22 हजार से अधिक
ऐसे पोस्ट्स और ग्रुप्स पाये गये, जिनमें सांप्रदायिक नफरत फैलाई जा रही थी। इसी
तरह के मामला 2021 में ट्विटर पर भी सामने आया जब भारत सरकार ने हिंसा फैलने की आशंका
में किसान आंदोलन से जुड़े कुछ अकाउंट्स और ट्ववीट्स को हटाने के निर्देश दिये थे।
लेकिन तब ट्विटर ने पूरी तरह से इसके अनुपालन से इंकार कर दिया था।
मुश्किल बात यह है कि यह विदेशी
कंपनियाँ भारत में काम करने के बावजूद पूरी तरह से भारतीय कानून के अधीन नहीं है
और अक्सर अपनी वैश्विक नीतियों का हवाला देकर बच निकलती हैं। और बात सिर्फ यह नहीं
है कि ये विदेशी कंपनियां भारत में प्रभाव बना रही हैं, बल्कि आर्थिक
दृष्टि से भी यह देश को बड़ा नुकसान पहुँचा रही हैं। उदाहरण के लिए, मेटा और एक्स
जैसे प्लेटफार्म भारत में विज्ञापन से अरबों डॉलर कमाई करते हैं, लेकिन उनका एक
बड़ा हिस्सा विदेशी देशों में चला जाता है। मेटा की इंडिया यूनिट की हाल की जारी
आर्थिक रिपोर्ट के मुताबिक भारत से मेटा जिसमें फेसबुक, व्हाट्सअप,
इंस्टाग्राम
शामिल हैं, ने इस साल भारत से 22 हजार करोड़ रुपये से अधिक के राजस्व की कमाई
की है। लेकिन इसका कोई प्रत्यक्ष लाभ सीधे भारतीय अर्थव्यवस्था को नहीं मिलता है।
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के अलावा एक
बड़ी चुनौती इन कंपनियों के क्लाउड स्टोरेज और डेटा सेंटर्स को लेकर भी है। भारतीय
सरकार और कंपनियाँ बड़े पैमाने पर गूगल ड्राइव, अमेजन एडब्लूएस,
एजोर
जैसे क्लाउड स्टोरेज पर निर्भर हैं, यानी भारत का संवेदनशील डेटा अपने देश में न
होकर विदेशो में संग्रहित होता है। जो देश की सुरक्षा और संप्रभुता पर एक बड़ा
खतरा है। जुलाई 2024 में माइक्रोसॉफ्ट के क्लाउड स्टोरेज में गड़बड़ी होने से पूरे देश
का आईटी सिस्टम 12 घंटे के लिए ठप पड़ गया। अचानक आई एक तकनीकी खामी के कारण देश में
डिजिटल बैंकिंग, रेलवे, मेट्रो, एयरपोर्ट्स, ऑनलाइन सेवाएं और कई अन्य महत्वपूर्ण
प्रणालियां ठप पड़ गईं। जिससे ने केवल रोजमर्रा की जिंदगी घंटो प्रभावित रही बल्कि
देश की अर्थव्यवस्था को भी गहरा आघात पहुँचा। वहीं इस घटना से रूस और चीन पर कोई
असर नहीं दिखाई दिया। दरअसल इन देशों ने 2002 के बाद अपनी
स्वतंत्र तकनीकी संरचना विकसित की, जिसमें अपने क्लाउड सिस्टम, ऑपरेटिंग सिस्टम
और सर्च इंजन शामिल हैं। चीन ने अपने डिजिटल प्रबंधन के लिए स्वेदेशी प्लेटफॉर्म्स
जैसे वी-चैट, वीबो और डोइन जैसे एप्स को विकसित किया है। वहीं रूस ने वीके,
ओड्नोकलास्निकी जैसे प्लेटफॉर्म्स विकसित किये हैं। जो इन
देशों को सूचना प्रवाह पर निगरानी रखने और अमेरिकी प्लेटफॉर्म्स पर निर्भर होने से
बचाते हैं। अब जरूरी यह है कि भारत को भी चीन
और रूस की तरह अपना स्वेदशी सोशल मीडिया और डिजिटल ईकोसिस्टम बनाने की ओर कदम
उठाना चाहिए। हालांकि ऐसा नहीं है कि भारत
में पहले कभी स्वदेशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स बनाने की कोशिश नहीं हुई, शेयरचैट और कू
जैसे प्लेटफॉर्म्स ने एक समय भारतीय बाजार में अपनी पैठ बनाने की कोशिश की थी मगर
लोगों और सरकार के अपेक्षाकृत कम समर्थन के कारण इनका वैश्विक दिग्गजों से मुकाबला
करना बेहद चुनौतीपूर्ण हो गया।
तकनीकी नवाचारों के मामले में भारत की
स्थिति में पिछले कुछ सालों में काफी सुधार आया है। हाल ही में आई ग्लोबल इनोवेशन
इंडेक्स 2024 रैकिंग में 133 देशों में भारत ने 39वां स्थान हासिल
किया है,जो
देश की बढ़ती तकनीकी और डिजिटल क्षमता का प्रमाण है, हालांकि इसमें
अभी भी काफी सुधार की आवश्यकता है। आज भारत में तकनीकी आत्मनिर्भरता की दिशा में
कई बड़े कदम उठाये जा रहे हैं। आधार, यूपीआई और कोविन जैसे स्वदेशी प्लेटफॉर्म्स ने
यह साबित कर दिखाया है कि हम तकनीकी चुनौतियों को कैसे संभाल सकते हैं। अगर भारत
अपना तकनीकी इकोसिस्टम विकसित करता है तो यह देश पर थोपे जा रहे डिजिटल उपनिवेशवाद
का मुकाबला करने के लिए कड़ा कदम होगा। क्योंकि डिजिटल उपनिवेशवाद केवल एक तकनीकी
मुद्दा नहीं बल्कि एक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक चुनौती भी है। हमें अपनी
डिजिटल संप्रभुता बनाए रखने के लिए डेटा की सुरक्षा, स्थानीय नवाचार
का समर्थ और विदेशी तकनीकी कंपनियों की जवाबदेही सुनिश्चित करनी होगी। अब अगर हमने
तकनीकी आत्मनिर्भरता की दिशा में कदम नहीं उठाए तो एक नया डिजिटल उपनिवेशवाद देश
पर हावी हो सकता है।
Friday, February 28, 2025
सॉफ्ट पावर बढाने की राह में क्या हैं चुनौतियाँ
एक ऐसी ताकत जिसे न तो संख्याओं में मापा जा सकता है न ही किसी हथियार या दबाव से हासिल किया जा सकता है। यह किसी राष्ट्र की श्रेष्ठता साबित करने का साधन नहीं बल्कि उसे दूसरों के लिए आकर्षक बनाने का एक जरिया है। अमेरिका ने एक दौर में अपनी सॉफ्ट पावर को हॉलीवुड, मैकडॉनल्ड्स, कोका-कोला और पॉप म्यूजिक के ज़रिए पूरी दुनिया में फैलाया। वहीं दक्षिण कोरिया, जापान और चीन जैसे देश भी दर्शन,के-पॉप, ड्रामा, तकनीक और एनीमेटेड फिल्मों के जरिये अपना वर्चस्व बनाने में लगे हुए हैं। यह भारत की बढ़ती साख का ही प्रमाण है कि जी20, एससीओ और ब्रिक्स जैसे मंचों पर भारत एक अहम भूमिका निभा रहा है। शायद आपको याद हो जब भारत में पहली बार स्टारबक्स खुला था, इसकी दीवानगी लोगों के सिर चढ़कर बोल रही थी। ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने कभी अमेरिका की धरती पर कदम नहीं रखा है, लेकिन वहाँ बसने का सपने देखते हैं। आखिर ऐसा क्या है जो लोगों को किसी राष्ट्र के विचार, भाषा और संस्कृति की ओर इस कदर आकर्षित करता है। ऐसे में बीते कुछ दशक पर नजर डालें तो भारत भी उसी राह पर तेजी से बढ़ रहा है। बॉलीवुड गाने यूरोप से लेकर अफ्रीका तक गूंज रहे हैं, योग, आयुर्वेद ने अमेरिका और यूरोप को भारतीय जीवनशैली से जोड़ दिया है। भारतीय धर्म, संस्कृति और लोकतांत्रिक मूल्यों को आज दुनिया भर में सराहा जा रहा है।ब्रांड फाइनेंस की ग्लोबल सॉफ्ट पावर इंडेक्स 2024 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत ने दुनियाभर में सॉफ्ट पावर के मामले में 29वाँ स्थाान हासिल किया है। जिनमें कला और मनोरंजन में 7वां, कल्चर हैरिटेज में 19वां और भोजन के मामले में 8वां स्थान हासिल किया है। यह आंकड़े बात को दिखाते हैं कि भारत ने सिनेमा से लेकर विविध व्यंजनों तक वैश्विक संस्कृति पर गहरा असर डाला है। अंतरराष्ट्रीय योग दिवस भी भारत की एक सफल कूटनीति और बढ़ती सॉफ्ट पावर का प्रतीक है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित अतंरराष्ट्रीय योग दिवस अब 192 से भी अधिक देशों में मनाया जाता है।कभी भारत में योग को केवल आध्यात्मिक साधना समझा जाता था, लेकिन आज दुनिया के हर कोने में योग सेंटर्स खुल गये हैं। भारतीय फिल्मों ने भी सॉफ्ट पावर में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, फिल्मों ने भारतीय संस्कृति, रीति रिवाज फैशन और संगीत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय किया है। राज कपूर की फिल्में जिनका एक समय सोवियत रूस में गहरी छाप छोड़ी थी से लेकर दंगल, बाहुबली और आरआरआर जैसी फिल्मों ने कई देशों में कमाल बॉक्सऑफिस कर देश की सॉफ्ट पावर बढ़ाने में योगदान दिया है। नेटफ्लिक्स, अमेजन प्राइम जैसे स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म्स के आने से भारतीय फिल्मों और सीरीज की उपलब्धता दुनियाभर में कई भाषाओं में बढ़ गई हैं। जहाँ एक समय हॉलीवुड फिल्मों में भारतीयों को नकारात्मक, मजाकिया या रूढ़ीवादी तौर पर छोटे किरदार दिये जाते थे। वहीं आज उन फिल्मों ने भारतीय लीड, मजबूत और गंभीर किरदारों के रूप में सामने आते हैं। सीटाटेल, क्वांटिको, लाइफ ऑफ पाई, मिस मार्वेल जैसी फिल्में इसकी उदाहरण हैं।
विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में भी भारत अपना परचम लहरा रहा है। गिटहब की एक रिपोर्ट के मुताबिक जेनरेटिव एआई डेवलपर्स की संख्या के मामले में भारत दुनिया में दूसरे स्थान पर है। वहीं 2028 तक भारत अमेरिका को पीछे छोड़ पहला स्थान हासिल कर लेगा। दुनियाभर की कई बड़ी टेक कंपनियों में भारतीयों ने गहरी छाप छोड़ी है। हुरुन ग्लोबल इंडियन लिस्ट के मुताबिक 1 ट्रिलियन डॉलर अधिक राजस्व वाली 35 कंपनियों में भारतीय मूल के सीईओ काबिज हैं। स्पेस टेक के क्षेत्र में भी इसरो के चंद्रयान और मंगलयान मिशन, कमर्शियल उपग्रह प्रक्षेपण सेवाओं से भारत अंतरिक्ष महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है। कोविड महामारी के दौरान भारत ने वैश्विक समुदाय की सहायता के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाये, चिकित्सा आपूर्ति,वेंटिलेटर, पीपीई किट और वैक्सीन डिपलॉमेसी से जरिये भारत को अपने मूल्यों के लिए विश्व भर से सराहना मिली। डिजिटल इंफ्रा जैसे यूपीआई जैसे प्लेटफॉर्म्स को नेपाल, भूटान और यूएई जैसे देशों में लॉन्च किया गया है, और धीरे धीरे इसका अन्य देशों में भी विस्तार किया जा रहा है। वहीं जलवायु परिवर्तन औऱ सतत विकास वैश्विक एजेंडे को लेकर भारत ग्रीन टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में अगुआई करते हुए 2030 तक 500 गीगावॉट नवीनीकरण ऊर्जा उत्पादन का महत्वकांक्षी लक्ष्य रखा है। इस दिशा में भारत ने फ्रांस के साथ मिलकर अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन की नींव रखी, जिसमें 120 से अधिक देश शामिल होकर सौर ऊर्जा के वैश्विक विस्तार को गति दे रहे हैं। विदेश मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक 2024 तक भारत के बाहर 3.54 करोड़ अनिवासी भारतीय यानी एनआरआई और भारतीय मूल के लोग यानी पीआईओ रह रहे हैं। जो वैश्विक स्तर पर भारतीय संस्कृति, व्यंजन, भाषा और परंपराओं को फैला रहे हैं। भारतीय समुदाय ने न केवल खुद को व्यावसायिक रूप से स्थापित किया है बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रो में भी प्रभावी भूमिका निभाई है।हालांकि भारत के एक सॉफ्ट पावर बनने की राह आसान नहीं है, इसमें ढेरों चुनौतियाँ भी हैं। भारत ने अपनी सॉफ्ट पावर कूटनीति में योग,आयुर्वेद, बौद्ध धर्म, क्रिकेट, प्रवासी, फिल्में, भोजन और गाँधीवादी आदर्श आदि को शामिल किया है, मगर यह काफी नहीं है। शिक्षा के क्षेत्र में भारत, अमेरिका, यूरोप और अन्य कई देशों की तुलना में काफी पीछे हैं। भारत जिसके पास नालंदा, तक्षशिला जैसे प्राचीन विश्वविद्यालयों की विरासत रही है, आज उच्च शिक्षा और अनुसंधान के क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के जूझ रहा है। क्यूएस वर्ल्ड रैंकिंग के मुताबिक टॉप 200 विश्वविद्यालयों की लिस्ट में भारत के मात्र तीन कॉलेज आते हैं। वहीं ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स 2024 में भारत 39वें स्थान पर रहा है। 140 करोड़ की जनसंख्या वाला भारत प्रति व्यक्ति आय के मामले में 141 वें, हैप्पीनेस इंडेक्स में 135वें और ग्लोबल हंगर इडेक्स में 101वें स्थान पर है, जो कि काफी चिंताजनक है। बीते दो दशक में भारत की स्थिति में सुधार तो हुआ है , मगर आंतरिक समस्याएं जैसे प्रदूषण, गरीबी, बेरोजगारी आदि से देश की छवि को नुकसान पहुँचता है। भारत को सॉफ्ट पावर बनने के लिए सांस्कृतिक कूटनीति को प्रोत्साहित करना होगा। जिसके लिए भारतीय संस्कृति, कला, संगीत, दर्शन आदि को विश्व में लोकप्रिय बनाना, स्वास्थ्य, शिक्षा और बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाना, साथ ही सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के माध्यम से भारत की सकारात्मक छवि को प्रस्तुत करना। हाल ही में प्रसार भारती का वर्ल्ड ऑडियो विजुअल और एंटरटेनमेंट समिट वेव्स और ओटीटी प्लेटफॉर्म भारत की सांस्कृतिक और मीडिया सॉफ्ट पावर को आगे बढ़ाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।भले ही भारत की सॉफ्ट पावर बनने की यात्रा में कई प्रकार की चुनौतियाँ हैं, लेकिन भारतीय नैरेटिव को मजबूती से प्रस्तुत करना इस दिशा में एक निर्णायक कदम हो सकता है। सॉफ्ट पावर केवल संस्कृति के आदान प्रदान का मामला नहीं है, यह एक लंबी और सतत प्रक्रिया है जिसमें जिसमें लोकतंत्र, मानवाधिकार और सांस्कृतिक मूल्यों का प्रचार-प्रसार अत्यंत महत्वपूर्ण है। क्योंकि सॉफ्ट पावर तभी काम करती है जब वह प्रामाणिक और सच्ची हो। अगर भारत इसे सही दिशा में आगे बढ़ाता है तो आने वाले वर्षों में यह न केवल एक सॉफ्ट पावर के रूप में बल्कि एक विश्व गुरु के रूप में भी उभर कर सामने आ सकता है।
नवभारत टाईम्स नमें 28/02/2025 को प्रकाशित
Saturday, February 15, 2025
गिग वर्कर्स भी हमारे समाज का हिस्सा हैं
Thursday, February 13, 2025
फर्जी समाचारों के लिए फैक्ट चेकिंग व्यवस्था
हालांकि मेटा के इस कदम को कई विशेषज्ञ आलोचनात्मक नजरों से देख रहे हैं और इसे राजनीतिक दबाव के चलते लिया गया फैसला बता रहे हैं। इस निर्णय की घोषणा नए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के शपथ ग्रहण से ठीक पहले होना भी इस फैसले को कटघरे में खड़ा करता है। नया कम्यूनिटी नोट्स मॉडल, माइक्रो ब्लॉगिंग साइट एक्स के सामुदायिक नोट्स कार्यक्रम की तरह काम करेगा। जिसे ट्विटर ने 2021 में बर्डवॉच नाम से शुरू किया था। इसके तहत यूजर्स पोस्ट्स पर नोट्स जोड़ सकते हैं और यूजर्स की रेटिंग्स से कंटेंट की गुणवत्ता सुनिश्चित की जाती है। पांरपरिक फैक्ट चैकिंग प्रोग्राम के विपरीत नोट्स को कर्मचारियों या एक्सपर्ट्स द्वारा संपादित नहीं किया जाता, यह पूरी तरह यूजर्स पर निर्भर है। कंपनी के मुताबिक थर्ड पार्टी फैक्ट-चेकिंग में विशेषज्ञों का पूर्वाग्रह, पक्षपाती रवैया हो सकता है, जिससे वे एक पक्ष की ओर झुक सकते हैं।यह बदलाव खासतौर पर भारत जैसे देश में फेक न्यूज के प्रसार को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है। साल 2024 में विश्व आर्थिक मंच द्वारा जारी ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में फेक न्यूज और गलत सूचना प्रसार के जोखिम के मामले में भारत पहले स्थान पर है। देश में फैक्ट चैकिंग पेशेवरों की माँग लगातार बढ़ रही है, वहीं इन संस्थानों का एक बड़ा हिस्सा मेटा की वित्तीय सहायता पर निर्भर है।
थर्ड पार्टी फैक्ट चैकिंग प्रोग्राम के बंद होने से इन संस्थानों की आर्थिक स्थिरता पर भी खतरा मंडरा रहा है, जिससे फर्जी खबरों और गलत सूचनाओं के प्रसार को रोकने में चुनौतियाँ काफी बढ़ सकती हैं। हालांकि अभी कंपनी ने भारत में इस प्रोग्राम को बंद करने की घोषणा नहीं की है, लेकिन इस कदम से इन फैक्ट चैकिंग संस्थानों की चिंता बढ़ गई है। इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस और साइबरपीस द्वारा किये गये एक शोध ने भारत में बढ़ते फेक न्यूज प्रसार और डीपफेक जैसी चिंताओं को लेकर बड़ा खुलासा किया है। अध्ययन के मुताबिक गलत सूचना के प्रसार के मामले में सोशल मीडिया एक प्रमुख स्त्रोत है। सोशल मीडिया पर फैलने वाली फेक न्यूज में 46 प्रतिशत राजनीति से जुड़े, 16.8 प्रतिशत धर्म से जुड़े और 33.6 प्रतिशत सामान्य मुद्दे हैं। शोध में ट्विटर 61 प्रतिशत और फेसबुक 34 प्रतिशत फेक न्यूज फैलाने वाले प्रमुख प्लेटफ़ॉर्म के रूप में पहचाने गये। वहीं 2019 में माइक्रोसॉफ्ट के एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि भारत में 64% इंटरनेट यूजर्स ने फर्जी खबरों का सामना किया है, जो विश्व स्तर पर सबसे अधिक है। पीआईबी की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2024 में देश में 583 भ्रामक समाचारों की पहचान की गई, जिनमें से 36 प्रतिशत खबरें सरकारी योजनाओं से जुड़ी थीं। पिछले कुछ सालों में कई बार ये फर्जी खबरें लोगों के लिये जानलेवा भी साबित हुई, उदाहरण के लिए अमेरिकन जर्नल ऑफ ट्रापिकल मेडिसिन एंड हाइजीन में छपे एक शोध के मुताबिक कोविड महामारी के दौरान कई तरह की अफवाहों और गलत सूचनाओं के चलते करीब 800 लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी थी। वहीं भारत में 2018 में झारखंड और उत्तर प्रदेश में सोशल मीडिया पर अफवाह फैलने पर मॉब लिंचिंग की घटनाएं बढ़ गई थी। सीएए आंदोलन, दिल्ली दंगे और किसान आंदोलन के वक्त भी अफवाहों से स्थिति तनावपूर्ण हो गई थी।
पर आखिर मेटा के इस फैसले के क्या खतरे हो सकते हैं? दरअसल एक्सपर्ट्स और फैक्ट चैकर्स के बिना अप्रशिक्षित यूजर्स को फेक न्यूज की पहचान करने में कठिनाई हो सकती है, और निगरानी के बगैर राजनीतिक या प्रोपागेंडा आधारित कंटेंट प्लेटफॉर्म पर हावी हो सकता है जो बड़ी जनसंख्या को प्रभावित भी कर सकता है। आज के दौर में फे़सबुक और वाट्सऐप जैसे प्लेटफॉर्म्स पर फ़ेक न्यूज़ और ग़लत सूचनाओं की बाढ़ आई हुई है। किस पर भरोसा करें और किस पर नहीं, यह बड़ी चिंता का विषय है। तटस्थ और फैक्ट चेक के बिना के कंटेंट से राजनीतिक पार्टियों और विचारों को हेरफेर और ध्रुवीकरण करने का मौका मिल सकता है, विशेष रूप से यह बहुसंख्यकवादी विचारों को लागू कर सकता है। ऐसा देखा गया है कि कई बार फेक न्यूज को आंकने में मुख्यधारा की मीडिया तक चकमा खा जाती है, ऐसे में पेशेवर फैक्ट चैकर्स, पत्रकारों और एक्सपर्ट्स को छोड़ आम यूजर्स पर यह जिम्मेदारी डालना खतरनाक हो सकता है। और एआई, डीप फेक के दौर में फेक न्यूज के खिलाफ चल रहा दुनियाभर में संघर्ष कमजोर हो सकता है। भारत जैसे देश में जहाँ सांस्कृतिक और राजनीतिक विविधता कम्यूनिटी फैक्ट चैकिंग को चुनौतीपूर्ण बनाती है, क्योंकि जटिल मुद्दों, भाषणों की सटीक व्याख्या के लिए पेशेवर विशेषज्ञों की आवश्यकता जरूरी रहती है । इंडिया टुडे फ़ैक्ट चेक, द क्विंट,बूम, एल्ट न्यूज जैसी भारतीय फैक्ट चैकिंग संस्थाओं के लिए मेटा के थर्ड पार्टी चैकिंग प्रोग्राम का हिस्सा फंडिंग का अहम स्रोत है अगर यह बंद हो जाता है तो हजारों फैक्ट चैकर्स के लिए रोजगार का संकट भी खड़ा हो सकता है और अब इन संस्थाओं को अन्य वैकल्पिक वित्तीय स्रोत भी बनाने होंगे। ऐसे में भले ये कंपनियाँ अपनी जिम्मेदारी से भागने की कोशिश कर रही हों, यह जिम्मेदारी अब सरकार और पत्रकारों और स्वतंत्र फैक्ट चैकर्स की है कि वह कैसे मीडिया की विश्वसनीयता सुनिश्चित करते हैं और झूठे दावों, खबरों और अफवाहों को सामने लाकर फेक न्यूज के मकड़जाल का सामना करते हैं।
दैनिक जागरण में 13/02/2024 को प्रकाशित
Friday, January 31, 2025
प्रैंक वीडियो को लेकर सजगता जरुरी
आजकल फेसबुक, इंस्टाग्राम, और यूट्यूब पर
संगीत के बाद सबसे अधिक देखे जाने वाले वीडियो में फनी वीडियो या प्रैंक वीडियो
सबसे लोकप्रिय हैं। इंसान सदियों से एक दूसरे के साथ मजाक करता आ रहा है। जब हमें
पहली बार यह एहसास हुआ कि अपनी सामाजिक शक्ति का हेर फेर करके दूसरों की कीमत पर
मजाक उड़ाया जा सकता है, तब से प्रैंक
या मजाक सांस्कृतिक मानकों द्वारा निर्धारित होते आए हैं, जिसमें टीवी, रेडियो, और इंटरनेट भी शामिल हैं। लेकिन जब सांस्कृतिक और व्यावसायिक मानक
मजाक करते वक्त आपस में टकराते हैं और उन्हें जनमाध्यमों का साथ मिल जाता है, तो इसके परिणाम भयानक
हो सकते हैं।
दिसंबर 2012 में, जैसिंथा सल्दान्हा नाम की एक भारतीय
मूल की ब्रिटिश नर्स ने एक प्रैंक कॉल के बाद आत्महत्या कर ली थी। इसके बाद दुनिया
भर में बहस छिड़ गई कि इस तरह के मजाक को किसी के साथ करना और फिर उसे रेडियो, टीवी, या इंटरनेट के माध्यम से लोगों तक
पहुंचाना कितना जायज है।
दुनिया
में ऑनलाइन प्रैंक वीडियो की शुरुआत यूट्यूब और फेसबुक जैसी साइट्स के आने से पहले
हुई थी। साल 2002 में, एक इंटरैक्टिव फ्लैश वीडियो स्केयर प्रैंक के नाम से पूरे इंटरनेट पर
फैल गया था। थॉमस हॉब्स उन पहले दार्शनिकों में से थे जिन्होंने माना कि मजाक के
बहुत सारे कार्यों में से एक यह भी है कि लोग अपने स्वार्थ के लिए मजाक का
इस्तेमाल सामाजिक शक्ति पदानुक्रम को अस्त-व्यस्त करने के लिए करते हैं।
सैद्धांतिक रूप से, मजाक की
श्रेष्ठता के सिद्धांतों को मनोविज्ञान और समाजशास्त्र के बीच संघर्ष और शक्ति
संबंधों के संदर्भ में समझा जा सकता है। विद्वानों ने स्वीकार किया कि संस्कृतियों
में, मजाक और प्रैंक का इस्तेमाल अक्सर हिंसा को सही
ठहराने और मजाक के लक्ष्य को अमानवीय बनाने के लिए किया जाता है। इन सारी अकादमिक
चर्चाओं के बीच भारत में इंटरनेट पर मजाक का शिकार हुए लोगों की चिंताएं गायब हैं।
सबसे
मुख्य बात सही और गलत के बीच का फर्क मिटना है, जो सही है उसे गलत मान लेना और जो गलत है उसे सही मान लेना। जिस गति
से देश में इंटरनेट पैर पसार रहा है, उस गति
से लोगों में डिजिटल साक्षरता नहीं आ रही है, इसलिए निजता के अधिकार जैसी आवश्यक बातें कभी विमर्श का मुद्दा नहीं
बनतीं। किसी ने किसी से फोन पर बात की और अपना मजाक उड़ाया, यह मामला तब तक व्यक्तिगत रहा। फिर वही वार्तालाप इंटरनेट के माध्यम
से सार्वजनिक हो गया। जिस कंपनी के सौजन्य से यह सब हुआ, उसे हिट्स, लाइक्स, और पैसा मिला, पर जिस व्यक्ति
के कारण यह सब हुआ, उसे क्या मिला? यह सवाल अक्सर नहीं पूछा जाता। इंटरनेट पर ऐसे सैकड़ों ऐप हैं, जिनको डाउनलोड करके आप मजाकिया वीडियो देख सकते हैं और ये वीडियो आम
लोगों ने ही अचानक बना दिए हैं। कोई व्यक्ति रोड क्रॉस करते वक्त मेन होल में गिर
जाता है और उसका फनी वीडियो इंटरनेट पर वायरल हो जाता है और फिर अनंतकाल तक के लिए
सुरक्षित भी हो जाता है।
मजाकिया
और प्रैंक वीडियो पर कहकहे लगाइए, पर जब
उन्हें इंटरनेट पर डालना हो, तो क्या जाएगा
और क्या नहीं, इसका फैसला कोई सरकार नहीं, हमें और आपको करना है। इसी निर्णय से तय होगा कि भविष्य का हमारा समाज
कैसा होगा।