Wednesday, November 5, 2025
जेन जी और बेड रॉटिंग संस्कृति
Monday, October 13, 2025
स्वदेशी मैसेजिंग एप अरट्टै की बढ़ती लोकप्रियता
पिछले दिनों देश के डिजीटल मेसेजिंग इकोसिस्टम में एक ऐसा बवंडर मचा जिसने सारी दुनिया में मशहूर हो चुके व्हाट्स एप के नीति नियंताओं के माथे पर पसीने की बूंदें ला दी. वो है भारत का देशी मेसेजिंग एप 'अरट्टै' .प्रधानमंत्री मोदी द्वारा 'स्वदेशी तकनीक' अपनाने की अपील (15 अगस्त 2025, 30 अगस्त 2020), तथा मंत्रियों और उद्योगपतियों के अभियान की वजह से अक्टूबर 2025 के पहले तीन दिनों में अरट्टै 7.5 मिलियन डाउनलोड के आंकड़े तक पहुंच गया—जहां रोजाना साइन-अप्स 3,000 से बढ़कर 3,50,000 तक जा पहुंचे। वर्तमान में अरट्टै के 1 मिलियन से अधिक मासिक सक्रिय प्रयोगकर्ताओं हैं, जबकि व्हाट्सएप के भारत में मासिक सक्रिय प्रयोगकर्ताओं की संख्या 535.8 मिलियन से अधिक है.यहाँ तक ऐसी भी घटनाएँ भी लोगों ने फेसबुक पर साझा की जब उन लोगों ने अरट्टै की खूबियाँ गिनाते हुए पोस्ट लिखी तो उनका अकाउंट कुछ घंटों के लिए सस्पेंड कर दिया गया .हालंकि इस तथ्य की पुष्टि नहीं हो पाई है फिर भी अरट्टै ने एक चुनौती तो जरुर पेश की है.
'अरट्टै' को समझने से पहले ज़ोहो को समझना ज़रूरी है। यह कोई नई स्टार्टअप नहीं, बल्कि एक स्थापित भारतीय टेक्नोलॉजी दिग्गज कम्पनी है जो दुनिया भर में कारोबार करती है. ज़ोहो का इकोसिस्टम सिर्फ एक ऐप तक सीमित नहीं है। यह ज़ोहो मेल (ईमेल सेवा), ज़ोहो राइटर (डॉक्यूमेंट), ज़ोहो शीट (स्प्रेडशीट) और ज़ोहो शो (प्रेजेंटेशन) जैसे दर्जनों सॉफ्टवेयर एप्लीकेशन का एक मजबूत सूट प्रदान करता है।इसको हम गूगल सूट जैसा भी समझ सकते हैं पर कंपनी की प्रसिद्धि उसकी गोपनीयता-केंद्रित और विज्ञापन-मुक्त नीतियों पर बनी है.जहाँ गूगल और मेटा (फेसबुक) जैसी टेक कम्पनियां प्रयोगकर्ताओं के आंकड़ों और उनको दिखाए जाने वाले विज्ञापनों पर केन्द्रित हैं वहीं ज़ोहो फिलहाल प्रयोगकर्ताओं के डाटा का ऐसा इस्तेमाल नहीं कर रही हैं और भारत का डाटा भारत में ही रहेगा .इसी दुनिया का नया सदस्य है 'अरट्टै', जिसका तमिल में अर्थ है 'गपशप'। यह ऐप उन सभी बुनियादी फीचर्स के साथ आता है जिनकी आप एक मैसेजिंग ऐप से उम्मीद करते हैं - टेक्स्ट मैसेज, वॉयस और वीडियो कॉल, 1000 सदस्यों तक के ग्रुप चैट और मल्टीमीडिया शेयरिंग।
भारत की एप इकोनोमी बहुत तेजी से बढ़ रही है जबकि चीन राजस्व और उपभोग के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा बाजार बना हुआ है। वहीं अमेरिकन कम्पनियां एप निर्माण के मामले में शायद सबसे ज्यादा इनोवेटिव (नवोन्मेषी) हैं। भारत सबसे ज्यादा प्रति माह एप इंस्टाल करने और उसका प्रयोग करने के मामले में अव्वल है। भारतीय एप परिदृश्य का नेतृत्व टेलीकॉम दिग्गज एयरटेल और जिओ करते हैं, यद्यपि स्ट्रीमिंग कम्पनियाँ जैसे नोवी डिजिटल, जिओ सावन और पेटीएम, फोन पे और फ्लिप्कार्ट जैसी ई-कॉमर्स साइट्स ने अपने आप को वैश्विक परिदृश्य पर भी स्थापित किया है।फोर्टी टू मैटर्स डॉट कॉम के अनुसार गूगल प्ले स्टोर पर कुल अक्टूबर 2025 तक गूगल प्ले स्टोर पर कुल 2,083,249 ऐप्स उपलब्ध हैं, जिनमें भारतीय ऐप्स की संख्या 89,083 बनी हुई है, जो कुल ऐप्स का करीब 4.3% है। कुल ऐप पब्लिशर्स की संख्या 611,857 है, जिनमें 15,541 भारतीय ऐप पब्लिशर्स हैं—यह सभी पब्लिशर्स का करीब 2.5% है।
आंकड़ों के नजरिये से देश में उपभोक्ताओं की उपलब्धता के हिसाब से भारतीय ऐप की संख्या अब भी बहुत कम है।वैश्विक परिदृश्य में आंकड़ों के विश्लेषण से कई रोचक तथ्य सामने आते हैं.फोर्टी टू मैटर्स वेबसाईट के मुताबिक़ प्ले स्टोर पर भारतीय ऐप्स की औसत डाउनलोड संख्या 574,860 है, जबकि प्ले स्टोर पर सभी ऐप्स की औसत डाउनलोड संख्या 492,020 है.यह भी भारतीय ऐप विकासकों के लिए एक सकारात्मक आंकड़ा है. प्ले स्टोर पर उपलब्ध कुल भारतीय ऐप्स की औसत रेटिंग 2.75 है, जबकि प्ले स्टोर पर सभी ऐप्स की औसत रेटिंग लगभग 1.99 है, यानी भारतीय ऐप्स की गुणवत्ता वैश्विक औसत से थोड़ी बेहतर मानी जा सकती है.
किसी भी भारतीय कम्पनी का मोबाइल इतनी ग्लोबल रीच नहीं रखता। भारत चीन के बाद दुनिया में सबसे बड़ा मोबाइल बाजार है, पर कोई भी भारतीय कम्पनी मोबाइल बाजार में अपना स्थान नहीं बना पाई।ऐप बाजार में भारत के पिछड़े होने का एक बड़ा कारण कोडिंग की पढ़ाई देर से शुरू होना भी है .हालाँकि नयी शिक्षा नीति 2020 ने इस अंतर को पाटने की कोशिश की है पर इसका परिणाम साल 2030 के बाद दिखेगा.
ऐसे में 'अरट्टै' वाकई व्हाट्सएप को कितनी कड़ी टक्कर दे पायेगा यह कहना अभी मुश्किल है .जैसे व्हाट्सएप का एंड-टू-एंड एन्क्रिप्शन हर मैसेज, कॉल, फोटो और वीडियो को इतना सुरक्षित बनाता है कि कोई तीसरा खुद व्हाट्सएप इन्हें पढ़ या सुन नहीं सकता। वहीं अरट्टै में यह सुरक्षा सिर्फ वॉयस और वीडियो कॉल तक सीमित है, टेक्स्ट मैसेज के लिए नहीं। जिनके लिए डिजिटल गोपनीयता सबसे ज़रूरी है,उन लोगों का भरोसा 'अरट्टै' को अभी जीतना होगा.दूसरा मैसेजिंग ऐप्स की सबसे बड़ी ताकत होता है उनका यूज़र नेटवर्क। “सभी कोई व्हाट्सएप पर है!” ऐसे में क्यों कोई नया यूज़र उस ऐप पर जाने का जोखिम उठाए, जहाँ उसके दोस्त-परिवार, , रिश्तेदार कोई है ही नहीं? इस नेटवर्क इफेक्ट को तोड़ना किसी भी नए ऐप के लिए पानी पर चलने जैसा है.
करोड़ों भारतीय व्हाट्सएप के डिजाइन और फीचर्स के इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि उन्हें किसी नए प्लेटफॉर्म पर जाने के लिए राजी करना बहुत मुश्किल काम है। एक बार जो डिजिटल आदतें बन जाती हैं, उनको बदलना बेहद धीमा और जटिल काम है. जैसे कू व हाईक जैसे स्वदेशी ऐप्स को शुरुआती उत्साह, सरकारी समर्थन, और ट्विटर विवादों के चलते खूब डाउनलोड तो मिले, लेकिन टिकाऊ सफलता हासिल नहीं हो सकी. अरट्टै के पास ज़ोहो की तकनीकी क्षमता, भारत केंद्रित सर्विस, और प्रमोटर्स का समर्थन तो है. लेकिन प्रयोगकर्ताओं को प्लेटफॉर्म बदलने के लिए ठोस कारण देना, लोगों की निजता की गारंटी देना , और लगातार नवाचार ही अरट्टै जैसे एप के भविष्य का निर्धारण करेगा.
Thursday, October 9, 2025
डिजिटल तकनीक से जुड़ी चुनौतियाँ और सम्भावनाएं
Wednesday, October 8, 2025
इस माईक्रो ड्रामा के आप भी किरदार
Wednesday, October 1, 2025
ट्रैवल व्लॉगिंग का जादू और नेपथ्य में जाता यात्रा लेखन
Thursday, September 25, 2025
सोशल मीडिया एल्गोरिदम आपको नियंत्रित करते हैं
कुल मिलाकर, यूट्यूब और सोशल मीडिया पर कंटेंट की यह विविधता बताती है कि दर्शकों की रुचि अब सिर्फ हँसी-मज़ाक या हल्के मनोरंजन तक सीमित नहीं है। लोग इन वीडियो से सीखना चाहते हैं, सुकून पाना चाहते हैं और रोज़मर्रा की ज़िंदगी के छोटे-छोटे अनुभवों का आनंद लेना चाहते हैं।
यही वजह है कि सोशल मीडिया और यूट्यूब पर अब अचानक ऑडली सेटिस्फाइंग वीडियो की जैसे बाढ़ आ गई है। ऑडली सैटिसफाइंग का मतलब ऐसे वीडियो जो देखने में भले ही सामान्य या अजीब लगें लेकिन उन्हें देखने पर हमें अप्रत्याशित रूप से गहरी संतुष्टि या तसल्ली का अनुभव होता है। यही अनुभव दर्शकों को एएसएमआर (Autonomous Sensory Meridian Response) और डीआईवाई Do it yourself विडियो को देखकर भी होता है। इन वीडियोज में हल्की आवाजें, धीमी गतिविधियां या बारीक ध्वनियाँ होती हैं, मस्तिष्क को एक माइक्रो मेडिटेशन जैसा प्रभाव देती हैं। वहीं डीआईवाई, डू इट योरसेल्फ वीडियो में रचनात्मकता के जरिये ध्यान खींचा जाता है। संस्था डाटा रिपोर्ट के मुताबिक भारत में करीब 80 करोड़ इंटरनेट उपभोक्ता हैं, जिसमें 50 करोड़ से अधिक सोशल मीडिया और यूट्यूब जैसे प्लेटफार्म्स का उपयोग करते हैं। हाल ही में कंसल्टिंग कंपनी ईवाई की ओर से एक चौंकाने वाला आंकड़ा सामने आया था, रिपोर्ट के मुताबिक साल 2024 में भारतीयों ने करीब 1.1 लाख करोड़ घंटे मोबाइल स्क्रीन पर बिताए। जिसका मतलब हुआ हर व्यक्ति ने औसतन रोजाना पाँच घंटें अपने फोन पर बिताए। इस समय का बड़ा हिस्सा सोशल मीडिया, गेमिंग और वीडियो देखने में लोगों ने गुजारा।
यूट्यूब पर कई अन्य प्रकार के वीडियो भी तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं। जिनमें मेकओवर और ट्रांसफॉर्मेशन वीडियो, साफ-सफाई, कुकिंग, स्ट्रीट फूड, प्रकृति, गाँव की जिंदगी, अनबॉक्सिंग, रेस्टोरेशन, और सेटिस्फाइंग वीडियो शामिल हैं। पहले और बाद का संतोष हर किसी को अच्छा लगता है। इसमें कोई पुरानी दीवार को नया रंग मिलता है, जर्जर फर्नीचर को फिर से चमकाया जाता है या किसी जगह का मेकओवर करके उसे नया लुक दिया जाता है। इसके अलावा, लोग प्रकृति और गाँव की जीवन शैली से जुड़ी वीडियो को भी खूब पसंद कर रहे हैं। इन वीडियोज़ में सरल जीवन, प्राकृतिक दृश्यों और पारंपरिक गतिविधियों का अनुभव मिलता है, जो शहर की भागदौड़ भरी जिंदगी से एक तरह का मानसिक ब्रेक प्रदान करता है। अनबॉक्सिंग और रेस्टोरेशन वीडियो भी दर्शकों को उत्सुकता और संतोष देते हैं, चाहे वह कोई नया गैजेट खोलना हो या पुरानी चीजों को फिर से पहले जैसा करना। लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स के एक शोध के मुताबिक, स्लाइम या सफाई वाले वीडियो लोगों को इसलिए इतने अच्छे लगते हैं क्योंकि उनका अंत पहले से तय होता है। ये निश्चितता दर्शकों में भरोसा और संतोष पैदा करती है, जिससे वे कम तनाव महसूस करते हैं। इसी तरह पॉल पोप अपने ब्लॉग में बताते हैं कि सेटिस्फाइंग वीडियो हमें तीन स्तर पर संतुष्टि देते हैं पहला, उपलब्धि का अहसास, दूसरा, दृश्य और श्रव्य आनंद और तीसरा, यह भरोसा कि आखिर में सब अच्छा ही होगा।
आज के दौर ये कंटेंट के नए स्वरूप केवल टाइमपास नहीं रह गए हैं, बल्कि हमारी आदतों, सोच और यहाँ तक की हमारी मानसिक संरचना को नया आकार दे रहे हैं।तस्वीर का दूसरा पहलु यह है कि साफ-सफाई, एएसएमआर, सेटिस्फाइंग वीडियो भले हमें कुछ सेकेंड का सुकून देते हैं, लेकिन उसी सुकून के साथ हमारा वक्त, हमारा ध्यान और हमारी असली ज़िंदगी भी फिसलती चली जाती है। यही कंटेंट का खेल है कि यह साधारण को असाधारण बना देता है, और हमें यकीन दिलाता है कि हम बस आराम कर रहे हैं। जबकि दरअसल उस आभासी आराम में हम अपनी सबसे कीमती चीज समय और उत्पादकता को खो रहे होते हैं।जबकि जब हम मोबाईल स्क्रीन से दूर आराम करते हैं या किताब पढ़ते हैं तो हमारी रचनात्मकता और उत्पादकता बढ़ती है | हम सोचते हैं हम स्क्रीन देख रहे हैं जबकि असल में स्क्रीन हमें देख रही होती है, और ये एल्गोरिद्म हमारे ही मनोविज्ञान को पढ़कर हमें नियंत्रित करते रहते हैं। लेकिन यह भी सच है कि इंटरनेट केवल लत और टाइमपास करने का साधन भर नहीं है। यहाँ सीखने और समझने की अनगिनत संभावनाएं भी मौजूद हैं। यह पूरी तरह हमारे चुनाव पर निर्भर करता है कि हम इसे केवल मनोरंजन का साधन बनाते हैं या फिर इसे अपने ज्ञान और क्षमता को निखारने का ज़रिया।
अमर उजाला में 25/09/2025 को प्रकाशित
Monday, September 15, 2025
मानसिक सुकून में घुसपैठ
टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक 2024 में डीटीएच सेवाओं के सक्रिय सब्सक्राइबर करीब 4 मिलियन कम हो गये। वहीं साल 2024 में भारत में ओटीटी उपयोगकर्ताओं की संख्या करीब 54 करोड़ पहुँच गई है जो साल 2023 की तुलना में 14 प्रतिशत अधिक है। नैल्सेन जैसी वैश्विक कंपनियों के मुताबिक भारत दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ता हुआ स्ट्रीमिंग बाजार बन रहा है। फरवरी 2025 में लॉन्च हुए जियो हॉटस्टार प्लेटफॉर्म ने 28 करोड़ पेड सब्सक्राइबर्स का आंकड़ा पार कर लिया है। जियो हॉटस्टार ने भारत में दिग्गज स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म अमेजन प्राइम (दो करोड़ सब्सक्राइबर्स) और नेटफ्लिक्स (1 करोड़ सब्सक्राइबर्स) को काफी पीछे छोड़ दिया है।
एक ऐसा भी दौर था जब चित्रहार की धुन का पूरा परिवार मिलकर लुत्फ उठाता था और रामायण, महाभारत के प्रसारण के समय तो मोहल्लों की गलियाँ तक खाली हो जाया करती थीं। वो पल अब सिर्फ यादों में रह गये हैं। अब हर किसी के हाथ में अपनी एक छोटी स्क्रीन है। ओटीटी प्लेटफॉर्म्स ने टीवी को अब जेब में समेट दिया है। अब फिल्मों के प्रीमियर देखने के लिए किसी खास समय का इंतजार नहीं करना पड़ता। जो देखना है, जब देखना है बस अब एक क्लिक की दूरी पर है। इस ओटीटी और स्ट्रीमिंग वीडियोज की आई बाढ़ ने पारंपरिक टेलीविजन इंडस्ट्री को झकझोर कर रख दिया है। दर्शक अब पारंपरिक टीवी को छोड़कर ज्यादा निजी और इंटरैक्टिव अनुभव के लिए सोशल मीडिया और ओटीटी एप्स का रुख कर रहे हैं।
पिछले कुछ वर्षों में ओटीटी प्लेटफॉर्म्स की लोकप्रियता जिस रफ्तार से बढ़ी है, उसी तेजी से केबल और डीटीएच सब्सक्रिप्शन की गिरावट दर्ज की गई है। इसका एक बड़ा कारण है—दर्शकों की बदलती प्राथमिकताएं। आज का दर्शक कंटेंट सिर्फ देखने भर के लिए नहीं देखता, वह उसे अपने समय, सुविधा और मन:स्थिति के अनुसार चुनना चाहता है। ओटीटी प्लेटफॉर्म्स ने न केवल यह आज़ादी दी है, बल्कि कंटेंट की विविधता और संवेदनशीलता के लिहाज़ से भी पारंपरिक टेलीविज़न को पीछे छोड़ दिया है। कुछ समय पहले की ही बात है जब रविवार को सेट मैक्स , जी सिनेमा जैसे चैनल्स पर हमें ढाई घंटे की फिल्म देखने में हमें चार घंटे लग जाते थे, क्योंकि हर 10 मिनट पर 5 मिनट का एक विज्ञापन आ जाता था। कभी-कभी तो लगता था फिल्म से ज्यादा हम डिटॉल, सर्फ एक्सेल और फेयर एंड लवली का एड देख रहे हैं। वहीं आज का युवा वर्ग जो पंद्रह सेकेंड की इंस्टाग्राम रील देखता है और अगर वो रील लंबी हो जाए तो वीडियो को स्किप कर देता है। ऐसे में युवा दर्शकों का अटेंशन स्पैन इतना कम हो गया है कि उन्हें लंबे विज्ञापन, धीमा नैरेटिव और इंटरवल जैसे टीवी के क्लासिक फॉर्मेट उबाऊ लगते हैं। ओटीटी प्लेटफॉर्म्स दर्शकों की इसी प्रवृत्ति को ध्यान में रख कर विज्ञापन मुक्त अनुभव या कम विज्ञापन वाले सब्सक्रिप्शन मॉडल पेश कर रहे हैं। क्योंकि युवा पीढ़ी जो इंटरनेट और सोशल मीडिया के साथ बड़ी हुई है, अब रिमोट कंट्रोल और फिक्स्ड टाइम स्लॉट में नहीं बंधना चाहती। जहाँ एक ओर पारंपरिक टीवी पर सेंसर बोर्ड और ब्रॉडकास्टिंग नियमों का कड़ा हस्तक्षेप रहता था, वहीं ओटीटी पर किसी तरह की सेंसरशिप नहीं है। जिससे ओटीटी फिल्में और सीरीज कई सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर खुलकर बात कर सकती हैं। इसका सकारात्मक परिणाम यह हुआ है कि कहानियाँ अब सिर्फ मनोरंजन तक सीमित नहीं है वे समाज की जटिलताओं, धार्मिक विविधता और राजनीतिक विमर्श जैसे मुद्दों को भी केंद्र में ला रही है। हालांकि इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ एक नई चुनौती भी सामने आई है। कई बार कंटेंट की अश्लीलता, अनावश्यक नग्नता और अत्यधिक हिंसा को लेकर विवाद खड़े हुए हैं। जिसके कारण कई सामाजिक संगठन ओटीटी प्लेटफॉर्म्स के लिए नैतिक सीमाएं तय करने की माँग कर रहे हैं।
टेलीविजन और ओटीटी में सिर्फ तकनीक का नहीं सोच का भी अंतर है, पारंपरिक टीवी जो एक परिवार का सामूहिक अनुभव था वो अब व्यक्ति की निजी स्क्रीन हो गया है। आज की पीढ़ी दोस्तों और परिवार के साथ बैठकर तय समय पर कुछ देखने की बजाय, अकेले में अपने मोबाइल या लैपटॉप पर मनचाहा कंटेंट देखना पसंद करती है। सैद्धान्तिक तौर पर देखा जाये तो कम विज्ञापन, कहीं भी किसी भी समय कंटेंट देखने की आजादी के चलते व्यक्ति के पास काफी समय बचना चाहिए था मगर अब मनोरंजन का समय सीमित नहीं रहा है वो हमारे हर खाली पल में घुस गया है। ऑफिस का ब्रेक हो या रात की नींद से पहले का समय हर जगह ओटीटी प्लेटफॉर्म और सोशल मीडिया एप्स हमारी जिंदगी में घुस गये हैं। बिंज वॉचिंग आज की हकीकत बन गई है। अब दर्शक हफ्तेभर इंतजार नहीं करते कि अगला एपिसोड कब आएगा, वो एक ही दिन में छह-छह घंटे की वेब सीरीज़ खत्म कर देते हैं। उन्हें लगता है कि ये मनोरंजन है, लेकिन असल में ये आदत दिमाग को थकाने वाली और नुकसानदायक है। ओटीटी प्लेटफॉर्म्स ने हमे चुनने की आजादी तो दी है, मगर ऑटो प्ले नेक्स्ट एपिसोड, सजेस्टेड फॉर यू जैसे मनोवैज्ञानिक ट्रिगर का उपयोग करके हमे बिंज वॉच में फंसा लेते हैं। अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ सेंट्रल फ्लोरिडा में हुए एक अध्ययन के मुताबिक बिंज वॉचिंग से चिंता, अवसाद और नींद की गुणवत्ता में गिरावट हो सकती है। नेल्सैन के कन्ज्यूमर इंटेलिजेंस सर्वे के मुताबिक करीब 66 प्रतिशत प्रतिभागी लगातार 5 घंटे से अधिक बिंज वॉचिंग करते हैं। एरिज़ोना स्टेट यूनिवर्सिटी के चुन शाओ ने अपनी रिसर्च में पाया कि लोग हर बार नेटफ्लिक्स इसलिए नहीं देखते कि उन्हें कोई शो देखना है। बल्कि वे अकेलापन महसूस कर रहे होते हैं या बस किसी चीज़ से ध्यान हटाना चाहते हैं। वहीं निरंतर स्क्रीन देखने और असीमित चुनाव ने लोगों में फोमो और चॉइस पैरालिसिस जैसी मानसिक स्थितियों ने जन्म दिया है। सोशल मीडिया वीडियोज और ट्रेंड के चलते लोग इस दबाव में रहते हैं कि वे हर नए कंटेंट को देखें, ताकि कहीं वे किसी चर्चा या ट्रेंड से बाहर न रह जाएं। कई बार ऐसा भी देखा गया है कि लोग केवल इसलिए किसी शो को देखते हैं क्योंकि वो ट्रेंड कर रहा था, भले ही वो उन्हें पसंद न आए। अमेरिकन साइकोलॉजिकल एसोशियन के अनुसार फोमो एक तरह के डिसिजन फटीग को जन्म देता है , यह तब होता है जब विकल्प इतने हों कि दिमाग थक जाये।
कुछ साल पहले जब ओटीटी प्लेटफॉर्म कई वायदे के साथ आये थे मसलन लंबे-चौड़े बंडल पैक से छुटकारा, मनचाही फिल्में और वेब सीरीज वो भी विज्ञापनों के बिना, कब क्या और कितना देखना है यह हक अब दर्शकों का होगा। मगर जैसे-जैसे समय गुजरा ये प्लेटफॉर्म भी वही पुराने फार्मुले पर निकल पड़े। जिस तरीके से एक दौर में स्टार, सोनी, जी जैसे बड़े ब्रॉडकार्टर्स अपने चैनलों का सब्सक्रिप्शन बेचते थे, ठीक उसी तरह अब हर ओटीटी प्लेटफॉर्म अपने-अपने कंटेंट का पैक लेकर बैठा है। नेटफ्लिक्स का अपना सब्सक्रिप्शन है, प्राइम पर सारी फिल्में सब्सक्रिप्शन के बाद भी नहीं मिलती , कुछ फिल्में देखने के लिए रेंट नाऊ का बटन दिया है। जियो हॉटस्टार ने भी विज्ञापन और बिना विज्ञापन वाले दोनों तरह के सब्सक्रिप्शन उतारे हैं। किसी एप पर आपको क्रिकेट मिलेगा, तो किसी पर सास-बहू सीरियल, तो वहीं कोरियन ड्रामा देखना है तो वो अलग ओटीटी पर मिलेगा। तो सवाल यही है कि क्या हम फिर उसी जगह आ गए, जहाँ से चले थे। फर्क बस इतना है कि पहले रिमोट से चैनल को बदलने की आजादी थी अब एप बदलने की है। सोशल मीडिया, रील्स, मीम्स, फिल्में, वेब सीरीज से लेकर बिंज वॉचिंग तक, हर खाली पल को भरने के लिए आज एक स्क्रॉल, एक क्लिक और नया प्लेटफॉर्म मौजूद है। कभी जो मनोरंजन था अब आदत बन रहा है, और यही आदत धीरे-धीरे हमें मानसिक रूप से अस्वस्थ कर रही है। हर पल फोमो, सुझाव और ट्रैंड में बने रहने की दौड़ में हम सुकून की तलाश भूल गये हैं और बस बिना सोचे-समझे कुछ भी देख रहे हैं। ओटीटी और स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म ने दर्शकों को कंटेंट चुनने की आज़ादी जरूर दी है, लेकिन कंटेंट की इस बाढ़ में सही चुनाव करना दर्शकों के लिए बड़ी चुनौती बन गया है। दूसरी ओर, ये बदलाव हमारे पुराने टीवी देखने के उस मज़ेदार दौर को भी पीछे छोड़ आया है, जब परिवार साथ बैठकर एक ही स्क्रीन पर कहानी का हिस्सा बनता था। मनोरंजन अब ज्यादा निजी और अकेलेपन के दूर भागने का एक जरिया हो गया है। यह समय है कि हम सचेत रूप से अपने समय और ध्यान को नियंत्रित करें हर समय बिंज वॉचिंग, सतही रील्स में आनंद ढूंढने के बजाय, कुछ समय प्रकृति, रिश्तों और आत्मविकास में बितायें। तभी हम मानसिक सुकून और असली खुशी की तलाश कर पाएंगे।
दैनिक जागरण में 15/09/2025 को प्रकाशित लेख



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