Tuesday, October 30, 2018

ई -कचरे से जूझता भारत

आज मोबाइल फोनडेस्कटॉपलैपटॉपटैबलेट आदि हमारे जीवन का अनिवार्य हिस्सा  बन गए हैं। नवीनतम तकनीक को अपना लेने की जल्दी  में हम कभी इस ओर नहीं सोचते कि जिन उपकरणों को हम इतने उत्साह से खरीद कर घर ला रहे हैं या ऑफिस  में इस्तेमाल कर रहे हैंउनकी उपयोगिता जब खत्म हो जाएगी तब उनका क्या होगा । ई-कचरे के अंतर्गत वे सभी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण आते हैंजिनकी उपयोगिता समाप्त हो चुकी है।देश के जयादातर शहरी घरों  में एक दो बेकार मोबाईल फोन या लैपटॉप की खराब बैटरी जरुर मिल जायेगी |वे घर में इसलिए पड़े हुए है क्योंकि उनका किया क्या जाए ये उनके मालिकों को पता ही नहीं है |विकसित देशों में ई कचरे को संगठित रूप से इकठ्ठा करने के लिए उनके शहरों में जगह –जगह ई वेस्ट डस्टबिन लगाये जाते हैं |भारत में यह व्यवस्था कुछ चुनिन्दा शहरों को छोड़कर कहीं भी नहीं है |
यूएस विश्वविद्यालय की एक रिपोर्ट द ग्लोबल ई-वेस्ट मॉनिटर 2017’ के मुताबिक भारत में पिछले साल 2016 में 19|5 लाख टन ई-कचरा  पैदा हुआ| देश की जनसँख्या के हिसाब से यह आंकड़ा प्रति व्यक्ति लगभग  1|5 किलो है| इसके अतिरिक्त  भारत में विकसित देशों से भी ई-कचरे  का आयात किया भी जाता है|
राज्यसभा सचिवालय द्वारा 'ई-वेस्ट इन इंडियानाम से प्रकाशित एक दस्तावेज के अनुसार भारत में उत्पन्न होने वाले कुल ई-कचरे का लगभग सत्तर प्रतिशत केवल दस राज्यों से आता है। स्पष्ट  रूप से कहें तो कुल पैंसठ शहर देश का साथ प्रतिशत  ई-कचरा पैदा करते हैं। भारत में ई-कचरे के उत्पादन के मामले में महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे समृद्ध राज्य तथा मुंबई और दिल्ली जैसे महानगर अव्वल हैं।
एसोचैम की एक रिपोर्ट के अनुसार देश के लगभग नब्बे प्रतिशत ई-कचरे का निस्तारण असंगठित क्षेत्र के अप्रशिक्षित लोगों द्वारा किया जाता है। इस क्षेत्र में काम करने वाले लोग इस कार्य के लिए आवश्यक सुरक्षा मानकों से अनभिज्ञ हैं। इस वक़्त देश में लगभग सोलह  कंपनियां ई-कचरे की रीसाइकलिंग के काम में लगी हैं। इनकी कुल क्षमता साल में लगभग छाछठ हजार टन ई-कचरे को निस्तारित करने की हैजो देश में पैदा होने वाले कुल ई-कचरे के दस प्रतिशत से भी कम है।
पिछले कुछ वर्षों में ई-कचरे की मात्रा में लगातार तीव्र वृद्धि हो रही है और प्रतिवर्ष लगभग दो से पांच करोड़ टन ई-कचरा विश्व भर में फेंका जा रहा है। ग्रीनपीस संस्था के अनुसार ई-कचरा विश्व भर में उत्पन्न होने वाले कुल ठोस कचरे का लगभग पांच प्रतिशत है। साथ ही विभिन्न प्रकार के ठोस कचरे में सबसे तेज वृद्धि दर ई-कचरे में ही देखी जा रही है। ऐसा इसलिएक्योंकि लोग अब अपने टेलीविजनकंप्यूटरमोबाइलप्रिंटर आदि को ज्यादा तेजी से बदलने लगे हैं। कभी-कभी तो एक ही साल में दो-दो बार।
भविष्य में ई-कचरे की समस्या कितनी विकराल होने वाली हैइसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ वर्षों में विकसित देशों में कंप्यूटर और मोबाइल उपकरणों की औसत आयु घट कर मात्र दो साल रह गई है। घटते दामों और बढ़ती क्रय शक्ति के फलस्वरूप इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों जैसे मोबाइलटीवीकंप्यूटर आदि की संख्या और इन्हें बदलने की दर में लगातार बढ़ोतरी हो रही है।
घरेलू ई-कचरे मेंजैसे बेकार टीवी और रेफ्रिजरेटर में लगभग एक हजार विषैले पदार्थ होते हैं जो मिट्टी और भू-जल को प्रदूषित करते हैं। इन पदार्थों के संपर्क में आने पर सिरदर्दउल्टीमितली और आंखों में दर्द जैसी समस्याएं हो सकती हैं। ई-कचरे की रीसाइकलिंग और निपटान का काम अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस बारे में गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। भारत सरकार ने ई-कचरे के प्रबंधन के लिए विस्तृत नियम बनाए हैं जो मई 2012 से प्रभाव में आ गए हैं। ई-कचरा (प्रबंधन एवं संचालन नियम) 2011 के इसकी रीसाइकलिंग और निपटान को लेकर विस्तृत निर्देश जारी किए गए हैंहालांकि इन दिशा निर्देशों का पालन किस सीमा तक किया जा रहा हैयह कह पाना कठिन है।
इस ई कचरे से होने वाले नुकसान का अंदाजा इसी बात  से लगाया जा सकता है कि इसमें अडतीस  अलग-अलग  प्रकार के रासायनिक तत्व शामिल होते हैं |जो काफी हानिकारक होते है। जैसे टीवी व पुराने कम्प्यूटर मॉनिटर में लगी सीआरटी (केथोंड रे ट्यूब) को रिसाइकल करना मुश्किल होता है। इस कचरे में लेडमरक्युरीकेडमियम जैसे घातक तत्व भी होते हैं। दरअसल ई-कचरे का निपटान आसान काम नहीं है क्योंकि इसमें प्लास्टिक और कई तरह की धातुओं से लेकर अन्य पदार्थ रहते हैं। इस कचरे को जलाकर इसमें से आवश्यक धातु निकाली जाती है। इसे जलाने से जहरीला धुंआ निकलता है जो काफी घातक होता है। एशिया का लगभग 85 प्रतिशत ई-कचरा शमन के लिए अकेले दिल्ली में ही आता है। परंतु इसके निस्तारण के लिए जरूरी सुविधाओं का अभाव है। आवश्यक जानकारी और सुविधाओं के अभाव में ई-कचरे के निस्तारण में लगे लोग न केवल अपने स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहे हैं बल्कि पर्यावरण को भी दूषित कर रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक चीजों को बनाने के उपयोग में आने वाली सामग्रियों में ज्यादातर कैडमियमनिकेलक्रोमियमएंटीमोनीआर्सेनिकबेरिलियम और मरकरी का इस्तेमाल किया जाता है। ये सभी पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए घातक हैं। इनमें से काफी चीजें तो रिसाइकल करने वाली कंपनियां ले जाती हैंलेकिन कुछ चीजें नगर निगम के कचरे में चली जाती हैं। वे हवामिट्टी और भूमिगत जल में मिलकर जहर का काम करती हैं। कैडमियम से फेफड़े प्रभावित होते हैंजबकि कैडमियम के धुएं और धूल के कारण फेफड़े व किडनी दोनों को गंभीर नुकसान पहुंचता है। एक कम्प्यूटर में प्राय: 3|8 पौंड सीसाफासफोरसकेडमियम व मरकरी जैसे घातक तत्व होते हैंजो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं। एसोचैम की रिपोर्ट के अनुसार भारत अपने ई-कचरे के केवल पांच  प्रतिशत की ही रीसाइकलिंग कर पाता है।
जब तक ई-कचरे का प्रबंधन उत्पादकउपभोक्ता और सरकार की सम्मिलित जिम्मेदारी नहीं होगी तब तक इस समस्या का समाधान होना मुश्किल है |यह  उत्पादक की जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वह कम से कम हानिकारक पदार्थों का प्रयोग करे और ई-कचरे के निस्तारण  का उचित प्रबंधन करे। उपभोक्ता की जिम्मेदारी है कि वह ई-कचरे को इधर-उधर न फेंक कर उसे रीसाइकलिंग के लिए उचित संस्था को देजबकि सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह ई-कचरे के प्रबंधन के ठोस तथा व्यावहारिक नियम बनाए और उनका पालन सुनिश्चित करे।
दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में 30/10/18 को प्रकाशित 

Monday, October 29, 2018

बड़े बदलाव का कारक बन रहा इंटरनेट

एसोचैम डेलायट की रिपोर्ट के  अनुसार देश में  इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं की संख्या साल  2020 तक 60 करोड़ के पार  पहुंच जाएगी. फिलहाल इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं की कुल संख्या 34.3 करोड़ है.इतनी बड़ी इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं की  तो दुनिया के कई विकसित देशों की कुल आबादी की भी नहीं है । यानी इतने लोग कार्य, व्यापार व अन्य जरूरतों के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल करते है। पिछले तकरीबन एक दशक से भारत को किसी और चीज ने उतना नहीं बदला, जितना इंटरनेट ने बदल दिया है। रही-सही कसर इंटरनेट आधारित फोन यानी स्मार्टफोन ने पूरी कर दी. इंटरनेट की शुरुवात में किसी ने नहीं सोचा होगा कि यह एक ऐसा आविष्कार बनेगा जिससे मानव सभ्यता का चेहरा हमेशा के लिए बदल जाएगा . आग और पहिया के बाद इंटरनेट ही वह क्रांतिकारी कारक जिससे मानव सभ्यता के विकास को चमत्कारिक गति मिली.इंटरनेट के विस्तार के साथ ही इसका व्यवसायिक पक्ष भी विकसित होना शुरू हो गया. कल तक स्क्रीन का मतलब घरों में सिर्फ टीवी ही  होता था पर आज उस स्क्रीन के साथ एक और स्क्रीन हमारी जिन्दगी का अहम् हिस्सा बन गयी है वो है हमारे स्मार्ट फोन की स्क्रीन जहाँ मनोरंजन से लेकर समाचारों का सारा खजाना  मौजूद है.स्मार्टफोन ने देश में इंटरनेट प्रयोग के आयाम जरूर बदले हैं और इसके साथ सोशल नेटवर्किंग ने हमारे संवाद व मेल-मिलाप का तरीका भी बदल दिया है। इसमें यू-ट्यूब और फेसबुक लाइव जैसे फीचर बहुत लोकप्रिय हुए हैं. इंटरनेट ने लोक व लोकाचार के तरीकों को काफी हद तक बदल दिया है। बहुत-सी परंपराएं और बहत सारे रिवाज अब अपना रास्ता बदल रहे हैं. यह प्रक्रिया इतनी तेज है कि नया बहुत जल्दी पुराना हो जा रहा है. विवाह तय करने जैसी सामाजिक प्रक्रिया पहले परिवार और यहां तक कि खानदान के बड़े-बुजुर्गों, मित्रों, रिश्तेदारों वगैरह को शामिल करते हुए आगे बढ़ती थी, अब उसमें भी ‘ई’ लग गया है।. इंटरनेट सामूहिक तौर पर हमारे समाज  के हर व्यक्ति को प्रभावित कर रहा है .बतकही का एक दौर हुआ करता था जब कस्बों और गांवों  के नुक्कड़ चौपालों से गुलज़ार रहा करते थे पर अब दुनिया बदल चुकी है और वक्त भी  अब इन बैठकों की जगह वर्चुअल हो गयी है घर के आँगन मोबाईल  की स्क्रीन में सिमट गए देह भाषा को कुछ संकेत चिन्हों(इमोजी )में समेट दिया गया. समाज में जब भी कोई बदलाव आता है तो सबसे ज्यादा प्रभावित मध्यवर्ग होता है और ऐसा ही कुछ हुआ है हमारे सम्प्रेषण पर देश का मध्यवर्ग और खासकर युवा  चकल्लस के नए अड्डे से संक्रमित है . जिसे सोशल नेटवर्किंग साईट्स का नाम दिया गया है अब चक्कलस  करने के  के लिए न तो किसी बुज़ुर्गियत की ज़रुरत है और न ही किसी पुराने निबाह की. ये वो अड्डे हैं जिनके नाम तक उल्टे पुल्टे हैं. कोई कई चेहरों वाली किताब है तो कोई ट्विटीयाने वाली चिड़िया बनने को बेताब हैफेसबुक, ट्विटर और इन्स्टाग्राम  जैसे तमाम चकल्लस के लोकप्रिय अड्डे बनकर उभरे हैं. इसका हिस्सा बनने के लिए किसी तरह के बौद्धिक दक्षता के प्रमाण की आवश्यकता नहीं है. बस आपको अपनी बात दूसरों तक पहुँचाने का हुनर आना चाहिए.फेसबुक,  ट्विटर ,इन्स्टाग्राम और व्हाट्स एप वर्चुयल  सोसायटी के चार धाम माने जाते हैं.जिनमें से फेसबुक वर्चुअल अड्डेबाजों  का तीर्थ  सिद्ध हुआ है.हर कोई यहाँ डूबकी लगाकर इंटरनेट तकनीक का आशीर्वाद पा लेने को बेताब है. अगर आप इसके सक्रिय सदस्य है और चीज़ों को गहराई से समझने की लत है तो सहजता से अंदाज़ा लगा सकते हैं कि युवाओं के साथ साथ ये मध्यम वर्ग की  स्त्रियों को भी यह डिजीटल  संसार खूब रास आ रहा है. सास से होने वाली रोज़ रोज़ की  चिकचिक हो या परम्पराओं की  लकीर  पीटने वाले पति से  नाराजगी ये यहाँ अपने मन के गुबार निकाल रही हैं . घर की  चहारदीवारी में बंद इन औरतों के लिए डिजिटल संसार आज़ादी के नए दरवाज़े खोलता है. जहाँ वह अपनी सोच और व्यक्तित्व को निखार सकती हैं. जब घरेलू औरत होने के तानों से उकताई गृहणी अपने किसी स्टेटस को 18  बरस के युवा से लेकर 65  बरस तक के बुजुर्गों की और से ढेरो लाईक्स  और कमेंट्स मिलते हैं तब उसके चेहरे पर  संतुष्टि के भाव  बिना किसी  चश्मे के साफ़ पढ़े जा सकते हैं . जैसा की हमेशा से ही कहा जाता रहा है कि हर अच्छी चीज़ का एक स्याह पक्ष भी होता है उसी तरह भारत में सोशल नेटवर्किंग साईट्स के लिए चुनौतियाँ कम नहीं है. कई बार इन साईट्स पर लोग अश्लीलता और फूहड़ता की सारी हदों को पार कर जाते हैं. दूसरों के जीवन में तांकझांक और उन पर टिप्पणियाँ करने का चलन यहाँ भी खूब है. ऐसे कई मामले प्रकाश में आये हैं जब लड़कियों से अपनी खुन्नस निकलने के लिए अश्लील पोस्ट की आड़ ली गयी.दूसरों को  सुख दुःख का ज्ञान और नीति  की घुट्टी पिलाने वाले वचन अक्सर बेमानी लगते हैं.आभासी संबंधों की दुनिया महज़ लाईक्स और टिप्पणी की  में सीमा रह गयी है.प्रेमी प्रेमिका एक दूसरे को ई मेल से फूल भेज रहे हैं. यहाँ एक समय में सब ओपन है तो बहुत कुछ गोपन भी है. इंटरनेट की  खूबियों और इसकी उपयोगिता की चर्चा तो बहुत हो ली,अब इसके दूसरे पहलुओं पर भी ध्यान जाने लगा है। शोध बताता है कि इंटरनेट हमें भुलक्कड़ बना रहा है, ज्यादातर युवा उपभोक्ताओं के लिए, जो कि कनेक्टेड डिवाइसों का प्रयोग करते हैं, इंटरनेट न केवल ज्ञान का प्राथमिक स्रोत है, बल्कि उनकी व्यक्तिगत जानकारियों को सुरक्षित करने का भी मुख्य स्रोत बन चुका है.इसे कैस्परस्की लैब ने डिजिटल एम्नेशिया का नाम दिया है. यानी अपनी जरूरत की सभी जानकारियों को भूलने की क्षमता के कारण किसी का डिजिटल डिवाइसों पर ज्यादा भरोसा करना कि वह आपके लिए सभी जानकारियों को एकत्रित कर सुरक्षित कर लेगा. कई देशों के न्यूरो वैज्ञानिक व मनोवैज्ञानिक, लोगों पर इंटरनेट और डिजिटल डिवाइस से लंबे समय तक पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन कर रहे हैं.  देश भर में यह चर्चा आम है कि स्मार्टफोन व इंटरनेट लोगों को व्यसनी बना रहा है.
दैनिक जागरण /आईनेक्स्ट में 29/10/18 को प्रकाशित 

Wednesday, October 24, 2018

फिर छिड़ी रात बात फूलों की

मुझे बचपन से ही फूल-पत्तियों पर गिरी ओस बहुत अच्छी लगती है और इस दृश्य को देखने और महसूस करने का सबसे अच्छा मौसम है जाड़ा. फूल अपने आप में इस दुनिया की सबसे खूबसूरत कृतियों में से एक है. प्रकृति के इस अनोखे रूप को गीतकारों ने अपने-अपने तरीके से महसूस किया है. जैसे- 'फिर छिड़ी रात बात फूलों की, रात है या बारात फूलों की...' 
फूल न होते, तो दुनिया इतनी रंगीन नहीं होती. जितने कोमल फूल होते हैं, उतनी ही कोमल होती हैं हमारी भावनाएं. अब ये देखिये, एक भाई अपनी बहन के लिए प्यार जताने के लिए क्या गा रहा है- 'फूलों का तारों का सबका कहना है, एक हजारों में मेरी बहना है...'
           फूलों से हमारा बहुत गहरा रिश्ता है. हमारे पैदा होने से लेकर मरने तक, हर खुशी हर गम में फूल हमारा साथ देते हैं. इस सीख के साथ जिंदगी कैसी भी हो, खूबसूरत तो है न! खुशबू दिखती नहीं, पर महसूस की जा सकती है. उसी तरह जिंदगी में खुशियां हर मोड़ पर बिखरी हैं, पर क्या हम उन खुशियों को खोजना जानते हैं? फूल कोमलता, शांति और प्यार का प्रतीक होते है. जहां प्यार, शांति का जिक्र होगा, वहां फूलों का जिक्र होना लाजिमी है. फिर हम भी तो यही चाहते हैं न कि एक ऐसी दुनिया हो, जहां चारों ओर शांति हो, प्यार हो. 
जब फूल खिलते हैं, तो दिल भी खिल जाता है. जब फूलों की बात चली है, तो गुलाब का जिक्र होगा ही. गुलाब को फूलों का राजा यूं ही तो नहीं कहा जाता और गानों में सबसे ज्यादा इसी फूल का जिक्र हुआ है. लाल गुलाब जहां प्यार का प्रतीक है, वहीं सफेद गुलाब मैत्री और शांति का.
         बचपन की शरारतों के बाद जब हम जवान होते हैं, तो हमारे मन में कुछ सपने पलने लगते हैं, कुछ उम्मीदें जागने लगती हैं, इन्हीं सपनों-उम्मीदों में एक सपना अपने घर का भी होता है और घर जब फूलों के शहर में हो, तो क्या कहना- 'देखो मैंने देखा है एक सपना, फूलों के शहर में है घर अपना...' पर अगर आपको सपने में फूल ही फूल दिखें, तो ऐसे ख्वाब को क्या कहेंगे? चलिये मैं आपको गाना ही बता देता हूं- 'देखा एक ख्वाब तो ये सिलसिले हुए, दूर तक निगाह में हैं गुल खिले हुए...' 
         अगर आप फूल की कोमलता का सम्मान नहीं करेंगे, तो यह अंगारा भी बन सकता है- 'फूल कभी जब बन जाये अंगारा...' जिंदगी में हर चीज की अपनी अहमियत होती है और यह बात रिश्तों पर भी लागू होती है. फूल को बढ़ने के लिए खाद-पानी की जरूरत होती है. तो रिश्तों को अपनेपन के एहसास की जरूरत होती है. जाड़ों में गर्मी का एहसास करने के लिए गर्म कपड़े पहनने के अलावा कुछ फूल भी लगायें. नये रिश्ते बनायें और पुराने रिश्तों पर जम गयी गर्द को झाड़ें, क्योंकि रिश्ते भी फूलों की तरह नाजुक होते हैं.
जाड़े का स्वागत अगर महकते हुए और महकाते हुए किया जाये, तो इससे अच्छा और क्या हो सकता है भला.
प्रभात खबर में 24/10/18 को प्रकाशित 

Saturday, October 20, 2018

फ़िल्मी गीतों में गूंजता रहा है मर्दवाद


भारत में महिलाओं का मी टू अभियान पूरी ताकत के साथ खड़ा हो गया है और इसकी धमक के साथ सत्ता के बड़े बड़े केंद्र हिल गए हैं |विदेश राज्यमंत्री एम् जे अकबर का इस्तीफा उस हलचल का एक संकेत भर है |इस आन्दोलन के तहत जो खुलासे हुए हैं उनसे साफ़ पता चलता है की सुशिक्षित ,आधुनिक और संभ्रांत पुरुषों का एक तबका स्त्रियों के प्रति घोर सामंती नजरिया रखता है |वह मानकर चलता है कि स्त्री उपभोग की वस्तु है |ज्यादा से ज्यादा औरतों का औप्भोग करना उसके लिए मर्दानगी की सार्थकता है |उसे लगता है अपनी ताकत और रसूख के बल पर वह महिलाओं को झुकाकर उन्हें कब्जे में कर सकता है |एक औसत भारतीय पुरुष के अचेतन मन में यह बात बैठी रहती है |अनेक स्रोतों से उसके मन में बिठा दिया गया है की स्त्री उपभोग के लिए ही बनी  है ,लिहाजा रिझाकर या डरा धमका कर उन्हें फांस लेना चाहिए |और यह जीवन भर चलने वाला सिलसिला है |
औरतों के बारे में यह राय बना दी गयी है कि वे तो खुद ही फंसना चाहती हैं ,भले ही ऊपर से वे इसके उलट व्यवहार करें |इस तरह की मान्यताएं ,धर्म शास्त्रों ,साहित्य और समाज की बतकही के जरिये प्रचारित होती हैं  इलेकिन अभी उन्हें बढाने का कार्य हिन्दी फ़िल्में सबसे ज्यादा उत्साह से कर रही हैं |फिल्म निर्माता निर्देशक अपने साथ पुरुषवादी मूल्य ही लेकर आते हैं लिहाजा फिल्मों के विषय भी वैसे   ही होते आये हैं |तमाम रौशन ख्याली के बावजूद अपनी पितृ सत्तात्मक सोच से वे मुक्त नहीं हो सके इसलिए ज्यादातर फ़िल्में स्त्री को दोयम दर्जे का ही रखती हैं |कई फिल्मों में छेड़ छाड़ को एक रूमानी नजरिये से पेश किया जाता है |अपराधी किस्म का का लड़का नायिका को तरेह –तरह से तंग करता है और अंत में नायिका उसी से प्रेम करने लगती है |इससे यह मान्यता स्थापित होती है कि लड़कियों की “न” का मतलब “हाँ” है |यानि उनके पीछे पड़े रहे तो उन्हें पटाया जा सकता है |लडकी खुद भी कोई निर्णय कर सकती है ,यह बात निर्माता निर्देशकों के दिमाग में प्रायः नहीं आती |
उनके गाने सुनिए |उनमें भी पुरुषवादी सोच हावी है |गाने गाते या सुनते  वक्त हम अक्सर इस बात पर गौर करना भूल जाते हैं कि गाने भी एक सोच को ही आगे बढाते हैं |हमारा सिनेमा भले ही सौ साल से ज्यादा का हो चुका है और हमारी फ़िल्में भी काफी बदली हैं पर गानों में वो  पितृ सत्तात्मक सोच लगातार हावी दिखती है |गानों पर चर्चा करते वक्त हमें यह नहीं भूलना चाहिए ये वही फ़िल्मी गाने हैं जिनके सहारे भारत में सबसे ज्यादा लडकिया छेड़ी जाती हैं |मुझे याद आता है साल 1993  का वो वाकया जब हम जवान हो रहे थे तब गोविंदा अभिनीत फिल्म “आँखें” का एक गाना बड़ा प्रसिद्ध  हुआ था जिसके बोल थे “ओ लाल दुप्पट्टे वाली अपना नाम तो बता ओ काले कुरते वाली अपना नाम तो बता” उस वक्त सड़क पर लाल दुप्पट्टे और काले कुरते पहन के निकलना लड़कियों के लिए ख़ासा मुश्किल हुआ करता था |बात चाहे मुन्नी की बदनामी हो या शीला की जवानी चर्चा हमेशा महिलाओं की होती है |बहुत खोजने पर भी आपको लड़कों के नाम से बने इस तरह के गाने सुनने को नहीं मिलेंगे |फिल्म दिल ही तो है (1963)का एक गाना है जिसके बोल हैं “तुम मुझे न चाहो तो कोई बात नहीं पर तुम किसी और को चाहेगी तो मुश्किल होगी”|इस गाने के बोल में प्रेम कम धमकी ज्यादा दिखती है भले ही फिल्म में नायक अपने प्रेम की पराकाष्ठा को नायिका के सामने दर्शाना चाहता है |गानों की चर्चा करते हमें यह भी याद रखना होगा कि गानों को गुनगुनाने के लिए पूरी फिल्म या उसका संदर्भ जानना जरुरी नहीं है |कहीं दिन कहीं रात (1968) फिल्म के गाने के बोल हैं “तुम्हारा चाहने वाला खुदा कि दुनिया में मेरे सिवा कोई और हो खुदा न करे” अपनी प्रेमिका के प्रति इस तरह की असुरक्षा समाज में कई तरह की समस्याओं का कारण बनती है और यह कुछ इसी तरह की सोच है कि महिलाओं को छुपा कर घर के भीतर ही रखना चाहिए |होली हमारे फिल्मों में हमारे फिल्मकारों का पसंदीदा त्यौहार रहा है और यह भी इसी सोच की पुष्टि करता है कि हमारे फिल्मकार अभी भी उस पितृ सत्तात्मक सोच के शिकार हैं |
वो चाहे ये जवानी है दीवानी (2013)का प्रसिद्ध गीत “बलम पिचकारी जो तूने मुझे मारी” हो जिसमें सीधी सादी छोरी शराबी हो जाती है या फिर हद दर्जे की जबरदस्ती करने को उकसाता गाना फिल्म कटीपतंग (1971) “आज न छोड़ेंगे बस हमजोली खेलेंगे हम होली चाहे भीगे तेरी चुनरिया चाहे चोली रे” नायक को किसी भी तरह से बस होली खेलने से मतलब है |होली से जुड़े ज्यादातर गानों के बोलों में लड़कियों के कपड़ों पर ज्यादा ध्यान केन्द्रित किया जाता है |घराना (1988) फिल्म का एक प्रसिद्द गाना है “तेरे डैडी ने दिया है मुझे परमिट तुझे पटाने का”अपने वक्त में यह गाना भी लम्बे समय तक लोगों के मुंह पर चढ़ा रहा बगैर यह सोचे कि वे क्या गा रहे हैं लोग गाते रहे |शायद इसका बड़ा कारण हिन्दी फिल्मों में हमेशा से महिला गीतकारों का कम होना रहा हो इसलिए महिलाओं का पक्ष भी पुरुषवादी नज़रिए से लिखा गया |यह भी उल्लेखनीय है कि साधना (1958) फिल्म में एक पुरुष साहिर लुधियानवी द्वारा लिखा गया गीत “औरत ने जन्म दिया मर्दों को,मर्दों ने उसे बाजार दिया” समाज को आज पचास साल बीतने के बाद भी आईना दिखा रहा है |ये अलग बात है अब भी उसी सोच को आगे बढाने वाले गाने लगातार लिखे जा रहे है |”ए बी सी डी पढ़ ली बहुत ,अच्छी बातें कर ली बहुत ,अब करूँगा तेरे साथ गंदी बात”फिल्म :आर राजकुमार (2013) उसी सोच को आगे बढ़ा रहा है जिस सोच ने महिलाओं को हमेशा एक वस्तु समझा |  हालांकि पचास के दशक में सरोज मोहिनी नैय्यर, माया गोविंद, जद्दनबाई फिर नब्बे  के दशक में रानी मलिक और  माया गोविन्द के नाम जरुर सामने आते हैं पर इनमें से कोई भी महिला गीतकार उतनी लम्बी पारी नहीं खेल पाईं  जो पुरुष गीतकारों को हासिल हुईं । समकालीन महिला गीतकारों में कौसर मुनीर अनविता दत्त गुप्तन और प्रिया पांचाल अपनी पहचान बना पाने में सफल हुई हैं लेकिन इन जैसी गीतकारों की संख्या जैसे जैसे आगे बढ़ेगी हमारे गाने भी महिलाओं को एक व्यक्ति के रूप में चित्रित कर पाने में सफल होंगे |
 नवभारत टाईम्स में 20/10/18को प्रकाशित  



Monday, October 15, 2018

महिलाओं को मिले बराबरी का दर्जा

पुरूषों ने महिलाओं को दोयम दर्जे का स्‍थान दिया है। यही कारण है कि पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं के प्रति अपराधकम महत्‍व देने तथा उनका शोषण करने की भावना बलवती रही है। पुरुष प्रधान भारतीय समाज में महिलाओं को दिवीतीय दलित की संज्ञा दी जा सकती है जो सामाजिक ,आर्थिक और राजनैतिक दृष्टि से शोषित की भूमिका में हैं |हिंसा कैसी भी हो वह महिलाओं के मनोविज्ञान को प्रभावित करती है | भारत सरकार ने महिला सुरक्षा में एक नया अध्याय जोड़ते हुए एक सकारात्मक पहल की है |  देश के सभी यौन अपराधियों का डाटा बेस बनाने का निश्चय किया |यह डाटा बेस सिर्फ कानून प्रवर्तन एजेंसियाँ को ही उपलब्ध रहेगा ,फिलहाल इनमें उन चार लाख चालीस हजार  अपराधियों के नाम पंजीकृत हो चुके हैं जो बलात्कार ,सामूहिक बलात्कार , बाल यौन अपराध और यौन उत्पीड़न के दोषी सिद्ध  हो चुके हैं |गृह मंत्रालय द्वारा दी गयी जानकारी के अनुसार डाटा बेस इन अपराधियों के फोटो ,पते ,उँगलियों के निशान उपलब्ध कराता है वह भी किसी भी व्यक्ति के निजता को हनन किये बिना | यौन अपराधियों का यह राष्ट्रीय डेटाबेस यौन अपराधों के मामलों को प्रभावी ढंग से ट्रैक करने और उनकी जांच  में सहायता करेगा |देश महिलाओं के साथ होने वाले विभिन्न यौन अपराधों के कारण देश विदेश में काफी बदनामी झेल रहा है यह राष्ट्रीय डेटाबेस इन अपराधों की रोकथाम के लिए एक कारगर कदम के रूप में देखा जा रहा है |इस रजिस्टर में अपराधी केवल तभी जोड़े  जाएंगे जब हमले की सूचना दी जाती है और बाद में ऐसे मामलों में सजा भी सुनाई जाए । वैश्विक स्तर पर,यौन अपराध को रिपोर्ट करने की दरों में काफी अंतर है जैसे ब्रिटेन में लगभग पांच में से एक अपराध रिपोर्ट किया जाता है वहीं  भारत में पचास  में से एक अपराध |
 
अक्टूबर की शुरुआत में, गंगा नदी  में स्नान करने वाली एक महिला के साथ कथित रूप से बलात्कार करने के लिए दो लोगों को गिरफ्तार किया गया था |उल्लेखनीय है कि सोशल मीडिया पर एक वीडियो के वाईरल होने के  परिणामस्वरूप उनकी गिरफ्तारी हुई- महिला ने कथित यौन  हमले की रिपोर्ट नहीं की थी ।यह एक बानगी भर है देश में ऐसे हजारों मामले गरीबी ,जागरूकता के अभाव ,सामाजिक बहिष्कार के डर से रिपोर्ट नहीं किये जाते | राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय नई दिल्ली की शिक्षक  सदस्य  मृणाल सेन द्वारा न्यायालय द्वारा प्राप्त आंकड़ों के आधार पर यह निष्कर्ष निकला कि साल 1983 से साल 2009 के बीच देश भर में हुए 75 फ़ीसदी बलात्कार के मामले गाँवों में हुए| शहरों में सिर्फ अपने तक सिमटे रहने के उलट ग्रामीणों आपस में मिलजुल कर रहने की प्रवृत्ति के कारण बलात्कार और ऑनर किलिंग जैसी घटनाओं की भनक मीडिया या पुलिस को नहीं लगने पाती, क्योंकि यहाँ “खामोशी की खाप” अपना काम करती है जिससे बलात्कार के मामले दबा दिए जाते हैं|लोग  इसे गाँव की इज्ज़त   से जोड़कर देखते हैं| गाँव की सामाजिक आर्थिक बनावट शहरो से अलग हैबलात्कार की  ज़्यादातर शिकार गरीब और पिछड़ी जाति की महिलाएं होती हैं| जिनके लिए ज़िन्दगी की पहली प्राथमिकता दो वक़्त की रोटी है| अगर वे किसी ऐसी ज्यादती का विरोध करती भी हैं तो उनके लिए इसके भी रास्ते बंद हो जाते हैं| मध्यमवर्गीय परिवारों में बदनामी का डर दिखाकर बात को छुपा लिया जाता है|
 
बलात्कार एक सामजिक समस्या है और इसका सीधा सम्बन्ध किसी समाज में महिलाओं की स्थिति से होता है |भारतीय परिस्थितयों में   महिलायें रीयल वर्ल्ड से लेकर वर्च्युअल वर्ल्ड तक हर जगह पीड़ित है | महिलाओं के मुकाबले पुरुष भारत में किसी भी सोशल मीडिया प्लेटफोर्म पर ज्यादा सुरक्षित है वो कुछ भी लिख सकता है कैसी भी तस्वीरें डाल सकता है पर अगर महिलाएं फेसबुक पर पुरुषों जितनी बिंदास हो जाएँ तो उन्हें तुरंत चरित्र प्रमाण पत्र मिलने लग जाते हैं इसलिए कम ही महिलाएं फेसबुक पर ज्यादा मुखर रह पाती हैं और सामान्य महिलायें निजता के हवाले से या तो इससे दूर रहना पसंद करती हैं या फेसबुक का बहुत नियंत्रित उपयोग करती हैं |किसी सामान्य पुरुष के मुकाबले महिलायें ज्यादा खतरे में रहती हैं |मोर्फिंग के डर से अकेले की तस्वीरें कम डालना ,क्या लिखें क्या न लिखें इस संशय में रहना , लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे अगर मैंने यह तस्वीर लगा दी, अगर मेरा अकाउंट हैक हो गया तो ऐसी पीडायें हैं जिनसे एक पुरुष का सामना कभी नहीं होता है |समाचार पत्रों में अक्सर ऐसी घटनाओं का ब्यौरा रहता है जब किसी न किसी महिला को इन सबसे गुजरना पड़ता है कुछ तो सामाजिक तिरस्कार के डर से आत्महत्या तक कर लेती हैं | भारत में किसी भी महिला को पुरुषों के मुकाबले ज्यादा अजनबियों के मित्रता निवेदन मिलते हैं |समाज वैसे भी महिलाओं की यौनिकता को नियत्रण में रखना चाहता है इसलिए महिलाओं के मिलने जुलने ,हंसने ,उठने बैठने तक सभी स्तरों पर उनके लिए एक आदर्श मानक बनाये गए हैं जिससे अच्छी महिला और बुरी महिला का प्रमाण पत्र दिया जा सके और ये मानक फेसबुक जैसे सोशल प्लेटफोर्म पर भी लागू रहते हैं |इसका दूसरा सम्बन्ध वित्तीय आत्मनिर्भरता से भी जुड़ा है |देश की महिला किसी भी पुरुष से ज्यादा शारीरिक श्रम करती है पर फिर भी पीड़ित है |
 
 
ऑर्गनाइज़ेशन फोर इकॉनॉमिक कोऑपरेशन ऐंड डेवलेपमेंट’ (आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन) द्वारा 2011 में किए एक सर्वे में छब्बीस सदस्य देशों और भारतचीन और दक्षिण अफ्रीका जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के अध्ययन से यह पता चलता है कि  कि भारत ,तुर्की और मैक्सिको की महिलाएं पुरुषों के मुकाबले पांच घंटे ज्यादा अवैतनिक श्रम  करती हैं| भारत में अवैतनिक श्रम कार्य के संदर्भ में बड़े  तौर पर लिंग विभेद हैजहां पुरुष प्रत्येक दिन घरेलू कार्यों के लिए एक घंटे से भी कम समय देते हैं| रिपोर्ट के अनुसार  भारतीय पुरुष टेलीविज़न देखनेआराम करनेखानेऔर सोने में ज्यादा  वक्त बिताते हैं| सीवन एंडरसन और देवराज रे नामक दो अर्थशास्त्रियों ने  अपने  शोधपत्र मिसिंग वूमेन एज एंड डिजीज में आंकलन किया  है कि भारत में हर साल बीस लाख से ज्यादा महिलाएं लापता हो जाती हैं|इस  मामले में भारत के दो राज्य हरियाणा और राजस्थान अव्वल हैं|शोधपत्र के अनुसार ज्यादतर  महिलाओं की मौत जख्मों से होती है जिससे ये पता चलता है कि उनके साथ हिंसा होती है| साल 2011 के पुलिस आंकड़े  बताते हैं कि देश में लड़कियों के अपहरण के मामले 19|4 प्रतिशत बढ़े हैं|दहेज मामलों में महिलाओं की मौत में 2|7 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई  है| सबसे ज़्यादा चिंताजनक तथ्य  यह है कि लड़कियों की तस्करी के मामले 122 प्रतिशत बढ़े हैं|देश में महिलाओं से जुड़े यौन  अपराधों से निपटने के लिए एक लम्बा रास्ता तय करना  बाकी है और इसका समाधान कानून बना कर नहीं बल्कि सामजिक संरचना में महिलाओं को ज्यादा अधिकार देकर ही होंगे |
दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 15/10/18 को प्रकाशित 
 

Sunday, October 14, 2018

यात्राएं तब की जाती हैं

यात्राएं के लिए इमेज परिणाम
यात्राएं
तब की जाती हैं
जब चलने को पाँव हो
और
मिलने को बहाने
यात्राएं
तब की जाती हैं
जब जीवन में धडकन हो
और
क़दमों में हलचल
यात्राएं
तब की जाती हैं
जब जाने के लिए आना हो
और
रुकने को ठिकाना

यात्राएं
तब की जाती हैं
जब जीवन एक तलाश हो
और कुछ जानने की प्यास हो.....................


 


Saturday, October 13, 2018

महिलाओं की आवाज बन रहा है सोशल मीडिया

'मी टूयह शब्द साल 2006 में सबसे पहले दुनिया के सामने आया  और साल  2017 में इसने (#MeToo) कैम्पेन ने सोशल मीडिया पर एक आंदोलन की शक्ल ली. अमेरिका की सामाजिक कार्यकर्ता टराना बुर्के ने महिलाओं के साथ होने वाले यौन उत्पीड़न के खिलाफ 2006 में आवाज उठाई थी तब  बुर्के ने दुनिया भर की महिलाओं से अपील की कि अगर वो भी इसकी शिकार हैंतो मी-टू शब्द के साथ इस पर खुल कर बात करें. इस सिलसिले के दस साल बाद बाद 2017 में एक बार फिर ये शब्द ख़बरों  में तब आया जब हॉलीवुड अभिनेत्री एलीसा मिलानो ने खुलासा किया कि हॉलीवुड के बड़े निर्माता  हार्वे वीन्सटीन ने उनका और तमाम अन्य अभिनेत्रियों का यौन उत्पीड़न किया. एलिसा मिलानो ने 16 अक्टूबर 2017 को ट्विटर पर सभी से अपील की अगर वे भी यौन उत्पीड़न की  शिकार हैं तो #MeToo के साथ खुलकर अपनी बात कहें . उसके बाद यह अभियान एक आंदोलन की शक्ल में सामने आया और कई सम्मानित महिलाओं ने खुलासा किया की उनके साथ भी यौन उत्पीडन  हुआ है और यहीं से मी-टू कैम्पैन जिंदा हो गया.
भारत में  इस अभियान की  गूंज पूर्व अभिनेत्री तनुश्री दत्ता के माध्यम से फिल्म जगत और फिर पत्रकारिता तक में भी सुनाई दे रही है।सोशल मीडिया ऐसी लड़कियों के किस्से से भरा हुआ है जो अतीत में घटे अपने यौन उत्पीड़न के किस्से को पूरी दुनिया के सामने रख रही हैं |सोशल मीडिया पर #MeToo के नाम से शुरू हुआ यह कैम्पेन अब  एक आंदोलन की शक्ल ले चुका है. अपने पैरों पर मजबूती से खडी होने की  कोशिश करती भारतीय  महिलाओं के खुलासों ने सभी को चौंका दिया है?भारतीय संदर्भ में यह एक ऐसी मूक क्रान्ति आकार ले रही  है जो सोशल मीडिया के सहारे परवान चढ़ रही है . कई बड़े लोगों ने ख़ुद पर लगे आरोपों पर माफी भी मांगी है पर  कुछ लोग अब भी चुप्पी बनाए हुए हैं. मी टू अभियान का एक पक्ष यह भी है कि सोशल मीडिया पर आधी आबादी अपनी बात मुखरता से रख सकती है |वैसे भी देश की महिलाओं के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल भी कोई आरामदायक अनुभव नहीं है .  भारत दुनिया के सबसे ज्यादा स्पैम काल करने वाले देशों में पहले स्थान पर है पर इस दर्द को पुरुषों के मुकाबले ज्यादा महिलाओं को ही झेलना पड़ रहा है |देश की महिलायें औसत रूप से पुरुषों के मुकाबले अठारह प्रतिशत आवंछित मेसेज और स्पैम कॉल प्राप्त कर रही हैं . अपनी तरह के दुनिया में पहली बार इस तरह के शोध का दावा करने वाली स्वीडन की कम्पनी ट्रू कॉलर एप जो मुख्यतः लोगों को फोन नम्बर पहचानने में मदद करती है ने यह इसी साल जनवरी से फरवरी महीने में देश के पंद्रह शहरों में यह सर्वे किया है . फोन और वीडियो भेजने वाले इन लोगों में पचास प्रतिशत एकदम अनजाने लोग होते हैं जबकि ग्यारह प्रतिशत पीछा करने वाले होते हैं जो किसी तरह उन महिलाओं और लड़कियों के नंबर तक अपनी पहुँच बना लेते हैं |ऐसी कई ख़बरों से देश पहले से ही दो चार हो चुका है जहाँ लड़कियों ने फोन नंबर बेचे जाने की घटनाएँ प्रकाश में आईं हैं |मी टू अभियान को मिल रहा इतना समर्थन बता रहा है कि देश में महिलाओं का उत्पीडन कितनी बड़ी संख्या में हो रहा है . सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर भी महिलायें सुरक्षित महसूस नहीं करती हैं जहाँ पुरुषों के मुकाबले  महिलायें ज्यादा ट्रोल की जाती हैं पिछले साल क्रिकेटर मिताली राज ,अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा ,सोनम कपूर और तापसी पुन्नू को ट्रोल किया गया |ये वो महिलायें हैं जिन्होंने अपनी मेहनत और प्रतिभा के बूते सारी दुनिया में अपनी पहचान बनाई है फिर भी इनके कपड़ों और व्यकतिगत जीवन को लेकर इन्हें ट्रोल किया गया |जब समाज की इन नामचीन महिलाओं की ऐसी स्थिति है तो देश की आम  महिलाओं की सोशल मीडिया में क्या स्थिति होगी . तथ्य यह भी है कि आम पुरुषों के  मुकाबले महिलायें सोशल मीडिया पर उतनी स्वछन्द स्थिति का लुत्फ़ नहीं उठा सकतीं और अक्सर इस की कीमत अश्लीन संदेशों और फोटो के रूप में चुकानी पड़ती है | यही मानसिकता आगे चलकर महिलाओं के उत्पीडन की जिम्मेदार बनती है .
लेकिन  इस बार स्थिति थोड़ी अलग है जब वे खुल कर खुद ही अपने साथ हुए अपराध की कहानी दुनिया के सामने ला रही हैं .लेकिन इस अभियान का एक अन्य पहलू भी है वह यह कि किन मामलों को #MeToo माना जाए और किन मामलों को नहीं. मी टू अभियान की शुरुआत सिर्फ़ उत्पीड़न से शुरू हुई थी इसे दूसरी बातों के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए पर ऐसा हो नहीं रहा है . जिन लोगों के रिश्ते कामयाब नहीं रहे वो भी इसे #MeToo में ला रहे हैं. इससे जिन लोगों के साथ वाकई उत्पीड़न हुआ है उनकी कहानियां छिप  जाएंगी. एक लड़की जानती है कि कब कौन सिर्फ़ मज़ाक कर रहा है और कब उत्पीड़न कर रहा है. अगर एक लड़की ना कह रही है तो आदमी को रुकना होगा. अगर एक लड़की कह रही है कि उसे ये नहीं पसंद तो आदमी को रुकना होगा. अगर लड़की की ना के बाद लड़का आगे बढ़ रहा है तो ये उत्पीड़न है.हमें यह भी समझना होगा कि इस अभियान के तहत बलात्कारी के लिए भी वही सज़ा और कमेंट पास करने वालों के लिए भी वही सज़़ा यह धारणा उचित नहीं हो सकती है . कमेन्ट पास करने वाले लोगों को समझाया जा सकता है शायद उन्हें पता ही नहीं हो कि वो जो कर रहे हैं वो समाज के लिए ठीक नहीं है |हो सकता है एक बार चेतावनी मिलने के बाद वो सुधर जाएँ पर बलात्कार की माफी नहीं दी जा सकती है ऐसे लोगों की सभ्य  समाज में कोई जगह हो ही नहीं सकती .ये स्त्री को इंसान नहीं वस्तु समझते हैं |
दैनिक जागरण /आईनेक्स्ट में 13/10/18 को प्रकाशित 

Friday, October 5, 2018

जिन्दगी और पॉलिटिक्स

देश में  चुनाव का मौसम आने वाला है,वैसे  राजनीति को एक नकारात्मक शब्द  माना जाता है.हम जब कार्यस्थल  या रिश्तों में फंस जाते हैं तो बस बेसाख्ता मुंह से निकल ही  जाता हैबहुत पॉलीटिक्स है” . ये राजनीति इतना बुरा शब्द भी नहीं है जितना हम समझते हैं.देश के चुनाव का मौसम पांच साल में एक बार आता है जब हम अपनी पसंद से किसी को वोट देते हैं.कभी किसी को जिताने के लिए और कभी कभी किसी को हराने के लिए भाई यही तो पॉलीटिक्स है.यानि सारा खेल बस इसी पसंद का है कि हम जिस तरह का देश समाज चाहते हैं वैसे ही लोग चुनकर आयें पर जब ऐसा नहीं होता है तो शुरू होता है द्वंद ,इस वैचारिक द्वंद का फैसला चुनाव के वक्त होता है पर जब बात जिंदगी की होती है तो पसंद  का मामला और भी महत्वपूर्ण  हो जाता है.जिंदगी कोई देश नहीं है कि एक बार अपनी पसंद  बता दी और पांच साल की छुट्टी यहाँ तो रोज हर वक्त पॉलीटिक्स है,क्यूंकि हम सभी  अपनी जिंदगी को बेहतर और खूबसूरत बनाना चाहते हैं और ये तभी हो सकता है जब देश और समाज अच्छा होगा यहाँ तक तो ठीक है पर जब बात जिंदगी और रिश्तों की होती है और चीजें हमारे हिसाब से नहीं होती तब एक और तरह का द्वंद  शुरू होता है तब हम परिस्थितियों का सामना करने की बजाय  बहुत पॉलीटिक्स है” कहकर समस्याओं से भागने लग जाते हैं.
जब रिश्ते की राजनीति  में फंसें तो पहले यह तय कीजिये कि आप क्या चाहते हैं और उसी तरह से निर्णय लीजिए.अपनी जिंदगी के पन्ने पलटिए थोडा पीछे मुड़कर देखिये कि आप जिन्द्गी में सफल या असफल क्यूँ हुए बात सीधी है.अगर आप सफल रहे हैं तो आपने फैसले सही किये अपनी प्राथमिकताएं स्पष्ट रखी जिससे आपको और दूसरों को भी आपके बारे में निर्णय लेने में आसानी हुई.पर अगर आप लगातार असफल हो रहे हैं तो जिंदगी की पॉलीटिक्स यही कहती है कि आप भ्रम के शिकार हैं जिंदगी और रिश्तों को लेकर आपका नजरिया स्पष्ट नहीं हैं. जैसे देश के चुनाव में हम भ्रम का शिकार होकर गलत  प्रत्याशी   को वोट देकर जीता देते हैं वैसे ही जिंदगी और रिश्तों में गलत फैसले लेकर अपने आप को परेशानी में फंसा लेते हैं.चुनाव के वक्त आपने भी सुना होगा बहुत से दल ये दावा करते हैं कि उनके आते ही विकास की गंगा बहने लगेगी अब आप इस तरह की बातों पर भरोसा कर लेते हैं तो समझ लीजिए कि आप जिंदगी और रिश्तों के बारे में भी आपकी समझ नहीं है. इतना तो आप भी मानते हैं कि दोस्ती या रिश्ते एकदम से क्लोज नहीं होते रिश्तों को पकने में वक्त लगता है और इसके पीछे सिलसिलेवार तरीके से आपके द्वारा लिए गए निर्णय जिम्मेदार  होते हैं उसी तरह से देश में बदलाव एक झटके में नहीं हो सकता है.
समस्या  का समाधान तो तभी होगा जब हम उनके बारे में सोचेंगे,आपने कभी सोचा कि बचपन का वो दोस्त जो आपको सबसे प्यारा लगता था आज उससे बात करने पर वो मजा नहीं आता क्योंकि आपने अपनी प्राथमिकताएं बदल ली हैं.आज आपको उसकी उतनी जरूरत नहीं क्यूंकि आपका जीवन आगे बढ़ चला है.बात देश की हो या अपनी अपनी जिंदगी की पॉलीटिक्स की सारा खेल पसंद  का है पर जैसे देश आपसे वोट की उम्मीद करता है जिंदगी और रिश्ते भी करते हैं.देश का वोट उंगली पर लगी स्याही से दिखता है.जिंदगी और रिश्तों का  वोट प्यार  और त्याग  के रूप में दिखता है .
प्रभात खबर में 05/10/18 को प्रकाशित 

पसंद आया हो तो