क्या आप दूरदर्शन के जमाने को याद करते हैं? वो दौर जब घरों में एक ही टीवी होता था और रिमोट के लिए बच्चों में खींचतान आम बात थी। बच्चे स्कूल से आते ही शक्तिमान को देखने के लिए टीवी स्क्रीन के सामने जुट जाते थे, चित्रहार की धुन का पूरा परिवार मिलकर लुत्फ उठाता था और रामायण, महाभारत के प्रसारण के समय तो मोहल्लों की गलियाँ तक खाली हो जाया करती थीं। वो पल अब सिर्फ यादों में रह गये हैं। अब हर किसी के हाथ में अपनी एक छोटी स्क्रीन है। ओटीटी प्लेटफॉर्म्स ने टीवी को अब जेब में समेट दिया है। अब फिल्मों के प्रीमियर देखने के लिए किसी खास समय का इंतजार नहीं करना पड़ता। जो देखना है, जब देखना है बस अब एक क्लिक की दूरी पर है। इस ओटीटी और स्ट्रीमिंग वीडियोज की आई बाढ़ ने पारंपरिक टेलीविजन इंडस्ट्री को झकझोर कर रख दिया है। दर्शक अब पारंपरिक टीवी को छोड़कर ज्यादा निजी और इंटरैक्टिव अनुभव के लिए सोशल मीडिया और ओटीटी एप्स का रुख कर रहे हैं। टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक 2024 में डीटीएच सेवाओं के सक्रिय सब्सक्राइबर करीब 4 मिलियन कम हो गये। वहीं साल 2024 में भारत में ओटीटी उपयोगकर्ताओं की संख्या करीब 54 करोड़ पहुँच गई है जो साल 2023 की तुलना में 14 प्रतिशत अधिक है। नैल्सेन जैसी वैश्विक कंपनियों के मुताबिक भारत दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ता हुआ स्ट्रीमिंग बाजार बन रहा है। फरवरी 2025 में लॉन्च हुए जियो हॉटस्टार प्लेटफॉर्म ने 28 करोड़ पेड सब्सक्राइबर्स का आंकड़ा पार कर लिया है। जियो हॉटस्टार ने भारत में दिग्गज स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म अमेजन प्राइम (दो करोड़ सब्सक्राइबर्स) और नेटफ्लिक्स (1 करोड़ सब्सक्राइबर्स) को काफी पीछे छोड़ दिया है।
पिछले कुछ वर्षों में ओटीटी प्लेटफॉर्म्स की लोकप्रियता जिस रफ्तार से बढ़ी है, उसी तेजी से केबल और डीटीएच सब्सक्रिप्शन की गिरावट दर्ज की गई है। इसका एक बड़ा कारण है—दर्शकों की बदलती प्राथमिकताएं। आज का दर्शक कंटेंट सिर्फ देखने भर के लिए नहीं देखता, वह उसे अपने समय, सुविधा और मन:स्थिति के अनुसार चुनना चाहता है। ओटीटी प्लेटफॉर्म्स ने न केवल यह आज़ादी दी है, बल्कि कंटेंट की विविधता और संवेदनशीलता के लिहाज़ से भी पारंपरिक टेलीविज़न को पीछे छोड़ दिया है। कुछ समय पहले की ही बात है जब रविवार को सेट मैक्स , जी सिनेमा जैसे चैनल्स पर हमें ढाई घंटे की फिल्म देखने में हमें चार घंटे लग जाते थे, क्योंकि हर 10 मिनट पर 5 मिनट का एक विज्ञापन आ जाता था। कभी-कभी तो लगता था फिल्म से ज्यादा हम डिटॉल, सर्फ एक्सेल और फेयर एंड लवली का एड देख रहे हैं। वहीं आज का युवा वर्ग जो पंद्रह सेकेंड की इंस्टाग्राम रील देखता है और अगर वो रील लंबी हो जाए तो वीडियो को स्किप कर देता है। ऐसे में युवा दर्शकों का अटेंशन स्पैन इतना कम हो गया है कि उन्हें लंबे विज्ञापन, धीमा नैरेटिव और इंटरवल जैसे टीवी के क्लासिक फॉर्मेट उबाऊ लगते हैं। ओटीटी प्लेटफॉर्म्स दर्शकों की इसी प्रवृत्ति को ध्यान में रख कर विज्ञापन मुक्त अनुभव या कम विज्ञापन वाले सब्सक्रिप्शन मॉडल पेश कर रहे हैं। क्योंकि युवा पीढ़ी जो इंटरनेट और सोशल मीडिया के साथ बड़ी हुई है, अब रिमोट कंट्रोल और फिक्स्ड टाइम स्लॉट में नहीं बंधना चाहती। जहाँ एक ओर पारंपरिक टीवी पर सेंसर बोर्ड और ब्रॉडकास्टिंग नियमों का कड़ा हस्तक्षेप रहता था, वहीं ओटीटी पर किसी तरह की सेंसरशिप नहीं है। जिससे ओटीटी फिल्में और सीरीज कई सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर खुलकर बात कर सकती हैं। इसका सकारात्मक परिणाम यह हुआ है कि कहानियाँ अब सिर्फ मनोरंजन तक सीमित नहीं है वे समाज की जटिलताओं, धार्मिक विविधता और राजनीतिक विमर्श जैसे मुद्दों को भी केंद्र में ला रही है। हालांकि इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ एक नई चुनौती भी सामने आई है। कई बार कंटेंट की अश्लीलता, अनावश्यक नग्नता और अत्यधिक हिंसा को लेकर विवाद खड़े हुए हैं। जिसके कारण कई सामाजिक संगठन ओटीटी प्लेटफॉर्म्स के लिए नैतिक सीमाएं तय करने की माँग कर रहे हैं।
टेलीविजन और ओटीटी में सिर्फ तकनीक का नहीं सोच का भी अंतर है, पारंपरिक टीवी जो एक परिवार का सामूहिक अनुभव था वो अब व्यक्ति की निजी स्क्रीन हो गया है। आज की पीढ़ी दोस्तों और परिवार के साथ बैठकर तय समय पर कुछ देखने की बजाय, अकेले में अपने मोबाइल या लैपटॉप पर मनचाहा कंटेंट देखना पसंद करती है। सैद्धान्तिक तौर पर देखा जाये तो कम विज्ञापन, कहीं भी किसी भी समय कंटेंट देखने की आजादी के चलते व्यक्ति के पास काफी समय बचना चाहिए था मगर अब मनोरंजन का समय सीमित नहीं रहा है वो हमारे हर खाली पल में घुस गया है। ऑफिस का ब्रेक हो या रात की नींद से पहले का समय हर जगह ओटीटी प्लेटफॉर्म और सोशल मीडिया एप्स हमारी जिंदगी में घुस गये हैं। बिंज वॉचिंग आज की हकीकत बन गई है। अब दर्शक हफ्तेभर इंतजार नहीं करते कि अगला एपिसोड कब आएगा, वो एक ही दिन में छह-छह घंटे की वेब सीरीज़ खत्म कर देते हैं। उन्हें लगता है कि ये मनोरंजन है, लेकिन असल में ये आदत दिमाग को थकाने वाली और नुकसानदायक है। ओटीटी प्लेटफॉर्म्स ने हमे चुनने की आजादी तो दी है, मगर ऑटो प्ले नेक्स्ट एपिसोड, सजेस्टेड फॉर यू जैसे मनोवैज्ञानिक ट्रिगर का उपयोग करके हमे बिंज वॉच में फंसा लेते हैं। अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ सेंट्रल फ्लोरिडा में हुए एक अध्ययन के मुताबिक बिंज वॉचिंग से चिंता, अवसाद और नींद की गुणवत्ता में गिरावट हो सकती है। नेल्सैन के कन्ज्यूमर इंटेलिजेंस सर्वे के मुताबिक करीब 66 प्रतिशत प्रतिभागी लगातार 5 घंटे से अधिक बिंज वॉचिंग करते हैं। गूगल के पूर्व डिज़ाइन एथिसिस्ट ट्रिस्टन हैरिस के मुताबिक इन प्लेटफॉर्म्स का बिज़नेस मॉडल ही यह है कि लोग लगातार स्क्रीन पर बने रहें ताकि उनका मुनाफा बढ़ता रहे। एरिज़ोना स्टेट यूनिवर्सिटी के चुन शाओ ने अपनी रिसर्च में पाया कि लोग हर बार नेटफ्लिक्स इसलिए नहीं देखते कि उन्हें कोई शो देखना है। बल्कि वे अकेलापन महसूस कर रहे होते हैं या बस किसी चीज़ से ध्यान हटाना चाहते हैं। वहीं निरंतर स्क्रीन देखने और असीमित चुनाव ने लोगों में फोमो और चॉइस पैरालिसिस जैसी मानसिक स्थितियों ने जन्म दिया है। सोशल मीडिया वीडियोज और ट्रेंड के चलते लोग इस दबाव में रहते हैं कि वे हर नए कंटेंट को देखें, ताकि कहीं वे किसी चर्चा या ट्रेंड से बाहर न रह जाएं। कई बार ऐसा भी देखा गया है कि लोग केवल इसलिए किसी शो को देखते हैं क्योंकि वो ट्रेंड कर रहा था, भले ही वो उन्हें पसंद न आए। अमेरिकन साइकोलॉजिकल एसोशियन के अनुसार फोमो एक तरह के डिसिजन फटीग को जन्म देता है , यह तब होता है जब विकल्प इतने हों कि दिमाग थक जाये।
कुछ साल पहले जब ओटीटी प्लेटफॉर्म कई वायदे के साथ आये थे मसलन लंबे-चौड़े बंडल पैक से छुटकारा, मनचाही फिल्में और वेब सीरीज वो भी विज्ञापनों के बिना, कब क्या और कितना देखना है यह हक अब दर्शकों का होगा। मगर जैसे-जैसे समय गुजरा ये प्लेटफॉर्म भी वही पुराने फार्मुले पर निकल पड़े। जिस तरीके से एक दौर में स्टार, सोनी, जी जैसे बड़े ब्रॉडकार्टर्स अपने चैनलों का सब्सक्रिप्शन बेचते थे, ठीक उसी तरह अब हर ओटीटी प्लेटफॉर्म अपने-अपने कंटेंट का पैक लेकर बैठा है। नेटफ्लिक्स का अपना सब्सक्रिप्शन है, प्राइम पर सारी फिल्में सब्सक्रिप्शन के बाद भी नहीं मिलती , कुछ फिल्में देखने के लिए रेंट नाऊ का बटन दिया है। जियो हॉटस्टार ने भी विज्ञापन और बिना विज्ञापन वाले दोनों तरह के सब्सक्रिप्शन उतारे हैं। किसी एप पर आपको क्रिकेट मिलेगा, तो किसी पर सास-बहू सीरियल, तो वहीं कोरियन ड्रामा देखना है तो वो अलग ओटीटी पर मिलेगा। तो सवाल यही है कि क्या हम फिर उसी जगह आ गए, जहाँ से चले थे। फर्क बस इतना है कि पहले रिमोट से चैनल को बदलने की आजादी थी अब एप बदलने की है। सोशल मीडिया, रील्स, मीम्स, फिल्में, वेब सीरीज से लेकर बिंज वॉचिंग तक, हर खाली पल को भरने के लिए आज एक स्क्रॉल, एक क्लिक और नया प्लेटफॉर्म मौजूद है। कभी जो मनोरंजन था अब आदत बन रहा है, और यही आदत धीरे-धीरे हमें मानसिक रूप से अस्वस्थ कर रही है। हर पल फोमो, सुझाव और ट्रैंड में बने रहने की दौड़ में हम सुकून की तलाश भूल गये हैं और बस बिना सोचे-समझे कुछ भी देख रहे हैं। ओटीटी और स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म ने दर्शकों को कंटेंट चुनने की आज़ादी जरूर दी है, लेकिन कंटेंट की इस बाढ़ में सही चुनाव करना दर्शकों के लिए बड़ी चुनौती बन गया है। दूसरी ओर, ये बदलाव हमारे पुराने टीवी देखने के उस मज़ेदार दौर को भी पीछे छोड़ आया है, जब परिवार साथ बैठकर एक ही स्क्रीन पर कहानी का हिस्सा बनता था। मनोरंजन अब ज्यादा निजी और अकेलेपन के दूर भागने का एक जरिया हो गया है। यह समय है कि हम सचेत रूप से अपने समय और ध्यान को नियंत्रित करें हर समय बिंज वॉचिंग, सतही रील्स में आनंद ढूंढने के बजाय, कुछ समय प्रकृति, रिश्तों और आत्मविकास में बितायें। तभी हम मानसिक सुकून और असली खुशी की तलाश कर पाएंगे।
अमर उजाला में 07/10/2025 को प्रकाशित
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