Wednesday, July 15, 2020

कामकाजी प्रणाली में बदलाव

इंटरनेट और कंप्यूटर के बढ़ते प्रयोग से यह अंदाजा लगाया जा रहा था की आने वाला वक्त का समाज अपने परम्परागत रूप से लग होगा जिसकी झलक हमें रोजमर्रा के काम में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के इस्तेमाल में दिख भी रही थी पर कोरोना काल ने ,मानव सभ्यता के बदलाव की तस्वीर को एक झटके में बदल दिया |मानव सभ्यता में इतना बड़ा बदलाव इससे पहले आग पानी और पहिये की खोज के बाद ही आये थे फिर इंटरनेट ने तस्वीर बदली और समाज में बहुत सी क्रांतिकारी घटनाएँ घटीं और ऑन लाइन का दौर आ गया पर अभी भी बहुत से लोग इंटरनेट से दूर थे क्योंकि उनके पास उन कामों के लिए परम्परागत विकल्प थे जिससे इंटरनेट से मानव सभ्यता का चेहरा जितनी तेजी से बदलना चाहिए था वो गति नहीं थी |लेकिन कोरोना वायरस के कारण उत्पन्न हुई परिस्थितयों ने अचानक ही कई सारे बदलाव कर दिए |
घर और ऑफिस का अंतर मिट गया बहुत से पुराने रोजगार हमेशा के लिए अतीत हो जायेंगे वहीं कई नए क्षेत्रों में रोजगार का स्रजन होगा जिसमें सिर्फ कंप्यूटर और इंटरनेट का ही राज होगा  |ऐसी परिस्थितयों में जब घर से काम करने वाले सैकड़ों हजारों कर्मचारी सामान्य स्थिति में लौटने की प्रतीक्षा कर रहे हैंउनमें से बहुत से लोग अब अपने परम्परागत कार्यालय नहीं लौटेंगे  | क्या हम डिजिटल भविष्य की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं ? क्या यह नया सामान्य (New Normal) होगा ? ये कुछ ऐसे प्रश्न है जिनके उत्तर को खोजने में सारी दुनिया के चिंतक लगे हुए है  |
            अब जो बदलाव आने वाले है वो इसलिए होना लाज़मी हैं क्योंकि कोरोना भले ही खत्म हो जाए पर भविष्य में इस तरह की महामारी न फैले इसके लिए  पूरी मानव सभ्यता तैयारी करेगी |हम भले ही अपने आस पास होने वाले बदलाव को देख न पा रहे हों पर पिछले तीन महीने में हमारे जीवन में हमेशा के लिए काफी कुछ  बदल गया है |जैसेकि हम घर से काम करने के लिए अनुकूलित हो रहें हैंई-मेलचैट और वीडियो कांफ्रेंसिंग पर हमारी निर्भरता बढ़ रही हैवीडियो कॉलिंग अब समय काटने के लिए नहीं बल्कि काम के लिए हो रही है व्यापार जगतआईटी सेक्टरअन्य कंपनियां ही नहीं आम व्यक्ति भी  वीडियो कॉफ्रेंसिंग और ऑनलाइन कार्य को ज्यादा महत्व ज्यादा दे रहा है  | यह महज COVID-19 महामारी के जवाब में न केवल सीमित शारीरिक संपर्क के लिए प्रभावी  है बल्कि काम करने के नए तरीके को भी आकार दे रहा है |आने वाले समय में काम के लिए यात्राओं पर होने वाला व्यय बहुत कम होगा और यह  बहुत तेजी से हमारी कार्य संस्कृति को  बदलेगा जब ज़ूम जैसे एप से यात्राओं  पर होने वाला समय और धन दोनों बचायेंगे   | वर्क फ्रॉम होम का एक बड़ा सामाजिक असर यह हो सकता है कि महिलाओं के साथ रोजगार में होने वाला लैंगिक विभेद कम होगा क्योंकि यह माना जाता है कि महिलाओं को देर रात तक आपातकालीन परिस्थितयों में रोकना मुश्किल होता है इसके अतिरिक्त उन पर घर की ज्यादा जिम्मेदारी होती है |जिससे महिलाओं के लिए रोजगार के ज्यादा  अवसर बढ़ेंगे | इस तथ्य की पुष्टि  आंकड़े भी कर रहे हैं कि महिलाओं के लिए जॉब सर्च पोर्टल जॉब्सफॉरहर पर घर से काम वाली नौकरियों की संख्या पिछले एक महीने में बीते साल की इसी अवधि के मुकाबले तीस प्रतिशत  तक बढ़ गई है | वर्क फ्रॉम होम कैटिगरी के अंतर्गत जिन नए पदों पर भर्ती हो रही हैउनमें मेडिकल कॉन्टेंट राइटरवेब डिवेलपर और डिजाइनरआर्ट थेरपिस्टकॉपीराइट और पेटेंट प्रफेशनलऔर पाइथन प्रोग्राम डिवेलपर जैसे पोस्ट शामिल हैं |  स्किल्ड मानव संसाधन समय की मांग है और मशीनीकरण की गति ज्यादा तेज होगी   |
देश में अस्पताल और स्वास्थ्य सेवा संस्थाएं भी बदल रही है जिसको गति कोरोना काल में और तेजी से मिल रही है अब ई कन्सलटेशन (आभासी परामर्श ) वास्तविकता है  जो ऑडियो और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग टूल के माध्यम से किया जा रहा है सरकार की टेलीमेडिसिन प्रेक्टीस गाईड लाईन्स  देश के सुदूर इलाकों में चिकित्सकों को इंटरनेट के माध्यम से अपनी सेवाएँ देने को विधिक स्वरुप प्रदान करती है जिसे बीस मार्च को जारी किया गया है |चिकित्सा का यह तरीका न केवल संकट के इस समय बल्कि भविष्य में भी लोगों को फायदा पहुंचाएगा  डॉक्टर तथा मरीज इन-पर्सन विजिट के बजाय वस्तुतः डिजिटल प्लेटफॉर्म से जुड़ सकेंगे |जिससे अस्त्पतालों में अनावश्यक भीड़ को कम किया जा सकेगा और गंभीर रोगों के इलाज के लिए रोगी अस्पताल पहुंचेंगे | कोरोना महामारी  एक ऐसा संकट है जिसने चिकित्सा वैज्ञानिकों  के साथ ही अन्य वैज्ञानिकों के समक्ष भी चुनौती खड़ी कर दी है | जिससे विज्ञान के सभी क्षेत्रों में हमें बदलाव देखने को मिलेंगे | अब पहले कि अपेक्षा अच्छी और आधुनिक चिकित्सा सुविधा और सुरक्षा के बारे में सोचा जाएगा | 
            मानसिक स्वास्थ्य अब एक बड़ा मुद्दा बनेगा और लोग इसके प्रति भी एकजुट होंगे | शिक्षा के क्षेत्र में भी बहुत बड़ा बदलाव आया है क्योंकि स्कूलों और विश्वविद्यालयों को बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ा | वहाँ ई- लर्निंग  का उदय हुआ है जहाँ बच्चों को सिलेबस  डिजिटल प्लेटफार्मों पर पढ़ाया जा रहा है और इस तरह से शिक्षा और प्रौद्योगिकी का यह एकीकरण तेज हो जाएगा | लगभग हर उद्योग क्षेत्र को प्रभावित करते हुए, COVID-19 ने हमें डिजिटल दुनिया दुनिया से जोड़ दिया है |  ऐसा करना समय की मांग भी  है क्योंकि देश और दुनिया किसी और संक्रामक बीमारी का खतरा नहीं झेल सकती जिससे मानव सभ्यता पर ही संकट आ जाए   | 
अब लोगों को सोशल डिस्टेंस रखना ही होगा शायद इसी तरह से जीना सीखना होगा   | इसके लिए सार्वजनिक जगहें , बसट्रेनऑफिसस्कूलऑडिटोरियमसिनेमाहाल आदि जगहों को नए ढंग से डिजाइन किया जायेगा | सामाजिक दूरी हमारे शिष्टाचार का अंग बनेगी |
सैनिकों और अंतरिक्ष विज्ञान के लिए भी अब नए तरीके से सोचने का मौका मिलेगा | हर क्षेत्र में शोध तेजी से बढ़ेंगे  बढ़ती इंटरनेट पर निर्भरता हमारे मानसिक स्वास्थ्य पर असर डालेगी तो  मेंटल हेल्थ काउंसलर जैसे नए पद  अब अनजाने नहीं होंगे |डिजीटल मार्केटिंग एक्सपर्ट की बहुत तेजी से बढ़ेगी जिससे कई नए तरह के रोजगार का स्रजन होगा |
मुद्रा का लेन देन का जो तरीका नोट्बंदी ने बदलना शुरू किया है उसका चरम अब देखने को मिल सकता है   |  आँकड़ें  बताते हैं कि लॉकडाउन में बिजलीपानीक्रेडिट कार्ड व फोन जैसी सुविधाओं के बिलों का ऑनलाइन भुगतान 73 प्रतिशत  तक बढ़ा है | फाइनेंशियल कंपनीरेजर पे की रिपोर्ट में लॉकडाउन से पहले और बाद के नतीजों का विश्लेषण किया गया है | डिजिटल पेमेंट में 43 फीसदी के साथ यूपीआई सबसे आगे रहा | लेकिन इसी के चलते आने वाले समय में अब साइबर सुरक्षा पर फोकस भी एक मुद्दा रहेगा और आम जनता को साइबर  अपराध से  बचने के तरीकों को ज्यादा तेजी से सीखना होगा  | मानव  की सबसे ख़ास बात ये है कि वो बहुत तेजी से सीखता है यह आपदा भी एक ऐसा ही अवसर है जब आने वाला समाज आज से ज्यादा बेहतर होगा इसी उम्मीद की जानी  चाहिए |
दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में 15/07/20202 को प्रकाशित 



Monday, July 13, 2020

भारतीय एप्स के लिए दिल्ली अभी दूर हैं

अंताक्षरी का समय बीत गया लेकिन पिछले कुछ वक्त तक समय बिताने के लिए करना है कुछ काम”  की श्रेणी में हमारे पास चीनी ऐप टिक टॉक था लेकिन  राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं को देखते हुए सरकार द्वारा टिक-टॉक समेत 59 चीनी ऐप पर प्रतिबंध लगा दिया है |टिक-टॉक के गूगल प्ले स्टोर से  हटते ही भारतीय ऐप-चिंगारी  दस मिलीयन से ज्यादा बार डाउनलोड हो गया |इसी के साथ रोपोसोमित्रों जैसे शुद्ध भारतीय ऐप्स लोगों की पसंद बनने लग गए |चिंगारी यूजर्स को वीडियो डाउनलोड करने और अपलोड करनेदोस्तों के साथ चैट करनेनए लोगों के साथ बातचीत करनेसामग्री साझा करने और फीड के माध्यम से ब्राउज करने की अनुमति देता है|यह ऐप्लिकेशन अंग्रेजीहिंदीबंगलागुजरातीमराठीकन्नड़पंजाबीमलयालमतमिल और तेलुगु भाषा में उपलब्ध है चिंगारी एप से कोई भी टिक-टॉक की तरह  शॉर्ट वीडियो बना सकता है और उसे अपने साथियों  के साथ शेयर कर सकता है इसका मतलब यह है कि चीन के एप का विकल्प भारत में है और भारतीयों को अपने डाटा की सुरक्षा के बारे में अनावश्यक चिंता करने की जरुरत नहीं पर सवाल यह उठता है कि ऐसा पहले क्यों नहीं हुआ ?इसका एक बड़ा कारण इंसान का डाटा में परिवर्तन और जिसके पास ज्यादा डाटा वह कम्पनी व्यवसायिक रूप से ज्यादा शक्तिशाली होगी |
भारत की एप इकोनोमी बहुत तेजी से बढ़ रही है जबकि चीन राजस्व और उपभोग के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा बाजार बना हुआ  है| वहीं अमेरिकन कम्पनियां एप निर्माण के मामले में  शायद सबसे ज्यादा इनोवेटिव (नवोन्मेषी ) हैं |भारत सबसे ज्यादा प्रति माह  एप इंस्टाल करने और उसका प्रयोग करने के मामले  में अव्वल है |भारतीय एप परिद्रश्य का नेतृत्व टेलीकॉम दिग्गज एयरटेल और जिओ  करते हैं यद्यपि स्ट्रीमिंग कम्पनियाँ जैसे नोवी डिजिटल और जिओ सावन और पेटी एम् ,फोन पे और फ्लिप्कार्ट जैसी  ई कोमर्स साईट्स ने अपने आप को वैश्विक परिद्रश्य पर भी स्थापित किया है |फोर्टी टू मैटर्स डॉट कॉम साईट्स के मुताबिक़ गूगल प्ले स्टोर पर  कुल 882,939 एप पब्लिशर्स में से 24359 भारतीय एप पब्लिशर्स हैं |कुछ बड़े भारतीय एप पब्लिशर्स में गेमेशन टेक्नोलॉजी,वर्ड्स मोबाईल,मूटोन,मिलीयन गेम्स ,एआई फैक्ट्री जैसे नाम शामिल हैं गूगल प्ले स्टोर्स में उपलब्ध सभी एप पब्लिशर्स  में से मात्र तीन प्रतिशत एप पब्लिशर्स ही भारतीय हैं |वहीं गूगल प्ले स्टोर पर कुल एप्स की संख्या 2,942,574है जिसमें भारतीय एप की संख्या 121,834 है  जो प्ले स्टोर पर कुल उपलब्ध एप्स का मात्र चार प्रतिशत है |

आंकड़ों के  नजरिये से देश में  उपभोक्ताओं की उपलब्धता के हिसाब से भारतीय एप की संख्या बहुत ही कम है |वैश्विक परिद्रश्य में आंकड़ों के विश्लेषण से कई रोचक तथ्य सामने आते हैं जैसे प्ले स्टोर्स पर उपलब्ध कुल भारतीय एप पब्लिशर्स की औसत रेटिंग पांच में से  3.65 है जो प्ले स्टोर पर सभी पब्लिशर्स की औसत रेटिंग 3.22 से बेहतर है |उसी तरह प्ले स्टोर पर भारतीय एप की औसत रेटिंग 1874 है जबकि प्ले स्टोर पर उपलब्ध सभी एप की औसत रेटिंग 1,112 से ज्यादा है|आंकड़ों की दुनिया से दूर कुछ धरातल की बात क्यों भारतीय एप वैश्विक स्तर पर सफल नहीं है |ऐप बनाना बहुत महंगा काम नही है   परन्तु ऐप की मार्केटिंग एक अत्यंत ही महँगा और समय लेने वाला काम है।भारत मे फंडिंग इको सिस्टम का कम विकसित होना जिसके कारण ऐप निर्माताओं को फंडिंग नही हो पाती।ज्यादातर  फण्ड प्रदाता विदेशी है और उनमें से भी  मुख्य चीन के सॉफ्ट बैंक और अलीबाबा जैसी कम्पनियां शामिल है|  भारतीयों में क्रिएटिविटी की कमी नही है पर जो ऐप बनते हैं उनका उतना प्रचार नही हो पाता जिसके कारण भी भारतीय ऐप इतने प्रसिद्ध नही हो पाए | चायनीज ऐप की प्रसिद्धि के पीछे चायनीज मोबाइल्स का भी बड़ा हाँथ है। ये ज्यादातर ऐप प्रिइंस्टॉल्ड होने के कारण काफी ज्यादा रीच कम समय मे पा जाते हैं जबकि इंडिया के ऐप को ये सुविधा  नही मिलती|किसी भी भारतीय कम्पनी का मोबाईल इतनी ग्लोबल रीच नहीं रखता |भारत चीन के बाद दुनिया में सबस बड़ा मोबाईल बाजार है पर कोई भी भारतीय कम्पनी मोबाईल बाजार में अपना स्थान नहीं बना पाई |एप बाजार में भारत के पिछड़े होने के एक बड़ा कारण भारत और चीन की स्कूली शिक्षा में भी बहुत अंतर होना भी  है । भारत मे अभी भी बच्चे परम्परागत पढ़ाई ही पढ़ रहे और उन्हें एक्सपेरिमेंट करने की ज्यादा छूट नही है | स्कूल स्तर  पर कंप्यूटर शिक्षा पर दो तरह की समस्याओं का शिकार है| पहला स्कूलों में अभी भी फोकस एम् एस वर्ड,एक्सेल,पावर प्वाईंट आदि पर है |दूसरा कंप्यूटर की प्राथमिक भाषाओँ को सिखाने में सारा जोर बेसिक और लोगो जैसी भाषाओं पर ही है |एक समय की अग्रणी कंप्यूटर भाषाएँ जैसे सी, लोगो ,पास्कल ,कोबोल बेसिक ,जावा जो की अब चलन से बाहर हो चुकी हैं अभी भी पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं जबकि कंप्यूटर प्रौद्योगिकी में अग्रणी देश ओपेन सोर्स सोफ्टवेयर और ओपन सोर्स लेंग्वेज को अपना चुके हैं जैसे कि  आर , पायथॉन  रूबी  ऑन  रेललिस्प टाइप स्क्रिप्ट कोटलिन स्विफ्ट और रस्ट इत्यादि |लेकिन इंटरनेट और मोबाईल क्रांति होने के साथ अब आने वाले दशक में इसमे वृद्धि होने की संभावना है |आंकड़े बताते है की आने वाले वक्त में एप बाजार में बड़ा परिवर्तन तभी होगा जब हम कंप्यूटर शिक्षा में नवाचार को बढ़ावा दें और स्टार्ट अप कम्पनियों को वित्त के लिए इधर उधर भटकना न पड़े |जाहिर है भारतीय एप के डिजीटल प्लेटफार्म पर बढ़ती संख्या देश की बड़ी आबादी का जहाँ जीवन आसान करेगी वहीं साइबर अपराध  जैसे मुद्दे पर एक नेटीजन  के तौर पर एक आम भारतीय अपने डाटा को लेकर ज्यादा सुरक्षित महसूस करेगा |
नवभारत टाईम्स में 13/07/2020 को प्रकाशित 

Wednesday, July 1, 2020

जागरूक करती फ़िल्में

कोरोना काल में जब सामजिक मेल जोल बंद है.हमारे जैसे लोग फ़िल्में देखकर इस बुरे समय को बिता रहे हैं . फिल्मों के कथानक चाहे जितने ही काल्पनिक क्यों न हों वे समय और समाज से कटे हुए नहीं रह सकते सिनेमा ने हमेशा समाज को आइना दिखाया हैऔर बताया है सिनेमा सिर्फ़ मनोरंजन नहीं बल्कि एक संसार है जो जीवन के हर एक भाग को छूता ही नहीं बल्कि प्रभावित भी करता है .उनका प्रस्तुतीकरण भले ही काल्पनिक हो लेकिन समस्या  अपने समय  की ही होती हैं जैसे लोगों को फिल्में देखने का रोग होता है वैसे ही हिन्दी फिल्मों ने समय समय पर विभिन्न रोगों को कहानी का आधार बनाया है और दर्शकों को बताने की कोशिश की है की ये रोग क्या हैं ?भले ही ये बात आपको आश्चर्य जनक लगे लेकिन फिल्में समय से निरपेक्ष नहीं रह सकती जो भी समाज में है वो फिल्में जरूर दिखाती है.बात शुरू करते हैं १९५३ में बनी फ़िल्म आह सेउस वक़्त तपेदिक या टीबी एक लाइलाज रोग था नायक राजकपूर टीबी का शिकार होता है लेकिन नायिका नर्गिस तमाम सामाजिक प्रतिरोधों के बावजूद नायक का साथ देने का फ़ैसला करती है .खामोशी फ़िल्म मानसिक रोग की समस्या को दिखाती है .हिन्दी सिनेमा के इतिहास मे जिस रोग को सबसे ज्यादा बार दिखाया गया है वह है कैंसर आनंद ,सफर मिली दर्द का रिश्ता ,वक्त रेस अगेंस्ट टाइम सभी फिल्मों के कथानक का आधार कैंसर ही था कमजोर ह्रदय की बीमारी पर मशहूर फ़िल्म कल हो न हो या यादाश्त जाने की बीमारी पर बनी फ़िल्म सदमा में श्रीदेवी और कमल हसन के भाव प्रवण अभिनय को कौन भूल सकता है जल्दी ही प्रर्दशित हुई फ़िल्म तारे जमीन पर डीस्क्लेसिया बीमारी की प्रॉब्लम से जूझ रहे पेरेंट्स के लिए उम्मीद की एक नयी किरण लेकर आयी है इसी कड़ी में स्जोफ्रिनिया रोग पर आधारित फ़िल्म यु मी और हम का नाम लिया जा सकता है . अंधेपॅन की समस्या रोग है या विकलांगता यह बहस का विषय हो सकता है लेकिन हमारे फिल्मकारों ने इस समस्या को बड़े ही सार्थक तरीके से सिनेमा के परदे पर उतारा है.
अंधेपन की समस्या पर बनी फिल्मों में दोस्ती मेरे जीवन साथी जुर्मानास्पर्शब्लैक आँखें (नयी )परवरिश आदि. प्रमुख हैं . ऐड्स रोग पर बनी फ़िल्म फ़िर मिलेंगे और ‘माय ब्रदर निखिल’ ने जिस तरह रोग के बारे में दर्शकों को जागरूक किया है वो सराहनीय है . अगर इन फिल्मों के टाइम पीरियड पर गौर करें तो साफ पता चलेगा की जिस टाइम पर समाज जिस रोग का जायदा शिकार हो रहा था फिल्मों की कहानियो में वैसे ही रोग शामिल हो रहे थे . फिल्मों में रोगी का चित्रण वास्तविक रोगियों में एक आशा का संचार करता है जो किसी भी गंभीर रोग से पीडित व्यक्ति के लिए बहुत जरुरी है उसे जीने की शक्ति और सकरात्मक उर्जा मिलती है. यानि लिव लाइफ किंग साइज़ हिन्दी फिल्मों का एक मशहूर डायलोग है इसे दवा की नहीं दुवा की जरुरत है ऐसी फिल्में वाकई रोगियों के लिए दुआ का काम करती है. ये फिल्मों का रोग है या रोग पर बनती फिल्में इसका आंकलन किया जाना बाकी है .मुझे उम्मीद है कि जल्दी ही हम इस बुरे वक्त से निकल जायेंगे तो कोरोना पर भी कोई  शानदार फिल्म देखने को मिलेगी.
प्रभात खबर में 01/07/2020 को प्रकाशित लेख 

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