Friday, March 20, 2020

अंडमान और निकोबार द्वीप समूह की अनदेखी दुनिया :तीसरा भाग

कैदियों को दी जाने वाली यातना का प्रतीकातमक चित्र 
फांसी घर 
फांसी घर 
दूसरे दिन सुबह धुप निकली हुई थी ,हालाँकि जून महीने में आने के लिए कई लोगों ने शंका जताई थी कि मेरी यात्रा बरसात के कारण चौपट हो सकती है पर सौभाग्य से बरसात से फिलहाल अभी तक कोई समस्या नहीं नजर आ रही थी |पहले सेल्यूलर जेल के भ्रमण का कार्यक्रम था |हालाँकि हम पिछली रात में इसके दर्शन कर चुके थे पर आज दिन की रौशनी में क्रांतिकारियों  के तीर्थ को देखने का मजा अलग था |हमारे होटल से सेल्यूलर जेल का रास्ता मुश्किल से दस मिनट का था |
सेलूलर जेल 
जहाँ आज जेल है कभी यहाँ एक विशाल पहाड़ हुआ करता था |उस पहाड़ को इस जेल बनाने के लिए काट दिया गया |सेलुलर जेल का बचा हिस्सा आज एक तीर्थ है जो हमें याद दिलाता है कि ये स्वतंत्रता कितने संघर्ष और मानव जानों की कीमत पर मिली है |हम समय से पहले सेलुलर जेल पहुँच गए थे |जेल के सामने एक पार्क बना हुआ है |मेरा कौतुहल मुझे वहां ले गया |इस पार्क का नाम था वीर सावरकर पार्क जहाँ
यहां स्वतंत्रता  की लड़ाई में शामिल उन सात वीरों का प्रतिमाएं हैं। जिन्होने जेल की अमानुषिक यातना के बीच यहीं पर अंतिम सांस ली। जिनके नाम हैं  इंदू भूषण रे, बाबा भान सिंह, मोहित मोइत्रा पंडित राम रक्खा बाली, महावीर सिंह, मोहन किशोर नामदास | ये सभी जेल में हुई भूख हड़ताल में अंग्रेजों द्वारा जबरदस्ती नली द्वारा हड़ताल तुडवाने की कोशिश में शहीद हुए |इस पार्क के पीछे एक खूबसूरत स्टेडियम बना हुआ था |
सेलूलर जेल का बाहरी भाग 
मैं अभी उस दौर की यादों में खोया हुआ ही था कि जेल के अन्दर जाने का समय हो गया |जेल के द्वार पर वीर सावरकर का उद्भोधन लिखा हुआ है “यह तीर्थ महातीर्थों का है
, मत कहो इसे काला पानी, तुम सुनो यहां की धरती के कण कण से गाथा बलिदानी” |सामने जेल का परिसर दिखता है उस परिसर में सबसे पहले 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में इस जेल की कैद में शहीद हुए लोगों की याद में एक स्मारक बना है वहीं उन सेनानियों की याद में एक ज्योति भी अनवरत जलती रहती है |जेल का एक चक्कर लगाते हुए मैं सोच रहा था| इन छोटे से कमरों में आज से नब्बे साल पहले बगैर बिजली और पंखे के कैसे लोग रहते होंगे |जून के पहले हफ्ते में यहाँ खासी गर्मी पड़ रही थी उस वक्त क्या हाल होता होगा जब चारों ओर समुद्र ,उमस बोलने बतियाने के लिए कोई नहीं |दिन भर जानवरों के काम को इंसानों द्वारा लिया जाता था |
सावरकर पार्क 
थकने पर बेइंतहा मार जिसकी गवाह इस जेल की दरो दीवारें थी |आखिर कौन थे वो आजादी के मतवाले जो फिर भी नहीं झुके |यहाँ दो घंटे में में हमारा प्यास से बुरा हाल था |जेल परिसर से बाहर निकलते ही हम लोगों ने नारियल पानी पिया और आधे घंटे सुस्ताये |जब यह जेल अपने पूरे आकार में रही होगी कितना वीभत्स माहौल यहाँ रहा होगा |इसका नाम सेल्युलर जेल इसलिए पड़ा क्योंकि इसमें हर कैदी के लिए अलग अलग सेल बनाए गए थे। इसका उद्देश्य था कि हर कैदी बिल्कुल एकांत में रहे और मनोवैज्ञानिक तौर पर बिल्कुल टूट जाए। जेल तीन मंजिला है।
बची हुई जेल की इमारत में सौभाग्य से वीर सावरकर की कोठरी सुरक्षित रह गयी |राजनैतिक कारणों से सावरकर अक्सर चर्चा में रहते हैं |देश के दो राजनैतिक दल अक्सर उनकी विरासत पर सवाल जवाब करते हैं |उन्हें दो उम्रकैद की सजा एक साथ मिली थी | इस हिसाब से उन्हें 1961 में जेल से बाहर आना चाहिए था |
वे इस जेल में दस साल रहे |उस वक्त के माहौल में कोई यहाँ दस दिन बिता दे मेरे लिए व
ही बड़ी बात थी ,दस साल तो बहुत बड़ी बात है वो भी देश के नाम पर ,यहीं मुझे बताया गया कि उनके भाई भी इसी जेल में कैद थे जिसकी उनसे मुलाक़ात तीन साल बाद हुई |सवालों से तो परे भगवान भी नहीं पर उनकी देशभक्ति पर सवाल नहीं उठाया जा सकता |उनकी कोठरी के ठीक नीचे फांसी घर था ,जहाँ एक साथ तीन लोगों को फांसी दी जाती थी |मैं सावरकर की कोठरी के सामने खड़े होकर नीचे देखते हुए सोच रहा था ,दस साल में उन्होंने न जाने कितने हँसते बोलते इंसानों को लाश में बदलते  देखा होगा |कितना मुश्किल होता होगा एक इंसान के तौर पर अपनी आँखों के सामने यह सब होते हुए देखना |फांसी घर में घुसते ही मेरे हाथ उस जमीन को प्रणाम  किये हुए बगैर न रह सके |हमारे असली तीर्थ तो यही हैं मैं उस कमरे में चुपचाप उन दृश्यों की कल्पना कर रहा था |जब आजादी के मतवालों को फांसी दी जा रही होगी |उसके नीचे वह कमरा जहाँ मृतशरीर  हवा में झूल रहा होता था और उसे रस्सी से उतार कर समुद्र में बहा दिया जाता है |मैं उस कमरों को दीवारों को छू कर देख रहा था |काश ये बोल सकती तो क्या बोलती ?क्या –क्या इन दीवारों ने देखा और सहा होगा ?अतीत से संवाद करते –करते मुझे वक्त का ख्याल न रहा अब चलना है |11 फरवरी 1979 को तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने सेल्युलर जेल को राष्ट्रीय स्मारक के तौर पर राष्ट्र को समर्पित किया। |अंडमान का हेवेलोक द्वीप हमारा इन्तजार कर रहा था |

जारी ...........................

Thursday, March 19, 2020

अंडमान और निकोबार द्वीप समूह की अनदेखी दुनिया :दूसरा भाग

हमारे पोर्ट ब्लेयर पहुँचते वहां का मौसम बदल गया |उमस की जगह बारिश की रिम झिम ने ले लिया |वीर सावरकर एक छोटा सा एयरपोर्ट है जो किसी बस स्टैंड जैसा लगता है |अब पर्यटकों की आवक साल भर रहती हैं पर एयरपोर्ट बदहाल है |हमारा होटल एयरपोर्ट से दस मिनट की दूरी पर था थोड़ी देर मे हम अपने होटल के कमरे में पसरे पड़े थे और ऐसा लग रहा था बस अगले पांच दिन यहीं सोते –सोते गुजार दें ,पर नींद न आई |सोचा क्यों न बाहर का एक चक्कर लगा लिया जाए |हालांकि बारिश हो रही थी पर यहाँ मैं बारिश के एक नए अनुभव से रुबरु होने जा रहा था |
रात के समय लाईट साउंड शो के समय सेलुलर जेल 
जब आप बाहर से देखते हैं तो लगता है बहुत तेज बारिश है पर जब आप बाहर निकल जाएँ तो आप कम भीगते हैं |शायद इस का कारण तेज चलने हवाएं थी तो उस बारिश में मैंने होटल के आस –पास चक्कर लगाया |कु
छ दुकानें थी और लोग अलसाए से पड़े थे |बारह से तीन लंच टाईम ,तीन घंटे लंच कौन करता है काम भी होते रहते हैं पर सिस्टम तो यही है शायद इसका कारण यहाँ सुबह का जल्दी होना भी हो सुबह चार बजे उजाला हो जाता है और पांच बजे सूरज देवता आ जाते हैं इसकी भरपाई शाम को होती है और सूरज साधे पांच बजे तक डूब जाता है |ज्यादा कुछ करने को नहीं था क्योंकि हमारा पहला कार्यक्रम प्रख्यात सेलूलर जेल में होने वाले लाईट और साउंड शो को देखने का था |जिसके लिए साढ़े छ बजे तक इन्तजार करना था तो सोचा क्यों न थोड़ी पेट पूजा कर ली जाए |होटल के कुछ वेटर चेन्नई या दक्षिण भारत के थे तो कुछ यहीं के स्थानीय निवासी पर किसी ने उत्तर भारत न देखा था |उनके लिए दिल्ली उतनी ही दूर थी जितना हमारे लिए अंडमान |कभी उधर जाने का मन नहीं करता ?मैंने बात बढाने के लिए सवाल उछाला |क्या करेगा उधर जाकर अगर वो जगह इतना अच्छा होता तो लोग यहाँ क्यों आता |बात में दम था |होटल का रिशेप्सनिस्ट बीस साल का एक बिहारी लड़का था जो गया से तीन महीने पहले यहाँ आया था |उसने होटल मैनेजमेंट का कोर्स कर रखा था |




यहाँ क्यों आये ?मेरे एक रिश्तेदार हैं उन्होंने बुलाया |
ऐसी दिखती थी पूरी सेलुलर जेल :फोटो साभार 
घर की याद आती है ?कभी –कभी तो लौट क्यों नहीं जाते ?क्या करेंगे वहां जाकर यहाँ पैसा तो मिल रहा है |होटल के रेस्टोरेंट से पूरा पोर्ट ब्लेयर दिखता है |समुद्र में आते –जाते जहाज ,हरे भरे छोटे –छोटे पहाड़ दूर लाईट हाउस जिसकी बत्तियां शाम के धुंधलके में चमकना शुरू कर रहीं थी और मैं सडक
 पर आते जाते लोगों को देख रहा था |ट्रैफिक एकदम व्यवस्थित कोई भी दुपहिया चालाक बगैर हेलमेट के गाडी नहीं चला रहा था |तभी खतरनाक गति से डीजे की आवाज और सड़क पर कई दुपहिये वाहन चालकों को हुल्लड़ करते निकलते देखा ,अचानक लगा मैं उत्तर प्रदेश के अपने घर में हूँ पर ये पोर्टब्लेयर था और मौका था एक लडकी की शादी की विदाई का |एक सजी धजी कार उसके आगे बाढ़ पंद्रह लोग अपनी दुपहिया में और पीछे एक छोटे हाथी जैसी गाडी में विशाल स्पीकर और मैंने सैयां जी से आज ब्रेकअप कर लिया बजता गाना |थोड़ी देर में ये शोर खत्म हुआ पर आधे घंटे में वही काफिला फिर सड़क पर था |थोड़ी देर बाद वे सब अपनी मंजिल पहुँच गए होंगे और शोर खत्म हुआ पर ये परम्परा मुझे ये सोचने पर मजबूर कर रही थी ,क्या हमारी सभ्यता शोर की सभ्यता है ?खुशी या गमी बगैर शोर मचाये पूरी हो ही नहीं सकती |मैंने सर को झटका दिया मैं यहाँ  घूमने आया हूँ सिर्फ घूमने पर इस मुए दिमाग का क्या करूँ जो हर वक्त सवाल करता रहता है |हमारे होटल से सेलुलर जेल का प्रांगण मुश्किल से पंद्रह मिनट की दूरी पर था |हम नियत समय पर पहुँच गए थे |अंदर एक शो खत्म होने को था और हमें बाहर लाइन लगा के खड़ा कर दिया गया |सडक पर पुलिस वाले ट्रैफिक और लोगों दोनों को ही व्यवस्थित कर रहे थे पर लोग कहाँ मानने वाले और उन्हें बार –बार सीटियाँ बजा कर भीड़ को किनारे करना पड़ रहा था |रात हो चुकी थी सेलुलर जेल की ईमारत खामोशी से आने वालों का स्वागत कर रही थीं |चूँकि अँधेरे में जेल का कुछ भाग ही दिख रहा था इसलिए मुझे लगा कि इसको कल दिन में आराम से देखूंगा |जेल का वह हिस्सा न जाने कितना इतिहास अपने सीने में दबाये पड़ा था |इस शो को अंडमान के सेलूलर जेल के अन्दर ला लाईट और साउंड शो आप इस लिंक पर जाकर देख और सुन सकते हैं |जब तब ये शो चल रहा था मैं बस इस जेल की दीवारों को ही देखे जा रहा था जो अलग अलग रौशनियों में अलग –अलग भाव दे रही थीं |कितनी हिंसक ,भयानक और वीभत्स दौर की साक्षी रही है ये जेल | अंडमान में ब्रिटिश सरकार ने कैदियों को भेजने का सिलसिला 1789 से ही शुरू कर दिया था। 
रात में जगमगाती सेलुलर जेल :फोटो साभार 
एक बार जो यहां आ गया उसके वापस जाने की उम्मीद कम रहती थी
, इसलिए देश में अंडमान कालापानी के नाम से मशहूर हो गया। 
सेल्युलर जेल से पहले ज्यादातर कैदी वाईपर द्वीप पर खुली जेल में रखे जाते थे। पर यहां एक विशाल जेल बनाने का ख्याल बाद में आया।  25 अक्तूबर 1789 को सबसे पहले 820 कैदियों को इस द्वीप पर लाया गया। सेल्युलर जेल जिसे इंडियन बैस्टिल भी कहा जाता है इसका निर्माण 1896 में आरंभ हुआ। 10 साल में 1906 में यह जेल बनकर तैयार हुई। यह जेल शहर के उत्तर पूर्व दिशा में अटलांटा प्वाइंट पर बनाई गई। आजकल इस जेल के बगल में मेडिकल कालेज और अस्पताल है। यह जेल ब्रिटिश काल की राजधानी रॉस द्वीप के बिल्कुल सामने है। स्थान का चयन काफी सोच समझ कर किया गया था। इसका नाम सेल्युलर जेल इसलिए पड़ा क्योंकि इसमें हर कैदी के लिए अलग अलग सेल बनाए गए थे। इसका उद्देश्य था कि हर कैदी बिल्कुल एकांत में रहे और मनोवैज्ञानिक तौर पर बिल्कुल टूट जाए। हर सेल का आकार 13.5 फीट लंबा, 7 फीट चौड़ा और 10 फीट ऊंचा है। कोठरी में एक तरफ लोहे  के विशाल दरवाजे और दूसरी तरफ एक रोशनदान है जो तीन फीट चौड़ा और एक फीट ऊंचा है। जेल तीन मंजिला है।हम अगले दिन फुर्सत से इस जेल को देखने की उम्मीद लिए होटल लौट आये |
जारी .........................

Wednesday, March 18, 2020

अंडमान और निकोबार द्वीप समूह की अनदेखी दुनिया :पहला भाग

पोर्ट ब्लेयर का खुबसूरत नजारा 
क और यात्रा सच कहूँ तो मुझे यात्राएँ मुझे सुकून की बजाय तनाव देती हैं पर इस तनाव से मुझे जीवन जीने की गति मिलती है |वैसे मैं बड़ा सुकून पसंद आदमी हूँ पर यात्राओं  में  मेरे मन में बंसा बंजारा जग जाता है फिर क्या मैं निकल पड़ता हूँ जीवन को देखने की एक नयी द्रष्टि की तलाश में इस बार मैं एक ऐसी जगह की यात्रा में निकल रहा हूँ जहाँ जाने का मौका भाग्यशाली लोगों को मिलता है |इस बार यात्रा थी अंडमान और निकोबार द्वीप समूह की |
वहां पहुँचने से पहले मेरे मन में अंडमान और निकोबार यात्रा करने का एक मात्र मकसद भारत की जमीनी आख़िरी सीमा को देखने भर का था |आठवीं कक्षा में था जब भारत के राजनैतिक मानचित्र में बंगाल की खाड़ी में सुदूर बिखरे जमीन के कुछ हिस्से दिखा करते थे और मन में कौतुहल होता था ,कैसी होती होगी वहां की दुनिया ?अंडमान और निकोबार के राजनैतिक सामाजिक जीवन के बारे में हमें ज्यादा नहीं बताया गया |हो सकता है कि अब बताया जाता हो |अंडमान जाने से पहले मुझे बस इतना पता था कि वहां की राजधानी पोर्ट ब्लेयर है और कुछ बढ़िया समुद्री बीच हैं |पर अंडमान इन सब से कहीं अलग है जिसके बारे में आज भी लोगों को काफी कम पता है | अंडमान मलयालम भाषा के हांदुमन शब्द से आया है जो  भगवान हनुमान के लिए प्रयोग किया जाने वाले शब्द  अंडमाणु का परिवर्तित रूप है। उन्होंने ही  श्रीलंका जाते समय इस द्वीप की पहचान की थी । रामायण से जुड़ा हुआ एक मिथक अंडमान का नील द्वीप है |माना जाता है राजा नील इस द्वीप पर आये थे और उन्हीं की याद में इसका नाम नील पड़ गया |
अंडमान और निकोबार नक़्शे में :चित्र गूगल इमेजेस 
 निकोबार शब्द भी इसी भाषा से लिया गया है जिसका अर्थ होता है- नग्न लोगों की भूमि बंगाल की खाड़ी में स्थित ये दोनों द्वीप समूह रणनीतिक तौर पर जहाँ भारत के लिए अहम् हैं वहीं पर्यटन का प्रमुख केंद्र भी है |जब कोई अंडमान और निकोबार द्वीप समूह की यात्रा पर निकट है तो अंडमान और निकोबार के बीच अंतर नहीं पता होता है | यहाँ पर कुल 572 द्वीप हैं। अंडमान द्वीप का छियासी  प्रतिशत क्षेत्रफल वन संपदा से ढका हुआ है। न में से मात्र उनतालीस द्वीपों पर ही लोग निवास करते हैं शेष द्वीप जनसँख्या विहीन हैं |अंडमान को 

निकोबार से अलग करने वाली जलरेखा दस डिग्री चैनल है |निकोबार में पर्यटकों के जाने की मनाही है |आप निकोबार तभी जा सकते हैं जब आप वहां काम करते हों |अंडमान जहाँ पिछले पचास हजार साल जारवा जनजाति का घर है वहीं निकोबार में शोम्पेन और सेनटेलीस जनजातियों का आवास है |
ये सभी जनजातियाँ तथा कथित सभ्य इंसानों से दूर रहना पसंद करती हैं और कुछ हद तक आज भी हिंसक हैं | 1858 से यहां भारत के मुख्य हिस्सों से लोगों के बसने का सिलसिला शुरू हो गया। 10 मार्च 1858 को भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े 200 सेनानियों को समुद्री जहाज से अंदमान लाया गया। तब उन्हे सजा-ए-कालापानी के तौर पर यहां लाया गया था। चाथम में उन सबसे पहले आने वाले सेनानियों की याद में स्मारक का निर्माण कराया गया है। भले ही वे कैदी के तौर पर इस द्वीप पर आए थे पर इस द्वीप के निर्माण, यहां की खेती बाड़ी और यहां की संस्कृति को भारतीय संस्कृति के तौर पर स्थापित करने में उनकी बड़ी भूमिका है। 1857 की क्रांति में विद्रोह का बिगुल बजाने वाले 200 सिपाहियों को लेकर एस एस सिमेरामी नामक जहाज 10  मार्च 1858 को अंडमान पहुंचा था।

1883 में जब चाथम शॉ मिल की शुरुआत हुई तो इनमें से कई कैदियों को इसमे काम पर लगाया गया। इसलिए शॉ मिल के परिसर में उनकी याद में स्मारक बनाया गया है। वैसे अंडमान के बारे  में तथ्य है कि चीन के लोगों को इस द्वीप के बारमें एक हजार साल पहले से मालूम था। वे इसे येंग टी ओमाग के नाम से जानते थे। रोमन भूगोलवेत्ता टॉळमी ने दूसरी शताब्दी में इसे अंगदमान आईलैंड ( अच्छे भविष्य का द्वीप) नाम दिया था। बौद्ध तीर्थ यात्री इत्सिंग ने 672 ई में यहां जहाज से यात्रा की थी। उसने इसे लो जेन कूओ ( नग्न लोगों का देश) नाम दिया था।  पंद्रहवीं सदी में मार्कोपोलो ने इसे अंगमानियन नाम दिया था। इटली के घुमक्कड़ निकोलो कौंट्री से ने इसे आईलैंड ऑफ गॉड कहा था ।
 आर्चिबिल्ड ब्लेयर

जब अंग्रेजों  का राज़ आया तो  इस क्षेत्र से गुजरने वालों जहाजों की रक्षा के लिए यहां पर स्थायी बस्ती के निर्माण की  जरूरत महसूस हुई। और विकल्प में यहाँ खूंखार कैदियों को शुरुआत में भेजा जाने लगा । चारों तरफ समुद्र होने के कारण वे भाग नहीं सकते थे अगर वे भागते भी थी तो समुद्र में ही डूब कर मर जाते । वहीं अंग्रेजों को मुफ्त में श्रमिक मिल गए जो उन 

द्वीपों को इंसानों के रहने लायक बनाने के लिए अपना श्रम देते थे | 14 अप्रैल 1788 को ब्रिटिश अधिकारी ले. आर्चिबिल्ड ब्लेयर को यहां  आबादी बसाने के लिए लगाया गया। 25 अक्तूबर 1789 को पहले कैदियों का एक दल यहां आया। इन आठ सौ बीस कैदियों को वाइपर द्वीप पर खुला छोड़ दिया गया। चारों ओर गहरा समुद्र के कारण भागने का कोई खतरा नहीं था। आर्चिबिल्ड ब्लेयर के नाम पर ही अंडमान  के इस प्रमुख शहर का नाम पोर्ट ब्लेयर पड़ा। बंदरगाह होने के कारण ब्लेयर के नाम में पोर्ट शब्द जुड़ गया। 22 जनवरी 1858 को यहां पर ब्रिटिश झंडा यूनियन जैक लहराया गया। 1858 में पैनल सेटेलमेंट के तहत आए क्रांतिकारियों में पंजाब के गदर आंदोलन के लोग, वहाबी विद्रोही, मणिपुर के विद्रोही और अन्य राज्यों के क्रांतिकारी थे। 1858 में लाए गए क्रांतिकारियों में अधिकतर यहीं की धरती में समा गए। बहुत कम लोग ही लौटकर अपने घर  वापस जा सके।
बंगाल की खाड़ी का पानी 
हमने लखनऊ से पोर्ट ब्लेयर की उड़ान भरी हमारा जहाज दिल्ली ,कोलकाता होते हुए गर्मी की एक उमस भरी दोपहरी में पोर्टब्लेयर के वीर सावरकर एयरपोर्ट पर उतरा |जहाज जब पोर्टब्लेयर के करीब था तो समुद्र में छोटे बड़ी कई स्थलीय भू आकृतियां दिख रही थीं और इन सबके बीच बंगाल की खाड़ी का विशाल सागर हिलोरे ले रहा था जिसका रंग कालिमा लिया लिए हुए था |शायद इसी लिए पुराने जमाने में यहाँ आने वाले कैदियों को काले पानी की सजा का नाम दिया गया था |यहाँ समुद्र का पानी काला दिखता है |
अंडमान में आपका स्वागत है अगले छ दिन हम बंगाल की खाड़ी में बसे इस द्वीप के मेहमान थे |

जारी ...................................













Wednesday, March 11, 2020

जबर्दस्ती हॉर्न न बजाएं

अच्छा अगर आपको फेसबुक पर बार बार पोक करे या मेसेज बॉक्स में जा जा कर आपको अपने स्टेटस अपडेट को लाईक या कमेन्ट करने को कहे तो आपको कैसा लगेगा ? ज़ाहिर है बुरा .पर वर्चुअल वर्ल्ड से अलग रीयल वर्ल्ड में ऐसा रोज  हो तब कैसा होगा आपका रिएक्शन ?घर से बाहर जब बच्चा पहली बार स्कूल जाने के लिए निकलता है तो पढ़ाई से पहले उसे यही  बात सिखाई जाती है कि शोर मत करो पर ये बड़ी बात हम अपने छोटे से जीवन में नहीं सीख पाते हैं.रोड पर होर्न प्लीज का मतलब ये नहीं है कि होर्न आपके मनोरंजन का साधन है. जब जी चाहे बजाते रहो जब तक की सामने वाला रास्ते से ना हट  जाए पर वो तो तभी हटेगा जब उसे आगे जाने का रास्ता मिलेगा पर इतना धीरज  कहाँ है.भाई मंजिल तक तो सभी को पहुंचना है इसीलिये तो सफर में निकले हैं, पर आपको ऐसा नहीं लगता है कि बचपने में शोर ना मचाने की सीख का पालन हम कभी नहीं करते यानि जो जितना शोर मचायेगा वो उतना बड़ा माना जाएगा. फिल्म आशिकी टू का गाना बड़ा हिट हुआ “सुन रहा है तू रो रहा हूँ मैं” एक जमाना था जब लोग अकेले में रोते थे. वो गजल याद है ना आपको “चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है” जिससे दूसरे लोग परेशान ना हों और शोर भी ना हो ,पर रोड हो या पब जब तक आवाज शोर ना बन जाए तब तक बजाओ,पर कभी कभी शेर को सवा शेर भी मिल जाता है तो ऐसे लोगों के कान के नीचे भी बजा दिया जाता है. नहीं समझे अरे स्कूल में ज्यादा शोर करने पर टीचर क्या करते थे हम सब के साथ.सवाल ये है कि ऐसी नौबत ही क्यूँ आये हम एक सिविलाईज्ड सोसायटी में रहते हैं .हमारे देश में होर्न बजाना एक सनक है.समस्या ये है कि हम में से बहुत कम लोग टू या फॉर व्हीलर चलाने के मैनर्स जानते हैं या जानने की कोशिश करते हैं.ड्राइविंग स्कूल इसका सल्यूशन हो सकते हैं पर मुद्दा ये है कि जब हम बचपने की पहली सीख शोर मत करो अपने जीवन में नहीं उतार पाते हैं तो ड्राइविंग स्कूल हमें क्या सुधार पायेंगे. रात की तन्हाई और सुबह का सन्नाटा हमें इसीलिये पसंद आता  है क्यूंकि उस वक्त कोई शोर नहीं होता.सिंपल तो गाड़ी चलाते वक्त इतना ध्यान रखना बिलावजह होर्न बजाना शोर पैदा करता है और शोर किसी को पसंद नहीं होता है. आपको पता ही होगा ज्यादातर रोड एक्सीडेंट जल्दबाजी में ही होते हैं.आपने ट्रक के पीछे वो वाक्य तो पढ़ा ही होगा “जिन्हें जल्दी थी वो चले गए”, पर आपको तो जाना नहीं है बल्कि मंजिल पर सुरक्षित स्वस्थ पहुंचना है.मैंने अपनी कई विदेश यात्राओं में इस बात को महसूस किया है कि वहां गाड़ियों की संख्या ज्यादा होने के बावजूद होर्न का शोर कम होता है या न के बराबर होता है पर हमारे देश में उतनी गाडियां नहीं हैं पर फिर भी होर्न का शोर ज्यादा है. साउंड पाल्यूशन कई तरह की स्वास्थ्य समस्याएं  पैदा भी करता है जिसके लिए  कुछ हद  तक हमारी जबरदस्ती होर्न बजाने की आदत जिम्मेदार होती है.अब आप जाने के इन्तजार में है भाई कुछ काम भी तो करना है .जाइए बिलकुल जाइए पर ध्यान रहे आज से जबरदस्ती होर्न नहीं बजायेंगे और ये बात आपके कान में लगातार बजती रहनी चाहिए.
प्रभात खबर में 11/03/2020 को प्रकाशित 

Saturday, March 7, 2020

स्त्री का दम आजमा रहा है सिनेमा

फिल्म ‘थप्पड़’ ने घरेलू हिंसा को संवेदनशील बहस के दायरे में ला दिया है। इसमें कोई दो मत नहीं कि पिछले कुछ समय से जेंडर इश्यूज को न सिर्फ समाज में अहम जगह मिली है, बल्कि बॉलिवुड में भी इन्हें प्रमुखता मिल रही है। कुछ समर्थ निर्देशकों ने समाज में चल रहे विमर्श को सिनेमा में जगह देकर स्त्री के संघर्ष को आगे बढ़ाने की प्रगतिशील भूमिका निभाई है। जाहिर है, ये डायरेक्टर एक्टिविस्ट के रोल में भी हैं। फिल्म जैसे लोकप्रिय माध्यम का उन्होंने एक बड़े सामाजिक बदलाव के लिए सार्थक इस्तेमाल किया है। भारतीय सिनेमा में इस तरह के लोग पहले भी रहे हैं और उन्होंने सामाजिक तब्दीली में अहम भूमिका निभाई है, लेकिन मुख्यधारा में ऐसे लोगों की बहुतायत रही है जो समाज में प्रचलित पुरुष वर्चस्व वाले जीवन मूल्य ही अपनी फिल्मों में परोसते रहे हैं। उन्हें पसंद किए जाने का कारण यह है कि दर्शकों का एक बड़ा तबका उन्हीं की तरह सोचता है।
चाहे प्यार का मामला हो या तकरार का, फिल्मी नायकों के संवादों और व्यवहार में पुरुषवादी रवैया साफ दिखता रहा है। फिल्म ‘धड़कन’ का यह संवाद देखिए- ‘मैं तुम्हें भूल जाऊं यह हो नहीं सकता और तुम मुझे भूल जाओ, यह मैं होने नहीं दूंगा।’ यह एक भावुकतापूर्ण संवाद लगता है जिसमें प्रेम की चरम की अभिव्यक्ति है, पर असल में यह एक धमकी है जो प्रेमी अपनी प्रेमिका को दे रहा है। प्रेमी एक टिपिकल पुरुष है जो स्त्री पर अपना स्वाभाविक अधिकार समझता है। एक लड़की की क्या मजाल जो वह किसी पुरुष का प्रेम ठुकरा दे! लड़कियों की ‘ना’ में ही उनकी ‘हां’ छिपी रहती है, यह दिव्य ज्ञान भारत के युवाओं को ऐसी ही फिल्मों से मिला है, जिनके मूल में पुरुषवादी सोच हावी रहती है, जो महिलाओं को दोयम दर्जे का जीव मानती है। इस सोच की ही परिणिति यथार्थ जीवन में किशोरों/युवाओं द्वारा लड़कियों का पीछा करने की घटनाओं में होती है जिससे उनका जीना दूभर हो जाता है।
ऐसे ही कुछ और संवादों पर नजर डालें- ‘प्यार से गले लग जा तो रानी बना दूंगा, नहीं तो पानी पानी कर दूंगा’ (बेताज बादशाह)। ‘घोड़ी और जवान लड़की की लगाम जरा कसके रखनी चाहिए’ (दर्दे दिल)। ‘लड़की का मॉडल हो या गाड़ी का, वक्त के साथ दोनों पुरानी हो जाती हैं (खून भरी मांग)। ‘व्हेन यू कांट चेंज द गर्ल, चेंज द गर्ल’- लड़की का रवैया नहीं बदल सकते तो लड़की ही बदल दो (चश्मे बद्दूर)। ‘प्यार से दे रहे हैं रख लो वरना थप्पड़ मार के भी दे सकते हैं’(दबंग)। पिछले साल आई बहुचर्चित फिल्म ‘कबीर सिंह’ में प्रेम का ऐसा ही पुरुषवादी रूप दिखता है। इसमें नायक अपने प्रेम को क्रूरता की हद तक न्यायसंगत दिखाने का प्रयास करता है और लोग उसका परिणाम जाने बगैर तालियां बजाकर उसे सहानुभूति का पात्र बना देते हैं।
उसी फिल्म का एक संवाद है: ‘तेरे लिए कुछ भी कर सकता हूं प्रीति। अगर तुझमें मेरे लिए वैसा पागलपन है, देन यू कॉल मी। अदरवाइज, यू नो मी।’ बड़े शालीन तरीके से नायिका को धमकाते हुए नायक बता रहा है कि जो मैं चाहता हूं वही करो। ऐसी फिल्में पुरुषवाद को बढ़ावा देती हैं, पर राहत की बात है कि पुरुषवाद के साये से निकल रही महिलाओं का पक्ष भी बॉलिवुड में अब प्रमुखता से आ रहा है। समाज का एक वर्ग महिला सशक्तीकरण के पक्ष में है, लिहाजा स्त्री की आवाज को फिल्मों में समर्थन मिल रहा है और ऐसी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर भी सफल हो रही हैं। बॉलिवुड के भीतर महिला कलाकारों ने अपने प्रति भेदभाव का खुलकर विरोध भी किया है। शोषण के खिलाफ, चाहे वह शारीरिक हो या आर्थिक, उन्होंने आवाज उठाई है। भारत में #मीटू आंदोलन को सबसे ज्यादा ताकत बॉलिवुड से ही मिली।
बॉलिवुड में महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता बढ़ रही है इसलिए अब ऐसी फिल्में भी बनने लगी हैं, जिनमें स्त्री का स्वतंत्र और ताकतवर चरित्र उभरकर आता है। पिछले पांच वर्षों में ऐसी कई फिल्में आई हैं, जैसे कहानी, गुलाब गैंग, क्वीन, मर्दानी, मैरी कॉम, दम लगा के हईशा, एन एच-10, पीकू, तनु वेड्स मनु रिटर्न्स, एंग्री इंडियन गॉडेस, पिंक, नीरजा आदि। ‘दंगल’ जैसी बहुचर्चित फिल्म भी इसी श्रेणी में रखी जाएगी। ‘पिंक’ में स्त्री अस्मिता और उसकी निजता के दायरे से जुड़े अहम सवाल उठाए गए हैं। यह फिल्म हमारी मानसिकता में गहरी पैठ बना चुके लैंगिक भेदभाव पर करारी चोट करती है और नैतिकता-अनैतिकता के बंधे-बंधाए खांचों पर कुछ जरूरी सवाल उठाती है।
अमिताभ बच्चन द्वारा इस फिल्म में बोला गया यह संवाद बहुत जरूरी संदेश देता है- ‘‘नो’ अपने आप में एक वाक्य है। किसी व्याख्या, किसी स्पष्टीकरण की इसको कोई जरूरत नहीं है।’ फिल्म ‘नीरजा’ भी इस मायने में महत्वपूर्ण है। 1986 में हाईजैक हुए एक विमान के यात्रियों की सुरक्षा के लिए अपनी जान दांव पर लगाने वाली एयरहोस्टेस नीरजा भनोट की ज़िंदगी पर बनी इस फिल्म ने दिखाया कि मुश्किल परिस्थिति में भी एक लड़की कैसे अपना आपा नहीं खोती, जबकि पुरुष भयभीत हो जाते हैं। चर्चा प्राय: विमान परिचारिकाओं की खूबसूरती की ही होती है, मगर फिल्म बताती है कि एक सुंदर प्रफेशनल चेहरे के उस पार सूझबूझ और अपार साहस भी हो सकता है।
एक महिला मुक्केबाज की मुश्किलों को दर्शाती ‘साला खड़ूस’, एक मेहनतकश स्त्री के लिए शिक्षा की जरूरत को रेखांकित करती ‘निल बटे सन्नाटा’, अपनी धुनें तलाशती एक महिला संगीतकार की कहानी ‘जुगनी’ या फिर एक महिला पुलिस अधिकारी की कथा ‘जय गंगाजल’ भी महत्वपूर्ण हैं। पिछले दिनों आई ‘छपाक’ ने एक सनकी की क्रूरता झेलकर भी हिम्मत न हारने वाली एक लड़की का किस्सा बयान किया। ज्यों-ज्यों समाज में औरत की ताकत बढ़ेगी, उसके पक्ष में न सिर्फ ज्यादा फिल्में बनेंगी, बल्कि समूचे फिल्म जगत का रवैया उसके प्रति संवेदनशील होता जाएगा।
नवभारत टाईम्स में 07/03/2020 को प्रकाशित 

Monday, March 2, 2020

जलवायु परिवर्तन से विस्थापन


संयुक्त राष्ट्र महा सभा की 70वीं वर्ष गाँठ पर अमेरिका में बोलते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने पर्यावरण का जिक्र करते हुए कहा था  कि अगर हम जलवायु परिवर्तन की चिन्ता करते हैं तो यह हमारे नीजि सुख को सुरक्षित करने की बू आती हैलेकिन यदि हम क्लाइमेट जस्टिस की बात करते हैंतो गरीबों को प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षित रखने का एक संवेदनशील संकल्प उभरकर आता है। क्योंकि जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव सबसे ज्यादा इन्हीं निर्धन व वंचित लोगों पर होता है। जब प्राकृतिक आपदा आती हैतो ये बेघर हो जाते हैंजब भूकम्प आता हैतो इनके घर तबाह हो जाते है।सच यही है कि बरसों पहले जलवायु परिवर्तन पर की गई मौसम वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी अब सही साबित होती महसूस होने लगी है|आज वैश्विक स्तर पर प्राकृतिक  आपदाओं से विस्थापित लोगों का औसत युद्ध और हिंसा द्वारा हुई विस्थापनों से कहीं अधिक है|इस तथ्य की पुष्टि  संयुक्त राष्ट्र की वर्ल्ड माइग्रेशन रिपोर्ट  में दिए गए आंकड़ों से होती है | रिपोर्ट में 148 देशों पर किये सर्वेक्षण के आंकड़ों के आधार पर यह निष्कर्ष दिया गया है कि इन देशों में कुल  2.8 करोड़ विस्थापित  हुए हैं | जिन में 61प्रतिशत (1.75 करोड़) जलवायु परिवर्तन द्वारा जबकि 39प्रतिशत (1.08 करोड़) युद्ध और हिंसक संघर्षों की वजह से हुए हैं|जलवायु परिवर्तन पर इंटर गर्वमेंतल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज  (IPCC) ने भी अपनी एक रिपोर्ट में यही चेतावनी दी है कि जैसे जैसे प्राकृतिक आपदाओं की संख्या और तीव्रता बढ़ेगी अनेक लोगों को अपना घर और देश छोड़ने को मजबूर होना पड़ेगा|इसी सन्दर्भ में वर्ल्ड बैंक ने 2018 में दिए हुए अपने अनुमान में कहा है कि अगर तुरंत कोई कार्यवाही नही की तो 2050 तक पृथ्वी के तीन बड़े हिस्सों (उप-सहारा अफ्रीकादक्षिण एशियालैटिन अमेरिका) में 14.3 करोड़ से ज़्यादा लोगों को जलवायु परिवर्तन की वजह से अपना घर छोड़ कर विस्थापित होना पड़ेगा|आमतौर पर जलवायु परिवर्तन से होने वाले विस्थापन को उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता जबकि अब वक्त आ गया है कि लोगों को जलवायु परिवर्तन के कारण शरणार्थी बनाने वाली वजहों को मानव तस्करी के बराबर माना जाना चाहिए क्योंकि दोनों ही कारण लोगों को विस्थापित होने पर मजबूर करते हैं|एक अन्य संस्थान , अंतर्राष्ट्रीय आंतरिक विस्थापन निगरानी केंद्र (IDMC) के अनुसार 2018 के अंत तक 16 लाख से अधिक लोग जलवायु परिवर्तन की वजह से अपने घरों को छोड़ कर राहत शिविरों में पड़े हुए हैं|वर्ल्ड माइग्रेशन रिपोर्ट के अनुसार ये परिद्रश्य भारतीय उपमहाद्वीप के देशों के लिए अधिक चिंतनीय हैइंटर गर्वमेंतल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज ने अपनी रिपोर्ट में ये भी कहा है कि भारत अपने विशाल तटीय भूगोल की वजह से इस परिदृश्य में सबसे कमज़ोर देशों में से एक है|जहाँ पिछले 2 वर्षों में हर महीने कम से कम एक प्राकृतिक आपदा अवश्य हुई हैभारत के पूर्व में सुंदरवन जैसी जगहों पर समुद्र के स्तर में वृद्धि का खतरा हैतो उत्तर भारत में  पहाडी  बाढ़बादल फटने और भूस्खलन की घटनाएँ बढ़ी है। बंगाल की खाड़ी में 2009 का आयला चक्रवात या उत्तराखंड में 2013 की केदारनाथ बाढ़ इस तथ्य के प्रमाण हैं।दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साईंस इन्वायरमेंट  (CSE) भी 9 फरवरी 2020 को प्रकाशित अपनी एक रिपोर्ट में इस तथ्य की पुष्टि  करती है|2019 में एशिया में हुई 93 प्राकृतिक आपदाओं में नौ अकेले भारत में हुई जो कुल मौतों का अडतालीस प्रतिशत हिस्सा थी|इस रिपोर्ट में एक और चौंकाने वाला आंकड़ा सामने आया है 2018 की तुलना में 2019 में प्राकृतिक आपदाएं तो कम हुईं पर 45 प्रतिशत  अधिक लोगों ने 2019 में अपनी जान गंवाई |देश के राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार इस समय भारत के 37 प्रदेश एवं केन्द्रशासित राज्यों में से 27 आपदा ग्रस्त हैं|भारत और पूरे विश्व के लिए जलवायु परिवर्तन एक गंभीर मुद्दा हैगरीब से लेकर अमीर देश सब इस की चपेट में हैंअब यही  समय है जब दुनिया माने की विस्थापन समस्या एक राजनीतिक गर्म मुद्दा नहीं बल्कि एक गंभीर समस्या है जिसमें जलवायु परिवर्तन की एक बड़ी भूमिका है |इस समस्या के मानवीय पक्ष को देखते हुए अब हम सब को तय करना होगा इन विस्थापित लोगों को फिर से स्थापित करने के लिए हमें क्या करना चाहिए|इनमें से  ज्यादातर ऐसे गरीब लोग हैं जिन के पास अपना घरखेत छोड़ने के अलावा कोई विकल्प ही  नहीं था |इनमें से ज्यादातर के पास रोजगार का कोई नियमित साधन नहीं है और वे सभी उस भूमि पर आश्रित थे जिन्हें जलवायु परिवर्तन के कारण उन्हें छोड़ना पड़ा |विचारणीय प्रश्न यह भी है कि इन ग्रामीण अर्थव्यवस्थाओं को फिर से स्थापित करने के लिए सरकार क्या कर सकती है |
अमर उजाला में 02/03/2020 को प्रकाशित 

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