Monday, April 22, 2019

धरती के प्रति कब बढ़ेगी हमारी सजगता ?

विश्व पृथ्वी दिवस  22 अप्रैल को दुनिया भर में पर्यावरण संरक्षण के लिए समर्थन देने  के लिए मनाया  जाता है। इसकी शुरुआत  अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन ने 1970 में एक पर्यावरण शिक्षा के रूप की थी। अब इसे 192 से अधिक देशों में प्रति वर्ष मनाया जाता है और भारत इसमें अपवाद नहीं है |वर्ल्ड हेल्थ ओर्गानाईजेशन   ने प्रदूषण पर अपनी ताज़ा ग्लोबल रिपोर्ट में चेताया है कि दुनिया के बीस  सबसे प्रदूषित शहरों में से चौदह   भारत में हैं. भारत दुनिया का सबसे प्रदूषित देश है जहां हर साल बीस  लाख से ज़्यादा लोग प्रदूषित हवा की वजह से मरते हैं. ये संख्या  दुनिया में सबसे ज़्यादा है.इन सबके बावजूद इस धरती को बचाने में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं .देश में चुनाव जारी हैं पर पर्यावरण और धरती का बचाव कहीं कोई मुद्दा नहीं है .
लेंसेट काउंट डाउन रिपोर्ट 2018 के अनुसार प्रदुषण और क्लाइमेट चेंज  से होने वाले खतरे की आशंका पहले के अनुमानों से कहीं अधिक है। इस रिपोर्ट में दुनिया के 500 शहरों में किए गए सर्वे के बाद निष्कर्ष निकाला गया कि उनका सार्वजनिक स्वास्थ्य आधारभूत ढांचा जलवायु परिवर्तन के कारण बुरी तरह प्रभावित हो रहा है जो यह बताता है कि संबंधित रोगियों की संख्या जिस तेजी से बढ़ रही है .उस तेजी से रोगों से निपटने के लिए दुनिया के हॉस्पिटल  तैयार नहीं हैं। इसमें विकसित और विकासशील दोनों देश शामिल हैं. बीती गर्मियों में चली गर्म हवाओं ने सिर्फ इंग्लैंड में ही सैकड़ों लोगों को अकाल मौत का शिकार बना डाला। दरअसल इंग्लैंड के अस्पताल क्लाइमेट  में अचानक हुए इस परिवर्तन के कारण बीमार पड़े लोगों से निपटने के लिए तैयार नहीं थे.वर्ष 2017 में अत्यधिक गर्मी के कारण 153 बिलियन घंटों का नुकसान दुनिया के खेती में लगे लोगों को उठाना पड़ा. कुल नुकसान का आधा हिस्सा भारत ने उठाया जो यहां की कुल कार्यशील आबादी का सात प्रतिशत है जबकि चीन को 1.4 प्रतिशत का ही नुकसान हुआ। रिपोर्ट बताती है कि प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिग दो अलग मसले नहीं हैंबल्कि आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं.
पर्यावरण के मामले में भारत दुनिया के बेहद असुरक्षित देशों में है। अधिकांश उद्योग पर्यावरणीय नियमों की अनदेखी से चल रहे हैं . देश की आबोहवा लगातार खराब होती जा रही है। शोध अध्ययन से यह पता चला है कि कम गति पर चलने वाले यातायात में विशेष रूप से भीड़ के दौरान जला हुआ पेट्रोल /डीजल  चार से आठ गुना अधिक वायु प्रदूषण उत्पन्न करता हैक्योंकि डीजल और पेट्रोल  से निकले धुएं में 40 से अधिक प्रकार के प्रदूषक होते हैं.यह तो रही शहर की बात जहां यातायात प्रदूषण एक ग्लोबल समस्या के रूप में लाइलाज बीमारी बनी हुई है.विकासशील देशों में आने के नाते हमारी हालत अन्य विकास शील देशों जैसी ही है जो जल्दी विकसित होने की चाह में प्लास्टिक और पौलीथीन का अंधाधुंध इस्तेमाल कर रहे हैं और फिर उनसे निकले कूड़े का कोई उचित प्रबन्धन नहीं है .आधुनिक विकास की अवधारणा के साथ ही कूड़े की समस्या मानव सभ्यता के समक्ष आयी .जब तक यह टेंडेंसी नेचर फ्रैंडली  थी परेशानी की कोई बात नहीं रही क्योंकि ऐसे कूड़े को प्रकृति आसानी से पचा लेती थी  पर इंसान जैसे जैसे नेचर  को चुनौती देता गया और विज्ञान आगे बढ़ता गया. कई ऐसे कूड़े मानव सभ्यता के सामने आये जिनको प्रकृति अपने में समाहित नहीं कर सकती और  कूड़ा प्रबंधन एक गंभीर समस्या में तब्दील होता गया क्योंकि मानव ऐसा कूड़ा छोड़ रहा था जो प्राकृतिक तरीके से समाप्त  नहीं होता या जिसके नष्ट होने में समय लगता है और उसी बीच कई गुना और कूड़ा इकट्ठा हो जाता है, जो इस प्रोसेस  को और लम्बा कर देता है जिससे कई तरह के प्रदुषण का जन्म होता है . पिछले एक दशक  में भारतीय रहन सहन में पर्याप्त बदलाव आये हैं और लोग प्लास्टिक की बोतल और प्लास्टिक में लिपटे हुए उत्पाद सुविधाजनक होने के कारण ज्यादा प्रयोग करने लग गए हैं . नतीजा शहरों में गर्मी का लगातर  बढ़ना इण्डिया स्पेंड की रिपोर्ट के अनुसार भारत के शहर लगातार गर्म होते जा रहे हैं कोलकाता में पिछले बीस सालों में फारेस्ट डेंसटी 23.4प्रतिशत से गिरकर 7.3 प्रतिशत हो गया है. वहीं निर्माण क्षेत्र में 190 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. साल2030 तक कोलकाता के कुल क्षेत्रफल का मात्र 3.37 प्रतिशत हिस्सा ही वनस्पतियों के क्षेत्र के रूप में ही बचेगा .अहमदाबाद में पिछले बीस सालों में फारेस्ट डेंसटी 46 प्रतिशत से गिरकर 24 प्रतिशत पर आ गया है जबकि निर्माण क्षेत्र में 132 प्रतिशत की  वृद्धि हुई है साल 2030 तक वनस्पतियों के लिए शहर में मात्र तीन प्रतिशत जगह बचेगी .भोपाल में पिछले बाईस वर्षों में फारेस्ट डेंसटी छाछट प्रतिशत से गिराकर बाईस प्रतिशत हो गया है.वनों में कमी का मतलब वर्षा में कमी जो अंत में जल की कमी के रूप में समाने आता है जल संसाधन मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 2001 में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता के  आंकड़ों के सन्दर्भ में 2025 तक इसमें छतीस प्रतिशत की कमी आयेगी. वहीं2050 तक जब भारत की जनसँख्या 1.7 बिलियन होगी साठ प्रतिशत प्रति व्यक्ति कम जल की उपलब्धता  होगी .चेतावानी की घंटी बज चुकी है अब यह हमें तय करना है हम प्रकृति के साथ सबका विकास चाहते हैं या ऐसा विकास जो सिर्फ आर्थिक रूप से समर्द्ध लोगों के लिए हो .भारत जैसे दुनिया के तमाम अल्पविकसित देश विकास के इस खेल में अपनी जमीनों को कंक्रीट और डामर के घोल पिलाते जा रहे हैं जिसका नतीजा तापमान में बढ़ोत्तरी गर्मियां ज्यादा गर्म और ठण्ड और ज्यादा ठंडी .पेड़ ,घास झाड़ियाँ और मिट्टी सूर्य ताप को अपने में समा लेती हैं जिससे जमीन ठंडी रहती है पर इस कंक्रीट केन्द्रित विकास में यह सारी चीजें हमारे शहरों से लगातार कम होती जा रही हैं . लेकिन इस धुंधली तस्वीर का दूसरा पहलू यह बता रहा है कि भारत सरकार गैर-परंपरागत ऊर्जा नीतियों को लेकर काफी गंभीर है. देश में सोलर एनर्जी  की संभावनाएं भी काफी अच्छी हैं. हैंडबुक ऑन सोलर रेडिएशन ओवर इंडिया के अनुसारभारत के अधिकांश भाग में एक वर्ष में 250 से 300 धूप निकलने वाले दिनों सहित प्रतिदिन प्रति वर्गमीटर चार से सात किलोवॉट घंटे का सौर विकिरण प्राप्त होता है. राजस्थान और गुजरात जैसे राज्यों में यह स्थिति अन्य राज्यों की अपेक्षा ज्यादा है.
जागरण /आईनेक्स्ट में 22/04/2019 को प्रकाशित 

Wednesday, April 17, 2019

पर्यावरण पर भारी पड़ते चुनाव

पूरा देश  इस समय चुनावी उत्सव में सराबोर है लोग बढ़ चढ़ कर इसमें हिस्सा ले रहे हैं |तमाम  राजनैतिक पार्टियाँ अपनी उपलब्धियों एवं वायदों का प्रचार प्रसार कर रही हैं जाहिर है सोशल मीडिया के आने से प्रचार के लिए पारम्परिक माध्यमों के अलावा एक नया विकल्प मिला है पर फिर भी चुनाव प्रचार  का  अभी भी मुख्य माध्यम   बैनर होर्डिंग  ही हैं |वो चाहे किसी पार्टी की रैली हो या किसी उम्मीदवार का अपने पक्ष में माहौल बनाना वो बैनर होर्डिंग  का ही सहारा लेता है |बदलते वक्त के साथ बैनर होर्डिंग  भी बदले हैं पर इनके बदलाओं पर लोगों ने ज्यादा गौर नहीं किया |किया भी क्यों जाए साफ़ पर्यावरण कभी भी भारत की चिंता में नहीं रहा |पिछले एक दशक में बैनर होर्डिंग का स्थान कपड़ों और पेंट की जगह फ्लेक्स ने ले लिया है जो पीवीसी (पोलीविनाईल क्लोराईड ) प्लास्टिक से बने होते हैं और यह  एक बड़ी स्वास्थ्य और पर्यावरणीय समस्या है|कुछ ही हफ्तों में लोकसभा चुनाव सम्पन्न होने हैं| ऐसे में ये समस्या बढना लाज़मी है|तथ्य यह भी है कि चुनाव आयोग ने सभी राजनीतिक दलों से प्रचार के दौरान प्लास्टिक और पौलीथीन का इस्तेमाल करने से बचने की हिदायत दी है पर आयोग का ये सुझाव आदर्श  चुनाव आचार संहिता के अंतर्गत नही आता है|शायद इसीलिये सभी राजनैतिक पार्टियों के कार्यालय इन बैनर और होर्डिंग से भरे हुए हैं |
मूडी की एक क्रेडिट रेटिंग एजेंसी कंपनी आई सी आर ए (ICRA )के मुताबिक भारत में सालाना नब्बे  प्रतिशत आउटडोर विज्ञापन पीवीसी  पर प्रिंट होते हैं जिनकी खपत 18000 टन मासिक है  जो साल भर में216,000 टन हो जाता है |इसमें वो सभी छोटे बड़े विज्ञापन शामिल हैं वो चाहे किसी नए फोन का लांच होना हो या कोई मोटरबाईक या फिर नए फ़्लैट का सपना दिखाते लुभावने विज्ञापन | पीवीसी (पोलीविनाईल क्लोराईड ) दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा प्लास्टिक पोलीमर है जिसका इस्तेमाल बैनर होर्डिंग  में होता है अपने नॉन बायो डीग्रिडेबल प्रकृति के कारण इनको खत्म करने के लिए या तो इन्हें जलाना पड़ता है या लैंडफिल में डाल दिया जाता है |एक प्रतिशत से भी कम पीवीसी को रिसाइकिल किया जाता है| जलता हुआ पीवीसी बहुत सी जहरीली गैस छोड़ता है जो हवा से भारी होता है जो ऑक्सीजन की मात्रा को कम कर देता है जिससे कैंसर होने की संभावना होती है और उसकी राख जमीन और पानी को भी प्रदूषित कर देती है |सुचना के अधिकार से से 2018 में मिली जानकारी के अनुसार अप्रैल 2017 और मार्च 2018 के बीच भाजपा ने अकेले आउटडोर प्रचार पर 147.10 करोड़ रुपये (21 मिलियन डॉलरखर्च किए |जाहिर है इसमें से एक बड़ा हिस्सा  बैनर और होर्डिंग्स पर खर्च  किया गया होगा |एक अनुमान के अनुसार इन दो या तीन महीनों में (चुनाव प्रक्रिया के दौरान)प्लास्टिक की खपत इतनी होती है जितनी दो या तीन गैर-चुनावी वर्षों में होती है|ये एक कैंसरकारी तत्व  है जिसके कारण  देशभर में राज्य सरकारें इसके उपयोग में कटौती करने के लिए प्रेरित हो  रही हैं. द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टीईआरआईके अनुसार, केंद्र सरकार ने भी एकल-उपयोग वाले प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाने के लिए 2022 का लक्ष्य रखा हैजिसका 13.4 मिलियन टन प्रति वर्ष देश में निर्मित किया जाता है| प्रचार विज्ञापनों के लिए कपड़े और पुनर्नवीनीकरण कागज जैसे विकल्प ज्यादा पर्यावरण मैत्री  हो सकते हैं |पीवीसी के लिए पचास साल की तुलना में सूती कपड़े को सड़ने में केवल पांच से छह महीने का समय लगता है |इन सब चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए चुनाव आयोग ने सभी राजनीतिक दलों को मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के हित में चुनाव के दौरान अभियान सामग्री (पोस्टरबैनरआदिके रूप में एकल-उपयोग प्लास्टिक का उपयोग नहीं करने के लिए पर्याप्त कदम उठाने की सलाह दी थी |लेकिन क्या महज सलाह देने से ही राजनीतिक दल कार्रवाई करेंगे?यह एक बड़ा प्रश्न है अगर यह प्रतिबंध आदर्श आचार संहिता का हिस्सा बन जाता हैतो इसे (प्लास्टिकसीमित करने का एक निश्चित तरीका जरुर बन सकता है | इस बीच केरल उच्च न्यायालय ने राजनीतिक दलों को दक्षिणी राज्य में पीवीसी-आधारित प्रचार सामग्री से बचने का निर्देश दिया है |तस्वीर का दूसरा हिस्सा यह भी है कि देश में लोग न तो पर्यावरण की कीमत समझते हैं और न ही इंसानी जान की|इको-फ्रेंडली उत्पाद विनाइल फ्लेक्स बोर्डों की तुलना में अधिक महंगे हैं और लोग इसी बात पर पीवीसी(पोलीविनाईल क्लोराईड ) प्लास्टिक से बने बैनर होर्डिंग के इस्तेमाल करते रहते हैं |यह चुनाव, चुनाव प्रचार में व्यवहार परिवर्तन और नई  प्रथाओं को बढ़ावा देने के लिए शानदार अवसर हो सकते हैं पर फिलहाल ऐसा होता नहीं दिख रहा है |
अमर उजाला में 17/04/2019 में प्रकाशित 


Thursday, April 4, 2019

बहुत कुछ कहता है काला तिल

आपके शरीर पर कहीं कोई तिल है क्या?अरे तिल बोले तो वो काला चिन्ह  जो आपकी खूबसूरती को बढा देता है.यानि हर काली चीज ख़राब नहीं होती. आप सबने कभी न कभी वोट जरुर दिया होगा और अगर न दिया हो तो इस बार वोट देने जरुर जाइएगा.हाँ हाँ मुझे पता है कि मैं न तो कोई सेलीब्रिटी हूँ न कोई बड़ा प्लेयर जिसकी बात आप मानें,मैं तो ये निवेदन  महज इसलिए कर रहा हूँ जिससे आगे जो मैं कहना चाह रहा हूँ वो आप समझ सकें.वैसे आपके चेहरे होंठ  या चेहरे पर कहीं ऐसी जगह वो प्यारा सा काला तिल है तो आप बड़ा गर्व महसूस  करते हैं और उस ऊपर वाले को शुक्रिया कहना नहीं भूलते. जिसने आपको जीवन दिया,पर वो देश जिसने आपको उस जीवन के अलावा बहुत सी चीजें दी हैं. कभी उसको थैंक यू कहने का मन नहीं करता. हाँ तो मैं वोट की बात कर रहा था तो वोट देते वक्त हम सबकी उंगली पर एक निशान लगाया जाता है जो इस बात की तस्दीक करता है कि हमने अपना वोट दे दिया है मतलब स्याही की तरह का एक केमिकल, जब आप वोट देते हैं तब उसका रंग नीला होता है और फिर जैसे जैसे दिन बीतते जाते हैं वो काला हो जाता है.
हम  अपना घर और अपने शरीर को साफ़ रखते हैं फिर रोज रोज क्यूँ नहाते हैं या घर में झाड़ू पोंछा क्यूँ करते हैं,इसलिए न कि गंदगी जमें नहीं. रोज जब हम नहाते हैं या घर साफ़ करते हैं तो न तो कपडे काले होते हैं न शरीर पर लगने वाले साबुन का झाग. क्यूंकि कोई भी चीज हमेशा के लिए साफ़ नहीं रह सकती है गंदगी जीवन का हिस्सा है पर उसे साफ़ किया जा सकता है .इससे ये  साबित हुआ कि अगर सफाई नहीं होगी तो गंदगी खेल कर जायेगी. अब जब आप सफाई करते हैं तो क्या होता है ?भाई थोड़े बहुत तो हम भी गंदे होते हैं,कपडे गंदे होते हैं और शरीर भी.गंदे शरीर पर जब हम साबुन लगाते हैं तो पहले उसका झाग भी काला होता जैसे जैसे शरीर साफ़ होता जाता है.झाग भी सफ़ेद होता जाता है.कन्फ्यूज मत होइए वोट देते वक्त आपकी उंगली पर लगने वाला वो छोटा सा काला निशान बहुत कुछ कहता है पर हम समझ नहीं पाते.पहली बात गंदगी की सफाई,गंदगी में उतर कर ही की जा सकती है यनि अगर आपको लगता है कि देश की राजनीति  गंदी हो रही है.गलत लोग चुनाव जीत कर आ रहे हैं तो इसमें आपको उतरना ही पड़ेगा.इसका सिर्फ ये मतलब नहीं कि आप सबकुछ छोड़कर राजनीति में कूद पड़ें.आप अपना करियर बनायें पर देश की  गंदगी को लगातार साफ़ करते रहने के लिए  जब भी वोट देने का मौका मिले अपने वोट का इस्तेमाल जरुर करें.
 अगर आप वोट नहीं देंगे तो गंदगी जमा होती रहेगी. जब हम  पासपोर्ट से लेकर पिक्चर के टिकट तक हर जगह लाइन में लग सकते हैं तो वोट देने के लिए क्यूँ नहीं.जब वोट देंगे तो आपकी उंगली पर लगा वो ब्लैक मार्क आपको इस बात का एहसास कराएगा कि देश को बेहतर बनाने और देश की सफाई करने में आपने अपना योगदान दिया है.अब आप समझ रहे होंगे मैंने शुरुआत में अपनी बात एक छोटे से काले तिल से अपनी बात क्यूँ शुरू की थी.जी वो छोटा सा काला तिल आपको स्मार्ट बना देता है . इस बार के चुनाव में वोटिंग इंक के इस काले चिन्ह  को फैशन स्टेटमेंट बनाइये खुद भी वोट दीजिये और दूसरों को भी दिलवाइये .
प्रभात खबर में 04/04/2019 को प्रकाशित 

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