Wednesday, May 15, 2024

इंटरनेट मीडिया इंफ्लूएंसर को लुभाते राजनीतिक दल

 

देश में चल रहे लोकसभा चुनाव के दौरान लगभग सभी राजनीतिक दल इंटरनेट मीडिया इंफ्लूएंसर को लुभाने में लगे हैं। इस मायने में यह चुनाव अनूठा हैजहां पहली बार वोट पाने के लिए इंटरनेट मीडिया इंफ्लूएंसर का भी सहारा लिया जा रहा है। आज से पांच साल पहले किसी ने नहीं सोचा था कि एक ऐसा समय भी आएगा जब आप कुछ न करते हुए भी बहुत कुछ करेंगे और पैसे भी कमाएंगे। बात चाहे यात्राओं की हो या खान-पान की या फिर फैशन कीदेश विदेश की बड़ी कंपनियां ऐसे लोगों को जो इंटरनेट पर ज्यादा फोलोवर रखते हैंउन्हें अपने प्रोडक्ट के विज्ञापन के लिए पैसे दे रही हैं और उनके खर्चे भी उठा रही हैं।

इंटरनेट की दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण बात है इसकी गतिशीलता जिसमें नया बहुत जल्दी पुराना हो जाता है और नई संभावनाओं के द्वार खुल जाते हैं। इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म नित नए रूप बदल रहे हैंउसमें नए-नए फीचर्स जोड़े जा रहे हैं। इस सारी कवायद का मतलब श्रोताओं को ज्यादा से ज्यादा समय तक अपने प्लेटफार्म से जोड़े रखना है। इसका बड़ा कारण इंटरनेट द्वारा पैदा हो रही आय भी है। मूल्यांकन सलाहकार फर्म क्रोल की एक नवीन रिपोर्ट के अनुसार एक साल में भारतीय ब्रांड्स ने अपनी इंफ्लूएंसर मार्केटिंग पर खर्च दोगुना कर दिया। पिछले एक साल में एक तिहाई भारतीय ब्रांड्स ने इंटरनेट मीडिया इंफ्लूएंसर पर अपना खर्च दोगुना कर दिया है। कोरोना महामारी ने बड़ी मात्रा में डिजिटलीकरण को प्रेरित किया। भारत में इंटरनेट मीडिया कंटेंट क्रिएटर इंडस्ट्री 25 प्रतिशत की तेजी से बढ़ रही है। वर्ष 2025 में इसके 290 करोड़ डालर हो जाने की उम्मीद है। इंटरनेट मीडिया इंफ्लूएंसर अब ब्रांड को एक बड़े दर्शक वर्ग पर कम खर्च में पहुंचने का एक सुलभ तरीका बन रहा है। डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी आई क्यूब्स वायर के एक शोध से पता चलता है कि लगभग 35 प्रतिशत ग्राहकों के खरीदारी निर्णय इंटरनेट मीडिया इंफ्लूएंसर पोस्टरील्स और वीडियो देखकर लिए जा रहे हैं।  

बड़ा बाजार : देश में इंटरनेट मीडिया इंफ्लूएंसरव्यक्ति और ब्रांड प्रमोशन का बड़ा औजार बनकर सामने आया है। इंटरनेट मीडिया विज्ञापन का एक अपरंपरागत माध्यम है। यह माध्यम एक वर्चुअल वर्ल्ड बनाता है जिसे उपयोग करने वाला व्यक्ति इंटरनेट मीडिया के किसी प्लेटफार्म (फेसबुकएक्सइंस्टाग्राम आदि) का इंटरनेट के माध्यम से उपयोग कर किसी भी इंटरनेट कनेक्टेड व्यक्ति तक पहुंच बना सकता है।

भारत में चूंकि अभी इंटरनेट बाजार में पर्याप्त संभावनाएं हैंइसलिए अभी इंटरनेट मीडिया इंफ्लूएंसर का यह दौर चलेगा। परंतु इस क्षेत्र से जुड़ी कुछ चिंताएं भी हैं। वस्तुत: भारत के इंटरनेट मीडिया इंफ्लूएंसर मार्केटिंग उद्योग को विनियमन की आवश्यकता हैताकि तथ्यों के गलत प्रस्तुतीकरण से बचा जा सके।

इंटरनेट मीडिया पर पकड़ बनाने की कवायद : आज के दौर में लगभग सभी नेता यह समझ चुके हैं कि चुनाव में इंटरनेट मीडिया से दूर रहने की दशा में वे चुनावी मैदान से बाहर हो सकते हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह है कि भारत में एक अरब से अधिक लोगों के पास मोबाइल फोन है और उतने ही लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। वहीं पिछले एक दशक में इंटरनेट सस्ता भी हुआ हैजिससे ग्रामीण एवं दूरदराज के आम लोगों की उस तक पहुंच बढ़ी है। इसका केवल स्थानीय स्तर पर इस्तेमाल होने से प्रत्याशियों का खर्च भी कम हो जाता है।एक समय सोशल मीडिया पर प्रचार के लिए सबसे पसंदीदा मंच रहा फेसबुक अब राजनीतिक पेज पर विज्ञापनों संबंधी कई पाबंदियों के कारण राजनीतिक दलों का पसंदीदा माध्यम  नहीं रहा है।राजनैतिक दल  ऐसे सोशल मीडिया मंच को पसंद करते हैं | जो उन्हें बगैर ज्यादा पाबंदियों के और बड़े उपयोगकर्ता आधार के साथ तेजी से जनता से जोड़ने में मदद करते हैं। इंस्टाग्राम और ट्विटर (अब एक्स) जैसे कई अन्य मंच हैं जो जनता के एक खास वर्ग की आवश्यकताओं को पूरी करते हैं और उनके अलग-अलग प्रारूप हैं।पिछले कुछ महीनों में कई नेता युवा दर्शकों से जुड़ने के लिए मशहूर सोशल मीडिया ‘इन्फ्लूएंसर्स’ के यूट्यूब चैनलों पर दिखायी दिए हैं। एस. जयशंकरस्मृति ईरानीपीयूष गोयल और राजीव चंद्रशेखर जैसे भाजपा नेताओं ने पॉडकास्टर रणवीर इलाहाबादिया को साक्षात्कार दिए हैं जिनके यूट्यूब पर 70 लाख से अधिक फॉलोअर हैं।कांग्रेसी नेता राहुल गांधी ने भी यात्रा और भोजन के वीडियो पॉडकास्ट ‘कर्ली टेल्स’ की संस्थापक कामिया जानी से भोजन पर बातचीत करी है |लोकतंत्र में राजनीति का कामकाज सार्वजनिक क्षेत्र के आधार पर होता है। डिजिटल तकनीक के आगमन के बादसार्वजनिक क्षेत्र की संरचना में भी बदलाव आया है। राजनीतिक कार्यप्रणाली का मुख्य उद्देश्य जनता के बीच संचार और विचारों को प्रसारित करना है। सोशल मीडिया डिजिटल सार्वजनिक क्षेत्र के अत्यधिक महत्वपूर्ण अंग बन गया हैजिससे राजनीतिक दल अपने संदेशों को पहुंचाते हैं और जनता के समर्थन को जुटाते हैं। यह रणनीति भारत में राजनीतिक संचार के परिदृश्य को बदल रही हैजहां डिजिटल आउटरीच रणनीतियाँ पारंपरिक तरीकों को पूरक या प्रतिस्थापित कर रही हैं। इस रणनीति के तहतराजनीतिक दल सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर बड़ी संख्या में सोशल मीडिया इंफ्लूएंसर के साथ सहयोग करके अपने संदेश को बढ़ाते हैं। इससे उन्हें अपनी दृश्यता बढ़ाने और युवा जनसांख्यिकी के साथ जुड़ने का मौका मिलता है। यह तरीका न केवल जनता के साथ संवाद को सुगम बनाता हैबल्कि उन्हें राजनीतिक दलों के साथ संवाद करने और अपनी राय व्यक्त करने का मंच भी प्रदान करता है। इसके अलावायह रणनीति नए रूप से जनता को शासन के निर्णयों और कार्यक्रमों के प्रति सक्रिय बनाती हैजिससे लोकतंत्र की स्थिरता और निष्पक्षता में सुधार होता है।तस्वीर का स्याह पक्ष यह भी है की कई बार सोशल  मीडिया इंफ्लूएंसर किसी राजनैतिक दल या व्यक्ति से नीतियों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के कारण न जुड़कर किसी वित्तीय या अन्य लाभ से जुड़ते हैं जो किसी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है |

दैनिक जागरण में 15/05/2024 को प्रकाशित 

Tuesday, May 14, 2024

फनी वीडियो इतने भी फनी नहीं

 

फेसबुक ,इनस्टाग्राम  हो या यूट्यूब संगीत के बाद सबसे ज्यादा देखे जाने वाले वीडियो में दर्शकों की पसंद फन्नी वीडियो या प्रैंक वीडियो ही हैं |खाली वक्त में जब करने जैसा ख़ास कुछ न हों और हाथ में स्मार्ट फोन हो तो लोग अक्सर इन वीडियो की तलाश में रहते हैं |जब यूँ ही स्क्रोल करते हुए कुछ रोचक दिख जाता है |इन्सान सदियों से एक दूसरे के साथ मजाक करता आ रहा है |जब हमें यह पहली बार पता लगा कि अपनी सामजिक शक्ति का हेर फेर करके दूसरों की कीमत पर मजाक उड़ाया जा सकता है |प्रैंक या मजाक ज्यादातर सांस्कृतिक मानकों  द्वारा निर्धारित होते हैं जिनमें टीवी रेडियो और इंटरनेट द्वारा स्थापित मानक भी शामिल हैं |लेकिन जब सांस्कृतिक और व्यावसायिक मानक मजाक करते वक्त आपस में टकराते हैं और अगर उन्हें जनमाध्यमों का साथ मिल जाए तो इसके परिणाम भयानक साबित हो सकते हैं |दिसम्बर 2012 में जैसिंथा सल्दान्हा नाम की एक भारतीय मूल की ब्रिटिश  नर्स ने एक प्रैंक काल के बाद आत्महत्या कर ली थी |उसके बाद सारी दुनिया में इस बात पर बहस चल पडी कि इस तरह के मजाक को किसी के साथ करना फिर उसे रेडियो टीवी या इंटरनेट के माध्यम से लोगों तक पहुंचा देना कितना जायज है |साल 2012 में इंटरनेट इतने बहुआयामी माध्यमों के साथ हमसे नहीं जुड़ा था पर आज के हालात एकदम अलग हैं|हिट्स और क्लिक से पैसे कमाए जा सकते हैं|यह महत्वपूर्ण नहीं है कि क्या दिखाया जा रहा हैबस व्यूज मिलने चाहिए ऐसी हालत में भारत एक खतरनाक स्थिति में पहुँच रहा है |जिसमें प्रैंक वीडियो एक बड़ी भूमिका निभा रहे हैं |

दुनिया में ऑनलाईन प्रैंक वीडियो की शुरुआत यूटयूब और फेसबुक जैसी साईट्स के आने से बहुत पहले हुई थी |साल 2002 में इंटरेक्टिव फ्लैश वीडियो स्केयर प्रैंक के नाम से पूरे इंटरनेट पर फ़ैल गया था |थोमस हॉब्स उन पहले दार्शनिकों में से थे जिन्होंने ये माना कि मजाक के बहुत सारे कार्यों में से एक यह भी है कि लोग अपने स्वार्थ के लिए मजाक का इस्तेमाल सामाजिक शक्ति पदानुक्रम को अस्त व्यस्त करने के लिए करते हैं | सैद्धांतिक रूप सेमजाक  की श्रेष्ठता के सिद्धांतों को मनोविज्ञान और समाजशास्त्र के बीच संघर्ष और शक्ति संबंधों के संबंध में समझा जा सकता है| विद्वानों ने स्वीकार किया कि संस्कृतियों मेंमजाक और मज़ाक का इस्तेमाल अक्सर "हिंसा को सही ठहराने और मजाक के लक्ष्य को अमानवीय बनाने के लिए" किया जाता है|इन सारी अकादमिक चर्चाओं के बीच भारत में इंटरनेट पर मजाक का शिकार हुए लोगों की चिंताएं गायब हैं |

सबसे मुख्य बात सही और गलत के बीच का फर्क मिटना जो सही है उसे गलत मान लेना और जो गलत है उसे सही मान लेना |जिस गति से देश में इंटरनेट पैर पसार रहा है उस गति से लोगों में डिजीटल लिट्रेसी नहीं आ रही है इसीलिये निजता के अधिकार जैसी आवश्यक बातें कभी विमर्श का मुद्दा नहीं बनती | किसी ने किसी  से फोन पर बात की अपना मजाक उडवाया यह मामला यहं तक व्यक्तिगत रहा फिर वही वार्तालाप इंटरनेट के माध्यम से सार्वजनिक हो गया |जिस कम्पनी के सौजन्य से यह सब हुआ उसे हिट्स लाईक और पैसा मिला पर जिस व्यक्ति के कारण यह सब हुआ उसे क्या मिला ? यह सवाल अक्सर नहीं पूछा जाता |इंटरनेट पर ऐसे सैकड़ों एप है जिनको डाउनलोड करके आप मजाकिया वीडियो देख सकते हैं और ये वीडियो आम लोगों ने ही अचानक बना दिए हैं |कोई व्यक्ति रोड क्रोस करते वक्त मेन होल में गिर जाता है और उसका फन्नी  वीडियो इंटरनेट पर वायरल हो जाता है और फिर अनंतकाल तक के लिए सुरक्षित भी हो जाता है |

हमने उस वीडियो को देखकर कहकहे तो खूब लगाये पर कभी उस परिस्थिति में अपने आप को नहीं देख कर सोचा|इंटरनेट के फैलाव ने बहुत सी निहायत निजी चीजों को सार्वजनिक कर दिया है|ये सामाजिक द्रष्टि से निजी चीजें जब हमारे चारों ओर बिखरी हों तो हम उन असामान्य परिस्थिति में घटी घटनाओं को भी सार्वजनिक जीवन का हिस्सा मान लेते हैं जिससे एक परपीड़क समाज का जन्म होता है और शायद यही कारण है कि अब कोई दुर्घटना होने पर लोग मदद करने की बजाय वीडियो बनाने में लग जाते है |मजाकिया और प्रैंक वीडियो पर कहकहे लगाइए पर जब उन्हें इंटरनेट पर डालना हो तो क्या जाएगा और क्या नहीं इसका फैसला कोई सरकार नहीं हमें आपको करना है |इसी निर्णय से तय होगा कि भविष्य का हमारा समाज कैसा होगा |

 अमर उजाला में 14/05/2024 को प्रकाशित 

Friday, May 10, 2024

हमारे चिन्तन को विस्तार देती यात्राएं

गर्मियां शुरू हो गयीं हर मौसम से सबकी कुछ न कुछ यादें जुडी होती है ऐसा ही कुछ मेरे साथ है गर्मियां मुझे मेरे बचपन की याद बड़ी शिद्दत से कराती हैं .जब हम गर्मी की छुट्टियों में यात्रा पर निकल पड़ते थे. यात्राएँ  हमारी जिन्दगी का कितना अहम् हिस्सा है जिसकी शुरुवात हमारे बचपने से हो जाती है. मै बात कर रहा हूँ यात्रा या सफ़र की .
आज के बच्चे कहानी सुनने की बजाय कार्टून देख कर सोते हों पर ज्यादातर कार्टून उन्हें यात्रा पर ले जाते हैं. यात्राओं के बारे में सोचते हुए राहुल संस्कृतयन  याद न आयें ऐसा हो सकता है क्या यात्रा वृतांत पढ़ते वक्त हमेशा ऐसा लगता है कि घुमक्कड़ी के बाद इतना शानदार कैसे लिख लेते हैं लोग .लेकिन अब समझ में आने लगा है कि जब हम यात्राओं को जीना शुरू कर देते हैं तो यात्रा वृतांत अपने आप जी उठते हैं. कहते है किसी पल को जीभर कर जी लेने के बाद ही डूब कर लिखा जा सकता है .
यात्राएँ हमारे चिंतन को विस्तार देती हैं आप ने वो गाना जरूर सुना होगा " जिन्दगी एक सफर है सुहाना यहाँ कल क्या हो किसने जाना" यूँ तो देखा जाए तो जिन्दगी का सफ़र है तो सुहाना लेकिन इसके साथ जुडी हुई है अनिश्चितता  और ऐसा ही होता है जब हम किसी सफ़र पर निकलते हैं. ट्रेन कब लेट हो जाए. बस कब ख़राब हो जाए ,वगैरह वगैरह मुश्किलें तों हैं पर क्या मुश्किलों की वजह से हम सफ़र पर निकलना छोड़ देते हैं. भाई काम तो करना ही पड़ेगा न गर्मियों  में धुप कितनी भी तेज क्यों न हो. दैनिक यात्री  तो वही ट्रेन पकड़ते हैं जिसे  वो साल भर जाते हैं.
 कभी छोटी छोटी बातें जिन्दगी का कितना बड़ा सबक दे जाती हैं और हमें पता ही नहीं पड़ता है. हर सफ़र हमें नया अनुभव देता है जिस तरह हमारे जीवन का कोई दिन एक जैसा नहीं होता वैसे ही दुनिया का कोई इंसान ये दावा नहीं कर सकता कि उसका रोज का सफ़र एक जैसा होता है. कुछ चेहरे जाने पहचाने हो सकते हैं लेकिन सारे नहीं, जिन्दगी भी ऐसी ही है .अब देखिये  गर्मी  तो सबको लगती है.  मंजिल तभी तक दूर लगती है जब तक हम सफ़र की शुरुआत नहीं करते लेकिन एक बार चल पड़े और चलते रहे तो मंजिल जरूर मिलेगी . अब सफ़र पर निकले हैं तो किसी न किसी साथी की जरुरत पड़ेगी. जरुरी नहीं आप साथी के साथ ही सफ़र करें. साथी सफ़र में भी बन जाते हैं. लेकिन साथी के चुनाव   मे सावधान रहें. गलत साथी आपके सफ़र को दर्दनाक बना सकते हैं और वैसा ही जिन्दगी का सफ़र में गलत साथी का चुनाव  आपके लिए समस्या ला सकता हैं . आगे से जब भी किसी सफ़र पर निकलिएगा तो ये मत भूलियेगा कि ये जिन्दगी का सफ़र है और हर सफ़र की शुरुआत अकेले ही होती है लेकिन अंत अकेले नहीं होता साथ में कारवां होता है अपनों का अपने अपनों का यात्राएँ चाहे जीवन की हों या किसी दूर देश की या फिर घर से दफ्तर के बीच की ही क्यों न हो .सबकी यात्राओं का अपना अलग अलग सुख है .फिलहाल यह लेख लिहने की अपनी यह यात्रा में यहीं खत्म करता हूँ ओर निकलता हूँ अपनी दूसरी यात्राएँ की ओर.
प्रभात खबर में 10/05/2024 को प्रकाशित 

पसंद आया हो तो