Tuesday, August 27, 2019

लोगों को मानसिक बीमारियाँ देता इंटरनेट


इंटरनेट  ने उम्र का एक चक्र पूरा कर लिया है। इसकी खूबियों और इसकी उपयोगिता की चर्चा तो बहुत हो लीअब इसके दूसरे पहलुओं पर भी ध्यान जाने लगा है। कई देशों के न्यूरो वैज्ञानिक व मनोवैज्ञानिकलोगों पर इंटरनेट और डिजिटल डिवाइस से लंबे समय तक पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन कर रहे हैं। मुख्य रूप से इन शोधों का केंद्र युवा पीढ़ी पर नई तकनीक के संभावित प्रभाव की ओर झुका हुआ हैक्योंकि वे ही इस तकनीक के पहले और सबसे बड़े उपभोक्ता बन रहे हैं। यह चर्चा भी देश भर में आम है कि स्मार्टफोन व इंटरनेट लोगों को व्यसनी बना रहा है। कहा जाता है कि मानव सभ्यता शायद पहली बार एक ऐसे नशे से सामना कर रही हैजो न खाया जा सकता हैन पिया जा सकता हैऔर न ही सूंघा जा सकता है। चीन के शंघाई मेंटल हेल्थ सेंटर के एक अध्ययन के मुताबिकइंटरनेट की लत शराब और कोकीन की लत से होने वाले स्नायविक बदलाव पैदा कर सकती है। वी आर सोशल की डिजिटल सोशल ऐंड मोबाइल 2015 रिपोर्ट के मुताबिकभारत में इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं के आंकड़े काफी कुछ कहते हैं। इसके अनुसारएक भारतीय औसतन पांच घंटे चार मिनट कंप्यूटर या टैबलेट पर इंटरनेट का इस्तेमाल करता है। इंटरनेट पर एक घंटा 58 मिनटसोशल मीडिया पर दो घंटे 31 मिनट के अलावा इनके मोबाइल इंटरनेट के इस्तेमाल की औसत दैनिक अवधि है दो घंटे 24 मिनट। इसी का नतीजा हैं तरह-तरह की नई मानसिक समस्याएं- जैसे फोमोयानी फियर ऑफ मिसिंग आउटसोशल मीडिया पर अकेले हो जाने का डर। इसी तरह फैडयानी फेसबुक एडिक्शन डिसऑर्डर। इसमें एक शख्स लगातार अपनी तस्वीरें पोस्ट करता है और दोस्तों की पोस्ट का इंतजार करता रहता है। एक अन्य रोग में रोगी पांच घंटे से ज्यादा वक्त सेल्फी लेने में ही नष्ट कर देता है। इस वक्त भारत में 97.8 करोड़ मोबाइल और 14 करोड़ स्मार्टफोन कनेक्शन हैंजिनमें से 24.3 करोड़  इंटरनेट पर सक्रिय हैं और 11.8 करोड़ सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं। 
लोगों में डिजिटल तकनीक के प्रयोग करने की वजह बदल रही है। शहर फैल रहे हैं और इंसान पाने में सिमट रहा है।नतीजतनहमेशा लोगों से जुड़े रहने की चाह उसे साइबर जंगल की एक ऐसी दुनिया में ले जाती हैजहां भटकने का खतरा लगातार बना रहता है। भारत जैसे देश में समस्या यह है कि यहां तकनीक पहले आ रही है,और उनके प्रयोग के मानक बाद में गढ़े जा रहे हैं। कैस्परस्की लैब द्वारा इस वर्ष किए गए एक शोध में पाया गया है कि करीब 73 फीसदी युवा डिजिटल लत के शिकार हैंजो किसी न किसी इंटरनेट प्लेटफॉर्म से अपने आप को जोड़े रहते हैं। वर्चुअल दुनिया में खोए रहने वाले के लिए सब कुछ लाइक्स व कमेंट से तय होता है। वास्तविक जिंदगी की असली समस्याओं से वे भागना चाहते हैं और इस चक्कर में वे इंटरनेट पर ज्यादा समय बिताने लगते हैंजिसमें चैटिंग और ऑनलाइन गेम खेलना शामिल हैं। और जब उन्हें इंटरनेट नहीं मिलतातो उन्हें बेचैनी होती और स्वभाव में आक्रामकता आ जाती है। इससे निपटने का एक तरीका यह है कि चीन से सबक लेते हुए भारत में डिजिटल डीटॉक्स यानी नशामुक्ति केंद्र खोले जाएं और इस विषय पर ज्यादा से ज्यादा जागरूकता फैलाई जाए। 
साल 2011 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ कोलंबिया द्वारा किए गए रिसर्च में यह निष्कर्ष निकाला गया था की युवा पीढ़ी किसी भी सूचना को याद करने का तरीका बदल रही हैक्योंकि वह आसानी से इंटरनेट पर उपलब्ध है। वे कुछ ही तथ्यों को याद रखते हैंबाकी के लिए इंटरनेट का सहारा लेते हैं। इसे गूगल इफेक्ट या गूगल-प्रभाव कहा जाता है।
इसी दिशा में कैस्परस्की लैब ने साल 2015 में डिजिटल डिवाइस और इंटरनेट से सभी पीढ़ियों पर पड़ने वाले प्रभाव के ऊपर शोध किया है। कैस्परस्की लैब ने ऐसे छह हजार लोगों की गणना कीजिनकी उम्र 16-55 साल तक थी। यह शोध कई देशों में जिसमें ब्रिटेनफ्रांसजर्मनी,इटलीस्पेन आदि देशों के 1,000 लोगों पर फरवरी 2015 में ऑनलाइन किया गया। शोध में यह पता चला की गूगल-प्रभाव केवल ऑनलाइन तथ्यों तक सीमित न रहकर उससे कई गुना आगे हमारी महत्वपूर्ण व्यक्तिगत सूचनाओं को याद रखने के तरीके तक पहुंच गया है। शोध बताता है कि इंटरनेट हमें भुलक्कड़ बना रहा हैज्यादातर युवा उपभोक्ताओं के लिएजो कि कनेक्टेड डिवाइसों का प्रयोग करते हैंइंटरनेट न केवल ज्ञान का प्राथमिक स्रोत हैबल्कि उनकी व्यक्तिगत जानकारियों को सुरक्षित करने का भी मुख्य स्रोत बन चुका है।
इसे कैस्परस्की लैब ने डिजिटल एम्नेशिया का नाम दिया है। यानी अपनी जरूरत की सभी जानकारियों को भूलने की क्षमता के कारण किसी का डिजिटल डिवाइसों पर ज्यादा भरोसा करना कि वह आपके लिए सभी जानकारियों को एकत्रित कर सुरक्षित कर लेगा। 16 से 34 की उम्र वाले व्यक्तियों में से लगभग 70 प्रतिशत लोगों ने माना कि अपनी सारी जरूरत की जानकारी को याद रखने के लिए वे अपने स्मार्टफोन का उपयोग करते है। इस शोध के निष्कर्ष से यह भी पता चला कि अधिकांश डिजिटल उपभोक्ता अपने महत्वपूर्ण कांटेक्ट नंबर याद नहीं रख पाते हैं।
एक यह तथ्य भी सामने आया कि डिजिटल एम्नेशिया लगभग सभी उम्र के लोगों में फैला है और ये महिलाओं और पुरुषों में समान रूप से पाया जाता है। ज्यादा प्रयोग के कारण डिजिटल डिवाइस से हमारा एक मानवीय रिश्ता सा बन गया हैपर तकनीक पर अधिक निर्भरता हमें मानसिक रूप से पंगु भी बना सकती है। इसलिए इंटरनेट का इस्तेमाल जरूरत के वक्त ही किया जाए।

 दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में 27/08/19 को प्रकाशित 

Wednesday, August 21, 2019

फोटो और वीडियो से भरी नेट की दुनिया चाहे चेंज



स्मार्ट फोन ने देश में इंटरनेट प्रयोग के मानक जरूर बदले हैं पर वहां भी वीडियो और तस्वीरों की ही सामाज्य  है . इसमें यू-ट्यूब और फेसबुक लाइव जैसे फीचर बहुत लोकप्रिय हुए हैं. जिसका नतीजा अक्सर  इंटरनेट को वीडियो का ही माध्यम समझ लिया जाता है और आवाज  को नजरंदाज कर दियागया है। भारत में अगर आप अपने विचार अपनी आवाज के माध्यम से लोगों तक पहुंचाना चाहते हैंतो आपको इंटरनेट पर खासी मेहनत करनी पड़ेगी। व्यवसाय के रूप में जहां इन्स्टाग्राम  वीडियो,फेसबुक वाच यू-ट्यूब के सैकड़ों वीडियो चैनल देश में काफी लोकप्रिय हैंवहीं आवाज  का माध्यम अभी भी जड़ें जमा नहीं पाया हैजबकि बाकी दुनिया में इंटरनेट पर ऑडियो का चलन जिसे पोडकास्ट कहा जाता है , काफी तेजी से बढ़ रहा है।इंटरनेट पर ऑडियो फाइल को साझा  करना पॉडकास्ट के नाम से जानाजाता है। पॉडकास्ट दो शब्दों के मिलन  से  बना हैजिसमें पहला हैं प्लेयेबल ऑन डिमांड (पॉड) और दूसरा ब्रॉडकास्ट । नीमन लैब के एक शोध  के अनुसारवर्ष 2016 में अमेरिका में पॉडकास्ट (इंटरनेट पर ध्वनि के माध्यम से विचार या सूचना देना) के प्रयोगकर्ताओं यानी श्रोताओं की संख्या में काफी  तेजी से वृद्धि हुई  है. जिसके  वर्ष 2020 तक लगातार पच्चीस  प्रतिशत की दर से वृद्धि करने की उम्मीद है। इस वृद्धि दर से वर्ष 2020 तक पॉडकास्टिंग से होने वाली आमदनी पांच सौ मिलियन डॉलर के करीब पहुंच जाएगी। पॉडकास्टिंग की शुरुआत हालांकि एक छोटे माध्यम के रूप में हुई थीपर अब यह एक संपूर्ण डिजिटल उद्योग का रूप धारण करता जा रहा है। अमेरिका की सबसे बड़ी पॉडकास्टिंग कंपनी एनपीआर की सालाना आमदनी लगभग दस मिलियन डॉलर के करीब है.
भारत में पॉडकास्टिंग के जड़ें न जमा पाने के कारण हैं ध्वनि के रूप में सिर्फ फिल्मी गाने सुनने की परंपरा  और श्रव्य की अन्य विधाओं से परिचित ही नहीं हो पाना रहा है ।देश में आवाज के माध्यम के रूप में रेडियो ने टीवी के आगमन से पहले अपनी जड़ें जमा ली थीं पर भारत में रेडियो सिर्फ म्यूजिक रेडियो का पर्याय बनकर रह गया और टाक रेडियो में बदल नहीं पाया है . तथ्य यह भी है कि सांस्कृतिक रूप से एक आम भारतीय का सामाजीकरण  सिर्फ फ़िल्मी गाने और क्रिकेट कमेंट्री सुनते हुए होता है जिसकी परम्परा पारंपरिक रेडियो से शुरू होकर निजी ऍफ़ एम् स्टेशन होते हुए इंटरनेट की दुनिया तक पहुँची है .
निजी ऍफ़ एम् प्रसारण के बाद यह उम्मीद की जा रही थी कि यह परिद्रश्य बदलेगा जैसे निजी टेलीविजन समाचार चैनलों के आने से देश में समाचारों को परोसने का तरीका एकदम से बदल गया पर निजी ऍफ़ एम् स्टेशन पर समाचारों की रोक के कारण एकबार फिर देश म्यूजिक रेडियो की राह पर निकल पड़ा ,जहाँ दिन रात संगीत परोसा जा रहा है और विचारों की कहीं कोई जगह नहीं है .जबकि पॉडकास्टिंग को मीडिया के श्रव्य विकल्प के रूप में देखने की आवश्यकता है. भारत जैसे देशों मेंजहां इंटरनेट की स्पीड काफी धीमी होती हैवीडियो के मुकाबले पॉडकास्टिंग ज्यादा कामयाब हो सकतीहै।उल्लेखनीय है कि इंटरनेट पर ध्वनि रूप में अपने विचार प्रसारित करने की कोई रोक नहीं है पर फिर भी ज्यादातर निजी ऍफ़ एम् स्टेशन विभिन्न सोशल मीडिया प्लेट फॉर्म पर या तो गाने सुना रहे हैं या फिर मजाकिया वीडियो बनाकर अपना श्रोता आधार बढ़ा रहे हैं . सरकार ने सिर्फ रेडियो समाचारों के प्रसारणों पर रोक लगाई है आप जो रेडियो पर नहीं कह पा रहे हैं तो उसके लिए  इंटरनेट   को जरिया बनाया जा सकता है पर यहाँ  एक खतरा है .इंटरनेट  पर कुछ कहने के लिए विचार होने चाहिए और निजी एफएम के  रेडियो जॉकी या तो विचार शून्यता  के  शिकार हैं या  वे यथास्थिति से संतुष्ट हैं .तर्क यह भी दिया जाता है कि निजी रेडियो संस्थान किसी भी मुद्दे पर अपने फेसबुक पेज से किसी वैचारिक विमर्श की इजाजत नहीं देते  हैं . पोडकास्ट किसी भी विचार या विषय पर किया जा सकता है जो राजनीति से लेकर खेल और कारोबार से लेकर फैशन जैसे अनगिनत मुद्दों से जुड़ा हो सकता है.भारत जैसे भाषाई विविधता वाले देश में जहाँ निरक्षरता अभी भी मौजूद है . पॉडकास्ट लोगों तक उनकी ही भाषा में संचार करने का एक सस्ता और आसान विकल्प हो सकता है .प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी की मन की बात कार्यक्रम का पॉडकास्ट काफी लोकप्रिय है . पॉडकास्ट की सबसे बड़ी खूबी है इसकी ग्लोबल रीच यानि अगर आप कुछ ऐसा सुना रहे हैं जो लोग सुनने चाहते हैं तो किसी चैनल के लोकप्रिय होते देर नहीं लगेगी .
इस वक्त भारत में दो प्रमुख पॉडकास्ट सेवाएं नियमित रूप से प्रसारित की जा रही हैंजिनमें इंडसवॉक्स और ऑडियोमैटिक काफी लोकप्रिय हैंपर ये भारतीय भाषाओं में नहीं हैं। ऑडियोमैटिक ने अपनी शुरुआत के एक साल में एक लाख नियमित श्रोता जुटा लिए हैं। इंडसवॉक्स म्यूजिक स्ट्रीमिंग साइट सावन  पर उपलब्ध है। स्मार्टफोन की उपलब्धता के अनुपात में इनके श्रोता अभी काफी कम हैं। भारत के सन्दर्भ  में एक बात तय मानी जाती है कि पॉडकास्टिंग यहां विज्ञापन आधारित ही होगी। कुछ भी मनपसंद सुनने के लिए पैसे खर्च करने की परंपरा देश में फिलहाल  नहीं है. इन कंपनियों के लिए पॉडकास्टिंग एक ज्यादा अच्छा विकल्प हो सकती है। गूगल ने भारत में पॉडकास्ट में संभावनाएं देखते हुए पॉडकास्ट क्रियेटर प्रोग्राम शुरू किया है जिसमें चुने हुए लोगों को पॉडकास्ट की आवश्यक ट्रेनिंग के अलावा वित्तीय मदद भी दी जायेगी .पिछले साल गूगल ने अपना एंडरायड एप भी प्ले स्टोर पर लांच किया है .भारत जैसे देश में ध्वनि  व्यवसाय के लिएसंभावनाएं कितनी हैंइसका अंदाजा इस बात से लग सकता है कि देश में भले ध्वनि समाचारों के लिए आकाशवाणी का एकाधिकार है .सरकार इस एकाधिकार को निकट भविष्य में प्राइवेट रेडियो ऍफ़ एम् के साथ साझा करने के मूड में नहीं दिखती ऐसे में रेडियो का विचार क्षेत्र व्यवसाय के रूप में एकदमखाली पड़ा है .पॉडकास्ट उस खालीपन को भरकर देश के ध्वनि उद्योग में क्रांति कर सकता है और रेडियो संचारकों को अपनी बात नए तरीके से कहने का विकल्प दे सकती है .
दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में 21/08/19 को प्रकाशित 



Wednesday, August 14, 2019

पाइरेसी के शिकंजे में कसी वेब की दुनिया

भारत में कंप्यूटर युग की शुरुआत में लोग ब्रांडेड कंप्यूटर खरीदने  की बजाय उसे एसेम्बल करवाना ज्यादा पसंद करते थे और ज्यादातर कंप्यूटर सोफ्टवेयर पाइरेटेड होते थे .तब इंटरनेट ब्रोड्बैंड की बजाय डायल अप हुआ करता था और दुनिया इतनी सिमटी नहीं थी .कंप्यूटर सीडी पर महज गाने सुनने और फ़िल्में देखने का माध्यम भर हुआ करता था क्योंकि इंटरनेट पर आज जैसी इतनी सुविधाएं नहीं थी और न ही मोबाईल क्रांति हुई थी .इसका सबसे बड़ा फायदा पाईरेसी करने वाले लोगों ने उठाया और पाइरेटेड सीडी और डीवीडी का बाजार तेजी से फलने फूलने लग गया .तकनीक की ज्यादा भारतीयों को न होने के कारण लोगों ने पाइरेसी से उपलब्ध सामग्री का खूब लुत्फ़ उठाया .
धीरे धीरे तकनीक ने पैठ बनाई और लोग भी जागरूक हुए वहीं सोफ्टवेयर निर्माताओं ने भी जेनुइन सॉफ्टवेयर खरीदने वालों को प्रोत्साहित करने के लिए अपने सोफ्टवेयर की कीमतें कम कीं एंटी पाइरेसी तकनीक बनाने वाली कम्पनी मूसो के एक शोध के मुताबिक सारी दुनिया में पाइरेसी साईट पर जाने वाले लोगों की संख्या में पिछले साल के मुकाबले छ प्रतिशत की गिरावट आयी है .इसका एक कारण नेटफ्लिक्स जैसी वीडियो कंटेंट उपलब्ध कराने वाली वेबसाईट का आना भी है जो दुनिया के चार देशों को छोड़कर हर जगह अपनी सेवाएँ दे रही हैं और दूसरा हॉट स्टार,अमेजन प्राईम  जैसे वीडियो एप की सफलता है इंटरनेट के विस्तार के साथ ही इसका व्यवसायिक पक्ष भी विकसित होना शुरू हो गया.प्रारंभ में इसका विस्तार विकसित देशों के पक्ष में ज्यादा पर जैसे जैसे तकनीक विकास होता गया इंटरनेट ने विकासशील देशों की और रुख करना शुरू किया और नयी नयी सेवाएँ इससे जुडती चली गयीं  .इंटरनेट ने उम्र का एक चक्र पूरा कर लिया है। इसकी खूबियों और इसकी उपयोगिता की चर्चा तो बहुत हो लीअब इसके दूसरे पहलुओं पर भी ध्यान जाने लगा है. 
सारी दुनिया में पाइरेसी एक बड़ी समस्या है और इंटरनेट ने इस समस्या को और भी जटिल बना दिया है सोफ्टवेयर पाइरेसी से शुरू हुआ यह सफर फिल्मसंगीत धारावाहिकों तक पहुँच गया है .मोटे तौर पर पाइरेसी से तात्पर्य किसी भी सोफ्टवेयर ,संगीत,चित्र और फिल्म  आदि के डुप्लीकेट रिप्रोडक्शन  से है जिमसें मौलिक रूप से इनको बनाने वाले को कोई आर्थिक लाभ नहीं होता और पाइरेसी से पैदा हुई आय इस गैर कानूनी काम में शामिल लोगों में बंट जाती है .इंटरनेट से पहले यह काम ज्यादा श्रम साध्य था और इसकी गति धीमी थी पर इंटरनेट ने उपरोक्त के वितरण में बहुत तेजी ला दी है जिससे मुनाफा बढ़ा है .भारत जैसे देश में जहाँ इंटरनेट बहुत तेजी से फ़ैल रहा है ऑनलाईन पाइरेसी का कारोबार भी अपना रूप बदल रहा है .पहले इंटरनेट स्पीड कम होने की वजह से ज्यादातर पाइरेसी टोरेंट से होती थी पर टोरेंट वेबसाईट पर विश्वव्यापी रोक लगने से अब भारत में पाइरेसी का चरित्र बदल रहा है क्योंकि अब हाई स्पीड इंटरनेट स्मार्टफोन के जरिये हर हाथ में पहुँच रहा है तो लोग पाइरेटेड कंटेंट को सेव करने की बजाय सीधे इंटरनेट स्ट्रीमिंग सुविधा से देख रहे हैं .ऑनलाइन पाइरेसी में मूलतः दो चीजें शामिल हैं पहला सॉफ्टवेयर दूसरा ऑडियो -वीडियो कंटेंट जिनमें फ़िल्में ,गीत संगीत शामिल हैं .सॉफ्टवेयर की लोगों को रोज रोज जरुरत होती नहीं वैसे भी मोटे तौर पर काम के कंप्यूटर सोफ्टवेयर आज ऑनलाईन मुफ्त में उपलब्ध हैं या फिर काफी सस्ते हैं पर आज की भागती दौडती जिन्दगी में जब सारा मनोरंजन फोन की स्क्रीन में सिमट आया है और इन कामों के लिए कुछ वेबसाईट वो सारे कंटेंट उपभोक्ताओं को मुफ्त में उपलब्ध कराती हैं और अपनी वेबसाईट पर आने वाले ट्रैफिक से विज्ञापनों से कमाई करती हैं पर जो कंटेंट वे उपभोक्ताओं को उपलब्ध करा रही होती हैं वे उनके बनाये कंटेंट नहीं होते हैं और उस कंटेंट से वेबसाईट जो लाभ कमा रही होती हैं उसका हिस्सा भी मूल कंटेंट निर्माताओं तक नहीं जाता है .ऑडियो वीडियो कंटेंट को मुफ्त में पाने के लिए लाईव स्ट्रीमिंग का सहारा लिया जा रहा है क्योंकि इंटरनेट की गति बढ़ी है और उपभोक्ता को बार बार कंटेंट बफर नहीं करना पड़ता यानि अभी सेव करो और बाद में देखो वाला वक्त जा रहा है .यू ट्यूब जैसी वीडियो वेबसाईट जो कॉपी राईट जैसे मुद्दों के प्रति जरुरत से ज्यादा संवेदनशील है पाइरेटेड वीडियो को तुरंत अपनी साईट से हटा देती है पर इंटरनेट के इस विशाल समुद्र में ऐसी लाखों वेबसाईट हैं जो पाइरेटेड आडियो वीडियो कंटेंट उपभोक्ताओं को उपलब्ध करा रही हैं मुसो की ही रिपोर्ट के मुताबिक पाइरेसी के लिए जिस तकनीक का सबसे ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है उसमें स्ट्रीमिंग पहले नम्बर पर है जिसका कुल पाइरेसी में योगदान लगभग बत्तीस   दशमलव पांच प्रतिशत है दूसरे नम्बर पर पब्लिक टोरेंट उसके बाद वेब डाउनलोड ,प्राइवेट टोरेंट और स्ट्रीम रिपर्स शामिल हैं .बढ़ते स्मार्टफोन ने इंटरनेट का इस्तेमाल डेस्कटॉप से फोन केन्द्रित कर दिया है जो ज्यादा व्यक्तिगत माध्यम है और पाइरेटेड सामाग्री फोन पर डाउनलोड करने से वायरस के आ जाने के खतरे बढे हैं और लोग भी अब जागरूक हुए हैं .वे अब यह समझने लग गए हैं कि जरा से फायदे के चक्कर में अपने फोन की कई व्यक्तिगत गोपनीय जानकारी किसी हैकर को सौंपने को तैयार नहीं होते हैं .
भारत जैसे देश जो पाइरेसी की समस्या से लगातार जूझ रहे हैं वहां नेट की उपलब्धता का विस्तार पाइरेसी की समस्या को पूरी तरह से ख़त्म तो नहीं कर सकता पर कम जरुर करेगा क्योंकि भारत में डेस्कटॉप के मुकाबले स्मार्टफोन की संख्या लगातार बढ़ रही है .रिपोर्ट के मुताबिक़ विश्व में ऑनलाइन पाइरेसी शामिल चौसठ प्रतिशत लोग डेस्कटॉप कंप्यूटर के माध्यम से  पाइरेसी साईट पर जाते हैं वहीं मोबाईल फोन से इन साईट्स पर जाने वाले लोगों की संख्या मात्र पैंतीस प्रतिशत है .
दैनिक जागरण /आईनेक्स्ट में 14/08/2019 को प्रकाशित 

Friday, August 9, 2019

इंटरनेट और निजता का मुद्दा

सोशल मीडिया पर आने से जिस तथ्य को हम नजरंदाज करते हैं वह है हमारी निजता का मुद्दा और हमारे दी जाने वाली जानकारी.जब भी हम किसी सोशल मीडिया से जुड़ते हैं हम अपना नाम पता फोन नम्बर ई मेल उस कम्पनी को दे देते है.असल समस्या यहीं से शुरू होती है .  इस तरह देश के सभी नागरिकों का आंकड़ा संग्रहण कर लिया गया .उधर इंटरनेट के फैलाव  के साथ आंकड़े बहुत महत्वपूर्ण हो उठें .लोगों के बारे में सम्पूर्ण जानकारियां को एकत्र करके बेचा जाना एक व्यवसाय बन चुका है और  इनकी कोई भी कीमत चुकाने के लिए लोग तैयार बैठे हैं .कई बार एक गलती  किसी कंपनी की उस लोकप्रियता  पर भारी पड़ जाती है जो उसने एक लंबे समय में अर्जित की होती है. पिछले साल  पहले कैंब्रिज एनालिटिका मामला सोशल नेटवर्किंग साईट  फेसबुक के लिए ऐसा ही रहा. इस कंपनी पर आरोप है कि इसने अवैध तरीके से फेसबुक के करोड़ों यूजरों का डेटा हासिल किया और इस जानकारी का इस्तेमाल अलग-अलग देशों के चुनावों को प्रभावित करने में किया. इनमें 2016 में हुआ अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव भी शामिल  है. पिछले दिनों यह समाचार सुर्ख़ियों में रहा जिसमें यह खबर आई कियूएस फेडरल ट्रेड कमिशन (एफटीसी)सोशल मीडिया कंपनी फेसबुक से बिलियन डॉलर यानी 35 हजार करोड़ रुपये वसूलने वाला है। यह जुर्माना किसी सोशल मीडिया कंपनी पर अब तक का लगने वाला सबसे बड़ा जुर्माना है। इससे पहले साल 2012 में गूगल पर भी 22 मिलियन डॉलर (154 करोड़ रुपये) का जुर्माना लग चुका है। एफटीसी ने निजता का उल्लंघन और यूजर्स के डेटा का गलत इस्तेमाल करने के लिए फेसबुक पर जुर्माना लगाने जा रहा है।  निजता से जुड़ा यह मामला भले ही अमेरिका का हो पर इसकी गूंज भारत में सुनाई दी |अभी यह मामला चल ही रहा था तो एक और खबर ने दुनिया में हलचल मचा दी कि न्यूज वेबसाइट ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट के मुताबिक अमेजनएपल व गूगल के कर्मचारी स्मार्ट स्पीकर और वॉयस असिस्टेंट एप के जरिए ग्राहकों की बातें सुन रहे हैं। हालांकि इन कंपनियों का दावा है कि वे अपना प्रोडक्ट अपडेट करने के लिए बातें रिकॉर्ड करते हैं।
अमेजन की टीम हाल ही लॉन्च एलेक्सा व ईको स्पीकर की वॉयस की रिकॉर्डिंग भी करती है। उसका कहना है कि ऐसा वे ग्राहकों की मंजूरी लेकर ही करते हैंताकि भाषा व उनके कमांड को ज्यादा बेहतर बना सकें। भारत में अभी आर्टिफिशिएल इंटेलिजेंस से लैस स्मार्ट स्पीकर में अमेजन का एलेक्सागूगल का असिस्टेंट व एपल का सीरी शामिल है। हाल में अमेजन एलेक्सा ने पोर्टलैंड की महिला व उनके पति की निजी बातें रिकॉर्ड की और पति के दोस्त को  भेज दी। महिला ने शिकायत की तो कंपनी ने जांच के बाद माफी मांगी।
दोनों ही मामले लोगों के डेटा और उनके निजता से जुड़े हुए हैं पर अपनी निजता के प्रति जैसी संवेदनशीलता अमेरिका और यूरोप के देशों में दिखती है |भारत के लोग उससे बेखबर हैं |मोबाईल क्रांति ने लोगों के हाथ में ऐसा यंत्र दे दिया जिससे कुछ भी निजी नहीं रह गया है |आप जैसे ही अपने मोबाईल को इंटरनेट से जोड़ते हैं |आपका कुछ भी निजी नहीं रहा जाता यह अलग बात है कि गूगल जैसी कम्पनियां बार –बार यह दावा करती हैं कि वे लोगों की निजता का ख्याल रखती हैं और उनके डेटा को किसी भी थर्ड पार्टी के साथ शेयर न किया जाता है |लेकिन तथ्य यह भी है किकिसी भी ऑनलाइन कम्पनी का विज्ञापन कारोबार तभी तेजी से बढेगा जब उसके पास ग्राहकों की गोपनीय जानकारी हो जिससे वह उनके शौक रूचि आदतों के हिसाब से विज्ञापन दिखा सकेगी वहीं साईबर अपराधियों की निगाह भी ऐसे आंकड़ों पर रहती है,पर ऐसी घटनाएँ न हों और अगर हों तो दोषियों पर कड़ी दंडात्मक कार्यवाही हो ऐसा कोई भी प्रावधान अभी तक भारतीय संविधान मे नहीं किया गया है .अभी तक ऐसे किसी मामले को निजता के अधिकार के  हनन के तहत देखा जाता है .नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करना सरकार का संवैधानिक दायित्व है. किसी नागरिक की आधार सूचना हो या कोई अन्य किस्म की डिजीटल सूचना- उन पर सेंध लगाने की कोशिश  अंततः नागरिक गरिमा ही नहींराष्ट्रीय संप्रभुता को भी ठेस पहुंचाएगी. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बी एन श्री कृष्णा की अध्यक्षता में गठित समिति ने पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन बिल का ड्राफ्ट बिल सरकार को सौंप दिया है .इस बिल में “निजी” शब्द को परिभाषित किया गया है.इसके अतिरिक्त इसमें सम्वेदनशील निजी डाटा को बारह  भागों में विभाजित किया गया है.जिसमें पासवर्ड,वित्तीय डाटा,स्वास्थ्य डाटा,अधिकारिक नियोक्ता,सेक्स जीवन,जाति/जनजाति,धार्मिक ,राजनैतिक संबद्धता जैसे क्षेत्र जोड़े गए हैं.इस बिल को अगर संसद बगैर किसी संशोधन के पास कर देती है तो देश के प्रत्येक नागरिक को अपने डाटा पर चार तरह के अधिकार मिल जायेंगे .जिनमें पुष्टिकरण और पहुँच का अधिकारडाटा को सही करने का अधिकारडाटा पोर्टेबिलिटी और डाटा को बिसरा देने जैसे अधिकार शामिल हैं .इस समिति की  रिपोर्ट के अनुसार यदि इस बिल का कहीं उल्लंघन होता है तो सभी कम्पनियों और सरकार को स्पष्ट रूप से उन व्यक्तियों को सूचित करना होगा जिनके डाटा की चोरी या लीक हुई है कि चोरी या लीक हुए डाटा की प्रकृति क्या है ,उससे कितने लोग प्रभावित होंगे ,उस चोरी या लीक के क्या परिणाम हो सकते हैं और प्रभावित लोग जिनके डाटा चोरी या लीक हुए हैं वे क्या करें .ऐसी स्थिति में जिस व्यक्ति का डाटा चोरी या लीक हुआ है वह उस कम्पनी से क्षतिपूर्ति की मांग भी कर सकता है .फिलहाल यह बिल संसद की मंजूरी के इन्तजार में है,लेकिन सिर्फ़ कानून के बन जाने से सबकुछ ठीक हो जाएऐसा संभव नहीं है. इसके लिए लोगों को भी जागरूक होना होगा. इस कानून का उद्देश्य  आम लोगों को यह जानकारी देना है कि आपका डाटा कौन ले रहा है और उसका इस्तेमाल कौन कर रहा है.क़ानून के तहत लोगों का निजी डेटा केवल पहले से बताए गए उद्देश्यों के लिए किया जा सकेगा. कंपनियों को यह बताना होगा कि वो डेटा की जानकारी कैसे और क्यों ले रहे हैं. कंपनियों को यूज़र्स का डेटा सुरक्षित करने की ज़रूरत है और अगर उनका डेटा लीक होता है तो उन्हें बताना होगा कि यह उनके लिए कितना ख़तरनाक हो सकता है.भारत ने इस दिशा में काफी देर से ही एक सार्थक कदम उठाया है .इसके साथ ही लोगों को भी सोशल मीडिया के प्रयोग करते वक्त सावधानी बरतनी होगी कि उन्हें कितनी जानकारी लोगों को देनी है .वक्त बे वक्त चेक इन्स की जानकारी हो या घर से दूर छुट्टियाँ मनाने का मामला ,हमें यह बात हमेशा जहन में रखनी होगी इंटरनेट पर कुछ भी गोपनीय नहीं है .
दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 09/08/2019 को प्रकाशित 

टेलीविजन और इंटरनेट के बीच जीत किसकी

मॉडर्न मॉस मीडिया  में इंटरनेट ने बड़े कम समय में अपनी पहचान जमाई है और दूसरे मॉस मीडिया  के लिए एक बड़ी चुनौती पेश की है |इसमें टेलीविजन भी शामिल है |ऐसा माना जाने लग गया था कि अब टेलीविजन को हमेशा के लिए इंटरनेट पछाड़ देगा पर आंकड़ों की नजर में फिलहाल ऐसा होता दिख नहीं रहा है |ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च कौंसिल  (BARC)  ने जुलाई 2018 में  जो आंकड़े जारी किये थे वह यह  बताते है कि 2016 से अबतक भारत में टेलीविज़न के दर्शकों की संख्या  में बारह प्रतिशत की बढ़त हुई है |सस्ते होते स्मार्ट फोन इंटरनेट की कम दरें ,अमेजन प्राईम ,नेटफ्लिक्स,हॉटस्टार जैसे वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफोर्म इंटरनेट टीवी की बढ़त को आसान बना रहे थे लेकिन भारत को महान इसके विचित्र विरोधाभास बनाते हैं  | वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफोर्म शहरों में बड़ी तेजी से लोकप्रिय भी होने लगे हैं क्योंकि वहां एक बड़ा दर्शक तबका था जो पारम्परिक टेलीविजन कार्यक्रमों से उब चुका था |कुछ नए की तलाश में इंटरनेट वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफोर्म की शरण में आने लगा |जहाँ उदारीकरण और उपभोक्तावाद के बढ़ते चलन ने शहरों में एकल परिवारों की संख्या में इजाफा किया वहीं बढ़ती आय ने टेलीविजन देखने की क्रिया को सामूहिक से एकल बना दिया |शहरों में फ़्लैट संस्कृति ने घरों को डब्बा बना दिया जहाँ ज्यादा टेलीविजन सेट नहीं रखे जा सकते हैं |वहां स्मार्ट फोन पर अपने मनपसन्द कार्यक्रम देखने एक आसान विकल्प के रूप में उभरा |वह वक्त जल्दी ही अतीत की बात हो गया जहाँ पूरा परिवार एक साथ टेलीविजन देखता पर बढ़ते टीवी चैनल और एकल परिवार के बढ़ते चलन ने इस टीवी देखने के सामूहिक कृत्य को एक निजी अनुभव में तब्दील कर दिया और यहीं से इंटरनेट टीवी शहरों में तेजी से आगे बढ़ा पर भारतीयों का टेलीविजन प्रेम अभी भी बरक़रार है |
ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च कौंसिल (BARC) के इस शोध अध्ययन  के नतीजे बताते है कि साल 2018  में पिछले दो साल के मुकाबले टेलीविजन सेट की संख्या  में साढ़े सात प्रतिशत की वृद्धि हुई है |इस वक्त भारत में कुल 298 मिलीयन घर हैं जिनमें 197 मिलीयन घरों में टेलीविजन सेट हैं यानि सौ मिलियन घरों में अभी भी टेलीविजन सेट खरीदे जाने की गुंजाईश है |2016 में 183 मिलीयन घरो में टेलीविजन सेट थे |सर्वे यह भी बताता है कि इस दौरान देश में टेलीविजन देखने वाले दर्शकों की संख्या में 7.2 प्रतिशत की भी बढोत्तरी हुई हैसाल 2016 में टेलीविजन दर्शकों की संख्या 780 मिलीयन थी जो साल 2108 में बढ़कर 836 मिलीयन हो गयी |
जबकि  इसकी तुलना में भारत का अग्रणी  वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफ़ॉर्म हॉटस्टार  के पास केवल साठ मिलियन उपभोक्ता हैंभारत का टीवी दर्शक वर्ग पारिवारिक है  यही कारण है इस की वृद्धि का|ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च कौंसिल  (BARC) का सर्वे यह बताता है कि भारत के  लगभग 66 प्रतिशत भारतीय घरों में टीवी सेट हैं शहरी भारत में टीवी सेट खरीदे जाने की वृद्धि दर चार प्रतिशत वहीं उल्लेखनीय रूप से गाँवों में यह दर दस प्रतिशत है |टीवी देखने में बिताये  जाने वाले  समय में शहरों में दस प्रतिशत की वृद्धि हुई है वहीं गाँव में यह दर तेरह प्रतिशत है |ट्राई (TRAI) की रिपोर्ट के अनुसार चीन के बाद भारत में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा टीवी बाजार है |जिन्‍हें केबल टीवी सेवाडीटीएचआईपीटीवी सहित दूरदर्शन टीवी नेटवर्क सेवायें प्रदान करते हैं।2014-15 में भारत का टेलीविजन उद्योग 4,75,003 करोड़ रूपये का थाजो 2015-16 में बढ़कर 5,42,003 करोड़ रूपये हो गया और इसमें 14.10 प्रतिशत की वृद्धि हुई |विकसित देशों के मुकाबले जहाँ ग्राहकों की संख्या  में औसत रूप से वार्षिक गिरावट देखी जा रही हैलेकिन भारत में टेलीविजन का बाजार में दबदबा बना हुआ है ।इसका एक बड़ा कारण गाँवों में टेलीविजन का बढ़ता विस्तार है,आजादी के बाद पहली बार गाँव में टीवी सेट के प्रति बढ़ता लगाव इस धारणा को तोड़ रहा है कि टीवी एक शहरी माध्यम है और इसीलिये वहां गाँव और उससे जुडी बातें नहीं दिखती |गाँव में टीवी का बढ़ता चलन निश्चित रूप से टीवी कार्यक्रम निर्माताओं को इस ओर मजबूर करेगा कि वे अपने कंटेंट में गाँवों को प्राथमिकता दें |टीवी पर पशु आहार से सम्बन्धित विज्ञापनॉन का बढना इस ओर जरुर इशारा कर रहा है कि अब टीवी के दर्शक वर्ग में ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों की जरूरतों को मान्यता मिल रही है |
यह एक बड़ा बदलाव है वैसी भी शहरी टीवी बाजार में धीरे धीरे स्थिरता आ रही है पर गाँव के बाजार में पर्याप्त गुंजाईश है |वैसे भी भारत का प्राथमिक  टीवी दर्शक वर्ग पारिवारिक है  जो इसकी वृद्धि के लिए उत्तरदायी है |गाँवों में अभी भी शहरों के मुकाबले आपा धापी कम है और लोग निजता की बजाय सामूहिकता पर जोर देते हैं |शहरी क्षेत्र में टीवी का इंटरनेट से पिछड़ने का कारण इस तर्क से दिया जाता है कि टीवी के  पास कार्यक्रमों की विविधता नहीं है पर यह इलीट शहरी वर्ग की समस्या है ,एक माध्यम के रूप में अभी भी पारिवारिक कहानियां देश के मध्यम वर्ग और ग्रामीण भारत की पहली पसंद बने हुए हैं इसलिए वार्षिक रूप से समस्त जनमाध्यमों से होने वाली विज्ञापनों की आय में पैंतालीस प्रतिशत हिस्सा टीवी विज्ञापनों का ही है |एक सस्ता स्मार्ट फोन अभी भी तीन से चार हजार रुपये से कम नहीं आता और जिसका जीवन काल दो से तीन साल का ही होता है |आर्थिक रूप से एक आम भारतीय का अपने लिए इतना पैसा मनोरंजन पर खर्च करना संभव नहीं है  |वहीं सस्ते एल ई डी टीवी दसहजार से कम रुपये में उपलब्ध हैं जो पूरे परिवार का मनोरंजन कर सकते हैं | इसमें कोई शक नहीं है कि टेलीविजन के लिए इंटरनेट एक बड़ा खतरा बन कर उभर रहा है पर  आज भी एक अरब से ज्यादा आबादी वाले देश में एक माध्यम के रूप में टेलीविजन दर्शकों ,विज्ञापन दाताओं की पहली पसंद बना हुआ है |
दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में 09/08/2019 को प्रकाशित 

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