Wednesday, September 25, 2019

गूगल और फेसबुक में वीडियोज की जंग



इंटरनेट की दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण बात है इसकी गतिशीलता नया बहुत जल्दी पुराना हो जाता है और नई संभावनाओं के द्वार खुल जाते हैं |सोशल मीडिया प्लेटफोर्म नित नए रूप बदल रहे हैं उसमें नए –नए फीचर्स जोड़े जा रहे हैं |इस सारी कवायद का मतलब ऑडिएंस को ज्यादा से ज्यादा वक्त तक अपने प्लेटफोर्म से जोड़े रखना |इसका बड़ा कारण इंटरनेट द्वारा पैदा हो रही आय भी है |
जाहिर है इसमें वीडियो एक बड़ी भूमिका निभा रहे हैं |जिसका बड़ा हिस्सा गूगल की एक कम्पनी यूट्यूब जैसी साईट्स से आ रहा है |वहीं फेसबुक की कम्पनी इन्स्टाग्राम धीरे –धीरे एक नयी क्रांति कर रही है और तेजी से युवाओं में लोकप्रिय हो रही है |इंटरनेट की बादशाहत को लेकर जारी यह जंग अब और भी दिलचस्प होने जा रही है |जिसके केंद्र में हैं फेसबुक और गूगल |गूगल जहाँ यूट्यूब के जरिये वीडियो बाजार के एक बड़े हिस्से पर काबिज है |वहीं उसको टक्कर देने के लिए फेसबुक ,इन्स्टाग्राम में नए परिवर्तन कर वीडियो बाजार के इस हिस्से में यूट्यूब इस  की इस बादशाहत को खत्म करना चाह रहा है |
इन्स्टाग्राम यह एक फोटो और विडियो शेयरिंग एप्प है जिसे फेसबुक ने साल 2012 में मात्र एक बिलीयन डॉलर में खरीदा था |आज इसकी कीमत सौ बिलियन डॉलर हो गयी है|ब्लूमबर्ग इंटेलीजेंस रिपोर्ट के अनुसार इन्स्टाग्राम के आज एक बिलियन एक्टिव यूजर हैं जो जल्दी ही दो बिलियन हो जायेंगे और अगले पांच साल में इसके उपभोक्ता फेसबुक के बराबर हो जायेंगे |अन्य सोशल मीडिया साईट्स की तरह इन्स्टाग्राम भी अपना इंटरफेस लगातार बदल रहा है | जैसे कि  फोटोग्राफिक फिल्टर्सस्टोरीजछोटे विडियोईमोजीहैशटैग इत्यादि |भविष्य की रणनीति को ध्यान में रखते हुए इन्स्टाग्राम ने एक नई शुरुआत की है |वह है आई जी टीवी इसके  ज़रिये कोई भी यूजर एक घंटे तक का लंबा विडियो अपलोड कर सकता है | लंबे विडियो का मतलब है कि यूजर ज्यादा समय तक इन्स्टाग्राम   पर रहेगाजाहिर है यह लक्ष्य  आर्थिक एवं व्यवसायिक दृष्टिकोण से हर एप्प बनाने वाली कंपनी हासिल करना चाहती है | इसका सीधा फायदा फेसबुक को भी मिलेगा |अभी तक लोग यूटयूब के अपने वीडियो फेसबुक के प्लेटफ़ॉर्म का उपयोग करते हुए उसे लोकप्रिय बनाते थे और उन वीडियो को देखने के लिए उपभोक्ता फेसबुक को छोड़कर यूटयूब के प्लेटफोर्म पर चले जाते थे ,जिससे फेसबुक को ज्यादा लाभ नहीं होता था | तस्वीर का एक रुख यह भी है कि इंस्टाग्रामफेसबुकट्विटरस्नैपचैट और यूट्यूब इत्यादि जैसे आनलाइन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के बढ़ने के साथ व्यवसायिक कंपनियों का रुख सीधे विज्ञापन की बजाय   इंफ्लुएंशर मार्केटिंग की ओर बदला है. जेम्फो इंडिया इंफ्लूएंस रिपोर्ट 2018 इंफ्लूएंसर इन्साइट्स एडिशन (आईआईई) अनुसार,भारत में युवाओं पर करीब अस्सी प्रतिशत  तक प्रभाव इंस्टाग्राम से डाला जाता है या फिर इसकी संभवाना है. यह आंकड़े फेसबुक और ट्विटर द्वारा डाले जाने वाले प्रभाव से बहुत ज्यादा हैं|. इस सर्वे के अनुसारसबसे तेजी से बढ़ते सोशल मीडिया चैनल में इंस्टाग्राम (अस्सी प्रतिशत )ट्विटर (छप्पन प्रतिशत)फेसबुक (बावन प्रतिशत)यूट्यूब (छियालीस प्रतिशत)और व्हाट्सएप (बत्तीस प्रतिशत) है|इन्स्टा की यह लोकप्रियता उसके नए वीडियो प्लेटफ़ॉर्म को लोकप्रिय बनाने में काम आ सकती है
लेकिन आईजीटीवी यूटयूब को टक्कर दे सकता हैं क्योंकि इन कुछ सालों में इन्स्टाग्राम  की लोकप्रियता में तेज़ी से उछाल आया है और लोग इन्स्टाग्राम  के वीडियो फेसबुक पर शेयर करेंगे तो ऑडिएंस फेसबुक की अपनी कम्पनी के प्लेटफ़ॉर्म पर ही रहेगी न कि प्रतिद्वंदी कम्पनी गूगल के प्लेटफ़ॉर्म यूट्यूब पर |
एक और ख़ास बात इन्स्टाग्राम के आईजी टीवी के विडियो लम्बवत (वर्टीकल) ही रहेंगे इससे उपभोक्ता को अपना  मोबाइल घुमाने की ज़रूरत नहीं होगी जैसा कि यूटयूब के वीडियो देखते वक्त करना पड़ता है | लेकिन गूगल द्वारा चलायी जाने वाली वीडियो  सर्विस यूटयूब के सक्रिय  दर्शक  की संख्या हर माह  1.9 बिलियन है | उपभोक्ताओं के हिसाब से आज की तारीख़ में यूटयूब का विस्तार इन्स्टाग्राम  से दो गुना है लेकिन फेसबुक  द्वारा संचालित यह सेवा  लंबे वीडियो  के क्षेत्र  में यूटयूब के विज्ञापन बाजार  को कड़ी टक्कर दे सकता हैहालाँकि इन्स्टाग्राम  के लंबे विडियो वाले प्लेटफार्म को  अभी बहुत सारी चुनौतियों  का सामना करना पड़ेगा जैसे कि कंटेंट बनाने वालों के साथ रेवेन्यू मॉडल का ढांचा तय करनाबीडियो के निर्माता और दर्शकों  दोनों को बांधे रखना |नए दर्शकों को एक दूसरे  से जोड़ना जैसी आवश्यक चीजें शामिल हैंयूटयूब कंटेंट बनाने वालो के साथ रेवेन्यू  सीधे साझा करता है जिससे सफल वीडियो क्रिएटर की कमाई लगभग १०००० डॉलर हर महीने की हो जाती है और कुछ प्रसिद्ध क्रिएटर १००००० डॉलर तक भी अपने वीडियो से कमा रहे हैं | इन्स्टाग्राम  की नीति अभी  इस संदर्भ  में स्पष्ट नहीं  है | इन्स्टाग्राम में ज्यादा फालोवर रखने वाले लोग इंफ्लुएंशर मार्केटिंग से पैसा कमा रहे हैं जिसमें कम्पनियां सीधे ऐसे लोगों को अपना उत्पाद या धन देती हैं |जिनके पास ज्यादा फालोवर हैं उन्हें इन्स्टाग्राम सीधे कोई धन नहीं देता है  |दूसरी सबसे अहम् चुनौती है आईजीटीवी प्लेटफ़ॉर्म को कैसे साफ़ सुथरा रखा जाए | अश्लील और आहत करने वाले विडियो पर लगाम कैसे लगायी जाए |यूट्यूब की इस मामले में स्थिति बड़ी स्पष्ट है |वे कॉपी राईट उल्लघन करने वाले वीडियो को तुरंत हटाते हैं इसके अलावा हिंसा और अश्लीलता फैलाने वाले वीडियो पर भी उनका रुख कड़ा रहता है |उनकी पूरी टीम इस मामले में काफी संवेदनशील है |वहीं दूसरी तरफ बहुत सारे यूटयूबर्स ने इन्स्टाग्राम में अपने अकाउंट बना लिया है लेकिन  उन लोगों ने यूटयूब का साथ अभी नहीं छोड़ा है |फेसबुक और गूगल में छिड़ी वर्चस्व की इस जंग में फायदा उपभोक्ताओं को मिलेगा  जिन्हें अपनी क्रिएटिविटी दिखाने और लोगों से जुड़ने के मौके नए फीचर्स के साथ मिलेंगे |
दैनिक जागरण /आईनेक्स्ट में 25/09/2019 को प्रकाशित 



Friday, September 20, 2019

ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे

पिछले दिनों मैंने जिंदगी का एक नया रंग देखा . हुआ यूँ कि करीब पच्चीस साल के बाद अपने पुराने स्कूल जाना हुआ.वो भी बगैर किसी कारण बस दिल ने कहा चलो और मैं चला गया उस शहर जहाँ मैंने अपनी जिन्दगी के बेहतरीन साल गुजारे थे. वहाँ मुझे अपना एक सबसे प्यारा दोस्त  मिला जिसे मैंने पिछले पच्चीस  साल से न  देखा था और न ही बात की थी. ये अलग बात है कि वो स्कूल के दिनों का मेरा सबसे अच्छा दोस्त था. उस दोस्त ने   फेस बुक पर जाने से कुछ ही दिन पहले मुझे खोज लिया. जब मैं वहां पहुंचा तो इंसानी रिश्ते का एक नया रंग देखा वो था दोस्ती.

उसके प्यार और अपनत्व के आगे मुझे अपने का रिश्ते फीके से लगे . जिंदगी में हमारे पैदा होते ही ज्यादातर रिश्ते हमें बने बनाये मिलते हैं और उसमे अपनी पसंद  का कोई मतलब ही  नहीं रहता लेकिन दोस्ती ही एक ऐसा रिश्ता होता है जिसे हम अपने जीवन  में खुद बनाते हैं.  वैसे हमारी  फिल्मों ने प्यार और मोहब्बत के बाद किसी मुद्दे पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया है वो दोस्ती है. “जाने तू या जाने न”  “रॉक ऑन”, “दिल चाहता है” और 'रंग दे बसंती' जैसी फिल्मों में दोस्ती को ही मुख्य आधार बनाया गया है. लेकिन  दोस्तों को दुआ देता  ये गाना जब आप सुनेंगे तो निश्चित ही आपको अपने सबसे अच्छे दोस्त की याद आ ही जायेगी.  “एहसान मेरे दिल पर तुम्हारा है दोस्तों ये दिल तुम्हारे प्यार का मारा है दोस्तों” (फिल्म :गबन ) इस दुनिया में शायद ही ऐसा कोई इंसान होगा जो अपने दोस्तों का एहसान न मानता हो क्या कहेंगे आप दोस्ती यानी एक ऐसा रिश्ता है, जिसमें प्यार, तकरार, इजहार, इंकार, स्वीकार जैसे सभी भावों का मिश्रण  है .जब दोस्ती पर गानों की बात चली है तो सबसे ज्यादा चर्चित गाना शोले का ही हुआ “ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे ,छोड़ेंगे दम मगर तेरा साथ न छोड़ेंगे” .

दोस्ती है ही रिश्ता ऐसा न इसके लिए न समाज की स्वीकृति चाहिए और न ही मान्यताओं और परम्पराओं का सहारा तभी तो कहा गया है. “बने चाहे दुश्मन जमाना हमारा सलामत रहे दोस्ताना हमारा” (दोस्ताना ).  जरा सोचिये बगैर दोस्ती के हमारा जीवन कैसा होता आफिस ,स्कूल , सिनेमा हाल , रेस्टोरेंट बगैर दोस्तों के कैसे लगते अगर नहीं समझ पा रहे हों तो अपने स्कूल का पहला दिन याद कीजिये जब आपका कोई दोस्त नहीं था या किसी दिन अकेले कोई फिल्म देखने चले जाइए और उसके बाद कहीं बाहर अकेले खाना कहिये फिल्म:खुदगर्ज़ का ये गाना शायद इसी विचार को आगे बढ़ा रहा है “दोस्ती का नाम जिंदगी”, पर कभी ऐसा भी हो सकता है कि आपको दोस्ती करनी पड़ती है तो उस मौके के लिए भी गाना है “हम से तुम दोस्ती कर लो ये हसीं गलती कर लो “ (नरसिम्हा ).

                जिंदगी में रिश्ते हमेशा एक जैसे नहीं होते और ये बात दोस्ती पर भी लागू होती है कभी दोस्तों के चुनाव में भी गलती हो जाती है या गलतफहमियों से दोस्तों से दूरी हो जाती है और तब जो होता उसको बयां करता है ये गाना “दुश्मन न करे दोस्त ने वो काम किया है उम्र भर का गम हमें इनाम दिया है” (आखिर क्यों ). खैर हर रिश्ता कभी भी एक जैसा नहीं होता और वो बात दोस्ती पर भी लागू होती है  फिर आजकल की भागती दौडती दुनिया में अक्सर इस बात को दोष दिया जाता है कि इस से रिश्तों की संवेदनाएं खतम हो रही हैं पर एक रिश्ता तेज रफ़्तार  दुनिया में आज भी बचा हुआ है. वो है दोस्ती क्योंकि ये कुछ मांग नहीं करता. दोस्त , दोस्त होते हैं ये शिकायत हो सकती है कि समय की कमी है पर जब दोस्त मिलते हैं तो दोस्ती फिर से जवान हो जाती है.
प्रभात खबर में 20/09/19 को प्रकाशित 

Tuesday, September 17, 2019

माइक्रो वीडियोज के ट्रेंड में भी सुरक्षा की आस


इंटरनेट पर वीडियो की धूम है पर अब जमाना माइक्रो वीडियो का मतलब ऐसे वीडियो जो एक मिनट से कम के हों और  उनमें रोचकता हो .ऐसा ही एक माइक्रो वीडियो एप है टिक टोक .चीन जिस तरह से स्मार्ट फोन की मैन्युफैक्चरिंग में सारी दुनिया को पछाड़ते हुए नंबर एक पर पहुँच गया हैअब उसकी नजर है एप की विशाल दुनिया में तहलका मचाने की,साल 2017 में जहाँ भारत में प्ले स्टोर से सबसे ज्यादा डाउनलोड होने वाले प्रमुख दस एप में मात्र दो ही चीन के थेवहीं 2018 में प्रमुख दस एप में से पांच चीन के हो चुके थे जिनमें तीन टिक- टोक,लाईक और हीलो जैसे  वीडियो एप थे .जाहिर है इसके केंद्र में भारत ही है क्योंकि चीन ने अपना इंटरनेट बाजार फेसबुक और गूगल जैसी कम्पनियों के लिए बंद कर रखा है पर भारत का बाजार सभी के लिए खुला है .

जिस तरह से टिक टोक के प्रयोगकर्ता बढ़ रहे हैं उसने इंटरनेट की नामी कम्पनियों को अपनी रणनीति बदलने पर मजबूर कर दिया है .फेसबुक ने टिक टोक को टक्कर देने के लिए चुपचाप लासो वीडियो एप लॉन्च कर दिया है फिलहाल अभी यह अमेरिका के लोगों के लिए ही उपलब्ध है पर भारत में जिस तरह फेसबुक लोगों का पसंदीदा एप बना हुआ है जल्दी ही ‘लासो’ भारत में भी उपलब्ध होगा .
2016 में लॉन्च हुए टिक टोक वीडियो एप को 2018 के गूगल प्ले अवार्ड में  भारत के सबसे मनोरंजक एप का खिताब मिला अगस्त 2018 में दुनिया के दो सबसे तेजी से उभरते हुए शोर्ट वीडियो एप म्यूजिकल डॉट एल वाई और टिक टोक ने मिलकर एक नई वैश्विक एप टिक टोक बनाया . छोटे वीडियो बनाने वाला यह एप यूटयूब ट्विटर और इन्स्टाग्राम से पूरे सोशल मीडिया पर तहलका मचाये हुए है .दुनिया की कई बड़ी हस्तियों ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म को लोकप्रिय बनाने के लिए इस एप का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है . टिक टोक की चर्चा करते वक्त हमें देश में एप के समाज शास्त्र को समझना अत्यंत आवश्यक है जहाँ फेसबुक इन्स्टाग्राम जैसे एप देश के क्लास तबके सम्बन्ध रखते हैं जहाँ देश के बड़े शहरों में रहने वाले लोग ज्यादा सक्रिय हैवहीं टिक टोक एप के वीडियो कंटेंट में असली भारत दिख रहा है . जहाँ गाँव है धूल मिट्टी है और सुअर,कुत्ते जैसे जानवर और वो लोग जिन्हें हम मास या जनता  कहते हैं यानि इस एप के कंटेंट क्रियेटर टियर टू और टियर थ्री जैसे छोटे शहरों और कस्बों में रहने वाले ऐसे लोग हैं जो अपनी क्षेत्रीय भाषाएं बोलते हैं दिखने में मीडिया द्वारा गढ़े गए सुन्दरता के मानकों के हिसाब से नहीं दिखते .जिसका प्रमुख कारण सस्ता इंटरनेट और स्मार्ट फोन हैं और देश की बड़ी युवा आबादी इन्हीं शहरों में रहती है .

इस तरह के वीडियो कंटेंट की शुरुआत सबसे पहले डब्स्मास ने शुरू की थी.जिसमें पहले से दिए गए ऑडियो पर लोग अपने चेहरे के साथ एक नया वीडियो बनाते थे . वो ऑडियो किसी फिल्म का संवाद या गाना हो सकता है या फिर इंटरनेट पर वाइरल हो रहे किसी वीडियो कंटेंट का ऑडियो पर डब्स्मास ज्यादा सफल नहीं हो पाया क्योंकि उसके पास बनाये गए कंटेंट को प्रमोट करने का कोई अपना कोई प्लेटफोर्म नहीं था यानि यूजर को अपने कंटेंट को प्रमोट करने के लिए किसी अन्य सोशल मीडिया प्लेटफोर्म का सहारा चाहिए होता जबकि टिकटोक जहाँ वीडियो कंटेंट बनाने में मदद करता है वहीं उसे अपने प्लेटफोर्म पर प्रमोट भी करता है .फैक्टर्स डेली वेबसाईट के मुताबिक़ टिक टोक ने देश के दस प्रतिशत इंटरनेट उपभोक्ताओं में अपनी पैठ बना ली है हालाँकि यह पैठ गूगल ,फेसबुक ,इन्स्टाग्राम के यूजर बेस के मुकाबले कम है.टिक टोक  एप के सारी दुनिया में पांच सौ मिलियन प्रयोगकर्ता हैंजिसमें से उनतालीस प्रतिशत भारत से आते हैं . इसकी लोकप्रियता का आलम यह है कि साल भर के अंदर ही इस एप के अपने स्टार भी हो गए हैं .अवेज दरबार नाम के एक व्यक्ति के 4.2 मिलीयन फालोवर हैं . इसमें लाईव फीचर एक हजार फोलोवर बनने के बाद ही एक्टिवेट होता है . हालाँकि यह कहना अभी जल्दीबाजी होगी कि भविष्य में क्या टिक टोक जैसे एप यूट्यूब को नष्ट कर देंगे  पर जिस तरह से चीन के वीडियो एप ऐसी अनगढ़ प्रतिभाओं को सबके  सामने ला रहे हैं  उससे इस तथ्य को पूरी तरह नकारा भी नहीं जा सकता  .पर कुछ ऐसे मुद्दें हैं जिन पर देश को अभी सोचना है अभी तक भारत सरकार की नीतियां फेसबुक और अमेजन जैसी अमेरिकी वैश्विक कम्पनियों को ध्यान में रखकर बनाई जा रही थीं जिसके मूल में भारतीय स्टार्ट अप की मदद करना भी शामिल था पर चीन की कम्पनियों के दखल से परिद्रश्य बदल गया है .
पिछले साल जुलाई में इंडोनेशिया ने आपत्तिजनक सामाग्री के प्रसारण के कारण टिक टोक को बैन कर दिया था .देश में सोशल मीडिया पर फेक न्यूज से लेकर आपत्तिजनक वीडियो के मामले सामने आते रहते हैं जिसमें सरकार सम्बन्धित कम्पनियों को तलब भी करती रहती है यूजर जेनरेटेड कंटेंट में  लोगों के डाटा की सुरक्षा से जुड़ा मामला  भी एक बड़ा मुद्दा है .चीन की कम्पनियों का इस मामले में रिकॉर्ड काफी अच्छा नहीं है .हालांकि लोग अपनी जानकारियों को लेकर सतर्क जरूर हुए हैंपर यह सतर्कता भारत में केवल एक तबके तक ही सीमित है क्योंकि यह जागरूकता अभी बड़े शहरों में आनी शुरू हुई है पर छोटे शहरो और कस्बों में लोग इससे बिलकुल अनजान हैं .टिक टोक जैसे एप रजिस्ट्रेशन के लिए उपभोक्ता का नाम फोन नम्बर और ई मेल जैसी जानकारियाँ जुटा रहे हैं पर उनके सर्वर भारतीय सीमा में नहीं है .चीन की सरकार अपने नागरिकों के डाटा को लेकर पूरी तरह आश्वस्त हैवहीं भारत में इस संबंध में ड्राफ्ट डाटा प्रोटेक्शन बिल 2018 को जस्टिस कृष्णा कमेटी ने इलेक्ट्रॉनिक एंड इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी मंत्रलय को भेजा है जिसका मुख्य मकसद उस समस्या से निजात दिलाना है जो विदेशों में इंडियन डाटा सेव है। उसमें कहा गया कि हर वेब कंपनी का जो डाटा विदेश में सेव है उसकी एक कॉपी भारत में भी सेव करनी पड़ेगी.
दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में 17/09/2019 को प्रकाशित 


Thursday, September 12, 2019

ई -वालेट में अभी भी कई सुधारों की दरकार


इंटरनेट एक विचार के तौर पर सूचनाओं को साझा करने के सिलसिले के साथ शुरू हुआ था चैटिंग और ई मेल से यह हमारे जीवन में जगह बनाता गया फिर ओनलाईन शॉपिंग ने खेल के सारे मानक बदल दिए पर  भारत में इस सूचना क्रांति के अगुवा बने स्मार्टफोन जिन्होंने मोबाईल एप  और ई वालेट के जरिये पर्स में पैसे रखने के चलन को डीस्करेज  करना शुरू किया .आज सरकार भी यह चाहती है कि लोग ट्रांसपरेंसी  को बढ़ावा देने के लिए इलेक्ट्रौनिक ट्रांसेक्शन को बढ़ावा दे रही है जिससे ब्लैक  मनी   पैदा होने की संभावना को समाप्त किया जा सके और नोट छापने के अनावश्यक खर्च से बचा जा सके .टफ्ट्स विश्वविद्यालय के  प्रकाशन कॉस्ट ऑफ़ कैश इन इण्डियाके आंकड़ों के अनुसार भारत नोट छापने और उनके प्रबन्धन के लिए सालाना इक्कीस हजार करोड़ रुपये खर्च  करता है एक हजार और पांच सौ रुपये के पुराने एक नोट छापने में रिजर्व बैंक ऑफ़ इण्डिया को क्रमशःदो रुपये पचास पैसे और तीन रुपये सत्रह पैसे खर्च करने पड़ते थे .मूडीज की रिपोर्ट के अनुसार साल 2011से 2105 तक ई भुगतान ने देश की अर्थव्यवस्था में 6.08 बिलियन डॉलर  का इजाफा किया है.मैकिन्सी ने अपनी एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया है कि इलेक्ट्रौनिक ट्रांसेक्शन के बढ़ने से साल 2025 तक देश की अर्थव्यवस्था में 11.8 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होगी . भारत में इंटरनेट यूजर्स की संख्या 2017 के मुकाबले 49 फीसदी अधिक है. मैरी मीकर की एक रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया में कुल इंटरनेट यूजर्स की संख्या 3.8 बिलियन यानि 380 करोड़ हो गई है। इनमें से 53 फीसदी यूजर्स एशिया-पैसिफिक के हैं. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पूरी दुनिया के कुल इंटरनेट यूजर्स में 12 प्रतिशत इंटरनेट उपयोगकर्ता (करीब 31 करोड़) भारत के हैं और वहीं इसमें चीन का 21 फीसदी यूजर्स के साथ पहले स्थान पर है। वहीं अमेरिका 8 फीसदी की संख्या के साथ तीसरे स्थान पर है। वहीं इसी साल मार्च में Kantar IMRB ICUBE की रिपोर्ट में दावा किया गया था कि साल 2019 के अंत तक भारत में इंटरनेट यूजर्स की संख्या 62.7 करोड़ हो जाएगी . उद्योग संगठन एसोचैम और पीडब्ल्यूसी की एक  रिपोर्ट में 2023 तक देश में  डिजिटल भुगतान के दोगुना से अधिक बढ़कर 135.2 अरब डॉलर पर पहुंचने की संभावना है और भारत डिजिटल लेनदेन में बढ़ोतरी के मामले में चीन और अमेरिका को पछाड़ देगा. रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2019 से 2023 के दौरान देश में डिजिटल भुगतान में स्पीडी ग्रोथ होने का अनुमान है। इसमें वार्षिक 20 पर्तिशत  से अधिक की ग्रोथ  हो सकती है। इस अवधि में चीन में डिजिटल लेनदेन में 18.5 प्रतिशत  और अमेरिका में 8.6 प्रतिशत  की वृद्धि होने का अंदाजा  है। ग्लोबल लेवल  पर डिजिटल लेनदेन मूल्य के मामले में अगले चार वर्षों में भारत की हिस्सेदारी वर्तमान के 1.56 प्रतिशत  से बढ़कर 2.02 फीसदी हो जाएगी.आंकड़े आने वाले कल की सुनहरी उम्मीद जगाते हैं पर ये मामला मानवीय व्यवहार से जुड़ा है जिसके बदलने में वक्त लगेगा . भारतीय परिस्थितियों में मौद्रिक लेन देन विश्वास से जुड़ा मामला भी है जब हम जिसे पैसा दे रहे हैं वो हमारे सामने होता है जिससे एक तरह का भरोसा जगता है .
 ऑनलाइन उपभोक्ता अधिकार जैसे मुद्दों पर न तो कोई अवेयरनेस  है न ही सार्थक कानून ई वालेट प्रयोग  और ऑन लाइन खरीददारी उपयोगिता के तौर पर बहुत लाभदायक है पर किन्ही कारणों से आपको खरीदा सामान वापस करना पड़ा या खराब उत्पाद मिल गया और उपभोक्ता अपना पैसा वापस चाहता है तो  अनुभव यह बताता है कि उसे पाने में तीन से दस  दिन तक का समय लगता है और इस अवधि में उस धन पर डिजीटल प्रयोगकर्ता को कोई ब्याज नहीं मिलता और  यह एक लम्बी थकाऊ प्रक्रिया है जिसमें अपने पैसे की वापसी के लिए बैंक और ओनलाईन शौपिंग कम्पनी के कस्टमर केयर पर बार बार फोन करना पड़ता है .कई बार कम्पनियां पैसा नगद न वापस कर अपनी खरीद बढ़ाने के लिए गिफ्ट कूपन जैसी योजनायें जबरदस्ती उपभोक्ताओं के माथे मढ देती हैं और ऐसी परिस्थितियों में उत्पन्न हुई समस्या के समयबद्ध निपटारे की कोई समुचित व्यवस्था नहीं है . लोगों को डिजिटल होने की तरफ मोड़ने में सबसे बड़ी समस्या मानसिक है. देश में  तीन पीढ़ियों को एक साथ डिजिटल बनाने की कोशिश की जा रही  है.जेब में पैसा होना एक तरह का आत्मविश्वास देता है .क्या वह विश्वास   जेब में पड़ा मोबाईल ई वालेट या डेबिट /क्रेडिट कार्ड दे पायेगा जहाँ  देश  में डिजीटल लेन-देन अभी विकसित देशों के मुकाबले उतनी ज्यादा मात्रा में नहीं हो रहा है फिर भी सर्वर बैठने की समस्या से उपभोक्ताओं को अक्सर दो चार होना  पड़ता है .मोबाईल का नेटवर्क हवा के झोंके के साथ आता जाता रहता है .बैंक से पैसा निकल जाता है और सम्बन्धित कम्पनी तक नहीं पहुँचता फिर उसके वापस आने का इन्तजार . राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक साल 2011 से 2015 के बीच भारत में साइबर अपराध की संख्या में तीन सौ पचास प्रतिशत की वृद्धि हुई है जिनमे बड़ी संख्या में आर्थिक  साइबर अपराध  भी शामिल हैं जागरूकता में कमी के कारण आमतौर पर जब उपभोक्ता ऑनलाईन धोखाधड़ी का शिकार होता है तो उसे समझ ही नहीं आता वो क्या करे. ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब जितनी जल्दी मिलेगा लोग उतनी तेजी से इलेक्ट्रौनिक ट्रांसेक्शन की तरफ बढ़ेंगे .देश की बड़ी आबादी अशिक्षित और निर्धन है वो आने वाले वक्त में कितनी बड़ी मात्रा में  डिजीटल लेन देन करेगी यह उस व्यवस्था पर निर्भर करेगा जहाँ लोग पैसा खर्च करते उसी निश्चिंतता और भरोसे को पा सकें जो उन्हें कागजी मुद्रा के लेन देन करते वक्त प्राप्त होती है  .
दैनिक जागरण/आई नेक्स्ट में 12/09/2019 को प्रकाशित 



Thursday, September 5, 2019

शिक्षा संग बदल गए शिक्षकों के मायने

अंगरेजी की एक कहावत है Teaching is the one profession that creates all other profession.मतलब शिक्षा देना एक ऐसा व्यवसाय है जो बाकी के व्यव्स्याओं को जन्म देता है .शिक्षकों के बिना किसी भी आदर्श समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है .पिछले सत्तर सालों में देश में बहुत कुछ बदला है उसमें से एक हमारी शिक्षा व्यवस्था और शिक्षक भी हैं .आज शिक्षक दिवस के बहाने ये समझने की कोशिश की जाए कि हमारी शिक्षा व्यवस्था और शिक्षक कितने बदल गए और इंटरनेट एक नया शिक्षक बन कर उभरा है जो औपचारिक या अनौपचारिक  रूप से  बहुतों को शिक्षित कर रहा है .ब्लैक बोर्ड की जगह व्हाईट बोर्ड आ गए है .चाक की जगह मार्कर आ गए है . जहाँ पहले गुरुकुल प्रणाली के अंतर्गत शिक्षा दी जाती थी वहीँ आज ई लर्निग का चलन आ चुका है. घर बैठे सात समुंदर पार के शिक्षक भी हमारे शैक्षणिक विकास में सहयोग दे रहे हैं.बाईजु जैसे एप हमारे मोबाईल में शिक्षकों को ले आये हैं . गूगल के चैरिटी संगठन Google.org ने भारत में टीचर ट्रेनिंग और ऑनलाइन एजुकेशनल कंटेंट तैयार करने के लिए 20 करोड़ अनुदान देने की घोषणा की है। संगठन 2 साल में 5 लाख शिक्षकों तक पहुंच बनाने के लिए 'TheTeacherApp' को 6.7 करोड़ और स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने पर काम करने वाले सेंट्रल स्क्वेयर फाउंडेशन को 13.3 करोड़ अनुदान देगा. 
21वीं सदी तकनीकी की सदी  है। यह हर उस चीज का स्वागत कर रही है जो तकनीकी के विकास में सहायक है। इसका सबसे ताज़ा उदाहरण हैई लर्निंग। ई-लर्निंग यानी शिक्षा देने का इलेक्ट्रानिक तरीका. ई-लर्निंग का सबसे पहला प्रयोग वर्ष 1960 में अमेरिका में देखा गया था। जहां शिकागो में यूनिवर्सिटी ऑफ लीनियोस में क्लासरूम के सभी कंप्यूटर्स को एक सर्वर से कनेक्ट किया गया था। सभी छात्र उस कंप्यूटर को एक्सेस कर लेक्चर सुन सकते थे। यह प्रयोग बहुत ही कामयाब रहा और इसके बाद इस तरह के प्रयोग अक्सर देखने को मिले।  ई-लर्निंग के बढ़ते साधनों से अब सीखना-सिखाना काफी आसान हो गया है. स्कूलकॉलेजदफ्तर हो या घरइन नए साधनों से लोग सीखने या अपने कौशल को बेहतर बनाने में मदद ले रहे हैं. ई टेक्नोलॉजी की बदौलत कई तरह के लर्निंग मोबाइल बन रहे हैं. टिन कैन जैसे ई-लर्निंग ऐप्स के साथ अब छात्रों को तुरंत  पाठ्य सामग्री उपलब्ध कराने के लिए माइक्रो-क्लासेस  के रूप में पढ़ाई की सामग्री भेजी जा सकती है. ओपन एजुकेशन रिसोर्सेज (ओईआर) टीचिंग और लर्निंग के मकसद से विकसित किया जाता है और मुफ्त में उपलब्ध कराया जाता है. यह डिजिटाइज्ड सामग्री ओपन डेवलपमेंट की सुविधा देती है. ओईआर में विशेष एजुकेशन कोर्स और विषयडिजिटाइज्ड टेक्स्टबुकवीडियो और अन्य सामग्री शामिल हैं जिनका इस्तेमाल पढ़ाई के लिए किया जा सकता है. शिक्षा को एमओओसी (मैसिवली ओपन ऑनलाइन कोर्सेज) ने लोकप्रिय बनाया है. इस तरह की लर्निंग सोशल लर्निंग का मार्ग प्रशस्त कर रही हैजहां विषयों को लेकर कम्युनिटीज बना ली जाती हैं. छात्र दुनिया भर में दूसरे छात्रों के साथ संबंधित विषय पर चर्चा करते हैं और अपनी जानकारी का आदान-प्रदान करते हैं. 
आज से कुछ साल पहले शायद यह अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता था कि तकनीक शिक्षा के क्षेत्र में भी इतनी क्रांति आ सकती है। लेकिन यह संभव हुआ और आज ई लर्निंग का जिस प्रकार तेजी से विस्तार हो रहा है वह हम सबके सामने है। आज जब इंटरनेट और मोबाइल हर जगह और हर किसी के हाथ में उपलब्ध है तो इस सेवा को मुहैया कराया जा सकता है। जहां कहीं इंटरनेट केबल नहीं है वहां मोबाइल तो उपलब्ध है ही। यही वजह है कि आज भारत में ई-लर्निंग की चर्चाएं गर्म हैं। सरकार से लेकर निजी संस्थान और गैर  सरकारी संस्थान भी इस दिशा में बेहतर प्रयास कर रहे हैं। भारत सरकार द्वारा कम कीमत में आकाश टैबलेट का वितरण किया गया था। इसके बाद तो मानो कम रेंज के टैबलेट की बाढ़ सी आ गई। इतना ही नहींटैबलेट लोगों के हाथों में आने के साथ ही कई कंपनियों ने कंटेंट के क्षेत्र में भी बेहतर काम किया है और आज ई-लर्निंग के लिए ढेर सारी एप्लिकेशन और किताबें ऑन लाइन उपलब्ध हैं। आज भारतीय बाजार में न सिर्फ आरंभिक स्तर में टैबलेट उपलब्ध हैं बल्कि स्मार्टफोन भी आम उपभोक्ता के बजट में आ चुका है। 
तकनीक ने हमारे जीने के तरीके को ही बदल दिया है। दैनिक कार्यों को आसान बनाने में इसने प्रमुख भूमिका अदा की है। इसके माध्यम से आज हर चीज हमारी पहुँच में है। ऐसे में शिक्षा के क्षेत्र में भी तकनीकी के आने से नया बदलाव आया है। मोबाइल तकनीक के माध्यम से शिक्षा को एक नई दिशा और दशा देने की कोशिश की जा रही है.परंतु हमारे देश की ये कड़वी सच्चाई यह भी है कि प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों की अुनपस्थिती तथा बुनियादी शैक्षणिक ढांचे में बहुत कमी है। आज उच्च गुणंवत्ता वाली शिक्षा के लिये अधिक फीस देनी पड़ती हैजो सामान्य वर्ग के लिये एक सपना होती है। लिहाज़ा एक बहुत बड़ा बच्चों का वर्ग उचित शिक्षा के अभाव में रास्ता भटक जाता है. शिक्षासेवाभाव के दायरे से निकलकर आर्थिक दृष्टी से लाभ कमाने की ओर जा रही  है। जबकी शिक्षकों की जिम्मेदारी तो इतनी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि उनको  बच्चों के सामने ऐसा आदर्श बनकर प्रस्तुत होना होता हैजिसका अनुसरण करके छात्र/छात्राओं का शैक्षणिक विकास ही नही बल्कि  नैतिक विकास भी हो. देश में प्रतिभावान विद्यार्थियों की कोई कमी नही है जरूरत है उन्हे तराशने और मूल्य आधारित शिक्षा के प्रकाश से आगे बढाने  की.
दैनिक जागरण /आइ नेक्स्ट में 05/09/19 को प्रकाशित 

Tuesday, September 3, 2019

जब मौन बोलता है

आपने कभी सन्नाटे की आवाज सुनी है क्या सुनी तो जरुर होगी पर समझ नहीं पाए होंगे . यूँ तो अधिकता  किसी भी चीज की बुरी होती है, पर  लोग बिना बोले बहुत कुछ कह जाते हैं और कुछ लोग दिन भर बोलने के बाद भी मतलब का कुछ भी नहीं कह  पाते.वो गाना तो आपने भी सुना होगा न बोले तुम न मैंने कुछ कहा,तो भैया ये तो सिद्ध हुआ कि बगैर बोले भी बहुत कुछ कहा जा सकता है मगर कैसे बोलने का काम हमारी जबान ही नहीं करती बल्कि आँखों से लेकर पैर तक हमारे सभी अंग बोलते है .दुनिया के बहुत से अभिनेताओं की खासियत यही रही है कि वे अपनी आँखों से बहुत कुछ कह देते हैं. प्रख्यात अभिनेता चार्ली चैपलिन को ही  लेंजिन्होंने अपनी मूक  फिल्मों के माध्यम से सालों तक  लोगों का मनोरंजन किया. कई बार ज्यादा बोलने से शब्द अपना अर्थ खो देते हैं, अरे अब आई लव यू को ही लीजिये. फिल्मों में इस शब्द का इतना इस्तेमाल हुआ की  अब मैं 'रील लाईफ' या 'रीयल लाईफ'  में ये शब्द सुनता हूँ, तो बस बेसाख्ता हंसी आ जाती है.प्यार एक फीलिंग  है उसे एक शब्द में बाँधा या समेटा नहीं जा सकता. वैसे फीलिंग से याद आया. फीलिंग भी आजकल बिजली के बल्ब जैसी हो गयी है अचानक आती है और अचानक चली भी जाती है.जानते हैं ऐसा क्यूँ होता है ?
चलिए मैं समझाता हूँ आपको,हम कुछ भी कहते हैं तो उससे पहले सोचते हैं ये बात अलग है की ये प्रोसेस इतना जल्दी होता है कि हमें पता ही नहीं पड़ता कि जो कुछ हम फटाफट बोले जा रहे हैं वो पहले हमारा दिमाग सोच रहा है. उस सोच को शब्दों का लबादा ओढ़ा कर जब हम फीलिंग के साथ एक्सप्रेस करते हैं तो सुनने वाले पर असर होता है.लेकिन ये जरुरी भी नहीं की हर फीलिंग को एक्सप्रेस करने के लिए आपके पास शब्द हों ही तब क्या किया जाए ? जैसे खीज या फ्रस्टेशन.आप गुस्सा हैं तो चीख चिल्लाकर  आप अपना गुस्सा निकाल सकते  हैं, लेकिन  आप खीजे हुए हैं तो क्या बोलेंगे और जो कुछ भी बोलेंगे उसका मतलब सामने वाला समझेगा भी कि  नहीं,क्या पता और तब काम आता है मौन,मौन यानि साइलेंस.
चुप्पी या सन्नाटा हमेशा कायरता की निशानी नहीं होती है.ये तो भावनाओं की भाषा होती है जो आप शब्दों से नहीं बोल सकते वो आप अपने मौन से बोल सकते हैं. वैसे भी पर्सनाल्टी डेवेलपमेंट के इस युग में हमें बोलना जरुर सीखाया जाता है पर चुप रहना नहीं. वैसे भी जब मौन बोलता है तो उसकी आवाज भले ही देर में सुनायी दे पर बहुत दूर तक सुनायी देती है.हम अपनी लाइफ से जब बोर हो जाते हैं तो अपने आस पास के शोर शराबे से दूर भागने का मन करता है.किसी  से भी बात नहीं  करना चाहते. तो क्या आपने ऐसे समय में भी खुद को  एकांत  में रखा है.
 अगर ऐसे समय में हम कहीं  बिलकुल  शांत जगह पर बैठ जायें तो हम बिना ·कुछ  कहे सुने खुद से ही बातें करने लगते हैं और फिर अपने आप ही हमें हमारी समस्याओं का समाधान सूझने लगता है.प्यार मुहब्बत के किस्सों में तो खामोशी से प्यार पैदा होने की बातें अक्सर होती रहती हैं. एक  बात साफ है कि हम बगैर बोले अपनी फीलिंग्स को एक्सप्रेशन दे सकते हैं  और ऐसे एक्सप्रेशन बहुत ख़ास होते हैं. रिश्तों ·की  गर्माहट तो खामोशियों ·के  दौरान होने वाले संचार से ही समझी जा सकती हैं.किसी ने क्या खूब कहा  कि खामोशियां मुस्कुराने लगी .... तन्हाईयां गुनगुनानी लगीं..
 प्रभात खबर में 03/09/2019 को प्रकाशित 

Monday, September 2, 2019

शौक से ज्यादा एक बीमारी है ये एडिक्शन

अगर आप सोशल मीडिया प्रयोगकर्ता हैं तो आप दिन भर में कई बार ऐसी तस्वीरों से वाबस्ता होंगे जब लोग अजीब अजीब चेहरों के साथ खुद ही अपनी तस्वीरें पोस्ट करते दिखेंगे यह क्रिया अगर आज से ज्यादा नहीं दस साल पहले हो रही होती तो ऐसे लोगों को आप किसी मनोचिकित्सक के पास जाने की सलाह देते पर आज यह एक सामान्य प्रक्रिया है जिसे हम सेल्फी लेना कहते हैं और इसमें कुछ भी असामान्य नहीं है .समाजशास्त्रीय नजरिये किसी चिंतक ने कभी यह नहीं सोचा होगा कि मानव सभ्यता के इतिहास में एक ऐसा वक्त आएगा जब इंसान इतना अकेला पड़ जाएगा कि उसे अपनी तस्वीरें खुद ही खींचनी पड़ेंगी इसका एक विश्लेषण यह भी हो सकता है कि ऐसा समाज आत्मनिर्भरता की पराकाष्ठा की और अग्रसर है जब इंसान सिर्फ कहने को एक सामाजिक प्राणी भर बचा है सच यह है कि वह परले दर्जे के एक आत्मकेंद्रित जैविक रूप से मानव  में तब्दील होता जा रहा है .जी हाँ यह सेल्फी युग है और इसकी  एक सबसे बड़ी चुनौती है कि यह लोगों को आत्मकेंद्रित बना  रही है जिसमें स्मार्ट फोन का बड़ा योगदान है हम भले ही हर वक्त दुनिया से जुड़े हों पर अपने आस पास से बेखबर हैं .इसी आत्मकेंद्रित प्रवृत्ति का एक रूप है सेल्फी” मतलब खुद से अपने आप की तस्वीर लेना .यह प्रयोग ज्यादातर लोग अपने स्मार्ट फोन से करते हैंविचित्र भाब भंगिमा बनाये हुए  लोगों से दुनिया भर की सोशल नेटवर्किंग साईट्स भरी हुई हैं और यह रोग तेजी से फैलता जा रहा है.औसतन दुनिया भर की सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर पचास मिलीयन सेल्फी पोस्ट की चर्चा की जा रही है .सेल्फी शब्द चर्चा में तब आया जब साल 2013 में ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने इस शब्द को वर्ड ऑफ़ दा ईअर के खिताब से नवाजा पर शोध के मुताबिक़ सेल्फी शब्द का प्रयोग साल 2002 में एक ऑस्ट्रेलियन इंटरनेट फोरम में किया गया पर इसके प्रयोग को गति स्मार्ट फोन के बढ़ते इस्तेमाल के बाद मिली पर भारत जैसे देश में सेल्फी इन दिनों एक नकारात्मक वजह से चर्चा में है कंटेंट ट्रैकर साईट प्राईसनोमिक्स के एक शोध के अनुसार दुनिया भर में सेल्फी खींचते वक्त होने वाली मौतों में भारत दुनिया में पहले स्थान पर है यह शोध इंटरनेट पर साल 2014-15 में रिपोर्ट किये गए आंकड़ों पर आधारित है इस दौरान सारी दुनिया में सेल्फी खींचते कुल छियालीस मौतें हुईं जिसमें अकेले भारत में उन्नीस मौतें हुईं वहीं इसी अवधि में भारत से ज्यादा आबादी वाले देश चीन में सिर्फ एक मौत रिपोर्ट हुई .इन मौतों में मरने वाले व्यक्तियों में से  पचहत्तर प्रतिशत की औसत आयु इक्कीस वर्ष से कम थी  अमेरिकन साइकेट्रिक एसोसिएशन के मुताबिकअगर आप दिन में तीन से ज्यादा सेल्फी लेते हैंतो यकीनन आप मानसिक रूप से बीमार हैं और इस बीमारी को सेल्फीटिस का नाम दिया। वास्तव में यह उस बीमारी का नाम हैजिसमें व्यक्ति पागलपन की हद तक अपनी फोटो लेने लगता है और उसे सोशल मीड़िया पर पोस्ट करने लगता है।टाइम मैगजीन ने सेल्फी स्टिक को साल 2014 का सबसे बढ़िया अविष्‍कार बताया था। अप्रैल 2015 में समाचार एजेंसी पीटीआई की एक खबर के मुताबिक सेल्फी स्टिक का अविष्‍कार 1980 के दशक में हुआ था। यूरोप की यात्रा पर गए एक जापानी फोटोग्राफर ने इस तरकीब को जन्म दिया। वो अपनी पत्नी के साथ किसी भी फोटो में आ ही नहीं पाते थे। एक बार उसने अपना कैमरा किसी बच्चे को दिया और वो लेकर भाग गया। इस दर्द ने एक्सटेंड़र स्टिक का जन्म दियाजिसका साल 1983 में पेटेंट कराया गया और आज के दौर में इसे सेल्फी स्टिक कहा जाने लगा। बार बार सेल्फी लेने से लोग सेल्फी एल्बो जैसी बीमारी से पीड़ित हो सकते है .क्योंकि  – बार सेल्फी लेने से व्यक्ति की कोहनी बार –बार मुडती है जिससे सेल्फी एल्बो होने का खतरा रहता है .
भले ही भारत जैसे विशाल देश  के अनुपात में सेल्फी से होने वाली मौतों का आंकड़ा अन्य दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों से काफी कम है पर यह आंकड़ा कई सवाल खड़े करता है कि अब वक्त आ गया है जब स्मार्ट फोन हमारे समाजीकरण का अहम् हिस्सा बन चुके हैं तो इनके प्रयोग का मानकीकरण किया जाए और लोगों को इस बात के लिए जागरूक किया जाए कि तकनीक का आविष्कार मानव जीवन को बेहतर बनाने के लिए हुआ है न कि उसे और जटिल बनाने के लिएसंकट इसलिए भी गहरा है क्योंकि  स्मार्ट फोन का ज्यादा इस्तेमाल युवा पीढी कर रही है जो इसके   प्रथम उपभोक्ता भी  हैं और उन्हें इसके इस्तेमाल का कोई तरीका विरासत में नहीं मिला है और परिणाम ज्यादा सेल्फी लेने का शौक और कुछ अनूठा करने के चक्कर में उससे होने वाली दुर्घटना.मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं ज्यादा सेल्फी लेना मनोविकार का लक्षण हैं जिसमें व्यक्ति आत्मुघद्ता का शिकार रहता हैमनोचिकित्सकों ने सेल्फियो को तीन भागों में बांटा है। दिन भर में तीन सेल्फी लेना और उसे सोशल मीडिया में पोस्ट न करना। इसे बॉर्डर लाइन सेल्फीटिस कहा गया है। दूसरे स्टेज पर एक्यूट आते हैंजो उतनी तस्वीरें खींच सोशल मीडिया पर डालते हैं। तीसरे पर क्रोनिक आते हैं। यह प्रक्रिया छह बार से भी अधिक करते हैं।  स्मार्ट फोन लोगों को जोड़ने के लिए है न कि लोगों से कट कर अपने में सिमटे रहने के लिए .मी ,माई और आई फोन जैसी सोच हमें आत्मकेंद्रित बना कर सामूहिकता से काटती है जो किसी भी स्वस्थ समाज के लिए ठीक नहीं है . हम पर हावी होता यह मैं आने वाली पीढ़ियों के लिए कैसा भविष्य छोड़ जाएगा इसका फैसला होना बाकी है .
दैनिक जागरण /आईनेक्स्ट में 02/09/2019 को प्रकाशित 

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