Wednesday, October 25, 2017

बराबरी का हक़ देने की व्यर्थ होती कोशिशें

लैंगिक समानता के हिसाब से आज की दुनिया में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर का अधिकार मिल चुका है पर जमीनी हकीकत कुछ और ही है| जेंडर इनेक्वेलिटी इंडेक्स 2016 की  रिपोर्ट के अनुसार लैंगिक समानता सूचकांक में भारत का 159 देशों में 125 वाँ स्थान है|यह एक बानगी भर है जो महिला सशक्तिकरण से जुड़े मुद्दों के बारे में हमें चेताती है|देश में महिलाओं की भूमिकाउनकी,शिक्षास्वतंत्रताएवं देश के विकास में उनकी भागीदारी जैसे  मुद्दे मुखरता से केंद्र में रहते हैं पर इन सबके बीच एक गौर करने वाला आंकड़ा कहीं पीछे छूट जाता है वह आंकड़ा है कार्य क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी यानि रोजगार देने वाली वह जगहें वहां महिलाओं की भागीदारी कितनी है और उन आंकड़ों की नजर में भारत के कुल कामगारों में महिलाओं की भागीदारी निरंतर कम होती जा रही है।2011 की  जनगणना से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर यह निष्कर्ष निकले हैं| ब्रिक्स देशों जिसमें ब्राज़ीलरूस , चीन एवं दक्षिण अफ्रीका शामिल हैं वहां  भी कुल कामकाजी महिलाओं की संख्या में भारत सबसे पीछे है। यहाँ तक की सोमालिया जैसा देश भी इस मामले में हमसे कहीं आगे है। वर्ष 2011 में श्रमिक बल में महिलाओं की कुल भागीदारी कुल 25 प्रतिशत के आसपास थी। ग्रामीण क्षेत्रों यह प्रतिशत 30 के लगभग एवं शहरी क्षेत्रों में यह प्रतिशत केवल 16 के लगभग था। ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी के ज्यादा होने का कारण उनका कृषि से सम्बन्धित कार्यों में जुड़े होना जो ज्यादातर कम आय के होते हैं और ग्रामीण ढांचे में महिलाओं से उनको करने की उम्मीद की जाती है | महिलाओं के कार्यक्षेत्र में कम भागीदारी के बड़ी वजहें हमारे समाजशास्त्रीय ढांचे में है जहाँ महिलाओं के ऊपर परिवार का ज्यादा दबाव रहता है जिसमें शामिल है  महिलाओं की आगे की पढ़ाई,शादीबच्चों का पालन-पोषण एवं पारिवारिक दबाव। अर्थशास्त्रीय नजरिये से ग्रामीण भारत में  जो महिलाएं काम करती भी हैं उनमें से अधिकतर वही होती हैं जो आर्थिक रूप से निर्बल होती है और उनके पास और कोई चारा नहीं होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग अस्सी  प्रतिशत कामगार महिलाएं कृषि से संबंधित कार्यों में संलग्न हैं जबकि केवल 7.5 प्रतिशत के आसपास महिला कामगार औद्योगिक उत्पादन से जुड़ी हुई हैं। शहरी क्षेत्रों में सबसे अधिक महिला कामगार घरेलू सेवाओं से जुड़ी हुई हैं। भारत में अधिकतर महिला श्रमिक असंगठित क्षेत्रों से जुड़ी हुई हैं। यह वह क्षेत्र है जहां पुरुष कामगारों का भी हद से अधिक शोषण होता है तो महिला कामगारों की तो बात ही छोड़ दी जानी चाहिए । शहरी क्षेत्रों में भी सेवा क्षेत्र  जैसे विकल्प जहां महिलाओं के हिसाब से  काफी काम होता है वहां भी उनकी संख्या नगण्य है। यदि यान्त्रिकी अथवा वाहन उद्योग की भी बात की जाये तो वहाँ कोई महिला कामगार शायद ही मिले। शहरी क्षेत्रों में काम करने वाली अधिकतर महिलाएं अप्रशिक्षित हैं। साथ ही लगभग एक तिहाई शहरी महिला कामगार अशिक्षित हैं जबकि उसी सापेक्ष  पुरुषों की बात की जाए तो ऐसे पुरुषों की संख्या  महज ग्यारह प्रतिशत है। श्रमिक बल में महिलाओं की घटती संख्या का एक प्रमुख कारण है तकनीकी एवं व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में उनकी बेहद ही कम संख्या का होना भी है । आंकड़े बताते हैं कि इस तरह के पाठ्यक्रमों में शामिल महिलाओं का प्रतिशत मात्र सात  है। जो महिलाएं इन पाठ्यक्रमों में आती भी हैं वे महिलाओं के लिए पारंपरिक रूप से मान्य पाठ्यक्रमों जैसे सिलाई-कढ़ाई एवं नर्सिंग आदि में ही दाखिला लेती हैं। शहरी क्षेत्रों में केवल 2.9 प्रतिशत महिलाओं को ही तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त है। जो कि पुरुष कामगारों की तुलना में आधे से भी कम है। अखिल भारतीय उच्चतर शिक्षा सर्वेक्षण की वेबसाईट पर दिए गए   आंकड़ों के अनुसार स्नातक स्तर के पाठ्यक्रमों में महिलाओं की लगभग तिहत्तर  प्रतिशत संख्या  है जबकि स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में यह प्रतिशत घटकर मात्र  सत्ताईस ही रह जाता है। ऐसी  स्थिति में महिला कामगारों के संगठित क्षेत्रों में काम करने की संभावनाएँ काफी कम हो जाती हैं। इंडियास्पेण्ड्स वेबसाइट के आंकड़ों के अनुसार कई राज्यों में उच्च शिक्षा को बीच में ही छोड़ने वाली महिलाओं की संख्या में इजाफा हो रहा है। अपेक्षाकृत अमीर राज्य जैसे केरल एवं गुजरात भी इस चलन से अछूते नहीं हैं यानि आर्थिक रूप से अगड़े राज्य भी लैंगिक असमानता के शिकार हैं । भारत सरकार के नीति आयोग के अंतर्गत कार्य करने वाले इंस्टीट्यूट फॉर अप्लाइड मैनपावर एंड रिसर्च के द्वारा कराये गए शोध के अनुसार तकनीकी पाठ्यक्रमों में कम भागीदारी एवं उच्च-शिक्षा को बीच में ही छोड़ देने की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण ही महिलाओं के तकनीकी श्रमिक बल में योगदान में भी कमी आ रही है।मातृत्व की भूमिकाचूल्हे-चौके की ज़िम्मेदारीसामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रतिबंध एवं पितृसत्तात्मक मान्यताओं और परम्पराओं  की वजह से भी श्रमिक बल में महिलाओं की संख्या घटती जा रही है। शिक्षा जारी रखने एवं विवाहोपरांत प्रवसन भी कुछ हद तक कामगारों में महिलाओं की घटती संख्या के लिए जिम्मेदार हैं। महिलाओं का रोजगार उनके आर्थिक एवं सामाजिक उत्थान का एक महत्वपूर्ण कारक है। श्रमिक बल में महिलाओं की घटती संख्या नीति निर्धारकों के लिए भी चिंता का विषय है क्योंकि यदि यही स्थिति रही तो महिला सशक्तिकरणलिंगभेद उन्मूलन एवं महिलाओं को समाज में बराबरी का हक देने की सारी सरकारी और गैर सरकारी कोशिशें व्यर्थ हो जाएंगी ऐसे में जिस भारत का निर्माण होगा वैसे भारत की कल्पना  तो किसी ने भी न की होगी । अतः यह आवश्यक है की न सिर्फ असंगठित बल्कि संगठित क्षेत्रों के कामगारों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए उचित कदम उठाएँ जाएँ।    
आई नेक्स्ट में 25/10/17 को प्रकाशित 

Wednesday, October 18, 2017

डिजीटल भारत में कंप्यूटर शिक्षा

नब्बे के दशक में स्कूली शिक्षा में पुस्तक कला जैसे विषयों को हटाकर कंप्यूटर शिक्षा को स्कूली शिक्षा का अंग बनाया गया जिसका परिणाम यह हुआ कि दो हजार के शुरुआती दशक में ही भारतीय परचम इस क्षेत्र में लहराने लगा जिससे कई सारी मध्यम वर्गीय सफलता की कहानी बनी जैसे की इन्फ़ोसिस और अन्य स्वदेशी  कम्पनियां जिन्होंने लाखों युवाओं को इस क्षेत्र में करियर बनाने के लिए प्रेरित किया पर यह सफलता की कहानियां लम्बे समय तक जारी नहीं रह सकीं  |भारत में  सूचना प्रौद्योगिकी  का बाजार एक सौ पचास बिलियन डॉलर का है जो भारत के कुल सकल घरेलू उत्पाद का 9.5 प्रतिशत है और पूरी दुनिया में 3.7 मिलीयन लोगों को रोजगार प्रदान कर रहा  है |अर्थव्यवस्था को इतना महतवपूर्ण योगदान देने वाला क्षेत्र आज उत्पादकता के लिहाज से इसलिए पिछड़ रहा है क्योंकि भारत की कंप्यूटर शिक्षा में नवोन्मेष की भारी कमी है और यह बाजार की मांग के हिसाब से खासी पिछड़ी हुई है | तकनीक पर बढ़ती इस   निर्भरता को अनवरत और लाभ उठाने वाला तभी बनाया जा सकता है जबकि सूचना प्रौद्योगिकी  शिक्षा का अभ्यास कॉलेज और स्कूली स्तर पर ज्यादा अद्यतन तरीके से कराया जाए | स्कूल स्तर  पर कंप्यूटर शिक्षा पर दो तरह की समस्याओं का शिकार है| पहला स्कूलों में अभी भी फोकस एम् –एस वर्ड,एक्सेल,पावर प्वाईंट आदि पर है |दूसरा कंप्यूटर की प्राथमिक भाषाओँ को सिखाने में सारा जोर “बेसिक” और “लोगो” जैसी भाषाओं पर ही है |एक समय की अग्रणी कंप्यूटर भाषाएँ जैसे सी, लोगो ,पास्कल ,कोबोल बेसिक ,जावा जो की अब चलन से बाहर हो चुकी हैं अभी भी पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं जबकि कंप्यूटर प्रौद्योगिकी में अग्रणी देश ओपेन सोर्स सोफ्टवेयर और ओपन सोर्स लेंग्वेज को अपना चुके हैं जैसे कि  आर , पायथॉन  रूबी  ऑन  रेललिस्प टाइप स्क्रिप्ट कोटलिन स्विफ्ट और रस्ट इत्यादि |यह भाषाएँ  सी, लोगो ,पास्कल ,कोबोल बेसिक ,जावा के मुकाबले ज्यादा संक्षिप्त,सहज और समझने में आसान हैं |इन भाषाओँ के प्रयोग से किसी भी काम को कल्पना से व्यवहार में बड़ी आसानी से लाया जा सकता है |उल्लेखनीय है की यह भाषाएँ ही हैं जिनसे एक कोड का निर्माण कर किसी भी काम को करने के लिए सोफ्टवेयर का निर्माण किया जाता है |महत्वपूर्ण है कि ये भाषाएँ उन क्षेत्रों में भी ज्यादा काम की हैं जो आजकल बहुत मांग में है जैसे कि “आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस”, रोबोटिक्स आदि|
भविष्य की दुनिया तकनीक और ऑटोमेशन की है जहाँ सभी प्रकार के उद्योग धंधे और व्यवसाय सॉफ्टवेयर आधारित होंगे | आज हर उद्योग  किसी न किसी रूप में सूचना प्रौद्योगिकी की सहायता से चल रहा है  वो चाहे निर्माण,परिचालन ,भर्ती हो या लेखा सभी कम्प्युटरीकृत होते जा रहे हैं  और उपभोक्ता भी पहले के मुकाबले आज निर्णय और खरीदने की प्रक्रिया में ज्यादा से ज्यादा तकनीक का इस्तेमाल कर रहा है |अब कंप्यूटर कौशल और उसकी भाषाएँ आधारभूत जरूरतें हैं | कंप्यूटर की उच्च शिक्षा का और भी बुरा हाल है |शिक्षण संस्थान प्रायोगिक कार्य और वास्तविक कोड निर्माण नहीं करवा पा रहे हैं इसलिए जब कोई कम्प्यूटर स्नातक किसी नौकरी में आता है तो वह अपनी कम्पनी में  इन कार्यों को  सीखता है जिससे कम्पनी पर अनावश्यक बोझ पड़ता है और बहुत समय नष्ट होता है |
 साल 2011 में आयी नासकॉम की एक रिपोर्ट के अनुसार देश के  मात्र 25 प्रतिशत आई टी इंजीनियर  स्नातक ही रोजगार के लायक थे पर छ साल बाद स्थिति और खराब हुई है | अस्पाएरिंग माईंड स्टडी की एक रिपोर्ट स्थिति की गंभीरता की ओर इशारा करती है ,रिपोर्ट के अनुसार भारत के पांच  प्रतिशत कंप्यूटर इंजीनियर ही  उच्च स्तर की प्रोग्रामिंग के लिए उपयुक्त  हैं |यह रिपोर्ट उस समय आयी है जब ग्राहकों की मांग लगातार बढ़ रही है |तेजी से डिजीटल होते भारत में जब रोजगार के नए क्षेत्र तेजी से ऑनलाईन दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं जिनमें कपडे प्रेस करने से लेकर टूटे नल को ठीक करने वाले प्लंबर जैसे काम भी  शामिल हैं  ये बताते हैं कि इस क्षेत्र में काम के अवसर और तेजी से बढ़ते रहेंगे |नई-नई  तकनीक और तकनीकी नवोन्मेष को भारतीय कौशल की विचार शक्ति में लाने के लिए ज्यादा मुक्त और उन्नत कंप्यूटर शिक्षा की तरफ बढना ही एकमात्र समाधान है अन्यथा एक वक्त में सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अगुआ बनकर उभरे भारत के लिए प्रतिस्पर्धा के बाजार में टिकना सम्भव नहीं होगा |

अमर उजाला में 18/10/17 को प्रकाशित 

Tuesday, October 17, 2017

साहित्य का संसार

इस साल साहित्य का नोबेल पुरस्कार ब्रिटिश लेखक काजुओ इशिगुरो को देने का एलान किया गया है वैसे नोबेल किसी साहित्यकार के उत्कृष्ट होने का पैमाना नहीं है पर भारत में हिन्दी साहित्य कहाँ पिछड़ जाता है?ये सवाल उमड़ते घुमड़ते मुझे मेरे बचपन में ले गए,एक निम्नवर्गीय परिवार में पढने के संस्कार क्या होते हैं इसका पता मुझे कभी नहीं चला|यहाँ पढ़ाई का मतलब सिर्फ पाठ्यक्रम की किताबें थीं,या फिर कुछ पत्रिकाएं जो नियमित अंतराल पर लगातार तो नहीं ही मिलती थीं पर उसमें भी राशनिग थी|गृहशोभा ,मनोरमा जैसी पत्रिकाएं नहीं पढ़ सकता था|भले ही वो घर में इधर उधर छितरायीं पडी रहती हों |मैं उस दिन को याद करके आज भी दुःख से भर उठता हूँ कि मैं अपने जीवन की पहली कविता सम्हाल न सका,शायद तीसरी कक्षा में था गर्मियों की छुट्टी में स्कूल की बेकार डायरी में कार्बन लगा के अपनी माता जी के ऊपर एक कविता लिखी थी,वो कविता तो मुझे नहीं याद है पर वो थी बहुत अच्छी क्योंकि घर में सबसे सराहना मिली थी फिर बात आई गयी हो गयी|हमें यही सिखाया गया पढो तो कोर्स की किताबें,क्लास छ में मुझे उपन्यास पढने का चस्का लगा पर रानू और गुलशन नंदा के उपन्यास पढ़ते हुए जब मैं पकड़ा गया तो घर में काफी ज़लील होना पड़ा|अपने शैक्षिक जीवन की सीढीयाँ चढ़ते हुए,पाठ्यक्रम में प्रस्तावित साहित्य के अलावा हमारे जीवन में साहित्य कहीं था ही नहीं|साहित्यक किताबों पर खर्च पैसे की बर्बादी माना जाता था घर का ऐसा माहौल पता नहीं पैसे की कमी के कारण था या माता पिता के कम पढ़े लिखे होने के कारण,या बेटे को किसी तरह एक अदद सरकारी नौकरी के लायक बना देने के कारण पर आठवीं क्लास तक मेरे लिए  साहित्य का मतलब प्रेम चन्द,महादेवी वर्मा आदि ही था वो तो भला हो नवीं कक्षा में छात्रवृत्ति मिल गयी और मैं भारत के उन गिने चुने विदयालय में पहुँच गया जिसका पुस्तकालय आज भी मेरे सपने में आता है जिसने दुनिया भर के साहित्य से मेरा परिचय कराया पर पढने(साहित्य) का संस्कार न होने के कारण लम्बे समय तक इस समस्या जूझता रहा कि क्या पढूं और पाठ्यक्रम से इतर किताबे पढने से कहीं मैं अपना भविष्य तो नहीं चौपट कर रहा हूँ | यह शर्म लम्बे समय तक मुझे द्वन्द में फंसाए रखती थी जिससे उन दिनों मैं कभी पढने का लुत्फ़ नहीं उठा पाया पर पढने के संस्कार देर से ही सही मिलने लग गए और इस बात का अहसास भी कि अगर अच्छा लिखना है तो पहले पढना सीखना होगा अब ये तो नहीं पता कि मैं लिखना कितना सीख पाया हूँ पर पढ़ना जरुर सीख गया हूँ देर से ही सही पर मेरे जैसा भाग्य भारत के कितने लोगों को नसीब होता है जो कम से कम साहित्य पढने का सलीका ही सीख पायें |
प्रभात खबर में 17/10/17 को प्रकाशित 

Saturday, October 7, 2017

वीडियो बाजार का नया खिलाड़ी

जिस इंटरनेट की शुरुवात संचार में शाब्दिक संदेशों के आदान प्रदान से हुई थी वह ध्वनि से होते हुए वीडियो तक आ पहुंचा है | आज सारी दुनिया में जो माध्यम राज कर रहा है वह वीडियो ही है  और जिस माध्यम पर एक लम्बे समय तक यू ट्यूब का ही एकाधिकार था पर अब उसको चुनौती देने वाले कई खिलाड़ी मैदान में हैं |यूट्यूब की ओनलाईन वीडियो सीरिज  को चुनौती देने पहले आया नेट फ्लेक्स फिर अमेजन प्राईम पर अब इसी कड़ी में एक नया नाम जुड़ रहा है फेसबुक का जो फेसबुक वाच”  नाम से अपनी अलग वीडियो सीरिज लाने जा रहा हैटेकक्रंच वेबसाईट के मुताबिक इसमें कम्पनी दर्जनों वीडियो कार्यक्रम लायेगी जो रियल्टी टीवी से भी सम्बन्धित होंगेरियल्टी टीवी से तात्पर्य आम लोगों की असली कहानी |उम्मीद की जा रही है ऑनलाइन वीडियो सीरिज के बाजार में फेसबुक की मौजूदगी खेल के नियम बदल देगी इन होम वीडियो के कंटेंट के लिए फेसबुक ने दुनिया के कई दिग्गजों से करार किया है जिसमें रेसिपी वीडियो से लेकर मोटीवेशनल स्पीकर से लेकर यात्रा विषेज्ञय तक शामिल हैं|इसके अतिरक्त इसमें अंतर्राष्ट्रीय अर्थशास्त्र से लेकर बेसबाल के खेल भी शामिल होंगे |फेसबुक इन वीडियो को बनाने वाले को विज्ञापन से प्राप्त कमाई का पचपन प्रतिशत हिस्सा देगा  और शेष पैंतालीस प्रतिशत फेसबुक खुद अपने पास रखेगा |शुरुवात में यह सेवा अमेरिका में शुरू होगी फिर सारी दुनिया में इसका विस्तार होगा |दुनिया भर में ऐसे धारावाहिकों के निर्माण में तेजी आई हैजो टीवी नहींइंटरनेट पर आते हैं। इसकी शुरुआत साल 1992 में अमेरिका के साउथ पार्क  के साथ हुई थीयह चलन अब भारत में भी जोर पकड़ रहा है। सही मायने में इंटरनेट धारावाहिकों के लिए भारत में यह सही वक्त भी है। पिछले कुछ साल में टीवी देखने का ढर्रा काफी बदला है। दुनिया में सबसे ज्यादा युवा आबादी वाले देश के दर्शकों की मांग को पूरा करने के लिए ज्यादातर पारिवारिक कहानियां हैंजिनमें युवाओं की कोई रुचि नहीं। वैसे भी आजकल कम से कम शहरों में पूरा परिवार एक साथ बैठकर टीवी नहीं देखता। स्मार्ट फोन  और कंप्यूटर ने हमारी इन आदतों को बदल दिया है। नई पीढ़ी की दुनिया अब मोबाइल और लैपटॉप में हैजो अपना ज्यादा वक्त इन्हीं साधनों पर बिताते हैं। जहां कोई कभी भी अपने समय के हिसाब से इन धारावाहिकों को देख सकता है। इंटरनेट के धारावाहिक कंटेंट के स्तर पर युवाओं की आशा और अपेक्षाओं की पूर्ति करते हुए नवाचार को बढ़ावा दे रहे हैं।   इण्डिया मोबाईल ब्रोड्बैंड इंडेक्स 2016 और के पी एम् जी की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में कुल नेट डाटा उपभोग का अडतीस से बयालीस प्रतिशत हिस्सा वीडियो और ऑडियो पर खर्च किया जाता है |डिजीटल विज्ञापनों पर बढ़ता खर्च भी इसी तथ्य को इंगित कर रहा है साल 2015 में जहाँ इन पर 6010 करोड़ रुपये खर्च किये गये जिसके साल 2020 तक करीब चार गुना 25,520 करोड़ रुपये हो जाने की उम्मीद है |वैसे भी फेसबुक समाचारों का पर्याय बन चुका है बात चाहे प्रिंट माध्यम की हो या टेलीविजन की अब लोग इसी से अपनी सूचना की प्यास बुझा रहे हैं पर मनोरंजन के लिए लोगों की अभी ज्यादा निर्भरता वीडियो आधारित विशिष्ट चैनलों पर ही थी जिसे फेसबुक के माध्यम से शेयर किया जाता था और उससे आने वाला रेवन्यू फेसबुक को नहीं मिलता था जिसका ज्यादातर हिस्सा यू ट्यूब के पास ही है फेसबुक अन्य माध्यमों से वीडियो के मामले में आगे निकल सकता है क्योंकि उसके पास अपने उपभोक्ताओं का विशाल आंकड़ा भण्डार  है वो क्या करते हैं क्या पसंद करते हैं कहाँ रहते हैं उनकी रुचियों के हिसाब से फेसबुक वाच के वीडियो उनकी फीड में दिखने लगेंगे और उपभोक्ताओं के लिए अपने मनपसन्द वीडियो के लिए भटकना नहीं पड़ेगा और अगर उपभोक्ता उस वीडियो को लाईक करेगा तो उसे अगली किश्तों के कस्टमाईज नोटिफिकेशन अपने आप मिलने लग जायेंगे उसके अलावा लाईव चैट का विकल्प भी मौजूद रहेगा जो इन वीडियो कार्यक्रमों को ज्यादा इंटरेक्टिव बनाएगा फेसबुक की सीधी रणनीति है इंटरनेट पर वीडियो देखने की प्रवृत्ति को बदल कर टीवी जैसा बना देना जैसे अभी ज्यादातर लोग इंटरनेट पर मनोरंजन के लिए  वीडियो किसी प्लानिंग के तहत नहीं देखते बस स्क्रॉल करते कुछ अच्छा दिख गया तो देखने लग गए पर टीवी वे मनोरंजन के लिए समय पर देखते हैं बस यही प्रव्रत्ति फेसबुक वीडियो पर लाई जानी है जब लोग वीडियो देखते हुए सिर्फ वो कार्यक्रम न  देखे उनसे जुड़े लोगों से बात करें अपनी इच्छाएं बताएं उन पर वहीं चर्चा करें इतना इंस्टेंट  इंटरेक्टिवटी का स्तर फिलहाल फेसबुक ही दे सकता है जब फेसबुक लाईव पर चैनल अपनी खबर देते हैं या अन्य समाचार वेबसाईट लाईव करती हैं पर मनोरंजनात्मक वीडियो में यह सुविधा और किसी प्लेटफोर्म के पास उपलब्ध नहीं है |
फेसबुक के कड़े प्रतिद्वंदी यूट्यूबनेटफ्लिक्स और अमेजन प्राईम वीडियो फेसबुक की वीडियो सेवा का सामना कैसे करेंगे यह देखना दिलचस्प होगा क्योंकि यह सभी माध्यम अपने कार्यक्रमों के प्रमोशन और जानकारियों के लिए अभी फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग प्लेटफोर्म का ही इस्तेमाल करते हैं और इनके पास अपना कोई स्वतंत्र प्लेटफोर्म नहीं है ऐसे में विज्ञापनों से होने वाले  इनके मुनाफे पर निश्चित रूप से असर पड़ेगा |अमेरिका के बाद दुनिया में भारत ही फेसबुक का सबसे बड़ा बाजार है ऐसे में भारतीय उपभोक्ताओं के लिए निकट भविष्य में अच्छी खबर मिलने वाली है कि बीडियो कंटेंट के लिए अब जल्दी ही उनके पास ज्यादा विकल्प आने वाले हैं वहीं भारतीय  टीवी उद्योग को और तगड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ेगा |
नवभारत टाईम्स में 07/10/17 को प्रकाशित 

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