Friday, February 28, 2025

सॉफ्ट पावर बढाने की राह में क्या हैं चुनौतियाँ

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में फ्रांस के राष्‍ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के साथ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) एक्‍शन शिखर सम्मेलन की सह-अध्यक्षता की है | दिग्‍गज भारत को एआई की दुनिया का वर्ल्‍ड लीडर बता रहे हैं|एक समय था जब किसी राष्ट्र की शक्ति केवल उसकी सैन्य क्षमता और आर्थिक संसाधनों से मापी जाती थी। युद्ध और व्यापार पर नियंत्रण ही किसी राष्ट्र के शक्ति प्रदर्शन का एकमात्र तरीका था। लेकिन समय के साथ शक्ति की परिभाषा भी बदल गई है, आज के दौर में किसी राष्ट्र की ताकत इस बात पर निर्भर करती है कि वह अपने विचारों, संस्कृति और मूल्यों के जरिये दुनिया को कैसे आकर्षित कर सकता है। सॉफ्ट पॉवर’ शब्द का प्रयोग अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में किया जाता है जिसके तहत कोई राज्य परोक्ष रूप से सांस्कृतिक अथवा वैचारिक साधनों के माध्यम से किसी अन्य देश के व्यवहार अथवा हितों को प्रभावित करता है। इसमें आक्रामक नीतियों या मौद्रिक प्रभाव का उपयोग किये बिना अन्य राज्यों को प्रभावित करने का प्रयास किया जाता है। सॉफ्ट पॉवर’ की अवधारणा का सर्वप्रथम प्रयोग अमेरिका के प्रसिद्ध राजनीतिक विशेषज्ञ जोसेफ न्ये द्वारा किया गया था।

एक ऐसी ताकत जिसे न तो संख्याओं में मापा जा सकता है न ही किसी हथियार या दबाव से हासिल किया जा सकता है। यह किसी राष्ट्र की श्रेष्ठता साबित करने का साधन नहीं बल्कि उसे दूसरों के लिए आकर्षक बनाने का एक जरिया है। अमेरिका ने एक दौर में अपनी सॉफ्ट पावर को हॉलीवुड, मैकडॉनल्ड्स, कोका-कोला और पॉप म्यूजिक के ज़रिए पूरी दुनिया में फैलाया। वहीं दक्षिण कोरिया, जापान और चीन जैसे देश भी दर्शन,के-पॉप, ड्रामा, तकनीक और एनीमेटेड फिल्मों के जरिये अपना वर्चस्व बनाने में लगे हुए हैं। यह भारत की बढ़ती साख का ही प्रमाण है कि जी20, एससीओ और ब्रिक्स जैसे मंचों पर भारत एक अहम भूमिका निभा रहा है। शायद आपको याद हो जब भारत में पहली बार स्टारबक्स खुला था, इसकी दीवानगी लोगों के सिर चढ़कर बोल रही थी। ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने कभी अमेरिका की धरती पर कदम नहीं रखा है, लेकिन वहाँ बसने का सपने देखते हैं। आखिर ऐसा क्या है जो लोगों को किसी राष्ट्र के विचार, भाषा और संस्कृति की ओर इस कदर आकर्षित करता है। ऐसे में बीते कुछ दशक पर नजर डालें तो भारत भी उसी राह पर तेजी से बढ़ रहा है। बॉलीवुड गाने यूरोप से लेकर अफ्रीका तक गूंज रहे हैं, योग, आयुर्वेद ने अमेरिका और यूरोप को भारतीय जीवनशैली से जोड़ दिया है। भारतीय धर्म, संस्कृति और लोकतांत्रिक मूल्यों को आज दुनिया भर में सराहा जा रहा है।ब्रांड फाइनेंस की ग्लोबल सॉफ्ट पावर इंडेक्स 2024 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत ने दुनियाभर में सॉफ्ट पावर के मामले में 29वाँ स्थाान हासिल किया है। जिनमें कला और मनोरंजन में 7वां, कल्चर हैरिटेज में 19वां और भोजन के मामले में 8वां स्थान हासिल किया है। यह आंकड़े बात को दिखाते हैं कि भारत ने सिनेमा से लेकर विविध व्यंजनों तक वैश्विक संस्कृति पर गहरा असर डाला है। अंतरराष्ट्रीय योग दिवस भी भारत की एक सफल कूटनीति और बढ़ती सॉफ्ट पावर का प्रतीक है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित अतंरराष्ट्रीय योग दिवस अब 192 से भी अधिक देशों में मनाया जाता है।कभी भारत में योग को केवल आध्यात्मिक साधना समझा जाता था, लेकिन आज दुनिया के हर कोने में योग सेंटर्स खुल गये हैं। भारतीय फिल्मों ने भी सॉफ्ट पावर में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, फिल्मों ने भारतीय संस्कृति, रीति रिवाज फैशन और संगीत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय किया है। राज कपूर की फिल्में जिनका एक समय सोवियत रूस में गहरी छाप छोड़ी थी से लेकर दंगल, बाहुबली और आरआरआर जैसी फिल्मों ने कई देशों में कमाल बॉक्सऑफिस कर देश की सॉफ्ट पावर बढ़ाने में योगदान दिया है। नेटफ्लिक्स, अमेजन प्राइम जैसे स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म्स के आने से भारतीय फिल्मों और सीरीज की उपलब्धता दुनियाभर में कई भाषाओं में बढ़ गई हैं।  जहाँ एक समय हॉलीवुड फिल्मों में भारतीयों को नकारात्मक, मजाकिया या रूढ़ीवादी तौर पर छोटे किरदार दिये जाते थे। वहीं आज उन फिल्मों ने भारतीय लीड, मजबूत और गंभीर किरदारों के रूप में सामने आते हैं। सीटाटेल, क्वांटिको, लाइफ ऑफ पाई, मिस मार्वेल जैसी फिल्में इसकी उदाहरण हैं।

विज्ञान और तकनीकी  के क्षेत्र में भी भारत अपना परचम लहरा रहा है। गिटहब की एक रिपोर्ट के मुताबिक जेनरेटिव एआई डेवलपर्स की संख्या के मामले में भारत दुनिया में दूसरे स्थान पर है। वहीं 2028 तक भारत अमेरिका को पीछे छोड़ पहला स्थान हासिल कर लेगा। दुनियाभर की कई बड़ी टेक कंपनियों में भारतीयों ने गहरी छाप छोड़ी है। हुरुन ग्लोबल इंडियन लिस्ट के मुताबिक 1 ट्रिलियन डॉलर अधिक राजस्व वाली 35 कंपनियों में भारतीय मूल के सीईओ काबिज हैं। स्पेस टेक के क्षेत्र में भी इसरो के चंद्रयान और मंगलयान मिशन, कमर्शियल उपग्रह प्रक्षेपण सेवाओं से भारत अंतरिक्ष महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है। कोविड महामारी के दौरान भारत ने वैश्विक समुदाय की सहायता के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाये, चिकित्सा आपूर्ति,वेंटिलेटर, पीपीई किट और वैक्सीन डिपलॉमेसी से जरिये भारत को अपने मूल्यों के लिए विश्व भर से सराहना मिली। डिजिटल इंफ्रा जैसे यूपीआई जैसे प्लेटफॉर्म्स को नेपाल, भूटान और यूएई जैसे देशों में लॉन्च किया गया है, और धीरे धीरे इसका अन्य देशों में भी विस्तार किया जा रहा है। वहीं जलवायु परिवर्तन औऱ सतत विकास वैश्विक एजेंडे को लेकर भारत ग्रीन टेक्नोलॉजी  के क्षेत्र में अगुआई करते हुए 2030 तक 500 गीगावॉट नवीनीकरण ऊर्जा उत्पादन का महत्वकांक्षी लक्ष्य रखा है। इस दिशा में भारत ने फ्रांस के साथ मिलकर अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन की नींव रखी, जिसमें 120 से अधिक देश शामिल होकर सौर ऊर्जा के वैश्विक विस्तार को गति दे रहे हैं। विदेश मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक 2024 तक भारत के बाहर 3.54 करोड़ अनिवासी भारतीय यानी एनआरआई और भारतीय मूल के लोग यानी पीआईओ रह रहे हैं। जो वैश्विक स्तर पर भारतीय संस्कृति, व्यंजन, भाषा और परंपराओं को फैला रहे हैं। भारतीय समुदाय ने न केवल खुद को व्यावसायिक रूप से स्थापित किया है बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रो में भी प्रभावी भूमिका निभाई है।हालांकि भारत के एक सॉफ्ट पावर बनने की राह आसान नहीं है, इसमें ढेरों चुनौतियाँ भी हैं। भारत ने अपनी सॉफ्ट पावर कूटनीति में योग,आयुर्वेद, बौद्ध धर्म, क्रिकेट, प्रवासी, फिल्में, भोजन और गाँधीवादी आदर्श आदि को शामिल किया है, मगर यह काफी नहीं है। शिक्षा के क्षेत्र में भारत, अमेरिका, यूरोप और अन्य कई देशों की तुलना में काफी पीछे हैं। भारत जिसके पास नालंदा, तक्षशिला जैसे प्राचीन विश्वविद्यालयों की विरासत रही है, आज उच्च शिक्षा और अनुसंधान के क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के जूझ रहा है। क्यूएस वर्ल्ड रैंकिंग के मुताबिक टॉप 200 विश्वविद्यालयों की लिस्ट में भारत के मात्र तीन कॉलेज आते हैं। वहीं ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स 2024 में भारत 39वें स्थान पर रहा है। 140 करोड़ की जनसंख्या वाला भारत प्रति व्यक्ति आय के मामले में 141 वें, हैप्पीनेस इंडेक्स में 135वें और ग्लोबल हंगर इडेक्स में 101वें स्थान पर है, जो कि काफी चिंताजनक है। बीते दो दशक में भारत की स्थिति में सुधार तो हुआ है , मगर आंतरिक समस्याएं जैसे प्रदूषण, गरीबी, बेरोजगारी आदि से देश की छवि को नुकसान पहुँचता है। भारत को सॉफ्ट पावर बनने के लिए सांस्कृतिक कूटनीति को प्रोत्साहित करना होगा। जिसके लिए भारतीय संस्कृति, कला, संगीत, दर्शन आदि को विश्व में लोकप्रिय बनाना, स्वास्थ्य, शिक्षा और बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाना, साथ ही सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के माध्यम से भारत की सकारात्मक छवि को प्रस्तुत करना। हाल ही में प्रसार भारती का वर्ल्ड ऑडियो विजुअल और एंटरटेनमेंट समिट वेव्स और ओटीटी प्लेटफॉर्म भारत की सांस्कृतिक और मीडिया सॉफ्ट पावर को आगे बढ़ाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।भले ही भारत की सॉफ्ट पावर बनने की यात्रा में कई प्रकार की चुनौतियाँ हैं, लेकिन भारतीय नैरेटिव को मजबूती से प्रस्तुत करना इस दिशा में एक निर्णायक कदम हो सकता है। सॉफ्ट पावर केवल संस्कृति के आदान प्रदान का मामला नहीं है, यह एक लंबी और सतत प्रक्रिया है जिसमें जिसमें लोकतंत्र, मानवाधिकार और सांस्कृतिक मूल्यों का प्रचार-प्रसार अत्यंत महत्वपूर्ण है। क्योंकि सॉफ्ट पावर तभी काम करती है जब वह प्रामाणिक और सच्ची हो। अगर भारत इसे सही दिशा में आगे बढ़ाता है तो आने वाले वर्षों में यह न केवल एक सॉफ्ट पावर के रूप में बल्कि एक विश्व गुरु के रूप में भी उभर कर सामने आ सकता है।

नवभारत टाईम्स नमें 28/02/2025 को प्रकाशित 


 

Saturday, February 15, 2025

गिग वर्कर्स भी हमारे समाज का हिस्सा हैं

 भारत  में हर रोज एक नए स्टार्टअप का जन्म होता है। वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, जनवरी 2025 तक देश में स्टार्टअप्स की कुल संख्या करीब 1 लाख 60 हजार पहुँच गई है। जिसके साथ ही भारत अब दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा स्टार्टअप इकोसिस्टम बन चुका है। आंकड़े बताते हैं कि अब तक देश में एक अरब डॉलर से अधिक वैल्यू वाले 100 से अधिक यूनिकॉर्न स्टार्टअप्स स्थापित हो चुके हैं। इस उभरते हुए स्टार्टअप कल्चर के साथ ही देश में एक नए प्रकार की कामकाजी संस्कृति का चलन तेजी से बढ़ रहा है जिसे गिग इकॉनमी कहा जाता है। गिग इकॉनमी का मतलब ऐसी बाजार प्रणाली से है जिसमें लोग किसी कंपनी में स्थायी कर्मचारी बनने के बजाय अस्थायी, फ्रीलांस, या क्रांटैक्ट-बेस पर काम करते हैं। यानी ऐसे काम जिनमें नौकरियों की तरह कोई तय वक्त, तय जगह या तय वेतन नहीं होता। गिग इकॉनमी में काम करने वाले लोग खुद को एक स्वतंत्र पेशेवर के रूप में देखते हैं, जो सुविधा और समय के हिसाब से काम करते हैं। उदाहरण के लिए अर्बन कंपनी, उबर-ओला, और  जोमैटो जैसी कंपनियाँ कुछ समय के लिए स्वतंत्र कामगारों के साथ कांट्रैक्ट करती हैं और उनके द्वारा किए गए काम के घंटे या प्रत्येक कार्य के लिए एक निश्चित राशि का भुगतान करती हैं। ऐसे में गिग इकॉनमी आर्थिक अवसरों का एक नया मॉडल पेश कर रही है, जो पारंपरिक नौकरियों की तुलना में अधिक लचीलापन और स्वतंत्रता प्रदान करता है।नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक देश के गिग वर्कफोर्स में आईटी सर्विसेस, डिलीवरी, कैब सर्विसेज और अन्य पार्ट टाइम जैसी नौकरियों में साल 2020-21 में करीब 77 लाख श्रमिक कार्यरत थे जिनकी संख्या साल 2029-30 तक बढ़कर करीब ढाई करोड़ पहुँचने की उम्मीद है। गिग इकॉनमी कोई नई अवधारणा नहीं है, बल्कि यह हमेशा से हमारे समाज का हिस्सा रही है। फर्क बस इतना है कि अब इसका तरीका डिजिटल हो चुका है। जैसे ऑटो और कैब चालक जो सड़क पर सवारी का इंतजार करते थे अब वे ओला और उबर जैसे प्लेटफॉर्म्स पर ऑन डिमांड उपलब्ध होते हैं। इसी तरह फूड डिलीवरी, घर की सफाई, पेंटिंग, मेकअप और अन्य सेवाएं देने वाले श्रमिक अब ऐप्स के माध्यम से बुक किए जाते हैं। स्टार्टअप कंपनियाँ तकनीक की मदद से भारत के असंगठित रोजगार को ऐप्स के जरिये बड़े पैमाने पर संगठित कर रही हैं।

 नीति आयोग ने अपनी रिपोर्ट में गिग वर्कस को तीन श्रेणियों में बांटा है जिसमें लो-स्किल्ड वर्कर्स जैसे डिलीवरी पर्सनल, राइडशेयर ड्राइवर्स, मीडियम स्किल्ड वर्कस जैसे इलेक्ट्रीशियन, कारपेंटर और ब्यूटिशियन्स और हाई स्किल्ड वर्कर्स जैसे सॉफ्टवेयर डेवलपर्स, कंटेंट राइटर्स, ग्राफिक डिजाइनर  एवं अन्य शामिल हैं। वर्तमान में भारत में मिडिल स्किल्ड वर्कर्स की संख्या सबसे अधिक 47 प्रतिशत हैं। फोरम फॉर प्रोग्रेसिव गिग वर्कर्स की रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय अर्थव्यवस्था में गिग इकॉनमी ने साल 2024 में 455 बिलियन डॉलर का योगदान दिया था। और साल दर साल यह इंडस्ट्री 17 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। गिग इकॉनमी के बढ़ते प्रभाव ने कार्यबल में कई महत्वपूर्ण बदलाव लाये हैं। ऑफलाइन क्षेत्र के साथ-साथ ऑनलाइन गिग वर्कर्स की संख्या भी काफी तेजी से बढ़ रही है।   इसमें फ्रीलांसर्स अपने पसंद का काम कर सकते हैं, वहीं कई लोग अपनी स्किल को लगातार निखार रहे हैं ताकि मार्केट में उनकी डिमांड बनी रहे। गिग इकॉनमी ने उन लोगों के लिए भी नौकरी के कई अवसर खोले हैं जिन्हें पारंपरिक नौकरियों में दिक्कत आती थी, जैसे दिव्यांग, छात्र और गृहिणियाँ जो अब घर बैठे भी फ्रीलांसिंग कर सकते है। विश्व बैंक की रिपोर्ट वर्किंग विदाउट बॉर्डर्स के मुताबिक दुनियाभर में 435 मिलियन से अधिक गिग वर्कर्स इंटरनेट के माध्यम से रोजगार प्राप्त कर रहे हैं।
विकसित देशों से इतर भारत में गिग इकॉनमी का स्वरूप काफी भिन्न है, यहाँ असंगठित और अनस्किल्ड लेबर की बहुलता है। विकसित देशों में गिग इकॉनमी मुख्यतः उच्च कौशल वाले कार्यों जैसे सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट, डिज़ाइनिंग, और कंसल्टेंसी पर केंद्रित है। वहीं भारत में गिग इकॉनमी का बड़ा हिस्सा कैब ड्राइवर, डिलीवरी एजेंट, घरेलू सहायकों और निर्माण श्रमिकों जैसे कम कौशल वाले कार्यों पर आधारित है। वहीं पारंपरिक रोजगार के विकल्पों के आभाव में भी लोग गिग प्लेटफॉर्म्स का रुख करते हैं।
हम सभी के दिमाग में कभी न कभी यह ख्याल जरूर आता है कि हमारे घर का खाना डिलीवरी करने वाले लोग, कैब ड्राइवर या अन्य गिग वर्कर्स जो हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन चुके हैं- अंतत:हमारे ही समाज के लोग हैं। जिन्हें कभी कभी रोजगार के लिए उपभोक्ता के साथ बहस, जान जोखिम में डालना या आमानवीय व्यवहार तक झेलना पड़ता हैं। यह कार्य उनके लिए फ्री टाइम में किया जाने वाला कोई फ्रीलांस काम नहीं, बल्कि जीवनयापन का प्रमुख माध्यम है। संस्था पैगाम और यूनिवर्सिटी ऑफ पेन्सेल्वेनिया द्वारा भारत में ऐप बेस्ड वर्कर्स पर किये गये एक शोध में सामने आया है कि भारत में गिग श्रमिक स्थायी नौकरियों से भी अधिक लंबे समय तक काम कर रहे हैं। गिग श्रमिकों में कैब ड्राइवर् और डिलीवरी एजेंट्स दिन में 8 से 12 घंटे और कभी कभी उससे भी अधिक घंटे प्रतिदिन काम करते हैं।
ये ऐप बेस्ड कंपनियाँ गिग वर्कर्स के जरिये मोटा पैसा कमा रही हैं मगर क्या इससे वर्कर्स को कुछ फायदा मिल रहा है ?  यह ठीक है कंपनियाँ इन्हें कांट्रैक्ट के अनुसार पैसे देती है, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि इन कामगारों को स्थायी नौकरी की तरह वित्तीय असुरक्षा, स्वास्थ्य बीमा और सामाजिक सुरक्षा की सुविधाएं तक नहीं मिल पाती। इनकी पहचान केवल एक सेवा प्रदाता के रूप में बन जाती है। हालांकि हाल ही में संसद में पेश बजट 2025 में सरकार ने गिग वर्कर्स के लिए कई प्रावधान किये हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस अंसगठित क्षेत्रों के कर्मचारियों को पहचान पत्र, ई-श्रम पोर्टल पर उनका पंजीकरण और पीएम जन आरोग्य योजना के तहत 5 लाख रुपये तक के स्वास्थ्य बीमा कवरेज मुहैया कराने का ऐलान किया है। सरकार के इस फैसले से करीब 1 करोड़ गिग वर्कर्स को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से फायदा पहुँचेगा। इन गिग वर्कर्स में कैब ड्राइवर, फूड डिलीवरी एजेंट्स और अन्य प्लेटफॉर्म कर्मचारी भी शामिल हैं। जिन्हें अब पारंपरिक कर्मचारियों जैसी सामाजिक सुरक्षा एवं लाभ मिलेंगें। हालांकि सरकार ने गिग वर्कर्स के न्यूनतम वेतन के लिए बजट में कोई प्रावधान नहीं किया है। समस्या यह भी है कि अगर सरकार  न्यूनतम वेतन, काम के घंटे सीमित करना जैसे कड़े रेगुलेशन ले भी आये , तो इससे इस सेक्टर को नुकसान हो सकता है। ऐसा करने से कंपनियाँ अपनी हायरिंग कम कर सकती हैं, साथ ही नियमों के बोझ के चलते अनावश्यक लालफीताशाही या इंस्पेक्टर राज को बढ़ावा मिल सकता है। दूसरी ओर अनियोजित श्रम में आपूर्ति माँग से हमेशा अधिक होने की संभावना रहती है। ऐसे में इस विषय पर सरकार और स्टार्टअप कंपनियों को गहन चिंतन की जरूरत है कि वह क्या कदम उठा सकती है, जिससे एक बेहतर संतुलन बनाया जा सके । आखिर में गिग इकॉनमी मॉडल न सिर्फ युवाओं को रोजगार का एक विकल्प मुहैया करा रहा है, बल्कि देश की आर्थिक दिशा को भी बदल रहा  है। इसके लिए संस्थापकों और निवेशकों को केवल अपने स्टार्टअप्स का विस्तार करने के बजाय उन्हें बेहतर बनाने पर ध्यान देना चाहिए। भारत जहाँ असंगठित श्रम बहुतायत में है, यहाँ गिग इकॉनमी के लिए संभावनाएं अपार हैं लेकिन यह आवश्यक है इसकी नींव उन श्रमिकों की भलाई और सुरक्षा पर आधारित हो जो इस पूरे मॉडल का आधार है।
अमर उजाला में 15/02/2025 को प्रकाशित 

Thursday, February 13, 2025

फर्जी समाचारों के लिए फैक्ट चेकिंग व्यवस्था

फेक न्यूज यानी झूठी और फर्जी खबरें, आज के डिजिटल युग का एक डरावना पहलू हैं। हर दिन हम सोशल मीडिया पर ऐसी खबरों का सामना करते हैं जो पूरी तरह से आधारहीन होती हैं या किसी खास मकसद से उनके तथ्यों के साथ छेड़छाड़ की जाती है। ये खबरें न केवल हमारे विश्वास को प्रभावित करती हैं बल्कि समाज में भय, भ्रम और नफरत का बीज भी बोती हैं। ऐसे में दुनियाभर के फैक्टचैकर्स इन फर्जी खबरों को पर्दाफाश करने के लिए दिनरात मेहनत करते हैं ताकि हमें सही जानकारी मिल सके। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर फैलने वाली फर्जी खबरों से निपटने के लिए साल 2016 में फेसबुक अब मेटा ने एक फैक्ट  चैकिंग प्रोग्राम की शुरुआत की थी जिसका उद्देश्य था सोशल मीडिया पर फैल रही गलत खबरों की पहचान करना और सही जानकारी यूजर्स तक पहुँचाना। मेटा की यह पहल फेक न्यूज से निपटने के लिए एक मजबूत कदम था, जिसने सोशल मीडिया पर फर्जी खबरों को नियंत्रित करने का प्रयास किया था। लेकिन हाल ही में कंपनी ने अचानक अपने फैक्ट चैकिंग प्रोग्राम को बंद करने की घोषणा कर दी है।
 जिससे दुनियाभर के विशेषज्ञों, पत्रकारों और फैक्ट चैकर्स में चिंता और आसमंजस की स्थिति पैदा हो गई है। सवाल यह उठता है कि क्या ये सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हटने की कोशिश कर रहे हैं ? वो भी ऐसे समय जब एआई, डीप फेक जैसी तकनीकों ने सही और गलत में पहचान करना और भी अधिक मुश्किल कर दिया है। प्रोग्राम को बंद करने के पीछे कंपनी की दलील है कि फैक्ट चैकिंग प्रोग्राम की जगह फेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हाट्सअप पर अब कम्यूनिटी नोट्स मॉडल शुरू किया जाएगा। जिससे प्लेटफॉर्म्स का उपयोग कर रहे यूजर्स को यह अधिकार मिलेगा कि वे फेक न्यूज फैला रहे पोस्ट्स को खुद उजागर कर सकेंगे। फिलहाल के लिए फैक्ट चैकिंग प्रोग्राम को सिर्फ अमेरिका में बंद करने का निर्णय लिया गया है लेकिन इस फैसले ने दुनिया भर में फेक न्यूज के खिलाफ चल रही लड़ाई को एक बड़ा झटका दिया है।साल 2016 में मेटा ने थर्ड-पार्टी फैक्ट-चेकिंग प्रोग्राम शुरू किया था जिसके तहत कंपनी स्वतंत्र फैक्ट-चेकिंग संगठनों के साथ मिलकर सोशल मीडिया कंटेंट का सटीकता से मूल्याकंन करती है। इसका उद्देश्य चुनाव, महामारी और संवेदनशील विषयों पर गलत सूचना के प्रसार को रोकना है। मेटा ने इस प्रोग्राम के तहत 100 मिलियन डॉलर से अधिक का निवेश किया है। इस साझेदारी में दुनियाभर के 80 से अधिक मीडिया संगठन शामिल हैं। जिनमें भारत में कंपनी ने अकेले 11 फैक्ट चैकिंग संस्थानों से करार किया था। प्रोग्राम में थर्ड पार्टी फैक्ट चैकर्स संभावित फर्जी खबरों और पोस्ट को चिह्नित करते हैं जिसके बाद फीड में एल्गोरिदम की मदद से ऐसे पोस्ट की रीच को कम या खत्म कर दिया जाता था। लेकिन हाल में मेटा के सीईओ मार्क ज़करबर्ग ने इस पुराने प्रोग्राम को राजनीतिक रूप से पक्षपाती करार देते हुए इसे बंद करने का निर्णय लिया और उन्होंने नए कम्युनिटी नोट्स मॉडल को अधिक लोकतांत्रिक और बेहतर बताया है। 

हालांकि मेटा के इस कदम को कई विशेषज्ञ आलोचनात्मक नजरों से देख रहे हैं और इसे राजनीतिक दबाव के चलते लिया गया फैसला बता रहे हैं। इस निर्णय की घोषणा नए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के शपथ ग्रहण से ठीक पहले होना भी इस फैसले को कटघरे में खड़ा करता है। नया कम्यूनिटी नोट्स मॉडल, माइक्रो ब्लॉगिंग साइट एक्स के सामुदायिक नोट्स कार्यक्रम की तरह काम करेगा। जिसे ट्विटर ने 2021 में बर्डवॉच नाम से शुरू किया था। इसके तहत यूजर्स पोस्ट्स पर नोट्स जोड़ सकते हैं और यूजर्स की रेटिंग्स से कंटेंट की गुणवत्ता सुनिश्चित की जाती है। पांरपरिक फैक्ट चैकिंग प्रोग्राम के विपरीत नोट्स को कर्मचारियों या एक्सपर्ट्स द्वारा संपादित नहीं किया जाता, यह पूरी तरह यूजर्स पर निर्भर है। कंपनी के मुताबिक थर्ड पार्टी फैक्ट-चेकिंग में विशेषज्ञों का पूर्वाग्रह, पक्षपाती रवैया हो सकता है, जिससे वे एक पक्ष की ओर झुक सकते हैं।यह बदलाव खासतौर पर भारत जैसे देश में फेक न्यूज के प्रसार को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है। साल 2024 में विश्व आर्थिक मंच द्वारा जारी ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में फेक न्यूज और गलत सूचना प्रसार के जोखिम के मामले में भारत पहले स्थान पर है। देश में फैक्ट चैकिंग पेशेवरों की माँग लगातार बढ़ रही है, वहीं इन संस्थानों का एक बड़ा हिस्सा मेटा की वित्तीय सहायता पर निर्भर है। 

थर्ड पार्टी फैक्ट चैकिंग प्रोग्राम के बंद होने से इन संस्थानों की आर्थिक स्थिरता पर भी खतरा मंडरा रहा है, जिससे फर्जी खबरों और गलत सूचनाओं के प्रसार को रोकने में चुनौतियाँ काफी बढ़ सकती हैं। हालांकि अभी कंपनी ने भारत में इस प्रोग्राम को बंद करने की घोषणा नहीं की है, लेकिन इस कदम से इन फैक्ट चैकिंग संस्थानों की चिंता बढ़ गई है। इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस और साइबरपीस द्वारा किये गये एक शोध ने भारत में बढ़ते फेक न्यूज प्रसार और डीपफेक जैसी चिंताओं को लेकर बड़ा खुलासा किया है। अध्ययन के मुताबिक गलत सूचना के प्रसार के मामले में सोशल मीडिया एक प्रमुख स्त्रोत है। सोशल मीडिया पर फैलने वाली फेक न्यूज में 46 प्रतिशत राजनीति से जुड़े, 16.8 प्रतिशत धर्म से जुड़े और 33.6 प्रतिशत सामान्य मुद्दे हैं। शोध में ट्विटर 61 प्रतिशत और फेसबुक 34 प्रतिशत फेक न्यूज फैलाने वाले प्रमुख प्लेटफ़ॉर्म के रूप में पहचाने गये। वहीं 2019 में  माइक्रोसॉफ्ट के एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि  भारत में 64% इंटरनेट यूजर्स ने फर्जी खबरों का सामना किया है, जो विश्व स्तर पर सबसे अधिक है। पीआईबी की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2024 में देश में 583 भ्रामक समाचारों की पहचान की गई, जिनमें से 36 प्रतिशत खबरें सरकारी योजनाओं से जुड़ी थीं। पिछले कुछ सालों में कई बार ये फर्जी खबरें लोगों के लिये जानलेवा भी साबित हुई, उदाहरण के लिए अमेरिकन जर्नल ऑफ ट्रापिकल मेडिसिन एंड हाइजीन में छपे एक शोध के मुताबिक कोविड महामारी के दौरान कई तरह की अफवाहों और गलत सूचनाओं के चलते करीब 800 लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी थी। वहीं भारत में 2018 में झारखंड और उत्तर प्रदेश में सोशल मीडिया पर अफवाह फैलने पर मॉब लिंचिंग की घटनाएं बढ़ गई थी। सीएए आंदोलन, दिल्ली दंगे और किसान आंदोलन के वक्त भी अफवाहों से स्थिति तनावपूर्ण हो गई थी।

पर आखिर मेटा के इस फैसले के क्या खतरे हो सकते हैं? दरअसल एक्सपर्ट्स और फैक्ट चैकर्स के बिना अप्रशिक्षित यूजर्स को फेक न्यूज की पहचान करने में कठिनाई हो सकती है, और निगरानी के बगैर राजनीतिक या प्रोपागेंडा आधारित कंटेंट प्लेटफॉर्म पर हावी हो सकता है जो बड़ी जनसंख्या को प्रभावित भी कर सकता है। आज के दौर में  फे़सबुक और वाट्सऐप जैसे प्लेटफॉर्म्स पर फ़ेक न्यूज़ और ग़लत सूचनाओं की बाढ़ आई हुई है। किस पर भरोसा करें और किस पर नहीं, यह बड़ी चिंता का विषय है। तटस्थ और फैक्ट चेक के बिना के कंटेंट से राजनीतिक पार्टियों और विचारों को हेरफेर और ध्रुवीकरण करने का मौका मिल सकता है, विशेष रूप से यह बहुसंख्यकवादी  विचारों को लागू कर सकता है। ऐसा देखा गया है  कि कई बार फेक न्यूज को आंकने में मुख्यधारा की मीडिया तक चकमा खा जाती है, ऐसे में पेशेवर फैक्ट चैकर्स, पत्रकारों और एक्सपर्ट्स को छोड़ आम यूजर्स पर यह जिम्मेदारी डालना खतरनाक हो सकता है। और एआई, डीप फेक के दौर में फेक न्यूज के खिलाफ चल रहा दुनियाभर में संघर्ष कमजोर हो सकता है। भारत जैसे देश में जहाँ सांस्कृतिक और राजनीतिक विविधता कम्यूनिटी फैक्ट चैकिंग  को चुनौतीपूर्ण बनाती है, क्योंकि जटिल मुद्दों, भाषणों की सटीक व्याख्या के लिए पेशेवर विशेषज्ञों की आवश्यकता जरूरी रहती है ।  इंडिया टुडे फ़ैक्ट चेक, द क्विंट,बूम, एल्ट न्यूज जैसी भारतीय फैक्ट चैकिंग संस्थाओं के लिए मेटा के थर्ड पार्टी चैकिंग प्रोग्राम का हिस्सा फंडिंग का अहम स्रोत है अगर यह बंद हो जाता है तो हजारों फैक्ट चैकर्स के लिए रोजगार का संकट भी खड़ा हो सकता है और अब इन संस्थाओं को अन्य वैकल्पिक वित्तीय स्रोत भी बनाने होंगे। ऐसे में भले ये कंपनियाँ अपनी जिम्मेदारी से भागने की कोशिश कर रही हों, यह जिम्मेदारी अब सरकार और पत्रकारों और स्वतंत्र फैक्ट चैकर्स की है कि वह कैसे मीडिया की विश्वसनीयता सुनिश्चित करते हैं और झूठे दावों, खबरों और अफवाहों को सामने लाकर फेक न्यूज के मकड़जाल का सामना करते हैं।

 दैनिक जागरण में 13/02/2024 को प्रकाशित 


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