Friday, November 7, 2025

डिजीटल दौर की समस्याएं

 
डिजिटल संचार जहाँ एक ओऱ संवाद को तात्कालिक और सुलभ बना रहा हैवहीं दूसरी ओर यह हमारी निजी और कामकाजी जिंदगी की सीमाओं को धुंधला कर रहा है। मसलन व्हाट्सएपमेटा के स्वामित्व वाला मैसेजिंग एप्लिकेशन आज वैश्विक संचार का पर्याय बन गया है। स्टैस्टिका के आंकड़ों के मुताबिक विश्वभर में करीब 2.7 अरब और भारत में 50 करोड़ से अधिक लोग इस एप का इस्तेमाल करते हैं। यह अब मात्र व्यक्तिगत चैट तक सीमित नहीं रहा  है बल्कि एक व्यावसायिक पारिस्थितिकी तंत्र बन चुका है। हालांकि हमें इस सुविधा की एक कीमत चुकानी पड़ रही है। हमेशा ऑन रहने की संस्कृति ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी है जहाँ काम के घंटे अनिश्चित हो गये हैं। दफ्तर का समय खत्म होने के बाद भी व्हाट्सएप पर बॉस या सहकर्मियों के मैसेज आना आम बात हो गई है और अनजाने में ये तात्कालिकता और हर समय उपलब्ध रहने की प्रवृत्ति लोगों में तनावचिंता और बर्नआउट का एक प्रमुख कारण बन रही है। अब काम केवल वो जगह नहीं रह गई जहाँ आप रोज 9 से 5 जाते हैं बल्कि एक ऐसी गतिविधि हो गई है जिसे आप लगातार करते हैं।
 
साल 2023 में आई स्लैक की स्टेट ऑफ वर्क रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में 53 प्रतिशत डेस्क वर्कर्स काम के बाद भेजे गए संदेशों का जवाब देने का दबाव महसूस करते हैं। सैन्सेस वाइड द्वारा किये एक सर्वे के मुताबिक 88 प्रतिशत भारतीय कर्मचारियों से नियमित रूप से काम के घंटों के बाद भी उनसे काम से संबंधित संपर्क किया जाता है। यह तब भी जारी रहता है जब वे बीमारी की छुट्टी या सार्वजनिक छुट्टियों पर भी हों। वहीं इस पर लोगों ने बताया कि काम के बाद मैसेज का जवाब न देने पर प्रमोशन पर नकारात्मक असर भी पड़ता है।
 
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट भी इस बात पर प्रकाश डालती है कि डिजिटल उपकरणों का उपयोग करने वाले कर्मचारी न केवल अधिक घंटे काम करते हैंबल्कि अपने काम और जीवन के बीच संघर्ष का अनुभव करते हैं। व्हाट्सएप 'डिजिटल प्रेजेंटिज्मनाम की इस नई घटना को जन्म देता है जहाँ कर्मचारी दफ्तर में न होने पर भी ऑनलाइन उपलब्ध रहने के लिए मजबूर महसूस करते हैं। यह ईमेल प्रवृत्ति के ठीक विपरीत है जहाँ कर्मचारी को सोचने और जवाब देने के लिए पर्याप्त समय मिलता था। व्हाट्सएप का 'ब्लू टिकऔर 'लास्ट सीनफीचर इस दबाव को और बढ़ा देता हैजिससे एक अलिखित अपेक्षा पैदा होती है कि संदेश देख लिया गया है तो उसका तुरंत जवाब भी दिया जाना चाहिए।
 
इसके साथ ही वाह्ट्सएप जैसे इंस्टेंट मैसेजिंग प्लेटफॉर्म पर  बातचीत में इमोजीस्टिकर और शब्दों को छोटा करके बोलना आम है। चूंक लिखित चैट में चेहरे के भावआवाज का भार और शारीरिक संकेत नहीं मिलते हैं तो पाठक को बहुत कुछ अनुमान लगाना पढ़ता है। एक बॉस द्वारा भेजा गये साधारण अंगूठे का इमोजी के कर्मचारी कई अर्थ निकाल सकता हैजिससे उसे संदेश के मूल को समझने के लिए अतिरिक्त मानसिक ऊर्जा लगती है। एक औपचारिक ईमेल के माध्यम से किये गए अतिरिक्त काम के अनुरोध करना आसान होता हैलेकिन वहीं अनुरोध अगर व्हाट्एप पर एक अनौपचारिकमैत्रीपूर्ण संदेश के रूप में आता है तो उसे मना करना असभ्य लग सकता है। एटलैसिएन की रिपोर्ट बताती है कि अस्पष्ट ईमेल या चैट की वजह से हर साल कर्मचारी औसतन 40 घंटे बर्बाद कर देते हैं।
 
हमारा मस्तिष्क एक समय में एक ही कार्य पर  गहराई से ध्यान केंद्रित करने के लिए बना हैलेकि व्हाट्सएप हमें लगातार कोड स्विचिंग के लिए मजबूर करता हैएक पल में ऑफिस का कोई महत्वपूर्ण काम वहीं  दूसरे पल फैमिली ग्रुप पर  व्यक्तिगत चैट। स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोध से पता चलता है कि निरंतर मल्टीटास्किंग हमारी कार्यशील मेमोरी  को कमजोर करती है और अंतत: बर्नआउट की ओऱ ले जाती है। यूँ तो ये घटना वैश्विक है लेकिन भारत जैसे विकासशील देश में सामाजिक आर्थिक कारक इसे कही अधिक गंभीर चुनौती बना देते हैं। इस प्रवृत्ति का असर निजी रिश्तों पर भी पड़ा है। परिवार या दोस्तों के साथ बिताया जाने वाला समय अब लगातार ऑफिस के संदेशों से बाधित होता है। परिणामस्वरूप रिश्तों में यह शिकायत आम हो चली है कि लोग “हमेशा फ़ोन पर व्यस्त रहते हैं” या “रात देर तक भी ऑफिस का काम निपटाते रहते हैं।मनोवैज्ञानिकों इस घटना को टेक्नोफेरेंस कहते हैं जिसका सीधा अर्थ है तकनीक द्वारा व्यक्तिगत संबंधों में पैदा की जाने वाली बाधा। इस तरह व्हाट्सएप सरीखे डिजिटल संचार ने न केवल काम और निजी जिंदगी की सीमाएं धुंधली की हैं बल्कि निजी संबंधों को भी प्रभावित किया है।
 
भारत में लाखोंलघुमध्यम उद्यमों और असंगठित क्षेत्र के लिए व्हाट्सएप न केवल एक मैसेजिंग एप है बल्कि उनका पूरा बिजनेस सूट है। यह उनका CRM, ऑर्डर मैनेजमेंट सिस्टममार्केटिंग टूल और ग्राहक सहायता केंद्र है। यह निर्भरता इतनी गहरी है कि इससे डिस्कनेक्ट होने का मतलब अक्सर व्यवसाय से डिस्कनेक्ट होना है। यह स्थिति फ्रांसस्पेन और इटली जैसे कई यूरोपीय देशों से बिलकुल विपरीत हैजहाँ राइट टू डिस्कनेक्ट" कानून कर्मचारियों को काम के घंटों के बाद पेशेवर संदेशों को अनदेखा करने का कानूनी अधिकार देते हैं। हालांकि भारत में इस कानून पर कई बार बहस तो हुई है मगर इसे यहाँ लागू करना एक जटिल चुनौती बनी हुई है। 2018 में भारतीय संसद एनसीपी नेता सुप्रिया सुले ने राइट टू डिस्कनेक्ट को लेकर एक निजी सदस्य विधेयक पेश किया थाहालांकि यह विधेयक पारित नहीं हो सकामगर इसने एक नई चर्चा को जन्म जरूर दिया। भारत जैसे देश में जहाँ विशाल असंगठितसेवा आधारित अर्थव्यवस्था और नौकरी असुरक्षा जैसी चुनौतियाँ मौजूद हैंऐसे में इस तरह के कानून को लागू करना भी जटिल है। हालांकि अब समय आ गया है जब लोगों और कंपनियों को इसके समाधान की दिशा में सक्रियता से काम करना होगा। कंपनियों को एक विस्तृत कम्यूनिकेश चार्टर या नीति बनाने कि आवश्यकता है जिसमें यह स्पष्ट रूप से परिभाषित हो कि किस संचार के लिए कौन सा प्लेटफॉर्म उपयोग किया जाए। साथ ही अपेक्षित प्रतिक्रिया का समयटाइम को डिस्कनेक्ट इसकी भी नीतियाँ बनाई जानी आवश्यक है। साथ ही व्यक्तिगत स्तर पर कर्मचारियों को भी डिजिटल वेलनेस की आवश्यकता है जिसमें काम के बाद वर्क ग्रुप्स को म्यूट करनासंचार के लिए आधिकारिक चैनल का ही उपयोग करना तथा अपनी सीमाओं को विनम्रतापूर्वक अपनी टीम और कंपनी तक पहुँचाना। क्योंकि यदि हम अभी काम और जिंदगी के बीच संतुलन बनाने में विफल होते हें तो हम न केवल अपने मानसिक स्वास्थ्य और व्यक्तिगत रिश्तों को हानि पहुँचा रहे हैं बल्कि एक ऐसी पीढ़ी को जन्म दे रहे हैं जो हमेशा कनेक्टेड रहने के बावजूद असली जिंदगी से कट जाएगी।
दैनिक जागरण में 07/11/2025 को प्रकाशित 
 

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