Friday, March 7, 2025

सोशल मीडिया और डिजीटल उपनिवेशवाद

स्टैस्टिका के मुताबिक भारत में 90 करोड़ से अधिक इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं और यह संख्या हर दिन बढ़ रही है।  स्मार्टफोन से लेकर सोशल मीडिया तक देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक ताना-बाना तेजी से डिजिटल हो रहा है। इसमे कोई दो राय नहीं है कि डिजिटलीकरण हमारे लिए सुविधा, संपर्क और समृद्धि के नए रास्ते खोल रहा है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या हम सचमुच इस डिजिटल क्रांति के सूत्रधार हैं, या फिर बस किसी और के बनाए डिजिटल तंत्र के उपभोक्ता बनकर रह गए हैं? एक समय था जब औपनिवेशिक ताकतों ने दुनिया पर कब्जा जमाकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया था, फिर बारी आई सॉफ्ट पावर यानी संस्कृति, भाषा, मीडिया और कूटनीति के जरिये अपना प्रभाव बनाने की। अब यह दौर डिजिटल उपनिवेशवाद का है, जहाँ किसी देश की शक्ति केवल सैन्य बल या सांस्कृतिक प्रभाव से नहीं बल्कि डेटा पर नियंत्रण से तय होती है।

दुनिया की शीर्ष 10 टेक प्लेटफॉर्म्स गूगल, फेसबुक, इंस्टाग्राम, अमेजन, एक्स आदि पर भारतीय उपभोक्ताओं की भारी संख्या है। लेकिन इनमें से एक भी कंपनी भारतीय नहीं हैं। हमारे लोगों का डेटा भारत में नहीं बल्कि विदेशी कंपनियों के नियंत्रण में है। यह एक तरह के डिजिटल उपनिवेशवाद को जन्म दे रहा है। जहाँ सूचना और डेटा पर नियंत्रण कुछ गिनी चुनी वैश्विक कंपनियों के हाथों में केंद्रित हो रही है। इन कंपनियों का नियंत्रण मुख्य रूप से अमेरिका और कुछ यूरोपीय देशों के हाथों में है। जिससे भारत का डिजिटल भविष्य बाहरी शक्तियों की नीतियों और व्यावसायिक हितों पर निर्भर होता जा रहा है। सोशल मीडिया के इस्तेमाल के मामले में 47 करोड़ यूजर्स के साथ भारत , चीन के बाद विश्व में दूसरा स्थान रखता है। देश में फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सअप, एक्स और यूट्यूब जैसे वैश्विक प्लेटफॉर्म्स सबसे अधिक प्रचलित हैं। मगर  ये कंपनियाँ न केवल हमारे डेटा का आर्थिक शोषण कर रही ही हैं, बल्कि भारत की चुनाव प्रणाली, न्यायिक फैसलों और समाज में वैचारिक ध्रुवीकरण को भी प्रभावित कर रही हैं। हैरानी की बात यह है कि 140 करोड़ लोगों के इस देश में कोई भी ऐसा देशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म नहीं है, जो इन विदेशी को एप्स के सामने खड़ा हो सके।

पिछले कुछ सालों में इन विदेशी प्लेटफॉर्म्स ने देश के सामने कई तरह की चुनौतियाँ पेश की हैं। जिनमें डेटा सुरक्षा, फेक न्यूज और पक्षपातपूर्ण प्रचार जैसे मुद्दे शामिल हैं। भारत जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, यहाँ की चुनावी प्रक्रिया में भी इन कंपनियों का हस्तक्षेप लगातार बढ़ रहा है। संस्था ईको की रिपोर्ट के मुताबिक बीते साल सम्पन्न हुए लोकसभा और विधानसभा चुनावों में मेटा प्लेटफॉर्म्स पर चुनावी पेड प्रचार और शेडो विज्ञापनों के जरिये राजनीतिक पार्टियों को लाभ पहुँचाने के आरोप लगे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक इन प्लेटफॉर्म्स ने ऐसे कई विज्ञापनों को प्रमोट किया जो चुनावी नियमों का उल्लंघन और भ्रामक जानकारी दे रहे थे।  ऐसा ही मामला साल 2018 में आए कैम्ब्रिज एनालिटिका स्कैंडल ने भी यह उजागर किया था कि कैसे ये विदेशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स भारतीय मतदाताओं के डेटा का दुरुपयोग कर सकते हैं। वहीं फेक न्यूज के मामले में साल 2023 में यूनेस्को इपसोस द्वारा किये गये एक सर्वेक्षण के मुताबिक , देश में शहरी क्षेत्रों के 64 प्रतिशत लोगों ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को गलत सूचनाओं और फेक न्यूज का प्राथमिक स्रोत माना, इन फेक न्यूज के प्रसार में खासकर फेसबुक, व्हाट्सअप और एक्स इनमें प्रमुख भूमिका निभाते नजर आये। फेसबुक की इंटरनल रिपोर्ट कम्यूनल कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंडिया के मुताबिक, 2020 में हुए दिल्ली दंगों में फेसबुक और व्हाट्सएप पर 22 हजार से अधिक ऐसे पोस्ट्स और ग्रुप्स पाये गये, जिनमें सांप्रदायिक नफरत फैलाई जा रही थी। इसी तरह के मामला 2021 में ट्विटर पर भी सामने आया जब भारत सरकार ने हिंसा फैलने की आशंका में किसान आंदोलन से जुड़े कुछ अकाउंट्स और ट्ववीट्स को हटाने के निर्देश दिये थे। लेकिन तब ट्विटर ने पूरी तरह से इसके अनुपालन से इंकार कर दिया था।

मुश्किल बात यह है कि यह विदेशी कंपनियाँ भारत में काम करने के बावजूद पूरी तरह से भारतीय कानून के अधीन नहीं है और अक्सर अपनी वैश्विक नीतियों का हवाला देकर बच निकलती हैं। और बात सिर्फ यह नहीं है कि ये विदेशी कंपनियां भारत में प्रभाव बना रही हैं, बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी यह देश को बड़ा नुकसान पहुँचा रही हैं। उदाहरण के लिए, मेटा और एक्स जैसे प्लेटफार्म भारत में विज्ञापन से अरबों डॉलर कमाई करते हैं, लेकिन उनका एक बड़ा हिस्सा विदेशी देशों में चला जाता है। मेटा की इंडिया यूनिट की हाल की जारी आर्थिक रिपोर्ट के मुताबिक भारत से मेटा जिसमें फेसबुक, व्हाट्सअप, इंस्टाग्राम शामिल हैं, ने इस साल भारत से 22 हजार करोड़ रुपये से अधिक के राजस्व की कमाई की है। लेकिन इसका कोई प्रत्यक्ष लाभ सीधे भारतीय अर्थव्यवस्था को नहीं मिलता है।

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के अलावा एक बड़ी चुनौती इन कंपनियों के क्लाउड स्टोरेज और डेटा सेंटर्स को लेकर भी है। भारतीय सरकार और कंपनियाँ बड़े पैमाने पर गूगल ड्राइव, अमेजन एडब्लूएस, एजोर जैसे क्लाउड स्टोरेज पर निर्भर हैं, यानी भारत का संवेदनशील डेटा अपने देश में न होकर विदेशो में संग्रहित होता है। जो देश की सुरक्षा और संप्रभुता पर एक बड़ा खतरा है। जुलाई 2024 में माइक्रोसॉफ्ट के क्लाउड स्टोरेज में गड़बड़ी होने से पूरे देश का आईटी सिस्टम 12 घंटे के लिए ठप पड़ गया। अचानक आई एक तकनीकी खामी के कारण देश में डिजिटल बैंकिंग, रेलवे, मेट्रो, एयरपोर्ट्स, ऑनलाइन सेवाएं और कई अन्य महत्वपूर्ण प्रणालियां ठप पड़ गईं। जिससे ने केवल रोजमर्रा की जिंदगी घंटो प्रभावित रही बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को भी गहरा आघात पहुँचा। वहीं इस घटना से रूस और चीन पर कोई असर नहीं दिखाई दिया। दरअसल इन देशों ने 2002 के बाद अपनी स्वतंत्र तकनीकी संरचना विकसित की, जिसमें अपने क्लाउड सिस्टम, ऑपरेटिंग सिस्टम और सर्च इंजन शामिल हैं। चीन ने अपने डिजिटल प्रबंधन के लिए स्वेदेशी प्लेटफॉर्म्स जैसे वी-चैट, वीबो और डोइन जैसे एप्स को विकसित किया है। वहीं रूस ने वीके, ओड्नोकलास्निकी  जैसे प्लेटफॉर्म्स विकसित किये हैं। जो इन देशों को सूचना प्रवाह पर निगरानी रखने और अमेरिकी प्लेटफॉर्म्स पर निर्भर होने से बचाते हैं।  अब जरूरी यह है कि भारत को भी चीन और रूस की तरह अपना स्वेदशी सोशल मीडिया और डिजिटल ईकोसिस्टम बनाने की ओर कदम उठाना चाहिए।  हालांकि ऐसा नहीं है कि भारत में पहले कभी स्वदेशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स बनाने की कोशिश नहीं हुई, शेयरचैट और कू जैसे प्लेटफॉर्म्स ने एक समय भारतीय बाजार में अपनी पैठ बनाने की कोशिश की थी मगर लोगों और सरकार के अपेक्षाकृत कम समर्थन के कारण इनका वैश्विक दिग्गजों से मुकाबला करना बेहद चुनौतीपूर्ण हो गया।

तकनीकी नवाचारों के मामले में भारत की स्थिति में पिछले कुछ सालों में काफी सुधार आया है। हाल ही में आई ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स 2024 रैकिंग में 133 देशों में भारत ने 39वां स्थान हासिल किया है,जो देश की बढ़ती तकनीकी और डिजिटल क्षमता का प्रमाण है, हालांकि इसमें अभी भी काफी सुधार की आवश्यकता है। आज भारत में तकनीकी आत्मनिर्भरता की दिशा में कई बड़े कदम उठाये जा रहे हैं। आधार, यूपीआई और कोविन जैसे स्वदेशी प्लेटफॉर्म्स ने यह साबित कर दिखाया है कि हम तकनीकी चुनौतियों को कैसे संभाल सकते हैं। अगर भारत अपना तकनीकी इकोसिस्टम विकसित करता है तो यह देश पर थोपे जा रहे डिजिटल उपनिवेशवाद का मुकाबला करने के लिए कड़ा कदम होगा। क्योंकि डिजिटल उपनिवेशवाद केवल एक तकनीकी मुद्दा नहीं बल्कि एक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक चुनौती भी है। हमें अपनी डिजिटल संप्रभुता बनाए रखने के लिए डेटा की सुरक्षा, स्थानीय नवाचार का समर्थ और विदेशी तकनीकी कंपनियों की जवाबदेही सुनिश्चित करनी होगी। अब अगर हमने तकनीकी आत्मनिर्भरता की दिशा में कदम नहीं उठाए तो एक नया डिजिटल उपनिवेशवाद देश पर हावी हो सकता है।

  अमर उजाला में 07/08/2025  को प्रकाशित 


No comments:

पसंद आया हो तो