Monday, September 25, 2023

नाबालिगों के लिए इंटरनेट मीडिया पर सीमित पाबंदी

कर्नाटक हाई कोर्ट ने 19 सितंबर को अपनी एक टिप्पणी में कहा अगर नौजवानों और विशेषकर स्कूल के बच्चों के लिए सोशल मीडिया का प्रतिबंध लगा दिया जाए तो ये देश के लिए अच्छा होगा. इसके साथ ही कोर्ट ने सुझाव देते हुए ये भी कहा कि जिस उम्र में उन्हें वोट करने का अधिकार मिलता है तभी उन्हें सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने का मौका दिया जाना चाहिए. ये उम्र 21 या 18 हो सकती है| जस्टिस जी. नरेंद्र और जस्टिस विजयकुमार ए. पाटिल की खंडपीठ एक्स कॉर्प (पूर्व में ट्विटर) की अपील की सुनवाई कर रही थी. इसी दौरान ये टिप्पणी की गई. खंडपीड ने कहा, “स्कूल जाने वाले बच्चे सोशल मीडिया के आदी हो चुके हैं और ये देश के लिए अच्छा रहेगा कि उन पर पाबंदी लगाई जाए |लम्बे समय तक  स्क्रीन का मतलब घरों में सिर्फ टीवी ही  होता था पर आज उस स्क्रीन के साथ एक और स्क्रीन हमारी जिन्दगी का महत्वपूर्ण  हिस्सा बन गयी है वो है हमारे स्मार्ट फोन की स्क्रीन जहाँ मनोरंजन से लेकर समाचारों तक सब कुछ मौजूद है |

यह मोबाईल स्क्रीन अभिभावकों के लिए एक अंतहीन गुस्से का कारण बन रही है| एक तरफ बच्चे मोबाईल चाहते हैं दूसरी तरफ अभिभावक भले ही मोबाईल के लती बन चुके हैं और यह जानते हुए भी कि मोबाईल इंटरनेट में बहुत सी अच्छी चीजें बच्चों के लिए हैं, वे उन्हें देना भी चाहते हैं और नहीं भी ,यह सब मिलकर भारतीय घरों में  मानसिक द्वन्द का एक ऐसा वातावरण रच रहे हैं जिससे हर परिवार पीड़ित  है | हालांकि माध्यमों के चुनाव को लेकर भारतीय घरों में यह द्वन्द नया नहीं है पहले रेडियो सुनने फिर टीवी जब घर –घर पहुंचा तो ऐसा ही कुछ टेलीविजन के साथ हुआ कि टेलीविजन बच्चों को बिगाड़ देगा उन्हें ज्यादा टीवी नहीं देखना चाहिए ऐसी बहसें हर घर की कहानी हुआ करती थी पर मोबाईल स्क्रीन  की कहानी इन सब माध्यमों से अलग है |यह एक बहुत शक्तिशाली माध्यम है जिसके साथ फोन और कैमरा लगा हुआ है जो हमारी जेब में आ जाता है या यूँ कहें यह हमें व्यस्त रहने के लिए उकसाता है और फिर हमारे व्याकुलता के स्तर को बढ़ाता है और अंत में हमें अपना लती (व्यसनी )बना देता है |

बच्चों के मामले में यह स्थिति और गंभीर होती है क्योंकि मोबाईल एक माध्यम के रूप में  ज्यादा व्यक्तिगत और मांग पर उपलब्ध कंटेंट प्रदान करता है जो अंतर वैयक्तिक सम्बन्धों की गतिशीलता  को प्रभावित करता है अतः इससे दूर हो पाना किसी के लिए भी मुश्किल होता है | विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, जहां एक साल से कम उम्र के बच्चों को मोबाइल फोन और लैपटॉप जैसे किसी भी उपकरण के संपर्क में नहीं रखा जाना चाहिए, वहीं एक से पांच साल तक के बच्चों के लिए स्क्रीन टाइम एक दिन में एक घंटे से अधिक नहीं होना चाहिए। डब्ल्यूएचओ के अनुसार, 6-14 साल के लिए, अधिकतम स्क्रीन समय प्रति दिन छह घंटे होना चाहिए, लेकिन केवल तभी जब बच्चे ने ऑनलाइन शिक्षा प्राप्त की हो। अन्यथा, यह समय सीमा दो घंटे होनी चाहिए|एपलफोन  , माता-पिता को परिपक्व सामग्री तक पहुंच को प्रतिबंधित करने के लिए 'वयस्क वेबसाइटों को सीमित करें' विकल्प का चयन करने की भी अनुमति देता है। ये सीमाएं, जो गूगल के एंड्रॉइड ऑपरेटिंग सिस्टम का उपयोग करने वाले फोन पर भी मौजूद हैं, माता-पिता द्वारा एक पिन सेट करने पर निर्भर करती हैं जिसे केवल वे ही जानते हैं। कोलोरेडो विश्वविद्यालय,अमेरिका  के एक शोध में यह निष्कर्ष निकला है कि दुनिया के नब्बे प्रतिशत बच्चे (पांच साल से सत्रह साल की उम्र वाले )मोबाईल स्क्रीन पर ज्यादा समय बिता रहे हैं जिससे वे देर से सो रहे हैं और  उनकी नींद की गुणवत्ता  प्रभावित हो रही है नतीजा बच्चों की नींद और  एकाग्रता में कमी के रूप में सामने आता है|मोबाईल स्क्रीन से निकलने वाले  प्रकाश की  तरंग दैर्ध्य और गुणवत्ता,शरीर की आन्तरिक घड़ी और नींद लेने की प्रक्रिया पर असर डालती है जो शरीर के मेलाटोनिन हार्मोन को कम करता है यह हार्मोन ही हमारे शरीर को बताता है कि यह नींद लेने का समय है।स्क्रीन पहले की तुलना में लगातार छोटे होते जा रहे हैं इसलिए उनका इस्तेमाल व्यक्तिगत स्तर पर होता जा रहा है इसलिए बच्चों के लिए उनका इस्तेमाल ज्यादा आसान है जिस वक्त उन्हें सोना चाहिए वे मोबाईल पर वीडियो देख रहे होते हैं |

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बचपन और किशोरवस्था में अच्छी नींद का आना मोटापे के खतरे को कम करता है और बच्चों के संज्ञानात्मक व्यवहार को बेहतर करता है | इंटरनेट पर वीडियो देखे जाने की सुविधा का आगमन और अमेजन प्राईम वीडियो, नेट फ्लिक्स और यूट्यूब  जैसे वीडियो आधारित इंटरनेट चैनलों के आ जाने से स्क्रीन पर बिताया जाने वाला समय वीडियो कार्यक्रमों के लिए हमारी दिनचर्या का मोहताज नहीं रहा ,जब जिसको जैसे मौका मिले वो अपने मनपसन्द कार्यकर्मों का लुत्फ़ उठा सकता है,यह सुविधा अपने साथ कुछ समस्याएं भी ला रही है और इसका सबसे ज्यादा शिकार बच्चे हो रहे हैं जो देर रात तक अपने मनपसन्द कार्यक्रम मोबाईल पर देख रहे हैं | यह अलग बात है कि हम मोबाईल स्क्रीन के मोह में ऐसे बंधे हैं कि इस बात पर गौर ही नहीं कर पा रहे हैं कि हमारे बच्चे भी मोबाईल स्क्रीन के चंगुल में फंसते  जा रहे हैं| जो कि उनके स्वास्थ्य के लिए बिलकुल अच्छा नहीं है |भारत में इस माध्यम के इस्तेमाल का बहुत ज्यादा पुराना इतिहास नहीं है |एक ही वक्त में माता –पिता और बच्चे साथ -साथ इसके प्रयोग से परिचित हो रहे हैं |

इसका प्रभाव समाज के हर वर्ग पर पड़ रहा है और उसमें बच्चे भी शामिल हैं |मोबाईल स्क्रीन अब हमारे जीवन की सच्चाई है तो इससे काटकर हम अपने बच्चों को बड़ा नहीं कर पायेंगे तो इसके संतुलित इस्तेमाल का तरीका उन्हें सीखाया जाए उनकी दिनचर्या में शारीरिक गतिविधियों के खेल से लेकर पढने के अभ्यास तक का उचित सम्मिश्रण होना चाहिए |अब वक्त आ चुका है जब हमें तकनीक और उस पर उपलब्ध कंटेंट को अलग –अलग देखना सीखना होगा क्योंकि तकनीक कोई गलत या खराब नहीं होती उसके इस्तेमाल का तरीका सही या खराब होता है |जाहिर है जब माता –पिता का अपने बच्चों के साथ विश्वास का सम्बन्ध कायम  नहीं होगा तब तक वे  अपने बच्चों को मोबाईल के इस्तेमाल का सही तरीका नहीं सिखा पायेंगे|इस दिशा में इंटरनेट प्रदान करने वाली कम्पनियों को भी पहल करनी चाहिए जैसे कि सोते वक्त वाई-फाई राउटर अपने आप बंद हो जाए या उनमें चिल्ड्रेन मोड का एक विकल्प दिया जाए | इस तरह की व्यवस्था हो कि बच्चों द्वारा ज्यादा इस्तेमाल किये जा रहे एप रात में  न चले जैसे छोटे कदम बच्चों के मोबाईल इंटरनेट को व्यवस्थित कर सकते हैं |  

दैनिक जागरण में 25/09/2023 को प्रकाशित 

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