Thursday, June 3, 2010

ह्यूमन राइटस पर है बॉलीवुड की नज़र


हिंदी फिल्मों ने हमें सिर्फ इन्टरटेन ही नहीं किया है आम आदमी की ज़िन्दगी से जुड़े मुद्दों को भी फिल्मों में खूब दिखाया है . ह्यूमन राइटस भी इन इस्सुएस में से एक है .सोसाएटी में चेंज तभी आ सकता है .जब हम सब अपने राइटस के बारे में जानते हों .फिल्मों के जरिये कोई भी बात बहुत जल्दी और दूर तक पहुंचाई जा सकती है .यही वज़ह है कि फिल्मों में गानों में यह विषय काफी दिखा तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा इंसान की औलाद है इंसान बनेगा ये कोई साहित्यिक पंक्ति नहीं बल्कि एक हिंदी फिल्म का गाना है एक और बानगी देखिये हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेगे एक खेत नहीं एक बाग़ नहीं हम सारी दुनिया मांगेगे , इंसान का इंसान से हो भाईचारा यही पैगाम हमारा , "ये महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनिया ये इंसान के दुश्मन समाजों की दुनिया ये दौलत के भूखे रवाजों की दुनिया ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ". ऐसे एक नहीं सैकडों उदाहरन मिल जायेंगे जिससे पता चलता है कि हमारा फिल्म मीडिया जागरूक और सज़ग है वैसे ह्युमन राईट्स का युनिवर्सल दिक्लारेसन (Universal declaration ) बहुत बाद में आया लेकिन हमारी फिल्मों में मानवाधिकार से जुड़े कथानक हमेशा से प्रभावी भूमिका निभाते रहे .१९३२ में बनी चंडीदास और अछूत कन्या में छुवाछूत जैसे विषय को कहानी का मुख्य आधार बनाया गया. १९३६ में जे बी एच वाडिया द्वारा हिन्दू मुस्लिम एकता पर सबसे पहली फिल्म जय भारत का निर्माण किया गया १९३७ में प्रभात कंपनी ने दुनिया न माने फिल्म बनाई जिसका विषय बेमेल विवाह था .१९३८ में वी शांताराम ने पड़ोसी बनाई जो सांप्रदायिक सदभाव जैसे संवेदनशील विषय पर बनी थी .आज़ादी के बाद फिल्मों में प्रयोग तो हुए लेकिन इनकी संख्या कम ही रही इसके लिए फिल्मकारों की सोच से ज्यादा बाज़ार का अर्थशास्त्र और और दर्शकों की मानसिकता भी कम जिम्मेदार नहीं थी .मानवाधिकारों को फिल्म का विषय बनाने में बिमल रॉय का प्रगतिशील नजरिया पचास के दशक को ख़ास बनाता है जिनमे दो बीघा जमीन , नौकर , सुजाता , परख और बिराज बहू जैसी फ़िल्में शामिल हैं .मदर इंडिया , दो आँखें बारह हाथ और गरम कोट जैसी फ़िल्में आज भी हमारे फिल्मकारों को प्रेरणा देती हैं सस्ती तकनीक , इन्टरनेट और शिक्षा का फैलाव इन सब ने मिलकर नब्बे के दशक में एक ऐसा कोकटेल तैयार किये जिससे फ़िल्में थोड़ी और ज्यादा वास्तविकता के करीब आयीं मल्टी प्लेक्स कल्चर के बढ़ने से निर्माता रिस्क ज्यादा ले सकते हैं जिससे ज्यादा एक्स्परीमेंटल फ़िल्में बन रही हैं सस्ती तकनीक , इन्टरनेट और शिक्षा का फैलाव इन सब ने मिलकर नब्बे के दशक में एक ऐसा कोकटेल तैयार किये जिससे फ़िल्में थोड़ी और ज्यादा वास्तविकता के करीब आयीं मल्टी प्लेक्स कल्चर के बढ़ने से निर्माता रिस्क ज्यादा ले सकते हैं जिससे ज्यादा एक्स्परीमेंटल फ़िल्में बन रही हैं कोमर्शियल सिनेमा की अफरा तफरी के बीच आज भी सोशल इस्सुअस पर बेस फ़िल्में भी खूब बन रही हैं .नए डायरेक्टरस भी इन पर विश्वास कर रहे हैं ह्यूमन राइटस जैसे विषयों को फिल्मों के जरिये लोगों तक पहुँचाना ह्यूमन राइटस के प्रति लोगों को अवेर करना और अम्वेदंशीलता को बढ़ाना भी है .

आई नेक्स्ट में ३ जून को प्रकाशित

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