Thursday, August 29, 2013

आंकड़े होंगे आगे की पत्रकारिता का आधार

वाशिंगटन पोस्ट अख़बार के बिकने की ख़बर की घोषणा के बाद से ही अमरीकी मीडिया में अखबारों के भविष्य को लेकर बहस  जारी है  भारत के लिए भी यह बड़ा सबक है अखबारों को जो हाल आज अमेरिका में है वो आने वाले सालों में भारत का भी होगा|इंडियन रीडरशिप सर्वे के चौथी तिमाही के रिपोर्ट के अनुसार भारत के शीर्ष दस हिंदी दैनिकों की औसत पाठक संख्या में 6.12 प्रतिशत की गिरावट आयी है वहीं अंग्रेजी दैनिकों में गिरावट की दर 4.75 प्रतिशत रही.पत्रिकाओं में यह गिरावट सबसे ज्यादा 30.15 प्रतिशत रही|बढ़ता डिजीटलीकरण और सूचना क्रांति ने अखबारों की दुनिया बदल दी है| पत्रकारिता के जिस रूप से हम परिचित हैं वह दिन-प्रतिदिन बदलता जा रहा है जब विभिन्न वेबसाईट  और वेब न्यूज़ पोर्टल पल-पल खबरें अपडेट कर रहे हैं तो समाचार पत्रों की प्रासंगिकता पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है।कल के अखबार की खबरें यदि पाठक आज ही इंटरनेट के माध्यम से प्राप्त कर सकता है तो फिर कल के अखबार की जरूरत ही क्या है पर भारत के संदर्भ में जहाँ निरक्षरों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है और अखबारों से नए पाठक जुड रहे हैं स्थिति अमेरिका जितनी गंभीर नहीं पर चुनौती कोई भी क्यूँ ना हो अपने साथ अवसर भी लाती है भारत के अखबारों का कंटेंट और उसके प्रस्तुतीकरण का तरीका भी तेजी  से बदल रहा है प्रिंट और डिजीटल दोनों का तालमेल हो रहा है|इस बदलाव में बड़ी भूमिका आंकड़े निभा रहे हैं वो चाहे पाठकों की प्रष्ठभूमि को जानकर उसके अनुसार सामग्री को प्रस्तुत करना हो या समाचार या लेखों में आंकड़ों को शीर्ष भूमिका में रखकर कथ्य को इन्फो ग्राफिक्स की सहायता से दर्शनीय और पठनीय बना देना |अखबार के डिजीटल संस्करण इन आंकड़ों के बड़े स्रोत बन रहे हैं| वर्ल्ड वाइड वेब के जनक सर टिम बरनर्स ली का ये कथन कि ‘डाटा (आंकड़ों) का विश्लेषण ही पत्रकारिता का भविष्य है’ | विकिलीक्स और सूचना के अधिकार के इस दौर में जहां लाखों आंकड़ें हर उस व्यक्ति के लिए उपलब्ध हैं जो वास्तव में उनके  बारे में जानने का इच्छुक है वहाँ उन आंकड़ों को समाचार रूप में प्रस्तुत करना एक चुनौती है।आंकड़ा पत्रकारिता, पत्रकारिता का वह स्वरूप है जिसमें विभिन्न प्रकार के आंकड़ों का विश्लेषण करके उन्हें समाचार का रूप दिया जाता है। विकिलीक्स और सूचना के अधिकार के इस दौर में जहां लाखों आंकड़ें हर उस व्यक्ति के लिए उपलब्ध हैं जो वास्तव में उनके  बारे में जानने का इच्छुक है वहाँ उन आंकड़ों को समाचार रूप में प्रस्तुत करना एक चुनौती है। एक बात जो पत्रकारों और पत्रकारिता के पक्ष में जाती है वह यह है कि भले ही आंकड़ें सबके अवलोकन के लिए उपलब्ध हैं पर उनका विश्लेषण कर उनसे अर्थपूर्ण तथ्य के लिए अखबार अभी भी एक विश्वसनीय जरिया हैं|वेबसाईट और पोर्टल पर समाचार का संक्षिप्त या सार रूप ही दिया जाता है क्यूंकि डिजीटल पाठक सरसरी तौर पर सूचनाओं की जानकारी चाहते हैं जिससे वे अपडेट रहे हैं वहीं दूसरी ओर कम्प्यूटर स्क्रीन और स्मार्ट फोन की स्क्रीन भी तथ्यों के प्रस्तुतीकरण में एक बड़ी बाधा बनती है और शायद इसीलिये आंकड़ों का बेहतरीन विश्लेषण अखबार के पन्नों में होता है जहाँ पढ़ने के लिए माउस के कर्सर या टच स्क्रीन को सम्हालने जैसी कोई तकनीकी समस्या नहीं होती है |
समाचार पत्र इस तरह की किसी तकनीकी सीमा से मुक्त हैं और चौबीस घंटे में एक बार पाठकों तक पहुँचने के कारण उनके पर्याप्त समय भी रहता है,जिससे आंकड़ों का बहुआयामी विश्लेषण संभव हो पाता है|त्वरित सूचना के इस युग में आंकड़ा आधारित  पत्रकारिता का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि महज़ सूचना या आंकड़ें उतने प्रभावशाली नहीं होते हैं जितना की उनका विश्लेषण और उस विश्लेषण द्वारा निकले गए वह परिणाम जो आम जनता की ज़िंदगी पर प्रभाव डालते हैं। बात चाहे खाद्य सुरक्षा बिल की हो या मनरेगा जैसी योजनाओं सभी में आंकड़ों का महत्वपूर्ण रोल रहा है सरकार अगर आंकड़ों की बाजीगरी कर रही है तो जनता को व्यवस्थित तरीके से आंकड़ा पत्रकारिता के जरिये  ही बताया जा सकता है कि ये असल में देश की तस्वीर कैसी बन रही है|इसमें को संशय नहीं कि भविष्य में हमारे पास जितने ज्यादा आंकड़े होंगे हम उतना ही सशक्त होंगे पर पाठकों को बोझिल आंकडो के बोझ से बचाना भी है और उन्हें सूचित भी करना है और इस कार्य में भारत में अभी भी समाचार पत्र अग्रणी हैं|
आंकड़ा  पत्रकारिता पाठकों अथवा दर्शकों को उनके महत्व की जानकारी प्राप्त करने में मदद करती है, एक ऐसी कहानी सामने  लाती है जो ध्यानयोग्य है और पहले से जनता की जानकारी में नहीं है और पाठकों को एक गूढ विषय को आसानी से समझने में मदद करती है। दुनिया के बड़े मीडिया समूहों जैसे द गार्डियन, ऑस्ट्रेलियन ब्रोडकास्टिंग कार्पोरेशन ने इसपर विशेष ध्यान देना शुरू कर दिया है।माना जा रहा है कि वाशिंगटन पोस्ट ने वर्षों  से पंजीकरण द्वारा अपने पाठकों के बारे में जो आंकड़े जुटाएं है उसका इस्तेमाल कर अखबार अपनी लोकप्रियता और प्रसार दोनों बढ़ाएगा,यानि डिजीटल प्लेटफोर्म का इस्तेमाल अख़बारों की सामग्री को बेहतर करने के लिए  पाठकों की रुचियों और आवश्यकताओं को जानना जरूरी है और इसमें आंकड़ों का प्रमुख योगदान है| द गार्डियन ने तो अपने विशेष डेटा ब्लॉग के जरिये आडियन्स के बीच अच्छी ख़ासी पकड़ बना ली है। हालांकि की कुछ लोग यह भी मानते हैं की डेटा पत्रकारिता वास्तव में पत्रकारिता ही नहीं है पर यदि इसे थोड़ा करीब से देखा जाये तो किसी को भी इसे पत्रकारिता मानने में गुरेज नहीं होना चाहिए। डेटा पत्रकारिता सामान्य पत्रकारिता से केवल इस माने में भिन्न है कि इसमें जानकारी जुटाने के लिए अधिक भाग दौड़ नहीं करनी पड़ती है पर आंकड़ों के अथाह सागर में से काम के आंकड़े निकालना भी कोई आसान काम नहीं है। डेटा पत्रकारिता के लिए समाचार का विशिष्ट होना आवश्यक है। इसके लिए आवश्यक है एक मजबूत संपादकीय विवरण जिसके पास आकर्षक ग्राफिक्स और चित्रों का समर्थन हो।  भारत इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण इसलिए है कि यहाँ स्थितियां अमेरिका जैसी नहीं है जहाँ इंटरनेट का साम्रज्य फ़ैल चुका है यहाँ डिजीटल और प्रिंट माध्यम दोनों साथ साथ बढ़ रहे हैं  वो भी एक दूसरे की कीमत पर नही दोनों को अपने दायरे हैं अगर प्रिंट के पाठक कम हो रहे हैं तो नए पाठकों जुड भी रहे हैं नए प्रिंट के पाठक जल्दी ही डिजीटल मीडिया के पाठक हो रहे हैं जिसमें ग्रामीण भारत बड़ी भूमिका निभा रहा है|तथ्य यह भी है की सूचना क्रांति के बढ़ते प्रभाव और सूचना के अधिकार जैसे  कानून के कारण आंकड़े तेजी से संकलित और संगठित किये जा रहे हैं वहां ख़बरों के असली नायक आंकड़े हैं जो पल पल बदलते भारत की वैसी ही तस्वीर आंकड़ों के रूप में हमारे सामने पेश कर रहे हैं तो अब समाचार तस्वीर के दोनों रुख के साथ साथ ये भी बता रहे हैं कि अच्छा कितना अच्छा है और बुरा कितना बुरा है |
राष्ट्रीय सहारा में 29/08/13 को प्रकाशित 

Wednesday, August 21, 2013

राखी

राखी का त्यौहार निकट आया 
मेरा ह्रदय प्रसन्नता से भर आया 
मैं दौड कर पहुंचा मान के पास 
हर्षित मन से पूछा प्रश्न सोल्लास 
माँ "मेरे कौन बांधेगा राखी ?
मेरे इस प्रश्न पर छाई माँ के चेहरे पर उदासी
मैं उदासी का मतलब समझ गया
और मन मसोस कर रह गया
शायद भगवान को यही मंजूर था
मुझे बहन का प्यार पाना नामंजूर था
(साल 1990 था पर किस दिन लिखी थी याद नहीं ये कवि
ता ......

Sunday, August 18, 2013

खाद्य सुरक्षा तो देंगे पर साफ़ सफाई की नहीं


खाद्य सुरक्षा बिल पर उठा पटक जारी है इस अध्यादेश के कानून बन जाने के बाद देश भुखमरी की समस्या से निपट पायेगा और अपने मानव संसाधन को बेहतर बना पायेगा इस कार्यकर्म के अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्र में इस विधेयक के दायरे में 75 प्रतिशत आबादी आएगी, जबकि शहरी क्षेत्र में इस विधेयक के दायरे में 50 प्रतिशत आबादी आएगी,जिसे सरकारबहुत कम दामों में चावल, गेहूं और दूसरे अनाज उपलब्ध करायेगी,लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू ये भी है कि खाद्य  सब्सिडी भारत में और विशेषकर ग्रामीण इलाकों में खराब साफ-सफाई की समस्या को नज़रअंदाज़ करती है। भारत दुनिया का सबसे बड़े  खुले  शौचालय वाला देश है जहाँ दुनिया के लगभग साठ प्रतिशत लोग खुले में शौच करते हैं और उनके  मल के उचित प्रबंधन की कोई व्यवस्था नहीं है ग्रामीण इलाके अभी भी खुले में शौच के लिए अभिशप्त है अंदाजा लगाया जा सकता है स्थिति कितनी शोचनीय जिसमे बांग्लादेश ,नेपाल ,पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे देशभी खुले शौचालय के मामले में हमसे बेहतर स्थिति में है |शौचालयों के न होने का अर्थ है  लोग खुले में शौच करने के लिए मजबूर हैं जिससे बच्चों में जीवाणु संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है, जो छोटी आंतों को नुकसान पहुंचा सकता है जिससे बच्चों के बढ़ने, विकास के लिए आवश्यक पोषक तत्वों को लेने  की क्षमता या तो कम हो जाती है या रुक जाती है, तो  इससे कोई असर  नहीं पड़ता कि उन्होंने कितना भोजन खाया है।कुपोषण एक स्वास्थ्य समस्या के साथ भारत के संदर्भ में एक सांस्कृतिक जटिलता भी है जहाँ खुले में शौच को सामजिक मान्यता  मिली हुई है पर इस मान्यता से कितनी तरह की स्वाश्य समस्याएं पैदा हो रही हैं इस ओर लोगों का ध्यान कम ही जाता है|यूनिसेफ कहता है कि भारत में 61.7 मिलियन बच्चे नाटे हैं, जो दुनियाभर में सबसे ज्यादा है। सरकारी आंकड़ों  के हिसाब से पांच वर्ष से कम आयु के करीब 20 फीसदी बच्चे अपने कद के हिसाब से कमज़ोर अथवा काफी पतले हैं।इकॉनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकशित एक  पेपर में यूनिवर्सिटी ऑफ सूसेक्स और यूनिसेफ के ग्रेगोर वॉन मेडीज़ा ने कहा कि स्वच्छता और कम पोषण के बीच संबंध को व्यापक तौर पर अनदेखा किया जाता है, उन्होंने इसे ‘अंधा बिन्दु’ कहा है जिसको व्यापक संदर्भ में नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए|स्वच्छता के बारे में ना तो जागरूकता है और ना ही ये हमारी प्राथमिकता में है|वेल्लोर के क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज के प्रोफेसर गगनदीप कांग, का  अध्ययन इस बात पर प्रकाश डालता है कि रोगाणु बच्चों की अंतड़ियों को कैसे नुकसान पहुंचाते हैं, जो फलत: कुपोषण की तरफ ले जाता है यानि सफाई और कुपोषण के बीच संबंध है हम कुपोषण की समस्या से सिर्फ खाद्य उपलब्धता सुनिश्चित करा कर नहीं लड़ सकते यानि सिर्फ स्वच्छता से लोग कुपोषित नहीं होगें और  ना ही सिर्फ  भोजन से प्रत्येक बच्चे का समुचित विकास हो सकता है। दोनों का उचित मिश्रण ज़रूरी है|दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स के एक अतिथि प्रोफेसर डीन स्पीयर्स के शोध के मुताबिक जिन भारतीय ज़िलों में शौचालय हैं, वहां बौने बच्चों की संख्या कम है।2011 के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि जिन भारतीय बच्चों को दस्त लगे हैं, उनमें करीब 80 फीसदी शौच करने के बाद साबुन से हाथ साफ नहीं करते| विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार भारत  कि पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों के कुपोषित होने की मुख्य वजह दस्त है। विश्व में प्रत्येक वर्ष इस उम्र वर्ग के 800,000 से ज्यादा बच्चों की दस्त से मृत्यु होती है,और  इनमें से एक चौथाई मौतें भारत में होती हैं| इसका सीधा सा मतलब  है कि स्वच्छता योजनाओं और खाद्य सुरक्षा पर संतुलित निवेश किया जाए और इस दोतरफा निवेशन से ही ग्रामीण भारत का मानव संसाधन बेहतर हो पायेगा|भारत के नन्हे बालको का भविष्य तभी सुरक्षित  है जब उनकी मुट्ठियाँ साफ़ और कीटाणु रहित होंगी| हैं। सरकार भोजन की उपलब्धता की गारंटी तो सुनिश्चित कर रही है पर वो भोजन कैसा होगा और किन पर्यावासों में उसका उपयोग किया जाएगा यह तथ्य पूरी तरह से नजरंदाज किया जा रहा है|
गाँव कनेक्शन साप्तहिक के 18/08/13के अंक में 

Saturday, August 17, 2013

भोजन देने भर से नहीं मिटेगा कुपोषण

संसद के इस सत्र में खाद्य सुरक्षा विधेयक पारित हो जाता है तो हो सकता है कि हम भुखमरी की समस्या से भी कुछ हद तक निजात पा लें। परंतु एक समस्या जिसपर किसी का भी ध्यान नहीं जाता है वह समस्या है कुपोषण की। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार भारत कुपोषित बच्चों की संख्या के मामले में विश्व में दूसरे स्थान पर है। भविष्य की विश्व शक्ति होने का सपना देखने वाले देश जिसे अपने जनसांखयकी लाभांश पर बहुत गर्व है के लिए यह एक बेहद चिंताजनक बात है। यूनिसेफ के अनुसार भारत में लगभग सात करोड़ बच्चे सामान्य कद से काफी छोटे हैं। यह संख्या दुनिया में सर्वाधिक है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में तकरीबन बीस प्रतिशत अपने कद के अनुपात में काफी कमज़ोर और दुबले-पतले हैं। 2012 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स के आंकड़ों के मुताबिक कम वज़न के बच्चों के मामले में भारत बांग्लादेश और तिमोर जैसे अल्प विकसित देशों के साथ खड़ा नज़र आता है। हमारे देश में पाँच वर्ष से कम के लगभग 44 प्रतिशत बच्चे सामान्य से कम वज़न के हैं। वर्ष 2005 से 2010 के बीच इन आंकड़ों में हमारी स्थिति इथियोपिया, नाइज़र,  नेपाल और बांग्लादेश से भी खराब थी। हालांकि विगत कुछ वर्षों से भारत ने इस समस्या से निपटने के लिए कई कदम उठाए है पर सही क्रियान्वयन औरविश्वसनीय  जानकारी के अभाव में वे सभी कदम नाकाफी साबित हुए हैं। ग्लोबल हंगर इंडेक्स के अनुसार भुखमरी से पीड़ित 80 देशों में भारत 67वें स्थान पर है जो कि एक अत्यंत ही चिंताजनक स्थिति है। एक मिथ जिससे हमारी सरकारें और शासकीय तंत्र ग्रसित है वह यह है कि मात्र आर्थिक विकास से ही कुपोषण की समस्या से निपटा जा सकता है। यदि हम अपने देश के सर्वाधिक विकसित राज्यों में से एक गुजरात की बात करें तो सच्चाई खुद् ब खुद ही सामने आ जाएगी। गुजरात में 45 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। खुद सरकारी आंकड़ें ये मानते हैं की गुजरात में पाँच वर्ष से कम का हर दूसरा बच्चा कम वज़न वाला है। इन आंकड़ों से यह साफ हो जाता है की केवल आर्थिक विकास से ही कुपोषण की समस्या से नहीं निपटा जा सकता है। इसके लिए आवश्यकता है जन केन्द्रित प्रयासों की जिसमें लोगों को इस दिशा में जागरूक करने जैसे विकल्पों पर ज्यादा जोर देने की आवयश्कता है| कुछ राज्य सरकारों ने इस दिशा में कदम उठाने शुरू किए हैं। कर्नाटक  सरकार जल्द ही तीन से छह वर्ष की उम्र के बच्चों में कुपोषण की समस्या से निपटने के लिए आंगनवाड़ी केन्द्रों के माध्यम से दूध वितरण की योजना लागू करने जा रही है।छत्तीसगढ़ सरकार भी बच्चों में कुपोषण की समस्या से निपटने के लिए फुलवारी नामक योजना की शुरुआत करने जा रही है। इन योजनाओं का हश्र चाहे जो भी हो पर इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि यह साराहनीय प्रयास हैं और हमारे देश को ऐसी अनेकों योजनाओं की जरूरत है। खाद्य एवं कृषि संस्था (एफ ए ओ) के अनुसार भारत की लगभग 22 प्रतिशत आबादी कुपोषित है। राष्ट्रीय  परिवार स्वास्थ्य सर्वे के अनुसार भारत में पाँच वर्ष से कम आयु के लगभग 48 प्रतिशत बच्चे बौनेपन और लगभग 43.5 प्रतिशत बच्चे कम वजन की समस्या से ग्रसित हैं। एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था द्वारा 1970 से 1976 के बीच 63देशों में कराये गए एक सर्वे के अनुसार उस दरमयान उन देशों में कुपोषण में जो कमी आई उसका एक प्रमुख कारक महिलाओं की साक्षारता दर में वृद्धि थी। हमारे देश में भी महिलाओं का निरक्षर होना और पर्याप्त साफ़ सफाई का न होना बच्चों में कुपोषण का एक बड़ा कारक है। सरकार के लिए देश के इतने बच्चों का क़द गिरने से अधिक रुपये का गिरना महत्वपूर्ण रहा। बच्चियों के संदर्भ में हालात और भी बदतर हैं जहां गाँवो में तेजी से बढ़ती लड़कियों की ख़ुराक इसलिए कम कर दी जाती कि वे ज़्यादा बड़ी ना लगें|भारत दुनिया का सबसे बड़ा खुला शौचालय वाला देश है जहाँ दुनिया के साठ प्रतिशत लोग खुले में शौच करते हैं और उस मल के उचित प्रबंधन की कोई व्यवस्था नहीं है अंदाजा लगाया जा सकता है स्थिति कितनी शोचनीय है| जिसमे बांग्लादेश ,नेपाल ,पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे देशभी खुले शौचालय के मामले में हमसे बेहतर स्थिति में है|शौचालयों के न होने का अर्थ है  लोग खुले में शौच करने के लिए मजबूर हैं जिससे बच्चों में जीवाणु संक्रमण का खतरा बढ़ जाता हैजो छोटी आंतों को नुकसान पहुंचा सकता है जिससे बच्चों के बढ़नेविकास के लिए आवश्यक पोषक तत्वों को ग्रहण  करने की क्षमता या तो कम हो जाती है या रुक जाती हैतो  इससे कोई असर  नहीं पड़ता कि उन्होंने कितना भोजन खाया है।कुपोषण एक स्वास्थ्य समस्या के साथ भारत के संदर्भ में एक सांस्कृतिक जटिलता भी है जहाँ खुले में शौच को सामजिक मान्यता  मिली हुई है पर इस मान्यता से कितनी तरह की स्वाश्य समस्याएं पैदा हो रही हैं इस ओर लोगों का ध्यान कम ही जाता है|इकॉनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित एक शोध पत्र  में यूनिवर्सिटी ऑफ सूसेक्स और यूनिसेफ के ग्रेगोर वॉन मेडीज़ा ने यह निष्कर्ष निकाला है कि स्वच्छता और कम पोषण के बीच संबंध को व्यापक तौर पर अनदेखा किया जा रहा है|विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार भारत  कि पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों के कुपोषित होने की मुख्य वजह दस्त है। विश्व में प्रत्येक वर्ष इस उम्र वर्ग के 800,000 से ज्यादा बच्चों की दस्त से मृत्यु होती है,और  इनमें से एक चौथाई मौतें भारत में होती हैं| इसका सीधा सा आशय यह है कि स्वच्छता योजनाओं पर अंधाधुँध पैसा बहाने के बजाय लोगों को जागरुक करने के लिए संवेदनशील क़दम उठाये जायें। नन्हें मुन्हों की मुट्ठी में उनका भविष्य तभी सुरछित है जब उनकी मुट्ठियाँ साफ़ और कीटाणु रहित होंगी|कुपोषण के विभिन्न आयाम हैं। स्वछता, साफ पीने के पानी की उनुपलब्धता, शौचालयों की कमी एवं मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी भी कुपोषण के कुछ प्रमुख कारक हैं। सरकार भोजन की उपलब्धता की गारंटी तो सुनिश्चित कर रही है पर वो भोजन कैसा होगा और किन पर्यावासों में उसका उपयोग किया जाएगा यह तथ्य पूरी तरह से नजरंदाज किया जा रहा है|
राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित लेख 17/08/13 को

Tuesday, August 13, 2013

क्योंकि मैं झूठ नहीं बोलता

अच्छा भाई लोगों ये बताया जाए की फेसबुक पर आप किस की फोटो ज्यादा लाईक करते हैं लड़के की या लडकी की अरे दिमाग मत लगाइए मैं कोई जेंडर का मसला नहीं उठाने जा रहा हूँ तो टेल पर इस बात का ध्यान रहे ये पब्लिक फॉर्म है सब आपके दिल की बात जान जायेंगे अरे कह दीजिये न लड़कियों की उफ़ नहीं मानेंगे न शर्माने की क्या बात है आप जानते हैं ये पब्लिक फोरम है तो थोडा स्मार्ट बन लिया जाए और हल्का सा झूठ बोल दिया जाए नहीं,नहीं मैं लड़कियों की फोटो नहीं ज्यादा लाईक करता प्रोफाईल पिक देख कर फ्रैंड रिक्वेस्ट नहीं भेजता,झूठ आप बोल रहे हैं या मैं इसका फैसला बाद में लेकिन  मोबाईल फोन और इंटरनेट  हमारे जीवन में बहुत सी सहूलियतें लाया है पर आप माने न माने मोबाईल ने हमें झूठ बोलना भी खूब सिखा दिया है लेकिन ये मुआ इंटरनेट भी न कुछ भी सीक्रेट रहने नहीं देता. हमारे दिमाग में क्या चल रहा है वो सबको बता देता है पर हम हैं कि फिर भी बाज नहीं आते झूठ बोलने से. झूठ बोलना एक कला है जो सदियों से चली आ रही है जिसका एक रूप बहाना बनाना भी है.वो दौर गया कि आप बीमार होने का बहाना बना कर दिन भर मजा करें पर आज बीमार होने का स्टेटस डालकर दिनभर लोगों से सिम्पैथी बटोरते हुए कमेन्ट का जवाब दे रहे हैं तो लोग आपका झूठ पकड़ लेंगे की आप कितने बीमार हैं. हम दूसरों से झूठ बोलने के साथ कब अपने आप से झूठ बोलना शुरू कर देते हैं ये हमे जब तक समझ में आता है जिन्दगी आगे बढ़ चली होती है और हम हाथ मलते टाईप की हरकत करते रह जाते हैं.मैं आपको प्रवचन नहीं दूंगा कि झूठ बोलना पाप है पर जब आप अपने आप से झूठ नहीं बोलेंगे तो किसी से भी नहीं बोलेंगे तो झूठ बोलने के बहाने आप अपने आप से झूठ बोलने की शुरुवात कर रहे होते हैं.मैं अक्सर ऐसे लोगों से मिलता हूँ जो जिन्दगी में आगे बढ़ना चाहते हैं नाम कमाना चाहते हैं पर अपने आप से झूठ बोलते हैं और जब काम नहीं कर पाते तो फिर एक बहाना तैयार अगर ऐसा होता तो काम हो जाता, कोई मुझे समझता नहीं,जो आप समझ रहे हैं वैसा कुछ नहीं है वगैरह वगैरह पहले इस्तेमाल करें फिर विश्वास करें जी हाँ आप माने या न माने नॉलेज सोसाइटी के इस युग में कोई ज्ञान लेना नहीं चाहता स्कूल और कॉलेज में इतना कुछ बताया जा रहा है और जो नहीं बताया जा रहा है वो सब गूगल पर है. जो कहीं नहीं बताया,सिखाया  जा रहा है वो है झूठ बोलना,फिर भी हम सीख जाते हैं.अब यूँ की मैं इस बहस में नहीं पडूंगा की कब झूठ बोलना,बहाने बनाना  ठीक है कब नहीं क्यूंकि सब स्मार्ट हैं पर झूठ तो झूठ ही न कहें यूँ होता तो क्या होता पर जिन्दगी जीने की कोई शर्तें नहीं होती आप अपना बेस्ट दीजिये और जिन्दगी आपके हिसाब से आपको बेस्ट देगी पर होता ये है कि झूठ बोलते बोलते हम अपने आप को भी बेवकूफ बनाते रहते हैं हमारे एक मित्र हैं उन्हें चैटिंग करने में बहुत मजा आता है मैंने उनसे पूछा की दिन भर चैटिंग करते हो तो काम कब करते हो बोले वो तो मैं कर लेता हूँ और वो कौन से लोग हैं जो दिन भर खाली रहते हैं जो आप से बतियाते हैं वो नाराज हो गये बोले आपका दिमाग खुराफाती है.जाहिर वो अपने आप से झूठ बोल रहे हैं. एक वक्त में एक ही काम अच्छा हो सकता है जब आप अपने करियर के शुरुवाती दौर में हो तो चैटिंग आपको आपके काम से डीस्ट्रेक्ट करती है. काम जरुर आप कर लेंगे चैटिंग के साथ, पर वो उतना अच्छा नहीं होगा.तो आज के लिए इतना ही सीधी बात नो बकवास हाथ मलने रह जाने से बेहतर है अपनी जिन्दगी पर जम रही झूठ की मैल को साफ़ करते रहा जाए वो भी डायरेक्ट दिल से.तो अब बताइए झूठ कौन बोल रहा है आप या मैं 
आई नेक्स्ट में 13/08/13 को प्रकाशित  

Friday, August 2, 2013

चलो आज किसी पर मर के देखा जाए

डूड व्हाट्सअप फीलिंग लो, टेंशन नॉट मेरे पास आपकी टेंशन दूर करने का एक नुस्खा है फ्री की सलाह दे रहा हूँ मैं जब लो फील करता हूँ तो गाने सुनता हूँ और तुरंत फीलिंग हैप्पी वाला मामला हो जाता है  फिर गाने तो मूड बना ही देते हैं.मैं आजकल रमैया वस्ता वाईया का गाना  खूब सुन रहा हूँ  “जीने लगा हूँ पहले से ज्यादा तुम पर मरने लगा हूँ” आप कहेंगे मैं कौन सा बड़ा काम कर रहा हूँ .कहानी में सस्पेंस है मैं नए गाने कम ही सुनता हूँ हमें तो ज्यादा अच्छा फिल्म गाईड का ये गाना लगता है “आज फिर जीने की तमन्ना है आज फिर मरने का इरादा है” आपने नोटिस किया दोनों गाने में मर कर जीने की बात की जा रही है लेकिन फिर भी कितनी हैप्पीनेस है क्यूंकि वो प्यार में मर रहे हैं.पर जिन्दगी में कभी कभी कुछ ऐसा हो जाता है कि मूड ठीक ही नहीं होता यू नो लाईक ब्रेकअप  बात ज्यादा पुरानी भी नहीं है बॉलीवुड अभिनेत्री जिया खान ने आत्महत्या कर ली जस्ट बिकॉज ऑफ़ ब्रेकअप जिया ने इतने कम समय में फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनायीं थी उससे साफ़ पता चलता है कि वो एक ख्वाहिशमंद और प्रतिभाशाली अभिनेत्री थीं...पर प्यार में मिली नाक़ामी के आगे उसके सारे सपने हार मान गए जो उसे ख़ुदकुशी तक ले गए...ये जिया कि हार नहीं थी ये हार थी उसके सपनों की....उसने किसी और के प्यार में मरने के बजाय ज़िंदगी में मरना सीखा.जो हारे हुए इंसान का फैसला था.अरे आप हमेशा इश्क वाले लव के चक्कर में पड़ कर क्यूँ घनचक्कर बन जाते हैं जिंदगी में और भी रिश्ते हैं जिनको हमारी जरुरत होती है. मरना ,जिंदगी के साथ अन्याय है क्यूंकि जी रहे हैं तभी तो मर रहे हैं किसी के प्यार में. तो जब तक जिंदगी जीयेंगे नहीं किसी के प्यार में कैसे मरेंगे.रिश्ते कभी एक जैसे नहीं रहते उनका एहसास, उनका रूप बदलता रहता है तो अगर आपको आपके प्यार का जवाब,प्यार से नहीं मिल रहा है तो कोई बात नहीं ये तो आप भी मानते हैं न कि जो होता है अच्छे के लिए होता है.आप जिसके प्यार में पागल होकर मरने की सोच रहे हैं वो आपके लायक था ही नहीं तो अच्छा ही हुआ न क्यूंकि ऐसे लोग आपके जीवन में रहते तो और ज्यादा टेंशन देते तो आपको ब्रेकअप की पार्टी कर डालनी चाहिए न कि अपने अंदर सुसाइडल टेंडेंसीज को पैदा होने देना चाहिए. प्यार की पींग जिंदगी की जंग में किसी पर मर कर ही बढ़ाई जा सकती है न कि खुद को मारकर. जिंदगी के सफ़र में हर क़दम पर आपको नयी चाल चलनी होती है...आगे बढ़ने का रास्ता तैयार करना होता है..जिसके लिए सबसे जरूरी है जिंदा रहना. दौड़ में जितने लम्बे समय तक बने रहेंगे.....उतने ज्यादा दांव आप पर लगेंगेऔर तब आपके काम यही अनुभव आयेंगे. सिर्फ़ फिल्मों में ही नहीं असल ज़िंदगी के भी कई ऐसे किस्से हैं,इमरोज़ और अमृता प्रीतम के के इश्क को आज भी इमरोज़ अकेले जी रहे हैया फिर सबसे हालिया अभिनेत्री श्वेता तिवारी से जुडी घटना से सबक लीजिये जिन्होंने अपनी जिंदगी में राजा चौधरी को छोड़कर आगे बढ़ने का फैसला किया और अपने करियर को आगे बढ़ा रही हैं. नीना और क्रिकेटर विवियन रिचर्ड्स हों या रतन टाटा.ये सब प्यार में पड़े और असफल भी रहे.अगर कहें कि प्यार में मिली असफलता ही इनकी ताक़त बन गयी तो गलत न होगा.प्यार की असफलता को जिंदगी की सफलता से जोड़ दीजिए और फिर देखिये कि आप पर मरने वाले कितने लोग हो जायेंगे लेकिन इसके लिए थोडा इन्तजार करना होगा क्यूंकि सफलता नूडल्स की तरह दो मिनट में तैयार नहीं होती हैं .जहाँ इश्क की राहें जुदा हो जाएँ.उसे सूफ़ियाना मोड़ देकर छोड़ दीजिये. डर्टी पिक्चर का वो गाना याद करिए तो जरा ...तेरे वास्ते मेरा इश्क सूफ़ियाना.ताकि जब भी कभी फुरसत के लम्हे मिलें तो यही यादें आकर आपकी पीठ सहलाएं.चलिए किसी पर मरा जाए तभी तो जिंदगी जीने का मजा आएगा.प्यार बांटते चलिए.
आई नेक्स्ट में 2/08/13 को प्रकाशित 

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