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Saturday, November 26, 2022

तकनीक है असली खलनायक


 

श्रद्धा हत्याकांड यूँ तो महिलाओं के प्रति होने वाले वीभत्स अपराधों में से एक माना जाएगा |इसकी समाज शास्त्रीय विवेचना में हम इस हत्याकांड में तकनीक के हस्तक्षेप को नजरंदाज नहीं कर सकते | मानव सभ्यता के ज्ञात इतिहास में किसी और चीज ने नहीं बदला है ,यह बदलाव बहु आयामी है बोल चाल  के तौर तरीके से  शुरू हुआ यह सिलसिला  खरीददारी  ,भाषा  साहित्य  और  हमारी अन्य प्रचलित मान्यताएं और परम्पराएँ  सब  अपना रास्ता बदल रहे हैं। यह बदलाव इतना  तेज है कि इसकी नब्ज को पकड़  पाना समाज शास्त्रियों  के लिए भी आसान नहीं है  और  आज इस तेजी  के मूल में “एप” ( मोबाईल एप्लीकेशन ) जैसी यांत्रिक  चीज  जिसके माध्यम से मोबाईल  फोन में  आपको किसी वेबसाईट को खोलने की जरुरत नहीं पड़ती |आने वाली पीढियां  इस  समाज को एक “एप” समाज के रूप में याद  करेंगी जब  लोक और लोकाचार  को सबसे  ज्यादा  “एप” प्रभावित कर रहा  था |

हम हर चीज के लिए बस एक अदद “एप” की तलाश  करते हैं |जीवन की जरुरी आवश्यकताओं के लिए  यह  “एप” तो ठीक  था  पर  जीवन साथी  के चुनाव  और दोस्ती  जैसी भावनात्मक   और  निहायत व्यक्तिगत  जरूरतों   के लिए  दुनिया भर  के डेटिंग एप  निर्माताओं  की निगाह  में भारत सबसे  पसंदीदा जगह बन कर उभर  रहा है | उदारीकरण के पश्चात बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ और रोजगार की संभावनाएं  बड़े शहरों ज्यादा बढीं ,जड़ों और रिश्तों से कटे ऐसे युवा  भावनात्मक  सम्बल पाने के लिए और ऐसे रिश्ते बनाने में जिसे वो शादी के अंजाम तक पहुंचा सकें  डेटिंग एप का सहारा ले रहे हैं |स्टेइस्टा सर्वे कंपनी के अनुसार इंटरनेट पर जितने लोग एक्टिव हैं, उनमें से तीन प्रतिशत फिलहाल ऑनलाइन डेटिंग ऐप्स या साइट का इस्तेमाल कर रहे हैं. 2025 तक इसकी संख्या बढ़कर 4.3 प्रतिशत हो जाएगी. वर्तमान में भारत में ऑनलाइन डेटिंग सेगमेंट में 53.6 करोड़ डॉलर का कारोबार हो रहा है. यह कारोबार 17. 61 प्रतिशत की सालाना दर से बढ़ रहा है. इन आंकड़ों से भारत में डेटिंग ऐप्स के भविष्य का अंदाजा लगाया जा सकता है. लेकिन इस तस्वीर का एक और भी पहलू है |


इन डेटिंग एप से बनने वाले सम्बन्धों की कोई सामाजिक स्वीकृति नहीं रहती | डेटिंग एप से पहले सम्बन्ध साथ पढ़ाई लिखाई करने ,मोहल्ले या फिर साथ कम करते वक्त  की परिधि में बनते थे जिसमें काफी कुछ समानता हुआ करती थी |भले ही ये सम्बन्ध निजता के दायरे में आते थे पर आस -पास के लोगों को इनके बारे में एक अंदाज़ा हुआ करता था |यह अंदाजा बात बिगड़ने की सूरत में एक ढाल का काम किया करता था | श्रद्धा हत्याकांड अपने आप में एक बानगी है कि इंटरनेट की दुनिया में लगातार विचरने वाली युवा पीढी कितनी अकेली होती जा रही है |चैटिंग एप के स्क्रीन शॉट वायरल हो जाने की संभवनाओं के चलते लोग इस पर अनौपचारिक और अन्तरंग चर्चा करने से बचते हैं |मिल जुल के समस्याओं को समझाने का वक्त किसी के पास नहीं है | क्या डेटिंग ऐप्स पर मिले लोगों को एक-दूसरे के बारे में ज्यादातर जानकारी नहीं होती है?

सिर्फ नाम पता और तस्वीर देखकर मुलाक़ात तय कर ली जाती हैं और फिट उन मुलाकातों में जो कुछ दिख रहा है वो कितना असली है |इसकी गारंटी कोई भी नहीं ले सकता क्योंकि डेटिंग एप्स पर आने वाले  लोगों का कोई वेरिफिकेशन नहीं होता है और इसी बिंदु से असली समस्या शुरू होती है |नेटफ्लिक्स पर “द टिंडर स्विंडलर” वृत्तचित्र एक ऐसी ही सच्ची घटना का प्रस्तुतीकरण है जिसमें एक व्यक्ति अपने इन्स्टाग्राम अकाउंट के जरिये महिलाओं को ठगता है |चूँकि डेटिंग या रिश्ते जैसी चीजें वैसी भी बहुत निजी तरह का मामला होता है फिर उसमें असफलता जैसी चीजें लोग अपने अभिन्न मित्रों से बताने में संकोच करते हैं |सोशल मीडिया और डेटिंग एप जैसा प्लेटफोर्म पर अपनी पीड़ा रखना या मदद मांगना तो दूर की बात है |ऐसे में कोई भी व्यक्ति जो रिश्तों में ईमानदार नहीं है उसका मायाजाल चलता रहता है और उसकी वास्तविकता कभी सबके सामने नहीं आ पाती |

ट्रूली मैडली, वू ,टिनडर,आई क्रश फ्लश और एश्ले मेडिसन ,बम्बल जैसे डेटिंग एप भारत में काफी लोकप्रिय हो रहे हैं जिसमें एश्ले मेडिसन जैसे एप किसी भी तरह की मान्यताओं को नहीं मानते हैं आप विवाहित हों या अविवाहित अगर आप ऑनलाईन किसी तरह की सम्बन्ध की तलाश में हैं तो ये एप आपको भुगतान लेकर सम्बन्ध बनाने के लिए प्रेरित करता है |

हालंकि डेटिंग एप का यह कल्चर अभी मेट्रो और बड़े शहरों  तक सीमित है पर जिस तरह से भारत में स्मार्ट फोन का विस्तार हो रहा है और इंटरनेट हर जगह पहुँच रहा है इनके छोटे शहरों में पहुँचते देर नहीं लगेगी |पर यह डेटिंग संस्कृति भारत में अपने तरह की  कुछ समस्याएं भी लाई है जिसमें सेक्स्युल कल्चर को बढ़ावा देना भी शामिल है |वैश्विक सॉफ्टवेयर एंटी वायरस  कंपनी नॉर्टन बाई सिमेंटेक के अनुसार ऑनलाइन डेटिंग सर्विस एप साइबर अपराधियों का मनपसंद प्लेटफार्म बन चुका है। भारत के लगभग 38 प्रतिशत उपभोक्ताओं ने कहा कि वह ऑनलाइन डेटिंग एप्स का प्रयोग करते हैं। ऐसे व्यक्ति  जो मोबाइल में डेटिंग एप रखते है, उनमें से करीब 64 प्रतिशत  महिलाओं और 57 प्रतिशत  पुरुषों ने सुरक्षा संबंधी परेशानियों का सामना किया है। आपको कोई फॉलो कर रहा है, आप की पहचान चोरी होने के डर, के साथ-साथ उत्पीड़ित और कैटफिशिंग के शिकार होने का खतरा बरकरार रहता है।

राष्ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में 26/11/2022 को प्रकाशित 

Saturday, July 31, 2021

सोचना जरुरी है ,इंटरनेट पर कैसे बचाएं अपनी निजता !

 

भारत के सहित  दुनिया भर में पेगासस स्पाईवेयर एक बार फिर चर्चा  में हैं. इसराइली  सर्विलांस कंपनी एनएसओ ग्रुप के सॉफ्टवेयर पेगासस का इस्तेमाल कर कई पत्रकारोंसामाजिक कार्यकर्ताओंनेताओंमंत्रियों और सरकारी अधिकारियों के फ़ोन की जासूसी करने का दावा किया जा रहा है|पचास हज़ार नंबरों के एक बड़े डेटा बेस के लीक की पड़ताल द गार्डियनवॉशिंगटन पोस्ट,द वायरफ़्रंटलाइनरेडियो फ़्रांस जैसे सोलह  मीडिया संस्थान के पत्रकारों ने की है|यूँ तो दुनिया भर में सरकारों द्वारा देश की राष्ट्रीय सुरक्षा के उद्देश्य से या किसी भी सार्वजनिक आपातकाल की घटना होने पर या सार्वजनिक सुरक्षा के लिए इस तरह की गतिविधियाँ की जाती रही हैं पर यह मामला कई मायनों में अलग है और इसके कई आयाम हैं पहला यह कि इंटरनेट के युग में  हमारी निजता कितनी सुरक्षित है और दूसरा देश में साइबर अपराधियों से बचने के लिए कैसा तंत्र विकसित किया है |

सरकार ने पेगासस जासूसी सम्बन्धी मीडिया रिपोर्ट को खारिज किया है पर संसद के माध्यम से सरकार ने ये माना कि "लॉफ़ुल इंटरसेप्शन" या क़ानूनी तरीके से फ़ोन या इंटरनेट की निगरानी या टैपिंग की देश में एक स्थापित प्रक्रिया है जो बरसों से चल रही हैदेश  में एक स्थापित प्रक्रिया मानक  है जिसके माध्यम से केंद्र और राज्यों की एजेंसियां इलेक्ट्रॉनिक संचार को इंटरसेप्ट करती हैंभारतीय टेलीग्राफ़ अधिनियम, 1885 की धारा 5 (2) और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 69 के प्रावधानों के तहत प्रासंगिक नियमों के अनुसार इलेक्ट्रॉनिक संचार के वैध अवरोधन  के लिए अनुरोध किए जाते हैंजिनकी अनुमति सक्षम अधिकारी देते हैंआईटी (प्रक्रिया और सूचना के इंटरसेप्शननिगरानी और डिक्रिप्शन के लिए सुरक्षा) नियम, 2009 के अनुसार ये शक्तियां राज्य सरकारों के सक्षम पदाधिकारी को भी उपलब्ध हैंवर्तमान परिवेश में ऐसे अवरोधन  को लेकर क़ानून काफ़ी स्पष्ट है जो हर एक संप्रभु राष्ट्र अपनी अखंडता और सुरक्षा के लिए करता है|

लेकिन पेगासस का मामला थोड़ा पेचीदा है |पेगासस एनएसओ समूह जो एक  साइबर सिक्योरिटी कंपनी का एक स्पाईवेयर है | एनएसओ समूह दुनिया भर में सरकारों और कानून प्रवर्तन एजेंसियों को अपराध और आतंकवाद से लड़ने में मदद करने का दावा करती है|इस कम्पनी का यह भी दावा है कि वह विभिन्न देशों के सरकारों की मदद करती है और पेगासस का इस्तेमाल अन्य देशों में सिर्फ संप्रभु सरकारों या उनकी सस्थाओं द्वारा किया जाता है|भले ही सरकार ने इस पूरे मामले से अपने आपको अलग करते हुए मीडिया रिपोर्ट की सत्यता पर ही सवाल उठा दिया है |भारत में यह मामला इसलिए ज्यादा चर्चित हो रहा है क्योंकि यह मामला संसद के मानसून सत्र के शुरू होने के दिन ही सुर्ख़ियों में आया और इस मुद्दे पर सरकार  और विपक्ष में तीखी नोंक झोंक देखने को मिली इस तेजी से डिजीटल होती दुनिया में इस तरह की खबरों से इस आशंका को बल मिलता है कि इंटरनेट की दुनिया में कुछ भी गुप्त नहीं है पर भारत में इंटरनेट पर निजता अभी भी कोई मुद्दा नहीं है |सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बी एन श्री कृष्णा की अध्यक्षता में गठित समिति ने पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन बिल का ड्राफ्ट बिल सरकार को सौंप दिया है जो फिलहाल अभी कानून बनने के इन्तजार में संसद में विचाराधीन है |इस बिल में निजी” शब्द को परिभाषित किया गया है.इसके अतिरिक्त इसमें सम्वेदनशील निजी डाटा को बारह  भागों में विभाजित किया गया है.जिसमें पासवर्ड,वित्तीय डाटा,स्वास्थ्य डाटा,अधिकारिक नियोक्ता,सेक्स जीवन,जाति/जनजाति,धार्मिक ,राजनैतिक संबद्धता जैसे क्षेत्र जोड़े गए हैं.इस बिल को अगर संसद बगैर किसी संशोधन के पास कर देती है तो देश के प्रत्येक नागरिक को अपने डाटा पर चार तरह के अधिकार मिल जायेंगे .जिनमें पुष्टिकरण और पहुँच का अधिकारडाटा को सही करने का अधिकारडाटा पोर्टेबिलिटी और डाटा को बिसरा देने जैसे अधिकार शामिल हैं .इस समिति की  रिपोर्ट के अनुसार यदि इस बिल का कहीं उल्लंघन होता है तो सभी कम्पनियों और सरकार को स्पष्ट रूप से उन व्यक्तियों को सूचित करना होगा जिनके डाटा की चोरी या लीक हुई है कि चोरी या लीक हुए डाटा की प्रकृति क्या है ,उससे कितने लोग प्रभावित होंगे ,उस चोरी या लीक के क्या परिणाम हो सकते हैं और प्रभावित लोग जिनके डाटा चोरी या लीक हुए हैं वे क्या करें .ऐसी स्थिति में जिस व्यक्ति का डाटा चोरी या लीक हुआ है वह उस कम्पनी से क्षतिपूर्ति की मांग भी कर सकता है |तथ्य यह भी है कि इंटरनेट की बड़ी कम्पनियां अगर चाहे तो फोन में मौजूद अपने एप के जरिये वो किसी भी व्यक्ति की तमाम जानकरियों के अलावा उसके जीवन में क्या चल रहा है यह सब जानकारी निकाल सकती हैं|फोन पर हम किसी से कुछ चर्चा करते हैं और फिर उसी चर्चा से जुडी हुई वस्तुओं के विज्ञापन आपको दिखने लगने का अनुभव साझा करते लोग हमारे आस पास ही मिल जायेंगे यानि ये काम तो पहले से ही हो रहा है|बस किसी व्यक्ति से जुडी जानकरियों का व्यवसायिक इस्तेमाल होता है विज्ञापन दिखाने में |सरकार के पास तो पहले से ही तमाम संसाधन और तंत्र मौजूद हैं पर इंटरनेट की बड़ी कम्पनियां इस तरह के खेल में शामिल हैं और वे इसका इस्तेमाल अपने व्यवसायिक हितों की पूर्ति के लिए करती हैं |कैंब्रिज एनालिटिका मामला सोशल नेटवर्किंग साईट  फेसबुक के लिए ऐसा ही रहा. इस कंपनी पर आरोप है कि इसने अवैध तरीके से फेसबुक के करोड़ों यूजरों का डेटा हासिल किया और इस जानकारी का इस्तेमाल अलग-अलग देशों के चुनावों को प्रभावित करने में किया. इनमें 2016 में हुआ अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव भी शामिल  है. इस विवाद का बड़ा पक्ष इंटरनेट पर मौजूद ऐसी कम्पनियों के लगातार बड़े होते जाने का है और इस विषय पर यदि समय रहते ध्यान न दिया गया तो अभिव्यक्ति की आजादी ,निजता जैसे अधिकार सिर्फ कानून की किताबों में ही पढने को मिलेंगे इंटरनेट के फैलाव  के साथ आंकड़े बहुत महत्वपूर्ण हो उठें .लोगों के बारे में सम्पूर्ण जानकारियां को एकत्र करके बेचा जाना एक व्यवसाय बन चुका है और  इनकी कोई भी कीमत चुकाने के लिए लोग तैयार बैठे हैं जैसे ही आप इंटरनेट पर आते हैं आपकी कोई भी जानकारी निजी नहीं रह जाती और इसलिए इंटरनेट पर सेवाएँ देने वाली कम्पनिया अपने ग्राहकों को यह भरोसा जरुर दिलाती हैं कि आपका डाटा गोपनीय रहेगा पर फिर भी आंकड़े लीक होने की सूचनाएं लगातार सुर्खियाँ बनी रहती हैं |इंटरनेट के फैलाव  के साथ आंकड़े बहुत महत्वपूर्ण हो उठें|पेगासस के मामले के बहाने ही सही लोगों को इंटरनेट पर अपनी निजता कैसे बचाएं इस पर भी सोचने की जरुरत है|

राष्ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में 31/07/2021 को प्रकाशित 

 

 

 

Saturday, June 19, 2021

तलाशने होंगे उपाय

 

   कोरोना जैसी महामारी ने देश को स्वास्थ्य और रोग प्रतिरोधक क्षमता की अहमियत सबको करा दिया है |देश अभी दूसरी लहर की पीड़ा से उबरने की कोशिश करता हुआ दुबारा खड़े होने की कोशिश कर  रहा है |विशेषज्ञ मानते हैं कि कोरोना महामारी की तीसरी लहर  सितम्बर तक आ सकती है जिसका शिकार बच्चे ज्यादा होंगे |ऐसी ख़बरों के बीच महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने सूचना के अधिकार  में पूछे गए सवाल के जवाब में बताया कि पिछले साल नवंबर तक देश में छह महीने से छह साल तक के करीब 9,27,606 गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों की पहचान की गई। मंत्रालय की ओर से जारी  किए गए आंकड़ों के मुताबिक इनमें से, सबसे ज्यादा 3,98,359 बच्चों की उत्तर प्रदेश में और 2,79,427 की बिहार में पहचान की गई।

 वहीं लद्दाख, लक्षद्वीप, नगालैंड, मणिपुर और मध्य प्रदेश में एक भी गंभीर रूप से कुपोषित बच्चा नहीं मिला है|यानि उत्तर प्रदेश और बिहार में देश के सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे रह रहे हैं |कुपोषण सिर्फ एक स्वास्थ्य समस्या नहीं है अगर समय रहते इसका निदान न किया जाए तो यह आर्थिक और सामाजिक समस्या बन कर सामने आती है |विश्व स्वास्थ्य संगठन  गंभीर कुपोषण को लंबाई के अनुपात में बहुत कम वजन हो या बांह के मध्य के ऊपरी हिस्से की परिधि 115 मिली मीटर से कम हो या पोषक तत्वों की कमी के कारण होने वाली सूजन के माध्यम से परिभाषित करता है।गंभीर कुपोषण के शिकार बच्चों का वजन उनकी लंबाई के हिसाब से बहुत कम होता है और प्रतिरक्षा तंत्र कमजोर होने की वजह से किसी भी  बीमारी से उनके मरने की आशंका किसी सामान्य स्वस्थ बच्चे के मुकाबले  नौ गुना ज्यादा होती है।इसके अलावा वर्ष 2019 में ‘द लैंसेट’ नामक पत्रिका द्वारा जारी रिपोर्ट में यह बात सामने आई थी कि भारत में पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की 1.04 मिलियन मौंतों में से तकरीबन दो-तिहाई की मृत्यु का कारण कुपोषण है। देश में फैले कुपोषण को लेकर ये  आँकड़े काफी चिंताजनक हैं। बच्चों  को लंबे समय तक संतुलित आहार न मिलने से उनकी  रोग प्रतिरोधक क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण वह आसानी से किसी भी बीमारी का शिकार हो सकते है|

 कुपोषण के ख़िलाफ़ काम करने वाली सरकारी यहाँ तक की अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं जैसे संयुक्त राष्ट्र का ध्यान माइक्रोन्यूट्रिएंट्स पर है, ये संस्थाएं इस बात पर जोर देती हैं कि आयोडीन, आयरन या विटामिन ए का ड्रॉप पिलाएं| ऐसे में उनका ध्यान माइक्रोन्युट्रिएंट्स पर है| लेकिन ये समस्या इससे आगे की है आयरन की गोलियों से कुपोषण से निजात नहीं मिली मतलब इस समस्या का तकनीकी समाधान नहीं निकल सकता है. इसकी अपनी सीमाएं हैं|ऐसे में ज़रूरी है कि कि इसे खाद्य सुरक्षा से जोड़कर देखा  जाना चाहिए | खाद्य सुरक्षा और खाने के सामान में विविधता कुपोषण दूर करने के लिए ज़रूरी है| और ये दोनों ही चीजें सीधे तौर पर व्यक्ति की आय से जुड़ी होती हैं| और आय नहीं होगी तो पोषण मिलना मुश्किल है|महिला और बाल विकास मंत्रालय ने वर्ष 2019 में भारतीय पोषण कृषि कोष की स्थापना की थी। इसका उद्देश्‍य कुपोषण को दूर करने के लिये बहुक्षेत्रीय ढाँचा विकसित करना है जिसके तहत बेहतर पोषक उत्पादों हेतु 128 कृषि जलवायु क्षेत्रों में विविध फसलों के उत्पादन के उत्पादन पर ज़ोर दिया जाएगा। विशेषज्ञ कृषि को कुपोषण से संबंधित समस्याओं को संबोधित करने का अच्छा तरीका मानते हैं। किंतु देश की पोषण आधारित अधिकांश योजनाओं में इस और ध्यान ही नहीं दिया गया है। पोषण आधारित योजनाओं और कृषि के मध्य संबंध स्थापित करना आवश्यक है, क्योंकि देश की अधिकांश ग्रामीण जनसंख्या आज भी कृषि क्षेत्र पर निर्भर है और सर्वाधिक कुपोषण ग्रामीण क्षेत्रों में ही देखने को मिलता है। कोविड काल ने इस समस्या को ज्यादा गंभीर बनाया है |पहले से ही गरीब लोगों के रोजगार पर असर पड़ा है और स्वास्थ्य पर व्यय बढ़ा है ये असंतुलन एक नए दुष्चक्र का निर्माण कर रहा है जिसके केंद्र में बच्चे हैं |एक ओर कोरोना के तीसरी लहर में सबसे ज्यादा उनके चपेट में आने की आशंका, वहीं गरीबी और गिरती आय पहले से ही कुपोषण के शिकार बच्चों के लिए एक ऐसी खाई का निर्माण कर रही है जिससे निकलना मुश्किल दिख रहा है |प्रख्यात बाल लेखक जैनज़ कोरज़ाक ने कहा  था कि- 'बच्चे और किशोर, मानवता का एक-तिहाई हिस्सा हैं। इंसान अपनी जिंदगी का एक-तिहाई हिस्सा बच्चे के तौर पर जीता है। बच्चे...बड़े होकर इंसान नहीं बनते, वे पहले से ही होते हैं,हमें बच्चों के अंदर के इंसान को जिन्दा रखना होगा |पर क्या देश के सारे सारे बच्चे बड़े हो पायेंगे या उनमें से कई कुपोषण का शिकार हो विभिन्न बीमारियों से ग्रस्त होकर काल कवलित हो जायेंगे इस मुश्किल सवाल का जवाब समाज और सरकार दोनों को मिलकर ढूँढना होगा |

राष्ट्रीय सहारा में 19/06/2021 को प्रकाशित 

 


Saturday, June 5, 2021

निजी आंकड़ों को लेकर कितने जागरूक हम ?

 इंटरनेट साईट स्टेटीस्टा के अनुसार देश में साल 2020 में इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं की संख्या सात सौ मिलियन रही जिसकी साल 2025 तक 974मिलीयन हो जाने की उम्मीद है भारत दुनिया का सबसे बड़ा ऑनलाईन बाजार है |यह डाटा आज की सबसे बड़ी पूंजी है यह डाटा का ही कमाल है कि गूगल और फेसबुक जैसी अपेक्षाकृत नई कम्पनियां दुनिया की बड़ी और लाभकारी कम्पनियां बन गयीं है|डाटा ही वह इंधन है जो अनगिनत कम्पनियों को चलाए रखने के लिए जिम्मेदार हैं |वह चाहे तमाम तरह के एप्स हो या विभिन्न सोशल नेटवर्किंग साईट्स सभी  उपभोक्ताओं  के लिए मुफ्त हैं |असल मे जो चीज हमें मुफ्त दिखाई दे रही है वह सुविधा हमें हमारे संवेदनशील निजी डाटा के बदले मिल रही है | बिजनेस स्टैण्डर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2019 में भारत में गूगल और फेसबुक ने 1०००० करोड़ रुपये कमाए |वहीँ  इकॉनमिक टाइम्स की रिपोर्ट के हिसाब से 2019 में रिलायंस इंडस्ट्रीज  ने 11,262 करोड़  रुपये कमाए परन्तु जब हम दोनों कम्पनीज से मिले प्रत्यक्ष रोजगार और साथ ही उसके साथ बने इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास को देखते हैं तो दोनों में जमीन आसमान का अंतर मिलता हैं | जैसे 90 बिलियन डॉलर वाली रिलायंस इंडस्ट्रीज 194056 लोगों को प्रत्यक्ष रूप से रोजगार देती है और इससे कहीं ज्यादा लोग वेन्डर कंपनियों के माध्यम से रोजगार पाते हैं।|मजेदार तथ्य यह है कि फेसबुक कोई भी उत्पाद नहीं बनाता है और इसकी आमदनी का बड़ा हिस्सा विज्ञापनों से आता है और आप क्या विज्ञापन देखेंगे इसके लिए आपको जानना जरुरी है |यही से आंकड़े महत्वपूर्ण हो उठते हैं | देश में जिस तेजी से इंटरनेट का विस्तार हुआ उस तेजी से हम अपने निजी आंकडे (फोन ई मेल आदि) के प्रति जागरूक नहीं हुए हैं परिणाम तरह तरह के एप मोबाईल में भरे हुए जिनको इंस्टाल करते वक्त कोई यह नहीं ध्यान देता कि एप को इंस्टाल करते वक्त किन –किन चीजों को एक्सेस देने की जरुरत है |

टेक एआर सी की एक रिपोर्ट के अनुसार एक भारतीय कम से कम चौबीस एप का इस्तेमाल  करता है और यह आंकड़ा वैश्विक औसत से लगभग तीन गुना ज्यादा है | यह तथ्य बताता है कि एक आम भारतीय किसी एप को डाउनलोड करने में कितनी कम सावधानी बरत रहे हैं |सबसे ज्यादा सोशल मीडिया एप का इस्तेमाल किया जाता है और यही से इंसान के डाटा बनने का खेल शुरू हो जाता है यह सोचने में अच्छा है कि हमारे ऑनलाइन प्रोफाइल पर हमारा नियंत्रण है | हम तय करते हैं कि हमें कौन सी तस्वीरें साझा करनी हैं और कौन सी निजी रहनी चाहिये |  पर तथ्य इससे अलग है  कि जब आपके डिजिटल प्रोफाइल की बात आती हैतो आपके द्वारा साझा किया जाने वाला डेटा केवल एक आइसबर्ग का टिप होता है | हम बाकी को नहीं देखते हैं जो मोबाइल एप्लिकेशन और ऑनलाइन सेवाओं के अनुकूल इंटरफेस के पानी के नीचे छिपा हुआ है | हमारे बारे में सबसे मूल्यवान डेटा हमारे नियंत्रण से परे है | यह ऐसी गहरी परतें हैं जिन्हें हम नियंत्रित नहीं कर सकते हैं जो वास्तव में निर्णय लेते हैंवो हम नहीं हैं बल्कि हमारे डाटा को विश्लेषित करने वाला होता है |

पहली परत वह है जिसे आप नियंत्रित करते हैं | इसमें वह डेटा होता है जो आप सोशल मीडिया और मोबाइल एप्लिकेशन में फीड करते हैं | इसमें आपकी प्रोफ़ाइल जानकारीआपके सार्वजनिक पोस्ट और निजी संदेशपसंदखोजअपलोड की गई फ़ोटोआदि चीजें  शामिल हैं |

दूसरी परत व्यवहार संबंधी टिप्पणियों से बनी है | ये इतने विकल्प नहीं हैं जो आप होशपूर्वक बनाते हैंलेकिन मेटाडेटा जो उन विकल्पों को संदर्भ देता है | इसमें ऐसी चीजें शामिल हैं जिन्हें आप शायद हर किसी के साथ साझा नहीं करना चाहते हैंजैसे कि आपका वास्तविक समय स्थान और आपके अंतरंग और पेशेवर संबंधों की विस्तृत समझ | जैसे एक ही घर में अक्सर एक ही कार्यालय की इमारतों या आपके आराम करने के समय  के वक्त आपके मोबाईल की जगह  को दिखाने  करने वाले स्थान पैटर्न को देखकर,  कंपनियां बहुत कुछ बता सकती हैं कि आप किसके साथ अपना समय बिताते हैं। ऑनलाइन और ऑफलाइनआपके द्वारा क्लिक की गई सामग्रीआपके द्वारा इसे पढ़ने में बिताए गए समयखरीदारी पैटर्नकीस्ट्रोक डायनेमिक्सटाइपिंग स्पीडऔर स्क्रीन पर आपकी उंगलियों के मूवमेंट (जो कुछ कंपनियों का मानना है कि भावनाओं और विभिन्न मनोवैज्ञानिक विशेषताओं को प्रकट करते हैं)|

तीसरी परत पहले और दूसरे की व्याख्याओं से बनी है | आपके डेटा का विश्लेषण विभिन्न एल्गोरिदम द्वारा किया जाता है और सार्थक सांख्यिकीय सहसंबंधों के लिए अन्य उपयोगकर्ताओं के डेटा के साथ तुलना की जाती है | यह परत न केवल हम क्या करते हैं बल्कि हम अपने व्यवहार और मेटाडेटा पर आधारित हैंके बारे में निष्कर्ष निकालते हैं | इस परत को नियंत्रित करना बहुत अधिक कठिन है,  इन प्रोफ़ाइल-मैपिंग एल्गोरिदम का कार्य उन चीजों का अनुमान लगाना हैजिन्हें आप स्वेच्छा से प्रकट करने की संभावना नहीं रखते हैं। इनमें आपकी कमजोरियांसाइकोमेट्रिक प्रोफाइलआईक्यू लेवलपारिवारिक स्थितिव्यसनोंबीमारियोंचाहे हम एक नए रिश्ते में अलग होने या प्रवेश करने वाले होंआपकी छोटी सी टिप्पणियों (जैसे गेमिंग)और आपकी गंभीर प्रतिबद्धताएं (जैसे व्यावसायिक परियोजनाएं) शामिल हैं |

वे व्यवहार संबंधी भविष्यवाणियाँ और व्याख्याएँ विज्ञापनदाता के लिए बहुत मूल्यवान हैं | चूंकि विज्ञापन का मतलब जरूरतों को बनाना है और आपको ऐसे निर्णय लेने के लिए प्रेरित करना है जिन्हें आपने (अभी तक) नहीं किया है,  चूंकि कम्पनियां जानती  हैं कि आप उन्हें सीधे कुछ नहीं बताएंगे कि यह कैसे करना है|  बैंकोंबीमा कंपनियोंऔर सार्वजनिक अधिकारियों द्वारा किए गए बाध्यकारी निर्णय बिग डेटा और एल्गोरिदम द्वारा किए जाते हैंन कि लोगों द्वारायह मनुष्यों से बात करने के बजाय डेटा को देखते है जो  बहुत समय और पैसा बचाता है |इसलिएविज्ञापन उद्योग में एक साझा विश्वास है कि बड़ा डेटा झूठ नहीं है  यदि किसी उपभोक्ता ने मौसम का हाल जानने के लिए कोई एप डाउनलोड किया और एप ने उसके फोन में उपलब्ध सारे कॉन्टेक्ट तक पहुँचने की अनुमति माँगी तो ज्यादातर लोग बगैर यह सोचे की मौसम का हाल बताने वाला एप कांटेक्ट की जानकारी क्यों मांग रहा है उसकी अनुमति दे देंगे |अब उस एप के निर्मताओं के पास किसी के मोबाईल में जितने कोंटेक्ट उन तक पहुँचने की सुविधा मिल जायेगी|यानि एप डाउनलोड करते ही उपभोक्ता आंकड़ों में तब्दील हुआ फिर उस डाटा ने और डाटा ने पैदा करना शुरू कर दिया |इस तरह देश में हर सेकेण्ड असंख्य मात्रा में डाटा जेनरेट हो रहा है पर उसका बड़ा फायदा इंटरनेट के व्यवसाय में लगी कम्पनियों को हो रहा है |यह भी उल्लेखनीय है कि डेटा चुराने के लिए बहुत से फर्जी एप गूगल प्ले स्टोर पर डाल दिए जाते हैं और गूगल भी समय समय  पर ऐसे एप को हटाता रहता है पर ओपन प्लेटफोर्म होने के कारण जब तक ऐसे एप की पहचान होती है तब तक फर्जी एप निर्माता अपना काम कर चुके होते हैं |ग्रोसरी स्टोर और कई तरह के क्लब जब कोई उपभोक्ता वहां से कोई खरीददारी करता है या सेवाओं का उपभोग करता है तो वे उपभोक्ताओं के आंकड़े ले लेते हैं लेकिन उन आंकड़ों पर उपभोक्ताओं पर कोई अधिकार नहीं रहता है |

उपभोक्ता अधिकारों के तहत अभी आंकड़े(डाटा) नहीं आये हैं |किसी भी उपभोक्ता को ये नहीं पता चलता है कि उसकी निजी जानकारियों का (आंकड़ों )किस तरह इस्तेमाल होता है और उससे पैदा हुई आय का भी उपभोक्ता को कोई हिस्सा नहीं मिलता |आंकड़ों की दुनिया में भी वर्ग संघर्ष का दौर शुरू हो गया है किसी के निजी आंकड़ों की कीमत उसकी इंटरनेट पर कम उपस्थिति से तय होती है यानि अगर आप कई तरह की सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर हैं तो आपका डाटा यूनिक नहीं रहेगा | लोगों के निजी डाटा सिर्फ कम्पनियों के प्रोडक्ट को बेचने में ही मदद नहीं कर रहे बल्कि  यह आंकड़े हमें  भविष्य के समाज के लिए तैयार भी कर रहे हैं |पूर्व में फ़ेसबुक ने यह स्वीकारा था कि उनके ग्रुप द्वारा व्हाट्सऐप और इंस्टाग्राम के डाटा को मिला कर के  उसका व्यवसायिक इस्तेमाल किया जा रहा है| फ़ेसबुक ने यह भी स्वीकार किया था कि उसके प्लेटफ़ॉर्म में अनेक ऐप के माध्यम से डाटा माइनिंग और डाटा का कारोबार होता है सका बड़ा कारण इंटरनेट द्वारा पैदा हो रही आय और दुनिया भर की सरकारों में अपनी आलोचनाओं को लेकर दिखाई जाने वाली अतिशय संवेदनशील रवैया  है |कम्पनियां अनाधिकृत डाटा के व्यापार में शामिल हैं भले ही वे इसको न माने पर वे अपना डाटा देश की सरकार के साथ नहीं शेयर करना चाहती वहीं सरकार इस तरह के नियम बना कर अपनी आलोचनाओं को कुंद कर सकती है |फिलहाल देश इन्तजार कर रहा है की सोशल मीडिया पर आने वाला वक्त अभिवक्ति की स्वंत्रता और लोगों की निजता के बीच कैसे संतुलन बनाएगा और व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक जो अभी तक लंबित है |क्या लोगों को इंटरनेट पर वो आजादी का एहसास करा पायेगा जिसके लिए लोग इंटरनेट पर आते हैं | भविष्य का भारतीय समाज कैसा होगा यह इस मुद्दे पर निर्भर करेगा कि अभी हम अपने निजी आंकड़ों के बारे में कितने जागरूक है |

राष्ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में 05/06/2021 को प्रकाशित 

Tuesday, May 3, 2016

इंटरनेट के साईड इफेक्ट

जब कोई नयी तकनीक हमारे सामने आती है तो वह सबसे पहले अपनी ताकत से हमें परिचित कराती है उसके बाद शुरू होता है चुनौतियों का सिलसिला उन चुनौतियों से हम कैसे  निपटते हैं उससे उस तकनीक की सफलता या असफलता निर्भर करती है इंटरनेट ने उम्र का एक चक्र पूरा कर लिया है। इसकी खूबियों और इसकी उपयोगिता की चर्चा तो बहुत हो ली, पर अब वक्त है इसके और आयामों पर चर्चा करने का |आज हमारी  पहचान का एक मानक वर्च्युअल वर्ल्ड में हमारी उपस्थिति भी है और यहीं से शुरू होता है फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग से जुड़ने का सिलसिला, भारत में फेसबुक के सबसे ज्यादा प्रयोगकर्ता हैं पर यह तकनीक अब भारत में एक चुनौती बन कर उभर रही है चर्चा के साथ साथ आंकड़ों से मिले तथ्य साफ़ इस ओर इशारा कर रहे हैं  कि स्मार्टफोन व इंटरनेट लोगों को व्यसनी बना रहा है| कहा जाता है कि मानव सभ्यता शायद पहली बार एक ऐसे नशे से सामना कर रही हैजिसका भौतिक इस्तेमाल नहीं दिखता पर यह असर कर रहा है यह नशा है डिजीटल सामग्री के सेवन का जो न खाया जा सकता हैन पिया जा सकता है,और न ही सूंघा जा सकता है फिर भी यह लोगों को लती बना रहा है | चीन के शंघाई मेंटल हेल्थ सेंटर के एक अध्ययन के मुताबिकइंटरनेट की लत शराब और कोकीन की लत से होने वाले स्नायविक बदलाव पैदा कर सकती है|
मोबाइल ऐप (ऐप्लीकेशन) विश्लेषक कंपनी फ्लरी के मुताबिकहम मोबाइल ऐप लत की ओर बढ़ रहे हैं। स्मार्टफोन हमारे जीवन को आसान बनाते हैंमगर स्थिति तब खतरनाक हो जाती हैजब मोबाइल के विभिन्न ऐप का प्रयोग इस स्तर तक बढ़ जाए कि हम बार-बार अपने मोबाइल के विभिन्न ऐप्लीकेशन को खोलने लगें। कभी काम सेकभी यूं ही। फ्लरी के इस शोध के अनुसारसामान्य रूप से लोग किसी ऐप का प्रयोग करने के लिए उसे दिन में अधिकतम दस बार खोलते हैंलेकिन अगर यह संख्या साठ के ऊपर पहुंच जाएतो ऐसे लोग मोबाइल ऐप एडिक्टेड की श्रेणी में आ जाते हैं। पिछले वर्ष इससे करीब 7.करोड़ लोग ग्रसित थे। इस साल यह आंकड़ा बढ़कर17.करोड़ हो गया हैजिसमें ज्यादा संख्या महिलाओं की है।
 वी आर सोशल की डिजिटल सोशल ऐंड मोबाइल 2015 रिपोर्ट के मुताबिकभारत में इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं के आंकड़े काफी कुछ कहते हैं| इसके अनुसारएक भारतीय औसतन पांच घंटे चार मिनट कंप्यूटर या टैबलेट पर इंटरनेट का इस्तेमाल करता है। इंटरनेट पर एक घंटा 58 मिनटसोशल मीडिया पर दो घंटे 31 मिनट के अलावा इनके मोबाइल इंटरनेट के इस्तेमाल की औसत दैनिक अवधि है दो घंटे 24 मिनटइसी का नतीजा हैं तरह-तरह की नई मानसिक समस्याएं- जैसे फोमोयानी फियर ऑफ मिसिंग आउटसोशल मीडिया पर अकेले हो जाने का डर। इसी तरह फैडयानी फेसबुक एडिक्शन डिसऑर्डर| इसमें एक शख्स लगातार अपनी तस्वीरें पोस्ट करता है और दोस्तों की पोस्ट का इंतजार करता रहता है। एक अन्य रोग में रोगी पांच घंटे से ज्यादा वक्त सेल्फी लेने में ही नष्ट कर देता है। इस वक्त भारत में 97|8 करोड़ मोबाइल और14 करोड़ स्मार्टफोन कनेक्शन हैंजिनमें से 24|3 करोड़  इंटरनेट पर सक्रिय हैं और 11|8 करोड़ सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं|
लोगों में डिजिटल तकनीक के प्रयोग करने की वजह बदल रही है। शहर फैल रहे हैं और इंसान पाने में सिमट रहा है|नतीजतनहमेशा लोगों से जुड़े रहने की चाह उसे साइबर जंगल की एक ऐसी दुनिया में ले जाती हैजहां भटकने का खतरा लगातार बना रहता है| भारत जैसे देश में समस्या यह है कि यहां तकनीक पहले आ रही हैऔर उनके प्रयोग के मानक बाद में गढ़े जा रहे हैं| कैस्परस्की लैब द्वारा इस वर्ष किए गए एक शोध में पाया गया है कि करीब 73 फीसदी युवा डिजिटल लत के शिकार हैंजो किसी न किसी इंटरनेट प्लेटफॉर्म से अपने आप को जोड़े रहते हैंसाल 2011 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ कोलंबिया द्वारा किए गए रिसर्च में यह निष्कर्ष निकाला गया था की युवा पीढ़ी किसी भी सूचना को याद करने का तरीका बदल रही हैक्योंकि वह आसानी से इंटरनेट पर उपलब्ध है। वे कुछ ही तथ्यों को याद रखते हैंबाकी के लिए इंटरनेट का सहारा लेते हैं| इसे गूगल इफेक्ट या गूगल-प्रभाव कहा जाता है|
इसी दिशा में कैस्परस्की लैब ने साल 2015 में डिजिटल डिवाइस और इंटरनेट से सभी पीढ़ियों पर पड़ने वाले प्रभाव के ऊपर शोध किया है| कैस्परस्की लैब ने ऐसे छह हजार लोगों की गणना कीजिनकी उम्र 16-55 साल तक थी। यह शोध कई देशों में जिसमें ब्रिटेनफ्रांसजर्मनीइटली, स्पेन आदि देशों के 1,000 लोगों पर फरवरी 2015 में ऑनलाइन किया गया| शोध में यह पता चला की गूगल-प्रभाव केवल ऑनलाइन तथ्यों तक सीमित न रहकर उससे कई गुना आगे हमारी महत्वपूर्ण व्यक्तिगत सूचनाओं को याद रखने के तरीके तक पहुंच गया है| शोध बताता है कि इंटरनेट हमें भुलक्कड़ बना रहा हैज्यादातर युवा उपभोक्ताओं के लिएजो कि कनेक्टेड डिवाइसों का प्रयोग करते हैंइंटरनेट न केवल ज्ञान का प्राथमिक स्रोत हैबल्कि उनकी व्यक्तिगत जानकारियों को सुरक्षित करने का भी मुख्य स्रोत बन चुका है| इसे कैस्परस्की लैब ने डिजिटल एम्नेशिया का नाम दिया है| यानी अपनी जरूरत की सभी जानकारियों को भूलने की क्षमता के कारण किसी का डिजिटल डिवाइसों पर ज्यादा भरोसा करना कि वह आपके लिए सभी जानकारियों को एकत्रित कर सुरक्षित कर लेगा। 16 से 34 की उम्र वाले व्यक्तियों में से लगभग 70 प्रतिशत लोगों ने माना कि अपनी सारी जरूरत की जानकारी को याद रखने के लिए वे अपने स्मार्टफोन का उपयोग करते है| इस शोध के निष्कर्ष से यह भी पता चला कि अधिकांश डिजिटल उपभोक्ता अपने महत्वपूर्ण कांटेक्ट नंबर याद नहीं रख पाते हैं|एक यह तथ्य भी सामने आया कि डिजिटल एम्नेशिया लगभग सभी उम्र के लोगों में फैला है और ये महिलाओं और पुरुषों में समान रूप से पाया जाता है|
वर्चुअल दुनिया में खोए रहने वाले के लिए सब कुछ लाइक्स व कमेंट से तय होता है|वास्तविक जिंदगी की असली समस्याओं से वे भागना चाहते हैं और इस चक्कर में वे इंटरनेट पर ज्यादा समय बिताने लगते हैंजिसमें चैटिंग और ऑनलाइन गेम खेलना शामिल हैं। और जब उन्हें इंटरनेट नहीं मिलतातो उन्हें बेचैनी होती और स्वभाव में आक्रामकता आ जाती है और वे डिजीटल डिपेंडेंसी सिंड्रोम (डी डी सी ) की गिरफ्त में आ जाते हैं |इससे निपटने का एक तरीका यह है कि चीन से सबक लेते हुए भारत में डिजिटल डीटॉक्स यानी नशामुक्ति केंद्र खोले जाएं और इस विषय पर ज्यादा से ज्यादा जागरूकता फैलाई जाए
 ज्यादा प्रयोग के कारण डिजिटल डिवाइस से हमारा एक मानवीय रिश्ता सा बन गया हैपर तकनीक पर अधिक निर्भरता हमें मानसिक रूप से पंगु भी बना सकती है। इसलिए इंटरनेट का इस्तेमाल जरूरत के वक्त ही किया जाए|
राष्ट्रीय सहारा में 03/05/16 को प्रकाशित लेख 

Thursday, April 7, 2016

गाँव को गाँव ही रहने दें

गाँव तो  जिन्दा हैं पर गाँव की संस्कृति मर रही है गाँव शहर  जा रहा है और शहर का बाजार गाँव में आ रहा है पर उस बाजार में गाँव की बनी हुई कोई चीज नहीं है|सिरका,बुकनू(नमक और विशेष मसालों का मिश्रण)पापड जैसी चीजों से सुपर मार्केट भरे हैं पर उनमें न तो गाँवों की खुशबू है न वो भदेसपन जिसके लिए ये चीजें हमारे आपके जेहन में आजतक जिन्दा हैं |सच ये है कि भारत के गाँव आज एक दोराहे पर खड़े हैं एक तरफ शहरों की चकाचौंध दूसरी तरफ अपनी मौलिकता को बचाए रखने की जदोजहद|विकास और प्रगति के इस खेल में आंकड़े महत्वपूर्ण हैं भावनाएं संवेदनाओं की कोई कीमत नहीं |वैश्वीकरण का कीड़ा और उदारीकरण की आंधी में बहुत कुछ बदला है और गाँव भी बदलाव की इस बयार में बदले हैं |गाँव की पहचान उसके खेत और खलिहानों और स्वच्छ पर्यावरण से है पर खेत अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं भारत के विकास मोडल की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह गाँवों को आत्मनिर्भर बनाये रखते हुए उनकी विशिष्टता को बचा पाने मे असमर्थ रहा है यहाँ विकास का मतलब गाँवों को आत्मनिर्भर न बना कर उनका शहरीकरण कर देना भर रहा है|विकास की इस आपाधापी में सबसे बड़ा नुक्सान खेती को हुआ है |भारत के गाँव हरितक्रांति और वैश्वीकरण से मिले अवसरों के बावजूद खेती को एक सम्मानजनक व्यवसाय के रूप में स्थापित नहीं कर पाए|इस धारणा का परिणाम यह हुआ कि छोटी जोतों में उधमशीलता और नवाचारी प्रयोगों के लिए कोई जगह नहीं बची और खेती एक बोरिंग प्रोफेशन का हिस्सा बन भर रह गयी|गाँव खाली होते गए और शहर भरते गए|इस तथ्य को समझने के लिए किसी शोध को उद्घृत करने की जरुरत नहीं है गाँव में वही युवा बचे हैं जो पढ़ने शहर नहीं जा पाए या जिनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं हैदूसरा ये मान लिया गया कि खेती एक लो प्रोफाईल प्रोफेशन है जिसमे कोई ग्लैमर नहीं है फिर क्या गाँव धीरे धीरे हमारी यादों का हिस्सा भर हो गए जो एक दो दिन पिकनिक मनाने के लिए ठीक है पर गाँव में रहना बहुत बोरिंग है फिर क्या था गाँव पहले फिल्मों से गायब हुआ फिर गानों से धीरे धीरे साहित्य से भी दूर हो गया|समाचार मीडिया में वैसे भी गाँव सिर्फ अपराध की ख़बरों तक सीमित और इस स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है

खुली अर्थव्यवस्था,विशाल जनसँख्या जो खर्च करने के लिए तैयार है  और तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था ये सारी चीजें एक ऐसे भारत का निर्माण कर रही हैं जहाँ व्यापार करने की अपार संभावनाएं हैं भारत तेजी से बदल रहा है पर आंकड़ों के आईने में अभी भारत बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के व्यापार के लिए एक आदर्श देश नहीं बन पाया है |मॉर्गन स्टेनली की एक ताजा रिपोर्ट में कहा गया कि भारत के शहर  अभी भी मूलभूत सुविधाओं के अभाव से जूझ रहे हैं |इस रिपोर्ट में भारत के दौ सौ शहरों का अध्ययन किया गया है रिपोर्ट में शामिल शहरों में छाछ्ट प्रतिशत के पास अभी भी कोई सुपर मार्केट नहीं है |कोल स्टोरेज की  पर्याप्त संख्या में न होने के कारण अधिकतर भारतीय अपने दैनिक जीवन से जुडी हुई चीजों की खरीद फरोख्त आस पास की दुकानों से खरीदते हैं |पचहतर प्रतिशत भारतीय शहरों (रिपोर्ट में शामिल शहर )में कोई बेहतरीन पांच सितारा सुविधाओं से युक्त होटल नहीं है|
देश की अर्थव्यवस्था तभी तेज गति से दौड़ेगी जब निवेश तेजी से होगा जिससे उत्पादन बढेगा और विदेशी निवेश तभी तेजी से बढेगा जब पर्याप्त आधारभूत सुविधाओं की उपलब्धता होगी पर हमारे शहर आवश्यक आधारभूत सुविधाओं के अभाव का सामना कर रहे हैं|अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए सरकार ने मेक इन इण्डिया और स्मार्ट सिटी परियोजना पर काम शुरू किया|मेक इन इण्डिया कार्यक्रम का उद्देश्य देश में सौ मिलीयन रोजगार का स्रजन करना और देश की जी डी पी में उत्पादन योगदान को सत्रह प्रतिशत से बढ़ाकर पच्चीस प्रतिशत करना है |कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब पर पर इस कार्यक्रम की सफलता निर्भर करती है|सबसे पहला है आधारभूत ढांचे का विकास एक ऐसी जगह जहाँ से व्यवसाय का विकास किया जा सके जिसमें शामिल है सडकबिजली और रेल व्यवस्था का नेटवर्क,बहुत प्रयास के बावजूद भारत अभी भी पर्याप्त सड़कें नहीं बना पाया हैबंदरगाहों की संख्या और रेल नेटवर्क का विस्तार भी उस गति से नहीं हुआ है जिसकी उद्योग जगत को दरकार है |दो साल पहले उत्तर पूर्व राज्य के किसानों को अपनी शानदार फसल को औने पौने दाम पर इसलिए बेच देना पड़ा था क्योंकि पर्याप्त परिवहन सुविधा न होने के कारण उस फसल को भारत के दुसरे राज्यों में भेजा जाना संभव नहीं था|चीन से समुद्र के रास्ते मुंबई  माल आने में बाढ़ दिन लगते हैं वहीं उसी सामान को सडक से उत्तरांचल पहुँचने में बीस दिन लग जाते हैं |तथ्य यह भी है कि आधारभूत सुविधाएँ एक दिन में विकसित नहीं हो सकती इसके लिए सरकार को प्रयास करना होगा और निवेश के लिए पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप को बढ़ावा देना चाहिए और यह निवेश महज आर्थिक न होकर सामाजिक और ग्रामीण भी होना चाहिए|आर्थिक जगत टैक्स सुधारों का लम्बे समय से इन्तजार कर रहा है जिसमें समान वस्तु एवं सेवा करइंटेलेक्चुअल प्रोपर्टी राईट्स पालिसी और बैंकरप्सी कोड जैसे अहम् नियम शामिल हैं जिन पर लम्बे समय से फैसला लंबित है |पिछले साल विश्व बैंक की इज ऑफ़ डूईंग बिजनेस इंडेक्स में भारत बारह  स्थान चढ़कर एक सौ तीसवें नंबर पहुंचा पर यह स्थान मैक्सिको और रूस जैसे देशों से काफी पीछे है जो क्रमश: अड़तीस और इक्यावन स्थान पर हैं और जहाँ व्यसाय शुरू करने का अवसर भारत के मुकाबले कहीं ज्यादा सरल है इस इंडेक्स में हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान हमसे बस थोड़ा ही पीछे है जो एक सौ अड़तीसवें स्थान पर है |‌‍‍‌‍ एक और चुनौती जिससे भारत जूझ रहा है विकास की इस दौड़ में गाँवों के पीछे छूट  जाने का भयमेक इन इण्डिया में होने वाला अधिकाँश निवेश शहर केन्द्रित है या उन जगहों पर होगा जहाँ आधारभूत ढांचा पहले से उपलब्ध हैनिवेश की पहली शर्त आधारभूत ढांचा होने से भारत के गाँव एक बार फिर  आगे बढ़ने से वंचित रह जायेंगे जिस तेजी से शहर विकसित हो रहे हैं क्योंकि उनकी क्रय शक्ति कम है जिससे निजी निवेशक गाँव में निवेश करने से हिचकते हैं और आधारभूत ढांचे का सबसे बुरा हाल गाँवों में ही हैऐसे में उनके विकास की जिम्मेदारी एक बार फिर सरकार भरोसे रह जायेगीइस कार्यक्रम में गाँवों की अनदेखी की जा रही है सारा जोर शहरों पर है|शहर केन्द्रित विकास का यह मोडल भारत की परिस्थितियों में कितना सफल होगा  इसका फैसला होना अभी बाकी है क्योंकि विकास का तात्पर्य समेकित विकास से है न कि सिर्फ शहरों के विकास से हैमेक इन इंडिया कार्यक्रम की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि सरकार व्यवस्था गत खामियों को कितनी जल्दी दूर करती है और आधारभूत सुविधाओं को कितनी जल्दी उपलब्ध कराती है 
राष्ट्रीय सहारा में 06/04/16 को प्रकाशित 

Friday, February 19, 2016

शिक्षा बिना उद्धार नहीं

मेक इन इण्डिया के प्रति सरकार बहुत गंभीर है सरकार का मानना है कि साल 2022  तक इससे दस करोड़ नयी नौकरियां सृजित होंगी और इस आशा के मूल में  यह विश्वास है कि भारत उत्पादन के क्षेत्र में चीन की तर्ज पर विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन का हब बनेगा |मेक इन इण्डिया के विचार के पीछे यह विचार है कि दुनिया के अन्य उद्यमियों  के साथ भारतीय भी तकनीक के क्षेत्र में  कुछ नया इनोवेशन करेंगे जिससे देश तेजी से आगे से बढ़ सकेगा |मेक इन इण्डिया की यह पहल स्वागत योग्य है पर डर इस बात का है कि यह कार्यक्रम महज दूसरे देशों की तकनीक का डंपिंग ग्राउंड बन कर न रह जाए क्योंकि आंकड़े कुछ और ही तस्वीर पेश कर रहे हैं संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (डब्ल्यूआईपीओ) ने साल 2015 में जो ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स जारी किया उसमें भारत 81वें स्थान पर है| इस सूची में पहले स्थान पर स्विट्जरलैंड है वहीं चीन रूस और ब्राजील जैसे देश क्रमश: उन्तीसवें ,अड़तालीसवें और सत्तरवें स्थान पर हैं |यह सूची स्पष्ट ईशारा करती है भारत में बहुत ज़्यादा खोज नहीं हो रही, जो थोड़ा बहुत खोज हो रही है, उसमें सबसे आगे केंद्र सरकार की संस्था काउंसिल फ़ॉर साइंटिफ़िक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (सीएसआईआर) है| इसने 10 साल में कुल  भारतीय 10,564 पेटेंट में से 2,060 पेटेंट हासिल किए हैं| इसके बाद सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की कुछ बड़ी कंपनियां हैं|गौरतलब है कि भारत में बीते दस साल में सबसे ज़्यादा पेटेंट रसायन के क्षेत्र में शोध के लिए मिले हैं|लेकिन महत्वपूर्ण सवाल ये है कि हर क्षेत्र में इनोवेशन को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने कौन से ऐसे कदम उठाये | राष्ट्रीय बौद्धिक संपदा अधिकार नीति की अभी तक घोषणा नहीं हो पायी है हालांकि साल 2009 के यूटिलाइज़ेशन ऑफ़ पब्लिक फ़ंडेड इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी बिल का भी यही मक़सद था पर इसका विरोध हुआ था कि किस तरह इन संस्थानों को पेटेंट लेने को मजबूर किया जा सकता है और कैसे इन पेटेंट पर किसी ख़ास कंपनी को ही लाइसेंस दिया जाएगा |एक और बड़ा मुद्दा यह भी था कि इन संस्थाओं को सरकारी पैसा मिलता है तो कोई निजी कंपनी कैसे इस शोध से फ़ायदा उठा सकती है|यह विधेयक 2014 में वापस ले लिया गया था| तथ्य यह भी है कि पांच प्रतिशत  से ज़्यादा पेटेंट व्यावसायिक रूप से सफल  नहीं होते |सरकारी संस्थानों के अधिकतर शोध उद्योगों के काम के नहीं होते  हैं, उनका ध्यान अकादमिक शोध पत्र प्रकाशित करने में ज्यादा होता है |आलोचकों का मानना है पेटेंट प्रणाली नई खोजों को नुक्सान ही पहुंचाती है, ख़ास कर सूचना प्रौद्योगिकी और सोफ्टवेयर  के क्षेत्र में|दूसरी बात भी है, सॉफ़्टवेयर क्षेत्र इतनी तेज़ी से बदलता है कि बीस  साल के पेटेंट का कोई मतलब नहीं है. भारतीय पेटेंट कार्यालय ने इन गाइडलाइंस को फ़िलहाल हटा दिया है |इनोवेशन के लिए शिक्षा पर ध्यान देने की जरुरत है आर्थिक विकास के लिए शिक्षित और कौशलयुक्त कामगारों का होना बहुत आवश्यक है, लेकिन देश में शिक्षा पर खर्च किए जाने वाले धन में कटौती की जा रही है| आज भारत का एक भी विश्वविद्यालय ऐसा नहीं जिसकी गिनती दुनिया के दो सौ  सबसे अच्छे विश्वविद्यालयों में होती हो | सरकार ने शिक्षा के लिए बजट 2015 में करीब 25 प्रतिशत की कटौती की है और उसके लिए आवंटित धनराशि को 82771 करोड़ रुपये से घटाकर 69074 करोड़ रुपये कर दी गयी थी |इस परिस्थिति में यदि देश के सत्तावन  फीसदी छात्रों के पास रोजगार प्राप्त करने की क्षमता प्रदान करने वाला कौशल नहीं है, तो इसमें बहुत अधिक आश्चर्य नहीं होना चाहिए | आर्थिक विकास का आधार मानवीय क्षमता का विकास है | यदि मानवीय क्षमता में वृद्धि नहीं होगी और कौशलयुक्त श्रमशक्ति उपलब्ध नहीं होगी, तो आर्थिक विकास स्थायी रूप नहीं ले सकता | मेक इन इण्डिया कार्यक्रम का उद्देश्य दुनिया भर के उद्यमियों के लिए इस मकसद से शुरू किया गया है कि वे  भारत में अपने संयंत्र लगाकर देश में  अपने उत्पादों का निर्माण करें| ऐसा तभी हो सकता है जब विदेशी निवेशकों और उद्योगपतियों को भारत में कुशल श्रमशक्ति उपलब्ध हो |  इसके लिए जरूरी है कि शिक्षा और रोजगार को आपस में जोड़ा जाये और छात्रों के भीतर नए-नए कौशल और क्षमताएं पैदा की जाएं. यह तभी संभव हो सकता है जब शिक्षा नीति में आवश्यक बदलाव किया जाए और उस पर अपेक्षित मात्रा में खर्च किया जाए नहीं तो भारत के शिक्षित बेरोजगारों की संख्या बढ़ती ही जाएगी | व्यापारिक संगठन एसोचैम के ताजा अध्ययन में कहा गया है कि बीते दस वर्षों के दौरान निजी स्कूलों की फीस में लगभग 150 फीसदी बढ़ोतरी हुई है. सरकारी स्कूलों के लगातार गिरते स्तर ने इस समस्या को और जटिल बना दिया है |पिछले 2011 के जनगणना के आंकड़ों के मुकाबले भारतीय ग्रामीण निरक्षरों की संख्या में 8.6 करोड़ की और बढ़ोत्तरी दर्ज हुई है|ये आंकड़े सामाजिक आर्थिक और जातीय जनगणना (सोशियो इकोनॉमिक एंड कास्ट सेंसस- एसईसीसी) ने जुटाए हैं|महत्वपूर्ण  है कि एसईसीसी ने 2011 में 31.57 करोड़ ग्रामीण भारतीयों की निरक्षर के रूप में गिनती की थीउस समय यह संख्या दुनिया के किसी भी देश के मुक़ाबले सबसे ज़्यादा थी|ताज़ा सर्वेक्षण के मुताबिक़, 2011 में निरक्षर भारतीयों की संख्या 32.23 प्रतिशत थी जबकि अब उनकी संख्या बढ़कर 35.73 प्रतिशत हो गई है|साक्षरों के मामले में राजस्थान की स्थिति सबसे बुरी है यहां 47.58 (2.58 करोड़) लोग निरक्षर हैं|इसके बाद नंबर आता है मध्यप्रदेश का जहां निरक्षर आबादी की संख्या 44.19 या 2.28 करोड़ है.बिहार में निरक्षरों की संख्या कुल आबादी का 43.85 प्रतिशत (4.29 करोड़) और तेलंगाना में 40.42 प्रतिशत (95 लाख) है|शिक्षा एक ऐसा पैमाना है जिससे कहीं हुए विकास को समझा जा सकता है ,शिक्षा जहाँ जागरूकता लाती है वहीं मानव संसाधन को भी विकसित करती है |इस मायने में शिक्षा की हालत गाँवों में ज्यादा खराब है |सरकार ने शिक्षा का अधिकार कानून तो लागू कर दिया हैलेकिन इसके लिए सबसे जरूरी बात यानि ग्रामीण सरकारी स्कूलों का स्तर सुधारने पर अब तक न तो केंद्र ने ध्यान दिया है और न ही राज्य सरकारों नेग्रामीण इलाकों में स्थित ऐसे स्कूलों की हालत किसी से छिपी नहीं हैजो मौलिक सुविधाओं और आधारभूत ढांचे की कमी से जूझ रहे हैंइन स्कूलों में शिक्षकों की तादाद एक तो जरूरत के मुकाबले बहुत कम है और जो हैं भी वो पूर्णता प्रशिक्षित  नहीं हैज्यादातर सरकारी स्कूलों में शिक्षकों और छात्रों का अनुपात बहुत ऊंचा है. कई स्कूलों में 50 छात्रों पर एक शिक्षक है|यही नहींसरकारी स्कूलों में एक ही शिक्षक विज्ञान और गणित से लेकर इतिहास और भूगोल तक पढ़ाता है| ध्यान रखा जाना चाहिए जब तक देश में शिक्षा की हालत ठीक नहीं होगी इनोवेशन को बढ़ावा नहीं मिलेगा |
राष्ट्रीय सहारा में 19/02/16 को प्रकाशित 

Wednesday, January 6, 2016

गाँवों में बढ़ते अनपढ़

शिक्षा एक ऐसा पैमाना है जिससे कहीं हुए विकास को समझा जा सकता है ,शिक्षा जहाँ जागरूकता लाती है वहीं मानव संसाधन को भी विकसित करती है |जनसँख्या की द्रष्टि से भारत एक ग्रामीण देश है जहाँ की ज्यादातर आबादी गाँवों में निवास करती है और इस मायने से  शिक्षा की हालत गाँवों में ज्यादा खराब है |वैसे गाँव की चिंता सबको है आखिर भारत गाँवों का देश है पर क्या सचमुच गाँव शहर  जा रहा है और शहर का बाजार गाँव में नहीं  आ रहा है नतीजा गाँव की दशा आज भी वैसी है जैसी आज से चालीस- पचास साल पहले हुआ करती थी सच ये है कि भारत के गाँव आज एक दोराहे पर खड़े हैं एक तरफ शहरों की चकाचौंध दूसरी तरफ अपनी मौलिकता को बचाए रखने की जदोजहदपरिणामस्वरुप  भारत में ग्रामीण अनपढ़ लोगों की संख्या घटने की बजाय बढ़ रही है|पिछले 2011 के जनगणना के आंकड़ों के मुकाबले भारतीय ग्रामीण निरक्षरों की संख्या में 8.6 करोड़ की और बढ़ोत्तरी दर्ज हुई है|ये आंकड़े सामाजिक आर्थिक और जातीय जनगणना (सोशियो इकोनॉमिक एंड कास्ट सेंसस- एसईसीसी) ने जुटाए हैं|महत्वपूर्ण  है कि एसईसीसी ने 2011 में 31.57 करोड़ ग्रामीण भारतीयों की निरक्षर के रूप में गिनती की थीउस समय यह संख्या दुनिया के किसी भी देश के मुक़ाबले सबसे ज़्यादा थी|ताज़ा सर्वेक्षण के मुताबिक़, 2011 में निरक्षर भारतीयों की संख्या 32.23 प्रतिशत थी जबकि अब उनकी संख्या बढ़कर 35.73 प्रतिशत हो गई है|साक्षरों के मामले में राजस्थान की स्थिति सबसे बुरी है यहां 47.58 (2.58 करोड़) लोग निरक्षर हैं|इसके बाद नंबर आता है मध्यप्रदेश का जहां निरक्षर आबादी की संख्या 44.19 या 2.28 करोड़ है.बिहार में निरक्षरों की संख्या कुल आबादी का 43.85 प्रतिशत (4.29 करोड़) और तेलंगाना में 40.42 प्रतिशत (95 लाख) है|गाँवों में निरक्षरता के बढ़ने के कई कारण  हैंगाँव की पहचान उसके खेत और खलिहानों और स्वच्छ पर्यावरण से है पर खेत अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं भारत के विकास मोडल की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह गाँवों को आत्मनिर्भर बनाये रखते हुए उनकी विशिष्टता को बचा पाने मे असमर्थ रहा है यहाँ विकास का मतलब गाँवों को आत्मनिर्भर न बना कर उनका शहरीकरण कर देना भर रहा है|माना जाता रहा है कि शहरी सुविधाओं के आ जाने भर से गाँव विकास कर जायेंगे |पर वास्तव में ऐसा है नहीं सबसे बड़ी समस्या गाँव की बसावट को लेकर है गाँव में खेती और आबादी की जमीन का कोई निश्चित विभाजन नहीं है लोगों को जहाँ जगह मिलती है या जरुरत के हिसाब से निर्माण होता जाता है |जिसके पीछे शहरों की तरह कोई नियोजित आधार नहीं होता जिसमें रोड और नालियों के लिए पर्याप्त जगह छोडी जाती है जिससे बढ़ती आबादी से किसी तरह की कोई समस्या न आये |बगैर नियोजन के जरुरत के हिसाब से हुए ऐसे निर्माण बहुत सी समस्याएं लाते हैं |आंकड़े खुद ही अपनी कहानी कह रहे हैं कि गाँव में अशिक्षा ज्यादा है और वह बढ़ भी रही है|चूँकि गाँवों में भी विकास का पैमाना शहरी करण से ही आँका जाता है जिसका एक प्रमुख आधार पक्के मकान भी हैं जो गाँवों में बगैर किसी योजना के कर दिए जाते  हैं |विकास की इस आपाधापी में सबसे बड़ा नुक्सान खेती को हुआ है |
                      भारत के गाँव हरितक्रांति और वैश्वीकरण से मिले अवसरों के बावजूद खेती को एक सम्मानजनक व्यवसाय के रूप में स्थापित नहीं कर पाए|इस धारणा का परिणाम यह हुआ कि छोटी जोतों में उधमशीलता और नवाचारी प्रयोगों के लिए कोई जगह नहीं बची और खेती एक बोरिंग प्रोफेशन का हिस्सा बन भर रह गयी|देश में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता 2010 के मुकाबले 2011 में 25.8 ग्राम बढ़कर 462.9 ग्राम प्रतिदिन हो गई। 2010 में यह 437.1 ग्राम थी,यानि देश में खाद्य संकट नहीं है पर जो लोग अनाज उपजा रहे हैं वही भुखमरी और कुपोषण का शिकार हैं|किसी भी देश के अन्नदाता वहां के किसान होते हैंजिनके खेतों में उगाए अन्न को खा कर राष्ट्र स्वस्थ मानव संसाधन का निर्माण करता है|आंकड़ों के आईने में देश ने काफी तरक्की की है पर वास्तविकता के  धरातल पर इस प्रश्न का उत्तर मिलना अभी बाकी है कि भारत के किसानों का परिवार कुपोषण और खराब स्वास्थ्य  का शिकार कब और कैसे होने लग गए |इस देश का कृषक मजदूर वर्ग पोषित खाद्य पदार्थ से महरूम क्यों है जिसका सीधा असर बच्चों के स्वास्थ्य और बढ़ती बाल म्रत्यु दर में हो रहा है|गाँव खाली होते गए और शहर भरते गए|इस तथ्य को समझने के लिए किसी शोध को उद्घृत करने की जरुरत नहीं है गाँव में वही युवा बचे हैं जो पढ़ने शहर नहीं जा पाए या जिनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं हैदूसरा ये मान लिया गया कि खेती एक लो प्रोफाईल प्रोफेशन है जिसमे कोई ग्लैमर नहीं है |शिक्षा रोजगार परक हो चली है और गाँवों में रोजगार है नहीं नतीजा गाँव में शिक्षा की बुरी हालत|
                        सरकार ने शिक्षा का अधिकार कानून तो लागू कर दिया हैलेकिन इसके लिए सबसे जरूरी बात यानि ग्रामीण सरकारी स्कूलों का स्तर सुधारने पर अब तक न तो केंद्र ने ध्यान दिया है और न ही राज्य सरकारों नेग्रामीण इलाकों में स्थित ऐसे स्कूलों की हालत किसी से छिपी नहीं हैजो मौलिक सुविधाओं और आधारभूत ढांचे की कमी से जूझ रहे हैंइन स्कूलों में शिक्षकों की तादाद एक तो जरूरत के मुकाबले बहुत कम है और जो हैं भी वो पूर्णता प्रशिक्षित  नहीं हैज्यादातर सरकारी स्कूलों में शिक्षकों और छात्रों का अनुपात बहुत ऊंचा है. कई स्कूलों में 50 छात्रों पर एक शिक्षक है|यही नहींसरकारी स्कूलों में एक ही शिक्षक विज्ञान और गणित से लेकर इतिहास और भूगोल तक पढ़ाता है. इससे वहां पठन-पाठन के स्तर का अंदाजा  लगाना मुश्किल नहीं हैजहाँ स्कूलों में न तो शौचालय है और न ही खेल का मैदान
विकास और प्रगति के इस खेल में आंकड़े महत्वपूर्ण हैं |वैश्वीकरण और उदारीकरण की आंधी में बहुत कुछ बदला है गाँव भी बदलाव की इस बयार में बदले हैं |पर यह बदलाव शहरों के मुकाबले बहुत मामूली है |देश के गाँवों का आधारभूत ढांचा पर्याप्त रूप से पिछड़ा हुआ है |जिसमें सडक ,अस्पताल ,स्कुल और इंटरनेट की उपलब्धता भी शामिल है |
अशिक्षा की इस बढ़ती खाई को तभी पाटा जा सकता है जब गाँवों से शहरों की और पलायन कम हो और गाँवों में आधारभूत ढांचे का तेजी से विकास हो|जाहिर है इसमें बड़ी सरकारी मदद की दरकार होगी और सरकार को गाँवों के विकास को अपनी प्राथमिकता में लाना होगा |देश को अपने अन्नदाता का सिर्फ पेट ही नहीं भरना है बल्कि उसे एक बेहतरीन मानव संसाधन में भी बदलना है ताकि यह देश गर्व के साथ कह सके कि हमारी अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है |
राष्ट्रीय सहारा में 06/01/16 को प्रकाशित 

Tuesday, November 17, 2015

बूढी आबादी की भी हो चिंता

जनसंख्या की दृष्टि से दुनिया का दूसरा बड़ा देश होने के नाते भारत की आबादी पिछले 50 सालों में हर 10 साल में 20 फीसदी की दर से बढ़ रही है। 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत की जनसंख्या 1 अरब 20 करोड़ से भी अधिक रहीजो दुनिया की कुल जनसंख्या का 17.5 प्रतिशत है। इस आबादी में आधे लोगों की उम्र 25 से कम है पर इस जवान भारत में   बूढ़े लोगों के लिए भारत कोई सुरक्षित जगह नहीं है,टूटते पारिवारिक मूल्यएकल परिवारों में वृद्धि  और उपभोक्तावाद की आंधी में घर के बड़े बूढ़े कहीं पीछे छूटते चले जा रहे हैं|जीवन प्रत्याशा में सुधार के परिणामस्वरुप 60 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों की संस्था में वृद्धि हुई है| सन 1901 में भारत में 60वर्ष से अधिक उम्र के लोग मात्र 1.2 करोड़ थे| यह आबादी बढ़कर सन 1951 में 2 करोड़ तथा 1991 में 5.7करोड़ तक पहुँच गई|'द ग्लोबल एज वॉच इंडेक्सने दुनिया के 91 देशों में बुज़ुर्गों के जीवन की गुणवत्ता का अध्ययन के अनुसार बुज़ुर्गों के लिए स्वीडन दुनिया में सबसे अच्छा देश है और अफगानिस्तान सबसे बुरा,इस इंडेक्स में चोटी के20 देशों में ज़्यादातर पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमरीका के हैंसूची में  भारत 73वें पायदान पर हैवृद्धावस्था में सुरक्षित आय और स्वास्थ्य जरूरी है|उम्र का बढ़ना एक अवश्यंभावी प्रक्रिया है| इस प्रक्रिया में व्यक्ति का शारीरिकमानसिक एवं सामाजिक बदलाव होता हैपर भारत जैसे देश  में जहाँ मूल्य और संस्कार के लिए जाना जाता है वहां ऐसे आंकड़े चौंकाते नहीं हैरान करते हैं कि इस देश में बुढ़ापा काटना क्यूँ मुश्किल होता जा रहा है |बचपने में एक कहावत सुनी थी बच्चे और बूढ़े एक जैसे होते हैं इस अवस्था में सबसे ज्यादा समस्या अकेलेपन के एहसास की होती है जब बूढ़े उम्र की ऐसी दहलीज पर होते हैं जहाँ उनके लिए किसी के पास कोई समय नहीं होता है |वो बच्चे जिनके भविष्य के लिए उन्होंने अपना वर्तमान कुर्बान कर दिया ,अपने करियर की उलझनों में फंसे रहते हैं या जिन्दगी का लुत्फ़ उठा रहे होते हैं |ऐसे में अकेलेपन का संत्रास किसी भी व्यक्ति को तोड़ देगा |भारतीय समाज संक्रमण के दौर से गुजर रहा |डब्लूएचओ के अनुमानित आंकड़े के अनुसार भारत में वृद्ध लोगों की आबादी 160 मिलियन (16 करोड़) से बढ़कर सन् 2050में 300 मिलियन (30 करोड़) 19 फीसद से भी ज्यादा आंकी गई है. बुढ़ापे पर डब्लूएचओ की गम्भीरता की वजह कुछ चैंकाने वाले आंकड़े भी हैं. जैसे 60 वर्ष  की उम्र या इससे ऊपर की उम्र के लोगों में वृद्धि की रफ्तार 1980 के मुकाबले दो गुनी से भी ज्यादा है80 वर्ष से ज्यादा के उम्र वाले वृद्ध सन 2050 तक तीन गुना बढ़कर 395 मिलियन हो जाएंगे| अगले वर्षों में ही 65 वर्ष से ज्यादा के लोगों की तादाद वर्ष तक की उम्र के बच्चों की तादाद से ज्यादा होगी. सन् 2050 तक देश में 14 वर्ष तक की उम्र के बच्चों की तुलना में वृद्धों की संख्या ज्यादा होगी. और सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह कि अमीर देशों के लोगों की अपेक्षा निम्न अथवा मध्य आय वाले देशों में सबसे ज्यादा वृद्ध होंगें| पुराने ज़माने के संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवार लेते जा रहे हैं जिससे भरा पूरा रहने वाला घर सन्नाटे को ही आवाज़ देता है बच्चे बड़े होकर अपनी दुनिया बसा कर दूर निकल गये और घर में रह गए अकेले माता पिता चूँकि माता पिता जैसे वृद्ध भी अपनी जड़ो से कट कर गाँव से शहर आये थे इसलिए उनका भी कोई अनौपचारिक सामजिक दायरा उस जगह नहीं बन पाता जहाँ वो रह रहे हैं तो शहरों में यह चक्र अनवरत चलता रहता है गाँव से नगर, नगर से महानगर वैसे इस चक्र के पीछे सिर्फ एक ही कारण होता है बेहतर अवसरों की तलाश ये बात हो गयी शहरों की पर ग्रामीण वृद्धों का जीवन शहरी वृद्धों के मुकाबले स्वास्थ्य सेवाओं के संदर्भ में और ज्यादा मुश्किल है वहीं अकेलापन तो रहता ही है |बेटे बेटियां बेहतर जीवन की आस में शहर चले गए और वहीं के होकर रह गयें गाँव में माता पिता से रस्मी तौर पर तीज त्यौहार पर मुलाक़ात होती हैं कुछ ज्यादा ही उनकी फ़िक्र हुई थी उम्र के इस पड़ाव पर एक ही इलाज है उन वृद्धों को उनकी जड़ों से काट कर अपने साथ ले चलना |ये इलाज मर्ज़ को कम नहीं करता बल्कि और बढ़ा देता है |जड़ से कटे वृद्ध जब शहर पहुँचते हैं तो वहां वो दुबारा अपनी जड़ें जमा ही नहीं पाते औपचारिक सामजिकता के नाम पर बस अपने हमउम्र के लोगों से दुआ सलाम तक का ही साथ रहता है | ऐसे में उनका अकेलापन और बढ़ जाता है |इंटरनेट की आदी होती  यह पीढी दुनिया जहाँ की खबर सोशल नेटवर्किंग साईट्स लेती है पर घर में बूढ़े माँ बाप को सिर्फ अपने साथ रखकर वो खुश हो लेते हैं कि वह उनका पूरा ख्याल रख रहे हैं पर उम्र के इस मुकाम पर उन्हें बच्चों के साथ की जरुरत होती है पर बच्चे अपनी सामाजिकता में व्यस्त रहते हैं उन्हें लगता है कि उनकी भौतिक जरूरतों को पूरा कर वो उनका ख्याल रख रहे हैं पर हकीकत में वृद्ध जन यादों और अकेलेपन के भंवर में खो रहे होते हैं | महत्वपूर्ण ये है कि बुढ़ापे में विस्थापन एक गंभीर मनोवैज्ञानिक समस्या है जिसको नजरंदाज नहीं किया जा सकता है मनुष्य यूँ ही एक सामाजिक प्राणी नहीं है पर सामाजिकता बनाने और निभाने की एक उम्र होती है| समस्या का एक पक्ष सरकार का भी है चूँकि बूढ़े लोग अर्थव्यवस्था में कोई योगदान नहीं देते इस तरह वे अर्थव्यवस्था पर बोझ ही रहते हैं तो सरकारी योजनाओं का रुख बूढ़े लोगों के लिए कुछ खास लचीला नहीं होता |सरकारों का सारा ध्यान युवाओं पर केन्द्रित रहता है क्योंकि वे लोग अर्थव्यवस्था में सक्रिय योगदान दे रहे होते हैं |9 अगस्त 2010 को भारत सरकार ने गैर-संगठित क्षेत्र के कामगारों तथा विशेष रूप से कमजोर वर्गों सहित समाज के सभी वर्गों को वृद्धावस्था सुरक्षा उपलब्ध कराने के लिए नई पेंशन योजना को मंजूरी दी और उसके बाद यह योजना पूरे देश में स्वावलंबन योजना से लागू की गई। इस योजना के तहत गैर-संगठित क्षेत्र के कामगारों को अपनी वृद्धावस्था के लिए स्वेच्छा से बचत करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इस योजना में केंद्र सरकार लाभार्थियों के एनएफएस खाते में प्रति वर्ष  1000 का योगदान करती है। सरकार ने राष्ट्रीय वृधावस्था पेंशन योजना जरुर शुरू की है पर यह उस भावनात्मक खालीपन को भरने के लिए अपर्याप्त है जो उन्हें अकेलेपन से मिलती है |विकास और आंकड़ों की बाजीगरी में बूढ़े लोगों का दावा कमजोर पड़ जाता है |विकास की इस दौड़ में अगर हमारी जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा यूँ ही बिसरा दिया जा रहा है तो ये यह प्रवृति एक बिखरे हुए समाज का निर्माण करेगी |जिन्दगी की शाम में अगर जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा अकेलेपन से गुजर रहा है तो यह हमारे समाज के लिए शोचनीय स्थिति है क्योंकि इस स्थिति से आज नहीं तो कल सभी को दो चार होना है |
राष्ट्रीय सहारा में 17/11/15 को प्रकाशित लेख 

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