Wednesday, July 1, 2009

कुछ कहती है ये बूंदें


बारिश शुरू होते ही जो पहली चीज हमारे जेहन में आती है वो लहलहाते हरे भरे खेत ,पानी से भरे तालाब कहीं न कहीं हमारे मन के अन्दर बैठा बच्चा मचल पड़ता है उस गाँव  में जाने को जिसे हम सिर्फ फिल्मों में देखते हैं कंक्रीट  के जंगल में जहाँ वाटर क्रायसिस  अपने चरम पर है , हम अपनी जिन्दगी में इतने उलझ चुके हैं कि  अगल बगल क्या हो रहा है कौन रहता है . शोले फिल्म के संवाद की तरह हमें कुछ नहीं पता ,कुछ भी नहीं पता. गाँव  हम शहर में पले बढे लोगों के लिए अब सिर्फ बचपन की यादों में बचा है. जब गर्मियां की छुट्टियाँ शुरू होते ही दादी बाबा या नाना नानी के यहाँ जाने की तैयारियां शुरू हो जातीथीं.देखा  आपका भी दिल मचल पड़ा गाँव  जाने के लिए गाँव और शहर के इस अंतर को मुन्नवर राणा साहब की ये पंक्तियाँ बखूबी बयां करती हैं
               “तुम्हारे शहर में सब मय्यत को भी कन्धा नहीं देते
                 हमारे गावं में छप्पर भी सब मिलकर उठाते हैं
अब किया क्या जाये ख़तम होते गाँव और बढ़ते शहरों को देखकर परेशान होया जाये और विकास के पहिये को रोक दिया जाए या  गाँव और शहर के बीच बढ़ते अंतर को पाटा जाए .पर ये होगा कैसे . आजकल ग्लोबल विलेज की बात होती है न की ग्लोबल सिटी या या ग्लोबल टाऊन मशहूर संचार साइंटिस्ट मार्शल मक्लुहान का मानना था कि एक दिन दुनिया संचार के मामले में एक  गाँव  जितनी छोटी हो जायेगी और ऐसा हो भी रहा है इसीलिए  गाँव  में पता खोजना उतना मुश्किल नहीं होता क्योंकि वहां सभी एक दूसरे से परिचित होते हैं.तो इन बरसते बादलों के बीच मेरे मन में कुछ विचार बरस पड़े अगर हम कुछ ऐसा कर पाते कि शहरों में भी  गाँव की खासियतें ले आ पाते तो आम के आम गुठलियों के भी दाम वाली बात हो जाती इसके लिए हमें कुछ खास नहीं करना है बस हमें अपने नज़रिए को थोडा सा बदलना पड़ेगा ज्यादा नहीं अपने आस पास नज़र डालिए हमें पता ही नहीं रहता कि हमारे फ्लैट के बगल में कौन रहता है किसी के पर्सनल  स्पेस में घुसपैठ किये बगैर हम अपने अडोस पड़ोस के बारे में जानकारी रख सकते हैं ज्यादातर आतंकवादी हमले हमारी इस लापरवाही से होते हैं कि हमें पता ही नहीं होता कि हमारे आस पास क्या हो रहा है .हम लोगों के सुख दुःख में शामिल होंगे तो कभी अपने आपको अकेला नहीं पायेंगे भूल गए क्या बहुत साल पहले अरस्तु कह कर गए हैं कि इंसान एक सामजिक प्राणी है .  गावं  इसीलिए अच्छे हैं क्योंकि वो ज्यादातर नेचर पर डिपेंडेंट   हैं पर शहर में हम कुछ ऐसा नहीं कर पाए जब लाइट चली जाती है और ए सी काम करना बंद कर देता है तब हमें हवा की कमी का एहसास होता है अगर ए सी को जरूरत के वक्त ही चलाये जाए तो बिजली भी बचेगी और हम नेचर से भी जुड़े रहेंगे .पेड़ लगाने के लिए जमीन की जरूरत होती है और जमीन ऐसी नहीं है कोई बात नहीं २-४ गमले तो लगाये जा सकते हैं. बारिश का पानी यूँ ही नालियों में बह जाता है और जमीन का वाटर लेवल लो होता जा रहा है अब अगर आपको घर के बाथरूम में ट्यूब वेल के पानी का मज़ा लेना है तो पानी तो बचाना ही पड़ेगा जरा सोचिये अगर हमें शहर में ही  गावं  का मज़ा मिलने लग जाए तो शहर और  गावं  का अंतर मिट जाएगा और विकास का फल सभी को मिलेगा तो सोच क्या रह रहे हैं आइये शहरों और गांवों के बीच इस दूरी को खत्म किया जाए और ग्लोबल विलेज को रियल सेंस में ग्लोबल कर दिया जाए .
आई नेक्स्ट में १ जुलाई को प्रकाशित


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