Tuesday, May 31, 2016

फिल्मों से गायब होते जानवर

अभी हाल ही में आयी डिज्नी की फिल्म जंगलबुक ने सिर्फ तीन दिन में बॉक्स ऑफिस परअभी हाल ही में आयी डिज्नी की फिल्म जंगलबुक ने सिर्फ तीन दिन में बॉक्स ऑफिस पर 40|19 करोड़ रुपये से अधिक की कमाई की है।जो भारत में प्रदर्शित किसी भी हॉलीवुड फिल्म के एक दिन में सबसे अधिक कमाई का रिकॉर्ड है।भारत में हौलीवुड की इस फिल्म को हाथों हाथ लिया गया |खास बात ये है कि काफी समय बाद इस फिल्म में इंसान के साथ जानवर भी मुख्य भूमिका में हैं |कुछ ऐसा ही स्वागत साल 2012 में आयी जानवर और इंसान के रिश्तों पर बनी आंग ली निर्देशित  फिल्म "लाइफ ऑफ पाई" का भी हुआ था इस फिल्म ने भी भारत में खासी कमाई की थी |उल्लेखनीय तथ्य यह है कि दोनों फ़िल्में भारत केन्द्रित इंसान और जानवर के रिश्तों पर बनी थी और दोनों ही हॉलीवुड के निर्माताओं की देन थी,इस जानकारी में कुछ भी नया नहीं है पर जब हम दुनिया में सबसे ज्यादा फ़िल्में बनाने वाले देश की फिल्म इंडस्ट्री पर नजर डालते हैं तो हम पाते हैं हमारी फिल्मों से जंगल और जानवर लगातार गायब होते जा रहे हैं और उनकी जगह हमें दिख रही है मानव निर्मित कृत्रिमता,पर हमेशा से ऐसा नहीं था | हिन्दी फिल्मों में जानवरों का इस्तेमाल उतना ही पुराना हैजितना इसका इतिहास। अगर आप हिन्दी सिनेमा की पहली फिल्म राजा हरीशचंद्र भी देखेंतो वहां भी दृश्यों में जानवर नजर आएंगे। यह विकास और प्रगति की  चाह में बगैर सोचे भागने का साईड इफेक्ट है |यह स्थापित तथ्य है इंसान और जानवर अलग होकर वर्षों तक नहीं जी सकते और शायद इसीलिये हिन्दी फिल्मों में जानवर लंबे समय तक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे| फिल्मों में जानवरों की उपस्थिति 1930 और 40 के दशक में  नाडिया की फिल्मों में देखी जा सकती है पर उसके बाद ये सिलसिला बहुत तेजी से आगे बढ़ा जिसमे रानी और जानीधरम वीर,  मर्दखून भरी मांगतेरी मेहरबानियांदूध का कर्ज़कुली  और अजूबाजैसी फ़िल्में शामिल हैं|दो हजार के दशक में अक्षय कुमार अभिनीत इण्टरतेन्मेंट” ही एक मात्र उल्लेखनीय फिल्म रही जिसमें इंसान के साथ साथ जानवर भी अहम् भूमिका में था,इसके अलावा सुंदर बन के बाघों पर बनी फिल्म रोर का भी उल्लेख किया जा सकता है |   एक वक्त में जानवरों के  चरित्र की व्यापकता को देखते हुए  इन्हें  सहनायक या जानवर मित्र की संज्ञा मिली थी | जो वर्षों तक हमारी   फिल्मों का प्रभावकारी हिस्सा रहे|वो हमें कहीं हंसा रहे थे तो कहीं भावनात्मक रूप से संबल भी दे रहे थे|पिछले दो दशकों में ऐसी फिल्मों की संख्या में काफी कमी आयी है|यह मनुष्य और प्रकृति  के कमजोर होते सम्बन्धों का सबूत है| प्रकृति से हमारा ये जुड़ाव सिर्फ मनोहारी दृश्यों तक सीमित हो गया है|हमें बिलकुल भी एहसास नहीं हुआ कि कब हमारे जीवन में प्रमुख स्थान रखने वाले जानवर सिल्वर स्क्रीन से कब गायब हो गए|आज  फिल्मों  में आधुनिकता के सारे नए प्रतीक दिखते हैं|मॉल्स से लेकर चमचमाती गाड़ियों तक ये उत्तर उदारीकरण के दौर का सिनेमा हैं|  समीक्षक हिन्दी सिनेमा से जानवरों के गायब हो जाने के पीछे कड़े होते जाते वन्य जीव कानून का हवाला देते हैं और मानते हैं कि निर्माता कानूनी पचड़ों में नहीं पड़ना चाहते इसलिए फिल्मों में जानवरों का कम इस्तेमाल होने लगा है|पर तर्क यह भी है कि हॉलीवुड तकनीक के सहारे नियमित अंतराल पर जानवर और इंसान के रिश्तों पर फिल्म बना सकता है तो भारतीय फिल्म उद्योग क्यों नहीं ?
इसका एक कारण उदारीकरण के पश्चात जीवन का अधिक पेचीदा हो जाना और मशीनों पर हमारी बढ़ती निर्भरता है|याद कीजिये फिल्म नया दौर” को जिसमें जानवर और मशीन के बीच फंसे इंसान के चुनाव के विकल्प का द्वन्द दिखाया गया था जिसमें आखिर में जीत जानवर की होती है पर विकास की इस दौड़ में जैसे जैसे हमारी मशीनों पर निर्भरता बढी जानवरों से हमारा रिश्ता कम होता चला गया |इस तथ्य को नाकारा नहीं जा सकता कि विकास जरुरी है और अवश्यम्भावी भी पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विकास प्रकृति और जानवरों की कीमत पर न हो |इसमें कोई शक नहीं है कि जंगल कम हुए हैं और जानवरों की बहुत सी प्रजातियाँ लुप्त होने की कगार पर हैं |भारत में सेव द टाइगरकैम्पेन इसका उदाहरण है |जंगल और जानवर तभी बचेंगे जब हम इनको लेकर जागरूक और जिम्मेदार बनेंगे और फ़िल्में इस जागरूकता को बढ़ाने का एक अच्छा माध्यम हो सकती हैं | पिछले दो साल में ही देश के 728 वर्ग किलोमीटर भू-भाग से जंगलों का खात्मा हो चुका है। जंगलों की इस कहानी में नटखट बंदरों का जिक्र इसलिए जरूरी है कि वे सिर्फ एक उपमा  हैंयह बताने का कि वन्य जीवन जब असंतुलित होता है तो हमारे जीवन को कैसे प्रभावित करता है आजकल समाचार पत्र इस तरह की अक्सर सूचनाएं देते है कि अमुक क्षेत्र में तेंदुवा ने लोगों का शिकार किया या बंदरों के उत्पात से लोग परेशान |ऐसी ख़बरें  साफ़ इशारा कर रही हैं कि इंसान और जानवरों के बीच बना संतुलन बिगड़ रहा है |
गौरतलब है कि इन मशीनों ने सिनेमा को तकनीकी तौर पर बेहतर किया है अब जानवरों को परदे पर दिखाने के लिए असलियत में उनकी जरुरत भी नहीं इसके लिए एनीमेशन और 3 डी तकनीक का सहारा लिया जा रहा है|दर्शकों की रूचि मानव निर्मित सभ्यता के नए प्रतीकों को देखने में ज्यादा है|उपभोक्तावाद ने हमें इतना अधीर कर दिया है कि विकास का मापदंड सिर्फ भौतिकवादी चीजें और पैसा ही रह गया है|हमारी फ़िल्में भी इसका अपवाद नहीं हैं आखिर सिनेमा को समाज का दर्पण यूँ ही नहीं कहा गया है| वैचारिक रूप से परिपक्व होते हिन्दी सिनेमा में जंगल और जानवरों के लिए जगह नहीं है यह उत्तर उदारीकरण के दौर का असर है या कोई और कारण यह शोध का विषय हो सकता है  पर असल जीवन में कटते पेड़ और गायब होते जानवरों  के प्रति संवेदना को बढ़ाने का एक तरीका सिनेमा की दुनिया में उनका लगातार दिखना एक अच्छा उपाय हो सकता है |
अमर उजाला में 31/05/16 को प्रकाशित 

Tuesday, May 3, 2016

इंटरनेट के साईड इफेक्ट

जब कोई नयी तकनीक हमारे सामने आती है तो वह सबसे पहले अपनी ताकत से हमें परिचित कराती है उसके बाद शुरू होता है चुनौतियों का सिलसिला उन चुनौतियों से हम कैसे  निपटते हैं उससे उस तकनीक की सफलता या असफलता निर्भर करती है इंटरनेट ने उम्र का एक चक्र पूरा कर लिया है। इसकी खूबियों और इसकी उपयोगिता की चर्चा तो बहुत हो ली, पर अब वक्त है इसके और आयामों पर चर्चा करने का |आज हमारी  पहचान का एक मानक वर्च्युअल वर्ल्ड में हमारी उपस्थिति भी है और यहीं से शुरू होता है फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग से जुड़ने का सिलसिला, भारत में फेसबुक के सबसे ज्यादा प्रयोगकर्ता हैं पर यह तकनीक अब भारत में एक चुनौती बन कर उभर रही है चर्चा के साथ साथ आंकड़ों से मिले तथ्य साफ़ इस ओर इशारा कर रहे हैं  कि स्मार्टफोन व इंटरनेट लोगों को व्यसनी बना रहा है| कहा जाता है कि मानव सभ्यता शायद पहली बार एक ऐसे नशे से सामना कर रही हैजिसका भौतिक इस्तेमाल नहीं दिखता पर यह असर कर रहा है यह नशा है डिजीटल सामग्री के सेवन का जो न खाया जा सकता हैन पिया जा सकता है,और न ही सूंघा जा सकता है फिर भी यह लोगों को लती बना रहा है | चीन के शंघाई मेंटल हेल्थ सेंटर के एक अध्ययन के मुताबिकइंटरनेट की लत शराब और कोकीन की लत से होने वाले स्नायविक बदलाव पैदा कर सकती है|
मोबाइल ऐप (ऐप्लीकेशन) विश्लेषक कंपनी फ्लरी के मुताबिकहम मोबाइल ऐप लत की ओर बढ़ रहे हैं। स्मार्टफोन हमारे जीवन को आसान बनाते हैंमगर स्थिति तब खतरनाक हो जाती हैजब मोबाइल के विभिन्न ऐप का प्रयोग इस स्तर तक बढ़ जाए कि हम बार-बार अपने मोबाइल के विभिन्न ऐप्लीकेशन को खोलने लगें। कभी काम सेकभी यूं ही। फ्लरी के इस शोध के अनुसारसामान्य रूप से लोग किसी ऐप का प्रयोग करने के लिए उसे दिन में अधिकतम दस बार खोलते हैंलेकिन अगर यह संख्या साठ के ऊपर पहुंच जाएतो ऐसे लोग मोबाइल ऐप एडिक्टेड की श्रेणी में आ जाते हैं। पिछले वर्ष इससे करीब 7.करोड़ लोग ग्रसित थे। इस साल यह आंकड़ा बढ़कर17.करोड़ हो गया हैजिसमें ज्यादा संख्या महिलाओं की है।
 वी आर सोशल की डिजिटल सोशल ऐंड मोबाइल 2015 रिपोर्ट के मुताबिकभारत में इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं के आंकड़े काफी कुछ कहते हैं| इसके अनुसारएक भारतीय औसतन पांच घंटे चार मिनट कंप्यूटर या टैबलेट पर इंटरनेट का इस्तेमाल करता है। इंटरनेट पर एक घंटा 58 मिनटसोशल मीडिया पर दो घंटे 31 मिनट के अलावा इनके मोबाइल इंटरनेट के इस्तेमाल की औसत दैनिक अवधि है दो घंटे 24 मिनटइसी का नतीजा हैं तरह-तरह की नई मानसिक समस्याएं- जैसे फोमोयानी फियर ऑफ मिसिंग आउटसोशल मीडिया पर अकेले हो जाने का डर। इसी तरह फैडयानी फेसबुक एडिक्शन डिसऑर्डर| इसमें एक शख्स लगातार अपनी तस्वीरें पोस्ट करता है और दोस्तों की पोस्ट का इंतजार करता रहता है। एक अन्य रोग में रोगी पांच घंटे से ज्यादा वक्त सेल्फी लेने में ही नष्ट कर देता है। इस वक्त भारत में 97|8 करोड़ मोबाइल और14 करोड़ स्मार्टफोन कनेक्शन हैंजिनमें से 24|3 करोड़  इंटरनेट पर सक्रिय हैं और 11|8 करोड़ सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं|
लोगों में डिजिटल तकनीक के प्रयोग करने की वजह बदल रही है। शहर फैल रहे हैं और इंसान पाने में सिमट रहा है|नतीजतनहमेशा लोगों से जुड़े रहने की चाह उसे साइबर जंगल की एक ऐसी दुनिया में ले जाती हैजहां भटकने का खतरा लगातार बना रहता है| भारत जैसे देश में समस्या यह है कि यहां तकनीक पहले आ रही हैऔर उनके प्रयोग के मानक बाद में गढ़े जा रहे हैं| कैस्परस्की लैब द्वारा इस वर्ष किए गए एक शोध में पाया गया है कि करीब 73 फीसदी युवा डिजिटल लत के शिकार हैंजो किसी न किसी इंटरनेट प्लेटफॉर्म से अपने आप को जोड़े रहते हैंसाल 2011 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ कोलंबिया द्वारा किए गए रिसर्च में यह निष्कर्ष निकाला गया था की युवा पीढ़ी किसी भी सूचना को याद करने का तरीका बदल रही हैक्योंकि वह आसानी से इंटरनेट पर उपलब्ध है। वे कुछ ही तथ्यों को याद रखते हैंबाकी के लिए इंटरनेट का सहारा लेते हैं| इसे गूगल इफेक्ट या गूगल-प्रभाव कहा जाता है|
इसी दिशा में कैस्परस्की लैब ने साल 2015 में डिजिटल डिवाइस और इंटरनेट से सभी पीढ़ियों पर पड़ने वाले प्रभाव के ऊपर शोध किया है| कैस्परस्की लैब ने ऐसे छह हजार लोगों की गणना कीजिनकी उम्र 16-55 साल तक थी। यह शोध कई देशों में जिसमें ब्रिटेनफ्रांसजर्मनीइटली, स्पेन आदि देशों के 1,000 लोगों पर फरवरी 2015 में ऑनलाइन किया गया| शोध में यह पता चला की गूगल-प्रभाव केवल ऑनलाइन तथ्यों तक सीमित न रहकर उससे कई गुना आगे हमारी महत्वपूर्ण व्यक्तिगत सूचनाओं को याद रखने के तरीके तक पहुंच गया है| शोध बताता है कि इंटरनेट हमें भुलक्कड़ बना रहा हैज्यादातर युवा उपभोक्ताओं के लिएजो कि कनेक्टेड डिवाइसों का प्रयोग करते हैंइंटरनेट न केवल ज्ञान का प्राथमिक स्रोत हैबल्कि उनकी व्यक्तिगत जानकारियों को सुरक्षित करने का भी मुख्य स्रोत बन चुका है| इसे कैस्परस्की लैब ने डिजिटल एम्नेशिया का नाम दिया है| यानी अपनी जरूरत की सभी जानकारियों को भूलने की क्षमता के कारण किसी का डिजिटल डिवाइसों पर ज्यादा भरोसा करना कि वह आपके लिए सभी जानकारियों को एकत्रित कर सुरक्षित कर लेगा। 16 से 34 की उम्र वाले व्यक्तियों में से लगभग 70 प्रतिशत लोगों ने माना कि अपनी सारी जरूरत की जानकारी को याद रखने के लिए वे अपने स्मार्टफोन का उपयोग करते है| इस शोध के निष्कर्ष से यह भी पता चला कि अधिकांश डिजिटल उपभोक्ता अपने महत्वपूर्ण कांटेक्ट नंबर याद नहीं रख पाते हैं|एक यह तथ्य भी सामने आया कि डिजिटल एम्नेशिया लगभग सभी उम्र के लोगों में फैला है और ये महिलाओं और पुरुषों में समान रूप से पाया जाता है|
वर्चुअल दुनिया में खोए रहने वाले के लिए सब कुछ लाइक्स व कमेंट से तय होता है|वास्तविक जिंदगी की असली समस्याओं से वे भागना चाहते हैं और इस चक्कर में वे इंटरनेट पर ज्यादा समय बिताने लगते हैंजिसमें चैटिंग और ऑनलाइन गेम खेलना शामिल हैं। और जब उन्हें इंटरनेट नहीं मिलतातो उन्हें बेचैनी होती और स्वभाव में आक्रामकता आ जाती है और वे डिजीटल डिपेंडेंसी सिंड्रोम (डी डी सी ) की गिरफ्त में आ जाते हैं |इससे निपटने का एक तरीका यह है कि चीन से सबक लेते हुए भारत में डिजिटल डीटॉक्स यानी नशामुक्ति केंद्र खोले जाएं और इस विषय पर ज्यादा से ज्यादा जागरूकता फैलाई जाए
 ज्यादा प्रयोग के कारण डिजिटल डिवाइस से हमारा एक मानवीय रिश्ता सा बन गया हैपर तकनीक पर अधिक निर्भरता हमें मानसिक रूप से पंगु भी बना सकती है। इसलिए इंटरनेट का इस्तेमाल जरूरत के वक्त ही किया जाए|
राष्ट्रीय सहारा में 03/05/16 को प्रकाशित लेख 

Monday, May 2, 2016

महिलाओं की ताकत बना इंटरनेट

इंटरनेट ने उम्र का एक चक्र पूरा कर लिया है। इसकी खूबियों और इसकी उपयोगिता की चर्चा तो बहुत हो लीअब इसकी सामाजिक  उपयोगिता पर भी चर्चा होनी चाहिए । पिछले तकरीबन एक दशक से भारत को किसी और चीज ने उतना नहीं बदलाजितना मोबाइल फोन और इंटरनेट ने बदल दिया है। संचार ही नहींइससे दोस्ती और रिश्ते तक बदल गए हैं। इतना ही नहींदेश में अब मोबाइल बात करने का माध्यम भर नहीं हैबल्कि यह यह हमारे दैनिक जीवन को आसान बनाने में बहुत बड़ी भूमिका रही है |यूँ  तो तकनीक निरपेक्ष होती है पर भारत में इंटरनेट उन बहुत से लोगों को सबल बनाने का माध्यम बना जिनको समसामयिक दुनिया में हाशिये पर माना जाता है खासकर महिलाओं के संदर्भ में  किचन से लेकर मनचाही शादी करने तक भारत में बराबरी के समाज निर्माण में इंटरनेट क्रांतिकारी भूमिका निभा रहा है |इसने ने लोक व लोकाचार के तरीकों को काफी हद तक बदल दिया है। बहुत-सी परंपराएं और बहत सारे रिवाज अब अपना रास्ता बदल रहे हैं।
मेट्री मोनी वेबसाइट के माध्यम से महिलायें चुन रही हैं वर
अब लोग मैट्रीमोनी वेबसाइट की सहायता से जोड़ियां ही नहीं बना रहेशादियां भी रचा रहे हैं। देश की ऑनलाइन मैट्रीमोनी का कारोबार अगले तीन साल में 1,500 करोड़ तक पहुंचने की उम्मीद है। इंटरनेट ऐंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अनुसारवैवाहिक वेबसाइटों पर साल 2013 में 8.5लाख प्रोफाइल अपलोड की गईजिनकी संख्या साल 2014 में बढ़कर 19.6 लाख हो गई। यानी एक साल में 130 प्रतिशत  का इजाफा । सामाजिक रूप से देखेंतो जहां पहले शादी के केंद्र में लड़का और लड़की का परिवार रहा करता था,जिसमें भी लड़के की इच्छा ज्यादा महत्वपूर्ण रहा करती थी | अब वह धुरी खिसककर लड़के व लड़की की इच्छा पर केंद्रित होती दिखती है। यह अच्छा भी हैक्योंकि शादी जिन लोगों को करनी हैउनकी सहमति परिवार में एक तरह के प्रजातांत्रिक आधार का निर्माण करती हैन कि उस पुरातन परंपरा के आधार परजहां माता-पिता की इच्छा ही सब कुछ होती थी। इस पूरी प्रक्रिया में महिलाओं को अपना जीवन साथी चुनने का अधिकार देने वाला इंटरनेट और शादी करने वाले विभिन्न एप बन रहे हैं |
रसोई घर में भी हो रही है ई क्रांति
हमारे रसोई घर इनोवेशन का माध्यम भी हो सकते हैं इस ओर कभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया तभी तो दादी नानी के हाथों के बने विभिन्न व्यंजन उनके जाने के साथ इतिहास हो गये पर जब हमारे रसोईघरों को इंटरनेट का साथ मिला तो भारत में एक नई तरह की खाना क्रांति आकार लेने लगी|ताजा उदाहरण है भारत में एप के माध्यम से घर में बने खाने का तेजी से बढ़ता व्यापार,बदलती जीवन शैलीबढ़ता माध्यम वर्ग और काम काजी महिलाओं की संख्या में इजाफा और दुनिया में दुसरे नंबर पर सबसे ज्यादा स्मार्ट फोन धारकों की उपस्थिति ये कुछ ऐसे कारक हैं जिनसे घर पर खाना बनाने की प्रवर्ति प्रभावित हुई है | बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप के अनुसार भारत में खाने का बाजार जो साल 2014 में तेइस लाख  करोड़ रुपये का था | साल 2020 में इस बाजार के बयालीस लाख करोड़ रुपये हो जाने की उम्मीद है और इसमें सबसे बड़ी भूमिका खाने के विभिन्न एप निभा रहे हैं जो घर पर बना खाना वाजिब कीमत पर आपकी मनपसंद जगह पर पहुंचा रहें हैं |भारत की सबसे बड़ी घर पर  बने खाने का व्यवसाय करने वाली वेबसाईट व्हाट्स कुकिंग डॉट कॉम अभी मात्र एक साल की है जिसके पास तीन हजार एक सौ  अस्सी घर पर खाना बना कर पहुंचाने वाले लोग हैं और यह देश के तीस जगहों से अपनी सेवा दे रही है |ऐतिहासिक रूप से भारत में घर पर  खाना बनाना कभी आर्थिक गणना में शामिल नहीं रहा पर एप के माध्यम से खाने का बढ़ता कारोबार इस मिथक को तोड़ रहा है |आंकड़ों में घोषित तौर पर भारत की पंद्रह प्रतिशत महिलायें रोजगार में हैं इनकी संख्या लगातार बढ़ रही है इनकी बढ़ती संख्या घर में बने खाने की मांग को बढ़ा रही है जिसका इंटरनेट अच्छा माध्यम बना है |इससे पहले घर में बने खाने का विकल्प गरीब तबके की महिलायें ही हुआ करती थीं जो घर में आकर खाना बनाती थी और उनके कोई श्रमिक अधिकार नहीं थे पर अब इसमें मध्यम वर्ग की उन महिलाओं का आगमन तेजी से हुआ है जिन्हें आमतौर पर होम मेकर की संज्ञा दी जाती हैं जो घर पर रहती हैं और पति की आमदनी पर निर्भर रहती हैं |एप आधारित खानों का यह व्यापार ऐसी महिलाओं को रोजगार से जोड़कर स्वावलंबन का अहसास करा रहा है जिनके पास खाना बनाने का अलावा और कोई हुनर नहीं है |एप जैसे किचन ,फ्रॉम होम साइबर सेफ ,मील टेंगो ,यम्मी किचन ,बाईट क्लब आदि के ग्राहकों  की बढ़ती संख्या यह इंगित कर रही है लोग बाहर का खाना तो पसंद कर रहे हैं पर गुणवत्ता घर के बने खाने जितनी चाहते हैं|इस स्थिति में अपने अपने घरों से यह महिलायें अपने संसधानों आपका मनपसन्द खाना एप के माध्यम से लोगों तक पहुंचा रही हैंइस व्यवसाय का बिजनेस मॉडल ओला या उबेर जैसी टैक्सी कम्पनियों की तरह है मुनाफे में बंटवारा एप निर्माता कम्पनियों और खाना बनाने वालों के बीच बंट जाता है |
बात चाहे मनपसंद जीवन  साथी चुनने की हो या घर का वह उपेक्षित हिस्सा जहाँ महिलायें महज खाना बनाती हैं इंटरनेट के कारण अब महिलाओं के स्वावलंबन और सशक्तीकरण का जरिया बन रहा है बदलाव की शुरुवात हो चुकी है पर फिर भी अभी लंबा रास्ता तय करना है |
नवभारत टाईम्स में 02/05/16 को प्रकाशित 


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