Wednesday, May 28, 2014

बच्चों के अंदर के इंसान को बचाइए

किसी भी समाज की  संवेदनशीलता का स्तर उसके अपने बच्चों के साथ किये गए व्यवहार से परिलक्षित होता है.यौन हिंसा किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं है,पर जब बात बच्चों की हो तो समस्या की गंभीरता बढ़ जाती है|
देश में बाल यौन उत्पीडन  के मामले तीन सौ छत्तीस प्रतिशत बढ़ गए हैं | एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स  रिपोर्ट इंडियाज हेल होल्स के मुताबिक साल 2001 2011 के बीच कुल 48,338 बच्चों से यौन हिंसा के मामले दर्ज किये गए,साल 2001 में जहाँ इनकी संख्या 2,113 थी वो 2011 में बढ़कर 7,112 हो गई.महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ये ऐसे मामले हैं जो रिपोर्ट किये गए हैं|रिपोर्ट के मुताबिक़ बच्चों के प्रति बढ़ती यौन हिंसा बहुत तेज बढ़ रही है|इस अवधि में राज्यों के लिहाज से सबसे ज्यादा बच्चों के साथ यौन हिंसा के मामले मध्यप्रदेश (9465),महाराष्ट्र(6868) फिर उत्तरप्रदेश (5949) में दर्ज किये गए लक्षदीप में बच्चों के साथ यौन हिंसा का कोई भी मामला आधिकारिक रूप से दर्ज नहीं किया गया|महिलाओं के साथ हुई यौन हिंसा के मामले इसलिए आसानी से सुर्खियाँ बन जाते हैं कि वे बालिग़ होती हैं और अपने साथ हुए अन्याय को दुनिया से कह सकती हैं,बच्चे इस मामले में लाचार होते हैं,हमारा सामाजिक ताना बाना और सेक्स शिक्षा के अभाव में किसी भी पीड़ित बच्चे के साथ ऐसा कुछ भी होता है तो उसे समझ ही नहीं आता कि वो क्या करे|
बच्‍चों के साथ हुए ऐसे कृत्य के परिणाम बहुंत गंभीर होते हैं जिससे पूरा समाज प्रभावित होता है| तथ्य यह भी है कि हमारी समाजीकरण प्रक्रिया में अभी तक बच्चों के पास इस पाशविक व्यवहार के लिए कोई शब्द विज्ञान या भाषा ही नहीं है उनके पास महज हाव भाव ही होते हैं और हर अभिभावक इतना जागरूक और पढ़ा लिखा हुआ हो ये जरूरी नहीं|
भारत में लगभग चार करोड तीस लाख  (430 मिलियन) बच्चे हैंजो उसकी कुल आबादी का एक-तिहाई हैं। विश्व की कुल बाल आबादी का ये पांचवा हिस्सा हैं। संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा के मुताबिक : एक बच्चे और उम्रदराज़ अथवा ज्यादा समझदार बच्चे अथवा वयस्क के बीच संपर्क अथवा बातचीत (अजनबीसहोदर अथवा अधिकार प्राप्त शख्सजैसे अभिभावक अथवा देखभाल करने वाला)के दौरान जब बच्चे का इस्तेमाल एक उम्रदराज़ बच्चे अथवा वयस्क द्वारा यौन संतुष्टि के लिए वस्तु के तौर पर किया जाए। बच्चे से ये संपर्क अथवा बातचीत ज़ोर-जबरदस्तीछल-कपटलोभधमकी अथवा दबाव में की जाए।” भारत आबादी के लिहाज से दुनिया के ऐसे देशों में आगे है जिसकी आबादी का बड़ा हिस्सा युवा वर्ग से बनता है आर्थिक विकास परिप्रेक्ष्य में यह वरदान सरीखा है, लेकिन अपने युवाओं की सही देखभाल न कर पाने से देश  अपने जनसांख्यिकीय लाभ का पूरी तरह फायदा पाने में पिछड सकता है कारण बाल उत्पीडन की संख्या में हो रही लगातार वृद्धि|हालंकि सरकार ने यौन-अपराध बाल संरक्षण अधिनियम(POCSO) लागू कर दिया है  जिसके अंतर्गत  बाल-उत्पीड़न के सभी प्रकारों को पहली बार भारत में विशिष्ट अपराध बना दिया गया लेकिन पर्याप्त जागरूकता के अभाव और संसाधनों की कमी के चलते व्यवहार में  कोई ठोस बदलाव होता नहीं दिख रहा है|बच्चे लगभग हर जगह उत्पीडन के शिकार हैं  अपने घरों के भीतरसड़कों परस्कूलों मेंअनाथालयों में और सरकारी संरक्षण गृहों में भी|  इस समस्या का एक साँस्कृतिक पक्ष भी है.हम एक युवा आबादी वाले देश में पुरातन पितृसत्तात्मक सोच के साथ बच्चों को पालते हैं और अपनी सोच को उन पर इस तर्क के साथ थोप देते हैं कि ये तो बच्चे हैं, परिणाम बाल विवाह,ऑनर किलिंग और भ्रूणहत्या जिनका समाधान सिर्फ कानून बना कर नहीं हो सकता है|पारिवारिक ढांचे में ये सच है कि बच्चों की कोई नहीं सुनता वो भी यौन शोषण जैसे संवेदनशील विषय पर तब सम्बन्धों,परिवार की मर्यादा आदि की आड़ लेकर बच्चों को चुप करवा दिया जाता है,इसलिए बाल उत्पीडन के वही मामले दर्ज होते हैं जिसमें शारीरिक क्षति हुई होती है|बाल यौन उत्पीडन एक स्वस्थ बाल मस्तिष्क को हमेशा के लिए क्षतिग्रस्त कर देता है जिससे बच्चों में व्यवहार संबंधी अनेक तरह की मनोवैज्ञानिक समस्याएं पैदा हो जाती हैं जिसका परिणाम एक खराब युवा मानव संसाधन के रूप में आता है|बाल यौन उत्पीडन को गंभीरता से इसलिए भी लिए जाने की जरुरत है क्यूंकि बच्चे ही हमारा भविष्य हैं| प्रख्यात बाल लेखक जैनज़ कोरज़ाक ने कहा  था कि- 'बच्चे और किशोरमानवता का एक-तिहाई हिस्सा हैं। इंसान अपनी जिंदगी का एक-तिहाई हिस्सा बच्चे के तौर पर जीता है। बच्चे...बड़े होकर इंसान नहीं बनतेवे पहले से ही होते हैं,हमें बच्चों के अंदर के इंसान को जिन्दा रखना होगा |
अमरउजाला कॉम्पेक्ट में  28/05/14 को प्रकाशित

Saturday, May 24, 2014

नई राह तलाशती रफ़्तार की पत्रकारिता

खबरों को कौन कितनी तेजी से लोगों तक पहुंचता है वही समाचारों की दुनिया का बादशाह होता है अखबार ,रेडिओ और टीवी के बाद आज इंटरनेट तेजी का पर्याय बन चुका है,पर इंटरनेट अब ख़बरों  की दुनिया के एक ऐसे हिस्से को प्रभावित कर रहा है जिसके बारे में आमतौर पर चर्चा कम ही होती है.सामान्यत: ख़बरों के थोक विक्रेता माने जाने वाली समाचार समितियों के संसार को कहीं से किसी कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना नहीं करना पड़ा है.ये टक्कर आम तौर पर खबरों के लिए गंभीर माध्यम न माने जाने वाले फेसबुक की तरफ से है.फेसबुक ने फन एलिमेंट से आगे निकलते हुए और ट्विटर की तेजी को अपनाकर फेसबुक न्यूज़ वायर नाम की एक नयी सेवा शुरू की है| यह सेवा समाचारों की दुनिया में भी फेसबुक के दखल की शुरुवात है|जिसमें दुनिया भर के फेसबुक प्रयोगकर्ताओं द्वारा शेयर की जा रही सामग्री जिसमें फोटो ,वीडिओ और स्टेटस शामिल हैं,इस सामग्री में ऐसे तथ्यपरक सूचनाओं को जो ज्यादा वाइरल (पढी,देखी या चर्चा ) हो रही हैं को एक जगह उपलब्ध कराया जाएगा. इस सेवा में फेसबुक को मदद  “स्टोरीफुल कम्पनी” की मदद मिल रही है |जो सारी दुनिया में सोशल न्यूज़ वायर सर्विस पर बहुमूल्य सामग्री उपलब्ध कराने की अपनी विशेज्ञता के लिए जानी जाती है| लोगों की निजता को ध्यान में रखते उन्हीं पोस्ट को ऍफ़ बी वायर पर जगह दी जायेगी जिनको सभी लोगों के लिए शेयर किया गया होगा.पत्रकारिता की दुनिया में यह प्रयास पत्रकारों के लिए काफी लाभदायक होगा जो सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर ख़बरों की तलाश में घंटों अपना समय सर्फिंग में बर्बाद करते हैं.फेसबुक की एक विशेषज्ञ टीम इस सामग्री के चयन  के लिए तैनात की गयी है.माना जा रहा है कि इस प्रयोग से बड़ी चुनौती ट्विटर को भी मिलेगी जो ब्रेकिंग न्यूज़ के मामले में अब तक सबसे अव्वल है|ट्विटर की इस ताकत को चुनौती देने के लिए फेसबुक वायर का ट्विटर अकाउंट भी  बनाया गया है|इस सेवा के दूरगामी असर पड़ने की संभावना है यह सेवा  जहाँ एक और समाचारों को प्रमाणिकता देने के साथ साथ नागरिक पत्रकारिता (सिटीजन जर्नलिज्म ) को बढ़ावा देगी जिससे न्यूज़ पूल का दायरा बढेगा यह इंटरनेट पर “नेटीजन जर्नलिज्म” की एक नयी अवधारणा के लिए प्रेरक का काम करेगा | माना जा रहा है कि फेसबुक प्रयोगकर्ताओं की बड़ी तादाद के कारण  समाचार समितियों के कारोबार पर असर पड़ सकता है और कम समय में ज्यादा वैविध्यपूर्ण  समाचार फोटो वीडिओ सहित ज्यादा लोगों तक पहुँच सकेंगे |हालांकि अभी यह सेवा अपनी शुरुवाती अवस्था में है पर भारत जैसे देश में जहाँ मीडिया के विस्तार की पर्याप्त संभावनाएं मौजूद हैं  जब समाचार चैनल या अखबार और समाचार समितियां  खबर के लिए सिर्फ अपने संवाददाताओं पर नहीं निर्भर रहेंगी बल्कि हर इंटरनेट उपभोक्ता उनका संभावित संवाददाता होगा|
जिसमें बड़ी भूमिका स्मार्ट फोन से लैस भारत की बड़ी जनसँख्या निभाने वाली है.भारत जैसे देश में यह सेवा कितनी सफल होगी इसका उत्तर देना थोड़ी जल्दबाजी होगी पर इतिहास तो यही बताता है कि हर नयी  तकनीक का स्वागत हम खुले दिल से करते हैं|
हिन्दुस्तान में 24/05/14 को प्रकाशित लेख 

Friday, May 23, 2014

महज़ रुमाल नहीं है आपका रुमाल

गर्मियों की छुट्टियाँ हो गयी हैं.कुछ लोग घूमने का प्रोग्राम बना रहे होंगे तो कुछ के घर में शादी या ऐसा ही कोई और आयोजन होगा.मेरा आपकी प्राइवेसी में दखलंदाजी करने का कोई इरादा नहीं है हम तो बस पूछ रहे थे कि जब इतने सारे प्रोग्राम होंगे तो आप सब सुन्दर दिखने के लिए कुछ कपडे वगैरह भी जरुर खरीदेंगे.मैं सही कह रहा हूँ न अच्छा कपड़ों में क्या क्या खरीदा. अब ये भी कोई बताने की बात है.अमा कपड़ों में कपडे ही खरीदे जायेंगे.सही कह रहे हैं आप अच्छा एक बात बताइए कपड़ों का ही एक जरुरी हिस्सा है रुमाल ,बोले तो नैपकिन हैंकी अच्छा  कभी आपने अलग से रुमाल की शॉपिंग की है जैसे पैंट,शर्ट,साड़ी या सूट की करते हैं .क्या याद नहीं आ रहा है.चलिए मैं कुछ याद दिलाता हूँ.एक दिन बगैर रुमाल के घर से निकल जाइए या रुमाल घर पर भूल जाइए .बहुत कुछ याद आ जाएगा.वैसे भी चीजों की कमी उनके न रहने पर ही खलती है. रुमाल फारसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ मुंह पर मलने वाली चीज है.हाथ से लेकर मुंह साफ़ करने के अलावा रुमाल का कई इस्तेमाल हैं.अब ये आपके ऊपर है कि आप इसका इस्तेमाल कैसे करते हैं.हिंदी फिल्मों के कई गानों में प्यार की शुरुवात नायिका के रुमाल खोने या मिलने से शुरू होती है.वो गाना तो आपने भी जरुर सुना होगा हाथों में जो आ गया रुमाल आपका.मतलब रुमाल भले ही एक छोटा सा कपडे का टुकड़ा भले ही हो पर वो हमारी जिंदगी में बहुत असर डालता है.जब आप मंदिर मस्जिद या गुरुद्वारा जाते हैं तो सर पर रुमाल डाल लेते हैं,यानि रुमाल का एक सुपर नेचुरल कनेक्शन भी है. रुमाल में पैसे से लेकर चाभी तक बांधी जाते है.मुझे पता है कि हमेशा की तरह आपके दिमाग में ये सवाल उठ रहा होगा की बात छुट्टियों से शुरू हुई और रुमाल पर आकर क्यूँ अटक गयी है और रुमाल की कहानी से आपको क्या?अच्छा ये बताइए कभी आपने गौर किया कि आपके रुमाल कब बदल जाते हैं आपको पता ही नहीं चलता आप कभी कपड़ों की तरह रुमाल को बदलने की प्लानिंग नहीं करते हैं,नए रुमाल आते हैं पुराने कहाँ चले जातें हैं न कभी आपने जानने की कोशिश की और न किसी ने बताने की.अरे भाई  फुर्सत किसे है.वैसे जिन्दगी में बहुत से लोग हमें ऐसे मिलते हैं जो हमारे काम आते हैं,हमारा जीवन आसान बनाते हैं और फिर चुपचाप हमें शुक्रिया कहने का मौका दिए बगैर जीवन से विदा हो जाते हैं.जरा पीछे मुड़कर देखिये आपके जीवन में ऐसे न जाने कितने लोगों का हाथ होगा जिनकी बदौलत आप आज जिन्दगी में आगे बढ़ रहे हैं या आपकी जिंदगी खूबसूरत है.अगर आपको मेरी बातों पर भरोसा नहीं हो रहा तो सोचिये आपके घर गैस पहुंचाने वाला शख्स कौन है क्या आपको उसका चेहरा याद आ रहा है.वो आदमी जिसकी वजह से आप सुबह सुबह मेरा लेख पढ़ रहे हैं जी हाँ वो अखबार वाला,क्यूंकि वह  जब अखबार डाल के  जाता है तब आप सो रहे होते हैं.ऐसे न जाने कितने लोग हैं जो हमारे जीवन में रुमाल का रोल प्ले कर रहे होते हैं अपनी इम्पोर्टेंस का एहसास कराये बगैर और ऐसे लोगों को तो आप बखूबी जानते होंगे जो अपनी खुद की तारीफ में फेसबुक की वाल रोज रंगे बैठे होते हैं.
रुमाल यूँ तो हमारे पहनावे का एक छोटा सा हिस्सा भर है पर ये हमारी जिन्दगी से जुड़ा हुआ है जैसे आप डेली रूटीन में रुमाल खरीदने की प्लानिंग नहीं करते वैसे ही जिन्दगी को प्लान नहीं किया जा सकता.जो जैसे मिले उसे स्वीकार कीजिये.रुमाल का कलर आपके कपड़ों से मैच नहीं कर रहा है चलेगा पर रुमाल का न होना नहीं चलेगा वैसे ही जिन्दगी में रिश्तों का होना इम्पोर्टेंट है उनका अच्छा या बुरा होना नहीं क्यूंकि जिन्दगी रहेगी तो रिश्तों को बेहतर किया जा सकता है पर जिन्दगी ही न रही तोइसीलिये तो कहा जाता है जिन्दगी न मिलेगी दुबारा तो जी लो जी भर के पर तो अगली बार आपका रुमाल खो जाए तो उसे ढूंढने की कोशिश कीजियेगा क्यूंकि ये रुमाल महज रुमाल नहीं हम सबकी जिंदगी का आईना भी है.
आईनेक्स्ट में 23/05/14 को प्रकाशित 

Saturday, May 17, 2014

तीसरे मोर्चे को नहीं मिली तवज्जो

चुनाव परिणामों ने स्पष्ट कर दिया है कि देश की राजनीति की दशा और दिशा दोनों बदल रही है कांग्रेस की हार अप्रत्याशित नहीं थी पर चौंकाने वाली खबर बनी तीसरी मोर्चे की हार. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, जनता दल (यूनाइटेड),समाजवादी पार्टी , अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल, जनता दल (सेक्युलर), झारखंड विकास मोर्चा, फ़ॉरवर्ड ब्लॉक, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी और असम गण परिषद जैसी पार्टियों को मिलाकर बना ये भानुमती का कुनबा देश को उम्मीद नहीं दे सका.माना जाता है की दिल्ली का रास्ता लखनऊ से होकर गुजरता है और उत्तर भारत में तीसरे मोर्चे के घटक दलों ने दयनीय प्रदर्शन किया है.उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी वहीं बिहार में जनता दल यूनाइटेड अपने प्रदेश में लोगों की उम्मीद पर खरे नहीं उतरे,जबकि ओडीशा में बीजू जनता दल और तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक ने अच्छा प्रदर्शन किया है.साफ़ है कि तीसरे मोर्चे की अवधारणा को लोगों ने गंभीरता से नहीं लिया.ये इतनी बार बना और बिगड़ा है कि जनता ने ये मान लिया कि इस मोर्चे के पीछे कोई वैचारिक प्रतिबधता नहीं बल्कि कुछ दलों की निजी राजनैतिक  महत्वाकांक्षा मात्र है,तीसरे मोर्चे के विचार को आगे बढ़ाने में हमेशा आगे रहने वाले वाम दल लगातार अपनी राजनैतिक ज़मीन खोते जा रहे हैं,पश्चिम बंगाल में इनका सूपड़ा साफ़ होना इस बात का संकेत है कि इनके वोट बैंक में एक नयी राजनैतिक चेतना का सूत्रपात हो रहा है जिसकी ओर इन दलों ने ध्यान नहीं दिया,भारत में उदारीकरण की लहर और बाजारवाद के उदय ने दलितों ,वंचितों और अल्प्सख्यकों में एक  नए मध्यम वर्ग का सृजन किया है जो सिर्फ नारों और जनवादी गीतों से  बहलने वाला नहीं है उसे भी एक बेहतर जीवन शैली की तलाश है.जाहिर है वाम दल उस बेहतर जीवन शैली की उम्मीद को हकीकत का जामा अभी तक नहीं पहना पाए हैं.उत्तरप्रदेश और बिहार में समाजवादी आन्दोलन सिर्फ यादव और मुस्लिम केन्द्रित होकर रह गया जिसका खामियाजा उन्हें इस चुनाव में भुगतना पड़ा.तथ्य यह भी है कि तीसरे मोर्चे का कोई चेहरा नहीं था.बी जे पी जहाँ मोदी के नाम पर मैदान में थी वहीं कांग्रेस में नेतृत्व की कमान राहुल गांधी के हाथ में थी जबकि तीसरा मोर्चा इस परिकल्पना पर आगे बढ़ रहा था की जिस पार्टी को ज्यादा सीट मिलेगी उस दल का नेता प्रधानमंत्री बनेगा.इस परिकल्पना ने मतदाताओं को यह सोचने पर मजबूर किया कि इस बार के तीसरे मोर्चे का भविष्य भी अतीत में बने तीसरे मोर्चे जैसा ही होगा,जबकि देश स्थिर और मजबूत सरकार की उम्मीद में था.जाहिर है कि बीजेपी के विकास के मुद्दे के आगे तीसरे मोर्चे की सेक्युलर सोच को प्राथमिकता में नहीं रखा. इंटरनेट ऐंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के मुताबिक, देश के 24 राज्यों में इंटरनेट उपयोगकर्ता मतदान में तीन से चार प्रतिशत तक का बदलाव लाएंगे.बीजेपी ने जिस तरह साइबर वर्ल्ड में सोशल मीडिया की सहायता से अपना प्रचार अभियान छेड़ा तीसरे मोर्चे के घटक दल उसमें भी बहुत पीछे छूट गए.उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने भले ही पंद्रह लाख लैपटॉप बांटे पर सोशल मीडिया में समाजवादी पार्टी की उपस्थिति नगण्य रही और यही हाल तीसरे मोर्चे के अन्य घटक दलों का भी रहा.जाहिर है तीसरे मोर्चे के घटक दल हवा का रुख भांप कर रणनीति बनाने में असफल रहे सूचना तकनीक के इस युग में जब वक्त के हर लम्हे का दस्तावेजीकरण हो रहा है और जनता भी बदल रही है   ऐसे में तीसरा मोर्चा उम्मीद का विकल्प नहीं बन पाया.

 पत्रिका में 17/05/14 को प्रकाशित 

Tuesday, May 13, 2014

एक रुपये में 10 गोलगप्पे और डबल डेकर बस की सवारी

आइये आपको एक कहानी सुनाते हैं,लखनऊ की कहानी,हमारे लखनऊ की कहानी, एक ऐसे कहानी जो हमारे आस पास कल तक थी पर आज इतिहास है| होश सम्हालते लखनऊ की जो पहली तस्वीर मेरे जेहन में उभरती है वो है सड़कों पर चलते टैम्पो जिन्हें उन दिनों गणेश जी कहा जाता था कारण आगे से वे काफी लम्बे हुआ करते थे.आलमबाग से चारबाग का किराया साठ पैसे |सड़कों पर कार और बाईक कम ही थी सड़कों पर  ज्यादातर स्कूटर या साइकिल सवार ही दिखा करते थे|कार की बात तो छोडिये बाईक होना स्टेटस सिम्बल माना जाता था|सड़क से चलिए आइये उन दिनों के घरों की तरफ ले चलूँ.वो भी क्या दिन हुआ करते थे,जब छत हम सबकी जिन्दगी का अहम् हिस्सा हुआ करती थीं  मौसम कोई भी हो जाड़ा गर्मी या बरसात छतें  हमेशा गुलजार रहा करती थीं बस उनका समय बदला करता था|जाड़े में जब तक छत पर धूप हो गर्मी में शाम होते ही छतों की धुलाई शुरू हो जाती थी क्यूंकि रात को सुहानी बनाने का यही एक तरीका था जब पूरा घर छत पर ही सोता था तब एसी और कूलर लक्जरी हुआ करते थे,बारिश में छत पर भीगने का अपना एक अलग लुत्फ़ हुआ करता था .उन दिनों लखनऊ में डबल डेकर बस भी चला करती थी उसका रूट शायद चारबाग से सिंगार नगर हुआ करता था.इस बस की ऊपर वाली मंजिल पर बैठने का सौभाग्य मुझे भी मिला आज भी उसके रोमांच को मैं महसूस कर सकता हूँ|तब लखनऊ में साप्ताहिक बाजारों का बड़ा महत्व था आलमबाग का  मंगल बाजार हो या निशातगंज का बुध बाजार लोग हर हफ्ते इन बाजारों के लगने के इन्तजार करते थे, तब के  सुपर मार्केट और मॉल्स यही साप्ताहिक बाजार हुआ करते थे|कुल्फी का मतलब सिर्फ प्रकाश कुल्फी होता था जिसका विज्ञापन नियमित रूप से लखनऊ विविध भारती पर चित्रलोक में बजा करता था |कोई अमीनाबाद गया और उसने प्रकाश कुल्फी नहीं खाई तो उसका अमीनाबाद जाना बेकार ही रहा|सड़कों से गुजरते वक्त अगर किसी सुरीले गाने की आवाज़ कानों में पड़े तो समझ लीजिये कि कहीं रेडिओ पर विविधभारती बज रहा है या कोई बड़ा संगीत दीवाना अपने टेपरिकॉर्ड बजा रहा है|पेट्रोल सात रुपैये लीटर ,एक रुपये के दस गोल गप्पे और दस पैसे की औरेंज आईसक्रीम|.हाँ पानी पाउच या बिसलरी की बोतल में नहीं मिलते थे दस पैसे खर्च कीजिये और एक गिलास पानी पीजिये |आलमबाग के लोकोशेड के साइरन से आधा लखनऊ घड़ी मिलाता था .घर के कबाड़ को  मीठी पट्टी  के बदले,बदला जा सकता था|छतों पर लगे एंटीना देखकर अंदाज़ा लगाया जाता था की इस घर में टीवी है कि नहीं और जब डीडी मेट्रो शुरू हुआ तो घर के एक तथाकथित जिम्मेदार लड़के का नियमित काम एंटीना को सही पोजीशन करना और छत से लगातर ये पूछना आया कि नहीं और नीचे से जोर से आवाज़ आती बस्सस्स आ गया मतलब अब तस्वीर साफ़ आ रही है|वैसे जो बीत जाता है वो बीत ही जाता है पर यादों का क्या कभी भी आ जाती हैं बिन यादों के भी कोई जीवन हो सकता है भला वो दिन अलमस्ती के दिन होते थे जब जेब खाली होती थी पर दिल लोगों के ख़ुलूस और प्यार से भरे रहते थे |पतंग के मांझे से हाथ जरुर कटते थे पर पतंगे दिल जोड़ दिया करती थी.
हिनुस्तान लखनऊ लाईव में प्रकाशित संस्मरण 

Tuesday, May 6, 2014

बहुत पॉलिटिक्स है भाई

इन दिनों आप खूब राजनीति का आनंद ले रहे होंगें राजनीति बोले तो पॉलीटिक्स हो भी क्यूँ न चुनाव का मौसम है,मैंने एक बात गौर की है शायद आपने भी की हो पॉलीटिक्स को एक निगेटिव टर्म माना जाता है.हम जब वर्कप्लेस या रिश्तों में फंस जाते हैं तो बस बेसाख्ता मुंह से निकल जाता है बहुत पॉलीटिक्स हैपर वास्तव में क्या ऐसा है.सच बताऊँ तो ये पॉलीटिक्स इतना बुरा शब्द भी नहीं है जितना हम समझते हैं.देश के चुनाव का मौसम पांच साल में एक बार आता है जब हम अपनी च्वाईस से किसी को वोट देते हैं.कभी किसी को जीताने के लिए और कभी कभी किसी को हराने के लिए भाई यही पॉलीटिक्स है.यानि सारा खेल बस इसी च्वाईस का है कि हम जिस तरह का देश समाज चाहते हैं वैसे ही लोग चुनकर आयें पर जब ऐसा नहीं होता है तो शुरू होती है कनफ्लिक्ट,इस वैचारिक कनफ्लिक्ट का फैसला चुनाव के वक्त होता है पर जब बात जिंदगी की होती है तो च्वाईस का मामला और भी इम्पोर्टेंट हो जाता है भाई जिंदगी कोई देश नहीं है कि एक बार अपनी च्वाईस बता दी और पांच साल की छुट्टी यहाँ तो रोज हर वक्त पॉलीटिक्स है,क्यूंकि हम सभी  अपनी जिंदगी को बेहतर और खूबसूरत बनाना चाहते हैं और ये तभी हो सकता है जब देश और समाज अच्छा होगा यहाँ तक तो ठीक है पर जब बात जिंदगी और रिश्तों की होती है और चीजें हमारे हिसाब से नहीं होती तब एक और तरह का कनफ्लिक्ट शुरू होता है तब हम परिस्थितियों का सामना करने की बजाय  बहुत पॉलीटिक्स हैकहकर समस्याओं से भागने लग जाते हैं.आपको क्या लगता है इस तरह जीवन की समस्याएं ठीक होंगी क्या ? चुनाव के वक्त हमें वोट तो देना ही पड़ेगा तभी तो हम अपनी पसंद के कैन्डीडेट को जीता पायेंगे उसी तरह जिंदगी में हमें अपनी प्राथमिकताएं तय करनी पड़ती हैं कि हम जिंदगी और रिश्तों से क्या चाहते हैं तो जब रिश्ते की पॉलीटिक्स में फंसें तो पहले यह तय कीजिये कि आप क्या चाहते हैं और उसी तरह से निर्णय लीजिए.अपनी जिंदगी के पन्ने पलटिए थोडा पीछे मुड़कर देखिये कि आप जिन्द्गी में सफल या असफल क्यूँ हुए बात सीधी है.अगर आप सफल रहे हैं तो आपने फैसले सही किये अपनी प्राथमिकताएं स्पष्ट रखी जिससे आपको और दूसरों को भी आपके बारे में निर्णय लेने में आसानी हुई.पर अगर आप लगातार असफल हो रहे हैं तो जिंदगी की पॉलीटिक्स यही कहती है कि आप भ्रम के शिकार हैं जिंदगी और रिश्तों को लेकर आपका नजरिया स्पष्ट नहीं हैं.आप अपने आस पास के लोगों से क्या चाहते हैं आपको इसका पता ही नहीं हैं तो जाहिर सी बात है जैसे देश के चुनाव में हम भ्रम का शिकार होकर गलत  कैन्डीडेट को वोट देकर जीता देते हैं वैसे ही जिंदगी और रिश्तों में गलत फैसले लेकर अपने आप को परेशानी में फंसा लेते हैं और कोसते हैं किस्मत और जिंदगी को भाई बहुत पॉलीटिक्स है.चुनाव के वक्त आपने भी सुना होगा बहुत से दल ये दावा करते हैं कि उनके आते ही विकास की गंगा बहने लगेगी अब आप इस तरह की बातों पर भरोसा कर लेते हैं तो समझ लीजिए कि आप जिंदगी और रिश्तों के बारे में भी आपकी समझ नहीं है.बात को थोडा हल्का करता हूँ अच्छा इतना तो आप भी मानते हैं कि दोस्ती या रिश्ते एकदम से क्लोज नहीं होते और अगर ऐसा हो रहा है तो समझ लीजिए कि ऐसे रिश्ते के मोटिव क्लीयर नहीं हैं,रिश्तों को पकने में वक्त लगता है और इसके पीछे सिलसिलेवार तरीके से आपके द्वारा लिए गए निर्णय रिन्स्पोसिबल होते हैं उसी तरह से देश में बदलाव एक झटके में नहीं हो सकता है इसके लिए एक पूरी प्रक्रिया है.आज लगता है मैं आप लोगों को ज्यादा पका रहा हूँ आपको मजा नहीं आ रहा है.बस यही एटीट्यूड सारी प्रोब्लम की जड़ है बात जब भी पॉलीटिक्स की होती है वो चाहे देश की हो या रिश्तों की हम बोर होने लगते हैं पर प्रोब्लम का सल्यूशन तो तभी होगा जब हम उनके बारे में सोचेंगे,आपने कभी सोचा कि बचपन का वो दोस्त जो आपको सबसे प्यारा लगता था आज उससे बात करने पर वो मजा नहीं आता सिंपल है आपने अपनी प्राथमिकताएं बदल ली हैं.आज आपको उसकी उतनी जरूरत नहीं क्यूंकि आपका जीवन आगे बढ़ चला है.बात देश की हो या अपनी अपनी जिंदगी की पॉलीटिक्स की सारा खेल च्वाईस का है पर जैसे देश आपसे वोट की उम्मीद करता है जिंदगी और रिश्ते भी करते हैं.देश का वोट उंगली पर लगी स्याही से दिखता है.जिंदगी और रिश्तों का  वोट अफैक्शन,केयर और सैक्रिफाईज़ की फॉर्म में दिखता है तो वोट कीजिये देश के लिए पांच साल में और अपने लिए,अपने रिश्तों के लिए  रोज .
आई नेक्स्ट में 06/05/14 को प्रकाशित 

Friday, May 2, 2014

कुदरती क्षमताओं को पंगु बनाते मोबाइल ऐप

मोबाइल ऐप (ऐप्लीकेशन) विश्लेषक कंपनी फ्लरी के मुताबिक, हम मोबाइल ऐप लत की ओर बढ़ रहे हैं। स्मार्टफोन हमारे जीवन को आसान बनाते हैं, मगर स्थिति तब खतरनाक हो जाती है, जब मोबाइल के विभिन्न ऐप का प्रयोग इस स्तर तक बढ़ जाए कि हम बार-बार अपने मोबाइल के विभिन्न ऐप्लीकेशन को खोलने लगें। कभी काम से, कभी यूं ही। फ्लरी के इस शोध के अनुसार, सामान्य रूप से लोग किसी ऐप का प्रयोग करने के लिए उसे दिन में अधिकतम दस बार खोलते हैं, लेकिन अगर यह संख्या साठ के ऊपर पहुंच जाए, तो ऐसे लोग मोबाइल ऐप एडिक्टेड की श्रेणी में आ जाते हैं। पिछले वर्ष इससे करीब 7.9 करोड़ लोग ग्रसित थे। इस साल यह आंकड़ा बढ़कर 17.6 करोड़ हो गया है, जिसमें ज्यादा संख्या महिलाओं की है।
रिपोर्ट के अनुसार, ऐसे लोग मोबाइल का इस्तेमाल कपड़ों की तरह करते हैं और 24 घंटे उसे अपने से चिपकाए घूमते हैं। हमारे देश के संदर्भ में यह रिपोर्ट इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि भारत मोबाइल उपभोक्ताओं के मामले में हम दुनिया में दूसरे स्थान पर हैं और यहां स्मार्ट फोन धारकों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। जाहिर है, इसी के साथ देश में ऐप के लती लोगों की संख्या भी बढ़ेगी। भारत में सबसे लोकप्रिय मोबाइल एप के रूप में सोशल नेटवर्किग साइट फेसबुक और चैटिंग ऐप व्हाट्सअप प्रमुख हैं। आंकड़ों के मुताबिक, दुनिया भर में व्हाट्स अप के 50 करोड़ उपभोक्ता हो गए हैं, जिनमें दस प्रतिशत भारतीय हैं। इनमें बड़ा हिस्सा युवाओं का है, जो लोगों से हमेशा जुड़े रहना चाहते हैं, जिसका परिणाम मोबाइल ऐप के अधिक इस्तेमाल और उसकी लत के रूप में सामने आ रहा है। बार-बार फेसबुक या व्हाट्स अप खोलकर देखना, मोबाइल के बगैर बेचैनी होना, इस लत के खास लक्षण हैं। इसके परिणामस्वरूप एकाग्रता में कमी आती है।
इनका ज्यादा इस्तेमाल वह युवा वर्ग कर रहा है, जो इस तकनीक का प्रथम उपभोक्ता बन रहा है। उसे ही इस तकनीक के इस्तेमाल के मानक भी गढ़ने हैं। मोबाइल ऐप हमारे जीवन को व्यापक रूप से प्रभावित कर उसे आसान बना रहे हैं, लेकिन इन पर बढ़ती निर्भरता हमारी कई कुदरती क्षमताएं भी हमसे छीन सकती है। चैटिंग ऐप (चैप) के अधिक इस्तेमाल से लिखित शब्दों पर हमारी निर्भरता बढ़ जाती है, जिससे मौखिक संचार में शारीरिक भाव भंगिमा के बीच संतुलन के बिगड़ने का खतरा रहता है। भारत जैसे देश में, जहां हम तकनीक का सिर्फ अंधानुकरण कर रहे हैं, वहां इस लत के बारे में जागरूकता की भारी कमी है और ऐसे केंद्रों का भी अभाव है, जो लोगों को इससे उबरने में मदद करे। तकनीक हमेशा अच्छी होती है, पर उसका इस्तेमाल कौन और कैसे कर रहा है, इस बात से उसकी सफलता या असफलता मापी जाती है। इससे पहले कि हम किसी मोबाइल ऐप के लती हो जाएं, अपने आप पर थोड़ा नियंत्रण भी जरूरी है।
हिन्दुस्तान में 2/05/14 को प्रकाशित 


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