Tuesday, December 30, 2014

नई सोच का हो ,नया साल

प्रिय दोस्त 2015
एक और साल बीत रहा है और मेरे जाने का वक्त हो गया मन उदास है पर जाना तो पड़ेगा,मैं जाऊँगा नहीं तो तुम आओगे कैसे आना जाना प्रकृति का चक्र है जो आएगा वह जाएगा भी पर दुःख तो होता है,मैं जब आया था तो लगता था कि ये खुशियाँ ये उत्साह हमेशा बना रहेगा पर ऐसा होता नहीं हमारे जीवन को ही देख लो किसी रोज हम बहुत खुश होते हैं तो किसी रोज बहुत दु:खी सुख और दुःख हमारे हाथ में नहीं है ये तो आयेंगे और जायेंगे पर अगर हम चीजों को समान भाव से लेने की आदत डाल लें तो जिन्दगी कितनी हसीं हो जायेगी.
 खैर छोडो इन बातों को तुम यह  सोच रहे होगे कि इस वक्त मैं तुम्हें चिठ्ठीनुमा मेल क्यूँ लिख रहा हूँ . तुम्हारा सवाल जायज़ है मैंने सोचा कि क्यूँ न जाते जाते अपने अनुभव तुम्हारे साथ बांटे जाएँ हालांकि तुम खुद समझदार हो और वैसे भी जिन्दगी जब सिखाती है अच्छा ही सिखाती है तो बहुत सी बातें तुम खुद सीख जाओगे पर चूँकि मैं तुमसे बड़ा हूँ तो कुछ बातें मैं तुम्हें पहले से समझा के जाना चाहता हूँ और तुम्हें मुझसे असहमत होने का पूरा हक़ है.तो पहला सबक यही रहा कि हम हमेशा अपने मन की नहीं चला सकते पर असहमत होने के लिए सहमत होना भी जरुरी है तो तुम्हें एक ऐसा माहौल बनाना हैं जहाँ लोग अपने वैचारिक मतभेद के साथ इस देश में शान्ति से रह सकें.मैंने इस दिशा में कोशिश तो की लेकिन अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है.देखो दोस्त इस संसार में एक ही चीज कांस्टेंट है वो है परिवर्तन तो एक दिन तुमको भी जाना होगा यह बात अगर तुम्हारे जेहन में रहेगी तो तुम किसी भी चेंज को आसानी से स्वीकार कर लोगे क्योंकि तुम्हे पता है तुम यहाँ हमेशा के लिए नहीं हो .तुमने अक्सर जेनरेशन गैप की चर्चा सुनी होगी जानते हो ये गैप क्यूँ होता है जब एक पक्ष परिवर्तन का हिस्सा होता है और दूसरा उस परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर पा रहा होता है तब समस्याएँ पैदा होती हैं तो मेरी दूसरी  सलाह तुमको है बदलाव का खुले दिल से स्वागत करना :नए विचारों और नए लोगों को आगे बढ़ानादेखना तुम खुद ब खुद आगे बढ़ जाओगे,ऐसे में जब तुम्हारा जाने का वक्त आएगा तो तुम्हें उतना बुरा नहीं लगेगा. तीसरी  बात जब तुम यहाँ आओगे लोग तुम्हारा दिल खोल कर स्वागत करेंगे क्यूंकि जिन्दगी ऐसे ही आगे बढ़ती है जिन्दगी ऐसे ही चलती है.वो पंक्तियाँ तो तुमने भी सुनीं होंगी एक दिन हम भी गुजरा हुआ कल बन जायेंगे पहले हर रोजफिर कभी -कभी फिर कभी नहीं याद आयेंगे तो आज मेरी बारी है गुजरा हुआ कल बनने की कल तुम्हारी भी होगी तो किसी तारीफ़ के लिए काम न करना काम अपनी खुशी के लिए करना क्योंकि ये दुनिया किसी के लिए भी  रुकती नहीं है आलोचनाओं से घबराना नहीं और तारीफ़ से दिमाग मत खराब कर लेना अगर तुम ऐसा कर पाने में सफल रहे तो समझ लेना की तुम्हें जिन्दगी जीना आ गया.हमारा तुम्हारा रिश्ता भी अजीब है हम कभी नहीं मिल पायेंगे पर जब तुम्हारा जिक्र होगा तब मेरा भी जिक्र होगा ये सिलसिला  बनाये रखना,भले ही तुम बहुत से लोगों को व्यक्तिगत तौर पर  न जानो पर तुम लोगों के जीवन में  कुछ ऐसा  परिवर्तन लाना कि लोग बगैर तुम्हें जाने हमेशा याद रखें.
दिन हमेशा एक जैसे नहीं होते,कई बार तुम्हें ऐसा लगेगा कि कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा ऐसे में घबराने या परेशान होने की जरुरत नहीं है बस धीरज का साथ मत छोड़ना और पॉजीटिव तरीके से आगे बढ़ना देखना धीरे धीरे सब ठीक हो जाएगा.एक और बात ये दुनिया बहुत खुबसूरत है पर इससे दिल लगाने की कोशिश मत करना जो लोग आज तुम्हारे आने के इंतज़ार में पलक बिछाए बैठे हैं यही अगले साल तुम्हारे जाने के दिन गिन रहे होंगें तो तुम अति भावुकता का शिकार कभी मत होना,भावुकता हमेशा सही निर्णय लेने में दिक्कत पैदा करती है. तो नया साल नई बातों नई सोच का कुछ कर गुजरने का साल होना चाहिए. मैं तो अब जा रहा हूँ फिर कभी न आने के लिए लेकिन मेरे जिन्दगी के इस फलसफे को याद रखना जिन्दगी में इतनी जगह जरुर रखना जिसमें गए हुए लोग लौट के फिर आ सकें.
अलविदा
तुम्हारा 2014
आई नेक्स्ट में 30/12/14 को प्रकाशित 

Sunday, December 28, 2014

भारत रत्न पुरुस्कारों पर भी राजनीति की छाप

पुरूस्कार और विवादों का नाता बहुत पुराना है या यूँ कहें की कोई पुरूस्कार आलोचना से परे है ऐसा संभव नहीं है इसलिए यह मान लेना कि भारत रत्न देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है इसलिए जिसको भी मिलेगा,सही ही मिलेगा ठीक नहीं होगा|अटल बिहारी बाजपेयी और मदन मोहन मालवीय को हालिया मिले इस पुरूस्कार पर एक बार फिर बहस मुहाबिसों का सिलसिला चल पडा |तर्क वितर्क अगर राजीव गांधी को मिल सकता है तो अटल जी को क्यों नहीं,महामना ने तो इतना बड़ा विश्वविद्यलय स्थापित किया आदि|मेरे विचार में हमें इस भ्रम को दूर करना होगा कि भारत रत्न देश सेवा के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान है |यह  पुरूस्कार का देश का नहीं बल्कि सरकार का पुरूस्कार है |सरकार किसी भी व्यक्ति के कार्यों को प्रमाणित करती है और हर सरकार की एक विचार धारा होती है|भले ही सरकार यह कहे कि पदम् और भारत पुरुस्कारों को राजनीति  से ऊपर उठकर देखा जाना चाहिए पर कटु सत्य यह है कि इस देश में अंततः सब कुछ तय राजनीति ही करती है| सत्ता अपने साथ एक संस्कृति,एक विचार लाती है जो यह तय करती है कि सत्ता में कौन से विचार प्रबल होंगें और जो सत्ताधारियों के विचार को आगे बढ़ाते हैं वही सत्ता को प्रिय होते हैं और यह तथ्य सर्वविदित है |तात्पर्य यह है कि यदि देश के प्रति आपके द्वारा किये गए सरकार की विचार धारा से नहीं मिलते तो इसकी पूरी संभावना है कि आपके कार्यों को समाज भले ही प्रमाणित करे लेकिन सरकार का प्रमाण पत्र नहीं मिलेगा |महान कार्य और महान व्यक्तित्व किसी पुरुस्कारों के मोहताज नहीं होते हैं पर दुर्भाग्य से अब महानता को आंकने का जरिया सरकार द्वारा प्रदत्त ऐसे पुरूस्कार बन रहे हैं |इन पुरुस्कारों की शुरुआत के पीछे दर्शन यह था कि राष्ट्र अपने समाज के महान  लोगों का आंकलन निरपेक्षता से कर सके पर ऐसा कभी भारत में हो न सका, इंदिरा गांधी जिसने देश में आपातकाल जैसा घोर लोकतंत्र विरोधी कदम उठाया उसे भी भारत रत्न मिला और अटल बिहारी बाजपेयी जैसे प्रधानमंत्री को जिनके शासन काल में कारगिल और संसद पर हमले जैसी घटनाएं हुई यानि दूध का धुला कोई नहीं |असल में इसकी जड़ में है इन पुरुस्कारों के लिए नामित होने के लिए कोई स्पष्ट दिशा निर्देश का न होना ऐसे में इन पुरुस्कारों के चयन पर विवाद होना तय हो जाता है | वास्तव में भारत रत्न की अवधारणा के पीछे यह विचार रहा होगा कि ऐसे व्यक्ति जिन्होंने भारत राष्ट्र की अवधारणा के मूल में सन्निहित मूल्यों को आगे बढ़ाने के लिए कालजयी कार्य किया हो जिससे समूचा राष्ट्र लाभान्वित हुआ हो या समाज को प्रेरणा मिली अर्थात ऐसा व्यक्ति जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपने कार्यों से आदर्शों के शिखर पर हो पर जैसा कि सरकार के अन्य कार्यों के साथ होता है जहाँ राजनीति एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही होती है वही इस पुरूस्कार के साथ हुआ यानि जब निर्णय राजनीति को ध्यान में रखकर किये जाने लगे और चयन में पारदर्शिता का अभाव रहा है तो विवादों को बल मिलेगा |मरणोंपरांत पुरूस्कार दिए जाने के कारण किन व्यक्तियों को यह पुरूस्कार दिया जा सकता है इसका कालखंड निर्धारण एक बड़ी चुनौती बन गया है |अगर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए पं. मदनमोहन मालवीय को भारत रत्न दिया जा सकता है तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए सर सैयद अहमद खान को भी दिया जाना चाहिए|एक राष्ट्र के रूप में भारत का विचार हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई बौध जैन सभी धर्मालम्बियों से मिलकर बना है तो सरकार को कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे यह सन्देश जाए कि वह किसी ख़ास सम्प्रदाय को बढ़ावा दे रही है या किसी ख़ास सम्प्रदाय को महत्व नहीं दे रही है|राजनीति से इतर क्षेत्रों में तथ्य यह भी है कि क्रिकेट खिलाड़ी सचिन जैसा  भारत रत्न विभिन्न कोला जैसे अनेक  ब्रांड का प्रचार कर रहा है और राज्यसभा के सदस्य के रूप में उनका कार्य व्यवहार कोई ख़ास संतोषजनक नहीं है|
यदि इन पुरुस्कारों से विवाद से परे रखना है तो इनके लिए नामित व्यक्तियों के चयन हेतु स्पष्ट दिशा निर्देश होने चाहिए और निर्णय गोपनीयता के आवरण में नहीं बल्कि पारदर्शिता की पृष्ठ भूमि में होना चाहिए |राजनीति से जुड़े लोगों को इन पुरुस्कारों के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए जिससे इन पुरुस्कारों पर राजनैतिक विचार धाराओं का प्रभाव न पड़े |भारत रत्न पुरुस्कारों के लिए एक स्पष्ट कालखंड का निर्धारण होना चाहिए भारत के संदर्भ में यह काल खंड स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास से शुरू होना चाहिये|यदि ऐसा हो पाया तो भारत रत्न से जुड़े विवादों को खत्म तो नहीं पर कम जरुर किया जा सकता है |
हिन्दुस्तान युवा में 28/12/14 को प्रकाशित 

Wednesday, December 24, 2014

स्मार्टफोन ला रहा है मूलभूत बदलाव

पिछले तकरीबन एक दशक से भारत को किसी और चीज ने उतना नहीं बदला, जितना मोबाइल फोन ने बदल दिया है। संचार ही नहीं, इससे दोस्ती और रिश्ते तक बदल गए हैं। इतना ही नहीं, देश में अब मोबाइल बात करने का माध्यम भर नहीं है, बल्कि यह मनोरंजन और खबरों, सूचनाओं वगैरह के मामले में परंपरागत संचार माध्यमों को टक्कर दे रहा है। इसके साथ ही जुड़ी हुई यह खबर भी है कि दुनिया में स्मार्टफोन का सबसे तेजी से बढ़ रहा बाजार भारत ही है।
इस बीच टेलीकॉम कंपनी एरिक्सन ने अपने एक शोध के नतीजे प्रकाशित किए हैं, जो काफी दिलचस्प हैं। इससे पता चलता है कि स्मार्टफोन पर समय बिताने में भारतीय पूरी दुनिया में सबसे आगे हैं। एक औसत भारतीय स्मार्टफोन प्रयोगकर्ता रोजाना तीन घंटा 18 मिनट इसका इस्तेमाल करता है। इस समय का एक तिहाई हिस्सा विभिन्न तरह के एप के इस्तेमाल में बीतता है। एप इस्तेमाल में बिताया जाने वाला समय पिछले दो साल की तुलना में 63 फीसदी बढ़ा है। स्मार्टफोन का प्रयोग सिर्फ चैटिंग एप या सोशल नेटवर्किंग के इस्तेमाल तक सीमित नहीं है, लोग ऑनलाइन शॉपिंग से लेकर तरह-तरह के व्यावसायिक कार्यों को स्मार्टफोन से निपटा रहे हैं।
मोबाइल पर वीडियो देखने का बढ़ता चलन टेलीविजन के लिए बड़े खतरे के रूप में सामने आ रहा है। अमेरिका में टेलीविजन देखने के समय में गिरावट दर्ज की जा रही है और भारत भी उसी रास्ते पर चल पड़ा है। इस शोध के मुताबिक, स्मार्टफोन के 40 प्रतिशत प्रयोगकर्ता बिस्तर पर देर रात तक वीडियो देख रहे हैं। 25 प्रतिशत चलते वक्त, 23 प्रतिशत खाना खाते वक्त और 20 प्रतिशत खरीदारी करते वक्त भी वीडियो देखते हैं। इसके साथ ही कॉम स्कोर की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इंटरनेट ट्रैफिक का 60 प्रतिशत हिस्सा मोबाइल फोन व  टेबलेट से पैदा हो रहा है और इस मोबाइल ट्रैफिक का करीब 50 प्रतिशत भाग मोबाइल एप से आ रहा है।
मोबाइल का बढ़ता इस्तेमाल भारतीय परिस्थितियों के लिए ज्यादा सुविधाजनक है। बिजली की समस्या से जूझते देश में मोबाइल टीवी के मुकाबले कम बिजली खर्च करता है। यह एक निजी माध्यम है, जबकि टीवी और मनोरंजन के अन्य माध्यम इसके मुकाबले कम व्यक्तिगत हैं। दूसरे आप इनका लुत्फ अपनी जरूरत के हिसाब से जब चाहे उठा सकते हैं, यह सुविधा टेलीविजन के परंपरागत रूप में इस तरह से उपलब्ध नहीं है। सस्ते होते स्मार्टफोन, बड़े होते स्क्रीन के आकार, निरंतर बढ़ती इंटरनेट स्पीड और घटती मोबाइल इंटरनेट दरें इस बात की तरफ इशारा कर रही हैं कि आने वाले वक्त में स्मार्टफोन ही मनोरंजन और सूचना का बड़ा साधन बन जाएगा। लेकिन यह तस्वीर तभी तेजी से बदलेगी, जब इंटरनेट उपलब्धता के लिए आधारभूत ढांचों का तेजी से विकास होगा और मोबाइल नेट की दरें कम रखी जाएंगी।
हिन्दुस्तान में 24/12/14 को प्रकाशित 

Monday, December 1, 2014

असमय दम तोड़ता देश का भविष्य

स्वास्थ्य किसी भी देश के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता वाला क्षेत्र होता है, पर आंकड़ों के हिसाब से भारत की तस्वीर इस मायने में बहुत उजली नहीं है। बाल स्वास्थ्य भी इसका कोई अपवाद नहीं है। बच्चे देश का भविष्य हैं पर उन बच्चों का क्या जो भविष्य की ओर बढ़ने की बजाय अतीत का हिस्सा बन जाते हैं! साल 2011 में, दुनिया के अन्य देशों की मुकाबले भारत में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की सबसे ज्यादा मौतें हुई। यह आंकड़ा समस्या की गंभीरता को बताता है जिसके अनुसार भारत में प्रतिदिन 4,650 से ज्यादा पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु होती है। संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ की नई रिपोर्ट भी यह बताती है कि बच्चों के स्वास्थ्य के मामले में अभी कितना कुछ किया जाना है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट ‘लेवल्स एंड ट्रेंड्स इन चाइल्ड मोरटैलिटी-2014’ में कहा गया है कि साल 2013 में भारत में 13.4 लाख से अधिक बच्चों की मौत के मामले दर्ज किए गए। 1990 में भारत में शिशु मृत्यु दर प्रति एक हजार बच्चों के जन्म पर 88 थी, जो 2013 में घटकर 41 हो गई। जाहिर है कि स्थिति में सुधार हुआ है, लेकिन मौजूदा हालात भी संतोषजनक कतई नहीं हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि वैसे तो लोगों की सेहत के लिए काफी इंतजाम किए गए हैं और मानवाधिकारों की स्थिति में भी सुधार हुआ है, लेकिन अब भी बहुत से इलाकों और समुदायों में बहुत गहरी असमानता बनी हुई है। इनमें से भी करीब एक चौथाई यानी 25 फीसद मौतें सिर्फ भारत में होती हैं। नाइजीरिया में करीब दस फीसद मौतें होती हैं। दुनिया भर में जन्म के पांच साल के भीतर ही करीब एक करोड़ 27 लाख बच्चों की मौतें होती हैं। उनमें से आधी यानी करीब 63 लाख बच्चों की मौत सिर्फ पांच देशों में होती है। भारत में 1990 के बाद से बाल मृत्यु दर के मामलों में आधे से अधिक की गिरावट आई है, लेकिन पिछले साल पांच से कम उम्र के बच्चों की मौत की सबसे अधिक मामले भारत में ही दर्ज किए गए हैं। साफ-सफाई की कमी एक बहुत बड़ी चुनौती है क्योंकि इसी से गंभीर बीमारियां फैलती हैं। जिनकी चपेट में आने से बच्चों की मौत तक हो जाती है। दक्षिण एशियाई देशों में अब भी करीब 70 करोड़ बच्चों को शौच करने के लिए खुले स्थानों पर जाना पड़ता है। जन्म के पहले महीने में विश्व में कुल जितने बच्चों की मौत होती है, उनमें से करीब दो तिहाई मौतें सिर्फ दस देशों में होती हैं। संयुक्त राष्ट्र का यह अध्ययन यह आकलन करता है कि भारत में जन्म लेने वाले प्रत्येक एक हजार बच्चों में से इकसठ बच्चे अपना पांचवा जन्मदिन नहीं मना पाते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह संख्या रवांडा (54 बच्चों की मृत्यु), नेपाल (48 बच्चों की मृत्यु) और कंबोडिया (43 बच्चों की मृत्यु) जैसे आर्थिक रूप से पिछड़े देशों के मुकाबले ज्यादा है। सिएरा लियोन में बच्चों के जीवित रहने की संभावनाएं सबसे कम रहती हैं जहां प्रत्येक एक हजार बच्चों में मृत्यु दर एक सौ पचासी है। दुनिया भर में बच्चों की मृत्यु की सबसे बड़ी वजह न्यूमोनिया है जिसके कारण अठारह प्रतिशत मौतें होती हैं। दूसरी वजह डायरिया है जिससे ग्यारह प्रतिशत मौतें होती हैं। भारत डायरिया से होने वाली मौतों के मामले में सबसे आगे है। डायरिया एक ऐसी बीमारी है जिससे थोड़ी-सी जागरूकता से बचा जा सकता है और इससे होने वाली मौतों की संख्या में कमी लाई जा सकती है। 2010 में जितने बच्चों की मृत्यु हुई, उनमें तेरह प्रतिशत की मृत्यु की वजह डायरिया ही था। दुनिया में डायरिया से होने वाली मौतों में अफगानिस्तान के बाद भारत का ही स्थान है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत जैसे देशों में डायरिया की मुख्य वजह साफ पानी की कमी और निवास स्थान के आसपास गंदगी का होना है। इसकी एक वजह खुले में मल त्याग भी है। गंदगी, कुपोषण और मूलभूत स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव मिलकर एक ऐसा दुष्चक्र रचते हैं जिसका शिकार ज्यादातर गरीब घरों के बच्चे होते हैं। वास्तविकता यह भी है कि आर्थिक आंकड़ों और निवेश के नजरिये से भारत तरक्की करता दिखता है, पर इस आर्थिक विकास का असर समाज के आर्थिक रूप से कमजोर तबकों पर नहीं हो रहा है। इसी का परिणाम पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की बड़ी तादाद में मृत्यु के रूप में सामने आता है, वह भी डायरिया जैसी बीमारी से, जिसका बचाव थोड़ी सावधानी और जागरूकता से किया जा सकता है। बढ़ते शहरीकरण ने शहरों में जनसंख्या के घनत्व को बढ़ाया है। निम्न आयवर्ग के लोग रोजगार की तलाश में उन शहरों का रु ख कर रहे हैं जो पहले से ही जनसंख्या के बोझ से दबे हुए हैं। इसका नतीजा शहरों में निम्न स्तर की जीवन दशाओं के रूप में सामने आता है। दूसरी तरफ, गांवों में जहां जनसंख्या का दबाव कम हैं, वहां स्वास्थ्य सेवाओं की हालत दयनीय है और स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों पर पर्याप्त जागरूकता का अभाव है। विकास संचार के मामले में अभी हमें एक लंबा रास्ता तय करना है जिससे लोगों में जागरूकता जल्दी लाई जाए। विशेषकर देश के ग्रामीण इलाकों में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का प्रभाव ज्यादा है, पर वह अपने मनोरंजन एवं सूचना में संतुलन बना पाने में असफल रहा है। इसका नतीजा संचार संदेशों में कोरे मनोरंजन की अधिकता के रूप में सामने आता है। संचार के परंपरागत माध्यम भी अपना प्रभाव छोड़ने में असफल रहे हैं। वैसे भी वैश्वीकरण की लहर इन परंपरागत माध्यमों के लिए खतरा बन कर आई है। सरकार का रवैया इस दिशा में कोई खास उत्साह बढ़ाने वाला नहीं रहा है। देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी ) का 1.4 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया जाता है जो कि काफी कम है। सरकार ने इसे बढ़ाने का वायदा तो किया पर ये कभी पूरा हो नहीं पाया। यह स्थिति तब है जबकि भारत सरकार के सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य के अनुसार वह साल 2015 तक शिशु मृत्यु दर को प्रति 1,000 बच्चों पर 38 की संख्या तक ले आएगी। बढ़ती शिशु मृत्यु दर का एक और कारण कुपोषण भी है। ‘सेव द चिल्ड्रन‘ संस्था का एक अध्ययन बताता है कि भारत बच्चों को पूरा पोषण मुहैया कराने के मामले में बांग्लादेश और बेहद पिछड़े माने जाने वाले अफ्रीकी देश ‘डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो’
से भी पिछड़ा हुआ है। हालांकि भारत में पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर 1990 के मुकाबले 46 प्रतिशत कम हुई है, पर इस आंकड़े पर गर्व नहीं किया जा सकता। सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य को तभी प्राप्त किया जा सकता है जब गरीबों में स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता पैदा की जाए और उनकी जीवन दशाओं को बेहतर किया जाए। इस दिशा में सरकार को सार्थक पहल करनी होगी। पर यूनिसेफ की यह रिपोर्ट बताती है कि यह आंकड़ा प्राप्त करना आसान नहीं होगा।
राष्ट्रीय सहारा में 01/12/14 को प्रकाशित 

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