Saturday, December 12, 2009

आ रहा हूँ मैं

प्रिय पाठकों आप जल्दी ही मेरी अमेरिका यात्रा के संस्मरण से रूबरू होंगे इंतज़ार कीजिये

Saturday, November 21, 2009

Travelling an experience


पिछले दिनों एक वेबसाइट के एक लेख पर नज़र पडी .लेख की शुरुवात कुछ इस तरह थी कि पिछले साल बुकर पुरूस्कार की दौड़ में दो भारतीय अरविन्द अडिग और अमिताव घोष शामिल थे , जिनमें मैदान अरविन्द अडिग के हाथ रहा लेकिन २००८ के लिए साहित्य का सबसे बड़ा पुरूस्कार यानि नोबेल पुरूस्कार फ़्रांसीसी लेखक जॉन मेरी गुस्ताव लाक्लेज़ियो की झोली में गया है.
लाक्लेज़ियो ट्रैवेल लेखक हैं .लेख आगे चलकर दूसरी दिशा में मुड़ जाता है लेकिन मेरा मन मुड़ गया दूसरी ओर मेरे जेहन में अपने बचपन में सुनी गयी वो सारी कहानिया घूमने लगी जो मैंने रजाई में अपने पिताजी के आगोश में दुबक कर या कभी कभी अलाव के गिर्द बैठकर सूनी थी. कभी सिंदबाद दा सेलर, तो कभी गुलिवर तरिवाल्स का कोई घटनाकर्म कभी हातिमताई कुछ न समझ आये तो ऐसे राजकुमार की कहानी जो रानी की तलाश में जंगल जंगल घूम रहा है .
सर्दियां शुरू हो गयीं हर मौसम से सबकी कुछ न कुछ यादें जुडी होती है ऐसा ही कुछ मेरे साथ है सर्दियां मुझे मेरे बचपन की याद बड़ी शिद्दत से कराती हैं आप भी सोच रहे होंगे कि मै आप लोगों पर इतना इमोशनल अत्याचार क्यों कर रहा हूँ मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं है मै तो सिर्फ इतना याद दिलाना चाहता हूँ कि जिस टोपिक पर मै आज बात कर रहा हूँ वो हमारी जिन्दगी का कितना अहम् हिस्सा है जिसकी शुरुवात हमारे बचपने से हो जाती है मै बात कर रहा हूँ यात्रा की , सफ़र की, याद कीजिये भले ही बचपने की ज्यादातर कहानियां सफ़र से जुडी हुई रहती थीं आज के बच्चे कहानी सुनने की बजाय कार्टून देख कर सोते हों पर ज्यादातर कार्टून उन्हें यात्रा पर ले जाते हैं यात्राओं के बारे में सोचते हुए राहुल संस्क्रतायानन याद न आयें ऐसा हो सकता है क्या ? ट्रावोल्ग पढ़ते वक्त हमेशा ऐसा लगता है था कि घुमक्कड़ी के बाद इतना शानदार कैसे लिख लेते हैं लोग .लेकिन अब समझ में आने लगा है कि जब हम यातारों को जीना शुरू कर देते हैं तो यात्रा वृतांत अपने आप जी उठते हैं कहते है किसी पल को जीभर कर जी लेने के बाद ही डूब कर लिखा जा सकता है मैंने भी आज सफ़र को जीने की कोशिश की .
यात्राएँ हमारे चिंतन को विस्तार देती हैं आप ने वो गाना जरूर सुना होगा " जिन्दगी एक सफर है सुहाना यहाँ कल क्या हो किसने जाना" यूँ तो देखा जाए तो जिन्दगी का सफ़र है तो सुहाना लेकिन इसके साथ जुडी हुई है अन्सर्तेंतिटी और ऐसा ही होता है जब हम किसी सफ़र पर निकलते हैं ट्रेन कब लेट हो जाए बस कब ख़राब हो जाए वगैरह वगैरह मुश्किलें तों हैं पर क्या मुश्किलों की वजह से हम सफ़र पर निकलना छोड़ देते हैं भाई काम तो करना ही पड़ेगा न सर्दियों में कोहरा कितना भी पड़े डेली पैसेंजर तो वही ट्रेन पकड़ते हैं जिससे वो साल भर जाते हैं कभी छोटी छोटी बातें जिन्दगी का कितना बड़ा सबक दे जाती हैं और हमें पता ही नहीं पड़ता है हर सफ़र हमें नया अनुभव देता है जिस तरह हमारे जीवन का कोई दिन एक जैसा नहीं होता वैसे ही दुनिया का कोई इंसान ये दावा नहीं कर सकता कि उसका रोज का सफ़र एक जैसा होता है कुछ चेहरे जाने पहचाने हो सकते हैं लेकिन सारे नहीं, जिन्दगी भी ऐसी ही है .अब देखिये सर्दी तो सबको लगती है मेरे पिताजी कहा करते हैं बेटा सर्दी बिस्तर पर ही लगती है बाहर निकलो काम पर चलो सर्दी गायब हो जायेगी मंजिल तभी तक दूर लगती है जब तक हम सफ़र की शुरुवात नहीं करते लेकिन एक बार चल पड़े और चलते रहे तो मंजिल जरूर मिलेगी . अब सफ़र पर निकले हैं तो किसी न किसी साथी की जरुरत पड़ेगी जरुरी नहीं आप साथी के साथ ही सफ़र करें साथी सफ़र में भी बन जाते हैं लेकिन साथी के सेलेक्टिओं मे सावधान रहें गलत साथी आपके सफ़र को पेनफुल बना सकते हैं और वैसा ही जिन्दगी का सफ़र में गलत कोम्पैनिओन आपके लिए प्रॉब्लम ला सकते हैं .आप ध्यान दे रहें कहते हैं जो सफ़र प्यार से कट जाए वो प्यारा है सफ़र नहीं तो मुश्किलों के बोझ का मारा है सफ़र वाकई सफ़र तो वाकई वही जो हँसते मुस्कराते कटे और तभी सफ़र का मज़ा भी है मेरा तो जिन्दगी का सफ़र जारी है जिन्दगी के इस मोड़ पर आप सबसे मुलाकात अच्छी लगी क्या आप भी जिन्दगी के इस सफ़र में मेरे साथी बनेंगे और आगे से जब भी किसी सफ़र पर निकालिएगा तो ये मत भूलियेगा कि ये जिन्दगी का सफ़र है और हर सफ़र की शुरुवात अकेले ही होती है लेकिन अंत अकेले नहीं होता साथ में कारवां होता है अपनों का अपने अपनों का यात्राएँ चाहे जीवन की हों या किसी दूर देश की या फिर घर से दफ्तर के बीच की ही क्यों न हो .ऐसी ही यात्राओं से कोई लाक्लेज़ियो नोबेल पुरूस्कार ले जाते हैं ओर कोई अपनी मंजिल पर पहुंचकर मुस्कुरा उठता है .सबकी यात्राओं का अपना अलग अलग सुख है .फिलहाल यह लेख लिहने की अपनी यह यात्रा में यहीं ख़तम करता हूँ ओर निकलता हूँ अपनी दूसरी यात्राएँ की ओर
२१ नवम्बर को आई नेक्स्ट में प्रकाशित

Friday, October 23, 2009

लेट'स विश अ लॉट


कभी कभी कुछ बातें ऐसी हो जाती हैं कि हमारे दिमाग में अब तक फीड हुई परिभाषाएं एकदम नए रूप में सामने आ खडी होती हैं .अक्सर अपने बच्चे से मैं उसकी चॉकलेट की जिद या किसी और चीज़ के लिए जिद करते समय  उसे यही समझाता हूँ कि लालच बुरी बात है .एक  चॉकलेट  ही मिलेगी ज्यादा नहीं . मेरा बेटा शायद मेरे कहे को ज्यादा बड़े अर्थों में गुण रहा था .एक दिन उसने कहा पापा ,आप मुझसे ये क्यों कहते हैं कि लालच बुरी बात है .मुझे ज्यादा नंबर लाने का लालच है , तो क्या यह बुरा है ? मुझे स्पोर्ट्स में ट्राफी जीतने का लालच है, तो क्या यह गलत है ? मुझे लालच है कि मैं आपके साथ ज्यादा वक्त बिताऊं क्या यह गलत है ? बेटा अपनी बात कह चुका था और मैं उलझन में पड़ गया था .अब कहानी में यही थोडा सा ट्विस्ट है हमें बचपन से बताया जाता है कि लालच करना बुरी बात है जितनी चादर है उतना ही पैर पसारना चाहिए ये कहावतें आपने भी सुनी होगीं लेकिन जब हम हैं नए तो अंदाज़ क्यों हो पुराना तो आइये इस लालच के फलसफे को समझने की कोशिश की जाए.
बात थोड़ी पुरानी है एक जंगल में एक आदमी रहता था न पास में कपडा न ही रहने को मकान लेकिन उसके पास एक दिमाग था जो सोचता था समझता था उसने सोचा क्यों न उसके पास रहने को एक ऐसी जगह हो जहाँ उसे बारिश में भीगना न पड़े ठण्ड में ठिठुरना न पड़े और गर्मी भी कम लगे अब आप सोच रहे होंगे कि ये बात उसके दिमाग में आयी कहाँ से अब जंगल में रह रहा था तो जरुर उसने पक्षियों के घोंसले को देखा होगा खैर यहीं से मानव सभ्यता  का इतिहास बदल जाता है. इंसान ने अपने लिए पहले घर बनाया और फिर अपनी जरुरत के हिसाब से चीज़ों का आविष्कार होता गया .बैलगाडी से शुरू हुआ सफ़र हवाई जहाज़ तक पहुँच गया . कबूतर से चिठियों को पहुंचाने की शुरुवात हुई और आज ई मेल का जमाना है .बगल की बंटी की दुकान आज शॉपिंग मॉल्स  में तब्दील हो गयी ,घर के धोबी की जगह कब वाशिंग मशीन आ गयी हमें पता ही नहीं चला .लेकिन इन सब परिवर्तन में एक बात कॉमन है वो है लालच , लालच जीवन को बेहतर बनाने का, लालच जिन्दगी को खूबसूरत बनाने का ,लालच खुशियाँ मनाने का ,लालच आने वाले कल को बेहतर बनाने का. आप भी सोच रहे होंगे कि ये कौन सी उल्टी गंगा बहाई जा रही है लालच अच्छा भी होता है. लालच अगर अच्छा न होता तो हम ज्यादा का इरादा कैसे कर पाते, कैसे और ज्यादा विश करते . जब इरादा है और विश भी तो आगे बढ़ने से कौन रोक सकता है . सचमुच आज सारी प्रोग्रेस सारी ग्रोथ लालच यानि और ज्यादा पाने की तम्मना से जुडी है थोडा और विश करो का फंडा ही तो हमें आगे ले जता है.लालच अगर अच्छा न होता तो हम ज्यादा का इरादा कैसे कर पाते कैसे और ज्यादा विश करते .अब तो मुझे लगने लगा है कि सारी दुनिया की तरक्की विज्ञानं के नए आविष्कार सब लालच का ही नतीजा हैं. सैचुरेशन पॉइंट से उठाकर आगे ले जाने का काम करता है हमारा लालच . एजुकेशन पीरीयड हो या जॉब टाइम हमारा लालच ही हमें आगे ले जाने को प्रेरित करता है .
अब जबकि लालच के इस पक्ष से सामना हुआ है तो मेरे मन में भी न जाने कैसे कैसे लालच पनपने लगे हैं .लालच इस दुनिया को हिंसा से मुक्त करने का शांति की बात को किताबों और भाषणों से निकाल कर सारी दुनिया में गूंजा देने का .आम आदमी को खास आदमी बना देने का लालच .एजूकेशन , हेल्थ रोजगार जैसी बेसिक चीज़ों को हर किसी के लिए उपलब्ध कराने का लालच वह भी बिना किसी ज्यादा मशक्कत के , करप्शन से मुक्ति का लालच .
अरे अरे मेरे लालच की लिस्ट तो बढ़ती ही जा रही है .यहीं रोकता हूँ इस लिस्ट को .लेकिन इतना जरूर है कि अब मैं अपने बेटे से यह नहीं कहूँगा कि लालच मत करो.बेटा खूब लालच करो और हर लालच के लिए जिद करो .उसे पूरा करो .बस यह लालच आशावादी सोच के साथ हो. तो अब आपका क्या ख्याल है लालच के बारे में .
आई नेक्स्ट में २३ अक्टूबर को प्रकशित

Monday, September 7, 2009

धुन जो साथ चले



कहते है, कभी कभी कोई गीत, सुबह सुबह आप सुन ले तो वो गीत आपके जहन पर पूरा दिन रहता है। हम  सारा दिन वो गीत, गाते गुनगुनाते रहते है। लेकिन उन गीतों का क्या,जिनके बोलों का कोई सीधा अर्थ नहीं निकलता फिर भी वो हमारी जबान पर चढ़ जाते हैं अगर ऐसा नहीं है तो गीतों से होने वाले संचार का कोई मतलब नहीं रहेगा आज गीतों की कहानी में थोडा ट्विस्ट है. वाकई ये गानों की दुनिया एकदम निराली है क्या आपने कभी सुना है कि किसी शब्द का कोई अर्थ न हो फिर भी गानों में उनका इस्तेमाल होता है चकरा गए न. मै कोई पहेली नहीं बुझा रहा हूँ आपने कई ऐसे गाने सुने होंगे जिनके कुछ बोलों का कोई मतलब नहीं होता है लेकिन गानों के लिये बोल जरुरी होते हैं किशोर कुमार की आवाज़ में ये गाना याद करिए ईना मीना डीका ,डाई डम नीका किसी शब्द का मतलब समझ में आया ?फिर भी ऐसे गाने जब भी बजते हैं हमारे कदम थिरकने लगते हैं. अब इस तरह के गानों से कम से कम ये तो सबक मिलता है कि इस जिन्दगी में कोई चीज़ बेकार नहीं बस इस्तेमाल करने का तरीका आना चाहिए वैसे भी क्रियेटिविटी का पहला रूल है हर विचार अच्छा होता है और ये हमारे गीतकारों की क्रियेटिविटी ही है कि वो गानों के साथ लगातार प्रयोग करते आये हैं.कभी धुन को शब्दों में ढाल देते हैं और कभी ऐसे शब्दों को गीत में डाल देते हैं कि हम गुनगुना उठते हैं अई ईया सुकू सुकू (फिल्म:जंगली ) ताजातरीन फिल्म कमीने का ढेन टणेन धुन को शब्द बनाने का बेहतरीन प्रयास है फ़िल्मी गानों के ग्लोबल होने का कारण शायद गीतकारों की प्रयोगधर्मिता ही है.” इस तरह के गानों के शब्दों का अर्थ भले ही न हो लेकिन ये सन्देश देने में तो सफल रहते ही हैं डांस की मस्ती को "रम्भा हो हो हो"(अरमान ) जैसे गीतों से बेहतर नहीं समझा जा सकता है .राम लखन फिल्म का गाना नायक की अलमस्ती को कुछ ऐसे ही शब्दों में बयां कर रहा है "रम प् पम प् पम ए जी ओ जी करता हूँ जो मैं वो तुम भी करो जी असल में इस तरह के शब्दों का काम गानों की बोली में भावना को डालना होता है हम हवा को देख नहीं सकते सिर्फ महसूस कर सकते हैं .गीतकार जब भावनाओं को नए तरीके से महसूस कराना चाहता है तो वह इस तरह के शब्दों का सहारा लेता है लेकिन यह काम बगैर संगीतकार के सहयोग  के नहीं हो सकता है .जिन्दगी में भी अगर मेहनत सही दिशा में की जाए तभी सफल होती है और हर काम खुद नहीं करने की कोशिश करनी चाहिए.. अगर आप मेरी बात समझ रहे हैं तो सुनिए ये गाना "डम डम डिगा डिगा मौसम भीगा भीगा".जिन्दगी में कितना कुछ है जो हम महसूस कर सकते हैं लेकिन एक्सप्रेस नहीं कर सकते और इन फीलिंग्स को एक्सप्रेस करने के लिए जब इन अजाब गज़ब से शब्दों का सहारा लेकर कोई गीत रच दिया जाता है तो ये अर्थहीन शब्द भी मीनिंगफुल हो जाते हैं . छई छपा छई छपाक के छई पानीयों पर छींटे उडाती हुई लडकी (हु तु तु) पानी के साथ खेल का इससे सुन्दर बयान क्या हो सकता है .गानों में इस तरह के प्रयोग की शुरुवात जंगली फिल्म से हुई .आप भी अभी तक याहू को नहीं भूले होंगे और ये सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है .जिन्दगी भी तो कभी एक सी नहीं रहती ,गाने भी हमारी जिन्दगी के साथ बदलते रहे .आज की इस लगातार सिकुड़ती दुनिया में जहाँ एस ऍम एस भाषा के नए व्याकरण को बना रहा है .ऐसे में अगर गाने शब्दों की पारंपरिक दुनिया से निकल कर भावनाओं की दुनिया में पहुँच रहे हैं तो क्यों न गानों की इस बदलती दुनिया का जश्न मनाया जाए क्योंकि ये अजाब गज़ब गाने अब हमारी जिन्दगी का हिस्सा हैं.
आई नेक्स्ट में ७ सितम्बर २००९ को प्रकाशित

Monday, August 17, 2009

नो कन्फयूजन ओनली फ्यूजन



मै एक विज्ञापन  देख रहा था जिसमे घर में काम करने वाली एक महिला अंग्रेजी राइम गा रही और उसे देख कर उसका मालिक आश्चर्य चकित रह जाता है वाकई अंग्रेजी ग्लोबल तो थी ही अब लोकल भी होती जाती रही है शायद आपको समझ नहीं आया अंग्रेजी को अपनी भाषा के साथ जोड़ दीजिये और फिर देखिये लोकल होने का मज़ा हिंगलिश ऐसी ही तो बनी है अंग्रेजी और हिंदी का मिक्सचर ,आज का यांगिस्तानी हिंगलिश प्रेमी है अब यह अच्छा है या बुरा इसका फैसला भाषाकारों पर छोड़ दिया जाए . आप भी सोच रहे होंगे हमेशा गानों की बात करने वाला शख्स आज क्या मुश्किल बात कर रहा है . मै बिलकुल सिंपल बात करूँगा गानों की और फिल्मों की ये तो सिर्फ बैक ग्राउंड तैयार कर रहा था यानि आज बात होगी ऐसे हिंदी गानों की जो अंग्रेजी शब्दवाली रखते हैं.वैसे तो किसी हिंदी फिल्म में पहली बार अंग्रेजी गाना जूली फिल्म मै आया "माय हार्ट इस बीटिंग "लेकिन उसके बहुत पहले १९४७ में शेहनाई फिल्म में इस तरह के प्रयोग की शुरुवात हो चुकी थी जिसका गाना था "आना मेरी जान सन्डे के सन्डे " नमक हलाल फिल्म मे अमिताभ बचचन द्वारा बोली गयी अंग्रेजी को लोग आज भी याद करते हैं इसी कड़ी में "अमर अकबर एंथोनी " फिल्म का गाना माय नेम इस एंथोनी गोंसाल्विस आज भी लोगों को थिरकने पर मजबूर कर देता है. हिंदी फिल्मों में अंग्रेजी भाषा का प्रयोग सत्तर के दशक बाद बढा तब अंग्रेजी भाषा के एक दो शब्द ही प्रयोग  किये जाते लेकिन आज पूरे पूरे वाक्य यूज  किये जा रहे हैं .आई लव यू से शुरू हुआ  यह प्रयोग आज "मूव योउर बॉडी टूनाइट" (जॉनी  गद्दार ) तक पहुँच गया है. हिंदी और अंग्रेजी का ये फ्यूसन सिर्फ गानों तक सीमित नहीं है हिंदी फिल्में अगर आज ग्लोबल हो रही है तो इनके पीछे कहीं न कहीं भाषा का ये फ्यूसन जिम्मेदार  है. ये सिर्फ किस्मत कनेक्शन नहीं है हिंदी गाने इसीलिए खास रहे हैं क्योंकि वे अपने वक्त की भाषा को रिप्रेजेंट  करते हैं. आज हम डेली लाइफ मैं अंग्रेजी का यूज  ज्यादा कर रहे हैं उसका रिफ्लेक्शन  गानों मे भी दिख रहा है. यह भी सच है कि हिंदी के प्रति कोई प्रेम नहीं होने के बावजूद गीत-संगीत के कारण अनेक गैर हिंदी लोगों ने हिंदी सीखी है, तो फिर हम हिंदी भाषी क्यों इस ग्लोबल भाषा को सीखने में पीछे रहें .गानों का ये फ्यूसन नए अवसर लेकर आया है जिन्हें हिंदी आती है वे अंग्रेजी सीखें और जिन्हें अंग्रेजी आती है वे हिंदी सीखें . जरा 'टशन' का वो गाना याद कीजिए, 'वेरी हैप्पी इन माई हार्ट, दिल चांस मारे रे' 'तुम्हरे दिल के थिएटर मा दिल दीवाना बुकिंग एडवांस मांगे रे' तो आपके सामने सारी तस्वीर साफ हो जाएगी. 'आजकल गाने बोलचाल की भाषा में लिखे जाते हैं.अब देखिये न जिस डिस्को की शुरुवात बप्पी दा ने की थी "आई ऍम अ डिस्को डांसर " (डिस्को डांसर ) से की थी वो दौर अब और आगे बढ़ निकला है "इट्स टाइम टू डिस्को " (कल हो न हो ) अब अगर आज का यांगिस्तानी भाषा के इस फ्यूसन का लुत्फ उठा रहा है तो हम यही पूछेंगे न "व्हेयर इस दा पार्टी टू नाईट" (कभी अलविदा न कहना )पर इसका मतलब ये बिलकुल मत निकालिएगा दोस्तों की मैं हिंदी के खिलाफ हूँ किसी भी भाषा का विकास किसी दूसरी भाषा की कीमत पर नहीं होना चाहिए ऐसे में अगर दो भाषाएँ करीब आ रही हैं तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए. भाषा एक बहती नदी है इसे बाँधा नहीं जा सकता और भाषा का विकास ऐसे ही होता आया है. सोचिये न हम कितने शब्द ऐसे बोलते हैं जो मूल रूप से हिंदी के नहीं हैं पर अब वो ऐसे अपना लिए गए हैं कि लगता है की वे हिंदी के ही शब्द हैं और यही तो हिंदी का कमाल है हिंदी को आगे बढ़ाने में जितना काम फिल्मों और गानों ने किया है उतना और कोई नहीं कर सकता तो फिर क्यों न हिंदी की सफलता का जश्न मनाया जाए . फिल्मों के सहारे ही सही हिंदी ग्लोबल तो हो रही है. "इट्स राकिंग" (क्या लव स्टोरी है )और फिर हमें ये भी तो नहीं भूलना चाहिए "ईस्ट और वेस्ट इंडिया इस दा बेस्ट" (जुड़वां)
आई नेक्स्ट में १७ अगस्त को प्रकाशित

Wednesday, July 1, 2009

कुछ कहती है ये बूंदें


बारिश शुरू होते ही जो पहली चीज हमारे जेहन में आती है वो लहलहाते हरे भरे खेत ,पानी से भरे तालाब कहीं न कहीं हमारे मन के अन्दर बैठा बच्चा मचल पड़ता है उस गाँव  में जाने को जिसे हम सिर्फ फिल्मों में देखते हैं कंक्रीट  के जंगल में जहाँ वाटर क्रायसिस  अपने चरम पर है , हम अपनी जिन्दगी में इतने उलझ चुके हैं कि  अगल बगल क्या हो रहा है कौन रहता है . शोले फिल्म के संवाद की तरह हमें कुछ नहीं पता ,कुछ भी नहीं पता. गाँव  हम शहर में पले बढे लोगों के लिए अब सिर्फ बचपन की यादों में बचा है. जब गर्मियां की छुट्टियाँ शुरू होते ही दादी बाबा या नाना नानी के यहाँ जाने की तैयारियां शुरू हो जातीथीं.देखा  आपका भी दिल मचल पड़ा गाँव  जाने के लिए गाँव और शहर के इस अंतर को मुन्नवर राणा साहब की ये पंक्तियाँ बखूबी बयां करती हैं
               “तुम्हारे शहर में सब मय्यत को भी कन्धा नहीं देते
                 हमारे गावं में छप्पर भी सब मिलकर उठाते हैं
अब किया क्या जाये ख़तम होते गाँव और बढ़ते शहरों को देखकर परेशान होया जाये और विकास के पहिये को रोक दिया जाए या  गाँव और शहर के बीच बढ़ते अंतर को पाटा जाए .पर ये होगा कैसे . आजकल ग्लोबल विलेज की बात होती है न की ग्लोबल सिटी या या ग्लोबल टाऊन मशहूर संचार साइंटिस्ट मार्शल मक्लुहान का मानना था कि एक दिन दुनिया संचार के मामले में एक  गाँव  जितनी छोटी हो जायेगी और ऐसा हो भी रहा है इसीलिए  गाँव  में पता खोजना उतना मुश्किल नहीं होता क्योंकि वहां सभी एक दूसरे से परिचित होते हैं.तो इन बरसते बादलों के बीच मेरे मन में कुछ विचार बरस पड़े अगर हम कुछ ऐसा कर पाते कि शहरों में भी  गाँव की खासियतें ले आ पाते तो आम के आम गुठलियों के भी दाम वाली बात हो जाती इसके लिए हमें कुछ खास नहीं करना है बस हमें अपने नज़रिए को थोडा सा बदलना पड़ेगा ज्यादा नहीं अपने आस पास नज़र डालिए हमें पता ही नहीं रहता कि हमारे फ्लैट के बगल में कौन रहता है किसी के पर्सनल  स्पेस में घुसपैठ किये बगैर हम अपने अडोस पड़ोस के बारे में जानकारी रख सकते हैं ज्यादातर आतंकवादी हमले हमारी इस लापरवाही से होते हैं कि हमें पता ही नहीं होता कि हमारे आस पास क्या हो रहा है .हम लोगों के सुख दुःख में शामिल होंगे तो कभी अपने आपको अकेला नहीं पायेंगे भूल गए क्या बहुत साल पहले अरस्तु कह कर गए हैं कि इंसान एक सामजिक प्राणी है .  गावं  इसीलिए अच्छे हैं क्योंकि वो ज्यादातर नेचर पर डिपेंडेंट   हैं पर शहर में हम कुछ ऐसा नहीं कर पाए जब लाइट चली जाती है और ए सी काम करना बंद कर देता है तब हमें हवा की कमी का एहसास होता है अगर ए सी को जरूरत के वक्त ही चलाये जाए तो बिजली भी बचेगी और हम नेचर से भी जुड़े रहेंगे .पेड़ लगाने के लिए जमीन की जरूरत होती है और जमीन ऐसी नहीं है कोई बात नहीं २-४ गमले तो लगाये जा सकते हैं. बारिश का पानी यूँ ही नालियों में बह जाता है और जमीन का वाटर लेवल लो होता जा रहा है अब अगर आपको घर के बाथरूम में ट्यूब वेल के पानी का मज़ा लेना है तो पानी तो बचाना ही पड़ेगा जरा सोचिये अगर हमें शहर में ही  गावं  का मज़ा मिलने लग जाए तो शहर और  गावं  का अंतर मिट जाएगा और विकास का फल सभी को मिलेगा तो सोच क्या रह रहे हैं आइये शहरों और गांवों के बीच इस दूरी को खत्म किया जाए और ग्लोबल विलेज को रियल सेंस में ग्लोबल कर दिया जाए .
आई नेक्स्ट में १ जुलाई को प्रकाशित


Tuesday, June 2, 2009

मन ये बावरा नहीं


यूँ तो मै हर बार आपके सामने जिन्दगी के एक नए रंग के साथ आता हूँ पर आज की बात कुछ अलग है गर्मी अपने पूरे शबाब पर है बारिश बस आने को है और ऐसे ही मौसम की एक शाम को जब मै कुछ लिखने की कोशिश कर रहा था अचानक जिन्दगी के कुछ खट्टे मीठे पल दिल के किसी कोने से निकल पड़े और मुझे बीती यादों मे ले गए और मेरा मन उड़ चला बिन पंखों के... जी हाँ ये मन ही तो है जो कभी ज्यादा का इरादा करता है तो कभी कहता है जी लो जी भर के, ये आवाज़ हमारे अन्दर से आती हैहमसे बहुत कुछ कहती है और बस मैंने सोचा क्यों न आज मन की बातें मन से की जाएँ .मन है तभी सोच है और आज का यंगिस्तानी  जो सोचता है वही बोलता है और यहीं थोड़ी सी प्रॉब्लम होती है जिसे हम जेनरेशन गैप कहते हैं वो गाना है न मैं करता रहा औरों की कही मेरे बात मेरे मन मे ही रही . वो वक्त दूसरा था जब लोग अपनी खुशियों को मार कर अपने घर परिवार के लिए सब कुछ किया करते थे इतने पर तो ठीक था लेकिन समय बीत जाने के बाद उन्हें अपने किये गए सेकरीफाइसेस पर स्ट्रेस ज्यादा होता था क्योंकि वो लोग कहीं आगे निकल चुके होते थे जिनकी मदद की गयी थी .आज टाइम बदल गया है लोग ३० साल में घर और गाडी के मालिक बन जाते हैं. अवसर भी है और उन्हें पाने का मौका भी ऐसे में अगर खुशियाँ मनाने का मौका है तो बिलकुल उन खुशियों के लिए अपने मन के दरवाजे खोल, दीजिये मत परवाह कीजिये लोक लाज और समाज की बंदिशों की आज के युवाओं की यही सोच है.इंसान जितना बड़ा प्लाट खरीदता है उस पर उतना बड़ा मकान नहीं बनाता ,कुछ जगह बागीचे के लिए छोड़ देता है जितना बड़ा मकान बनाता है उस पर उतना बड़ा दरवाजा नहीं बनाता ,जितना बड़ा दरवाज़ा लगाता है उसका ताला उतना बड़ा नहीं होता और जितना बड़ा ताला होता है उसकी उतनी बड़ी चाभी नहीं होती लेकिन मकान का कण्ट्रोल चाभी पर ही होता है बात सीधी है अब सोचिये न इस छोटे से मन पर कितना ज्यादा बोझ होता है रिश्तों का समाज का और न जाने क्या -क्या . तो इस पर बंदिश लगा कर क्यों हम इसे बाँधने की कोशिश करते हैं . और यही प्रॉब्लम है जेनरेशन गैप से होने वाले कंफ्लिक्ट की परेंट्स अपने बच्चों को अपने टाइम के हिसाब से बनाना चाहते हैं लेकिन मोबाइल और इन्टरनेट के इस युग में जहाँ दुनिया हर पल बदल रही है हम अपने मन की सोच अपने बच्चों पर थोप नहीं सकते हैं आखिर उनके पास भी एक प्यारा सा मन है जो उड़ना चाहता है कुछ करना चाहता है . ऐसे में हम अगर चीज पर बंदिश लगायें कि तुम ये करो ये न करो नहीं तो बिगड़ जाओगे ये ठीक नहीं होगा जिस चीज को जितना दबाया जाता है वो उतने ही वेग से ऊपर उठती है कहीं बचपन में पढ़ा था लेकिन बात थी एकदम सोलह आने सच . रोग को छुपायेंगे तो वो और फैलेगा तो बेहतरी इसमें है कि हम अच्छे और बुरे का फर्क उन्हें समझा दें और फैसला उन पर छोड़ दें क्योंकि जिन्दगी उनकी है और इसका फैसला भी उन्हें पर छोड़ दें अगर ऐसा हो गया तो किसी को भी अपने मन को नहीं मरना पड़ेगा और जेनरेशन गैप की प्रॉब्लम सोल्व हो जायेगी. जरा सोचिये अगर साहित्यकार , फिल्मकार ,कलाकार जैसे लोग अपने मन की न सुन रहे होते तो क्या आज हम यहाँ होते क्योंकि सोसाइटी किसी भी चेंज को आसानी से एक्सेप्ट  नहीं करती. मन की बातें मन ही जानता है और इन बातों को समझने के लिए जरूरी है कि अपने मन को और अपने आस पास के लोगों को ऐसा एत्मोस्फीर दिया जाए कि उनका मन उड़ सके सोच सके.मन की बातें मन ही जानता है और इन बातों को समझने के लिए जरूरी है कि अपने मन को और अपने आस पास के लोगों को ऐसा एटमोस्फीयर दिया जाए कि उनका मन उड़ सके सोच सके .मेरे पिता जी कहा करते हैं शरीर को जितना कष्ट दोगे वो उतना ही स्वस्थ रहेगा नहीं तो आलसी हो जाएगा यही फलसफा हमारे मन पर भी लागू होती है अगर वो सोचेगा नहीं तो हम काम करने के लिए न तो खुद मोटिवेट होंगे और न दूसरों को कर पायेंगे यानि दूसरों के मन को भी उड़ने दीजिये और फिर देखिये दुनिया होगी मुट्ठी में।
आई नेक्स्ट में २ जून को प्रकाशित

Sunday, May 24, 2009

मेरी बात




मानवाधिकार शब्द से सही मायने मेरा परिचय १९९३ के वियना सम्मेलन और समाचार पत्रों में हुई उसकी कवरेज़ से हुआ और जैसा की हर हिन्दुस्तानी के साथ होता है मुझे भी हुआ इसके बारे में और जानने की जिज्ञासा हुई बात अधिकारों की जो ठहरी लेकिन इस शब्द की गंभीरता का एहसास और अधिकारों के साथ कर्त्यों का ज्ञान जिन्दगी ,समय और अध्ययन ने सिखा दिया लेकिन बात इतनी आसान नहीं है जितनी लग रही है मानवाधिकारों की अवधारणा पूर्णता नयी अवधारणा है जिसकी जड़ें कहीं न कहीं औधोगिक क्रांति और शिक्षा के प्रसार में हैं और जैसे जैसे दुनिया बदलती गयी मानवाधिकारों का दायरा भी बदलता गया लेकिन इतनी चीज़ों के बदलाव के बाद भी एक चीज़ जो नहीं बदली है वह है आदर्श मानवाधिकारों की प्राप्ति यह जितनी दुर्लभ १० दिसम्बर १९४८ को थी उतनी ही आज भी है जबकि हम आज ये दावा करते हैं की हम एक सभ्य समाज में रह रहे हैं लेकिन हकीकत क्या है यह कोई भी संवेदनशील इंसान कम से कम भारत में नज़र उठा कर देख सकता है. साल २००८ आदर्श मानवाधिकारों के लिहाज़ से एक महत्वपूर्ण वर्ष रहा है जब सारी दुनिया ने मानवाधिकारों की उदघोषणा के ६० साल मनाये और पूरे विश्व को एक परिवार के रूप में देखने का सपना फिर देखा गया लेकिन सपने तो सपने हैं फिर भी हम सपने देखना नहीं छोड़ते हैं क्योंकि ये सपने ही हैं जो हमें दुनिया को बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करते हैं मानवाधिकार और मीडिया नामक यह कृति मेरे द्वारा देखे गए एक सपने का ही परिणाम है कि “जियो और जीनो दो” आज की इस ग्लोबल दुनिया में जहाँ सूचना ही शक्ति है वहां मीडिया की ताकत को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है और एक नए मीडिया युग से हम रूबरू होने के लिए तैयार हो रहे हैं भारत भी कोई अपवाद नहीं है इतनी गंभीर आर्थिक विषमताएं साथ लेकर भी ये देश आगे बढ़ रहा है एक तरफ टाटा अम्बानी और बिरला जैसे व्यवसायिक घराने हैं वहीँ देश की आधी से ज्यादा जनसँख्या सिर्फ एक वक्त का खाना खाती है जहाँ भ्रष्टाचार धीरे धीरे सामाजिक शिष्टाचार में तब्दील हो रहा है.
आइये थोडा पीछे चलते हैं और मानवाधिकार की प्रष्ठभूमि पर नज़र डालते हैं इंसानी सभ्यता के शुरुआत के समय से ही अर्थात जब मानव ने जंगली जीवन छोड़कर सामाजिक जीवन में कदम रखा तब से ही प्राकृतिक रूप से उसने अपने अधिकारों और कर्तव्यों के दायरे बना लिए.धीरे धीरे सामाजिक जीवन का विस्तार हुआ,समाज ने एक व्यवस्थित आकार लेना शुरू किया तो, कुछ कायदे क़ानून भी बन गए,जिनके अनुसार कुछ काम करना अनिवार्य हो गए तो वहीँ कुछ काम को सामाजिक द्रष्टि से गलत ठहरा दिया गया. देश बदला दुनिया बदली और हमारे अधिकारों में भी बढ़ोतरी होती गयी लेकिन मानवाधिकार इस मायने में महतवपूर्ण हैं की मानव सभ्यता के इतिहास में पहली बार कोई अधिकार बगैर किसी जाति मज़हब रंग नस्ल से परे प्रदान किये गए . मनुष्य जैसे-जैसे सभ्यता की ऊँचाइयाँ हासिल करता जा रहा है, खेद का विषय है कि वैसे-वैसे ही बर्बरता के शिखर भी लाँघता जा रहा है। सारी दुनिया आज आतंक के साए तले जी रही है। खाड़ी देशों में तेल के कारण युद्ध है तो फिलिस्तीन में नस्ल के नाम पर युद्ध है। भारत और उसके पड़ोसी देश तरह-तरह की हिंसा से ग्रस्त हैं। इस सब में जाने कितने बच्चे बेघर होते हैं, जाने कितने बुजुर्ग बुढ़ापे के दर्द को झेलते हुए राहत शिविरों में वक्त काटने को मजबूर होते हैं। जाने कितने निर्दोष जन जेल और यातना शिविर में ठूँस दिए जाते हैं और न जाने कितनी औरतों की आबरू लड़ाई के बीचोबीच चिथड़े-चिथड़े कर दी जाती है। कुल मिलाकर हर ओर मनुष्य के जीने और रहने के मूलभूत अधिकारों का हनन होता दिखाई दे रहा है।ये तो कुछ बड़ी बातें हो गयी लेकिन हमारे दैनिक जीवन में प्रति दिन मानवाधिकारों का हनन होता है लेकिन हम उन्हें नज़रंदाज़ कर देते हैं लड़कियों को छेड़ा जाना या गालियाँ देना कुछ ऐसा ही मामला है लडकियां जहाँ इसे अपनी नियति मान चुकी हैं वहीँ इस पुरुष प्रधान दुनिया में हमने सब चलता है वाला रवेया अपना लिया है . ऐसा प्रतीत होने लगा है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के इस नए युग में यद्यपि मनुष्य दुनिया को अपनी मुट्ठी में करने के अभियान में सफल होता दिखाई दे रहा है, तथापि उसकी मुट्ठी से उसके अपने जीवन के अधिकार छूटते जा रहे हैं।इसमें पुरुष महिलाएं बच्चे और बूढे सभी शामिल हैं इस २१ वीं शताब्दी की दुनिया में हर तीसरी महिला हिंसा वो चाहे घरेलू हो या सामजिक का शिकार हैं और प्रतारणा भरा जीवन जीने को मजबूर हैं .एच आई वी /ऐड्स के मरीज़ बड़ी संख्या में अकेलापन ,सामाजिक बहिष्कार जैसी यातनाओं को सहने के लिए मजबूर हैं .नन्हे बच्चों के कदम चलना सीखते ही मजदूर बना दिए जाते हैं और शिक्षा स्वास्थय और सही पालन पोषण के अधिकार से महरूम कर दिए जाते हैं . यही कारण है कि दुनिया भर में आज मानवाधिकारों के संरक्षण की चिंता बढ़ गई है। ऐसे में मुझे निर्मला पुतुल जी की ये पंक्तियाँ काफी सार्थक लगती हैं




मैं चाहती हूँ
आँख रहते अंधे आदमी की
आँख बनें मेरे शब्द
उनकी ज़ुबान बनें
जो जुबान रहते गूँगे बने
देख रहे हैं तमाशा
चाहती हूँ मैं
नगाड़े की तरह बजें मेरे शब्द
और निकल पडें लोग
अपने अपने घरों से सडक पर।” (मैं चाहती हूँ)
मुझे काफी दुःख के साथ कहना पड़ रहा है की मै एक ऐसे राज्य से आता हूँ जो मानवाधिकारों के हनन के मामले मे नंबर वन है राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आंकड़ों के मुताबिक, पिछले साल मानवाधिकार हनन के 94,559 मामलों में सिर्फ यूपी से 55,216 मामले आए। पूरे देश से आयोग को जो मामले मिले, उसका 58.39 फीसदी हिस्सा यूपी से था। दिल्ली से 5,616 मामले सामने आए। इसके बाद गुजरात (3,813) और बिहार (3,672) का स्थान है। फिर हरियाणा (3,483) और राजस्थान (2,640) का नंबर आता है। उत्तराखंड से भी 1,916 केस दर्ज हुए।ये एक बानगी है की हम किस दुनिया में रह रहे हैं इस पुस्तक को लिखते वक्त एक बात मुझे हमेंशा कचोटती रही कि हम किस मुंह से एक सभ्य समाज मे रहने का दावा कर रहे हैं कयों हम दूसरो का हक़ मार कर आगे बढ़ना चाहते हैं क्या हम शांति से नहीं रह सकते हैं सोचो साथ क्या जाएगा के मंत्र का जाप करने वाला हिन्दुस्तानी क्यों अपनी कथनी और करनी में भेद करता है. मेरी इस पीडा को ये पंक्तियाँ बेहतर ढंग से व्यक्त करती हैं
“सैर करने निकला तो दिल में ये अरमान थे
एक तरफ हसीं दुनिया एक तरफ शमसान थे
चलते चलते एक हड्डी पर पैर पड़ा
हड्डी के बयां थे ओ जाने वाले जरा देख कर चल
हम भी कभी इंसान थे”
मानवाधिकारों के आदर्श की प्राप्ति तभी संभव है जब हम अपने इस दूहरे मापदंड को नहीं बदलेंगे. इस काम को मीडिया या जन माध्यमों के सहयोग किया जा सकता है एक पत्रकार होने के नाते मैं इसकी ताकत और सीमाओं को बेहतर समझ सकता है वैसे आज मीडिया को गरियाने का एक फैशन चल पड़ा है और हर आदमी इस बहती गंगा में डुबकी मार कर अपना परलोक सुधार लेना चाहता है मै इसको बुरा भी नहीं मानता कोई भी चीज़ आलोचना से परे नहीं हो सकती और मीडिया भी कोई अपवाद नहीं लेकिन "गलती अगर रुलाती है तो राह भी नयी दिखाती है " मीडिया एक वक्त में जहाँ पी एच डी डिग्री धारी को संबोधित कर रहा होता है तो उसी वक्त कोई पांचवी पास से तेज़ भी उसे देख /पढ़/सुन रहा होता है ऐसे में एक विशिस्ट स्तर को बनाये रखना मुश्किल होता है यही मीडिया की ताकत भी है और कमजोरी भी मीडिया एक यन्त्र है जिसे हमारे जैसे इंसान चलाते हैं जो भावनाओं संवेदनाओं और पुर्वग्रहो के पुतले हैं ये प्राणि इसी ग्रह के पुतले हैं किसी भी इंसान के समाजीकरण में उसका परिवार , स्कूल , उसकी शिक्षा और संस्कार अहम् भूमिका निभाते हैं जिससे उसके व्यक्तित्व का निर्माण होता है हर चैनल या अखबार बुरे नहीं हैं जैसा समाज में होता है कुछ अच्छे लोग हैं तो कुछ बुरे लोग भी हैं.
तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा इंसान की औलाद है इंसान बनेगा ये कोई साहित्यिक पंक्ति नहीं बल्कि एक हिंदी फिल्म का गाना है एक और बानगी देखिये हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेगे एक खेत नहीं एक बाग़ नहीं हम सारी दुनिया मांगेगे , इंसान का इंसान से हो भाईचारा यही पैगाम हमारा , "ये महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनिया ये इंसान के दुश्मन समाजों की दुनिया ये दौलत के भूखे रवाजों की दुनिया ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है "पर मजेदार बात ये है कि हमारा समाज हिंदी फिल्मों और उनके गानों को दोयम दर्जे का मानता है . ऐसे एक नहीं सैकडों उदाहरन मिल जायेंगे जिससे पता चलता है कि हमारा फिल्म मीडिया जागरूक और सज़ग है लेकिन कुछ जिम्मेदारी दर्शकों की भी बनती है मुझे वक्त फिल्म का एक संवाद याद आ रहा है “चिनॉय सेठ जिनके घर शीशे के होते हैं वो दूसरों के घर पर पत्थर नहीं फैंकते जब जब लीक से हटकर भारतीय फिल्मकारों ने प्रयोग किये हैं उन्हें दर्शक नहीं मिले हैं . और ये तो आप सभी जानते हैं की भूखे पेट न होई हरि भजन गोपाला ऐसे वक्त में जब या तो हर जगह बाज़ार घुस गया है या पनप गया है वहां फिल्में सिर्फ समाज सेवा के लिए बनाई जाएँ कहीं से उचित नहीं लगता. फिल्में समाज का आइना होती हैं हर वक्त की फिल्में अपने वक्त के समाज का चित्रण करती हैं हाँ ये हो सकता है की प्रस्तुतीकरण में कल्पना की उडान थोड़ी लम्बी हो जाए पर कहीं न कहीं वो हमारे आस-पास ही होते हैं अमिताभ बच्चन का गुस्सैल चरित्र अपने वक्त के समाज का ही प्रतिनिधित्व कर रहा था जब लोग अपने आपको सरकारों द्वारा ठगे गए महसूस कर रहे थे.
चलिए बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी अब अखबारों की बात की जाए इसमें कोई शक नहीं है कि अखबारों की विश्वनीयता में कमी आयी है लेकिन अभी उन्हें गंभीर माध्यम का दर्जा हासिल है और मानवधिकारों की प्राप्ति में उनके द्वारा ही सर्वाधिक गंभीर प्रयास किये गए अभी भी अखबार की ख़बरों के आधार पर टी वी चैनेल खबरों से खेलते हैं लेकिन अखबार को पढने के लिए किसी का भी पढ़ा लिखा होना आवश्यक है ऐसे में अखबार माध्यम टी वी और फिल्म माध्यम से पिछड़ जाते हैं. कहते हैं अधिकार और कर्तव्य एक दूसरे के पूरक हैं अपने कर्तव्यों को पूरा करते चलो अधिकार खुद बा खुद मिल जायेंगे लेकिन कर्तव्यों कि इतिश्री होने के बाद भी अधिकार न मिले तो जरुरत है जागने की और इस काम को बेहतर ढंग से मीडिया अंजाम दे रहा है चाहे वो उपभोक्ता अधिकारों के लिए "जागो ग्राहक जागो "अभियान हो या घरेलू हिंसा की रोकथाम के लिए "बेल बजाओ " अभियान हो.
लेकिन सब कुछ सरकार और मीडिया पर नहीं छोडा जा सकता है एक आजाद देश के नागरिक होने के नाते हमारा भी कुछ दायित्व बनता है ये होना चाहिए ये किया जाना चाहिए की मानसिकता को छोड़कर ये सोचा और किया जाए कि हम क्या कर सकते हैं हम मानवाधिकारों की प्राप्ति के लिए किस तरह से योगदान दे सकते हैं .दुनिया को बेहतर बनाने की बात हो चुकी अब दुनिया को बदलने का वक्त है और बदलाव की इस गति को हमारे आपके जैसे ये छोटे प्रयास तेज़ कर सकते हैं लेकिन इसके लिए हमें अपनी कथनी और करनी के भेद को मिटाना होगा , हर हिन्दुस्तानी व्यवस्था से त्रस्त है परिस्थियों से परिचित भी और बदलाव भी चाहता है इसके लिए उसे एक भगत सिंह की जरूरत है लेकिन अपने घर मे नहीं पडोसी के घर में अगर ये मानसिकता रही तो मुझे इस स्थिति के लिए एक गीत की पंक्तियाँ याद आ रही हैं कसमे वादे प्यार वफ़ा बातें हैं बातों का क्या चलते -चलते एक आशा की किरण के साथ मैं अपनी बात ख़तम करता हूँ




राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग नयी दिल्ली द्वारा आयोजित लेखक सम्मिल्लिन में दिया गया व्याख्यान (२१-२२ मई २००९ तीन मूर्ति भवन )

Wednesday, May 6, 2009

तेरी आंखों के सिवा


मौसम ऐसा है कि पानी की ,झरनों की , फूलों की वादियों की बातें ही होनी चाहिए बातें ऐसी जो मन को सुकून दें .तो इस बार हम चलते हैं आँखों की वादियों में हंसने की बात नहीं है . आँखों की वादियों में भी गज़ब की ठंडक होती है .बस महसूस करने की जरूरत होती है .आखिर कुदरत की हर खूबसूरती दिल तक इन्हीं आँखों के जरिये ही तो पहुँचती है .ऐसी आँखों की बातें क्यों न की जाएँ .मैं गानों के बहाने आँखों की बात करूँगा और बाकी आप पर है कि आपको किस किस की आँखें याद आती हैं .आपने लोगों को बातें करते सुना होगा पर क्या कभी आँखों को बातें करते सुना है ,क्या नहीं सुना तो ये गाना सुन लीजिये "आँखों -आँखों में बात होने दो " (आँखों आँखों में)अब जब आँखें बात करेंगी तो वो डायरेक्ट दिल से होंगी और दिल की बातें एकदम प्योर होंगी सीधी बात नो बकवास सुनिए ये गाना “आँखें भी होती हैं दिल की जुबान (हासिल) , बात आगे बढ़ती है आँखें लोगों को जिन्दगी जीने का मोटिवेशन भी देती हैं भरोसा न हो तो किसी अपने की आँखों में झांक कर देख लीजिये जिसकी आँखें आपके दुःख से आँसुवों से भर जाती हैं या फिर खुशी के लम्हों में प्यार से चमक उठती हैं फिर भी भरोसा न हो रहा तो ये गाना सुन लीजिये “जीवन से भरी तेरे आँखें मजबूर करें जीने के लिए ,( सफ़र )बात यहीं ख़तम नहीं होती आँखें बहुत बड़ी राजदार भी होती हैं लेकिन आँखों में क्या क्या राज़ दफ़न हैं इनको समझना सबके वश की बात नहीं है ये गाना कुछ इसी रियलिटी को शो कर रहा है “आपकी आँखों में कुछ महके हुए से राज़ हैं आपसे भी खूबसूरत आपके अंदाज़ हैं” (घर) जरा सोचिये अगर आँखें न होती तो फिल्म साहित्य संस्कृति कला का ये डेवेलोपमेंट कभी हुआ ही न होता ये हमारी आँखों का कमाल है आँखें सिर्फ देखती ही नहीं सपने भी सजाती हैं “आँखों में हमने आपके सपने सजाये हैं ' (थोडीं सी बेवफाई)आँख हमें बहुत कुछ सिखाती है खासकर जिन्दगी के बारे में ये आँख ही है जो सुख और दुःख दोनों में नम हो जाती है हमारा पूरा शरीर सुख और दुःख में अलग अलग रियक्ट  करता है लेकिन आँखें हमेशा एक जैसी रहती हैं मानो कह रह हों “तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है” पर बात यहीं ख़तम नहीं होती आँखें कभी कभी गुश्ताखियाँ भी करती हैं लेकिन बहुत प्यार से “आँखों की गुश्ताखियाँ माफ़ हो”. किसी को काली आँखें भाती है “ये काली काली आँखें”( बाजीगर) तो कोई नीली आँखों में डूब जाता है “तेरी नीली नीली आँखों के दिल पे तीर चल गए”( जाने अनजाने) किसी को गुलाबी आँखें शराबी बना देती हैं “गुलाबी आँखें जो देखी शराबी ये दिल हो गया” (दा ट्रेन) और कोई आँखों के कत्थई रंग में शिकायत करता है “कत्थई आँखों वाली लडकी एक ही बात पर रोज झगड़ती है”( डुप्लीकेट)पर पिक्चर अभी आधी है मेरे दोस्त तस्वीर का दूसरा पहलू ये है कि दुनिया में सबसे ज्यादा नेत्रहीन भारत में रहते हैं. हमारी जनसंख्या का एक फ़ीसदी से बड़ा हिस्सा देखने में असमर्थ है. दुनिया के लगभग साढ़े तीन करोड़ दृष्टिहीनों में से क़रीब एक तिहाई यानी की लगभग एक  करोड़ बीस लाख भारत में रहते हैं. इनमे से ज्यादातर की आँखें ठीक हो सकती हैं अगर हम अपनी आँखें दान कर दें तो .आप आँखों के इस फलसफे को समझ रहे हैं तो आज ही अपनी आँखें दान कर दीजिये जिससे आपके जाने के बाद आपकी आँखों से कोई सुहाने सपने सजा सकता है उन सपनों को हकीकत में बदलने की कोशिश कर सकता है आख़िर इन खूबसूरत आंखों को हमारे बाद भी कोई घर मिल जाए इससे बेहतर सपना इन आंखों के लिए भला क्या होगा ।


आई नेक्स्ट में ६ मई को प्रकाशित

Sunday, April 12, 2009

प्रभावी संचार और व्यक्तित्व विकास

साथियों संचार हमारे जीवन का प्रमुख अंग है मानव सभ्यता का विकास संचार के विकास के साथ हुआ है हम रोज न जाने कितने लोगों से मिलते हैं और बात करते हैं लेकिन कुछ लोगों की बात का तरीका हमें इतना भा जाता है की हम मंत्र मुग्ध हो जाते हैं एक आची संचारक में नेत्रत्व का गुर आ जात है अब यह उस व्यक्ति पर निर्भर करता है की वह अपने इस गुड्ड को परिष्कृत करता है नहीं , संचार एक कला है और यह हमारे व्यक्तित्व को निखरती है.
अरे ये क्या बातों बातों में मैं आपको संचार है क्या ये तो बताना भूल ही गया ? संचार का मतलब होता है किसी निश्चित चिह्न संकेतों द्वारा भावों विचारों सूचनाओं आदि का आदान प्रदान ,मानव के सम्बन्ध में निश्चित चिह्न और संकेत से मतलब उस भाषा से है जिसमे हम बात करते हैं तथा लिपि उसी भाषा का लिखित संकेतेकरण होता है .
मुझे उम्मीद है अब आप संचार का मतलब समझ गए होंगे. किसी भी क्षेत्र में सफलता पाने के लिए व्यक्ति के व्यक्तित्व की निर्णायक भूमिका होती है। व्यक्तित्व का विकास हम स्वयं भी कर सकते हैं। आपकी बोली आपके व्यक्तित्व का आईना होती है। आप जैसे ही कोई पहला वाक्य बोलते हैं, सामने वाला आपकी गहराई आपके नॉलेज का बहुत जल्द आकलन कर लेता है। आपके बात करने का अंदाज आपके कठिन से कठिन काम को ठोस बना भी सकती है और सत्यानाश भी कर सकती है। आपके बात करने का अंदाज कैसा हो, जिससे आपके सभी काम आसानी से बन भी जाए और आपके आगे बढ़ने का मार्ग भी खुल जाए।वार्तालाप अथवा बात करने का अंदाज आपके संपूर्ण व्यक्तित्व को दर्शाता है। आप लोगों ने अक्सर देखा होगा हम सिर्फ बोले जा रहे होते हैं बगैर सोचे समझे कि हम कैसे बोल रहे हैं और क्या बोल रहे हैं ?
आज मै आप लोगों को प्रभावी संचार के कुछ तरीके बताऊंगा जिससे हम अपने व्यक्तित्व को संवार सकते हैं
. बोलने से पहले यह अपने दिमाग में निश्चित कर लें कि आपको क्या बोलना है और क्यों बोलना है आपसे जितना पूछा जाए उतना ही उत्तर दें अनावश्यक बातें करना आपके व्यक्तित्व को नकारात्मक बनाएगा .
.कभी कभी चुप रहना बोलने से ज्यादा बेहतर होता है इसलिए मौन की ताकत को पहचानिये .हर बात पर बोलना या पर्तिक्रिया देना ठीक नहीं होता.
. यदि आपको लगता है कि आप बहुत सारे लोगों के बीच अपनी बात नही रख पाते या आपको झिझक महसूस होती है तो आपके अन्दर कहीं न कहीं अताम्विश्वास की कमी है और इसको दूर करने का तरीका भी बहूत आसान है किसी चिन्तक ने कहा था बोलना बोलने से आता है तो शीशे के सामने खड़े होकर अपने आप से बातें करने का अभ्यास कीजिये ,शीशे के सामने बोलने से आपको इस बात का भी अहसास होगा कि बोलते वक्त आपके शरीर की भावः भंगिमा कैसी है और यदि कोई समस्या है तो आप उन्हें दूर कर पायेंगे और आपके अन्दर एक नयी उर्जा का संचार होगा.
जब भी बोलें या लिखे इस बात का ध्यान रखें कि वह स्पस्ट हो ऐसे संचार का कोई मतलब नहीं जो आस्पस्ट हो ऐसा संचार भरन्तियाँ बढ़ाएगा और समस्यें पैदा करेगा .
.अक्सर ये भी ध्यान दे कि बोलते या लिखते वक्त किसी खास शब्द का इस्तेमाल बार -बार तो नहीं कर रहे हैं इस तरह की प्रवर्ती प्रभावी संचार में बाधा है और संचार को दोषपुरण बनाती है.
. नर्मता प्रभावी संचार का एक आवश्यक गुण है यदि आप नर्मता से अपनी बात कहेंगे तो सामने वाला आपकी बात गौर से सुनेगा .
. प्रभावी संचार के लिए यह भी जरूरी है कि हम उन व्यक्तियों के भाव भंगिमाओं पर ध्यान दें जिनके साथ हम संचार में शामिल हैं प्रतिपुस्ती प्रभावी संचार के लिए आवश्यक है .
प्रभावी संचार का सीधा सम्बन्ध हमारे मष्तिस्क से होता है बोलने से पहले सोचा जाता है और हमारी सोच जैसी होगी उसका असर हमारे संचार में भी दिखेगा इसलिए अपनी सोच को हमेशा सकारात्मक रखना चाहियें.
.न तो बहुत तेज़ बोलना चाहिए और न ही बहुत धीमे क्योंकि यदि आप समझ नहीं पाते तो संसार के सुन्दरतम शब्द भी निरार्थक ध्वनियाँ है.
.आप सभी ने सुना होगा एक अच्छा वक्ता होने के लिए एक अच्छा शोरता होना जरूरी है अच्छा बोलने के लिए दूसरो के विचारों को भी सुने हमेशा आपनी बात थोपने की कोशिश न करें .
इस बात का ध्यान रखें कि आपके द्वारा प्रयोग किए गए वाक्य दूसरों के सामने आपकी छवि को बनाते या बिगाड़ते है। इसलिए जहां तक हो सके, अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करने से बचें। किसी की निंदा करने में हमें बहुत मजा आता है, लेकिन किसी समय पर आपके द्वारा की गई निंदा आपके लिए काफी महंगी साबित हो सकती है, इसलिए इस आदत से दूर रहना ही आपके लिए हितकर होगा।
आखिरकार जुबान से निकली बात वापस नहीं आती।.जिससे भी आप बातें कर रहे हों, उसके नाम लेना न भूलें। ऐसा करने से सामने वाले को सम्मान की अनुभूति होती है। साथ ही, सामने वाले की नजर में आपकी इज्जत ही बढ़ती है। आगे चलकर वह भी आपका सम्मान करने लगता है।
.जो बात मुख्य रूप से आप कहने गए हैं, उसे सबसे पहले प्रस्तुत करें। जिस बात को अहमियत देनी हो, वहां खास शब्दों पर बल दें। पर्याप्त उतार-चढ़ाव के साथ अपनी बात कहें। इससे सामने वाला आपकी बातें ध्यान से सुनेगा।
झूठ ज्यादा देर टिकता नहीं है। अपने बारे में सही आकलन कर वास्तविक तस्वीर पेश करें। निष्ठापूर्ण व्यवहार की सभी कद्र करते हैं। अपने काम के प्रति आपकी ईमानदारी आपको जीवन में सर्वोच्च स्थान दिला सकती है। भूलें नहीं, कार्य ही पूजा है और यही हमें प्रतिदिन कुछ नया करने, नया सोचने तथा नई योजना बनाने के लिए उत्साहित एवं प्रेरित करता है । जो कुछ किया गया है, उससे और भी अच्छा कैसे किया जाए, अपनी परिस्थिति और साधन के अनुरुप अच्छे से अच्छा कैसे किया जाए, इसकी प्रेरणा हमें प्रतिदिन के मूल्यांकन एवं आन्तरिक अवलोकन से मिलती है । हर दिन एक नये संकल्प के साथ नया कार्य प्रारम्भ करना चाहिए, जो सफल व्यक्तित्व की सहज विशेषता है ।
आप अपने शरीर को दिन में कई बार खुराक देते हैं; किन्तु अपने मस्तिष्क को भूखा मत रखिए। अपने पास एक दैनन्दिनी रखिए, जिसमें आप नई पुस्तकों के नाम अंकित करते रहिए। पुस्तक-विक्रेताओं से नई-पुरानी पुस्तकों के सूचीपात्र प्राप्त कीजिए। दूकानों पर सस्ती पुरानी पुस्तकों के लिए चक्कर लगाइए। अपनी एक स्वतन्त्र लाइब्रेरी बनाइए, चाहे वह कितनी ही छोटी हो। उन पुस्तकों पर गर्व कीजिए, जो आपके घर की शोभा बढ़ाती हैं। प्रत्येक पुस्तक को खरीदने के बाद, आप अपने मानसिक आकार में एक मिलीमीटर की वृद्धि करते हैं।
जीवन के कुरुक्षेत्र में आधी लड़ाई तो आत्मविश्वास द्वारा ही लड़ी जाती है। यदि योग्यता के साथ आत्मविश्वास विकसित किया जाए तो कॅरियर के कुरुक्षेत्र में आपको कोई पराजित नहीं कर पाएगा। अध्ययन के साथ-साथ उन गतिविधियों में भी हिस्सा लें, जिनसे आपका आत्मविश्वास बढ़े।

आकाशवाणी लखनऊ से प्रसारित वार्ता

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