Wednesday, June 27, 2012

सिनेमा का बदलता मौसम

मौसम बदल रहा है बारिश आने को है और हम सब एक और बदलते मौसम के गवाह  बन रहे हैं वो है सिनेमा  का मौसम जो बहुत तेजी से बदल रहा है.ये सिनेमा है उस बदलते भारत का जिस पर अक्सर ये तमगा लगता था की हमारी फ़िल्में गीत संगीत और प्रेम सम्बन्धों के आगे सोच ही नहीं पाती .जिन्दगी उतनी रंगीन है नहीं जितनी फ़िल्मी परदे पर दिखती है पर अब हकीकत को जानने  देखने और महसूस करने का वक्त है वो दौर बीत गया जब फ़िल्में कोरे  मनोरंजन का साधन मात्र हुआ करती थीं  आजका सिनेमा हार्ड कोर है अगर धंधा गन्दा है तो कहने में क्या हर्ज़ है ये बोल्डनेस सिनेमा को दी है यांगिस्तानियों ने जो नए तरीके की  फ़िल्में बना भी रहे हैं और देख भी रहे हैं.सत्तर के दशक में लोगों का गुस्से को अमिताभ ने आवाज़ दी पर उनकी समस्याओं का समाधान एकदम काल्पनिक रहा करते थे गीत संगीत से भरी ऐसी फ़िल्में हमें एक ऐसे वर्चुअल वर्ल्ड में ले जाती थीं जिनका जिन्दगी की सच्चाई से दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं हुआ करता था रिश्ते में तो  हम तुम्हारे  बाप लगते हैं नाम है शहंशाहया फिर मोगेम्बो खुश हुआ” .ये बदलाव वक्त का है जो फिल्मों में दिख रहा है .आज का यूथ ज्यादा क्यूरियस  और रीयलिस्टिक है उसके लिए ये ज्यादा इम्पोर्टेंट  है कि क्या और कैसे दिखाया जा रहा है..नब्बे के दशक में जो उदारीकरण की बयार चली वो अच्छी थी या बुरी हम इस बहस में नहीं पड़ते हैं पर उस बयार को जब इन्टरनेट का साथ मिला तो अभिव्यक्ति  के नए अंदाज़ ए बयां सामने आये. फ़िल्में सिनेमा हाल्स से निकल कर मल्टीप्लेक्स तक पहुँच गयीं .दर्शक बदल गए उनकी रुचियाँ बदल गयीं और इसमें बड़ा रोल प्ले किया यांगिस्तानियों ने ,ज्यादा पुरानी बात नहीं हम सिर्फ पिछले दस साल की फिल्मों के कंटेंट पर नज़र डालें तो पता चल जाएगा की हमारा सिनेमा कितना मेच्युर हो रहा है.आप भी सोच रहे होंगे की कैसे तारे ज़मीन परब्लैकपिपली लाइव,पान सिंह तोमरविकी डोनरखोसला का घोसलाचक दे इंडिया,धोबी घाट, और गैंग्स आफ वासेपुर  जैसी फिल्में ज़हन में पैदा नहीं होती हैं. वो बारीक रिसर्च से जुटाए गए तमाम पहलुओं से बनती हैं, और इन जीवन के इन पहलूवों को समझने के लिए जीवन को बहुत गौर से समझना होगा इनमे से कुछ फिल्मों के नाम  ही अंग्रेजी में है पर  इनमे बाकी सब कुछ देसी है मतलब हमारे आस पास का ये उन  लोगों की कहानी है जो आम हैं पर उनकी कहानियां खास हैं कंटेंट भी कैसे कैसे स्पर्म डोनर की कहानी विक्की डोनर , एक छोटे शहर  का वीडियो ग्राफर शंघाई फिल्म को नयी ऊँचाइयों पर ले जाता है ,इलेक्ट्रोनिक मीडिया कैसे ख़बरों से खेलता है उसका उदहारण पीपली लाईव, इन फिल्मों के कितने कैरेक्टर हमारे इर्द गिर्द के मामूली लोग हैं जिनकी समस्याओं और व्यक्तित्व को हम नज़रंदाज़ कर देते हैं पर जब इन्हीं केरेक्टर्स  को सिनेमा के परदे पर उतारा जाता है तो वे इम्मोर्टल हो जाते हैं क्यूंकि जिंदगी जब मायूस होती है तभी महसूस होती है और आज की फिल्मों को लोग महसूस कर रहे हैं.चाहे वो फेरारी की सवारी हो या शंघाई .इन फिल्मों में प्रोब्लम्स  को देखने का एक विजन है और मुद्दों की गंभीरता भी . पचास के दशक में मुद्दों पर आधारित फ़िल्में  ज़रुर बनी पर उनमें आम आदमी का इतिहास कम कहा गया है और ऐसा भी नहीं कि ये किसी खास वर्ग या ग्रुप को ध्यान में रखकर बनाई जा रही हैं बच्चों के लिए चिल्लर पार्टी, और आई एक कलाम है यांगिस्तानियों के एटीट्यूड को दिखाती देल्ही बेली भी है और हाँ इंटरटेनमेंट का तडका भी है आजकल भाषण कौन सुनता है यार डाइरेक्ट दिल से और तभी तो इनके डायलोग्स भी मक्कारी की जमीन से उगे हुए कमीनेपन के पौधे की बजाय सीधे चोट करते हैं और गैंग्स ऑफ वासेपुर का डायलोग याद आ जाता है फट के फ्लावर हो जाना .
आई नेक्स्ट में 27/06/12 को प्रकाशित 

Tuesday, June 26, 2012

Expressions in HT Dated 26/06/12


Internet has changed our lives and it is not different for our youngsters and students. As per the 2010 World Bank statistics for world development indicators only 7.8% of Indian population is active internet user. On the other hand Forrester Research claims that India will be the third largest internet user base by 2013.This way we are going to witness a huge surge in Internet usage. Internet usage in the country is driven primarily by young people, with over 75% of the Internet users being school- or college-going kids and young men. Devang Mehta might not have realized the potential of his popular statement of  roti,kapada,makan and bandwidth. The surge in the demand of internet clearly indicates that we need to assess the impact of internet on your education system.Internet and education conundrum has two faces. Students have access to teaching programs and games that teach and at the very same time they have access to gambling and porn which spoils. Kids are much more expert at computer language and computer use than their elders were at the same age. This can be attributed to a more informed society. It’s not only the kids are smarter these days but we all are. Lazy brains are crazy brains and need to be taken care for abuse of internet and social networking. Trends are alarming for internet abuse at schools and shared computers.We are in an era of instant coffee, instant noodle and instant information. We are taking plunge in an educational revolution, e- education. Millions of students and sizable number of villagers are using internet to know and upgrade their knowledge. This is in addition to the professionals who are using internet for different online certifications despite their hectic family and work schedules. It’s possible all through the Internet connection. Student can access any information at any time and use it any whichever way possible. Last statement gives us the problem and solution both. Now if we can control and define “any”, we can have an ideal world of internet, social networking and education.Internet is not only used as a source of information for students but also a medium of communication with peers and even professors. Today Facebook is attracting more eye-balls compared to the text books. Now is the time when we have more books in smart phones than the college bag and now only we are also seeking for Internet and chatting addiction rehabilitation centers.Social networking saves time, money, energy and even space and helps as well. It has reduced the requirement of sitting together and discussing something. The World Wide Web offers a wealth of information which can be useful for every kind of need and wants. Books are now found in smart phones, I-phones and research journals are online. Literature review for a typical research thesis which used to take couple of years earlier now is matter of couple of weeks.One can go on and on counting the advantages and disadvantages of internet and social networking. It will be a typical question like we use to study in our childhood, “Is science a boon or bane?” Not making the subject complex, here is the simple answer-“It is what you make it” and we can replace “It” per our convenience. It could be anything like internet, social networking, tool or even life
The Internet can serve as a medium for acceptable social interaction, if properly used. Though it cannot and should not be empowered to be a substitute of human interactions and relationships nor take place of activities such as verbal chatting, playing and kids reading together.

Thursday, June 14, 2012

आधार के विरोध का आधार नहीं


आज के इस डिजीटल दौर में किसी भी देश की सुख समृद्घि इस बात पर निर्भर करती है कि वहां के नीति नियंताओं के पास  कैसी विकास योजनाएं हैं.  विकास योजनाओं के निर्धारण और क्रियान्वयन के लिए जरुरत होती है एक ऐसी दूर दूष्टिï की जो आने वाले सालों में सामने आने वाली चुनौतियों को भांप सकें. यह दूर दृष्टि उपलब्ध कराने में मददगार होते हैं आंकड़े. यूं तो आंकड़े महज कुछ गिनतियां हैं पर आंकड़े विकास में निवेश  के प्राथमिक आधार  हैं. बदलते समय के साथ ही आंकड़ों के भी विशेषीकरण पर जोर दिया गया और २०१० में आधार कार्ड योजना की शुरुआत हुई. अब तक 20 करोड़ लोग इसमें नाम पंजीकृत करा  करा चुके हैं.2014 तक और 40 करोड़ लोगों के ब्यौरे इसमें दर्ज हो जाएंगे और उन सबको भी 12 अंकों वाली एक विशिष्ट पहचान संख्या दी जाएगी.
प्रारम्भ से ही इस योजना पर आलोचकों ने प्रश्नचिन्ह लगाते हुए कहा कि ये सिर्फ  समय और धन की बर्बादी है. इसके बाद भी योजना आगे बढ़ी, आलोचकों के प्रश्नों को दरकिनार नहीं किया जा सकता आम लोगों तक इस योजना की वास्तविक उपयोगिता नहीं पहुँची है इसे लोगों के निजता पर हमले के रूप में भी देखा जा रहा है .एकत्र किये गए आंकड़े की सुरक्षा भी बड़ा मुद्दा है.अब तक योजना को लेकर किए जा रहे दावे और आपत्तियां बगैर आंकड़ों के कही जा रही थी पर आधार कार्ड की उपयोगिता के पक्ष में पहली बार कोई विशेषीकृत आंकड़े सामने आ रहे हैं. जो कुछ और ही कहानी ही कह रहे हैं. न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के स्टर्न स्कूल ऑफ  बिजऩेस के प्रोफेसर अरुण सुंदरराजन और यूनिवर्सिटी ऑफ  मिनेसोटा के कार्लसन स्कूल ऑफ मैनेजमेंट के प्रोफेसर रवि बापना द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में पहली यह तथ्य सामने आये हैं कि यह कार्यक्रम अपने उद्देश्य में सफल होता दिख रहा है. 2011 में 514,000 परिवारों पर भारतीय नेशनल काउंसिल फोर अप्लाइड इकॉनॉमिक रिसर्च (व्यावहारिक आर्थिक अनुसंधा राष्ट्रीय परिषद) द्वारा किया यह सर्वेक्षणयूआईडी के सामाजिक-आर्थिक प्रभावएक व्यापक बहु-वर्षीय अध्ययन का हिस्सा है.सर्वेक्षण  में इस बात पर भी रोशनी डाली गई है कि आखिर किस राज्य में ये काम तीव्र गति से हो रहा है. इस कार्यक्रम के तहत नामांकित छप्पन प्रतिशत  से ज्यादा लोगों के पास इससे पहले किसी तरह का कोई वैध पहचान पत्र  जैसे  पासपोर्टड्राईविंग लाइसेंस या स्थायी लेखा संख्या कार्ड(पैन) नहीं था.इनमें से सत्तासी  प्रतिशत  परिवारों की आय दो हजार डॉलर प्रति वर्ष से कम है.यह आंकड़े इस बात की पुष्टि करते है कि भारत में निम्न आय वर्ग के लोगों के पास बेहतर पहचान दस्तावेज नहीं होते.जगह बदलने पर ऐसे लोगों को विभिन्न सरकारी योजनाओं का फायदा सिर्फ वैध पहचान पत्र न होने से नहीं मिल पाता.आधार कार्ड योजना से इस बात पर भी बल मिलता है कि भारत में बढते डिजीटल डिवाईड को आंकड़ों को डिजीटल करके और उसी अनुसार नीतियां बना कर पाटा जा सकता है तकनीक सिर्फ साधन संपन्न लोगों का जीवन स्तर नहीं बेहतर कर रही है.शोध के आंकड़े यह भी बताते है कि  निम्न आय वर्ग के जिन लोगों के पास वैध पहचान पत्र नहीं हैं उनमें अशिक्षा की  दर बाकी जनसंख्या के मुकाबले चौगुनी देखी जा रही है.सर्वेक्षण के अनुसार जो राज्य तकनीक के क्षेत्र में आगे हैं वो आधार कार्ड बांटने में भी आगे हैं उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश ने करीब करोड़ तीस लाख यूआईडी जारी किए हैं जो किसी भी राज्य के मुकाबले सबसे ज्यादा है. इसके बाद महाराष्ट्र का नंबर है जिसने करोड़ 38 लाख कार्ड जारी किए हैं, 1 करोड़ 34 लाख के साथ तीसरे नंबर पर है लेकिन वो इन कार्डों को सबसे ज्यादा वंचित घरों तक पहुंचाने में पहले पायदान पर  है.गौर तलब है कि आंध्र प्रदेश 2005 से ही बायोमेट्रिक राशन कार्ड जारी कर रहा है और कर्नाटक ने सबसे पहले भूमि रिकॉर्ड के डिजीटलीकरण की शुरुवात की थी .इस पूरे सर्वेक्षण से एक बात तो पूरी तरह से साफ हो जाती है कि आधार योजना को फालतू बताकर इसपर निवेश को निराधार बताने वाले स्वयं तथ्यपरक नही हैं. कार्ड को लेकर किए जाने वाले दावों में से अगर आधे परिणाम भी मिले तो रोजगार गारंटी कार्यक्रमसार्वजनिक वितरण प्रणाली समेत सरकार की ओर से चल रही तमाम योजनाओं के फायदों को लक्षित समूह तक पहुंचाने की प्रक्रिया में तेजी आ सकेगी और पारदर्शिता भी बढ़ेगी. साथ ही योजना के पूरे होने पर देश के पास डिजिटल आंकडों का एक बृहद स्रोत होगा जिसके अनुसार दूरगामी योजनाओं के निर्धारण में अधिक सटीक आंकलन किया जा सकेगा. इन आंकडों के इस्तेमाल से कुछ और फायदे भी होंगे मसलन देश के प्रत्येक नागरिक को देश भर में कहीं भी एक एकीकृत व्यवस्था के अनुसार तमाम सरकारी फायदे तो मिलेंगे ही देश में अवैध घुसपैठ जैसी समस्या से भी निपटा जा सकेगा. पर ऐसा होगा  तभी जब योजना को इसके अंजाम तक पहुचाने में देरी न की जाए. ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार आधार कार्ड योजना पर एक सकारात्मक दृष्किोण बनाए रखेगी. भारत में विशिष्ट पहचान (यूआईडी) योजना की शुरुआत दो साल पहले हुई और अब तक 20 करोड़ लोग इसमें अपना ब्यौरा दर्ज करा चुके हैं.2014 तक और 40 करोड़ लोगों के ब्यौरे इसमें दर्ज हो जाएंगे और उन सबको भी 12 अंकों वाली एक विशिष्ठ पहचान संख्या दी जाएगी.ये सवाल अभी भी अनुत्तरित है कि ये योजना अपने लक्ष्यों को हासिल करेगी या अन्य सरकारी योजनाओं की तरह ये भी सामान्य ज्ञान के प्रश्नों का महज़ हिस्सा भर रह जायेगी .
अमरउजाला कॉम्पैक्ट में 14/06/12 को प्रकाशित मेरा लेख 

Thursday, June 7, 2012

हिंग्लिश से क्या डरना


ये रीमिक्स का दौर है पर देश किस तरह भाषाई फ्यूजन से विकसित  एक नयी भाषा का गवाह बन रहा है अखबारों ने हिंग्लिश को अपना लिया है और पिछले साल सरकार के राजभाषा विभाग ने एक आदेश जारी कर कहा बदलते माहौल में कामकाजी हिंदी के रूप को भी हर शब्द का अनुवाद करने की बजाय वाक्य या उसके अंश के भाव को हिन्दी भाषा की शैली में लिखें ,अंगरेजी या दूसरी भाषाओं के आम इस्तेमाल में आने वाले शब्दों के कठिन हिन्दी शब्द बनाने की बजाय उन्हीं शब्दों को देवनागरी लिपि में लिख देना चाहिए यह एक तरह की स्वीकारोक्ति ही है कि एक नयी भाषा हमारे सामने उभर ही नहीं रही बल्कि तेजी से विकसित भी हो रही है .यूनिवर्सिटी ऑफ वेल्स के भाषा विज्ञानी डेविड क्रिस्टल ने गणना कर बताया है कि दुनिया में हिंगलिश बोलने वाले जल्दी ही इंग्लिश बोलने वालों की संख्या से ज्यादा हो जायेंगे .ध्यान देने वाली बात ये है कि इस भाषा के विकास के लिए ना तो कोई दिवस मनाया गया और ना ही पखवाडा पर हिंग्लिश तेजी से फल फूल रही है इस भाषाई फ्यूसन के पीछे एक बड़ा कारक तकनीक का हमारे जीवन में हावी होना और देश में सूचना क्रांति का विकास है ना कि जैसा माना  जाता है कि पाश्चात्य संस्कृति का  प्रभाव. हिन्दी वक्त के साथ बदलती रही है और ये बदलाव सीधे सीधे हमारे जीवन में होने वाले बदलाव से जुड़ा रहा है हमारा आज का जीवन ज्यादा तकनीक पर निर्भर कर रहा है तभी तो देखिये प्रीपेड मोबाईल हो या टैक्सीरीचार्जमिस्ड कॉल,इंटरनेट जैसे शब्द हमारे जीवन का हिस्सा बन गए .इंगलिश तकनीकी  शब्दों के बहुत सारे उदाहरण हैंजिन्होंने इस रास्ते को तय किया है इसकी शुरुवात 19वीं शताब्दी से हुई जब तकनीक ने हमारे जीवन में प्रवेश किया और सारी तकनीकी बदलाव  पश्चिम के  देन थे  जैसे टेलीफोनटेलीग्राम,टेलेक्स,भाषाई बदलाव की इस बयार को गति उदारीकरण के पश्चात हुई मीडिया क्रांति के बाद मिली जिसने बहुत से अंगरेजी शब्दों को लोकप्रिय बनाया भाषा मे बदलाव का दौर केबिल टेलीविजन के प्रायोजित कार्यक्रम के साथ शुरू हुआ.भारत के पहले सोप ऑपेरा हमलोग का प्रायोजक नेस्ले इंडिया था जिसने टू मिनट्स नूडल्स को घर घर में पहुंचा दिया जिसकी चरम परिणिति आज के रीयल्टी शो में हो रही है एक उल्लेखनीय तथ्य है यह भी विज्ञापन की अधिकारिक भाषा हिंग्लिश ही है इसीलिये हर एक दोस्त नहीं फ्रैंड जरूरी होता है .एफ एम् क्रांति ने रेडियो को भी हिंग्लिश से जोड़ दिया और प्रस्तुतकर्ता आर जे बन गया. इस चरम बदलाव के दौर में फिल्मों ने एक बड़े उत्प्रेरक का काम किया.पिछले साल आयी कुल हिंदी फिल्मों में से छप्पन के शीर्षक या तो इंग्लिश में थे या हिंग्लिश में 2009 में ये आंकड़ा इकतीस था और साल 2010 में यह चालीस पर पहुंचा और इसके बढ़ने का सिलसिला जारी है और यही गानों में हिंग्लिश का प्रयोग बहुतायत से जारी है एक बानगी आँखें तो कमाल करती हैं पर्सनल से सवाल करती हैं” बंटी और बबली) जरा 'टशनफिल्म का वो गाना याद कीजिए, 'वेरी हैप्पी इन माई हार्टदिल चांस मारे रे' 'तुम्हरे दिल के थिएटर मा दिल दीवाना बुकिंग एडवांस मांगे रेतो आपके सामने सारी तस्वीर साफ हो जाएगी. 'आजकल गाने बोलचाल की भाषा में लिखे जाते हैं.अंग्रेज़ी शब्द स्ट्रेस” (दबाव) और टेंशन” (तनाव) बहुत अच्छी तरह से हिंदी में मिल  चुके  हैं. जैसे टेंशन ना ले बहुत स्ट्रेस है माइंड में हो सकता है कि यह सलाह का एक छोटा सा अंश हो पर इसे हिंगलिश की चर्चा के दौरान दिमाग में रखना ज़रूरी है.भाषा एक बहती नदी है इसे बाँधा नहीं जा सकता और भाषा का विकास ऐसे ही होता आया है . हम कितने शब्द ऐसे बोलते हैं जो मूल रूप से हिंदी के नहीं हैं पर अब वो ऐसे अपना लिए गए हैं कि लगता है की वे हिंदी के ही शब्द हैं और यही तो हिंदी का कमाल है तो फिर क्यों न हिंदी की सफलता का जश्न मनाया जाए. तकनीक और मीडिया  के सहारे ही सही हिंदी ग्लोबल तो हो रही है. बोल चाल कि हिंदी लिखने की हिंदी से अलग है और इसे एक नज़र से देखने कि गलती हमें नहीं करनी चाहिए जिसे आम तौर पर साहित्यकार करते रहते हैं,साहित्यिक हिंदी कभी भी बोलचाल की भाषा नहीं रही और इसी वजह से वो हिंदी को लेकर परेशान दिखते हैं. इससे लोगों को कभी परेशानी नहीं रही पर आज मीडिया के जबर्दस्त फैलाव ने उसकी भाषा को मुख सुख के अनुरूप बना दिया और समस्या यहीं शुरू हुई अंग्रेजी मीडिया जिन स्लैंग्स(मुहावरे ) का प्रयोग करती है वो अंगरेजी साहित्य का हिस्सा नहीं माने जाते पर इसका कोई किस्सा नहीं बना  भाषा और बोलियां समय सापेक्ष होती हैं.बोलियों में परिवर्तन जल्दी होता है ,भाषा में थोडा देर से जनमाध्यमों में खासकर समाचार पत्रों में आजकल लिखने की नहीं बोलने की भाषा लिखी जा रही है और इससे कुछ अवसर भी मिल रहे हैं तो भाषाई र्रोप में चुनौतियाँ भी बड़ी हैं.पतरकारिता को कभी भी साहित्य का हिस्सा नहीं माना गया पर पत्रकारिता में साहित्यकारों का स्वागत जरुर किया जाता रहा जिससे पाठकों के स्टार पर क्लास और मॉस के अंतर को कम किया जा सके.धर्मवीर भारती और अज्ञेय जैसे साहित्यकारों का पत्रकारिता में आना इसी प्रयोग की एक कड़ी भर था हाँ यह बात अलग है कि आजकल ऐसे प्रयोग नहीं किये जा रहे हैं.बाजार अवसर भी लाता है और चुनैतियाँ भी  बात वास्तव में परेशानी कि नहीं है. हिंदी वैश्विक फलक पर पोषित हो रही है और नए आयाम गढ़ रही है. अगर ऐसा न होता तो आखिर फोनेटिक कि विधा क्यों इजाद होती? वेब पर हिंदी में जानकारियां क्यों उपलब्ध कराइ जातीं? आज जब बात होती है कि आखिर हिंदी में अंग्रेजी के शब्द क्यों प्रयोग हो रहे हैं? हो हल्ला जोरों पर है? इससे हिंदी के खत्म होने का डर क्यों सता रहा है? क्या इससे पहले उर्दू, फारसी आदि शब्दों का प्रयोग नहीं होता रहा है? हम यही तो कहते हैं-“ये हमारी किस्मत में नहीं था” क्या इसपर किसी ने ऐतराज किया? नहीं न? गौर से देखिये यहाँ किस्मत शब्द उर्दू ही तो है. क्या इससे हिंदी को कोई नुकसान हुआ? हकीकत में ये नुकसान नहीं उसकी श्रीव्रधि है.हिंदी साहित्य में आज भी अच्छी कहानियां लिखी जा रही हैं. देवेन्द्र को पढ़िए, काशीनाथ भी अभी लिख ही रहे हैं. शिवमूर्ति कि रचनाओं में गाँव जिन्दा है. सारा राय कि कहानियों में गहराई है. ये जो हिन्दी की भाषा को लेकर चिंता  है ये दरअसल अखबारी भाषा को लेकर है. वहां अंग्रेजी के शब्दों की ऐसी चाशनी परोसी जाती है कि साहित्यकारों को उससे चिढ सी होने लगी है और वो हिंदी को लेकर परेशान हो उठे हैं. बात मार्के कि यह है कि अखबार साहित्य का हिस्सा नहीं हैं. ये वो दौर नहीं हैं जब धर्मवीर भारती संपादक हों या मुंशी प्रेमचंद. अखबारों कि भाषा बोल चाल की  हिंदी जैसी हो गयी है. इसमें उर्दू भी है, अंग्रेजी भी और फारसी भी लेकिन इसका मतलब यह मत  समझिए कि लिखने वाला शब्दों के मूल उद्गम के बारे में कुछ भी बता पायेगा आपको. अक्सर हिंदी अख़बारों में विरुद्ध के लिए खिलाफ शब्द का प्रयोग किया जाता है. बात यह कि क्या ये सही है? बिलकुल नहीं क्योंकि खिलाफ शब्द खलिफ से बना है जिसका अर्थ होता है नायब. सही शब्द होना चाहिए मुखालिफ. हालाँकि जो चलन में है चल रहा है...... ऐसा ही है व्याकरण के साथ भी. अंग्ग्रेजी के शब्दों के साथ भी हिंदी का व्याकरण प्रयोग किया जाता है. मसलन ट्रेन्स नहीं ट्रेनों. यह अखरता जरूर है पर बात वही की चलन में क्या है जीवन शैली की तेजी हमारे आस पास बदलाव ला रही है खाने पहनने और बोलने में पर ये बदलाव ज्यों के त्यों नहीं स्वीकारे जा रहे है इसमें परिवेश का असर भी शामिल है कुल मिलाकर ये संक्रमण का दौर है जो जल्दी ही थम जाएगा .
डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट में 07/06/12 को  प्रकशित लेख

Friday, June 1, 2012

दिल पे लगेगी तो बात बनेगी

अच्छा कल नो टोबेको डे था हर साल हम इसे मनाते है आप सोच रहे होंगे इससे क्या फायदा टोबेको खाने वाले और स्मोकिंग करने वालों की संख्या तो कम नहीं हुई लेकिन  सोकर उठने के लिए कुछ लोग अलार्म लगते हैं कुछ को जगाना पड़ता है और कुछ अपने आप उठ जाते हैं,पर किसी सोसायटी में अगर लोगों को बार बार जगाना पड़े तो समझ लीजिए कि मामला गडबड है.सत्यमेव जयते ऐसे ही सोते हुए लोगों को जगाने की कोशिस है.सीरिअल के बहाने ही सही देश की एक बड़ी समस्या कन्या भूर्ण हत्या को चर्चा में ला दिया मकसद इतना है कि बात दिल पे लगेगी तो बात बनेगी पर जहां हर प्रोब्लम  से निबटने का एक ही  तरीका हो कि  दिल पे मत ले यार वहां  दिल है कि मानता नहीं क्या किया जाए मामला तो दिल का ही है जो धडकता है भावनाओं में बहता है पर दिल तो आखिर दिल ही है ना और जब मामला दिल का हो तो फैसले दिमाग से ही  लेना चाहिए फिर क्या बस मेरी कलम चल  पडी  क्योंकि मेरा दिल चाहता है कि दुनिया के सबसे बडी युवाओं की आबादी वाले देश में सब नहीं चलता.किसी समाज की सोच एक दिन में न तो बनती है और ना ही बिगड़ती पर बढ़ती  लैंगिक असमानता से ये साफ़ पता चलता है कि हमारे दिमाग में क्या चल रहा है. वैसे बहुत सी बातें हमें स्कूल कोलेज नहीं सिखाते फिर भी हम सीख जाते हैं जैसे गाली देना,गालियाँ वो भी जेंडर स्पेस्फिक,जेंडर सेंट्रिक  तेरी माँ का साकीनाका हमारा परिवेश हमें बहुत कुछ सिखा देता है.डूड टेंसन लेने का नहीं देने का बात को थोडा आसान करता हूँ.अच्छा एक कल्पना कीजिये महिलाओं के बगैर ये दुनिया ओह  मिस्टेक इतना आगे नहीं सोचते है अपने आस पास का एक्साप्म्ल लेते हैं वो कोलेज की कैंटीन हमारा ऑफिस कैसा दिखेगा?ना रंग होंगे ना भाव.इस मेल डोमीनेंट समाज में आजकल हर चीज सिखाई जा रही है पर क्या कोई हमें ये बताता है कि हमें महिलाओं से किस तरह का व्यवहार करना चाहिए.लड़कियों को देखकर सीटी बजा देना या छेड़ना बताता है कि मानसिक तौर पर हम अपोजिट  सेक्स को कितनी इज्जत दे रहे हैं और ऐसे लोग जब पेरेंट्स बनते हैं तो वो लड़कियां नहीं चाहते फिर वही होता है जो हम सब जानते पहले से थे पर दर्द को आवाज़ सत्यमेव जयते ने दी यानि कन्या भूर्ण हत्या और इसका पढ़े लिखे होने  से कोई सीधा सम्बन्ध भी  नहीं है रिसर्च बताती है कि ऐसी हत्याओं में पढ़े लिखे और संपन्न लोग ज्यादा शामिल हैं.मामला सेंटी होने का है लेकिन  अगर आप सिर्फ सेंटी  हो रहे हैं तो अच्छी बात नहीं है.वक्त कुछ करने का है बात सायकी बदलने की है और ये काम यांगिस्तानियों को ही  करना होगा क्योंकि कल आपका है और एक बेहतर कल के लिए आज से ही शुरुआत हो जानी चाहिए पर ध्यान ये भी रहे कि ये महज  फेसबुक पर कमेन्ट लाईक करने जैसी औपचारिकता बन कर ना रह जाए.ये बात हमारे ज़हन में रहे कि प्रोब्लम कितनी सीरियस है.अगर हमारे घर या आस पास ऐसी कोई घटना होती है तो उसका पुरजोर विरोध कीजिये उसके लिए भी ज्यादा परेशान ना होइए अगर आपको लगता है आपकी बात नहीं सुनी जा रही है तो फेसबुक ट्विटर है ना डाल दीजिए पूरी घटना फिर देखिये क्या होता है .जो बीत गयी वो बात गयी दौर बदल रहा  है अब जिम्मेदारी यांगिस्तानियों की है कल के पेरेंट्स यही है जिनके ऊपर समाज की जिम्मेदारी है और इन्हें जगाने के लिए किसी को नहीं आना पड़ेगा ये जगे भी हैं और जागरूक भी और अगर बात इनके दिल पर लग रही है तो समझ लीजिए बात बननी भी शुरू हो गयी आपको क्या लगता है .
आई नेक्स्ट में 01/06/12 को प्रकाशित 

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