Monday, December 24, 2018

निजता के अधिकार पर न हो विवाद

आप अपने मोबाइल और लैपटॉप में क्या रखते हैं ये जानने का अधिकार पहले केवल आपको था लेकिन अब ये केवल आपका अधिकार नहीं रह गया है.  विगत बीस  दिसंबर को गृह मंत्रालय ने एक आदेश जारी कर दिल्ली पुलिस कमिश्नरसीबीडीटीडीआरआईईडीरॉएनआई जैसी 10 एजेंसियों को देश में चलने वाले सभी कंप्यूटर की निगरानी करने का अधिकार दे दिया है. कई सवाल  आम लोगों के मन में सरकार के उस आदेश के बाद उठ रहे हैंजिसमें उसने देश की सुरक्षा और ख़ुफिया एजेंसियों को सभी के कंप्यूटर में मौजूद डेटा पर नज़र रखनेउसे सिंक्रोनाइज (प्राप्त) और उसकी जांच करने के अधिकार दिए हैं.सरकार के इस आदेश के बाद  काफी विवाद हो रहा है. इस मामले में विपक्षी दलों द्वारा विरोध दर्ज कराने पर राज्यसभा भी स्थगित कर दी गई. सोशल मीडिया पर भी सरकार के इस फ़ैसले का काफी  विरोध हो रहा है. लोगों का मानना है कि यह उनकी निजता के अधिकार में हस्तक्षेप है. तकनीक के जरिए आपराधिक गतिविधियों को अंजाम नहीं दिया जा सकेइसको ध्यान में रखते हुए आज से  करीब सौ साल पहले इंडियन टेलिग्राफ एक्ट बनाया गया था.जिसके मूल में अंग्रेजों की यह धारणा थी कि इस देश पर उनके शासन को किसी तरह की चुनौती न मिले .जिसके  तहत सुरक्षा एजेंसियां उस समय टेलिफोन पर की गई बातचीत को टैप करती थी.संदिग्ध लोगों की बातचीत में अक्सर  सुरक्षा एजेंसियों की  निगरानी होती थी.उसके बाद जब तकनीक ने प्रगति की कंप्यूटर और मोबाईल का चलन बढ़ा और इसके जरिए अपराधिक गतिविधियों  को अंजाम दिया जाने लगातो साल 2000 में भारतीय संसद ने आईटी कानून बनाया. देशहित राजनीतिक व आम चर्चाओं का मुद्दा हमेशा से रहा है. मौजूदा हालात में देशहित अब भावनात्मक मुद्दा भी बन गया है.  और फिलहाल ताज़ा मसला देशहित का  संविधान के मौलिक अधिकार से टकराव का है.  वहीं सरकार का कहना है कि ये अधिकार एजेंसियों को पहले से ही प्राप्त थे. उसने सिर्फ़ इसे दोबारा जारी किया है.इन  अधिकारों के तहत ये जाँच एजेंसियां देश भर में किसी भी व्यक्ति का भी डाटा खंगाल सकती हैं.  चाहे वो आपका लैपटॉप होया मोबाइल या फिर किसी भी प्रकार का इलेक्ट्रॉनिक गैजेट. इससे पहले जाँच एजेंसियां केवल किसी के  फ़ोन कॉल्स और ई-मेल का ब्योरा ही जुटा सकती थीं वो भी गृह मंत्रालय के आदेश के बाद . और यदि कोई भी नागरिक जाँच एजेंसियों को ऐसा करने से रोकता है तो उसे जेल भेजा जा सकता है साथ ही उस पर जुर्माना  भी लगाया जा सकता है. इन दस जाँच एजेंसियों में मुख्य रूप से सीबीआई नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसीइंटेलिजेंस ब्यूरो  और दिल्ली पुलिस शामिल हैं . इस आदेश के बाद से ही देश भर में चर्चाओं का दौर जारी है. विपक्ष का कहना है कि ये पूरी तरह से संविधान में प्रत्येक नागरिक को दिए गए निजता के अधिकार का पूरी तरह से हनन है.  विप्लाश का आरोप है कि सरकार हाल ही में हुए चुनावों में मिली हार के बाद प्रत्येक नागरिक का ब्यौरा अपने फायदे के लिए जुटाना चाहती है. देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस इस आदेश के पुरज़ोर विरोध में है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का कहना है कि मोदी सरकार देश को सर्विलांस देश” बनाना चाहती है. उल्लेखनीय  ये है कि 2009 में तत्कालीन  यूपीए सरकार ने भी इसी  तरह का एक अध्यादेश जारी किया था जिसमें जाँच एजेंसियों के अधिकारों को बढ़ाने की बात की गयी थी. सरकार ने स्पष्ट किया है कि  कि जिन व्यक्तियों से  देश की सुरक्षासमग्रता को खतरा होगा केवल उन्हीं के डाटा को खंगाला जायेगा. निर्दोष नागरिकों को इससे कोई परेशानी नहीं होगी. अब यदि इस आदेश की  सामान्य रूप से सामान्य नागरिक के तौर पर विवेचना की जाये तो एक तरफ जहाँ ये आदेश संविधान में मिले निजता के अधिकार को चुनौती देता प्रतीत होता है वहीँ एक और सवाल यहाँ ये उठता है कि जिनसे देश हित को खतरा है उन्हें सरकार कैसे चिन्हित करेगी?  यदि आम नागरिक के तौर पर सोचा जाये तो सभी के डाटा खंगालने के बाद ही ये पता चल पायेगा कि कौन देशहित के खिलाफ़ कार्य कर रहा है. इस प्रकार सीधे-सीधे तौर पर हर आम नागरिक इसके दायरे में आ ही जाता है.जिससे निजता का अधिकार प्रभावित होता है .वैसेआईटी एक्ट के सेक्शन 69 के तहत अगर कोई भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ग़लत इस्तेमाल करता है और वो राष्ट्र की सुरक्षा के लिए चुनौती है तो अधिकार प्राप्त एजेंसियां कार्रवाई कर सकती है.तथ्य  यह भी है कि आईटी एक्ट के सेक्शन 69 के तहत कौन सी एजेंसियां जांच करेंगीइसके आदेश कब दिए जा सकते हैंये अधिकार केस के आधार पर दिए जाते हैं और इसका फैसला जांच एजेंसियां करती हैं . सरकार ऐसे  अधिकार सामान्य तौर पर नहीं दे सकती है. इस कानून के सेक्शन 69 में इस बात का जिक्र है कि अगर कोई राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए चुनौती पेश कर रहा है और देश की अखंडता के ख़िलाफ़ काम कर रहा है तो सक्षम एजेंसियां उनके कंप्यूटर और डेटा की निगरानी कर सकती हैं.इस कानून के मुताबिक़  निगरानी के अधिकार किन एजेंसियों को दिए जाएंगेयह सरकार तय करेगी.
वहीं सब-सेक्शन दो में अगर कोई अधिकार प्राप्त एजेंसी किसी व्यक्ति  को सुरक्षा से जुड़े किसी मामले में बुलाया जाता  है तो उसे एजेंसियों के साथ  सहयोग करना होगा और सारी जानकारियां उपलब्ध करानी होंगी.इसी कानून में  यह भी स्पष्ट किया गया है कि अगर बुलाया गया व्यक्ति एजेंसियों की मदद नहीं करता है तो वो सजा का अधिकारी होगा. जिसमें सात साल तक की  जेल की सजा का  भी प्रावधान है.
फिलहाल देश में देशहित बनाम मौलिक अधिकारों पर बहस जारी है.  देशहित में कितने मौलिक अधिकार बचे रह जाते हैं या मौलिक अधिकारों में कितना देशहित बचा रह जाता है ये देखने वाली बात होगी. 
दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में 24/12/2018 को प्रकाशित 

Monday, December 10, 2018

इंटरनेट का बढ़ता दुष्प्रभाव

पिछले तकरीबन एक दशक से भारत को किसी और चीज ने उतना नहीं बदलाजितना मोबाइल फोन ने बदल दिया है। संचार ही नहींइससे दोस्ती और रिश्ते तक बदल गए हैं। इतना ही नहींदेश में अब मोबाइल बात करने का माध्यम भर नहीं हैबल्कि यह मनोरंजन और खबरोंसूचनाओं वगैरह के मामले में परंपरागत संचार माध्यमों को टक्कर दे रहा है।डिजिटल इंडिया के बढ़ते कदमों के साथ यह चर्चा भी देश भर में आम है कि स्मार्टफोन व इंटरनेट लोगों को व्यसनी बना रहा है। इंटरनेट ने उम्र का एक चक्र पूरा कर लिया है। इसकी खूबियों और इसकी उपयोगिता की चर्चा तो बहुत हो लीअब इसके दूसरे पहलुओं पर भी ध्यान जाने लगा है। कई देशों के न्यूरो वैज्ञानिक व मनोवैज्ञानिकलोगों पर इंटरनेट और डिजिटल डिवाइस से लंबे समय तक पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन कर रहे हैं। मुख्य रूप से इन शोधों का केंद्र युवा पीढ़ी पर नई तकनीक के संभावित प्रभाव की ओर झुका हुआ हैक्योंकि वे ही इस तकनीक के पहले और सबसे बड़े उपभोक्ता बन रहे हैं। कहा जाता है कि मानव सभ्यता शायद पहली बार एक ऐसे नशे से सामना कर रही हैजो न खाया जा सकता हैन पिया जा सकता हैऔर न ही सूंघा जा सकता है। चीन के शंघाई मेंटल हेल्थ सेंटर के एक अध्ययन के मुताबिकइंटरनेट की लत शराब और कोकीन की लत से होने वाले स्नायविक बदलाव पैदा कर सकती है। वी आर सोशल की डिजिटल सोशल ऐंड मोबाइल 2015 रिपोर्ट के मुताबिकभारत में इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं के आंकड़े काफी कुछ कहते हैं। इसके अनुसारएक भारतीय औसतन पांच घंटे चार मिनट कंप्यूटर या टैबलेट पर इंटरनेट का इस्तेमाल करता है। इंटरनेट पर एक घंटा 58मिनटसोशल मीडिया पर दो घंटे 31 मिनट के अलावा इनके मोबाइल इंटरनेट के इस्तेमाल की औसत दैनिक अवधि है दो घंटे 24मिनट। इसी का नतीजा हैं तरह-तरह की नई मानसिक समस्याएं- जैसे फोमोयानी फियर ऑफ मिसिंग आउटसोशल मीडिया पर अकेले हो जाने का डर। इसी तरह फैडयानी फेसबुक एडिक्शन डिसऑर्डर। इसमें एक शख्स लगातार अपनी तस्वीरें पोस्ट करता है और दोस्तों की पोस्ट का इंतजार करता रहता है। एक अन्य रोग में रोगी पांच घंटे से ज्यादा वक्त सेल्फी लेने में ही नष्ट कर देता हैदेश में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों की संख्या इस साल जून तक 50 करोड़ पार कर गयी है इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया तथा केंटार आईएमआरबी द्वारा संयुक्त रूप से तैयार इस रिपोर्ट में कहा गया है कि इंटरनेट उपभोक्ताओं   की संख्या वार्षिक  आधार पर 11.34 प्रतिशतसे  बढ़कर दिसंबर 2017 में अनुमानित 48.1 करोड़ हो गईभारत में इंटरनेट-2017 शीर्षक से प्रकाशित इस रिपोर्ट के अनुसार  देश में कुल इंटरनेट घनत्व दिसंबर 2017 के अंत में जनसंख्या का पैंतीस  प्रतिशत रहां |
लोगों में डिजिटल तकनीक के प्रयोग करने की वजह बदल रही है। शहर फैल रहे हैं और इंसान पाने में सिमट रहा है।नतीजतनहमेशा लोगों से जुड़े रहने की चाह उसे साइबर जंगल की एक ऐसी दुनिया में ले जाती हैजहां भटकने का खतरा लगातार बना रहता है। भारत जैसे देश में समस्या यह है कि यहां तकनीक पहले आ रही हैऔर उनके प्रयोग के मानक बाद में गढ़े जा रहे हैं। कैस्परस्की लैब द्वारा इस वर्ष किए गए एक शोध में पाया गया है कि करीब 73 फीसदी युवा डिजिटल लत के शिकार हैंजो किसी न किसी इंटरनेट प्लेटफॉर्म से अपने आप को जोड़े रहते हैं। वर्चुअल दुनिया में खोए रहने वाले के लिए सब कुछ लाइक्स व कमेंट से तय होता है। वास्तविक जिंदगी की असली समस्याओं से वे भागना चाहते हैं और इस चक्कर में वे इंटरनेट पर ज्यादा समय बिताने लगते हैंजिसमें चैटिंग और ऑनलाइन गेम खेलना शामिल हैं। और जब उन्हें इंटरनेट नहीं मिलतातो उन्हें बेचैनी होती और स्वभाव में आक्रामकता आ जाती है। साल 2011 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ कोलंबिया द्वारा किए गए रिसर्च में यह निष्कर्ष निकाला गया था की युवा पीढ़ी किसी भी सूचना को याद करने का तरीका बदल रही हैक्योंकि वह आसानी से इंटरनेट पर उपलब्ध है। वे कुछ ही तथ्यों को याद रखते हैंबाकी के लिए इंटरनेट का सहारा लेते हैं। इसे गूगल इफेक्ट या गूगल-प्रभाव कहा जाता है।
इसी दिशा में कैस्परस्की लैब ने साल 2015 में डिजिटल डिवाइस और इंटरनेट से सभी पीढ़ियों पर पड़ने वाले प्रभाव के ऊपर शोध किया है। कैस्परस्की लैब ने ऐसे छह हजार लोगों की गणना कीजिनकी उम्र 16-55 साल तक थी। यह शोध कई देशों में जिसमें ब्रिटेनफ्रांसजर्मनीइटलीस्पेन आदि देशों के 1,000 लोगों पर फरवरी 2015 में ऑनलाइन किया गया। शोध में यह पता चला की गूगल-प्रभाव केवल ऑनलाइन तथ्यों तक सीमित न रहकर उससे कई गुना आगे हमारी महत्वपूर्ण व्यक्तिगत सूचनाओं को याद रखने के तरीके तक पहुंच गया है। शोध बताता है कि इंटरनेट हमें भुलक्कड़ बना रहा हैज्यादातर युवा उपभोक्ताओं के लिएजो कि कनेक्टेड डिवाइसों का प्रयोग करते हैंइंटरनेट न केवल ज्ञान का प्राथमिक स्रोत है,बल्कि उनकी व्यक्तिगत जानकारियों को सुरक्षित करने का भी मुख्य स्रोत बन चुका है। इसे कैस्परस्की लैब ने डिजिटल एम्नेशिया का नाम दिया है। यानी अपनी जरूरत की सभी जानकारियों को भूलने की क्षमता के कारण किसी का डिजिटल डिवाइसों पर ज्यादा भरोसा करना कि वह आपके लिए सभी जानकारियों को एकत्रित कर सुरक्षित कर लेगा। 16 से 34 की उम्र वाले व्यक्तियों में से लगभग 70 प्रतिशत लोगों ने माना कि अपनी सारी जरूरत की जानकारी को याद रखने के लिए वे अपने स्मार्टफोन का उपयोग करते है। इस शोध के निष्कर्ष से यह भी पता चला कि अधिकांश डिजिटल उपभोक्ता अपने महत्वपूर्ण कांटेक्ट नंबर याद नहीं रख पाते हैं।
एक यह तथ्य भी सामने आया कि डिजिटल एम्नेशिया लगभग सभी उम्र के लोगों में फैला है और ये महिलाओं और पुरुषों में समान रूप से पाया जाता है। ज्यादा प्रयोग के कारण डिजिटल डिवाइस से हमारा एक मानवीय रिश्ता सा बन गया हैपर तकनीक पर अधिक निर्भरता हमें मानसिक रूप से पंगु भी बना सकती है। यही इंटरनेट एडिक्शन बहुत से लोगों की मौत का कारण भी बना जब ब्लू व्हेल जैसे खतरनाक ओनलाईन खेल खेलते हुए लोगों ने अपनी जाने दीं |
 इसलिए इंटरनेट का इस्तेमाल जरूरत के वक्त ही किया जाए।इससे निपटने का एक तरीका यह है कि चीन से सबक लेते हुए भारत में डिजिटल डीटॉक्स यानी नशामुक्ति केंद्र खोले जाएं और इस विषय पर ज्यादा से ज्यादा जागरूकता फैलाई जाए।
दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 10/12/18 को प्रकाशित 

Thursday, December 6, 2018

ग्लोबल वार्मिंग :अनुमान से बड़ा खतरा

ग्लोबल वार्मिंग या वैश्विक तापमान बढ़ने का मतलब है कि पृथ्वी लगातार गर्म होती जा रही हैवैज्ञनिकों  का कहना है कि आने वाले दिनों में सूखा बढ़ेगाबाढ़ की घटनाएँ बढ़ेंगी और मौसम का मिज़ाज बुरी तरह बिगड़ा हुआ दिखेगा.इसका असर दिखने भी लगा हैग्लेशियर भी पिघल रहे हैं और रेगिस्तान पसरते जा रहे हैंकहीं असामान्य बारिश हो रही है तो कहीं असमय ओले पड़ रहे हैं.हाल ही में आई लेंसेट काउंट डाउन रिपोर्ट 2018 के अनुसार खतरा जितना अनुमान लगाया गया था उससे ज्यादा बड़ा है ,ग्लोबल वार्मिंग रोकने में जितने कारगर कदम उठाये जाने चाहिए थे वे नहीं उठाये गए जिससे मानवीय जीवन  और देशों के स्वास्थ्य तंत्र दोनों को खतरा है .इस रिपोर्ट में दुनिया के पांच सौ शहरों में किये गए सर्वे के बाद यह निष्कर्ष निकाला गया कि उनका सार्वजनिक स्वास्थ्य आधारभूत ढांचा जलवायु परिवर्तन से बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है जो यह बताता है कि रोगियों की संख्या जिस तेजी से बढ़ रही है उस तेजी से रोगों से निपटने के लिए  दुनिया के अस्पताल  तैयार नहीं है .इसमें विकसित और विकासशील दोनों देश शामिल हैं .बीती गर्मियों में चली गर्म हवाओं ने सिर्फ इंग्लैंड में ही सैकड़ों लोगों को अकाल मौत का शिकार बना डाला .कारण सीधा है इंग्लैंड के अस्पताल अचानक जलवायु में हुए इस परिवर्तन के कारण बीमार पड़े लोगों से निपटने के लिए तैयार नहीं थे .इस रिपोर्ट के अनुसार साल 2017 में अत्यधिक गर्मी के कारण एक सौ तिरपन बिलियन घंटों का नुक्सान सारी दुनिया के खेती में लगे लोगों को उठाना पड़ा .सारी दुनिया में हुए कुल नुक्सान का आधा हिस्सा अकेले भारत ने उठाया जो कि भारत की कुल कार्यशील जनसँख्या का सात प्रतिशत है जबकि चीन को 1.4 प्रतिशत का ही नुक्सान हुआ.कुल मिलाकर इन सबका परिणाम राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं और लोगों के घरेलु बजट पर पड़ा .उसी तरह तापमान और वर्षा में हल्का सा परिवर्तन पानी और मच्छरों द्वारा फैलने वाले रोगों की वृद्धि के रूप में सामने आया .दुनिया भर में हो रहे इस जलवायु परिवर्तन का कारण वैज्ञानिक के अनुसार  ग्रीन हाउस गैसों के कारण हैजिन्हें सीएफसी या क्लोरो फ्लोरो कार्बन भी कहते हैं.इनमें कार्बन डाई ऑक्साइड हैमीथेन हैनाइट्रस ऑक्साइड है और वाष्प है.वैज्ञानिकों का कहना है कि ये गैसें वातावरण में बढ़ती जा रही हैं और इससे ओज़ोन परत की छेद का दायरा बढ़ता ही जा रहा है.ओज़ोन की परत ही सूरज और पृथ्वी के बीच एक कवच की तरह है.ग्लोबल वार्मिंग मनुष्यों की गतिविधियों के परिणाम के रुप में समय की एक अपेक्षाकृत कम अवधि में पृथ्वी की जलवायु के तापमान में एक उल्लेखनीय वृद्धि हुई है. विशिष्ट शब्दों में सौ या दौ सौ साल में1 सेल्सियस या अधिक की व्रद्धि को ग्लोबल वार्मिंग की श्रेणी में रखा जाता हैऔर पिछ्ले सौ साल में  यह 0.4 सेल्सियस बढ चुका है जो की बहुत महत्वपूर्ण  है.ग्लोबल वार्मिंग को समझने के लिए मौसम और जलवायु के अंतर को समझना बहुत जरूरी है .मौसम स्थानीय और अल्पकालिक होता हैमान लीजिये की आप हिमाचल में है और वहां बर्फ़ गिर रही है तो उस मौसम और बर्फ़ का असर सिर्फ़ हिमाचल  और उसके आसपास के इलाकों में ही रहेगा सिर्फ़ उन इलाको में ही ठंड बढेगी जो हिमाचल के आस पास होंगे । जलवायु की अवधि लम्बी होती है और ये एक छोटे से स्थान से संबंधित नही है। एक क्षेत्र की जलवायु समय की एक लंबी अवधि में एक क्षेत्र के औसत मौसम की स्थिति है।अब धरती के लिए चिंता करने की बात यह है कि धरती की जलवायु में परिवर्तन आ रहा है . जानना ज़रुरी है की जब हम लम्बी अवधि की जलवायु की बात करते है तो उसका मतलब होता है बहुत लम्बी अवधियहां तक की कई सौ साल भी बहुत कम अवधि है जलवायु में आने के लिये। वास्तव मेंजलवायु में परिवर्तन होते-होते कभी-कभी दसियों से हज़ारों वर्ष लग जाते है। इसका मतलब है की अगर एक सर्दी में बर्फ़ नही गिरी और ठंड नही पडीं---और एक साथ दो-तीन सर्दियों में ऐसा हो जाये----तो इससे जलवायु में परिवर्तन नहीं होता है.
ग्लोबल वार्मिंग ग्रीनहाउस प्रभाव में वृद्धि के कारण होता है। वैसे ग्रीनहाउस प्रभाव कोई बुरी चीज़ नही है अपने-आप में---ये पृथ्वी को जीवन के लायक बनाये रखने के लिये गर्म रखता है. मान लीजिये पृथ्वी आपकी कार की तरह है जो दोपहर के वक्त धूप  में पार्किंग में खडी है। आपने गौर किया होगा की जब आप कार में बैठते है तो कार का तापमान बाहर के तापमान से ज़्यादा गर्म होता है थोडे वक्त तक। जब सूर्य  की किरणें आपकी कार की खिडकियों से अन्दर प्रवेश करती है तो सूर्य  की कुछ गर्मी कार की सीट्सकारपेटसडेशबोर्ड और फ़्लोर मेटस सोख लेते हैजब ये सब चीज़े उस सोखी हुई गर्मी को वापस बाहर फ़ेंकते है तो सारी गर्मी खिडकियों से बाहर नही जाती कुछ वापस आ जाती है। सीटों से निकली गर्मी का तरंगदैधर्य (Wavelength) उन सूर्य की किरणों के तरंगदैधर्य (Wavelength) से अलग होता है जो पहली बार कार की खिडकी से अन्दर आयीं थीतो अन्दर ज़्यादा ऊर्जा आ रही है और ऊर्जा बाहर कम जा रही है। इसके परिणाम में आपकी कार के तापमान में एक क्रमिक वृद्धि हुई। आपकी गर्म कार के मुकाबले ग्रीनहाउस प्रभाव थोडा जटिल हैजब सूर्य की किरणें पृथ्वी के वातावरण और सतह से टकराती है तो सत्तर  प्रतिशत ऊर्जा पृथ्वी पर ही रह जाती है जिसको धरतीसमुद्र पेड तथा अन्य चीज़े सोख लेती है। बाकी का तीस प्रतिशत अंतरिक्ष में बादलोंबर्फ़ के मैदानोंतथा अन्य रिफ़लेक्टिव चीज़ो की वजह से रिफ़लेक्ट हो जाता है .परन्तु जो सत्तर प्रतिशत ऊर्जा पृथ्वी पर रह जाती वो हमेशा नही रहती (वर्ना अब तक पृथ्वी आग का गोला बन चुकी होती)। पृथ्वी के महासागर और धरती अकसर उस गर्मी को बाहर फ़ेंकते रहते है जिसमें से कुछ गर्मी अंतरिक्ष में चली जाती है बाकी यहीं वातावरण में दूसरी चीज़ों द्वारा सोखने के बाद समाप्त हो जाती है जैसे कार्बन डाई-आक्साइडमेथेन गैसऔर पानी की भाप। इन सब चीज़ों के ऊर्जा को सोखने के बाद बाकी ऊर्ज़ा गर्मी के रूप में हमारी पृथ्वी पर मौजुद रहती है. बाहर के वातावरण के मुकाबले जितनी ऊर्जा वातावरण में प्रवेश कर रही है उतनी बाहर नही जा रही है जिसके परिणाम में पृथ्वी गर्म रह्ती है।ग्लोबल वार्मिंग में कमी के लिए मुख्य रुप से सीएफसी गैसों का ऊत्सर्जन कम रोकना होगा और इसके लिए फ्रिज़एयर कंडीशनर और दूसरे कूलिंग मशीनों का इस्तेमाल कम करना होगा या ऐसी मशीनों का उपयोग करना होगा जिनसे सीएफसी गैसें कम निकलती हैं.औद्योगिक इकाइयों की चिमनियों से निकले वाला धुँआ हानिकारक हैं और इनसे निकलने वाला कार्बन डाई ऑक्साइड गर्मी बढ़ाता हैइन इकाइयों में प्रदूषण रोकने के उपाय करने होंगे.वाहनों में से निकलने वाले धुँए का प्रभाव कम करने के लिए पर्यावरण मानकों का सख़्ती से पालन करना होगा.उद्योगों और ख़ासकर रासायनिक इकाइयों से निकलने वाले कचरे को फिर से उपयोग में लाने लायक बनाने की कोशिश करनी होगी.और प्राथमिकता के आधार पर पेड़ों की कटाई रोकनी होगी और जंगलों के संरक्षण पर बल देना होगा.अक्षय ऊर्जा के उपायों पर ध्यान देना होगा यानी अगर कोयले से बनने वाली बिजली के बदले पवन ऊर्जासौर ऊर्जा और पनबिजली पर ध्यान दिया जाए तो आबोहवा को गर्म करने वाली गैसों पर नियंत्रण पाया जा सकता है.याद रहे कि जो कुछ हो रहा है या हो चुका है वैज्ञानिकों के अनुसार उसके लिए मानवीय गतिविधियाँ ही दोषी हैं.
दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में 06/12/2018 को प्रकाशित लेख 

टेंशन बहुत है यार !

टेंशन बहुत है यार आपने भी ये जुमला सुना होगा और तनाव  को महसूस भी किया होगा.तनाव  यूँ तो स्वास्थ्य के लिए अच्छी बात नहीं है, पर अगर जिंदगी में आगे बढ़ना हो तो थोडा  तनाव  तो लेना ही पड़ेगा.टेंशन हम सब की जिन्दगी का हिस्सा है कुछ कम या ज्यादा.हम अपने जीवन से तनाव  को हमेशा के लिए खत्म  तो नहीं कर सकते हैं, पर इसको कम जरुर कर सकते हैं. तनाव  का मतलब चिंता,अब जिंदगी है तो चिंताएं भी होंगी. यूँ कहें की ‘थोडा है थोड़े की जरुरत है’.इस प्रतिस्पर्धा वाले युग में अब मस्त होकर जीवन तो गुजारा नहीं जा सकता हैं .मैं आपको समझाता हूँ. अब अगर पढ़ाई का तनाव  नहीं लेंगे तो परीक्षा वाले दिन और ज्यादा तनाव  होगा कि काश रोज थोड़ी पढ़ाई करते तो परीक्षा वाली रात कयामत की रात न होती यानि रोज पढ़ कर हम परीक्षा के तनाव  को खत्म तो नहीं कर सकते पर कम जरुर कर सकते हैं.अब देखिये आजकल कंप्यूटर का ज़माना है पर इसकी हार्ड डिस्क कब क्रैश  हो जाए क्या पता ? अगर हम अपने सारे डाटा का बैकअप रखेंगे तो हार्ड डिस्क क्रैश भी होगी तो तनाव  कम होगा.
वैसे हमारी प्रगति में इस तनाव की बड़ी भूमिका है.आपने गौर किया होगा कि जब काम हमारे हिसाब से नहीं होता तब हमें तनाव  होता है और तब हम चीजें बेहतर करने की कोशिश करते हैं. जो लोग तनाव  से हार मानकर हथियार डाल देते हैं. वो जीवन में कुछ ख़ास नहीं कर पाते और जो तनाव  से लड़ते हैं. वो बड़े लीडर या आविष्कारक बन जाते हैं.जिन्हें दुनिया पहचानती है.न्यूटन ने जब सेब को जमीन पर गिरते देखा तो ये सोचा कि ये जमीन पर क्यों गिरा ये ऊपर आसमान में क्यूँ नहीं गया और इस तनाव में उन्होंने धरती का गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत खोज निकाला.
तो हम अगर आज आगे बढ़ रहे हैं तो मेहनत के अलावा तनाव भी इसके लिए जिम्मेदार है जो आपको बगैर काम खत्म हुए चैन से बैठने नहीं देता.क्या समझे ये तनाव  का पॉजिटिव इफेक्ट है पर अगर आप सिर्फ तनाव  ले रहे हैं और काम नहीं कर रहे हैं तो समझ लीजिये आप मुश्किल में  हैं.काम का ज़िक्र करना और ज़िक्र का फ़िक्र करना अपने आप में एक समस्या है और ऐसे ही लोग अक्सर ये बोलते सुने जाते हैं बड़ी टेंशन है यार,तनाव  सभी को है पर उसका जिक्र सबसे करके क्या फायदा तो तनाव  के टशन का दूसरा सबक है अगर तनाव आपको बहुत ज्यादा है तो उसका जिक्र उन लोगों से कीजिये जो आपके अपने हैं और ऐसे ही लोग आपको तनाव  से निकाल पायेंगे पर ध्यान रहे आपको उन पर भरोसा करना पड़ेगा.
तनाव  एक स्टेट आफ माईंड है पर जिसे आप मैनेज कर सकते हैं,जब आप किसी मसले पर ज्यादा देर तक चिंता के साथ सोचते हैं तो वो तनाव  हो जाता है. इसे जरुरत से ज्यादा मत बढ़ने दीजिये और समय रहते इसका मैनेजमेंट कीजिये.तनाव  को मैनेज करने का हर इंसान का अपना एक अलग तरीका होता है.कोई गाने सुनता है तो कोई लॉन्ग ड्राइव पर निकल जाता है. तो आपको जब लगे कि तनाव ज्यादा ज्यादा बढ़ रहा है तो वो काम करें जो आपको पसंद हो फिर देखिये कि कैसे आपका सारा तनाव  छू मंतर हो जाएगा.जैसे खाने में स्वाद बढाने के लिए मसलों का इस्तेमाल होता है वैसे ही जिन्दगी का असली मजा तो तभी है जब उसमें थोडा बहुत मसाला हो. 
प्रभात खबर में 06/12/2018 को प्रकाशित 

Tuesday, November 27, 2018

शिक्षा के स्वरुप में हों वांछित बदलाव

शिक्षा एक ऐसा पैमाना है जिससे कहीं हुए विकास को समझा जा सकता है ,शिक्षा जहाँ जागरूकता लाती है वहीं मानव संसाधन को भी विकसित करती है |निःशुल्क एवं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हर बच्चे का अधिकार है। इसी को ध्यान में रखते हुए विश्व के सभी शीर्ष नेताओं ने इसे सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों का एक हिस्सा बनाया  गया है |दुनिया भर में शिक्षा से जुड़े एक ताजा सर्वे में भारत के बच्चों् को लेकर एक महत्वपूर्ण जानकारी सामने आई है। इस सर्वे में बताया गया है कि भारत के बच्चे दुनिया में सबसे ज्यादा ट्यूशन पढ़ते हैं। विशेषकर गणित के लिए। सर्वे के आंकड़ों के अनुसार  देश में चौहत्तर प्रतिशत   बच्चे ट्यूशन पढ़ते हैं। किसी भी देश का भविष्य उसके बच्चों के हाथ में होता है और बच्चों का भविष्य उनके शिक्षकों के हाथ में। इसका सीधा-सीधा मतलब यह है की देश का भविष्य शिक्षकों के हाथ में होता है। पर देश के भविष्य के ये कर्णधार आजकल कक्षाओं से अदृश्य होते जा रहे हैं। हाल ही में बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक मध्य प्रदेश के एक विद्यालय की एक अध्यापिका पिछले तेईस वर्षों से अनुपस्थित चल रही हैं। हालांकि यह  एकाकी घटना हो सकती है जिसे हर शिक्षक के संदर्भ में सही नहीं ठहराया जा सकता है। पर यह भी एक कटु सत्य है कि कक्षाओं से शिक्षकों की अनुपस्थिति भारत में एक चिरकालिक समस्या है। शिक्षकों की कक्षाओं से अनुपस्थिति शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के सबसे निंदनीय स्वरूपों में से एक है। वैसे तो कक्षाओं से शिक्षकों की अनुपस्थिति के कई कारण हैं जिनमें से कुछ वास्तविक भी हैं परंतु इसका सबसे बड़ा कारण है शिक्षकों का सरकारी वेतन  लेते हुए भी दूसरे कार्यों जैसे निजी कोचिंग चलाने में व्यस्त रहना। शिक्षकों की अनुपस्थिति का एक और प्रमुख कारण है उनको अन्य सरकारी कार्यों जैसे चुनावों में लगा देना। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार विकासशील देशों में अनुपस्थित रहने वाले शिक्षकों का प्रतिशत 11 से 30 के बीच में है।कार्तिक मुरलीधरन कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय सेन डीयोगे, के शोध के मुताबिक  शिक्षकों की अनुपस्थिति से भारत को प्रतिवर्ष लगभग 1.5 बिलियन डॉलर का नुकसान उठाना पड़ता है। इसी शोध में एक तथ्य और भी सामने आया है कि देश में स्कूॉल जाने वाले बहत्तर प्रतिशत  बच्चेक एक्ट्रारत   करिकुलर एक्टिविटीज में भाग लेना पसंद करते हैं। 
निजी ट्यूशन के मामले में अमीरों व गरीबों के बीच कोई खास अंतर नहीं है. हर तबके के लोग अपनी-अपनी हैसियत के मुताबिक अपने बच्चों को निजी ट्यूशन के लिए भेजते हैं. स्कूलों में पढ़ाई का स्तर ठीक नहीं है. वहां छात्रों के मुकाबले शिक्षकों की तादद कम होने की वजह से उनके लिए हर छात्र पर समुचित ध्यान देना संभव नहीं होता. ऐसे में बेहतर नतीजों और आगे बेहतर संस्थानों में दाखिले के लिए निजी ट्यूशन छात्र जीवन का एक अहम हिस्सा बन गए हैं.एक तथ्य यह भी है कि वास्तव में यह  एक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समस्या है. आजकल हर माता पिता  अपने बच्चे को डॉक्टर या इंजीनियर बनाना चाहता है. बहुत से सरकारी सरकारी स्कूलों में एक कक्षा में सौ से ज्यादा छात्र होते हैं. ऐसे में किसी शिक्षक के पास सभी छात्रों पर पर्याप्त ध्यान देने का मौका ही नहीं मिल पाता. निजी स्कूलों में स्थिति जरुर कुछ बेहतर जरूर है. लेकिन वहां भी किसी शिक्षक के लिए हर छात्र पर पूरी तरह ध्यान देना संभव नहीं है क्योंकि भारत में शिक्षा एक व्यवसाय का रूप ले चुकी है जहाँ कभी मंदी नहीं आती है |इधर छात्रों की तादाद लगातार बढ़ रही है और उस अनुपात में बेहतर स्कूल कॉलेजों  में सीटों की संख्या नहीं बढ़ रही. इस प्रतिद्वंद्विता ने भी निजी ट्यूशन को बढ़ावा दिया है. भारत में शिक्षा की स्थिति पर एनएसएसओ ने एक सर्वे वर्ष 2014 में छाहठ  हजार घरों में किया गया था इस सर्वे के अनुसार निजी ट्यूशन या कोचिंग का सहारा लेने वालों में 4.1 करोड़ छात्र हैं और तीन करोड़ छात्राएं। रिपोर्ट के मुताबिक, परिवार की कुल आय का 11 से 12 प्रतिशत  निजी ट्यूशन पर खर्च होता है। कुछ मामलों में यह आंकड़ा परिवार की पच्चीस प्रतिशत आमदनी तक होता है |दुनिया भर में प्राइवेट ट्यूशन उद्योग बहुत तेज़ी से अपने पैर पसार रहा है. एक अनुमान के मुताबिक 2022 तक यह 227 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा.भारत में लोगों की बढ़ती आमदनी ने  ऑनलाइन ट्यूशन को  आगे बढ़ाया है. कंपनियां इंटरनेट के जरिये छात्रों को अध्यापकों से जोड़ रही हैं.उदारीकरण  ने बहुत तेजी से देश में एक नए मध्य वर्ग का निर्माण किया है |जहाँ पति पत्नी दोनों कमाते हैं और दोनों के पास बच्चों को पढ़ाने का समय नहीं है |संयुक्त परिवार वैसे भी शहरों में इतिहास हो रहे हैं जहाँ घर के बुजुर्ग बच्चों की पढ़ाने लिखाने में मदद कर दिया करते थे |नई पीढी के बच्चों को इंटरनेट ने समाज से काट दिया है और वे हर मर्ज का इलाज इंटरनेट में ढूंढते हैं |ऐसे में ऑनलाईन ट्यूशन देने वाली कम्पनियों की बाढ़ भी आ गयी है |इस गला कार्ट प्रतिस्पर्धा वाले युग में हर माता –पिता अपने बच्चों की शिक्षा से किसी भी हालत में समझौता कर पाने की स्थिति में नहीं है |अच्छे स्कूल कॉलेज कम हैं ,जो हैं भी वहां बहुत भीड़ है |रोजगार का भारी संकट है |सभी माता –पिता अपने बच्चे को डॉक्टर इंजीनियर ही बनाना चाहते हैं|सब मिलाकर ये सारी स्थिति  ट्यूशन  के बाजार के लिए एक आदर्श माहौल देती है | इसलिए पहले अभिभावकों  की सोच में बदलाव जरूरी है. उनको तय करना होगा कि आखिर बच्चों को शिक्षा देने  का मकसद क्या है और वे जीवन में आगे चल कर क्या हासिल करना चाहते हैं.
दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में 27/11/2018को प्रकाशित 

Friday, November 23, 2018

चुनाव प्रचार में 'जंग' का मैदान

हाल ही में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की एक फर्जी तस्वीर को सोशल मीडिया पर खूब  शेयर किया गया  जिसमें वो मांस  खाते नजर आ रहे थे .देखते देखते ये फेक न्यूज वाइरल हो गयी .देश के चार राज्यों में विधानसभा चुनाव में मतदान हो रहे  है.ये विधानसभा चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इनके तुरंत बाद लोकसभा चुनाव की बारी आ जायेगी ,और इसी के साथ फेक न्यूज का दौर सोशल मीडिया भी जोर शोर से चल पड़ा है .पहले चुनाव ज़मीन पर  लादे जाते थे पर अब सोशल मीडिया भी जंग का मैदान बन चुका है जहाँ किसी भी तरह मतदाताओं को लुभाने की कोशिश की जा रही है .ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने पोस्ट ट्रुथ’ शब्द को वर्ष 2016 का वर्ड ऑफ द इयरघोषित किया था । उपरोक्त शब्द को एक विशेषण के तौर पर परिभाषित किया गया हैजहां निजी मान्यताओं और भावनाओं के बजाय जनमत निर्माण में निष्पक्ष तथ्यों को कम महत्व दिया जाता है।यहीं से शुरू होता है फेक न्यूज का सिलसिला .फेक न्यूज ज्यादातर भ्रमित करने वाली सूचनाएं होती हैं। अक्सर झूठे संदर्भ या गलत संबंधों को आधार बनाकर ऐसी सूचनाएं फैलाई जाती हैं। जून 2016 में देश 20 करोड़ जीबी डाटा इस्तेमाल कर रहा था। यह आंकड़ा मार्च 2017 में बढ़कर 130 करोड़ जीबी हो गया जो लगातार बढ़ रहा है।इंटरनेट ऐंड मोबाइल असोसिएशन ऑफ इंडिया और कंटार-आईएमआरबी की रिपोर्ट के अनुसार बीते जून तक देश में इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं की संख्या पांच करोड़ हो चुकी थीजबकि दिसंबर 2017 में इनकी संख्या 4.8 करोड़ थी। इस तरह छह महीने में 11.34 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इंटरनेट उपभोक्ताओं में इतनी वृद्धि साफ इशारा करती है कि इंटरनेट के ये प्रथम उपभोक्ता सूचनाओं के लिए सोशल मीडियावॉट्सऐप और फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर निर्भर हैं। समस्या यहीं से शुरू होती है। भारत में लगभग बीस करोड़ लोग वॉट्सऐप का प्रयोग करते हैं जिसमें कई संदेशफोटो और विडियो फेक होते हैं। पर जागरूकता के अभाव में देखते ही देखते ये वायरल हो जाते हैं। एंड टु एंड एनक्रिप्शन के कारण वॉट्सऐप पर कोई तस्वीर सबसे पहले किसने डालीयह पता करना लगभग असंभव है। उम्र के लिहाज से देखा जाए तो इन्टरनेट अब प्रौढ़ हो चला है पर भारतीय परिवेश के लिहाज से इन्टरनेट एक युवा माध्यम है जिसे यहाँ आये अभी बाईस  साल ही हुए हैं इसी परिप्रेक्ष्य में अगर सोशल नेटवर्किंग को जोड़ दिया जाए तो ये तो अभी बाल्यवस्था में ही है .पिछले दिनों देश में घटी मॉब लिंचिंग की कई घटनाओं के पीछे इसी फेक न्यूज का हाथ रहा है। केरल में आई बाढ़ के वक्त कई समाचार चैनलों ने पानी से भरे एक विदेशी एयरपोर्ट के विडियो को कोच्चि एयरपोर्ट बता कर चला दिया। फेक न्यूज के चक्र को समझने के लिए मिसइनफॉर्मेशन और डिसइनफॉर्मेशन में अंतर समझना जरूरी है।
मिसइनफॉर्मेशन का मतलब ऐसी सूचनाओं से है जो असत्य हैं पर जो इसे फैला रहा है वह यह मानता है कि यह सूचना सही है। वहीं डिसइनफॉर्मेशन का मतलब ऐसी सूचना से है जो असत्य है और इसे फैलाने वाला भी यह जानता है कि अमुक सूचना गलत हैफिर भी वह फैला रहा है। भारत डिसइनफॉर्मेशन और मिसइनफॉर्मेशन के बीच फंसा हुआ है। जियो क्रांति के बाद सस्ते फोन और इंटरनेट ने उन करोड़ों भारतीयों के हाथ में सूचना तकनीक पहुंचा दी है जो ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं। वे इंटरनेट पर मिली हर चीज को सच मान बैठते हैं और उस मिसइनफॉर्मेशन के अभियान का हिस्सा बन जाते हैं। दूसरी ओर विभिन्न राजनीतिक पार्टियों की साइबर आर्मी और ट्रोलर्स कई सारी ऐसी डिसइनफॉर्मेशन को यह जानते हुए फैलाते है कि वे गलत हैं या संदर्भ से कटी हुई हैं। इन सबके पीछे कुछ खास मकसद होता है। जैसे हिट्स पानाकिसी का मजाक उड़ानाकिसी व्यक्ति या संस्था पर कीचड़ उछालनासाझेदारीआर्थिक लाभ कमानाराजनीतिक फायदा उठानाया दुष्प्रचार।
चुनाव के मौसम में इस तरह की फेक न्यूज फैला कर राजनैतिक दल अपने विरोधी की छवि को खराब करने की कोशिश करते हैं जिससे वोटों की फसल काटी जा सके .फेक तस्वीरों  को पहचानने में गूगल ने गूगल इमेज सेवा शुरू की हैजहां आप कोई भी फोटो अपलोड करके यह पता कर सकते हैं कि कोई फोटो इंटरनेट पर यदि हैतो वह सबसे पहले कब अपलोड की गई है। एमनेस्टी इंटरनैशनल ने विडियो में छेड़छाड़ और उसका अपलोड इतिहास पता करने के लिए यूट्यूब के साथ मिलकर यू ट्यूब डेटा व्यूअर सेवा शुरू की है ।
अनुभव बताता है  कि नब्बे प्रतिशत विडियो सही होते हैं पर उन्हें गलत संदर्भ में पेश किया जाता है। किसी भी विडियो की जांच करने के लिए उसे ध्यान से बार-बार देखा जाना चाहिए। यह काम क्रोम ब्राउजर में इनविड (InVID) एक्सटेंशन जोड़ कर किया जा सकता है। इनविड जहां किसी भी विडियो को फ्रेम दर फ्रेम देखने में मदद करता है वहीं इसमें विडियो के किसी भी दृश्य को मैग्निफाई (बड़ा) करके भी देखा जा सकता है। यह विडियो को देखने की बजाय उसे पढ़ने में मदद करता है। मतलबकिसी भी विडियो को पढ़ने के लिए किन चीजों की तलाश करनी चाहिएताकि उसके सही होने की पुष्टि की जा सके। फेक न्यूज के कारोबार को रोकने के लिए सख्त कानून समय की मांग है भारत जैसे देश में जहाँ अभी डिजीटल साक्षरता बहुत कम है वहां स्थितियां और भी खतरनाक हो सकती हैं .चुनाव आयोग ने भी  फेक न्यूज को रोकने के लिए सरकार से एक कड़े  कानून की मांग की है। फेक न्यूज से बचने का एकमात्र तरीका हैअपनी सामान्य समझ का इस्तेमाल और थोड़ी सी जागरूकता ।किसी भी खबर को फॉरवर्ड करने से पहले थोडा ठंडे दिमाग से सोचें .
दैनिक जागरण /आईनेक्स्ट में 23/11/2108 को प्रकाशित 

Thursday, November 22, 2018

वर्चुअल में रीयल कितना !

उधर तुम चैट पर जल रही होती हो कभी हरी तो कभी पीली और इधर वो तो बस लाल ही होता हैएप्स के बीच में फंसी जिन्दगी वो जाना भी नहीं चाहता था और जताना भी नहीं. वो जितने चैटिंग एप्स डाउनलोड करता वो उससे उतना ही दूर जा रही थी. अब मामला “जी चैट”  बत्तियों के हरे और लाल होने का नहीं था. अब मसला जवाब मिलने और उसके लगातार ऑन लाइन रहने के बीच के फासले का था.वो उसे अक्सर उसे पोक करता वो चुपचाप उस पोक मेसेज को डिलीट कर देती.स्मार्ट फोन की कहानी और उसकी कहानी के बीच एक नई कहानी पैदा हो रही थी,वो कहानी जो जी चैट की हरी लाल होती बत्तियों के बीच शुरू हुई और फेसबुक के लाईक,कमेन्ट में फलते फूलते व्हाट्स एप  के बीच कहीं दम तोड़ रही थी. 

एक प्यारी सी लडकी जो अपने सस्ते से फोन में खुश रहा करती थी.उसकी उम्मीदों को पंख तब लगे ,जब उसने ,उसे एक स्मार्ट फोन गिफ्ट किया. लैपटौप की चैट से वो उब चुका था.वो तो चौबीस घंटे उससे कनेक्टेड रहना चाहता था.वो उसे महंगे गिफ्ट देने से डर रहा था.पता नहीं वो लेगी भी कि नहीं अगर उसे बुरा लग गया तो ! ये वर्च्युल इश्क रीयल भी हो पायेगा ? वो अक्सर सोचा करता.दोनों में कितना अंतर था .वो एकदम सीधा सादा नीरस सा लड़का और वो जिन्दगी की उमंगों से भरी हुई एक ऐसी लडकी जो चीजों से जल्दी बोर हो जाती थी .आखिर उसने हिम्मत करके उसको ऑनलाइन एक फोन गिफ्ट कर ही दिया . उसे फोन जैसे ही मिला उसका एफबी स्टेटस अपडेट हुआ. “गॉट न्यू फोन फ्रॉम सम वन स्पेशल” ,और वो कहीं दूर बैठा उसके स्टेटस पर आने वाले कमेंट्स और लाईक को देख देख कर खुश हो रहा था.
             अब उसके पास भी स्मार्ट फोन था.उसे यकीन था अब दोनों चौबीस घंटे कनेक्टेड रहेंगे.हमेशा के लिए. लेकिन अब वो  व्हाट्स एप पर लम्बे लम्बे मेसेज नहीं लिखती थी, जैसा पहले एस एम् एस में किया करती थी .
        उसने स्माईली में जवाब देना   करना शुरू कर दियापर दिल की भावनाओं को चंद चिह्नों में समेटा जा सकता है क्या ? रीयल अब वर्चुअल हो चला था .दो चार स्माईली के बीच सिमटता रिश्ता वो कहता नहीं था और उसके पास सुनने का वक्त नहीं थाएप्स की दीवानी जो ठहरी , सब कुछ मशीनी हो रहा था.सुबह गुडमार्निंग का रूटीन सा एफ बी मैसेज और शाम को गुडनाईट दिन भर हरी और पीली होती हुई चैट की बत्तियों के बीच कोई जल रहा था तो कोई बुझता सा जा रहा था. वो  तो हार ही रहा था पर वो भी क्या जीत रही थी ? कुछ सवाल जो चमक रहे थे चैट पर जलने वाली बत्ती की तरह रिश्ते मैगी नहीं होते कि दो मिनट में तैयार ,ये सॉरी और थैंक यू से नहीं बहलते इनको एहसास चाहिए जो व्हाट्स एप और हाईक जैसे चैटिंग एप्स नहीं देते. 
             क्या इस रिश्ते को साइन आउट करने का वक्त आ गया था, या ये सब रीयल नहीं महज वर्चुअल था. वो हमेशा इनविजिबल रहा करता था वर्चुअल रियल्टी की तरह वो जी टॉक पर इनविजिबल ही आया था और इनविजिबल ही विदा किया जा रहा था .अब वो जवाब नहीं देती थी और जो जवाब आते उनमे जवाब से ज्यादा सवाल खड़े होते. चैट की बत्तियाँ उसके लिए बंद की जा चुकी थी इशारा साफ़ था अब उसे जाना होगा.वर्चुअल रीयल नहीं हो सकता सबक दिया जा चुका था .
प्रभात खबर में 22/11/2018को प्रकाशित 

Monday, November 19, 2018

राजनैतिक नारों की अहमियत

भारतीय लोकतंत्र में कोई भी चुनाव बगैर नारों के सम्पन्न  नहीं हो सकतेनारे न तो कविता हैं न ही कहानी ,इन्हें साहित्य की श्रेणी में रखा गया है |पर वे नारे ही हैं  जो लोगों को किसी दल और उसकी सोच को जनता के सामने लाते हैं नारों को अगर परिभाषित करना हो तो  कुछ यूँ परिभाषित किया जा सकता है,  राजनैतिकवाणिज्यिकधार्मिक और अन्य संदर्भों मेंकिसी विचार या उद्देश्य को बारंबार अभिव्यक्त करने के लिए प्रयुक्त एक यादगार  आदर्श वाक्य या सूक्ति को नारा कहा जाता हैइनकी आसान अभिव्यक्ति   विस्तृत विवरणों की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ती है और इसलिए शायद  वे अभीष्ट श्रोताओं के लिए प्रक्षेपण की बजायएकीकृत उद्देश्य की सामाजिक अभिव्यक्ति के रूप में अधिक काम करते हैंदेश के चार  राज्यों में विधानसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है|ये विधानसभा चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इनके तुरंत बाद लोकसभा चुनाव की बारी आ जायेगी ,तो इस तरह से  पांच साल में आने वाला चुनावी नारों का दौर लौट आया है लेकिन  सभी राजनैतिक पार्टियों के नारों में न  मौलिकता है न प्रयोगधर्मिता |दलों के भावी शासन का दर्शन भी नदारद है इससे ये पता पड़ता है कि हमारे राजनैतिक दल विचारों के दिवालियापन का शिकार हो चुके हैं |ये विचारों का दिवालियापन ही है कि ज्यादातर नारे फिल्मी गानों की तर्ज़ पर या उनके इर्द गिर्द रचे जा रहे हैं या  फिर पूर्व प्रचलित नारों के शब्दों में थोडा हेर फेर कर दिया जा रहा है सोशल मीडिया के आगमन ने चुनाव लड़ने के तौर तरीकों पर भी असर डाला है |तकनीक की  सर्वसुलभता ने राजनैतिक दलों की लोगों तक पहुँच आसान कर दी है पर इस चक्कर में मौलिकता का पतन हुआ है |चुनाव के समय में दलों का चरित्र हनन और मज़ाक उडाना अब आम बात हो गयी है |सन्दर्भ से कटे हुए वीडियो हों या मजाक उड़ाते मीम या फिर फेक न्यूज यह सब आज के चुनावी तरकश के तीर हैं जिसमें भौंडापन ज्यादा है और चुनावी प्रचार की गरिमा कम |
पहले के चुनाव नारों पर लड़े जाते थे पर अब चेहरों पर लड़े जा रहे हैं|राजनैतिक दल सत्ता में आने के बाद शासन का कैसा चेहरा देंगे जोर इस पर नहीं बल्कि कौन सा चेहरा शासन करेगा जोर इस पर है |जब चेहरे शासन करने लग जाएँ तो अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि लोकतंत्र में कैसे राजतंत्र प्रवेश कर गया है |नारे तो अभी भी गढे जा रहे हैं लेकिन न तो उनमे वो वैचारिक स्पष्टता और न ही नैतिक प्रतिबद्धता जिससे मतदाता उनसे प्रभावित हो या वोट देते वक्त नारे उसके निर्णय को प्रभावित करें ,गरीबी हटाओ जैसा नारा आज भी लोगों को याद है|भले ही व्यवहार में गरीबी देश से न खत्म हुई हो लेकिन गरीबी जैसे विषय को सरकार की प्राथमिकता जरुर मिली |
भ्रष्टाचार के विरोध में जब पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने कांग्रेस पार्टी छोड़ी तो  राजा नहीं फ़कीर  है देश की तकदीरहै” जैसे नारों से उनका स्वागत किया गया और उन्होंने सामाजिक न्याय के लिए मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू की,भले ही इसके लिए उन्हें अपनी सरकार कुर्बान करनी पडी|कथनी करनी के अंतर की यह कहानी सारी हकीकत खुद बयां कर रही है |अब तो ये आलम है सुबह नेता गण टिकट  के लिए किसी दल की लाइन में लगे हैं और वहां से निराश होने पर शाम को किसी और  दल की लाइन में लग लिए |
इंदिरा गांधी जहाँ अपने गरीबी हटाओ” जैसे नारों के लिए जानी जाती हैं वहीं उनके खाते में कुछ ऐसे नारे भी हैं जो आपातकाल की भयावता को बताते हैं "जमीन गई चकबंदी मेमकान गया हदबंदी में,द्वार खड़ी औरत चिल्लालएमेरा मर्द गया नसबंदी में” |नारों में आक्रामकता जरुर रहती थी पर राजनैतिक चुहल भी खूब चलती थी |जली झोपड़ी भागे बैलयह देखो दीपक का खेल (साठ के दशक में जनसंघ का चुनाव चिह्न दीपक था जबकि कांग्रेस का चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी थी)इसका जवाब कुछ यूँ दिया गयाइस दीपक में तेल नहींसरकार बनाना खेल नहीं”|वहीं आज के नारों को अगर समाजशास्त्रीय नजरिये से देखा जाए तो ये  चुनावी नारे कुछ शब्दों का संग्रह मात्र हैं |जिनमे लफ्फाजी ज्यादा है |देश बदलना राज्य बदलना सुनने में भले ही अच्छा लगे पर ये होगाकैसे इसकी कोई रूपरेखा कोई भी राजनैतिक दल नहीं दे पा रहा हैसाठ के दशक में राम मनोहर लोहिया ने जब  नारा दिया था,
सोशलिस्टों ने बांधी गांठपिछड़े पावें सौ में साठ” तो ये महज़ नारा नहीं एक बदलाव की पूरी तस्वीर थी|  जय प्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति के नारे ने पूरे देश की राजनीति को प्रभावित किया जिसकी चरम परिणिति सरकार परिवर्तन के रूप में सामने आयी |श्रीकांत वर्मा ने अपने संग्रह मगध” में इसी वैचारिक खाली पन को कुछ यूँ बयान किया था :राजसूय पूरा हुआ,आप चक्रवर्ती हुएवे सिर्फ़ कुछ प्रश्न छोड़ गये हैं,जैसे कि यह कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता,कोसल में विचारों की कमी है |राजनीतिक दलों के नारे अक्सर देश का मूड  भांपने की किसी दल की क्षमता को स्पष्ट  करते हैंएक अच्छा नारा धर्मक्षेत्रजाति और भाषा के आधार पर बंटे हुए लोगों को एक सूत्र में बाँध सकता है|जिनसे एक नागरिक के तौर पर प्राथमिकताएं स्पष्ट होती हैं |  लेकिन एक ख़राब नारा राजनीतिक महत्वाकांक्षा को बर्बाद कर  सकता हैभारत में राजनीतिक नारों में से कई यादगार रहे हैंजैसे कि "गरीबी हटाओ", "इंडिया शायनिंग", "जय जवानजय किसान"|पर आज की राजनीति जैसे विचार शून्यता की शिकार हो चली है नेता तो आ रहे हैं दल भी बढ़ रहे हैं पर विचार खत्म  हो रहे हैं |परिवारवाद हर राजनैतिक दल के लिए एक आवश्यक आवश्यकता हो गया है बची हुई सीटों पर कास्ट और करेंसी जैसे फैक्टर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं|हमें ये बिलकुल नहीं भूलना चाहिए कि नारे किसी भी लोकतंत्र के शासन के प्राथमिक माध्यम हैं  ऐसे में नारे अगर विचार केंद्रित ना होकर व्यक्ति केंद्रित हो जाएँ तो हमें समझ लेना चाहिए कि सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर सब कुछ ठीक नहीं चल रहाकिसी भी लोकतंत्र में नए विचारों का न आना एक तरह की राजनैतिक शून्यता पैदा कर देता है जो शासन की दृष्टि से उचित नहीं होगा राजनैतिक दल सत्ता में|
दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 19/11/2018 को प्रकाशित 

Thursday, November 8, 2018

भारत नें मोबाईल गेम की संभावनाएं

भारत कभी भी गेमिंग कंसोल या कंप्यूटर गेम के लिए बहुत बड़ा बाज़ार नहीं रहा है लेकिन स्मार्टफ़ोन के तेज़ी से बढ़ते प्रयोग और सस्ते डाटा प्लान ने मोबाइल गेमिंग उद्योग में एक बड़ी क्रांति कर  दी है |पबजी गेम की लोकप्रियता इन दिनों देश के युवाओं में सर चढ़ कर बोल रही है |भारत , दक्षिण पूर्व एशिया तथा मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका (MENA) क्षेत्र के अग्रणी मोबाइल वीडियो विज्ञापन प्लेटफार्म पीओकेकेटी के अनुसार प्रयोगकर्ताओं की संख्या के मामले में भारत अब मोबाइल गेमिंग के पांच बड़े बाज़ारों में से एक है|  2017 में प्रकाशित एक इसकी रिपोर्ट के अनुसार  देश में लगभग दो सौ बाईस मिलियन लोग मोबाइल गेम्स खलने के लिए हर दिन कम से कम पांच सत्रों में औसतन बयालीस मिनट का वक़्त बिताते हैं| गेमिंग उद्योग में खेल से मिलने वाले राजस्व का नवासी प्रतिशत केवल मोबाइल गेमिंग से ही आता है|   रिलायंस जिओ इन्फोकॉम का टेलीकॉम उद्योग में प्रवेश और मौजूदा दूर संचार कंपनियोंद्वारा कीमत में कटौती ने 2017 में गेम आधारित मोबाइल एप को बढ़ावा दिया है | इस वजह से  मोबाइल गेम ने तेज़ी से बढ़त हासिल की और इसके प्रयोग में अत्यधिक वृद्धि हुई|ऐसे ही एक गेम लूडो किंग जो कि भारत में सर्वाधिल खेले जाने वाले मोबाइल गेम में सबसे ऊपर है , दस मिलियन प्रतिदिन खेलने वाले उपयोगकर्ताओं के आंकड़े को इस खेल ने छू लिया है जबकि इसके महीने के क्रियाशील उपयोगकर्ता लगभग सत्तर मिलियन ही हैं| सबवे सर्फर और टेम्पल रन खेलों में क्रमश: दूसरे व तीसरे नंबर पर हैं और भारत में सबसे ज्यादा खेले जाने वाले तीन मोबाइल गेम्स में से हैं जिन्हें प्रतिदिन खेलने वालों की संख्या क्रमशः पांच मिलियन व ढाई मिलियन है|इसका नतीजा दुनिया के कई बड़े मोबाईल खेल निर्माताओं को भारत एक बड़े बाजार के रूप में दिख रहा है और वे इसमें निवेश के अवसर तलाश रहे हैं |ऐसा इसलिए भी है क्योंकि चीन और अमेरिका के मोबाईल गेम बाजार अब संतृप्ति की ओर अग्रसर हैं जबकि भारत का मोबाईल गेम बाजार में अभी पर्याप्त संभावनाएं हैं |वेबसाईट न्युजू के मुताबिक़ भारत का मोबाईल गेमिंग बाजार 2018 में 1.1 बिलियन डॉलर का है जिसके साल 2020 में 2.4 बिलियन डॉलर हो जाने की उम्मीद है |यह आंकड़ा भारत को मोबाईल गेम के सबसे तेजी से बढ़ते बाजार में तब्दील कर देता है|वैसे भी परिस्थितियां  भी कुछ  ऐसी ही हैं दुनिया का सबसे युवा देश ,दुनिया के दूसरे नम्बर के सबसे ज्यादा स्मार्टफोन प्रयोगकर्ताओं का देश और तेजी से आगे बढ़ती 4G क्रांति |ये सारी परिस्थितियां है जो देश को मोबाईल  गेम बाजार के लिए एक आदर्श स्थिति प्रदान करती  हैं | फ़ोर्ब्स के आंकड़ों के मुताबिक़ इस वक्त देश में दो सौ पचास कम्पनियां मोबाईल गेमिंग के कारोबार में हैं जिसमें हर महीने दो कम्पनियों को बढ़ोत्तरी हो रही है जबकि साल 2010 में मात्र पच्चीस कम्पनियां ही काम कर रही थीं |

तथ्य यह भी है कि जहाँ  वैश्विक स्तर पर उपयोगकर्ता मोबाइल पर खेले जाने वाले खेलों को खेलने के लिए उन पर पैसा खर्च करते हैं और उन्हें खरीद कर खेलते हैं |  वहीँ भारत में अभी उपयोगकर्ता इन खेलों पर पैसा खर्च करने से कतराते  हैं|  यहाँ तक कि सबसे अधिक लोकप्रिय खेल जैसे कैंडी क्रश और क्लैश ऑफ़ क्लेन्स के भी प्रतिदिन क्रियाशील उपयोगकर्ताओं में से एक प्रतिशत से भी कम ही इन पर पैसा खर्च करते हैं| इसके परिणाम स्वरुप इन खेलों को बनाने वाले एक ऐसे मॉडल की ओर मुड़े जिसमें उच्च वर्ग का उपभोक्ता बिना पैसे दिए इन खेलों का उपयोग कर सके| जिसे उन्होंने फ्रीमियम मॉडल का नाम दिया है |भारत फ्रीमियम मॉडल के लिए बेहतरीन अवसर हैं क्यूंकि ये विज्ञापन को मुद्रीकरण का माध्यम बना देता है |मतलब मोबाईल गेम खेलने वाले लोगों को विज्ञापन दिखाए जाते हैं |मतलब अगर खेल पर पैसा नहीं खर्च करना चाहते हैं तो उन्हें विज्ञापन देखने का विकल्प मिल जाता है जिससे वो पैसा खर्च किये बिना पूरे खेल को खेलने का विकल्प मिल जाता है |वहीं मोबाईल गेम बनाने वाली कम्पनियों को उन विज्ञापनों से पैसा कमाने का विकल्प मिल जाता है |भारत जैसा गरीब देश बगैर पैसा खर्च किये हुए गेम खेलने के लिए विज्ञापन दिखाने  वाले विकल्प के लिए सबसे आकर्षक बाजार है |हालांकि भारत में मोबाइल गेमिंग में विज्ञापन अभी काफी  कम हैं , पर यह तेज़ी से से बढ़ रहे हैं|मोबाईल गेम बनाने वाली कम्पनियां अभी भारत के  भूगोल और भाषा को लेकर संशय की स्थिति  में हैं जबकि  उनके पास विज्ञापन बहुत हैं,पर भारत की भाषाई विविधता एक समस्या है | पीओकेकेटी की  कमाई में पिछले तीन सालों में तीन सौ पंद्रह  प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है और वह अगले वित्त्तीय वर्ष में इसके  भी दुगने की उम्मीद कर रहे हैं|  गेमिंग को ध्यान  में रखते हुए मोबाइल विडियो विज्ञापन में पर्याप्त संभावनाएं हैं जिनका पर्याप्त दोहन अभी देश में नहीं हुआ है |लोगों में डिजिटल तकनीक के प्रयोग करने की वजह बदल रही है। भारत जैसे देश में समस्या यह है कि यहां तकनीक पहले आ रही है, और उनके प्रयोग के मानक बाद में गढ़े जा रहे हैं। कैस्परस्की लैब द्वारा इस वर्ष किए गए एक शोध में पाया गया है कि करीब 73 फीसदी युवा डिजिटल लत के शिकार हैं, जो किसी न किसी इंटरनेट प्लेटफॉर्म से अपने आप को जोड़े रहते हैं।  वास्तविक जिंदगी की असली समस्याओं से वे भागना चाहते हैं और इस चक्कर में वे इंटरनेट पर ज्यादा समय बिताने लगते हैं, जिसमें चैटिंग और ऑनलाइन गेम खेलना शामिल हैं। और जब उन्हें इंटरनेट नहीं मिलता, तो उन्हें बेचैनी होती और स्वभाव में आक्रामकता आ जाती है। 
अमर उजाला में 08/11/2018 को प्रकाशित 

हमेशा खुश रहना बेटे !



प्रिय बेटा
तुम्हारा ई मेल मिला .मैंने भी ई मेल करना सीख लिया है. ये तो तुम देख ही रहे होगे अब मुझे तुम्हें चिठ्ठी भेजने के लिए पोस्ट ऑफिस के चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे. तुम्हारा भेजा हुआ मोबाइल मुझे तुम्हारा अहसास कराता है. ऐसा लगता है कि तुम मेरे आस पास हो.मैं तुमसे जब चाहूँ बातें कर सकता हूँ. मुझ जैसे बूढ़े के लिए यह सब तो वरदान है. जिन्दगी कितनी आसान  हो गयी है .तुमने लिखा है कि इस बार दीपावली पर तुम घर नही आ पाओगे.
 दुःख तो हुआ, लेकिन इस बात कि तसल्ली  भी है कि तुम भले ही कितनी दूर हो लेकिन मैं तुमसे जब चाहूँ बात कर सकता हूँ और विडियो कॉल से देख भी सकता हूँ .मैं जब पहली बार अपने घर से बाहर निकला था तो चिठ्ठी को घर तक पहुँचने में सात दिन लग जाते थे और आज अमेरिका  से तुम्हारा भेजा गया गिफ्ट दो दिन में मिल गयापैसे भी मेरे अकाउंट में ट्रान्सफर हो गए हैं .शुगर फ्री चॉकलेट तुम्हरी मां को बहुत पसंद आई.बेटा एक बात तुम मुझसे अक्सर पूछा करते थे कि पापा घर से स्कूल की दूरी तो उतनी ही रहती है लेकिन रिक्शे वाला किराया क्यों हर साल बढ़ा देता है मैं तुम्हें अर्थशास्त्र  के जरिये किराया क्यों बढ़ता है समझाता था. लेकिन मैं जानता था कि मैं तुम्हें समझा नहीं पा रहा हूँ .
इतनी उम्र  बीतने के बाद मुझे ये समझ में आ गया है कि परिवर्तन  को रोका नहीं जा सकता है, और अगर वह अच्छे के लिए हो रहा है तो हमें बाहें फैला कर उसका स्वागत करना चाहिए . जब तुमने पहली बार कंप्यूटर खरीदने की मांग  की थी तो मैं बड़ा कन्फ्यूज था. एक मशीन से पढ़ाई कैसे होगी ? लेकिन तुम्हारी जिद के आगे मुझे न चाहते हुए भी कंप्यूटर खरीदना पड़ा. इसी कंप्यूटर ने हम सब की जिन्दगी बदल दी .शुरुआती दौर   में मुझे लगता था की उम्र  के आखिरी पडाव पर मै यह सब सीख कर क्या करूँगा ? मैं अपनी पुरानी मान्यताओं पर टिका रहना चाहता था .तुम्हें काम करते देख थोड़ा बहुत मैं भी सीख गया . और आज जब तुम हम सब से इतनी दूर हो तुम्हारी कमी जरूर खलती है लेकिन जीवन में कोई समस्या  नहीं है .मुझे याद है कि तुम्हारी इंजीनियरिंग की फीस के ड्राफ्ट के लिए मुझे आधे दिन की छुट्टी लेनी पड़ती थी और बैंक में धक्के अलग से खाने पड़ते थे. आज एक ई मेल या फ़ोन पर ड्राफ्ट घर आ जाता है.
मेरी पुरानी मान्यताओं  से तुम अक्सर सहमत नहीं रहा करते थे और तुम जब पहली बार दीपावली में मिठाइयों   के साथ चौकलेट  के पैकेट ले आए थे तो मैंने तुम्हें डाटा था कि तुम अपनी परम्पराएँ भूलते जा रहे हो. शायद तुम्हें याद हो,  तुमने कहा था पापा परम्पराओं को जबरदस्ती नहीं थोपा जा सकता अगर खील बताशे के साथ चोकलेट आ गयीं तो बुरा क्या ?वाकई तुम सही थे बेटा.अब खुशियाँ मनाने के लिए किसी त्यौहार का इंतज़ार नहीं करना पड़ता है.जब तुम विदेश से लौटे थे तब हम पहली बार किसी होटल में खाना खाने गए थे तुमने मुझसे से एक बात कही थी पापा बचत बहुत जरुरी है, लेकिन आप खुशियाँ मनाने के लिए त्योहारों का इंतज़ार क्यों करते हैं. हालाँकि उस वक्त मुझे तुम्हारी बात बुरी लगी थी . आज जब मैं अपने आस पास की दुनिया को देखता हूँ. तब मुझे लगता है तुम सही थे. मेरी उम्र के तमाम लोग अपने ही बनाये नियम कानूनों में सिमटे रहना चाहते हैं. वो बदलना तो चाहते हैं पर न जाने किस डर से वो हर बदलाव को डर की नज़र से देखते हैं. लेकिन तुमको  देखकर लगता है कि तुम  जिन्दगी का लुत्फ़ उठाना जानते हो . मुझे गर्व है कि मैं तुम्हारा पिता  हूँ .खुश रहना मेरे बेटे.
दीपावली की शुभकामनायें.
प्रभात खबर में 08/11/18 को प्रकाशित 

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