Tuesday, September 30, 2014

हमें बदलनी होगी अपनी आदत

पिछले दिनों मुझे कई यात्राएं ट्रेन से करनी पडीं,ट्रेन में समय काटने के लिए मैं भी आपकी तरह कुछ किताबें लेकर बैठा था. मैं वी॰ एस॰ नाएपॉल की सन 1964 में प्रकाशित  ‘एन एरिया ऑफ डार्कनेस’ पढ़ रहा था जिसके कुछ अंश आपके साथ बांटता हूँ “भारतीय हर जगह मल त्याग करते हैं। ज़्यादातर वे रेल्वे की पटरियों को इस कार्य के लिए इस्तेमाल करते हैं। हालांकि वे समुद्र-तटों, पहाड़ों, नदी के किनारों और सड़क को भी इस कार्य के लिए इस्तेमाल करते हैं और कभी  भी आड़ न होने की परवाह नहीं करते हैं.जो नायपाल साहब कई बरस पहले लिख चुके हैं उस वाकये से हम सब आज भी रोज दो चार होते हैं.मैंने जब सुबह ट्रेन से बाहर नजर डाली है लोगों को पटरियों के किनारे फारिग होते देखा है.कैसा लगता है तब शर्म आती है न कि आखिर हम कहाँ  रह रहे हैं और लोग ऐसा करते क्यूँ है.तो ऐसी ही एक यात्रा में इस लेख का खाका खिंच गया,बात भले ही गंदी हो पर करनी तो पड़ेगी तो खुले में मल त्याग करने की समस्या को सिर्फ शौचालयों की कमी से जोड़कर देखा जाए या इसके कुछ और भी कारण हैं.19 नवम्बर 2013 को विश्व टॉइलेट दिवस के अवसर यूनिसेफ़ के हवाले से प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या का पचास प्रतिशत से भी अधिक हिस्सा आज भी खुले में मल त्याग करता है.अपर्याप्त सैनीटेशन सुविधाओं की वजह से देश को हर साल  लगभग 2.4 ट्रिलियन रुपयों का नुकसान उठाना पड़ रहा है. 
                                                                       यह भारत के कुल सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत से भी अधिक है. ऐसा नहीं है कि केवल अपर्याप्त सैनीटेशन सुविधाओं जैसे की शौचालयों की कमी की वजह से ही लोग खुले में मल त्याग करते हैं। इसके पीछे कई सामाजिक और धार्मिक कारक भी हैं। रिसर्च इंस्टीटयूट फॉर कॉम्पसिनेट इकोनोमिक्स द्वारा कराये  गए एक सर्वेक्षण के अनुसार लगभग उत्तर भारत के बीस  प्रतिशत से भी अधिक वे लोग जो बारहवीं कक्षा तक पढे हैं और जिनके घरों में शौचालय भी हैं वे भी खुले में ही मल त्याग के लिए जाते हैं क्योंकि उन्हें बचपन से ही इसकी आदत डाली गयी है. भारतीय गाँवों में शौचालयों को अशुद्ध समझा जाता है इसलिए भी लोग खुले में ही मल त्याग के लिए जाते हैं.इसके पीछे  तर्क यह दिया जाता है कि घर में शौचालय बनवाने से घर का वातावरण अशुद्ध एवं अपवित्र हो जाता है. 
अशुद्ही और अपवित्रता का  यह अवधारणा भी लोगों के खुले में मल त्याग के  लिए जाने का एक प्रमुख कारण है। खुले में मल त्याग करना जैसे भारतीय संस्कृति का एक हिस्सा बन गया है. इसे सिर्फ गंदगी-सफाई की शिक्षा के माध्यम से नहीं बदला जा सकता है। भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.1प्रतिशत ही सैनीटेशन पर खर्च करता है। यह रकम पाकिस्तान और बांग्लादेश के द्वारा इसी मद में खर्ची जाने वाली रकम से भी कम है. ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर भारत में लोग सरकारी शौचालयों में भयंकर गंदगी की वजह से भी उनका इस्तेमाल करना नहीं चाहते हैं। भारत सरकार शौचालय बनवाने पर तो अच्छा-खासा खर्चा कर रही है पर लोगों के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए चलाये जाने वाले सूचना एवं शिक्षा अभियानों पर यह खर्च न के बराबर ही है। वित्तीय वर्ष 2013-14 के दौरान जहां भारत में शौचालयों के  निर्माण पर 2500 करोड़ से भी अधिक रकम खर्च की गयी वहीं लोगों में इस संदर्भ में जागरूकता पैदा करने वाले कार्यक्रमों पर केवल 209 करोड़ ही खर्चे गए. अतः आवश्यकता इस बात की है की शौचालय निर्माण के साथ ही समाज में व्यावहारिक परिवर्तन लाने पर भी ज़ोर दिया जाये.सरकार तो अपना काम करेगी पर इम्पोर्टेंट है हमारे आपके जैसे लोग इस इस्स्यू को सीरीयसली लें न कि चेहरे पर रुमाल रख कर मुंह फेर लें.लोगों की सायकी तो बदलनी पड़ेगी और ये काम एक झटके में नहीं होगा.स्टड और डूड सिर्फ अच्छी पर्सनाल्टी रखकर नहीं बना जाता बल्कि उसके लिए एक अच्छी सोच भी चाहिए होती है. 
आई नेक्स्ट में 30/09/14 को प्रकाशित 

Monday, September 15, 2014

व्हाट्स एप व् एफ बी पर चैटिंग ही नहीं नोट्स भी बांटे

कैम्पस तो कूल हो गए हैं,पर आप कब “कूल” होंगे नहीं समझे अरे भाई कैम्पस लिखने पढ़ने और कुछ नया सीखने की जगह है जब कैम्पस का रूप रंग बदल गया ,पढाने के तौर तरीके बदल गए तो पढ़ने के वही तरीके क्यूँ |अब वो जमाना तो रहा नहीं कि पढ़ाई का एक वक्त हुआ करता था ऐसा हो भी क्यूँ न तब इंटरनेट नहीं था अब तो हर पल दुनिया से जुड़े हुए हैं|हर हाथ में गूगल है तो फिर पढ़ाई करने के लिए माहौल क्या बनाना जब मौका लगे अपने विषय से सम्बन्धित टॉपिक पर ज्यादा से ज्यादा जानकारी लेने की कोशिश कीजिये|इससे दो फायदे होंगे विषय के प्रति आपकी समझ बढ़ेगी जिससे नोट्स बनाने में आसानी होगी और क्लास में शिक्षकों से उन जिज्ञासाओं का आसानी से समाधान हो जाएगा जिसमें आपको संशय हो|देखिये तकनीक कोई बुरी नहीं होती उसे अच्छा या बुरा होना उसके इस्तेमाल पर है|वो चाहे तमाम तरह की सोशल नेटवर्किंग साईट्स हों या व्हाट्स एप जैसे चैटिंग एप अब गर आप समय काटने के लिए इनका इस्तेमाल कर रहे हैं तो अभिभावक,शिक्षक की नारजगी लाजिमी है|
                          अभी वक्त पढ़ाई और करियर बनाने का है एक बार आपका करियर बन गया तो आप कुछ भी करेंगे उस पर कोई रोक टोंक नहीं होगी|अब आप ज्यादा किताबें तो आप को पढ़ने का मौका नहीं मिल पाता पर मेरी माता जी बचपने में  मुझे अक्सर प्रेरित करने के लिए रामायण की एक चौपाई का सहारा लिया करती थी”समरथ को नहीं दोष गुंसाईं” तो अगर आप करियर में आगे निकल जायेंगे तो कुछ भी करेंगे उसकी मिसाल दी जायेगी| मैं आपको सोशल नेटवर्किंग साईट्स के बारे में बता रहा था|फेसबुक पर आपके विषय से सम्बन्धित बहुत से पेज और ग्रुप हैं उनसे जुड जाइए आपको बहुत फायदा होगा क्यूंकि दुनिया भर में आपके विषय से सम्बन्धित ताजा तरीन जानकारियां वहां शेयर की जा रही हैं|आप विषय पर अपनी पकड़ को वहां दिखा सकते हैं या आप कितना जानते हैं इसका पता भी आपको लग जाएगा|फेसबुक को यारी दोस्ती निभाने की जगह बनाने की बजाय सीखने सिखाने की जगह बनाइये फिर देखिएगा आपको एफ बी पर लगे रहने से कोई नहीं रोकेगा क्यूंकि आप सही काम कर रहे है| व्हाट्स एप पर आपने खूब ग्रुप ज्वाईन कर रखे होंगे पर अब एक ऐसा ग्रुप बनाइये जिसमें नोट्स का आदान प्रदान हो सके क्लास में शिक्षकों से अनुमति लेकर उनके लेक्चर रिकोर्ड कीजिये ये ऑडियो या वीडियो किसी भी रूप में हो सकते है|वैज्ञानिक रूप से यह स्थापित तथ्य है कि हमें रटकर याद करने की बजाय सुनकर जल्दी याद होता है|सोचिये आपका यह छोटा सा प्रयास आने वाले विद्यार्थियों की कितनी मदद करेगा|वीडियो लेक्चर को आप यूट्यूब पर डाल कर यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि अन उस वीडियो लेक्चर की पहुँच में दुनिया का हर विद्यार्थी शामिल है|मुझे उम्मीद है अब जिस मोबाईल और इंटरनेट का अधिक प्रयोग आपको हमेशा सवालों के घेरे में रखता था वो आपके करियर को बेहतर करने में मदद करेगा|अब सोचना छोड़ के लग जाइए अपने करियर को कूल बनाने में |
अमर उजाला माई सिटी में 15/09/14 को प्रकाशित 

Friday, September 12, 2014

कामकाजी महिलाओं की सेहत का सवाल

विकास जब अपने संक्रमण काल में होता तब सामजिक समस्याएं ज्यादा गंभीर होती हैं,कुछ ऐसी परिस्थितियों से भारतीय समाज भी गुजर रहा है |आंकड़े बताते हैं कि समाज के हर क्षेत्र में महिलाएं तेजी से आगे बढ़ रही हैं|उच्च शिक्षा में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी रोजगार के अवसरों को बढ़ा रहे हैं|महिलायें कार्यक्षेत्र में पुरुषों के वर्चस्व को तेजी से तोड़ रही हैं|आमतौर पर ऐसी तस्वीर किसी भी समाज के लिए आदर्श मानी जायेगी जहाँ स्त्रियाँ तरक्की कर रही हों पर भारतीय परिस्थितयों में ये स्थिति महिलाओं के लिए स्वास्थ्य संबंधी कई परेशानी पैदा कर रही है|वैश्वीकरण की बयार,शिक्षा के प्रति बढ़ती जागरूकता ने पूरे देश को प्रभावित किया है|धीरे धीरे ही सही अब इस धारणा को बल मिल रहा है कि कामकाजी महिला घर और भविष्य के लिए बेहतर होगी पर हमारा पितृ सत्तामक सामजिक ढांचा उन्हें घर परिवार के साथ साथ  रोजगार सम्हालने की भी अपेक्षा करता है जिसका नतीजा महिलाओं में बढ़ती स्वास्थ्य समस्याओं  के रूप में सामने आ रहा है|स्वास्थ्य संगठन मेट्रोपोलिस हेल्थकेयर लिमिटेड द्वारा देश के चार महानगरों दिल्लीकोलकाताबंगलुरु  और मुंबई में रहने वाली महिलाओं के बीच किये गए  इस सर्वेक्षण से पता चलता है कि युवा महिलाओं में डायबिटीज और थायरॉयड जैसी बीमारियां तेजी से बढ़ रही हैं| जिसकी  वजह से महिलाओं को थकानकमजोरीमांसपेशियों में खिंचाव और मासिक चक्र में गड़बड़ी जैसी समस्याओं से जूझना पड़ रहा  है|रिपोर्ट के अनुसार,चालीस  से साठ साल के बीच की की उम्र वाली महिलाओं में इन दोनों बीमारियों के होने की आशंका बढ़ी है| महतवपूर्ण तथ्य यह भी है कि अब कम उम्र की महिलाएं भी इन बीमारियों की चपेट में आ रही हैंअर्थव्यवस्था में तेजी आने से रोजगार के अवसर बढे जिसके कारण गाँवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ा जिसका नतीजा बढ़ते एकल परिवारों के रूप में हमारे सामने आ रहा है|सामजिक रूप से बढ़ते एकल परिवार कोई समस्या की बात नहीं हैं पर संयुक्त परिवारों की तुलना में एकल परिवार में कामकाजी महिलाओं पर काम का बोझ ज्यादा बढ़ा है जिससे महिलाओं को अपने कार्यक्षेत्र और घर दोनों को सम्हालने के लिए पुरुषों से ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही है जिससे तनाव बढ़ता है और शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम होती जिससे अन्य बीमरियों के होने की आशंका बढ़ जाती है|अब वो दौर बीत चुका है जब ये माना जाता था कि महिलायें सिर्फ घर का कामकाज देखेंगी अब महिलायें पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा मिला कर जीवन की हर चुनौतियों का सामना कर रही हैं,उनके काम का दायरा बढ़ा है पर परिवार से जो समर्थन उन्हें मिलना चाहिए,वह नहीं मिल रहा है| जबकि पुरुषों का कार्यक्षेत्र सिर्फ बाहरी कामकाज तक सीमित है|भारत के सम्बन्ध में यह समस्या इसलिए महत्वपूर्ण है जहाँ अभी तक महिलायें घर की चाहरदीवारी में कैद रही हैं पर अब उनको स्व्वीकार्यता  तो मिल रही है पर स्थिति बहुत अच्छी नहीं है|
अभी भी पुरुषों की सहभागिता  घर के रोज के सामान्य कामों में न के बराबर है| विश्व आर्थिक मंच की एक रिपोर्ट के अनुसार लैंगिक समानता सूचकांक में भारत का 135 देशों में  113 वाँ स्थान है| वर्ल्ड इकॉनॉमिक फ़ोरम का सूचकांक दुनिया के देशों की उस क्षमता का आंकलन करता है जिससे यह पता चलता है कि किसी देश ने  पुरुषों और महिलाओं को बराबर संसाधन और अवसर देने के लिए कितना प्रयास किया|ऑर्गनाइज़ेशन फोर इकॉनॉमिक कोऑपरेशन ऐंड डेवलेपमेंट’ (आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन) द्वारा 2011 में किए एक सर्वे में छब्बीस सदस्य देशों और भारतचीन और दक्षिण अफ्रीका जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के अध्ययन से यह पता चलता है कि भारत ,तुर्की और मैक्सिको की महिलाएं पुरुषों के मुकाबले पांच घंटे ज्यादा अवैतनिक श्रम  करती हैं|भारत में अवैतनिक श्रम कार्य के संदर्भ में बड़े  तौर पर लिंग विभेद हैजहां पुरुष प्रत्येक दिन घरेलू कार्यों के लिए एक घंटे से भी कम समय देते हैं| रिपोर्ट के अनुसार  भारतीय पुरुष टेलीविज़न देखनेआराम करनेखानेऔर सोने में ज्यादा  वक्त बिताते हैं| मेट्रोपोलिस हेल्थकेयर रिपोर्ट के अनुसार नौकरी और घर दोनों सम्हालने वाली अधिकतर महिलायें डायबिटीज और थायरॉयड के अलावा मानसिक अवसादकमर दर्दमोटापे और दिल की बीमारियों से पीड़ित हैं|अधिकतर भारतीय घरों में ये उम्मीद की जाती है कि कामकाजी महिलायें,अपने काम से लौटकर घर के सामान्य काम भी निपटाएं|ऐसे में महिलाओं के ऊपर काम का दोहरा दबाव पड़ता है जबकि पुरुष घर आकर काम की थकान मिटाते हैं वहीं महिलायें फिर काम में लग जाती हैं बस फर्क इतना होता है कि बाहर के काम का आर्थिक भुगतान होता है जबकि घर के काम काज को परम्पराओं ,मर्यादाओं के तहत उसके जीवन का अंग मान लिया जाता है|उल्लेखनीय है कि इस समस्या के और भी कुछ अल्पज्ञात पहलू हैं| घर परिवार मर्यादा नैतिकता और संस्कार की दुहाई के नाम पर महिलाओं को अक्सर घरेलू श्रम के ऐसे चक्र में फंसा दिया जाता है कि वे अपने अस्तित्व से ही कट जाती हैं|
बड़े शहरों में जागरूक माता पिता अपनी लड़कियों की पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं ऐसे में वो लड़कियां शादी से पहले ही कामकाजी हो जाती हैं और घर के दायित्वों में सक्रीय रूप से योगदान नहीं देती पर शादी के बाद स्थिति एकदम से बदल जाती हैं|यहीं पुरुष अगर घर के सामान्य कामों को छोड़कर अपनी पढ़ाई या करियर पर ध्यान दें तो यह आदर्श स्थिति मानी जायेगी क्यूंकि समाज उनसे यही आशा करता है पर महिलाओं के मामले में समाज की सोच दूसरी है ऐसे में भी अगर कोई लडकी पढ़ लिख कर कुछ बन जाती है तो भी उससे यह उम्मीद की जाती है कि वह घर के कामों में ध्यान देगी और तब समस्याएं शुरू होती हैं|समाज का ढांचा तो बदल रहा है पर मानसिकता नहीं और यही समस्या की जड़ है|मानसिकता में बदलाव समाज के ढांचे में बदलाव की अपेक्षा काफी  धीमा होता है|इसकी कीमत कामकाजी महिलाओं को चुकानी पड़ रही है|कामकाजी महिलाओं को स्वीकार किया जा रहा है पर शर्तों के साथ |इन खतरनाक बीमरियों पर अंकुश लगाने के लिए यह जरुरी है कि परिवार अपनी मानसिकता में बदलाव लायें और पुरुष घर के काम काज को लैंगिक नजरिये से देखना बंद करें|छोटे बच्चे जब घर के सामान्य कामकाज को अपने पिताओं को करते देखेंगे तो उनके अन्दर काम काज के प्रति लैंगिक विभेद नहीं पैदा होगा ऐसे में जरुरी है छोटे बच्चों का समाजीकरण घरेलू काम में लैंगिक बंटवारे के हिसाब से न हो यानि खाना माता जी ही पकायेंगी और पिता जी ही सब्जी लायेंगे| यदि  ऐसा होगा तो आज के बच्चे कल के  एक बेहतर नागरिक नागरिक अभिभावक बनेगे|बीमारियों का इलाज तो दवाओं से हो सकता है पर स्वस्थ मानसिकता का निर्माण जागरूकता और सकारात्मक सोच से ही होगा
राष्ट्रीय सहारा में 12/09/14 को प्रकाशित 

Tuesday, September 9, 2014

कैम्पस में बंधे बंधाए ढर्रे से आजादी

कभी आपने सोचा कि कैम्पस या उच्च शिक्षा में इतनी आजादी क्यूँ रहती है पढ़ाई की फ़िक्र करना स्कूल के दिनों में होता है जब आपकी पढ़ाई की नींव रखी जा रही होती है|कैम्पस में आप एक सांचे में ढल कर आये होते हैं इसलिए आपको फ्री छोड़ दिया जाता है |यह मानकर कि अब आप समझदार हैं और इसीलिये कैम्पस में लेक्चर को आधार बना कर पढ़ाई होती है नोट्स नहीं दिए जाते स्कूल के दिनों की तरह रट्टाफिकेशन यहाँ नहीं होता है|स्वायत्तता और आजादी का नाम है कैम्पस,जहाँ से कुछ सीखकर आप समाज और अपने विषय को एक नयी दिशा देंगे और ये जिम्मेदारी आप पर ज्यादा है |क्यूँ ,क्यूंकि आप युवा हैंदेश में 20 से 35 वर्ष के आयु वर्ग की आबादी 2021 तक बढ़कर 64 प्रतिशत तक पहुंचने की संभावना है|जो 2001 में करीब 58 प्रतिशत थी। वर्ष 2020 में भारत की 125 अरब की आबादी की औसत आयु 29 साल की होगी जो चीन और अमेरिका के लोगों से भी युवा होगी ,बात है न मजेदार अब जरा सोचिये इतने सारे युवा आंकड़े और भी हैं वर्ष 2011 और 2016 के बीच करीब 6.35 करोड़ नए लोग कामकाजी आबादी में शामिल होंगे जिनमें20 से 35 वर्ष की आयु के लोगों की संख्या सबसे अधिक होगी।मुझे पता है आंकड़े आपको बोर करते हैं पर भविष्य की बेहतरी का रास्ता आंकड़ों के जंगल से होकर गुजरता है| पर कुछ चीजें कभी नहीं बदलती जैसे जब तक हम पढेंगे नहीं तब तक आगे बढ़ेंगे नहींवैसे भी आज का युग मोबाईल और इंटरनेट का है हर हाथ में गूगल है आप मेरी लिखी किसी बात को दो मिनट में क्रॉस चेक कर सकते हैं,गूगल बाबा की कृपा से|वैसे बात कैम्पस में आये बदलाव की चल रही थी तो पढ़ने के तौर तरीके भी बदले हैं और टेक्नोलॉजी पर हमारी निर्भरता बढ़ी है|3 का स्क्वायर रूट रटने या कागज कलम से निकालने की जरुरत नहीं,किसी जगह की राजधानी पता करनी हो यानि पढ़ाई की समस्या कोई भी हो समाधान एक है गूगल कर लो डूड कुछ जोड़ना या घटाना हैमोबाईल निकला जेब से और उँगलियाँ उसके टच पर थिरकने लग गयीं|सेकेंडो में जवाब हाजिर अब नोट्स एक्सचेंज करने के लिए व्हाट्स एप पर ग्रुप है तो क्लासेज की सूचना के लिए फेसबुक पेज,सब कुछ इतना आसान हो गया है |आप हर पल हर क्षण कनेक्टेड हैं अब देखिये न सोशल नेटवर्किंग की इस दुनिया में आधी से ज्यादा आबादी युवाओं की हैपर इस पूरी प्रक्रिया में आपने गौर किया होगा हमारी निर्भरता “गूगल” और तकनीक  पर ज्यादा बढ़ी है और सेल्फ स्टडी पर जोर कम हुआ है|इन सबका असर हमारी क्रिएटिविटी (सर्जनात्मकता) पर पड़ रहा है|जरा सोचिये स्कूल में हम कितना क्रिएटिव हुआ करते थे वो चाहे हार्बेरियम फाईल बनाना हो घर की बेकार की चीजों से कोई मॉडल  कितना तेज़ हमारा दिमाग चलता था पर अब वो दिमाग गूगल का मोहताज है बस समस्या की जड़ यही है |दिमाग का कम इस्तेमाल और तकनीक का ज्यादा बचपने में मेरे पिता जी कहा करते थे बेटे दिमाग का इस्तेमाल जितना ज्यादा करोगे वो उतना ही तेज होगा और जितना कम करोगे वो उतना ही कुंद हो जाएगा उनकी ये सीख कब मेरे लिए जीवन का दर्शन बन गयी पता ही नहीं पड़ा ,किस्सा छोटा सा है फलसफा बड़ा टेक्नोलॉजी की मदद पढ़ाई में आगे बढ़ने में लीजिये पर तकनीक पर पुरी तरह निर्भर मत हो जाइए वैसे भी निर्भरता किसी भी चीज पर हो बुरी ही होती है |मेरा अनुभव यह कहता है जब मुझे तकनीक की जरुरत सबसे ज्यादा होती है उसी समय पर वो धोखा दे देती है तो हमेशा बैक अप रखिये |बैक अप तभी होगा जब आप दिमाग का इस्तेमाल ज्यादा करेंगे| गूगल पर हर विषय से सम्बन्धित अरबों जानकारियां हैं पर अगर हमारे कैम्पस में सिर्फ गूगल का बोलबाला रहेगा तो उस पर नयी जानकारियां कहाँ से आयेंगी |यहीं बात दिमाग के इस्तेमाल की है अपनी नयी जानकारियों को आगे बढाने के लिए गूगल का इस्तेमाल कीजिये न कि दूसरों से प्राप्त जानकरियों को आप आगे बढ़ाते रहें|जहाँ सब कुछ इतनी तेजी से बदल रहा है वहां ज़माने से कदमताल करने के लिए आपको एक्स्ट्रा स्मार्ट होने की जरुरत है तो शुरुवात आज से ही क्यूँ न की जाए|
अमर उजाला माई सिटी में 09/09/14 को प्रकाशित 

उमंगों ,हसरतों और ख्वाबों का संगम है कैम्पस

हर साल की तरह शहर के कैम्पस एक बार फिर गुलजार हैं| जिन जिन को कॉलेज में दाखिला लेना था वो सब प्रवेश ले चुके हैं पढ़ाई शुरू हो गयी है| छात्र छात्राओं के चेहरे देखिये तो न जाने कितने भाव मिलेंगे|किसी का चेहरा उमंगों से लबरेज है तो किसी की आँखें भविष्य के सुनहरे सपने बुन रही हैं|स्कूल अब इतिहास है नया कैम्पस बाहें पसार कर आप का स्वागत कर रहा है|दिल उम्मीदों भरे तराने गा रहा है|याद रखिये ये पल आपकी जिंदगी के सबसे  यादगार पलों में से एक होंगे |भले ही इसका पता अभी आपको न चलें पर जब कल आप इस कैम्पस से विदा होंगे तब आपको एहसास होगा कि आप क्या चीज पीछे छोड़ आये  हैं| पढने लिखने और कुछ सीखने की जगह है कैम्पस,कैम्पस के दिन बोले तो ख्वाब,आजादी, उमंगों और हसरतों को थोड़ा सा अगर आपस में मिला दिया जाए तो जो पहला ख्याल आपके दिल में आ रहा होगा वो अपने कैम्पस या कॉलेज के दिनों का ही आएगा| वही कैम्पस जहाँ कभी मस्ती की पाठशाला सजती है तो कभी किसी लेक्चर से आपका जीवन हमेशा के लिए बदल जाता है |बात बदलाव की हो रही है तो हमारे कैम्पस भी इस बदलाव से कहाँ बच सके और कैम्पस ही क्यूँ हम सबका जीवन भी तो कितनी तेजी से बदल रहा है|अब सोचिये न कोई ज्यादा पुरानी बात तो है नहीं जब आप कॉपी किताब से भरे बैग को  टाँगे स्कूल की ओर चल पड़ते थे पर कैम्पस में तो बस एक नोटबुक ही काफी है,रोज किताबें ढोने का झंझट खत्म, सी.डब्ल्यू(कक्षाकार्य)और एच.डब्ल्यू(गृहकार्य) अब इतिहास हैं| खड़िया डस्टर की जगह व्हाईट बोर्ड, मार्कर आ गए हैं क्लास रूम स्मार्ट हो गए हैं जहाँ पढ़ाई आडिओ वीडिओ के साथ होती है|
अमर उजाला में 8/09/14 को प्रकाशित 

Tuesday, September 2, 2014

कभी अलविदा न कहना

गाने सुनने का शौक किसे नहीं होता, मुझे भी है प्यारे से मीठे गाने जिसे सुनकर बस आप गाने के लेखक की बरबस तारीफ़ कर उठें. आपने गौर किया होगा कभी कभी गानों की कुछ लाईनें कितनी बड़ी बात कह जातीं है.अब इसी गाने को ले लीजिए ‘चलते चलते मेरे ये गीत याद रखना कभी अलविदा न कहना’ सच तो यही है जाना और आना प्रकृति का नियम है.अब देखिये न सावन आया और चला भी गया. हम सब थोडा और विश करते ही रह गए लेकिन बादल उतना बरसे नहीं. खैर छोडिये जब रियलिटी अच्छी न हो तो कुछ वर्चुअल रियलिटी की बात कर ली जाए वर्चुअल बोले तो फ़िल्में .हाँ भाई जब कोई चीज चली जाती है तो ज्यादा याद आती है.तो मुझे सावन की याद आती है.यूँ तो सावन सिर्फ साल का एक महीना है लेकिन इसका जिक्र आते ही जो तस्वीर हमारे जेहन में उभरती है वो है बरसात,हरियाली और झूले और जब इतनी सारी चीजें एक साथ हों तो हो गया न मामला पूरा फ़िल्मी.जी हाँ फिल्मों का सावन से गहरा रिश्ता रहा है या यूँ कहें बगैर बारिश के हमारी हिंदी फिल्में कुछ अधूरी सी लगती हैं ,अगर बारिश है तो गाने भी होंगे तो क्यों न इन गानों के बहाने ही सही जाते हुए सावन को याद किया जाए. सबसे पहले १९४९ में सावन शीर्षक से पहली फिल्म बनी उसकी बाद सावन आया रे सावन भादों , `सावन की घटा´, `आया सावन झूम के´, `सावन को आने दो´ और `प्यासा सावन´ नाम से फिल्में बनीं.
अब सावन का महीना है तो पवन तो शोर करेगा ही .शोर नहीं बाबा सोर जी हाँ ये गाना आज भी हमारे तन मन को मोर सा नचा देता है ,सावन का महीना पवन करे सोर (मिलन).जब पवन शोर करेगा तो बादल बिजली और बरसात आ ही जायेंगे ये सारे सावन राजा के दरबारी हैं. तभी तो सावन को राजा का खिताब दिया गया है ओ सावन राजा कहाँ से आये तुम (दिल तो पागल है.
कहते हैं आग और पानी का रिश्ता होता है चौंकिए मत इस रिश्ते को हमारे गीतकारों ने बड़ी खूबसूरती से गीतों में ढाला है "दिल में आग लगाये सावन का महीना " (अलग -अलग ) या फिर "अब के सजन सावन में आग लगेगी बदन में " (चुपके -चुपके ) एक फिल्म में रिम झिम गिरे सावनसुलग सुलग जाए मन” (दहक) एक खूबसूरत सा गीत और है जो सावन की रूमानियत का जिक्र करता है "तुझे गीतों में ढालूँगा सावन को आने दो"(सावन को आने दो) अब अगर सावन की बारिश का मज़ा घर में बैठ के लिया तो ये सावन के साथ अन्याय होगा "सावन बरसे तरसे दिल क्यों न निकले घर से दिल "(दहक). वैसे भी सावन बेशकीमती है और इसकी कीमत का अंदाजा करता ये गाना तेरी दो टकिया की नौकरी रे मेरा लाखों का सावन जाए” (रोटी कपडा और मकान ) वैसे भी सावन के महीने में इंसान तो क्या बादल भी दीवाना हो जाता है "दीवाना हुआ बादल सावन की घटा छाई" (कश्मीर की कली ) जब ऐसा सुहाना मौसम हो तो किसी की याद आ ही जायेगी "सावन के झूले पड़े तुम चले आओ "(जुर्माना ) यहाँ एक रोचक बात है कि सावन और झूलों का गहरा सम्बन्ध है घरों में झूले सावन के महीने ही में लगाये जाते हैं .बात तो सावन की चल रही है लेकिन इसे जिन्दगी से जोड़ दिया जाए तो सावन के दर्शन को समझना आसान हो जाएगा और जिन्दगी जीना भी.  पहला सबक जो आएगा वो जाएगा भी सावन भी चला गया लेकिन फिर आने के लिए तो सफलता और असफलता जिंदगी के हिस्से हैं कोई भी चीज परमानेंट नहीं हैं. 
तो सावन को याद करने के तरीके और मौके कई हो सकते हैं लेकिन बीत गया सावन यही कह गया है कि जिन्दगी अपने हिसाब चलेगी लेकिन अपने मन के आँगन में सूखा मत पड़ने दीजियेगा अपनी खुशियों आशाओं उमंगों के सावन को साल भर बरसने दीजियेगा इतना तो वादा मैं आप से ले ही सकता हूँ इस गाने के साथ कभी अलविदा न कहना.
आई नेक्स्ट में 2/09/14 को प्रकाशित 

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