Friday, December 27, 2013

Change is the only constant thing

आई नेक्स्ट सात साल का हो गया,ये एक सपने के हकीकत बनने की कहानी थी एक ऐसा न्यूज़ पेपर जो नए ज़माने की सोच को सामने लाये,जिसकी कोई लिमिटेशन न हो जैसे आज का यूथ जो सपने देखता है और उनको पूरा करने का हौसला भी, तो उन्हीं की भाषा में उन्हीं के जैसा, जब अखबार की शुरुवात हुई तो तो देश वर्चुअल दुनिया के स्पेस में उड़ान भरने की तैयारी कर रहा था बस फिर क्या जैसे जैसे हम बदले हमारा आई नेक्स्ट भी बदलता गया.प्रिंट से वेब फिर न्यूज़ पोर्टल और सोशल नेटवर्किंग की दुनिया में इसने पैर पसारे. जरा सोचिये न हमारी दुनिया भी तो ऐसे ही बदल रही थी.हम लोगों से ग्लोबली कनेक्टेड हो रहे थे टैगिंग से होने वाली दोस्ती कैसे रीयल हैंग आउट में बदलने लग गयी| वर्चुअल रीयल होने लगा. आईनेक्स्ट की नजर हर चेंज पर थी चाहे वो चैट की बत्तियों से हरे लाल होते रीलेशन हों या सोशल नेटवर्किंग एक्टिविज्म का दौर, फीमेल्स की सक्सेस स्टोरीज हो या ग्लोबल का लोकल होना.ये सही मायने में बदलाव का अखबार बना जैसा की भारत में हर नयी चीज के साथ होता है शुरुवात में लोगों ने थोड़ी हिचक जरुर दिखाई लेकिन जब एक बार लोगों ने पढ़ना शुरू किया तो इसकी सर्कुलेशन लगातार बढ़ती गयी.वो कहते हैं न थिंक हट के बड़ा फर्क हमारा नजरिया डालता है क्यूंकि निगेटिव निगेटिव मिलकर पॉजिटिव हो जाता है तो “आई शेयर” आप जैसे रीडर्स के कारण “वी शेयर” बन गया लालच करना बुरी बात हो सकती है पर आज का यूथ ज्यादा का इरादा करता है और उसे पूरा करके भी दिखाता है तो ऐसे लालच को क्या आप बुरा कहेंगे.नशा करना बुरी बात होती है पर अगर नशा नेम और फेम का है तो प्रोब्लम क्या है. वैसे कोई भी चेंज मलटी  डाइमेन्शनल होता है कितना तेज सबकुछ बदल रहा है त्योहारों में अगर मिठाई की जगह चौकलेट आ रही हैं तो परवाह किसे है मिठाई की अपनी जगह चौकलेट की अपनी.आज की फास्ट लाईफ में मुंह मीठा करने के लिए हम वेट क्यूँ करें बस रैपर खोलें और खा लें.जब फुर्सत से होंगें तो मिठाइयाँ भी चख लेंगे.मस्ती की पाठशाला सिर्फ स्कुल में ही क्यूँ, घर में क्यूँ नहीं बिलकुल होनी चाहिए क्यूंकि हम हैं नए तो फिर अंदाज़ क्यूँ हो पुराना.
आज की जेनरेशन सवालों के जवाब चाहती है वो भी लौजिकल,त्यौहार मनाने का हम साल भर क्यूँ इन्तजार करें.हमारा हर दिन दसहरा और रात दीपावली हो सकती है पर कैसे अरे जनाब बस एटीट्यूड पोसिटिव होना चाहिए और यही तो “आईनेक्स्ट” भी कहता है बिलीव इन योरसेल्फ ये है निगेटिव का पॉजिटिव इफेक्ट,हार्ड न्यूज़ बहुत से अखबार दे रहे हैं पर आईनेक्स्ट इससे एक कदम आगे निकला उसने लोगों को मोटीवेट किया.जिन्दगी में अगर प्रोब्लम न हो तो लाईफ का सस्पेंस खत्म हो जाएगा, फिर क्या लेट्स फेस इट यार. एक छोटा सा अखबार आज तेरह एडिशन और  पांच स्टेट में अपनी प्रेसेंस को लगातार बड़ा बना रहा है.इसमें कोई शक नहीं रीडर्स के अफेक्शन और सपोर्ट के बिना ये पोसिबल नहीं हो सकता.आई नेक्स्ट के सपने की ये कहानी भले ही आपको सपने जैसी लगे लेकिन भरोसा रखिये   इस दुनिया में जो कुछ बेहतर हो रहा है उसके पीछे किसी न किसी का सपना जरूर है अगर हमने हवा में उड़ने का सपना न देखा होता तो शायद आज हम एयरोप्लेन  की जर्नी  को  एन्जॉय नहीं कर रहे होते . ह्यूमन सिविलाइजेशन  का डेवेलपमेंट  इसी सपने का ही परिणाम है जो हमारे पूर्वजों ने देखा इसलिए सपने देखिये लेकिन ध्यान रहे सिर्फ़ सपने देखने से कुछ भी न होगा उन सपनों को हकीकत में बदलने की कोशिश कीजिये, और अगर किसी कारण से आपका सपना हकीकत न भी बन पाए तो उस सुंदर सपने को आने वाली पीढीयों के लिए छोड़ जाइये सपने सिर्फ़ हमारे  हैं जिन्हें हम से कोई नहीं छीन सकता है तो सपने देखना मत छोडिये अगर एक सपना पूरा हो तो दूसरा सपना देखिये. हम आज अगर बढे हैं तो कहीं न कहीं उसमे हमारे और आपके सपनों का योगदान जरूर है. जिन्दगी में हमें जो मिला है या तो उससे संतुष्ट हो जाएँ या जिन्दगी को बेहतर बनांने की कोशिश करते रहें क्योंकि जिन्दगी रुकती तो नहीं किसी के लिए. आईनेक्स्ट चल भी रहा है और लगातार बदल भी रहा है.बढ़ने और बदलने के इस सिलसिले में हम लगातार आपके करीब आ रहे हैं आपसे संवाद स्थापित कर रहे हैं आपकी राय हमारे लिए अनमोल हैं तो हमें एस एम् एस, ई मेल या सोशल नेटवर्किंग जैसे किसी भी मीडियम से बताते रहिये कि आप क्या चाहते हैं तभी बढ़ने और बदलने का मजा भी है सफलता तभी मजा देती है जब आपके पास कोई बांटने वाला हो,हम खुशनसीब हैं की हमारे पास आप जैसे रीडर्स हैं तो हम भी आपको भरोसा देते हैं की बढ़ने और बदलने का ये सिलसिला आगे भी चलता रहेगा|
आई नेक्स्ट में 27/12/13 को प्रकाशित

Saturday, December 21, 2013

पर्यावरण की अनदेखी से न हो पर्यटन विकास

पिछले  कुछ वर्षों में देश में  होटलों की मांग में तेज़ी से वृद्धि हुई है। पर्यटन उद्योग का निरंतर विकास एवं विदेशी मुल्कों के साथ तेज़ी से बढ़ता व्यापार इस बढ़ती मांग के प्रमुख कारक हैं। एचवीएस हॉस्पिटेलिटी कंसल्टेंसी के मुताबिक अगले पांच साल में भारतीय होटलों में कमरों की संख्या 143 फीसदी बढ़ जाएगी और डेढ़ लाख कमरे बढ़ जायेंगेइसका अर्थ यह है कि पर्यटकों की बढ़ती संख्या का दबाव हमारे प्राकृतिक  संसाधनों पर और बढेगा तथ्य यह भी है कि पर्यटकों कि बढ़ती संख्या हमारे देश में रोजगार के नए अवसर पैदा करेगीसकल घरेलू उत्पाद में इजाफा होगा और बहुमूल्य विदेशी मुद्रा अर्जित होगी लेकिन  यदि बढ़ते पर्यटन से जुड़े पर्यावरणीय मुद्दों की अनदेखी की गयी तो इसके घातक  परिणाम हो सकते हैं। विकसित देशों ने पर्यटन से जुड़े पर्यावरणीय मुद्दों को गंभीरता से लिया  है। भारत जैसे देश में जहां पहले से ही पर्यावरण से जुड़े मुद्दों के प्रति संवेदनशीलता काफी कम हैवहां स्थिति ज्यादा खतरनाक हो सकती है । बढ़ते पर्यटन के साथ ही आवश्यकता होगी अधिक ऊर्जाअधिक पानीपर्याप्त  सफाई व्यवस्था और  बेहतर कूड़ा  प्रबंधन की और साथ ही यह समझने कि यदि इन मुद्दों पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया तो आगे चलकर यह पर्यटन व्यवसाय के लिए हानिकारक सिद्ध होगा। भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय ने नए बनने वाले एवं पहले से ही चालू होटलों के लिए कुछ दिशा-निर्देश बनाए हैं जिसमें  सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट,वॉटर हार्वेस्टिंग सिस्टमवेस्ट मैनेजमेंट सिस्टमजैसे  ईको-फ्रेंडली उपायों को अपनाना अपेक्षित है।  होटेलों के विभिन्न सितारा श्रेणियों में वर्गीकरण के समय यह उनके द्वारा अपनाए गए ईको-फ्रेंडली उपायों जैसे प्रदूषण नियंत्रणवातानुकूलन एवं रेफ्रीज़रैशन के लिए नॉन-सीएफसी उपकरणों का प्रयोगऊर्जा एवं जल संरक्षण आदि के लिए किए जाने वाले उपायों को भी ध्यान में रखा जाता है। भारतीय पर्यावरण मंत्रालय की वर्ष 2012-13 में प्रकाशित वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार सतत पर्यटन के मानदंड तैयार कर लिए गए हैं और इन्हें जल्दी से जल्दी लागू करने की कोशिश की जा रही है। एक बार इनके लागू हो जाने के बाद पर्यटन एवं आतिथ्य व्यवसाय से जुड़े सभी संगठनों के लिए इसे अपनाना अनिवार्य हो जाएगा।
सतत पर्यटन का विकास आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है लेकिन  यह विकास पर्यावरण की कीमत पर नहीं होना चाहिए । विकसित देशों में इस ओर काफी ध्यान दिया जा रहा है पर भारत में स्थिति चिंताजनक है। हम नए पर्यटन क्षेत्रों का विकास नहीं कर पा रहे हैं और पुराने पर्यटन क्षेत्र पर जरुरत से ज्यादा बोझ पड़ रहा है जिससे उनका पारिस्थितिकी संतुलन बिगड़ रहा है|उत्तराखंड में आयी तबाही एक ऐसी ही चेतावनी थी,जिसमें नदियों के जलमार्ग को ध्यान में रखे बगैर होटल बना लिए गए थे|होटल व्यवसाय पर्यटन उद्योग की रीढ़ हैं पर इनको अपनी सामजिक जिम्मेदारियों को भी समझना होगा|अंधाधुंध मुनाफाखोरी जहाँ पर्यटन उद्योग को क्षति पहुंचाएगी वहीं क्षेत्रीय पारिस्थितिकी तंत्र भी प्रभावित होगा जिसकी कीमत सबको चुकानी पड़ेगी  आवश्यकता इस बात की है कि अंधाधुंध मुनाफाखोरी केन्द्रित पर्यटन  विकास की जगह सतत पर्यटन विकास को ध्यान में रखते हुए नियम बनाए जाएँ और उन्हें सख्ती से लागू किया  जाए |
हिंदुस्तान में 21/12/13 को प्रकाशित 

Thursday, December 19, 2013

गरीब मास्टर की डायरी के कुछ पुराने पन्ने

 यादें भी अजीब होती हैं अब एल्बम का जमाना तो रहा नहीं पर पुराने स्टेटस देखना पुरानी यादों में जीना जैसा होता चार साल हुए इस वर्चुअल दुनिया को अपना हिस्सा बनाये हुए हम तो वहीं रहे पर कितने लोग आये और चले गए कमेन्ट ,लाईक और टैगिंग की सौगात देकर खोट मुझमें था या उनकी मजबूरियां कहना मुश्किल है सिलसिला जारी है पर मास्टर तो ठहरा मास्टर ज्ञान दे देता है लेना मुश्किल होता है| इस लेन देन के गुणा भाग में जिंदगी की रेखा गणित कब बीज गणित में तब्दील हो जाती है किसी को पता नहीं चलता |
(गरीब मास्टर की डायरी का पहला पन्ना ) 
"खड़िया" हाँ वो ही पहला शब्द था जिससे पहली बार जिंदगी ने कुछ सीखना शुरू किया था , "खड़िया" से शुरू हुआ सफर वर्चुअल दुनिया के की बोर्ड तक आ पहुंचा है पर वो खड़िया ही है जिसे मन आज तक नहीं भूला है जिंदगी की आपा धापी में बहुत कुछ भूला बहुत कुछ सीखा पर "खड़िया" का वो पहला पाठ जब आड़ी तिरछी रेखाओं से कुछ सीखने की शुरुवात की थी,आज भी मन को रोमांचित करती है |दुनिया कितनी भी बदल जाए "खड़िया" तुम मत बदलना क्योंकि जिंदगी की स्लेट तुम्हारे बिना खाली ही रहेगी |तुम सुन तो रही हो न......
(गरीब मास्टर की डायरी का दूसरा पन्ना )
ये आज तुम्हारे हैं पर हमेशा नहीं रहेंगे,गीता का ज्ञान है पर मुझे तो इनका होना पड़ता है बगैर किसी कारण भले ही ये मेरे कभी नहीं हो पाते,इस होने और न होने के बीच कट जाती है जिंदगी एक मास्टर की, और उनको पता भी नहीं पड़ता कि कभी कोई उनका हो जाता है |ये तो अपनी सुविधा से आपके होते हैं कोर्स खत्म रिश्ता खत्म हाँ आप भले ही यादों के सागर में कितने ही गोते लगाएं पर हासिल महज यादें ही होंगी वो तो चले जाते हैं आगे बढ़ने और मास्टर तो बेचारा मास्टर |
(गरीब मास्टर की डायरी का तीसरा पन्ना )
कैमरे की स्लो शटर स्पीड में आप गति को पकड़ सकते हैं पर जिंदगी की दौड में स्लो शटर स्पीड का कॉन्सेप्ट नहीं होता जिससे हम अपनी गलतियों की बारीकियों को जान पाते जो बीत जाता है वो बीत ही जाता है| सिर्फ जीतने की बातें करने से आप जीत नहीं सकते उसके लिए बहुत कुछ दांव पर लगाना पड़ता है |जब दांव भी आप अपनी मर्जी से लगाएंगे तो मुंह की खायेंगे, कुछ पाने के लिए प्राथमिकताएं तय करनी ही पड़ती हैं |
(प्राथमिकताओं की उधेड़ बुन में उलझे गरीब मास्टर की डायरी का चौथा पन्ना ) 
 हर साल चेहरे बदलते हैं किरदार नहीं क्लास का इतिहास बदलता है भूगोल नहीं, एक शिक्षक अपने विषय के अलावा कितना कुछ पढ़ रहा होता है ,क्लास में बनते बिगड़ते ग्रुप का अंकगणित कब समाजशास्त्र के बीजगणित में तब्दील हो जाता है और इससे शुरू हुआ राजनीति विज्ञान का सफर ना जाने कितनी लकीरें छोड़ जाता है ,उसका पता किसी को नहीं चलता|
(समाजशात्र की गणित में उलझे उस गरीब मास्टर की डायरी का पांचवां पन्ना, )
हर साल सेमेस्टर की परीक्षाओं के बीच कितना कुछ बदल जाता है दिसंबर के सेमेस्टर से जो संबंधों में गर्माहट आनी शुरू होती है वो गर्मी की परीक्षाओं तक पिघल चुकी होती है,वो अभी जाड़े को विदा भी नहीं कर पाया होता है कि गर्मी तपाने लगती है उसे तो यादों को सहेजने का मौका भी नहीं मिलता ,और उधर छात्रों को तो ज्ञान मिल चुका होता है पर मास्टर....... अपने ज्ञान के बोझ को ढोते हुए कब छात्रों के सामने सबसे बड़ा अज्ञानी साबित हो जाता इसकी गवाह छात्रों के बीच हुई कानाफूसी बनती हैं|
(जानते.. समझते... हुए अज्ञानी बनने का नाटक करते हुए भी ज्ञान बांटने का ढोंग करते गरीब मास्टर की डायरी का छठा पन्ना)
गर्मियों की छुट्टियों का आना और उनका चले जाना,परीक्षा हाल में छूटे नोट्स के साथ कहकहे लगाते छात्र मानो अपने संस्थान के साथ कपाल क्रिया (अंतिम संस्कार में की जाने वाली क्रिया जिससे मृतक अपने जन्म की यादों को भूल जाए )कर के जा रहे हों| कितने चेहरे घूम जाते हैं आँखों के सामने, अज्ञानी बनने की कोशिश करते सयाने ,सयाने बनने की कोशिश करते अज्ञानी|कौन कितना आगे जाएगा ये समय बताएगा | वे घर जायेंगे और धीरे धीरे सब कुछ भूल जायेंगे पर मास्टर को तो फिर आना है उन्हीं जगहों पर नयी कहानी लिखने| 
(छूटे हुए नोट्स और कहकहों के बीच क्या खोया क्या पाया, का हिसाब लगते गरीब मास्टर की डायरी का सातवां पन्ना ) 
 मैं ये करना चाहता हूँ, मैं वो करना चाहता ,हूँ पर करना क्या है? ये पता नहीं सच बोल देना कडुआ हो जाएगा और झूट बोलेंगे तो मीठी गोली देने की आदत है, क्योंकि जो कहा गया था वो हुआ नहीं |तुमने तो कह दिया ....पर मास्टर तो आज तक उन बातों को दिल से लगाए बैठा है कि गलती किसकी रही तुम जो कभी समझ नहीं पाए या उस मास्टर की जो समझा नहीं पाया |
(क्या सच है क्या झूठ उलझनों की सुलझन में उलझे गरीब मास्टर की डायरी की आठवां पन्ना )
एक मास्टर का जीवन बहुत छोटा होता है हर बैच के साथ वो जीता है और उसी के साथ खत्म होता है फिर नया बैच नया जीवन पर बच्चे बड़े नहीं होते वो तो हर बैच में बच्चे ही रहते हैं कुछ सेंटी ,कुछ चुप्पे, कुछ घुटे हुए ,कुछ तपे हुए ,कुछ निर्लिप्त पर मास्टर तो सबके लिए एक जैसा ही होता है तो सबक जो वो खुद नहीं सीख पाता है उसको सिखाने की कोशिश करता हुआ | "जाने वाले पे ना ऐतबार कर आने वाले का तू इंतज़ार कर, आज का ये दिन कल बन जाएगा कल पीछे मुड के न देख प्यारे आगे चल" 
(आने जाने के फेर में ऐतबार और इन्तजार के बीच में झूलते गरीब मास्टर की डायरी का नवां पन्ना )
मास्टर छात्रों की जिंदगी में अपनी मर्जी सी आता है पर जाने का फैसला उसके हाथ में नहीं,उनके हाथ में होता है, इस मामले में ये सभी बड़े निष्ठुर होते हैं |सर आप कितना अच्छा पढाते हैं, ये वाक्य हर बैच के साथ बदलता है पर नहीं बदलता तो उनका रवैया जिनको लगता है कि वो कितने समझदार हैं,  लेकिन मास्टर का आंकलन उसके दिए हुए ज्ञान से नहीं बल्कि छात्रों के बनाये गए बहानों को सच मानने से होता है |
(छात्रों के झूठ को जिंदगी का सच मान बैठे गरीब मास्टर की डायरी का दसवां पन्ना,जनता की बेहद मांग पर )
इसे मेरे ब्लॉग पर भी पढ़ सकते हैं

Tuesday, December 10, 2013

खामोशियाँ मुस्कुराने लगीं

आपने कभी सन्नाटे की आवाज सुनी है क्या ? सुनी तो जरुर होगी पर समझ नहीं पाए होंगे यूँ तो एक्सेस किसी भी चीज की बुरी होती है पर  लोग बिना बोले बहुत कुछ कह जाते हैं और कुछ लोग दिन भर बोलने के बाद भी मतलब का कुछ भी कम्युनिकेट नहीं कर पाते.वो गाना तो आपने भी सुना होगा न बोले तुम न मैंने कुछ कहा,तो भैया ये तो सिद्ध हुआ कि बगैर बोले भी बहुत कुछ कहा जा सकता है मगर कैसे ? बोलने का काम हमारी जबान ही नहीं करती बल्कि आँखों से लेकर पैर तक हमारे सभी अंग बोलते हैं तो कम्युनिकेशन में बॉडी लेंग्वेज का भी बड़ा इम्पोर्टेंट रोल है.दुनिया के बहुत से अभिनेताओं की खासियत यही रही है कि वे अपनी आँखों से बहुत कुछ कह देते हैं. प्रख्यात अभिनेता चार्ली चैपलिन ·को ही  लें, जिन्होंने अपनी मूक  फिल्मों ·के माध्यम से सालों तक  लोगों का मनोरंजन किया. उनकी  फिल्में देखते वक्त आपको  ·किसी संवाद ·की  आवयश्·ता ही महसूस नहीं होती. हमारी हिन्दी फिल्में भी अपने शुरुआती दौर में मू·क ही थीं लेकिन  उस दौर में भी उन्होंने लोगों ·का  खूब मनोरंजन ·किया और सराही गईं.
कई बार ज्यादा बोलने से शब्द अपना अर्थ खो देते हैं अरे अब आई लव यु को ही लीजिये फिल्मों में इस शब्द का इतना इस्तेमाल हुआ की अब मैं रील लाईफ या रीयल लाएफ़ में ये शब्द सुनता हूँ तो बस बेसाख्ता हंसी आ जाती है.प्यार एक फीलिंग है उसे एक शब्द में बाँधा या समेटा नहीं जा सकता वैसे फीलिंग से याद आया फीलिंग भी आजकल बिजली के बल्ब जैसी हो गयी है अचानक आती है और अचानक चली जाती है.जानते हैं ऐसा क्यूँ होता.चलिए मैं समझाता हूँ आपको,हम कुछ भी कहते हैं तो उससे पहले सोचते हैं ये बात अलग है की ये प्रोसेस इतना जल्दी होता है की हमें पता ही नहीं पड़ता की जो कुछ हम फटाफट बोले जा रहे हैं वो पहले हमारा दिमाग सोच रहा है उस सोच को शब्दों का लबादा ओढ़ा कर जब हम फीलिंग के साथ एक्सप्रेस करते हैं तो सुनने वाले पर असर होता है.लेकिन ये जरुरी भी नहीं की हर फीलिंग को एक्सप्रेस करने के लिए आपके पास शब्द हों ही तब क्या किया जाए जैसे खीज या फ्रस्टेशन.आप गुस्सा हैं तो चीख चिलाकर आप अपना गुस्सा निकाल सकते  हैं लेकिन  आप खीजे हुए हैं तो क्या बोलेंगे और जो कुछ भी बोलेंगे उसका मतलब सामने वाला समझेगा भी कि  नहीं,क्या पता और तब काम आता है मौन,मौन यानि साइलेंस.चुप्पी या सन्नाटा हमेशा कायरता की निशानी नहीं होती है.ये तो भावनाओं की भाषा होती है जो आप शब्दों से नहीं बोल सकते वो आप अपने मौन से बोल सकते हैं. पर हमें बोलने से कहाँ फुरसत बस बोले जा रहे हैं.सोशल नेटवर्किंग साईट्स ने हमें अपनी बात रखने का मंच दिया है पर क्या जरुरी है की  हम हर मुद्दे पर अपनी राय दें.मैं तुमसे प्यार करता हूँ ,मैं तुमसे गुस्सा हूँ ,मैं तुमसे खुश हूँ इतना काहे को बोलना कुछ सामने वाले को समझने भी दीजिये.एक्सप्रेशन जरुरी है पर उसके लिए हमेशा शब्दों पर निर्भर मत रहिये वैसे भी पर्सनाल्टी डेवेलपमेंट के इस युग में हमें बोलना जरुर सीखाया जाता है पर चुप रहना नहीं वैसे भी जब मौन बोलता है तो उसकी आवाज भले ही देर में सुनायी दे पर बहुत दूर तक सुनायी देती है.हम अपनी लाइफ से जब बोर हो जाते हैं, अपने आस पास के शोर शराबे से दूर भागने ·का मन करता है, ·किसी  से भी बात नहीं ·करना चाहते. तो क्या आपने ऐसे समय में ·भी खुद ·को  एकांत  में रखा है। अगर ऐसे समय में हम ·कहीं  बिलकुल  शांत जगह पर बैठ जायें तो हम बिना ·कुछ  कहे सुने खुद से ही बातें क·रने लगते हैं और फिर अपने आप ही हमें हमारी समस्याओं का समाधान सूझने लगता है.प्यार मुहब्बत के किस्सों में तो खामोशी से प्यार पैदा होने की बातें अक्सर होती रहती हैं.घर में आपका डौगी हो या कोई दूसरा जानवर कितनी जल्दी आपकी बॉडी लैंग्वेज से समझ जाता है कि आप खुश हैं या उदास.यानि एक  बात साफ है कि हम बगैर बोले अपनी फीलिंग्स को एक्सप्रेशन दे सकते हैं  और ऐसे एक्सप्रेशन बहुत ख़ास होते हैं. रिश्तों ·की  गर्माहट तो खामोशियों ·के  दौरान होने वाले कम्युनिकेशन से समझी जा सकती हैं.किसी ने क्या खूब कहा  कि खामोशियां मुस्कुराने लगी .... तन्हाईयां गुनगुनानी लगीं..
आईनेक्स्ट में 10/12/13 को प्रकाशित 

Monday, December 2, 2013

अंगदान की परम्परा शुरू करने की जरुरत


दुनिया की बड़ी आबादी वाले देशों में से एक भारत में में प्रतिवर्ष लगभग 5,00,000लोग वक़्त पर अंग न मिल पाने के कारण मौत का शिकार हो  जाते हैं।इन सारे लोगों को बचाया जा सकता था यदि भारत में स्वैच्छिक रूप से लोग अंगदान करते|ज्यादातर उन्हीं लोगों को समय रहते अंग मिल पाते हैं जो आर्थिक  रूप से संपन्न होते हैं|आर्थिक सम्पन्नता के इसी आधार के कारण मानव अंगों के अवैध कारोबार को बढ़ावा मिलता है| एक व्यक्ति द्वारा किये गए अंगदान से सामान्य रूप में  लगभग सात व्यक्तियों को जीवनदान मिल सकता है।अंगदान में एक बड़ी समस्या अस्पतालों द्वारा समय से रोगी को मष्तिस्क मृत (ब्रेन डेड ) घोषित न कर पाना भी है जिससे मृतक व्यक्ति के अंग खराब होने लगते हैं| वर्ष 1994 में सरकार ने ‘मानवीय इंद्रियों के प्रत्यारोपण के लिए अधिनियम, 1994’ कानून बनाया ताकि विभिन्न किस्म के अंगदान और प्रत्यारोपण गतिविधियों को सुचारु रूप दिया जा सके। चिकित्सकीय कार्यों के लिए मानवीय इंद्रियों को निकालने, उनका भंडारण करने और उनके प्रत्यारोपण को नियमित करने के अलावा इस कानून का मकसद था कि इंद्रियों के व्यावसायिक लेन-देन को रोका जा सके, ब्रेनडेड को स्वीकार किया जाए और इन मरीजों को संभावित इंद्रियदाताओं के तौर पर प्रयुक्त किया जाए। ध्यान रहे कि प्रस्तुत अधिनियम ने पहली दफा ब्रेनडेड की अवधारणा को कानूनी जामा पहनाया। यह कानून अन्य देशों में प्रयोग में लाये जाने वाले क़ानूनों से कुछ अधिक कठोर है। किसी भी व्यक्ति को ब्रेन-डेड घोषित करने एवं उसके अंगों के प्रत्यारोपण का कार्य केवल चंद अधिकृत अस्पताल ही कर सकते हैं। किसी को ब्रेन-डेड घोषित करने के लिए कम से कम चार डॉक्टरों सहमति होनी आवश्यक है। साथ ही यह परीक्षण 6 घंटों के अंतराल पर करना होता है और समय के जरा सा भी अधिक हो जाने पर अंगदान मुश्किल हो जाता है। अन्य कई देशों में किसी को भी ब्रेन-डेड घोषित करने के लिए केवल दो डॉक्टरों की सहमति चाहिए होती है और दो परीक्षणों के मध्य कोई निश्चित अंतराल रखना भी आवश्यक नहीं है। 1994 में बने इस अधिनियम की कुछ खामियों को मानव अंग प्रत्यारोपण (संसोंधन) अधिनियम, 2011 में दूर करने की कोशिश की गयी है। इस अधिनियम के अंतर्गत नेशनल ऑर्गन एवं टिशू ट्रांसप्लांट ऑर्गनाइजेशन (एन ओ टी टी ओ) की स्थापना की गयी। इसका मुख्य कार्य होगा देश भर में अंगदान से जुड़ी विभिन्न प्रक्रियाओं एवं गतिविधियों पर नजर  रखना। भारत में प्रति दस लाख  व्यक्ति अंगदान करने वालों की संख्या सिर्फ 0.8 है। यह संख्या विश्व के नया देशों की तुलना में नगण्य है। भारत में इस संख्या के कम होने के पीछे कई कारण हैं जैसे सही जानकारी का अभाव, धार्मिक मान्यताएँ, सांस्कृतिक भ्रांतियाँ और पूर्वाग्रह। विकसित देशों जैसे अमेरिका, ब्रिटेन, नीदरलैंड्स और जर्मनी में यह संख्या औसतन 10 से 30 के बीच है। स्पेन में प्रति दस लाख लोगों में 35.1 अंगदान करते हैं। इसका प्रमुख कारण है की स्पेन, बेल्जियम, सिंगापुर और कुछ अन्य देशों में अंगदान ऐच्छिक  न होकर अनिवार्य है। हालांकि भारत में ऐसा कर पाना फ़िलहाल  संभव नहीं है परंतु उचित जानकारी एवं  जागरूकता पैदा कर इस संख्या को बढ़ाया जा सकता है। हर साल देश में  50,000हजार हार्ट ट्रांसप्लांट , 2,00,000 लीवर ट्रांसप्लांट 30,000 बोन मैरो ट्रांसप्लांट एवं 15,00,00 किडनी ट्रांसप्लांट की जरूरत होती है लेकिन इसका लाभ  दो  प्रतिशत मरीजों को भी नहीं मिल पाता  है |
हिंदुस्तान में 2/12/13 को प्रकाशित 

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