Wednesday, December 31, 2008

चला मैं चला


प्रिय दोस्तों 
मैं साल २००८ हूँ ,चौंक गए न, मैंने आप सभी के साथ काफी अच्छा वक्त गुजारा तो सोचा मैंने इस दुनिया को किस तरह समझा इस राज़ को आपके साथ बाँटता चलूँ .चलते-चलते क्यों ना अपनों से अपनी बात कर ली जाए .जिस तरह दुनिया का नियम है जो आया है उसे जाना है .मेरा भी जाने का वक्त हो गया है और मुझे इसे एक्सेप्ट करने में कोई प्रॉब्लम नहीं है और वैसे भी लाइफ में जो भी जैसे मिले अगर उसे वैसे ही एक्सेप्ट कर लिया जाए तो जिन्दगी थोड़ी आसान हो जाती है .ये है मेरा पहला सबक जो मै आपके साथ बांटना चाहता हूँ .
मुझे याद है जब मै आया था तो लोगों ने तरह तरह से खुशियाँ मना कर मेरा स्वागत किया था वे मानते थे कि मैं उनके जीवन में खुशियों की बहारें लेकर आऊंगा. कुछ की उम्मीदें पूरी हुई ,कुछ की उम्मीदें टूटी और कुछ को मायूसी हाथ लगी और अब उम्मीदों का बोझ मेरे छोटे भाई साल २००९ पर होगा .जाते साल का दूसरा सबक किसी से एक्सपेकटशन मत रखिये, क्योंकि अगर एक्सपेकटशन नहीं पूरी होंगी तो परेशानी होंगी .दिन तो इसी तरह से बीतते जायेंगे साल आते रहेंगे और जाते रहेंगे और हर साल लोग न्यू इयर से उम्मीदें लगाते रहेंगे.और यही उम्मीद हमें जीने की और आगे बढ़ने का मोटिवेशन देती है लेकिन कोरी उम्मीदों से लाइफ न तो बदलती है और न ही आगे बढ़ती है इसके लिए प्रयास अपने आपको करना पड़ता है ये प्रयास ही हमारी लाइफ को बेहतर बना सकता है .आप सभी न्यू इयर सलेबेरेशन की प्रेपरेशन में बिजी होंगे .साल के पहले दिन कहाँ पार्टी करनी है क्या रेसोलुशन लेना है लेकिन मैं जानता हूँ जैसा कि मेरे साथ हुआ है और मेरे छोटे भाई २००९ के साथ भी होगा .साल के पहले दिन का स्वागत आप जिस जोश और उमंग के साथ करेंगे वो आधा साल बीतते न जाने कहाँ गायब हो जाएगा .वो रेसोलुशन जो साल के पहले दिन हमने लिए थे हम आधे साल भी उन्हें निभा नहीं पायेंगे. और वो नया साल जिसका आप बेकरारी से इंतज़ार कर रहे थे आप को प्रॉब्लम देने लगेगा .तीसरा सबक सफलता के लिए डेडिकेशन के साथ कनसिसटेंसी भी जरूरी है .मैंने पिछले एक साल में जिन्दगी के कई मौसम देखें जिन्दगी कहीं गरमी की धूप की तरह गरम लगी , कभी बरसात की फुहार की तरह सुहानी और कभी सर्दी की ठंडी रातों की तरह सर्द ,मैंने होली ईद और दिवाली में सुख और उल्लास के पल देखे वहीँ मुंबई , जयपुर ब्लास्ट में इंसानी हैवानियत के साथ दुःख के पलों का सामना किया लेकिन मैं चलता रहा बीती बातों को छोड़ते हुए तो मेरा चौथा सबक परेशानियों की परवाह किए बिना अपना काम करते रहें क्योंकि कोई इन्सान महान नहीं होता , महान होती है चुनोतियाँ और जब एक आदमी इन्हें स्वीकार करें तब वो महान कहलाता है ।साल के सारे दिन एक जैसे ही होते हैं हर सुबह सूरज निकलता है और शाम होती है बस जिन्दगी के प्रति हमारा नजरिया और आगे बढ़ने की चाह साल के हर दिन को खुशनुमा और नए साल के पहले दिन जैसा बना सकती है और अगर आप ऐसा कर पाये तो आपको खुशियाँ मनाने और नए रेसोलुशन लेने के लिए नए साल का इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा हर दिन खुशनुमा होगा और तब शायद जाते हुए साल को जाते हुए इतना दुःख भी न होगा जितना मुझे हो रहा है. तो नया साल नई बातों नई सोच का कुछ कर गुजरने का साल होना चाहिए .अपने आप से वादा कीजिये कि कुछ नया होगा ,जिन्दगी में , पर्सनल लाइफ में, प्रोफेशन में कुछ अलग एंड आय होप ये साल यूं ही नहीं गुजर जाएगा.आप सब के साथ बिताये पलों की मधुर स्मर्तियों के साथ मै जा रहा हूँ फ़िर न कभी न आने लिए तो जाते साल का अन्तिम सबक जिन्दगी आज का नाम है जो दिन आज बीत गया वो फ़िर कभी नहीं आएगा चाहे आप कुछ भी कर लें इसलिए जिन्दगी को जी भर कर जी लीजिये , क्योंकि कल किसने देखा कल आए न आए ?

इस नए साल में कुछ नया कीजिये
जो किया है उसके सिवा कीजिये
ख़त बधाई का बेशक लिखें दोस्तों
दुश्मनों के लिए भी दुआ कीजिये .

शुभकामनाओं के साथ हमेशा के लिए विदा
सिर्फ़ आपका

साल २००८।
आई नेक्स्ट मैं ३१ दिसम्बर को प्रकाशित

Monday, December 15, 2008

आइये फ़िल्म देखें

आज बहुत दिनों के बाद अपने हॉस्टल के दिनों की याद ताज़ा हो आयी और इस बात के एहसास भी हुआ की चाहे कितने डी वी डी / वी सी आर / टी वी के युग आते जाते रहें फिल्मों के प्रति जो दीवानगी भरिया जनता में है वो मंद जरूर हो सकती है ख़तम नहीं हो सकती है .मैं आज गज़नी फ़िल्म देखने गया बहुत अरसे बाद ब्लैक में टिकेट खरीदे हर जगह हाउस फुल .में बात हॉस्टल के दिनों की कर रहा था वो अज़ब ही दिन थे .उदैपुर की हसीं वादिया सिर्फ़ मस्ती भरे दिन हर शुक्रवार को पहला दिन पहला शो देखना और दोस्तों पर रौब ग़ालिब कर देना की गुरु निपटा दी .हालाँकि हॉस्टल छोड़ने से पहने जो मैंने आखिरी फ़िल्म देखी थी वो पहला शो न होकर आखिरी शो था दिन का मतलब निघत शो ९ से १२ . फ़िल्म थी तिरंगा शायद आपको याद हो जॉनी अपने राज कुमार साहब और नाना पाटेकर की जुगलबंदी .हॉस्टल से भाग कर उदैपुर के पारस सिनेमा हाल देखी क्या माहौल था हॉल में हर संवाद पर रेज्गारियों की बरसात , सीटियाँ , तालियाँ और बहार हाउस फुल का बोर्ड चलते चलते ये भी बता दूँ रात में फ़िल्म देखकर लौट ते वक्त पुलिस ने रोका इतनी रात कहाँ बताया पिक्चर देखकर बस फ़िर क्या था पकड़ लो वार्डेन को ख़बर करो .ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे , अगले दिन मुझे ११ क्लास में टॉप करने का पदक मिलना था ये सोच कर सिहर गए की कल बड़ी बदनामी होगी लेकिन पुलिस वालों को भी रहम आ गया और समझा कर छोड़ दिया की नैएट शो मत देखा करो ऐसा था हम लोगों का फ़िल्म देखने का शौक मतलब फ़िल्म के लिए कुछ भी करेगा काफी कुछ किया भी लेकिन वो कहानी फ़िर सही .खैर थोड़ा इमोशनल हो गया था असल में सीन ईस्ताब्लिशेद करना था की गज़नी देखकर मुझे आज से करीब १५ साल पहले का हॉल का माहौल याद आ गया .कमोबेस लखनऊ के सारे हाल हाउस फुल और आमिर खान की इंट्री पर जोरदार स्वागत मैंने भी फ़िल्म का लुत्फ़ लिया खासकर इंटरवल से पहले का बाद में तो वही पुरानी कहानी बदला लेकिन नायक के कुछ न कर पाने का एहसास आमिर ने बखूबी किया बहुत दर्द का एहसास कराया बाकी सब तो ठीक था लेकिन एक जगह अगर मैंने सही सुना तो स्क्रिप्ट पर इतना गौर करने की बाद भी एक गलती हो ही गयी है वोह है मुंबई से गोवा जाते वक्त आसिन जिस लडकी को ट्रेन में बचाती है वो अपने आप को लातूर का निवासी बताती है जबकि ख़बर जब आई बी एन ७ से प्रसारित होती है तो लड़कियों को उत्तर भारत के गाँव का बताया जाता है .ये उत्तर भारतियों के प्रति कोई पूर्वाग्रह है या कोई त्रुटी कह पाना मुश्किल है . कैमरा संगीत बहुत उत्तम है .गज़नी का किरदार बहुत भौंडा है एक मेडिकल कॉलेज के समारोह में मुख्या आतिथि बनकर जाने वाला व्यक्ति कैसा बेवकूफ हो सकता है या एक बेवकूफ कैसे एक बड़ी दवा कंपनी का मालिक हो सकता है जो लोगों की ह्तायेन करता रहता है वगैरह वगैरह .तो ये थी गज़नी की कहानी हमारी जुबानी जिन्दगी के किसी मोड़ पर फ़िर मुलाकात होगी

Thursday, December 11, 2008

मैं लखनऊ हूँ

मत पूछिये अहले दिल क्या हाल है लखनऊ
हर शहर हर दयार से बढ़कर है लखनऊ

में ऐसा ही हूँ जी हाँ में लखनऊ हूँ मुझे बसाया भले ही भगवान राम के भाई लछमन ने लेकिन मुझे सजाने सवारने का काम किया नवाबों ने इस तरह मैं गंगा जमुनी तहजीब की जीती जागती मिसाल हूँ, लखनऊ हर वक्त में कुछ खास रहा है ज्यादा पीछे न जाते हुए मैं अपनी बात नवाबों से शुरू करूँगा नवाबी दौर में , मैं अपने अदब ,तहजीब , और तमीज के लिए जाना जाता था बाद में मेरी पहचान बने दशहरी आम ,चिकनकारी और मीठी खुशबू दार रेवडियाँ ,वक्त बदलता रहा और मैं भी ,मेरे सीने पर गुजरने वाले इक्के तांगों की आवाज़ मेरे कानों में मीठा रस घोलती थी लेकिन कब इसकी जगह सरपट फर्राटा भरते दोपहिये और चोपहिये वाहनों ने ले ली इसका मुझे पता भी न चला , बारह महीने चलने वाला पतंगबाजी का दौर कब साल के कुछ दिनों में सिमट गया , अपने घरों में खुशबूदार जायेकेदार खाना पकाने वाले लोगों ने जगह जगह खुले फ़ूड कार्नर के पकवानों का लुत्फ़ लेना शुरू कर दिया इसका भी एहसास मुझे न हुआ , हुक्के चिलम का दौर कब ख़तम हुआ और उनकी जगह मॉडल शॉप ने ले ली ये मंज़र भी मैंने देखा , मैंने ये भी देखा की पुराने लखनऊ की याद को ताज़ा करने और पुराने दौर को जीने के लिए लखनऊ के लोगों ने लखनऊ महोत्सव मनाना शुरू कर दिया .
समय वाकई बहुत तेज़ी से बदलजाता है मुझे इन सारे बदलावों से कोई शिकायत नहीं है क्योंकि अगर बदलाव न हो रहे होते तो मैं कब का मिट गया होता , परिवर्तन तो आगे बढ़ते रहने की निशानी है ये बदलाव होते रहेंगे तो मैं भी आगे बढ़ता रहूँगा . मैंने देखा अक्सर लोग शिकायत करते हैं कि मैं अब पहले जैसा नहीं रहा ? क्या कोई इंसान हमेशा एक जैसा रहता है बच्चा कभी तो बड़ा होगा ही . मैं यही कहूँगा कि लोग भी अब पहले जैसे नहीं रहे .पुराने ज़माने में आबादी कम थी सिर्फ़ खेती से लोगों का काम चल जाता था और समय भी खूब रहा करता था और समय के सदुपयोग के लिए लोग पतंगबाजी किया करते थे शादियाँ तीन दिन में हुआ करती थीं पढ़ाई का महत्व लोग ज्यादा नहीं समझते थे . हर काम खरामा -खरामा (धीमे -धीमे ) हुआ करता था .
अब समय बदल चुका है मैं नहीं चाहता कि लोग २१वीन शताब्दी में भी मुझे सिर्फ़ नवाबों के कारण जाने , मैं नहीं चाहता कि लोग मुझे पिछडे शहर के नाम से जाने .बदलती दुनिया की रफ़्तार से कदम मिलाये रखने के लिए मुझे भी दौड़ना होगा .हम सिर्फ़ पुराने चित्रों के एल्बम देखते हुए और अतीत के गौरव को याद करके जिन्दगी न तो बिता सकते हैं और न ही उसे बेहतर बना सकते हैं नए एल्बम बनाने के लिए कुछ नया करना पड़ेगा , नहीं तो फर्क क्या रहेगा नए और पुराने लखनऊ में और तभी एल्बम भी नया बन पायेगा .
मेरे ऊपर जनसँख्या का दबाव बढ़ रहा है लेकिन उसी लिहाज़ से रोज़गार के अवसर भी बढे हैं .लखनऊ के लोग अब जिंदगी बिता नहीं रहे हैं बल्कि जी रहे हैं . लखनऊ महोत्सव जिन्दगी के महोत्सव हो जाने का उल्लास है .हर्ष है कि हम आज भी अपने अतीत और उससे जुडी हुई चीज़ों पर गर्व करते हैं लेकिन उन्हें ढोते नहीं हम आगे बढ़ना जानते हैं . हवाई जहाज़ के इस दौर मैं हम इक्के से कितनी दूर दौड़ पायेंगे इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है . आज लखनऊ शिक्षा और वज्ञानिक अनुसंधान केन्द्रों के मामले में भारत के नक्शे पर बहुत तेज़ी से उभरा है और इसका श्रेय यहाँ के बाशिंदों को जाता है जो पुरानी चीज़ों से चिपके नहीं रहे . ठहरा पानी गन्दा होता है बहता पानी साफ़ मैं बहता रहा हूँ और बहता भी रहूँगा. लखनऊ फ़ैल रहा है और विकसित भी हो रहा है
लखनऊ महज़ गुम्बद -ओ- मीनार नहीं
कूचा -ऐ -बाज़ार नहीं
इसके दामन में मुहबत के फूल खिलते हैं
इसकी गलियों में फरिश्तों के पते मिलते हैं


दैनिक जागरण लखनऊ में ११ दिसम्बर को प्रकाशित

Tuesday, December 9, 2008

मुस्कराहटों का मौसम

सर्दियों का मौसम आ गया आप भी सोच रहे होंगे की मै कौन सी नयी बात बता रहा हूँ. गर्मियों के बाद जाडा ही आता है और ये तो हमेशा से होता आया है इस जाडे के मौसम में रजाई लपेटे हुए मैंने फिल्मी गानों से मौसम के फलसफे को समझने की कोशिश की अब इस सर्दी के मौसम को ही लीजिये न ये मौसम बहुत ही अच्छा माना जाता है सेहत , खान -पान और काम काज के लिहाज़ से तो यूँ कहें कि मौसम गुनगुना रहा है गीत खुशी के गा रहा है (फ़िल्म :सातवां आसमान ) भले ही ये सर्दी का मौसम हो लेकिन इसके आने से चारों तरफ़ गर्माहट आ जाती है खाने में , कपडों में , और रिश्तों में भी , ज्यादातर शादी फंक्शन्स जाडे में ही तो होते हैं . .मौसम मस्ताना रस्ता अनजाना (फ़िल्म:सत्ते पे सत्ता) लेकिन एक बात ज्यादा महत्वपूर्ण  है कि इसी मौसम में हमें गर्मी की कमी एहसास होता है. ये मौसम का जादू है मितवा (हम आपके हैं कौन )कुदरत ने हमें हर चीज जोड़े में दी है सुख -दुख ,धरती- आकाश , सर्दी-गर्मी , काला -सफ़ेद और न जाने क्या क्या और सही भी है अगर दुःख न होता तो हम सुख को समझ ही न पाते और देखिये न हम इंसान धरती के मौसम के बदलने का इंतज़ार कितनी बेसब्री से करते हैं और हर मौसम का स्वागत करते हैं .अलबेला मौसम कहता है स्वागतम (फ़िल्म :तोहफा ) लेकिन जब जिन्दगी का मौसम बदलता है तो हमें काफी परेशानी होती है .आप सोच रहे होंगे की जिन्दगी का मौसम कैसे बदलता है ?जवाब सीधा है सुख दुःख , पीड़ा निराशा , जैसे इमोशंस जिन्दगी के मौसम तो ही हैं . दुनिया के मौसम का टाइम साइकिल फिक्सड रहता है यानि चेंज तो होगा लेकिन एक सर्टेन टाइम पीरियड  के बाद लेकिन इससे एक बात तो साबित होती है बदलाव का दूसरा नाम मौसम है . मौसम आएगा जाएगा प्यार सदा मुस्कयेगा (फ़िल्म :शायद )जिन्दगी का मौसम थोड़ा सा अलग है इसके बदलने का टाइम फिक्सड नहीं है और प्रॉब्लम यहीं से शुरू होती है जब हम किसी चीज के लिए मेंटली प्रीपैरे न हों और वो हो जाए जिन्दगी का मौसम कब बदल जाए कोई नहीं जनता ये पोस्सितिव भी हो सकता है और निगेटिव  भी .पतझड़ सावन बसंत बहार एक बरस के मौसम चार (फ़िल्म :सिन्दूर ) बारिश के मौसम में हम बरसात को नहीं रोक सकते लेकिन छाता लेकर हम अपने आप को भीगने से बचा सकते हैं और यही बात जिन्दगी के मौसम पर भी लागू होती है यानि सुख हो या दुख कोई भी परमानेंट नहीं होता है यानि जिन्दगी हमेशा एक सी नहीं रहती है इसमे उतार चढाव आते रहते हैं मुद्दा ये है कि जिन्दगी के मौसम को लेकर हमारी तैयारी कैसी है.
कोई भी इंडीविजुअल   हमेशा ये दावा नहीं कर सकता है कि वो अपनी जिन्दगी में हमेशा सुखी या दुखी रहा है या रहेगा चेंज को कोई रोक नहीं सकता सुख के पल बीत गए तो दुःख के पल भी बीत जायेंगे .अमेरिका के प्रेसीडेंट ओबामा जिस दिन चुनाव जीते उसके एक दिन पहले उनकी नानी का निधन हो गया जिसे वो बहुत चाहते थे . दुख के साथ सुख भी आता है. अगर आपके साथ बहुत बुरा हो रहा है तो अच्छा भी होगा भरोसा रखिये.ऐसा हमारी आपकी सबकी जिन्दगी में होता है लेकिन हम सत्य को एक्सेप्ट करने की बजाय भगवान् और किस्मत न जाने किस किस को दोष देते रहते हैं अगर हम इसको मौसम के बदलाव की तरह एक्सेप्ट कर लें तो न कोई स्ट्रेस रहेगा और न ही कोई टेंशन लेकिन ऐसा हो नहीं पाता है जब हमारे साथ सब अच्छा हो रहा होता है तो हम भूल जाते हैं कि जिन्दगी संतुलन का नाम है और संतुलन तभी होता है जब दोनों पलडे बराबर हों लेकिन हम हमेशा सिर्फ़ सुख की आशा करते है लेकिन बगैर दुख को समझे सुख का क्या मतलब जिन्दगी के दौड़ में पास होने के एहसास को समझने के लिए फ़ेल होने के दर्द को समझना भी जरूरी है . जहाज़ सबसे सुरक्षित पानी के किनारे होता है लेकिन उसे तो समुन्द्र के लिए तैयार किया गया होता है बिना लड़े अगर आप जीतना चाह रहे हैं तो आज की दुनिया में आप के लिए कोई जगह नहीं है क्योंकि जिन्दगी का मौसम बहुत तेजी से बदल रहा है जैसे हम हर मौसम के हिसाब से अपना रहन सहन बदल लेते हैं वैसे हमें जीवन में आने वाले हर बदलाव का स्वागत करना चाहिए .
क्योंकि मौसम आएगा जाएगा प्यार सदा मुस्कयेगा (फ़िल्म :शायद)
तो इस बदलते मौसम का स्वागत मुस्कराते हुए करिए फ़िर मुलाकात होगी
आई नेक्स्ट में ९ दिसम्बर २००८ को प्रकाशित

Saturday, November 8, 2008

हर चेहरा कुछ कहता है

तेरे चेहरे में वो जादू है , जी हाँ चेहरे में भी जादू होता है यह सिर्फ़ एक फिल्मी गाने की पंक्तियाँ नहीं हैं बल्कि जिन्दगी की सच्चाई भी है. मुझे एक और गाना याद आ रहा है सलामी फ़िल्म का चेहरा क्या देखते हो दिल में उतर कर देखो न , बात एकदम खरी है दिल और चेहरे का एकदम सीधा सम्बन्ध है. लाख छुपाओ छुप न सकेगा राज हो कितना गहरा दिल की बात बता देता है असली नकली चेहरा . मेरी आदत है भीड़भाड़ में, सेमिनार में, ट्रेन की यात्राओं में मैं चेहरे मिलाया करता हूँ  .अगर अपरिचित का चेहरा अपने किसी परिचित से मिलता-जुलता हुआ तो मैं गिनने लगता हूँ कि दोनों की क्या-क्या अदाएं मिलती-जुलती हैं। ऐसे अपरिचितों से कभी बात करने की हिम्मत तो नहीं हुई, लेकिन मुझे लगता है कि हर चेहरा कुछ कहता है , अब इस गाने में तो यही कहा जा रहा है चेहरा है या चाँद खिला है (फ़िल्म :सागर )आईये आज चेहरे की भाषा को समझने की कोशिश की जाए.
                 रोज़ हम न जाने कितने चेहरे देखते हैं लेकिन कभी गौर नहीं करते असल में चेहरा हमारी पर्सनाल्टी  का आइना होता है और हर चेहरा कुछ कहता है लेकिन हम समझना चाहें तो , चेहरे से ही हमारी सोच और बॉडी लैंग्वेज का पता चलता है मतलब की परदे के पीछे क्या चल रहा है .डर से चेहरा काला पड़ जाता है गुस्से में चेहरा लाल हो जाता है ,शर्म से चेहरा गुलाबी हो जाता है और बीमारी में चेहरा पीला पड़ जाता है ये तो चेहरे के रंग हैं जो जिन्दगी की हलचल को बताते हैं पर ये रंग जो चेहरे पर दिखते हैं वह रियलिटी में हमारे दिल की भावनाएं होती हैं जो चेहरे पर दिखती हैं . हम अगर अन्दर से अच्छा महसूस कर रहे हैं तो चेहरे पर वो खुशी दिखेगी अगर दुखी हैं तो चेहरा डल दिखेगा अब जिन्दगी में सुख दुःख तो आते जाते रहेंगे और आप इससे बच नहीं सकते , तो क्यों न इनसे मुकाबला किया जाए प्रॉब्लम  से भागना कोई सॉल्यूशन नहीं हो सकता और चेहरे को अच्छा रखना है तो दिमाग को अच्छा रखना बहुत जरूरी है . दिमाग को अच्छा रखने का एक मात्र तरीका है कि अपना दिमाग हमेशा खुला रखा जाए और नए विचारों का स्वागत किया जाए यानि फ्लेक्सिबिल्टी जरूरी है किसी भी विचार से चिपका न जाए अगर मैं सही हूँ तो सामने वाला भी सही हो सकता है, अगर आपको कोई बात अच्छी लग रही है तो उसकी खुल कर तारीफ कीजिये अपनी किसी बात पर या अपने आप पर घमंड आपके चेहरे की खूबसूरती को ख़तम कर देगा . चेहरे की खूबसूरती का राज़ किसी फेयर नेस क्रीम में नहीं है बल्कि विचारों के खुलेपन  मे है . क्योंकि विचार ही तो हमारी आपकी सोच बनाते हैं और सोच ही आम इंसान को खास बनाती है और अगर आप ऐसा कर पाए तो लोग यही कहेंगे तेरे चेहरे से नज़र नहीं हटती .
                      चेहरे की बाहरी खूबसूरती को निखारने के अनेक प्रोडक्ट मार्केट में हैं लेकिन ये प्रोडक्ट आपके चेहरे को लांग लॉस्टिंग  खूबसूरती नहीं दे सकते ये खूबसूरती तो आपका दिमाग दे सकता है जो सोचता है समझता है इस छोटे से दिमाग को अगर आप खुला रखेंगे अपनी सकारात्मक सोच से तो आपका भी चेहरा निखरेगा .जिन्दगी में लाख दुःख हैं पीड़ा और चिंताएँ हैं फ़िर भी जिन्दगी खूबसूरत तो है ही न, हर एक के पास जिन्दगी को जीने के अपने कारण हैं पिता अपने बेटे के चेहरे को खुश देखना चाहता है पति पत्नी को और पत्नी पति को खुश देखना चाहती है टीचर अपने स्टूडेंट्स को , इन रिश्तों के दायरे को अगर बड़ा कर दिया जाए तो हर चेहरा खुशी से चमक रहा होगा .सोचिये की आपका कौन सा काम किसी के चेहरे पर मुस्कान सजा सकता है किसी को खुश कर सकता है उस काम की तलाश कीजिये और जिन्दगी को खूबसूरत बनाइये हाँ तो आज से उस काम की तलाश में लग जाइये और फ़िर देखिये आपका चेहरा भी कैसे दमकेगा और जो सेल्फ सटीस्फेक्सन मिलेगा उसका तो मज़ा ही अलग होगा चेहरे की खूबसूरती का राज हमारे पास ही है ख़ुद खुश रहिये और दूसरों को खुश रखिये तो आज से आप किसी खुशनुमा चेहरे को देखें तो उसकी सोच को सराहें और कहें तेरा चेहरा कितना सुहाना लगता है . जल्दी ही फ़िर मुलाकात होगी

आई नेक्स्ट में ६ नवम्बर को प्रकाशित

Tuesday, October 21, 2008

वक्त के साथ जरूरी है बदलाव :एक पाती बेटे के नाम

प्रिय बेटा
तुम्हारा ई मेल मिला .मैंने भी ई मेल करना सीख लिया है ये तो तुम देख ही रहे होगे अब मुझे तुमहें चिठ्ठी भेजने के लिए पोस्ट ऑफिस के चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे तुम्हारा भेजा हुआ मोबाइल मुझे तुम्हारा अहसास कराता है ऐसा लगता है कि तुम मेरे आस पास हो मैं तुमसे जब चाहूँ बातें कर सकता हूँ कितनी बदल गयी हैदुनिया मुझ जैसे ओल्ड एजेड परसन के लिए यह सब तो वरदान है लाइफ कितनी कम्फटेबल (comfortable) हो गयी है .तुमने लिखा है कि इस बार दीपावली पर तुम घर नही आ पाओगे दुःख तो हुआ लेकिन इस बात कि तस्स्सली भी है कि तुम भले ही कितनी दूर हो लेकिन मैं तुमसे जब चाहूँ बात कर सकता हूँ और विडियो कांफ्रेंसिंग से देख भी सकता हूँ .मैं जब पहली बार अपने घर से बहार निकला था तो चिठ्ठी को घर तक पहुँचने में सात दिन लग जाते थे और अमेरिका से तुम्हारा भेजा गया गिफ्ट दो दिन में मिल गया , पैसे भी मेरे अकाउंट में ट्रान्सफर हो गए हैं .शुगर फ्री चोकलेट तुम्हरी मां को बहुत पसंद आई.बेटा एक बात तुम मुझसे अक्सर पूछा करते थे कि पापा घर से स्कूल की दूरी तो उतनी ही रहती है लेकिन रिक्क्शे वाला किराया क्यों हर साल बढ़ा देता है मैं तुम्हें इकोनोमिक्स के जरिये किराया क्यों बढ़ता है समझाता था लेकिन मैं जानता था कि मैं तुम्हें समझा नहीं पा रहा हूँ .इतनी उमर बीतने के बाद मुझे ये समझ में आ गया है कि चेंज को रोका नहीं जा सकता है और अगर वह अच्छे के लिए हो रहा है तो हमें बाहें फैला कर उसका स्वागत करना चाहिए . जब तुमने पहली बार कंप्यूटर खरीदने की डिमांड की थी तो मैं बड़ा कन्फुज (confuse) था एक मशीन से पढ़ाई कैसे होगी लेकिन तुम्हारी जिद के आगे मुझे न चाहते हुए भी कंप्यूटर खरीदना पड़ा और इसी कंप्यूटर ने हम सब की जिन्दगी बदल दी शुरुवात में मुझे लगता था की उमर के आखिरी पडाव पर मै यह सब सीख कर क्या करूँगा मैं अपनी पुरानी मान्यताओं पर टिका रहना चाहता था .तुम्हें काम करते देख थोड़ा बहुत मैं भी सीख गया और आज जब तुम हम सब से इतनी दूर हो तुम्हारी कमी जरूर खलती है लेकिन लाइफ में कोई प्रॉब्लम नहीं है .मुझे याद है कि तुम्हारी इंजीनियरिंग की फीस के ड्राफ्ट के लिए मुझे आधे दिन की छुटी लेनी पड़ती थी और बैंक में धक्के अलग से खाने पड़ते थे आज एक ई मेल या फ़ोन पर ड्राफ्ट घर आ जाता है.मेरी पुरानी मान्यत्वाओं से तुम अक्सर सहमत नहीं रहा करते थे और रैस्न्ली मुझे समझाते भी थे समझता तो मैं भी था बेटा लेकिन चेंज एक झटके में नहीं होता .तुम जब पहली बार दीपावली में मिठायिओं के साथ चोकलेट के पैकेट ले आए थे तो मैंने तुम्हें डाटा था कि तुम अपनी परम्पराएँ भूलते जा रहे हो खील बताशे की जगह चोकलेट और डिजाइनर पैकिंग की मिठियां नहीं ले सकती शायद तुम्हें याद हो बेटा तुमने कहा था पापा परम्पराओं को जबरदस्ती नहीं थोपा जा सकता अगर खील बताशे के साथ चोकलेट आ गयीं तो बुरा क्या ? परम्पराएँ अपने टाइम को रिप्रसेंट करती हैं जब टाइम चेंज हो रहा है तो क्यों न परम्पराएँ भी बदली जायें .
वाकई तुम सही थे बेटा ई कामर्स से कागज और इंक की कितनी बचत हो रही है जिससे इंविओर्न्मेंट को फायदा मिल रहा है अपना शहर भी तेज़ी से बदल रहा है शौपिंग मॉल्स ,मल्टीप्लेक्स खुल रहे हैं अब खुशियाँ मनाने के लिए किसी त्यौहार का इंतज़ार नहीं करना पड़ता है जब तुम विदेश से लौटे थे तब हम पहली बार किसी होटल में खाना खाने गए थे , तुमने मुझसे से एक बात कही थी पापा सेविंग्स बहुत जरुरी है लेकिन आप खुशियाँ मनाने के लिए त्योहारों का इंतज़ार क्यों करते हैं आप होली दीपावली में मेरे कपड़े क्यों सिलवाते थे .हालाँकि उस वक्त मुझे तुम्हारी बात बुरी लगी थी . आज जब मैं अपने आस पास की दुनिया को देखता हूँ तब मुझे लगता है तुम सही थे मेरी उमर के तमाम लोग अपने ही बनाये नियम कानूनों में सिमटे रहना चाहते हैं वो बदलना तो चाहते हैं न जाने किस डर से वो हर चेंज को डर की नज़र से देखते हैं लेकिन तुम लोगों को देखकर लगता है कि तुम लोग जिन्दगी को एन्जॉय कर रहे हो और जीना इसी का नाम है तुम लोगों को अपने ऊपर भरोसा है रिस्क लेना का माद्दा है और रिस्क लेने वाला ही जीतता है मैंने जिन्दगी में रिस्क नहीं लिया और जिन्दगी भर क्लर्क बना रहा लेकिन तुमने मेरे लाख विरोध के बावजूद सरकारी नौकरी को छोड़ अपना बिज़नस शुरू किया और मुझे फख्र है कि मैं तुम्हारा फादर हूँ .खुश रहना मेरे बेटे
दीपावली की शुभकामनायें
तुम्हारा पापा
आई नेक्स्ट २१ अक्टूबर 2008 को प्रकाशित

Friday, October 3, 2008

समय प्रबंधन

दोस्तों अपने अक्सर सुना होगा लोग कहते हैं क्या बताएं समय ही नहीं मिलता करना तो बहुत चाहते हैं लेकिन समय की कमी आड़े आ जाती है वैसे सभी के लिए दिन भर में समय २४ घंटे का ही मिलता है लेकिन कोई उसका अधिकतम सदुपयोग करता है और जो नहीं कर पता है वो आज कल की भागती जिन्दगी में पीछे छूट जाता है अगर जिन्दगी में कदम से कदम, मिला कर आगे बढ़ना है तो आज की सबसे बड़ी जरुरत समय प्रबंधन ही है
प्रभावी रूप से समय के प्रबंध शुरू करने के लिए, आपको लक्ष्य निर्धारित करने की आवश्यकता है. उचित लक्ष्य निर्धारित करने के बिना, आप परस्पर विरोधी प्राथमिकताओं में फंसकर एक भ्रम पर अपना समय व्यर्थ नष्ट कर देंगे. बचपने में एक कहावत सुनी थी समय अमूल्य होता है समय के साथ बचपना तो कहीं पीछे छूट गया और दुनिया कितनी आगे निकल गयी लेकिओं इस कहावत का मतलब वैसे का वैसे ही है.
समय वाकई बहुत मूल्यवान है अब ये हमारे हाथ में है की हम समय का इस्तेमाल कैसे करते हैं ? कहते हैं न गया वक्त फ़िर हाथ आता नहीं तो समय के जाने से पहले इसका प्रबंधन इस तरह किया जाए की इसकी कमी न खले .शुरुवात अपने दैनिक जीवन से करते हैं यानि सबसे पहले जिन्दगी के कुछ लक्ष्य निर्धारित कीजिये और निश्चित समय में उन्हें पाने की कोशिश कीजिये.
ये लक्ष्य अपने करिएर से लेकर आपसी रिश्तों तक कुछ भी हो सकता है और उसके बाद अपनी प्राथमिकताओं का निर्धारण कीजिये कहने का मतलब यह है की जीवन के कई सारे लक्ष्यों में कौन सा लक्ष्य आपकी प्राथमिकता है जीवन के हर मोड़ के साथ हमारी प्राथमिकतायें बदलती रहती हैं कभी करिएर हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता होता है कभी परिवार .
समय प्रबंधन के बिना जीवन में सफलता की सीढियां नहीं चढी जा सकती हैं इसके लिए कुछ सुझाव पर अमल करें आप देखेंगे की आपके पास समय ही समय है ये उपाय हैं
* जीवन के बारे में स्पस्ट नजरिया रखें
*आप अपने आप से क्या चाहते हैं इसका स्पस्ट रूप से आप को पता हो जिससे आप उसी अनुरूप समय प्रबंधन कर सकें
*न कहने की आदत डालें जिससे आप लोगों के दबाव में न आकर अपने समय का दुरूपयोग को बचा पायेंगे
*लक्ष्य को स्पस्ट रखें उसी अनुसार कार्य करें
*सब चलता वाला रवैया छोड़कर अनुशासन का पालन करना चाहिए
*अपने सोने और उठने का समय निर्धारित करना चाहिए .
*अपने निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए लगातार प्रयास करते रहना चाहिए किंतु इसके लिए समर्पण और धैर्य का होना बहुत जरुरी है .
वैश्वीकरण की इस दुनिया में टिके रहने का एक ही रास्ता है आगे बढ़ते रहना और बढ़ते रहने के लिए जरुरी है की हमें अपने मंजिल का पता हो और रस्ते में आने वाली मुश्किलों का भी अंदाजा हो ऐसे में समय प्रबंधन से ही हम आगे बढ़ सकते हैं लेकिन इस बात का हमेशा ख्याल रखें कि जिन्दगी में सब कुछ आपके हिसाब से नहीं होगा और इस स्थिति का हम अपने जीवन में अक्सर सामना करते हैं.
ऐसी स्थिति आने पर न तो घबराना चाहिए और न ही अन्वाश्यक तनाव को अपने उप्पर हावी होने देना चाहिए
अन्वाश्यक तनाव आपको आपके लक्ष्यों से भटका सकता है धैर्यपूर्वक स्थिति का सामना कीजिये और अपने जीवन के लक्ष्यों को पुन: निर्धारित कीजिये और देखिये कितनी जल्दी आप सफलता के कितने करीब पहुँच जाते हैं . तो अब तक आप समझ चुके होंगे हमारी जिन्दगी में समय प्रबंधन की क्या अहमियत है तो इंतज़ार किस बात का है आज से ही अपनी जिन्दगी को व्यवस्थित कीजिये.
मुमकिन है सफर हो आसान अब साथ भी चल कर देखें
कुछ तुम भी बदल कर देखो कुछ हम भी बदल कर देखें
अब वक्त बचा है कितना जो और लड़े दुनिया से
दुनिया के नसीहत पर थोड़ा सा अमल कर देखें

आकाशवाणी लखनऊ से प्रसारित वार्ता

गाँधी जी के लिए

गाँधी जयंती मतलब टी वी पर गाँधी फ़िल्म , ड्राई डे , प्रभात फेरी रामधुन होलीडे बस अब हमारे लिए गाँधी जयंती के यही मायने हैं इस तेजी से बदलती दुनिया में हमें भी बदलना होगा नहीं तो पीछे छूट जाने का खतरा बना रहेगा तो इस बार गाँधी जयंती को मानाने का तरीका बदला जाएहम हैं नए अंदाज़ क्यों हो पुराना . लेकिन इसके लिए यह भी इम्पोर्टेंट है की गाँधी जी को और उनके विचारों को रियल सेंस में समझ लिया जाए गाँधी जी अभी आउट डेटेद नहीं हुए हैं वैसे गाँधी जी का दर्शन, गाँधी जितना ही सिंपल था. इसको समझने के लिए बुक्स पढने की जरूरत नहीं है जियो और जीने दो ख़ुद भी आगे बढो और दूसरों को आगे बढ़ने में मदद करो इसलिए गाँधी जयंती को हमें जिस तरह मनाने में खुशी मिलती है वही गाँधी जी को याद करने का सबसे बढ़िया तरीका है.आप सोच रहे होंगे की गाँधी का हमारी आज की लाइफ से क्या लेना देना ? थोड़ा सा दिमाग पर जोर डालिए ये सब कुछ हमारी जिन्दगी से जुडा हुआ मामला है गाँधी का दर्शन हमारी आज की लाइफ और दुनिया को बेहतर बना सकता है . गाँधी का जीवन ही उनका दर्शन था उनका सारा जीवन प्यार और अहिंसा की धुरी पर टिका हुआ था. गाँधी ने हमें प्यार और अहिंसा की ताकत का एहसास कराया माफी मांग लेना साहस का काम है कायरता नहीं. इस फिलोसफी को अगर हम अपनी लाइफ से जोड़े तो हमें लगेगा की यह तो आर्ट ऑफ़ लिविंग है. इसलिए जब तक लाइफ रहेगी गाँधी का आर्ट ऑफ़ लिविंग भी रहेगा.
अब इस आर्ट ऑफ़ लिविंग को भूलने का क्या रिजल्ट हो रहा है इसको समझने की कोशिश करते हैं .हमने कभी सोचा है कि हमारी आज की जिन्दगी इतनी कोम्प्लिकैटेद क्यों होती जा रही है ?एक झूट को सच बनाने के लिए सौ झूट बोलना पड़ता है चूँकि पैसेंस किसी के पास है नहीं इसलिए कोई वेट नहीं करना चाहता है. कम समय में बहुत कुछ पा लेने की चाह स्ट्रेस पैदा करती है और स्ट्रेस फ्रस्ट्रेशन और एंगर को पैदा करता है इन सारी प्रॉब्लम का सॉल्यूशन गाँधी के दर्शन में है गाँधी कहा करते थे इस धरती में सभी की आवश्कताओं को पूरा करने की क्षमता है लेकिन किसी एक व्यक्ति के लालच को वह पूरा नहीं कर सकती. हमारे पास जो कुछ है उसमे संतुष्ट रहने की बजाय हम कुछ और पाने के आशा करते रहते हैं और अकारण तनाव का शिकार होते हैं. सच बोलना महज़ किताबी जुमला नहीं है बल्कि एक सच्चाई है क्योंकि सच , सच होता है और झूट , झूट है (मोबाइल पर हम दिन भर में कितना झूट बोलते हैं ) ये स्ट्रेस और फ्रस्ट्रेशन दिमाग में वाइलेन्स पैदा करता है. इस स्थिति से हम अपनी रियल लाइफ में रोज दो -चार होते हैं रिक्शे वाले से दो -चार रुपये के लिए झगडा ,सड़क पर पहले गाड़ी कौन निकालेगा और न जाने क्या -क्या .आख़िर क्यों ? हम पलट कर देखें की हमारी रोज की जिन्दगी में हम लोगों से प्यार से कितना बोलते हैं किसी परेशान आदमी की जगह हम अपने आप को रखकर देखें तो शायद प्रॉब्लम बिगाड़ने न पायें और सिचुअशन को ख़राब होने से बचाया जा सके .सही बात को सही तरह से रखा जाए तो उसका असर लंबा होता है . कानून को अपने हाथ में लेना ,हड़ताल किसी प्रॉब्लम का सॉल्यूशन नहीं हो सकता है .गाँधी भी प्रतिरोध करते थे और उनके प्रतिरोधों का ही परिणाम है कि आज हम आजाद हवा में साँस ले रहे हैं . वाइलेंस के लिए एक सभ्य समाज में कोई जगह नहीं होनी चाहिए आत्म संयम से बड़ा कोई डिस्पिलिन नहीं है ये कुछ ऐसे जीवन मूल्य हैं जो गाँधी जी हमारे लिए छोड़ गए हैं ताकि जब कभी हयूमनिटी खतरे में हो ये ज्योति पुंज उसकी मदद करें . आज से गाँधी जी के आर्ट ऑफ़ लिविंग को अपनाइए देखिये जिन्दगी कितनी खुशगवार हो जायेगी आपकी और दूसरों की भी, और शायद ये सबसे अच्छा गिफ्ट होगा गाँधी जी को हमारी तरफ़ से

Monday, September 15, 2008

सबको लुभाती पैसे की खनक

फिल्मों और पैसों का गहरा रिश्ता है आज समझते हैं हिन्दी फिल्मी गाने पैसों को कितनी अहमियत देते हैं.पैसा ओ पैसा ये हो मुसीबत न हो मुसीबत (क़र्ज़ )कुछ ऐसी ही कहानी है आज की दुनिया मैं पैसे की आज जिसके पास पैसा है वो और ज्यादा पाना चाहता है जिसके पास नहीं है वो भी पैसा पाना चाहता है मतलब “पैसा पैसा करती है ये दुनिया” (सलीमा ), लापरवाह फ़िल्म का ये गाना तो यही बताता है “पैसा जिसके पास है दुनिया उसकी दास है” . पैसे की माया अपरम्पार है शायद इसी दर्शन को काला बाज़ार फ़िल्म का यह गाना आगे बढाता है “ठन ठन की सुनो झंकार कि पैसा बोलता है” . पैसा सर चढ़ कर बोलता है गलोब्लिजेशन के इस दौर में हर आदमी पैसा कमाने के किसी मौके को चूकना नहीं चाहता है .पैसा इंसान की एक जरूरत है लेकिन आज के इस दौर में ऐसा लगता है कि पैसा इंसान की एक मात्र जरुरत है पैसे पाने की चाह में कहीं छूटती जा रही है रिश्तों की गरमी और अपनेपन का एहसास सब कुछ मशीनी होता जा रहा है कोई बीमार है देखने जाने की बजाय कुछ कम पैसे खर्च करके एस ऍम एस भेज दीजिये गेट वेल सून , काम हो गया शुभकामना संदेश भेजना हो तो इ मेल कर दीजिये. और कुछ जयादा पैसे हों तो तरह तरह के कार्ड तो मौजूद हैं मतलब सारा खेल पैसे का ही है, सही ही कहा गया है सफलता अपनी कीमत मांगती है अगर आगे बढ़ना है तो समय के साथ तो दौड़ना ही पढेगा नहीं तो हम पीछे छूट जायेंगे.तो परवाह किसे है रिश्तों की गर्मी और अपनेपन के एहसास की अब किसे याद आती है गरमी की उन रातों की जब पुरा घर छत पर सोता था कूलर और एसी के बगैर भी वो रातें कितनी ठंडी होती थीं या जाडे की नर्म दोपहर में नर्म धूप सेंकते हुए सुख दुःख बांटना और वो नर्म धूप किसी हीटर के बगैर भी कितनी गरमी देती थी. वो छत पर बैठकर यूँ ही तारों को देखना .
विकास तो खूब हुआ है समय और स्थान की दूरियां घटी है इन सब के बावजूद दिलों में दूरियां बढ़ी है एक दूसरे पर अविश्वास बढ़ा है पैसा तो खूब है ,चैन नहीं है . होली या दीपावली की तैयारी महीनो पहले से होती थी चिप्स या पापड़ बनाने का मामला हो या पटाखे की खरीददारी कोई बनावट नहीं थी लेकिन आज तो “पैसा फैंको तमाशा देखो” (दुश्मन ) सब कुछ रेडी मेड है चिप्स पापड़ से लेकर चोकलेट में तब्दील होती हुई मिठाइयों तक , लेकिन रिश्ते न तो रेडी मेड होते हैं और न ही बाज़ार में मिलते हैं रिश्ते तो बनते हैं प्यार की उर्जा ,त्याग समर्पण और अपनेपन के एहसास से रिश्ते तो ही मकान को घर बनते हैं आज मकान तो खूब बन रहे हैं लेकिन घर गायब होते जा रहे हैं. त्यौहार मनाने के लिए अब साल भर इंतज़ार करने की जरुरत नहीं जेब में पैसा हो तो हर दिन दसहरा है और रात दिवाली है लेकिन मनी मस्ती और मोबाइल ही जिन्दगी नहीं है आज पैसा पॉवर का पर्यायवाची बन गया है . विटामिन ऍम (मनी ) का अत्यधिक सेवन समाज के स्वास्थ्य में समस्या ला सकता है विटामिन स्वास्थ्य के लिए अच्छे होते हैं लेकिन अति किसी भी चीज की बुरी होती है ऐसे में पैसे की प्यास को नियंत्रित करना जरुरी है मनी को जीवन का एक मात्र मिशन बनाना मनुष्य के मन की संवेदनाओं को मार सकता है . ये समय की मांग है या किसी भी कीमत पर सफल होने की चाह ? तो रिश्तों को कारपोरेट करण होने से बचाइए और चलिए आज यूँ करें की किसी पुराने रिश्ते को जिन्दा किया जाए किसी परिचित दोस्त या रिश्तेदार के घर बगैर किसी काम के चला जाए और देखा जाए कि बगैर पैसे के भी दुनिया में काफी जुटाया जा सकता है .
निदा फाजली साहब की इन पंक्तियों के साथ आप से विदा लेता हूँ:
मुमकिन है सफर हो आसां अब साथ भी चल कर देखें
कुछ तुम भी बदल कर देखो , कुछ हम भी बदल कर देखें
आंखों में कोई चेहरा हो , हर गाम पे एक पहरा हो
जंगल से चलें बस्ती में दुनिया को संभल कर देखें
दो -चार कदम हर रास्ता पहले की तरह लगता है
शायद कोई मंज़र बदले कुछ दूर तो चल कर देखें
लेखक मीडिया एक्सपर्ट हैं
आई नेक्स्ट १५ सितम्बर 2008 को प्रकाशित


Thursday, August 28, 2008

हर आँख में एक सपना हो …..

आज बात शुरू करते हैं सपनों से सपने हर इंसान के जेहन की एक ऐसी वर्चुअल रिअलिटी है जो वास्तविक न होते हुए भी उसे वास्तविक लगती है लेकिन यथार्थ को बेहतर बनानने का रास्ता सपनों से ही हो कर जाता है शायद ही कोई ऐसा इंसान होगा जिसने सपने नहीं देखे होंगे और जो सपने देखकर उनको सच करने की कोशिश करता है दुनिया उसे सफल मानती है . हिन्दी सिनेमा भी तो एक सपने की दुनिया का निर्माण करता है फिल्मों की कहानी और हर गीत के पीछे एक सपना ही तो होता है. इस दुनिया में शायद हर विचार के पीछे एक सपना ही होता है. फिल्मों ने सपने का प्रयोग कई गीतों में किया है जैसे मेरे सपनों की रानी कब आयेगी तू , तेरे मेरे सपने अब एक ही रंग हैं, एक न एक दिन ये कहानी बनेगी तू मेरे सपनों की रानी बनेगी, सपने सुहाने लड़कपन के मेरे नयनों में डोले बहार बन के, या फ़िर जैसे की सपने होते हैं सपने हैं सपने कब हुए अपने. वैसे सपनों की कहानी हमारे जीवन के साथ बढ़ती चली जाती है बचपन में दादा दादी नाना नानी की कहानियो से शुरू हो कर जीवन के अन्तिम समय तक चलती रहती है. बचपन में हम अच्छे खिलोनो का सपना देखते हैं तो जवानी में एक अच्छे जीवन साथी या एक बेहतर भविष्य का , चाँद तारे तोड़ लाऊं बस इतना सा ख्वाब है, और जीवन की शाम में हम उन सपनों का सपना देखते हैं जो हमने जवानी में देखे और उन्हें पूरा किया, सपने में देखा सपना, तो सपने देखने का ये सिलसिला पूरी उम्र चला करता है. लेकिन सही मायने में सपने देखने और उन्हें पूरा करने की उम्र तो जवानी ही है, क्योंकि तब तक आप जिन्दगी की हकीकत को समझ चुके होते हैं बचपने की नादानियों की जगह आप भविष्य को बेहतर बनाने की कोशिश में जुट जाते हैं और इस दौर के मालिक आप ख़ुद होते हैं और शायद इसीलिए हमारी फिल्मों के ज्यादातर किरदार युवाओं पर ही केंद्रित होते हैं क्योंकि युवाशक्ति ही वह शक्ति है जिसमें सपने देखने की ललक और उन्हें पूरा करने की ताकत होती है फिल्मों में दिखाया गया संसार भले ही काल्पनिक हो,कथानक और समस्या से निबटने का तरीका अवास्तविक हो लेकिन समाधान कहीं न कहीं वास्तविकता के आस पास होता है लगे रहो मुन्ना भाई” की गांधीगिरी इसका एक उदाहरण है “रंग दे बसंती” का कैडल मार्च भी हमें ये दिखाता है कि फिल्मों के समाधान वास्तविक जिन्दगी में काम कर सकते हैं सपने की ये कहानी भले ही आपको सपने जैसी लगे लेकिन विश्वास जानिए कि इस संसार में जो कुछ बेहतर हो रहा है उसके पीछे किसी का सपना जरूर है अगर हमने हवा में उड़ने का सपना न देखा होता तो शायद आज हम हवाई जहाज की यात्रा का आनंद नहीं ले रहे होते. मानव सभ्यता का विकास एक सपने का ही परिणाम है जो हमारे पूर्वजों ने देखा इसलिए सपने देखिये लेकिन ध्यान रहे सिर्फ़ सपने देखने से कुछ भी हासिल न होगा उन सपनों को हकीकत में बदलने की कोशिश कीजिये, और न कर पाइए तो तो उस सुंदर सपने को आने वाली पीढीयों के लिए छोड़ जाइये सपने जीवन का अभिन्न अंग हैं जो सिर्फ़ आपके हैं और जिन्हें आप से कोई नहीं छीन सकता है हम आज अगर बढे हैं तो कहीं न कहीं उसमे सपनों का योगदान जरूर है और उन सपनों को शुक्रिया कहने का सब से सुंदर तरीका है कि एक सुंदर सा सपना देखा जाए, हिन्दी फिल्में भी हमें सपने देखने के लिए प्रेरित करती हैं लेकिन सपने सिर्फ़ सपने देखने के लिए नहीं बल्कि अपने आस पास की दुनिया को बेहतर बनाने के लिए देखिये .
मुझे वीरेन डंगवाल जी की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही है
मैं तसली झूठ मूठ की नहीं देता
हर सपने के पीछे एक सच्चाई होती है
हर कठिनाई कुछ न कुछ राह दिखा ही देती है
जब चल कर आए हैं इतने लाख वर्ष तो
आगे भी चल कर जायेंगे
आयेंगे आयेंगे
उजले दिन जरूर जायेंगे
आप सब से इस उम्मीद के साथ विदा लेता हूँ की इस दुनिया को बेहतर बनाने का आप सब जरूर एक सपना देखेंगे
आएये देखते हैं एक सुंदर सा सपना
आई नेक्स्ट में २८ अगस्त को प्रकाशित

Friday, August 8, 2008

मेरे घर आना जिन्दगी

जिन्दगी का सफर है ये कैसा सफर कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं .ऐसी ही है जिन्दगी इसको समझने की कोशिश तो बहुत से दार्शनिकों , चिंतकों ने की लेकिन जीवन चलने का नाम चलते रहो सुबह शाम , वास्तव में जिन्दगी तो चलने का ही नाम है और ये बात कितनी आसानी से एक फिल्मी गाने ने हमें समझा दी.हिन्दी फिल्मों के गाने यूँ तो पुरे देश में सुने और सराहे जाते हैं लेकिन ज्यादातर लोग इन गानों को गंभीरता से नहीं लेते .हिन्दी फिल्मों के गानों की एक अलग दुनिया है. और इस रंग बिरंगी दुनिया में जिन्दगी के लाखों रंग हैं सामान्य जन (Masses) को समझाने की बात आती है तो जो काम ये फिल्मं गाने कर सकते हैं वो बड़े से बड़ा साहित्यकार भी नहीं कर सकता. और अगर प्रशन जिन्दगी को समझने का हो तो काम और भी मुश्किल हो जाता है लेकिन गाने कितनी आसानी से जिन्दगी की दुश्वारियों , परेशानियों , अच्छाइयों को हमारे सामने लाते हैं .अब अगर लोगों के मिलने बिछड़ने की बात करें तो जिन्दगी के सफर में बिछड़ जाते हैं जो मुकाम वो फ़िर नहीं आते (आप की कसम), जिन्दगी की पहेली को उलझाता सुलझाता आनंद फ़िल्म का ये गाना जिन्दगी कैसी है पहेली हाय .हिन्दी फिल्मों के गानों में जिन्दगी के दर्शन को बहुत करीब से समझने की कोशिश की गयी है .जिन्दगी का टाइम अनिश्चित है इसलियी ज़मीर फ़िल्म के इस गाने में कहा गया है जिन्दगी हसने गाने के लिए है पल दो पल और इसी दर्शन को आगे बढाता अंदाज़ फ़िल्म का ये गाना जिन्दगी एक सफर है सुहाना यहाँ कल क्या हो किसने जाना और जिन्दगी की सबसे बड़ी पहेली यही है की कल क्या होगा कल जो होना है फ़िर उसके लिए आज ही से क्यों परेशां हुआ जाए, लेकिन जिन्दगी खूबसूरत तो तभी होती है जब कोई साथी जिन्दगी में हो और शायद अनारकली फ़िल्म का ये गीत कहता है जिन्दगी प्यार की दो चार घड़ी होती है. साजन फ़िल्म के इस गाने में गीतकार अपने चरम पर है सांसों की जरुरत है जैसे जिन्दगी के लिए एक सनम चाहिए आशिकी के लिए प्यार की इसी ताकत का एहसास करता क्रांति फ़िल्म का ये गाना कि जिन्दगी की न टूटे लड़ी प्यार कर ले घड़ी दो घड़ी .लेकिन जिन्दगी सीधी सपाट नहीं होती है और इसकी कई रंग होती हैं इसीको समझने की कोशिश करता आदमी और इंसान फ़िल्म का गाना जिन्दगी के रंग कई रे ओ साथी रे हम कई आयामों से जिन्दगी को समझने की कोशिश जरूर कर रहे हैं लेकिन फ़िर भी सत्यकाम फ़िल्म के इस गाने की तरह जिन्दगी है क्या बोलो जिन्दगी है क्या , यह तो एक व्यक्ति के द्रष्टिकोण के ऊपर निर्भर करता है.जिन्दगी में हमें जो मिला है या तो उससे संतुष्ट हो जाएँ या जिन्दगी को बेहतर बनांने की कोशिश करते रहें क्योंकि जिन्दगी रुकती नहीं किसी के लिए चलता रहे इंसान मुनासिब है जिन्दगी के लिए, मुझे समाधि फ़िल्म का एक गाना याद आ रहा है ये जिन्दगी है कौम की तू कौम पर लुटाये जा दोस्तों जिन्दगी तो एक ही है हाँ उसके रंग अलग अलग हैं और अगर जिन्दगी में उतार चढाव न हों तो जिन्दगी बेरंगी हो जायेगी ,फैसला हमें करना है हम अपने जीवन को शिकायत करते और दूसरों के बदलने के इंतज़ार में ख़तम कर दें या उस जिन्दगी को जो हमें मिली है बेहतर बनाने की कोशिश करें किस्सा छोटा सा है फलसफा बड़ा जो सफर प्यार से कट जाए वो प्यारा है सफर नहीं तो मुश्किलों के दौर का मारा है सफर अगली बार जब आप कोई प्यारा सा फिल्मी गाना सुने तो जरुर उसके माध्यम से जिन्दगी को समझने की कोशिश कीजियेगा. सीता और गीता फ़िल्म का गाना है जिन्दगी है खेल कोई पास कोई फ़ेल तो जिन्दगी के इस खेल को खेल की भावना से खेलिए और विरोधियों का दिल जीतने की कोशिश कीजिये क्योंके कोशिशें ही कामयाब होती है. जिन्दगी को बेबसी मत बनने दीजिये जिन्दगी को समझने का सिलसिला दूरियां फ़िल्म के इस गीत के माध्यम से ख़त्म करता हूँ जिन्दगी मेरे घर आना जिन्दगी .
जल्दी ही मुलाकात होगी
आई नेक्स्ट में ९ अगस्त 2008 को प्रकाशित

Wednesday, August 6, 2008

कुछ नमूने मेरी रचनाओं के



http://pressinstitute.org/U_Images/Vidh92.pdf
http://pressinstitute.org/U_Images/Vidh74.pdf

http://www.upkram.org/emagzine.php?pg=59


http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2007/10/071003_lucknow_bca.shtml
http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2007/04/070424_workshop_lucknow.shtml
http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2008/01/080110_lucknow_blind.shtml
http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2008/02/080220_lady_electrician.shtml
http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2008/04/080428_parul_boat.shtml
http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2008/08/080804_preeti_album_lucknow.shtml
https://www.bbc.com/hindi/india/2010/04/100427_kisan_robotp_awa.shtml
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2009/07/090730_lucknow_watch_skj.shtml
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2009/10/091018_saudi_jail_adas.shtml
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2009/11/091129_dalit_mortuary_adas.shtml
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2010/02/100222_music_punishment_mb.shtml
http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/2010/02/100228_holi_songs_sz.shtml
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2010/04/100427_kisan_robotp_awa.shtml
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2010/07/100724_mango_wine_dps.shtml
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2010/12/101224_waiter_doctor_ak.shtml
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2011/03/110308_cycle_english_va.shtml


http://www.dw-world.de/dw/article/0,,5242012,00.html
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2011/08/110824_mobile_news_ms.shtml
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2012/04/120414_dargarh_cigarette_ac.shtml
https://www.bbc.com/hindi/india-50559035



http://www.ichowk.in/culture/leh-is-flooded-with-labourers-from-bihar/story/1/774.html
http://www.ichowk.in/cinema/mentality-of-caste-system-is-deep-rooted-in-bollywood-too/story/1/1274.html
http://www.ichowk.in/culture/leh-3-idiots-jab-tak-hai-jaan-cinema-hall-district-administration-school-laddakh/story/1/912.html

http://www.khabarnonstop.com/2017/01/10/do-not-underestimate-women-power/

http://www.thelallantop.com/jhamajham/kitchen-utensils-from-the-era-of-your-grandparents-their-pictures-and-names-and-their-uses/

Friday, July 18, 2008

दर्द से रिश्ता बनाती फिल्में

मेरे जैसी पीढी के लोगों को बचपने से एक बात मुगली घुट्टी की तरह पिलाई गयी है कि फिल्में देखना बुरी बात है फ़िल्म देखने से आप बिगड़ जायेंगे . फिल्में कोरी फंतासी दिखाती हैं और रियलिटी से उनका कोई सीधा सम्बन्ध नहीं होता. फिल्मों के कथानक चाहे जितने ही काल्पनिक क्यों न हों वे समय और समाज से कटे हुए नहीं रह सकते सिनेमा ने हमेशा समाज को आइना दिखाया है, और बताया है सिनेमा सिर्फ़ मनोरंजन नहीं अपितु एक संसार है जो जीवन के हर एक भाग को छूता ही नहीं बल्कि प्रभावित भी करता है .उनका प्रस्तुतीकरण भले ही काल्पनिक हो लेकिन प्रॉब्लम अपने टाइम की ही होती हैं जैसे लोगों को फिल्में देखने का रोग होता है वैसे ही हिन्दी फिल्मों ने समय समय पर विभिन्न रोगों को कहानी का आधार बनाया है और दर्शकों को बताने की कोशिश की है की ये रोग क्या हैं ?भले ही ये बात आपको आश्चर्य जनक लगे लेकिन फिल्में समय से निरपेक्ष नहीं रह सकती जो भी समाज में है वो फिल्में जरूर दिखाती है.बात शुरू करते हैं १९५३ में बनी फ़िल्म आह से, उस वक़्त तपेदिक या टीबी एक लाइलाज रोग था नायक राजकपूर टीबी का शिकार होता है लेकिन नायिका नर्गिस तमाम सामाजिक प्रतिरोधों के बावजूद नायक का साथ देने का फ़ैसला करती है .खामोशी फ़िल्म मानसिक रोग की समस्या को दिखाती है .हिन्दी सिनेमा के इतिहास मे जिस रोग को सबसे ज्यादा बार दिखाया गया है वह है कैंसर आनंद ,सफर , मिली दर्द का रिश्ता ,वक्त रेस अगेंस्ट टाइम सभी फिल्मों के कथानक का आधार कैंसर ही था कमजोर ह्रदय की बीमारी पर मशहूर फ़िल्म कल हो न हो या यादाश्त जाने की बीमारी पर बनी फ़िल्म सदमा में श्रीदेवी और कमल हसन के भाव प्रवण अभिनय को कौन भूल सकता है जल्दी ही प्रर्दशित हुई फ़िल्म तारे जमीन पर दिस्क्लेसिया बीमारी की प्रॉब्लम से जूझ रहे पेरेंट्स के लिए उम्मीद की एक नयी किरण लेकर आयी है इसी कड़ी में स्जोफ्रिनिया रोग पर आधारित फ़िल्म यु मी और हम का नाम लिया जा सकता है . अंधेपॅन की समस्या रोग है या विकलांगता यह बहस का विषय हो सकता है लेकिन हमारे फिल्मकारों ने इस समस्या को बड़े ही सार्थक तरीके से सिनेमा के परदे पर उतारा है.
अंधेपन की समस्या पर बनी फिल्मों में दोस्ती , मेरे जीवन साथी , जुर्माना, स्पर्श, ब्लैक , आँखें (नयी ), परवरिश आदि. प्रमुख हैं . ऐड्स रोग पर बनी फ़िल्म फ़िर मिलेंगे और माय ब्रदर निखिल ने जिस तरह रोग के बारे में दर्शकों को जागरूक किया है वो सराहनीय है . अगर इन फिल्मों के टाइम पीरिअड पर गौर करें तो साफ पता चलेगा की जिस टाइम पर समाज जिस रोग का जायदा शिकार हो रहा था फिल्मों की कहानियो में वैसे ही रोग शामिल हो रहे थे . फिल्मों में रोगी का चित्रण वास्तविक रोगियों में एक आशा का संचार करता है जो किसी भी गंभीर रोग से पीडित व्यक्ति के लिए बहुत जरुरी है उसे जीने की शक्ति और सकरात्मक उर्जा मिलती है. यानि लिव लाइफ किंग साइज़ हिन्दी फिल्मों का एक मशहूर डायलोग है इसे दवा की नहीं दुवा की जरुरत है ऐसी फिल्में वाकई रोगियों के लिए दुवा का काम करती है. ये फिल्मों का रोग है या रोग पर बनती फिल्में इसका आंकलन किया जाना बाकी है लेकिन जो लोग हिन्दी फिल्मों को निम्न स्तर का मानते हैं उनेह यह समझना जरुरी है की फिल्में पैसा कमाने का जरिए हो सकती हैं लेकिन फिल्मकारों को अपने सामाजिक उत्तरदायित्व का एहसास है और जिसका रिफ्लेक्शन इन रोगों पर बनी फिल्मों में दीखता है .हमें यह नहीं भूलना चाहिए की भारत एक बड़ी जनसख्या वाला देश है जहाँ स्वास्थय जागरूकता के नाम पर सरकार ने भले ही अरबों खर्च कर दिए हों लेकिन अभी भी पल्स पोलियो जागरूकता अभियान के लिए अमिताभ बच्चन , शाहरुख़ खान और आमिर खान जैसे फिल्मी सितारों की मदद लेनी पड़ती है . ये एक्साम्पल है आम जनता का फिल्मों पर भरोसे का हर मीडिया की तरह फ़िल्म मीडिया की भी अपनी सीमायें हैं जिसमे व्यवसाय भी एक बड़ा करक है लेकिन रोगों पर बनने वाली फिल्मों की कम संख्या के लिए हम फिल्मकारों को दोष नहीं दे सकते हैल्थ आज भी एक आम आदमी की प्राथमिकता में बहुत नीचे है और शायद यही कारण है कि रोगों और रोगियों को ध्यान में रखते हुए ऐसी फिल्में कम बनती हैं. इसके बावजूद रोगों के बारे में जागरूकता फैलाने में फिल्मों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है.
१८ जुलाई 2008 को आई नेक्स्ट में प्रकाशित

Wednesday, July 2, 2008

समझ से सब संभव है

भारत में महिलाओं की स्थिति की बात की जाती है तो तुंरत उन्हें देवी का रूप मानकर एक आइडियल इमेज में बाँध दिया जाता है आदर्श माता , आदर्श पत्नी ,आदर्श बहू और न जाने क्या क्या गोया वो एक इंसान न हो कर एक मूर्ति हो जाती है और इसी सांचे में हमारा समाज एक महिला को देखना चाहता है. कोई भी महिला इस सांचे से बाहर जाती है तो उसे न जाने किन किन संबोधनों से नवाजा जाता है पिछले दिनों इस बात पर जोरदार चर्चा चली कि आज कल महिलाएं यौन स्वेच्छाचारिता का शिकार हैं और इनमें बड़ी भूमिका टीवी सीरियलो की है जिनमें विवाहेत्तर सम्बन्ध खूब दिखाए जा रहे हैं. जिनका समाज पर बुरा असर पड़ रहा है .पुरषों के विवाहेत्तर सम्बन्ध समाज आसानी से पचा लेता है किंतु महिलाओं के बारे में उसके अलग मानदंड होते हैं. जैविक रूप से दोनों ही मानव हैं.
किंतु समाज ने दोनों के लिए अलग अलग दायरे निश्चित कर दिए हैं महिलाओं की दशा सुधारने के लिए ये माना जाता है कि उन्हे आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाया जाना चाहिए लेकिन जब ये महिलाएं आर्थिक रूप से स्वावलम्बी होकर अपने जीवन के फैसले ख़ुद लेना शुरू कर देती हैं जिनमें जीवन साथी के चुनाव से लेकर यौन आनंद के तरीके तक सभी शामिल हैं तब महिलाओं के बारे में तरह तरह के सवाल उठाये जाने लगते हैं.महिलाओं को आगे बढाया जा रहा है लेकिन ऐसा करना समय की मांग है उदारी करण के इस युग में जहाँ आर्थिक विकास सफल होने का मुख्य आधार है समाज की आधी आबादी को घरों में बंद रखकर विकसित नही हुआ जा सकता किंतु उन्हे कितना आगे बढ़ना है और कैसे इसका फ़ैसला पुरूष ही कर रहे हैं यौन स्वच्छंदता के बारे में जितने भी विचार मानक हैं वो पुरूष मानसिकता से ग्रस्त हैं कोई महिला अपना यौन व्यवहार कैसे निर्धारित करेगी यह अभी भी उसके हाँथ में नहीं है खुलापन हमारे दिमाग में नहीं आ रहा है हम ये मान ही नहीं पाते की महिलाएं भी भावनाएं रखती हैं .एक तरफा प्यार में होने वाली दुर्घटनाओं का ज्यादा शिकार महिलाएं ही होती हैं क्यों ? क्योंकि वे अपनी यौन इच्छा का खुले आम इज़हार कर देती हैं .पुरूष ठुकराया ज़ाना या हारना नहीं चाहते हैं .
प्रश्न यह उठता है कि महिलाओं का यौन आचरण निर्धारित करने के मामले में पुरूष मानसिकता कब तक हावी रहेगी और ये स्थिति समाज के दोहरे चरित्र को उजागर करती है यह कैसे सम्भव है कि महिलाओं का कोई कार्य समाज के लिए नुकसानदायक हो किंतु पुरुषों द्वारा किया गया वही कार्य समाज आसानी से पचा लेता है . किसी भी समाज के विकास के लिए महिलाओं और पुरुषों का आर्थिक , सामाजिक एवं मानसिक रूप से बेहतर होना जरूरी है किंतु बेहतरी के ये पैमाने लिंगभेद के चश्मे से नहीं देखे जाने चाहिए. महिलाओं द्वारा किया गया कोई कार्य अगर समाज के लिए सही नहीं है तो पुरुषों के उन कार्यों को भी ग़लत माना जाना चाहिए .यह कहना कि महिलाएं ऐसा कर रही हैं तो समाज में समस्या हो रही है उचित नहीं होगा .समाज में पैदा होने वाली कोई भी कुंठा समान रूप से पुरुषों और महिलाओं के लिए नुक्सान दायक होगी. हालाँकि स्तिथियाँ बदल रही हैं लेकिन उनकी गति बहुत धीमी है ये कुछ इसी तरह का मामला है की कुछ लाख शहरी घरों के टी वी केबल कनेक्शन से निर्धारित होने वाली टी आर पी किसी टी वी कार्यकर्म की लोकप्रियता को पूरे देश के सन्दर्भ में बता दिया जाता है उसी तरह कुछ शहरों में होने वाला बदलाव यह नहीं इंगित करता की महिलाओं के यौन व्यवहार को लेकर हमारा नजरिया बदल गया है ग्लोबलाइजेसन के दौर में हम दोहरे मापदंड ले कर समाज को आगे नहीं बढ़ा सकते. महिलाएं भी हाड मांस का पुतला हैं और उनकी भी अपनी भावनाएं संवेदनाएं हैं ऐसे में उनसे हर जगह पूर्ण आदर्श की उम्मीद करना उचित नहीं होगा वक्त की मांग है की महिलाओं को मानववादी नजरिये से देखा जाए और उनके कार्यों का आंकलन करते वक्त ये न भूला जाए की उनके सीने में भी एक दिल है जो अपने तरीके से जीना चाहता है आगे बढ़ना चाहता है

२ जुलाई २००८ को  आई नेक्स्ट में प्रकाशित

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