Saturday, December 30, 2017

साल 2018 भी 'आधार' का होगा

हर साल के अंत में  इस बात आंकलन अकादमिकों और पत्रकारों  द्वारा किया जाता  है कि सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में देश ने क्या खोया और क्या पाया मकसद सिर्फ यह होता है कि आगे बढ़ने के क्रम में हमें यह पता हो कि हम कहाँ से चले थे और कितना आगे जाना है |कोई भी देश सभ्यता इसी तरह फलता फूलता और आगे बढ़ता है |जो अतीत से सबक नहीं लेता उसकी जगह भविष्य में नहीं होती |बात जब आंकलन की होती है तो आंकड़ों का जिक्र आना स्वाभाविक है तो  इस मायने से साल 2017 आधार कार्ड के आंकड़ों और विभिन्न सरकारी/गैर सरकारी  योजनाओं से उसे जोड़े जाने के कारण याद किया जायेगासही मायने में अगर हम देखे तो आजाद भारत के इतिहास में पहली बार किसी सरकार के पास अपने नागरिकों के व्यवस्थित बायोमेट्रिक आंकड़े उपलब्ध हैं |आंकड़े का मतलब सटीकता और इसी बात को ध्यान में रखते हुए धीरे धीरे ही सही सरकार ने  मोबाईल,बैंक खाते,बीमा पॉलिसी ,जमीन की रजिस्ट्री से लेकर आयकर सभी को आधार से जोड़ने का काम शुरू किया आंकड़े इस बात की पुष्टि करते है कि भारत में निम्न आय वर्ग के लोगों के पास बेहतर पहचान दस्तावेज नहीं होते|जगह बदलने पर ऐसे लोगों को विभिन्न सरकारी योजनाओं का फायदा सिर्फ वैध पहचान पत्र न होने से नहीं मिल पाता|आधार कार्ड योजना से इस बात पर भी बल मिलता है कि भारत में बढते डिजीटल डिवाईड को आंकड़ों को डिजीटल करके और उसी अनुसार नीतियां बना कर पाटा जा सकता है तकनीक सिर्फ साधन संपन्न लोगों का जीवन स्तर नहीं बेहतर कर रही है|एक अरब पच्चीस करोड़ की जनसँख्या  वाले  देश में केवल 6.5 करोड़ लोगों के पास पासपोर्ट और लगभग बीस  करोड़ लोगों के पास ड्राइविंग लाइसेंस है  ऐसे में आधार उन करोड़ों लोग के लिए उम्मीद  लेकर आया है जो सालों से एक पहचान कार्ड चाहते थेभ्रष्टाचार एक सच है और इसे सिर्फ कानून बना के नहीं रोका जा सकता  बल्कि तकनीक के इस्तेमाल और पारदर्शिता को बढ़ावा देकर समाप्त किया जा सकता है |देश में सौ  करोड़ से ज्यादा लोगों के पास आधार है।भारत में 73.96 करोड़ (93 प्रतिशत) वयस्कों के पास और 5-18 वर्ष के 22.25करोड़ (67 प्रतिशत) बच्चों के पास और वर्ष से कम आयु के 2.30 करोड़ (20 प्रतिशत) बच्चों के पास आधार है तो देश में पिछले एक साल पहचान का सबसे बड़ा स्रोत आधार कार्ड बन कर उभरा है |भारत जैसे विविधता वाले देश में यदि लोगों का जीवन स्तर बेहतर करके देश की मुख्यधारा में लाने के लिए यह जरुरी है कि सरकार के पास सटीक सूचनाएं हों जिससे वह सरकारी नीतियों का वास्तविक आंकलन कर उन योजनाओं को और जनोन्मुखी बना सके |आयकर दाताओं की संख्या के आंकड़े अपने आप में काफी कुछ बयान कर देते है आयकर विभाग के आंकड़ों के हिसाब से साल 2014-15 में  देश में मात्र 24.4लाख लोगों ने अपनी वार्षिक  आय दस लाख  रुपये से ऊपर बताई  देश की आबादी सवा सौ  करोड़ से अधिक है लेकिन  आयकर  रिटर्न भरने वालों की संख्या मात्र 3.65 करोड़ थी|जबकि पिछले पांच साल में औसतन पचीस लाख नई कार वार्षिक रूप से खरीदी जाती है और सरकार आयकर चोरी रोकने में नाकाम इसलिए रहती है क्योंकि उसके पास लोगों के ब्योरे नहीं है पर आधार के बैंक और आयकर से जुड़ने से आने वाले  साल में निश्चित रूप से आयकर दाताओं की संख्या बढ़ेगी और कर चोरी मुश्किल होगी क्योंकि आपकी आय व्यय का लेखा जोखा सरकार  के पास होगा |केंद्र सरकार के आंकड़ों के मुताबिक देश में बयासी प्रतिशत राशन कार्ड आधार से जोड़े जा चुके हैं और पिछले चार वर्षों में दो करोड़ पचहत्तर लाख राशन कार्ड रद्द किये जा चुके है जो जाहिर है फर्जी नामों से बने थे |सरकार प्रतिवर्ष 17500 करोड़ रुपये की सब्सिडी सस्ते अनाज के लिए जरुरतमंदों को देती है पर राशन कार्ड की अनिवार्यता के पहले इसमें से ज्यादातर अनाज जरुरतमंदों को न मिलकर कालाबाजारी के जरिये  वापस बाजार में आ जाता था |सरकार के लाख प्रयास के बाद भी लोग भूखे पेट सो रहे थे पर अब ऐसा नहीं है |अनाज जरुरत मंदों तक पहुँच रहा है |ऐसा ही कुछ हाल मनरेगा में काम करने वाले मजदूरों का भी था जिनको या तो कम मजदूरी मिलती थी या फर्जी नामों से मनरेगा का भुगतान हो जाता था |लेकिन आधार और उसके आंकड़ों से जुडी कुछ चिंताएं भी हैं जिनमें सबसे बड़ी चिंता निजता के अधिकार को लेकर है क्योंकि सरकार लोगों की बायोमेट्रिक पहचान जुटा रही हैजिसके डाटा बेस की सुरक्षा एक बड़ा सवाल है अक्सर लोगों के आधार कार्ड से जुडी जानकारियों के लीक होने की खबर  सुर्खियाँ बनती हैं सरकार जिस तरह से विभिन्न डाटा बेस के आंकड़ों को आपस में जोड़ रही हैउससे आंकड़ों के चोरी होने और लोगों की निजता भंग होने का ख़तरा बढ़ा हैसरकार ख़ुद भी ये मान चुकी है कि लगभग  चौंतीस हज़ार सर्विस प्रदाताओं को या तो काली सूची में डाल दिया  गया है या फिर उनको सेवा देने से निलंबित किया जा चुका हैजो सही  प्रक्रिया का इस्तेमाल न करते हुए फर्जी आधार बना रहे थे |गौर तलब बात है कि आधार कार्ड का मुख्य उद्देश्य ही फर्ज़ी पहचान को ख़त्म करना थापर  सरकार ख़ुद ही अब तक पच्चासी  लाख लोगों की नकली पहचान को रद्द कर चुकी है|फ़िलहाल हर बीतते वक्त के साथ देश में आधार नंबर धारकों की संख्या बढ़ रही है और देश के निवासियों को पहचान मिल रही है पर उसी तेजी से अगर  सरकारी योजनाओं का लाभ भी मिले तो साल 2018 भी आधार का ही होगा |
आई नेक्स्ट में 30/12/17 को प्रकाशित 

Friday, December 22, 2017

सिस्टम के लिए बड़ी चुनौती है कूड़ा प्रबंधन

किसी भी देश के विकास के पैमाने को अगर सामान्य नजरिये से समझना हो जिसमें अकादमिक गंभीरता न हो तो आप वहां प्लास्टिक के इस्तेमाल और कूड़ा प्रबन्धन पर नजर डालें आपको समझ आ जायेगा कि वह देश विकसित है या विकासशील .यूरोप और अमेरिका विकास के पैमाने पर विकसित हैं तो वे प्लास्टिक का कम इस्तेमाल करते हैं और उनका कूड़ा प्रबन्धन विकासशील देशों के मुकाबले बहुत बेहतर स्थिति में है .भारत कोई अपवाद नहीं है विकासशील देशों में आने के नाते हमारी हालत अन्य विकास शील देशों जैसी ही है जो जल्दी विकसित होने की चाह में प्लास्टिक और पौलीथीन का अंधाधुंध इस्तेमाल कर रहे हैं और फिर उनसे निकले कूड़े का कोई उचित प्रबन्धन नहीं है .आधुनिक विकास की अवधारणा के साथ ही कूड़े की समस्या मानव सभ्यता के समक्ष आयी .जब तक यह प्रव्रत्ति प्रकृति सापेक्ष थी परेशानी की कोई बात नहीं रही क्योंकि ऐसे कूड़े को प्रकृति आसानी से पचा लेती थी  पर इंसान जैसे जैसे प्रकृति को चुनौती देता गया और विज्ञान आगे बढ़ता गया कई ऐसे कूड़े मानव सभ्यता के सामने आये जिनको प्रकृति अपने में समाहित नहीं कर सकती और  कूड़ा प्रबंधन एक गंभीर समस्या में तब्दील होता गया क्योंकि मानव ऐसा कूड़ा छोड़ रहा था जो प्राकृतिक तरीके से समाप्त  नहीं होता या जिसके क्षय में पर्याप्त समय लगता है और उसी बीच कई गुना और कूड़ा इकट्ठा हो जाता है जो इस प्रक्रिया को और लम्बा कर देता है जिससे कई तरह के प्रदुषण का जन्म होता है और साफ़ –सफाई की समस्या उत्पन्न होती है .भारत ऐसे में दो मोर्चे पर लड़ाई लड़ रहा है एक प्रदूषण और दूसरी स्वच्छता की . पिछले एक दशक  में भारतीय रहन सहन में पर्याप्त बदलाव आये हैं और लोग प्लास्टिक की बोतल और प्लास्टिक में लिपटे हुए उत्पाद सुविधाजनक होने के कारण ज्यादा प्रयोग करने लग गए हैं .केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़ों के मुताबिक़ साल 2014-15 में 51.4 मिलीयन टन ठोस कूड़ा निकला जिसमें से इक्यानबे प्रतिशत इकट्ठा कर लिया गया जिसमें से मात्र सत्ताईस प्रतिशत का निस्तारण किया गया शेष तिहत्तर प्रतिशत कूड़े को डंपिंग साईट्स में दबा दिया गया इस ठोस कूड़े में बड़ी मात्रा पौलीथीन की है जो जमीन के अंदर जमीन की उर्वरा शक्ति को प्रभावित कर उसे प्रदूषित कर रही है .  वेस्ट टू एनर्जी  रिसर्च एंड टेक्नोलॉजी कोलम्बिया विश्वविद्यालय के एक  शोध के मुताबिक  भारत में अपर्याप्त कूड़ा  प्रबन्धन  बाईस तरह की बीमारियों का वाहक बनता है .कूड़े में  पौलीथीन एक ऐसा ही उत्पाद है जिसका भारत जैसे विकासशील देश में बहुतायत से उपयोग होता है पर जब यह पौलीथीन कूड़े में तब्दील हो जाती है तब इसके निस्तारण की कोई ठोस योजना हमारे पास नहीं है .लोकसभा में एक प्रश्न के उत्तर में भारत सरकार  ने बताया देश में पंद्रह हजार टन प्लास्टिक कूड़ा पैदा होता है जिसमें से छ हजार टन उठाया नहीं जाता है और वह ऐसे ही बिखरा रहता है . भारत सरकार की “स्वच्छता स्थिति रिपोर्ट” के अनुसार  देश में कूड़ा प्रबंधन (वेस्ट मैनेजमेंट) एक बड़ी समस्या है . इस रिपोर्ट में भारतीय आंकड़ा सर्वेक्षण कार्यालय (एन एस एस ओ ) से प्राप्त आंकड़ों को आधार बनाया गया है .ग्रामीण भारत में तरल कूड़े के लिए कोई कारगर व्यवस्था नहीं है जिसमें मानव मल भी शामिल है . देश के 56.4 प्रतिशत शहरी वार्ड में सीवर की व्यवस्था का प्रावधान है आंकड़ों के मुताबिक़ देश का अस्सी प्रतिशत कूड़ा नदियों तालाबों और झीलों में बहा दिया जाता है.यह तरल कूड़ा पानी के स्रोतों को प्रदूषित कर देता है.यह एक गम्भीर समस्या है क्योंकि भूजल ही पेयजल का प्राथमिक स्रोत है .प्रदूषित पेयजल स्वास्थ्य संबंधी कई तरह की समस्याएं पैदा करता है जिसका असर देश के मानव संसधान पर भी पड़ता है .गाँवों में कूड़ा प्रबंधन का कोई तंत्र नहीं है लोग कूड़ा या तो घर के बाहर या खेतों ऐसे ही में डाल देते हैं .शहरों की हालत गाँवों से थोड़ी बेहतर है जहाँ 64 प्रतिशत वार्डों में कूड़ा फेंकने की जगह निर्धारित है लेकिन उसमें से मात्र 48 प्रतिशत ही रोज साफ़ किये जाते हैं .देश के तैंतालीस प्रतिशत शहरी वार्ड में घर घर जाकर कूड़ा एकत्र करने की सुविधा उपलब्ध है . कूड़ा और मल का अगर उचित प्रबंधन नहीं हो रहा है तो भारत कभी स्वच्छ नहीं हो पायेगा .दिल्ली और मुंबई  जैसे भारत के बड़े महानगर वैसे ही जगह की कमी का सामना कर रहे हैं वहां कूड़ा एकत्र करने की कोई उपयुक्त जगह नहीं है ऐसे में कूड़ा किसी एक खाली जगह डाला जाने लगता है वो धीरे –धीरे कूड़े के पहाड़ में तब्दील होने लग जाता है और फिर यही कूड़ा हवा के साथ उड़कर या अन्य कारणों से साफ़ –सफाई को प्रभावित करता है जिससे पहले हुई सफाई का कोई मतलब नहीं रहा जाता .उसी कड़ी में ई कूड़ा भी शामिल है . ई-कचरा या ई वेस्ट एक ऐसा शब्द है जो तरक्की के इस प्रतीक के दूसरे पहलू की ओर इशारा करता है वह पहलू है पर्यावरण की बर्बादी । भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में प्रतिवर्ष लगभग ४ लाख टन ई-कचरा उत्पन्न होता है. राज्यसभा सचिवालय द्वारा  'ई-वेस्ट इन इंडिया' के नाम से प्रकाशित एक दस्तावेज के अनुसार भारत में उत्पन्न होने वाले कुल ई-कचरे का लगभग सत्तर प्रतिशत केवल दस  राज्यों और लगभग साठ प्रतिशत कुल पैंसठ शहरों से आता है. दूसरे शब्दों में कहें तो भारत में ई-कचरे के उत्पादन में मामले में महाराष्ट्र और तमिल नाडु जैसे समृृद्ध राज्य और मुंबई और दिल्ली जैसे महानगर अव्वल हैं . एसोचैम की एक रिपोर्ट के अनुसार देश का लगभग ९० प्रतिशत ई-कचरा असंगठित क्षेत्र केअप्रशिक्षित लोगों द्वारा निस्तारित किया जाता है.
आई नेक्स्ट में 22/12 /17 को प्रकाशित 

Tuesday, December 5, 2017

बदलती पहाडी आबो हवा

डूबा हुआ राजमहल 
पिछले  दिनों टिहरी की यात्रा पर था मकसद उस डूबे शहर को देखना  जिसके ऊपर अब भारत का सबसे बड़ा  बाँध बना दिया गया है जहाँ कभी टिहरी शहर था वहां अब बयालीस किलोमीटर के दायरे में फ़ैली झील है जहाँ तरह –तरह के वाटर स्पोर्ट्स की सुविधा भी उपलब्ध है |गर्मियों में जब बाँध का पानी थोडा कम हो जाता है तो दौ साल तक आबाद रहे टिहरी शहर के कुछ हिस्से दिखते हैं |कुछ सूखे हुए पुराने पेड़ और टिहरी के राजमहल के खंडहर|एक पूरा भरा पूरा शहर डूबा दिया गया जो कालखंड के विभिन्न हिस्सों में बसा और फला फूला और उसके लगभग पन्द्रह किलोमीटर आगे फिर पहाड़ काटे गए एक नया शहर बसाने के लिए जिसे अब नयी टिहरी के नाम से जाना जाता है और जानते हैं ये सब क्यों किया गया विकास के नाम पर ,बिजली के लिए हमें बांधों की जरुरत है |वैसे उत्तराखंड की राजधानी देहरादून जो टिहरी से लगभग एक सौ बीस  किलोमीटर दूर है वहां अभी भी बिजली जाती है जबकी टिहरी बाँध को चालू हुए दस साल हो गए हैं |आखिर कितने विकास की हमें जरुरत है और इस विकास की होड़ कहाँ जाकर रुकेगी |
जलते पहाड़ 
बिजली की रौशनी में दमकता नया  टिहरी

मुझे बताया गया कि टिहरी में बनने वाली बिजली का बड़ा  हिस्सा राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को जाता है जहाँ ऐसी बहुमंजिला इमारतें हैं जहाँ दिन में रौशनी के लिए भी बिजली की जरुरत पड़ती है |असल में यही विकास है पहले जंगल काटो फिर वहां एक इमारत बनाओ जहाँ दिन में रौशनी के लिए बिजली चाहिए |कमरे हवादार मत बनाओ और उसको आरामदेह बनाने के लिए एसी लगाओ और इस सारी प्रक्रिया को हमने विकास का नाम दिया है |खैर टिहरी के आधे डूबे हुए राजमहल को देखते हुए मेरे मन में यही सब सवाल उठ रहे थे क्योंकि जल जंगल जमीन की बात करने वाले विकास विरोधी समझे जाते हैं |मैं टिहरी उत्तर भारत की चिलचिलाती गर्मी से बचने के लिए आया था पर मेरे गेस्ट हाउस में एसी लगा हुआ मैं रात में प्राक्रतिक हवा की चाह में भ्रमण पर निकल पड़ा रात के स्याह अँधेरे में दूर पहाड़ों पर आग की लपटें दिख रही थीं |जंगलों में आग लगी है साहब जी मेरी तन्द्रा को तोडती हुई आवाज गेस्ट  हाउस के चौकीदार की थी | कैसे ? अब गर्मी ज्यादा पड़ने लग गयी है बारिश देर से होती है इसलिए सूखे पेड़ हवा की रगड़ से खुद जल पड़ते हैं वैसे कभी –कभी पुरानी घास को हटाने के लिए लोग खुद भी आग लगा देते हैं और हवा से आग बेकाबू हो जाती है तो पहाड़ जल उठते हैं |मेरी एक तरफ जंगलों में लगी आग थी जिससे पहाड़ चमक रहे थे और दूसरी तरफ टिहरी बाँध की बिजली  से जगमगाता नया टिहरी शहर विकास की आग में दमक रहा था मैं अपने कमरे में थोड़ी ठण्ड की चाह में लौट रहा था जहाँ एसी लगा था | 
प्रभात खबर में 05/12/2017 को प्रकाशित 

Wednesday, November 29, 2017

ऑनलाइन कारोबार का अगला चरण

सजे हुए परंपरागत बाजार अभी इतिहास की चीज नहीं हुए हैं, शायद होंगे भी नहीं, पर ऑनलाइन शॉपिंग ने उनको कड़ी टक्कर देनी शुरू कर दी है। परंपरागत दुकानों की तरह ही ऑनलाइन व्यापारियों के पास हर सामान उपलब्ध हैं। किताबों से शुरू हुआ यह सिलसिला फर्नीचर, कपड़ों, बीज, किराने के सामान से लेकर फल, सौंदर्य प्रसाधन तक पहुंच गया है। यह लिस्ट हर दिन बढ़ती जा रही है। इस खरीदारी की दुनिया में घुसना इतना आसान है कि आप अपने बेडरूम से लेकर दफ्तर या गाड़ी से, कहीं से भी यह काम कर सकते हैं। ई-कॉमर्स पोर्टलों की बहार है। भारत में ऑनलाईन बाजार का एक चक्र पूरा हो गया अब देश इस कारोबार के अगले पायदान पर चढने के लिए तैयार हो रहा है और इसमें शामिल हैं फल,अनाज और सब्जी | ऑनलाईन बाजार के पहले चरण में इलेक्ट्रॉनिक सामान और कपडे की खूब खरीददारी शुरू हुई जो अभी तक लगातार जारी है जिसमें उपभोक्ताओं को लुभाने के लिए खूब आकर्षक उपहार और छूट भी शामिल थीं |सबसे महतवपूर्ण सारे अंतरष्ट्रीय ब्रांड का एक जगह उपलब्ध हो जाना भी रहा |पिछले साल की चौथी तिमाही (अक्तूबर –दिसम्बर ) में भारत अमेरिका को पिछाड कर दुनिया में  चीन के बाद दूसरे नम्बर पर  सबसे ज्यादा स्मार्टफोन धारकों का देश बन चुका है पर भारत के स्मार्ट फोन बाजार में अभी भी असीमित संभावनाएं हैं क्योंकि भारत में अभी दस मोबाईल फोन में से मात्र चार ही स्मार्ट फोन हैं और यह आंकड़ा विकसित देशों के स्मार्टफोन धारकों के मुकाबले काफी कम है |स्मार्ट फोन की बढ़ोत्तरी ऑनलाईन शौपिंग को बढ़ावा दे रही है लेकिन इसमें घरेलू इस्तेमाल का किराना अछूता रहा उसके लिए उपभोक्ताओं को या तो मॉल में खरीददारी करनी पड़ती या फिर मोहल्ले की दूकान पर निर्भर रहना पड़ता |ऑनलाईन कारोबार के पंद्रह साल के इतिहास में किराने का सामान उपभोक्ताओं को विकल्प नहीं दे पाया वहीं इलेक्ट्रॉनिक सामान ने परम्परागत बाजार का पैंतीस प्रतिशत हिस्सा हथिया लिया जबकि यात्रा से सम्बन्धित मामलों में यह आंकड़ा पचास प्रतिशत हो गया |अमेजन और फ्लिप्कार्ट जैसी कम्पनियां अभी इस बाजार के मात्र तीन से पांच प्रतिशत हिस्से को पाने के लिए कमर कस चुकी हैं |अमेजन जहाँ इस बाजार में जहाँ पहले से ही कूद चुकी है वहीं फ्लिप्कार्ट ने अमेजन को टक्कर देने के लिए अपने ऑनलाईन किराना स्टोर की शुरुआत सुपरमार्केट नाम के स्टोर के साथ शुरू कर दी है यह परियोजना प्रयोग के लिए बंगुलुरु में अपने कर्मचारियों के लिए शुरू की है |
पे टी एम माल अपने मुख्य निवेशक अलीबाबा के साथ इस क्षेत्र में विस्तार कर रही है जिसने बिग बास्केट में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी  खरीद ली है |अमेजन इण्डिया  खाने का सामान अमेजन पैंट्री के साथ चुने हुए शहरों में उपलब्ध करा रहा है और उसी दिन किराने का सामान उपभोक्ताओं को उपलब्ध कराने के लिए बिग बाजार और हाइपर सिटी के साथ करार किया है जिस सेवा का लाभ अमेजन नाऊ एप के सहारे चुने हुए शहरों में लिया जा सकता है |अमेजन के किराना खंड की मांग में दो सालों के भीतर ढाई सौ प्रतिशत की वृद्धि दर्ज  हुई है जिसमें 1.9 मिलीयन उत्पाद और नौ हजार विक्रेता जुड़े हुए हैं |इस क्षेत्र में मांग के पीछे सीधा तर्क यह है कि आम उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद और कपडे रोज –रोज़ नहीं खरीदता |आम तौर पर मोबाईल दो साल और फ्रिज पांच साल या उससे भी ज्यादा समय में बदला जाता है जबकि किराना में शामिल चीजों की जरुरत हर महीने पड़ती है क्योंकि इसमें जयादातर दैनिक उपभोग की वस्तुएं शामिल रहती हैं |मॉल संस्कृति के आने से किराना खरीद व्यवहार सुहाना जरुर हुआ है पर बढ़ते शहर और ट्रैफिक में लगने वाला समय इस अनुभव को थोडा कडुवा बना देता है |वहीं इलेक्ट्रॉनिक सामान और कपडे की ऑनलाईन खरीद जो मूलतः शहरी प्रवृत्ति है एक संतृप्ति बिंदु पर आकर टिक गयी है |जबकि ऑनलाईन किराना ग्राहक को अपने समय के हिसाब से खरीददारी का विकल्प देता है और स्थापित ब्रांडेड कम्पनियों के उत्पाद एक तरह का भरोसा भी कि सामान अच्छा होगा और अगर गुणवत्ता में कोई समस्या आयेगी तो शिकायत पर सुनवाई भी होगी |रेड्शीर कंसलटिंग रिपोर्ट के अनुसार भारत में ऑनलाईन किराना कारोबार इस साल के अंत तक एक बिलियन डॉलर तक पहुँच जाएगा और अगले चार वर्षों में पचपन प्रतिशत की वृद्धि दर के साथ बढेगा | इन्डियन ब्रांड इक्विटी फाउंडेशन की 2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में किराना बाजार का आकार 566 बिलियन डॉलर का है जबकि भारत का कुल खुदरा बाजार का आकार 672 बिलियन डॉलर का है मतलब किराने के सामानों के रूप में बाजार का एक बड़ा भाग ऑनलाईन कारोबार से दूर है और सारी कम्पनियां इस हिस्से को कब्जा करने की होड़ में है |लेकिन सब्जी ,फल और अनाज बेचना मोबाईल या फ्रिज बेचने से अलग है जहाँ मुनाफा कम और सामान भेजने की लागत ज्यादा है जिसके लिए एक अलग तरह की बिक्री आधारभूत  ढांचे की जरुरत होगी,सब्जी, फल की गुणवत्ता उनके ब्रांड नहीं बल्कि उनके ताजे होने से आंके जायेगी |
इस चुनौती से भारत के कुछ बड़े शहरों में ही पार पाया जा सकता है पर देश के बाकी हिस्से अभी इनके लिए तैयार नहीं दिखते हैं ऐसे में ऑनलाईन कारोबार करने वाली कम्पनियां मुनाफा कैसे कमाएंगी इसका फैसला होना है क्योंकि कई इस क्षेत्र में कई स्टार्ट अप असफल हो चुके हैं |दूसरा मुद्दा विधिक है भारत जैसे देश में जहाँ उपभोक्ता किराने के सामानों को लेकर काफी सतर्क रहते हैं वहां खराब सामान की वापसी प्रक्रिया क्या और कैसी होगी क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक सामान अगर खराब या गड़बड़ है तो उसके बगैर गुजारा चल सकता है पर खाने पीने की चीजों के साथ यह विकल्प नहीं होता है |यह जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है |ऐसी परिस्थिति में ऑनलाईन कम्पनियां उपभोक्ता को क्या विकल्प देंगी ,यह देखना ही ऑनलाईन किराने व्यापार के भविष्य को निर्धारित करेंगी |
अमर उजाला में 29/11/17 को प्रकाशित 

Saturday, November 25, 2017

साइबर अपराधों के प्रति सतर्कता जरुरी

इसमें कोई शक नहीं है कि इंटरनेट के राजनैतिक इस्तेमाल का श्रेय भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जाता है वो चाहे सोशल मीडिया पर उनकी सक्रियता हो या अपना चुनाव अभियान इंटरनेट केन्द्रित करना या फिर सरकार में आते ही डिजीटल इण्डिया, स्टार्ट अप इण्डिया जैसे नवोन्मेषी कार्यक्रमों की घोषणा हो जिनके आधार में इंटरनेट की ताकत को जन –जन तक पहुँचाना ही रहा है.अपने इसी सोच को विस्तार देते हुए उन्होंने ‘‘साइबर स्पेस पर वैश्विक सम्मेलन’’ के उदघाटन भाषण में आगे बढाया .जिसका विषय था  साइबर फॉर ऑल(एक समावेशी, सतत विकास, सुरक्षित साइबर स्पेस)। जिसमें  साइबर स्पेस में सहयोग को बढ़ावा देने, जिम्मेदार व्यवहार के लिए मानदंडों और साइबर क्षमता निर्माण को बढ़ाने से संबंधित मुद्दों पर 120 देशों के प्रतिनिधियों द्वारा विचार-विमर्श किया गया .इस सम्मेलन का आयोजन साइबर स्पेस में भारत की बड़ी और महतवपूर्ण स्थिति को दिखाता है. इस अवसर पर  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने  डिजिटल माध्यम और प्रौद्योगिकी की सराहना करते हुए कहा कि डिजीटल  प्रौद्योगिकी सबको समानता पर लाने की बड़ी क्षमता रखती है जिसने सेवाओं को लोगों तक पहुंचाने, प्रशासन में सुधार और शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक के क्षेत्र में कारगर मदद की है. जन धन बैंक अकाउंट, आधार प्लेेटफार्म और मोबाइल माध्यम से  भ्रष्टायचार को कम कर पारदर्शिता लाने में मदद मिल रही है. इंटरनेट की शुरुवात में किसी ने नहीं सोचा होगा कि यह एक ऐसा आविष्कार बनेगा जिससे मानव सभ्यता का चेहरा हमेशा के लिए बदल जाएगा . आग और पहिया के बाद इंटरनेट ही वह क्रांतिकारी कारक जिससे मानव सभ्यता के विकास को चमत्कारिक गति मिली.इंटरनेट के विस्तार के साथ ही इसका व्यवसायिक पक्ष भी विकसित होना शुरू हो गया.प्रारंभ में इसका विस्तार विकसित देशों के पक्ष में ज्यादा था  पर जैसे जैसे तकनीक विकास होता गया इंटरनेट ने विकासशील देशों की और रुख करना शुरू किया और नयी नयी सेवाएँ इससे जुडती चली गयीं  . भारत सही मायने में कन्वर्जेंस की अवधारणा को साकार होते हुए देख रहा है, जिसका असर तकनीक के हर क्षेत्र में दिख रहा है। इंटरनेट मुख्यता कंप्यूटर आधारित तकनीक रही है पर स्मार्ट फोन के आगमन के साथ ही यह धारणा तेजी से ख़त्म होने लग गयी और जिस तेजी से मोबाईल पर इंटरनेट का इस्तेमाल बढ़ रहा है वह साफ़ इशारा कर रहा है की भविष्य में इंटरनेट आधारित सेवाएँ कंप्यूटर नहीं बल्कि मोबाईल को ध्यान में रखकर उपलब्ध कराई जायेंगी.
हिंदी को शामिल करते हुए इस समय इंटरनेट की दुनिया बंगाली ,तमिल, कन्नड़ ,मराठी ,उड़िया , गुजराती ,मलयालम ,पंजाबी, संस्कृत,  उर्दू  और तेलुगु जैसी भारतीय भाषाओं में काम करने की सुविधा देती है आज से दस वर्ष पूर्व ऐसा सोचना भी गलत माना जा सकता था पर इस अन्वेषण के पीछे भारतीय इंटरनेट उपभोक्ताओं के बड़े आकार का दबाव काम कर रहा था .भारत जैसे देश में यह बड़ा अवसर है जहाँ मोबाईल इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं की संख्या विश्व में अमेरिका के बाद सबसे ज्यादा है । इंटरनेट  हमारी जिंदगी को सरल बनाता है और ऐसा करने में गूगल का बहुत बड़ा योगदान है। आज एक किसान भी सभी नवीनतम तकनीकों को अपना रहे हैं, और उन्हें सीख भी  रहे हैं,लेकिन इन तकनीकों को उनके लिए अनुकूलित बनाना जरूरी है जिसमें भाषा का व कंटेंट का बहुत अहम मुद्दा है।इसलिए भारत में हिन्दी और भारतीय भाषाओं  में इंटरनेट के विस्तार पर बल दिया जा रहा है . इंटरनेट ने दुनिया को एक स्क्रीन  में समेट दिया है, समय स्थान अब कोई सीमा नहीं है बस इंटरनेट होना चाहिए, हमारे कार्य व्यवहार से लेकर भाषा तक हर क्षेत्र में इसका असर पड़ा है और भारत भी इस का अपवाद नहीं है. वर्तमान में चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा जनसँख्या समूह भारत का है जो इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहा है पर इसमें  ग्रामीण आबादी का मात्र नौ प्रतिशत हिस्सा ही है जो इंटरनेट से जुड़ा है .
 साइबर स्पेस प्रौद्योगिकी को लोगों का मददगार बनना चाहिए. पर इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि समाज के असुरक्षित समुदाय के लोग साइबर अपराधों की साजिश में नहीं फंसे. साइबर सुरक्षा के प्रति सतर्कता जरूरी है पर भारत की साइबर अपराधों के प्रति उतनी तैयारी दिखती नहीं जितनी होनी चाहिए. एसोचैम-पीडब्ल्यूसी ने संयुक्त अध्ययन में कहा कि देश में  साइबर हमले प्रतिदिन जारी हैं . भारत में 2011 से 2014 के बीच  आईटी एक्ट 2000 के तहत पंजीकृत साइबर अपराध के मामलों में लगभग तीन सौ प्रतिशत की वृद्धि हुई है .शोध में इस बात का भी जिक्र किया गया है कि ये हमलावर न्यूक्लियर प्लांट, रेलवे , अस्पताल जैसी महत्वपूर्ण जगहों के कंप्यूटर सिस्टम पर हो  सकते हैं जिसके नतीजे में बिजली जाना  ,जल प्रदुषण , बाढ़ , जैसे गंभीर परिणाम पूरे देश को  भुगतने पड सकते हैं.  23 अगस्त 2016 को सूचना के अधिकार से मिली  मिली जानकारी के अनुसार बीते साढ़े चार साल में 979 सरकारी वेबसाइट्‌‌‌स हैक हुई हैं.इलेक्ट्रॉनिकी और सूचना प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा दिए गए इन आंकड़ों के अनुसार2012 में 371, 2013 में 189, 2014 में 155, 2015 में 164 और 2016 में जून महीने तक 100 सरकारी वेबसाइट्‌‌‌स हैक हुईं. आरटीआई से मिली इस जानकारी में यह भी बताया गया था कि भारत में बीते साढ़े चार सालों में सबसे ज्यादा साइबर हमले पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन से हुए हैं. हालाँकि सरकार ने ज्यादा  महत्वपूर्ण मामलों के लिए नेशनल क्रिटीकल इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोटेक्शन सेंटर (NCIPC)की एक नयी इकाई बना दी गयी है जो रक्षा दूरसंचार,परिवहन ,बैंकिंग आदि क्षेत्रों की साइबर सुरक्षा के लिए उत्तरदायी है. यह भी कम चिंतनीय नहीं है  कि देश के एकमात्र साइबर ट्राइब्यूनल के चेयरमैन का पद पिछले  पांच साल से खाली है . इंटरनेट के बढते विस्तार से भारत में साइबर हमले का खतरा बढ़ा है पर हमारी तैयारी उस अनुपात में नहीं है आवयश्कता समय की मांग के अनुरूप कार्यवाही करने की है.
 आई नेक्स्ट में 25/11/2017 को प्रकाशित 

Saturday, November 11, 2017

डिजीटल लेन- देन भरोसे का संकट

इंटरनेट एक विचार के तौर पर सूचनाओं को साझा करने के सिलसिले के साथ शुरू हुआ था चैटिंग और ई मेल से यह हमारे जीवन में जगह बनाता गया फिर ऑनलाईन शॉपिंग ने खेल के सारे मानक बदल दिए पर  भारत में इस सूचना क्रांति के अगुवा बने स्मार्टफोन जिन्होंने मोबाईल एप  और ई वालेट के जरिये पर्स में पैसे रखने के चलन को हतोसाहित करना शुरू किया | आईटी क्षेत्र की एक अग्रणी कंपनी सिस्को ने अनुमान लागाया है कि सन २०१९ तक भारत में स्मार्टफोन इस्तेमाल करने वाले उपभोक्ताओं की संख्या लगभग ६५ करोड़ हो जाएगी जो जाहिर तौर पर इस ई लेन देन  की प्रक्रिया को और गति देगी | फॉरेस्टर की एक रिपोर्ट के मुताबिकलगभग  3.5 करोड़ लोग ऑनलाइन खरीदारी करते हैंजिनकी संख्या  2018 तक 12.80 करोड़ हो जाने की उम्मीद है। इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं के मामले में भारत दुनिया में तीसरे नंबर पर हैपर यहां ई-कॉमर्स का भविष्य मोबाइल के हाथों में है। मार्केट रिसर्च संस्था आईडीसी के मुताबिकभारत में स्मार्टफोन का बाजार 40 प्रतिशत की गति से बढ़ रहा है। मोबाइल सिर्फ बातें करनेतस्वीरों व संदेशों का माध्यम भर नहीं रह गए हैं। अब स्मार्टफोन में चैटिंग ऐप के अलावाई-शॉपिंग के अनेक ऐप लोगों की जरूरत का हिस्सा बन चुके हैं। इंटरनेट ऐंड मोबाइल एसोशिएशन ऑफ इंडिया व केपीएमजी की रिपोर्ट के मुताबिकभारत का ई-कॉमर्स का बाजार 12.6 बिलियन डॉलर का है और 2020 तक यह देश की जीडीपी में चार प्रतिशत का योगदान देगा। अभी ओनलाईन खरीददारी के लिए अंग्रेजी भाषा पर निर्भरता ज्यादा है कुछ साईटों को छोड़कर अभी सभी बड़े ऑनलाइन स्टोर्स अंग्रेजी पर निर्भर हैं  पर जैसे जैसे क्षेत्रीय भाषाओँ में खरीददारी का दायरा बढेगा ये कारोबार और गति पकड़ेगा | ।
आज सरकार भी यह चाहती है कि लोग इलेक्ट्रौनिक लेन देन ज्यादा से ज्यादा करें जिससे पारदर्शिता को बढ़ावा मिले और  काले धन के पैदा होने की संभावना को समाप्त किया जा सके |सरकार के लिए नोट छापना एक खर्चीला काम है |टफ्ट्स विश्वविद्यालय के  प्रकाशन कॉस्ट ऑफ़ कैश इन इण्डिया” के आंकड़ों के अनुसार भारत नोट छापने और उनके प्रबन्धन के लिए सालाना इक्कीस हजार करोड़ रुपये खर्च  करता है एक हजार और पांच सौ रुपये के पुराने एक नोट छापने में रिजर्व बैंक ऑफ़ इण्डिया को क्रमशःदो रुपये पचास पैसे और तीन रुपये सत्रह पैसे खर्च करने पड़ते थे  |मूडीज की रिपोर्ट के अनुसार साल 2011से 2105 तक ई भुगतान ने देश की अर्थव्यवस्था में 6.08 बिलियन डॉलर  का इजाफा किया है|मैकिन्सी ने अपनी एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया है कि इलेक्ट्रौनिक लेन देन के बढ़ने से साल 2025 तक देश की अर्थव्यवस्था में 11.8 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होगी |आंकड़े आने वाले कल की सुनहरी उम्मीद जगाते हैं पर ये मामला मानवीय व्यवहार से भी जुड़ा है जिसके बदलने में वक्त लगेगा भारतीय परिस्थितियों में मौद्रिक लेन देन विश्वास से जुड़ा मामला भी है जब हम जिसे पैसा दे रहे हैं वो हमारे सामने होता है जिससे एक तरह का भरोसा जगता है |स्मार्टफोन के आने और ई शॉपिंग के बढ़ने से लोगों ने ई लेन देन करना शुरू कर दिया है |
पर महज स्मार्ट फोन प्रयोगकर्ताओं की संख्या बढ़ने से लोग डिजीटल लेन-देन की तरफ ज्यादा बढ़ेंगे ऐसा वर्तमान परिस्थतियों में सम्भव नहीं दिखता और डिजीटल लेन-देन की अपनी समस्याएँ हैं मार्च 2016 तक भारत में 342.46 मिलीयन इंटरनेट प्रयोगकर्ता है जो कुल आबादी का मात्र का छब्बीस प्रतिशत हैं |ऑनलाइन उपभोक्ता अधिकार जैसे मुद्दों पर न तो कोई जागरूकता है न ही कोई ठोस सार्थक  कानून | ई वालेट प्रयोग  और ऑन लाइन खरीददारी उपयोगिता के तौर पर बहुत लाभदायक है पर किन्ही कारणों से आपको खरीदा सामान वापस करना पड़ा या खराब उत्पाद मिल गया और उपभोक्ता अपना पैसा वापस चाहता है तो  अनुभव यह बताता है कि उसे पाने में तीन से दस  दिन तक का समय लगता है और इस अवधि में उस धन पर डिजीटल प्रयोगकर्ता को कोई ब्याज नहीं मिलता और  यह एक लम्बी थकाऊ प्रक्रिया है जिसमें अपने पैसे की वापसी के लिए बैंक और ओनलाईन शॉपिंग कम्पनी के कस्टमर केयर पर बार बार फोन करना पड़ता है |कई बार कम्पनियां पैसा नगद न वापस कर अपनी खरीद बढ़ाने के लिए गिफ्ट कूपन जैसी योजनायें जबरदस्ती उपभोक्ताओं के माथे मढ देती हैं और ऐसी परिस्थितियों में उत्पन्न हुई समस्या के समयबद्ध निपटारे की कोई समुचित व्यवस्था नहीं है |जेब में पैसा होना एक तरह का आत्मविश्वास देता है | क्या वह आत्म विश्वास   जेब में पड़ा मोबाईल ई वालेट या डेबिट /क्रेडिट कार्ड दे पायेगा जहाँ  देश  में डिजीटल लेन-देन अभी विकसित देशों के मुकाबले उतनी ज्यादा मात्रा में नहीं हो रहा है फिर भी सर्वर बैठने की समस्या से उपभोक्ताओं को अक्सर दो चार होना  पड़ता है|मोबाईल का नेटवर्क हवा के झोंके के साथ आता जाता रहता है |बैंक से पैसा निकल जाता है और सम्बन्धित कम्पनी तक नहीं पहुँचता फिर उसके वापस आने का इन्तजार जैसे –जैसे ई लेन-देन बढ़ रहा है उसी अनुपात में साइबर अपराध की संख्या में इजाफा हो रहा है |राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक साल 2011 से 2015 के बीच भारत में साइबर अपराध की संख्या में तीन सौ पचास प्रतिशत की वृद्धि हुई है जिनमे बड़ी संख्या में आर्थिक  साइबर अपराध  भी शामिल हैं जागरूकता में कमी के कारण आमतौर पर जब उपभोक्ता ऑनलाईन धोखाधड़ी का शिकार होता है तो उसे समझ ही नहीं आता वो क्या करेये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब जितनी जल्दी मिलेगा लोग उतनी तेजी से इलेक्ट्रौनिक ट्रांसेक्शन की तरफ बढ़ेंगे |देश की बड़ी आबादी अशिक्षित और निर्धन है वो आने वाले वक्त में कितनी बड़ी मात्रा में  डिजीटल लेन देन करेगी यह उस व्यवस्था पर निर्भर करेगा जहाँ लोग पैसा खर्च करते उसी निश्चिंतता और भरोसे को पा सकें जो उन्हें कागजी मुद्रा के लेन देन करते वक्त प्राप्त होती है  |
आई नेक्स्ट में 11/12/2017 को प्रकाशित 

Wednesday, November 8, 2017

प्राइवेसी का पिटारा

वर्तमान समय  में फेसबुक ने और कुछ किया हो न किया हो पर हमारी जिंदगी को एक मेगा इवेंट में जरूर बदल दिया है .मिलना ,बिछुड़नाचलना ,रूठना ,मनाना ,रोना ,खोना और पाना न जाने क्या क्या बस सब कुछ लोगों को पता चलना चाहिए .जैसे जैसे सोशल मीडिया का प्रभाव बढ़ता जा रहा है उतना ही  तेजी से निजता के अधिकार की सुरक्षा भी माँगी जा रही है .विचित्र दौर है जब हम खुद चाहते हैं कि लोग हमारे बारे में जाने, हम क्या खाते हैं कौन हमारे ख़ास दोस्त हैं .हम कहाँ जा रहे हैं .ये आत्म मुग्धता  का महान दौर है जब एक ही वक्त में दो परिस्थितियां आमने सामने हैं .किसी का जन्मदिन है तो फेसबुक आपको याद दिला दे रहा है और हम भी जन्मदिन की शुभकामनायें लिख कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ले रहे हैं .किसी घर में किसी की मौत हुई उसने मृतक की  तस्वीर लगाई और शुरू हो गया रेस्ट इन पीस का सिलसिला ,मानों किसी अपने को ढाँढस बंधाने के लिए इतना काफी हो चंद शब्द और मानवता का हक अदा हो गया .सब कुछ इतना तकनीकी और व्यवस्थित होता जा रहा है कि मानो होड़ लगी हो जिन्दगी का जो सरप्राइज एलीमेंट है उसे ख़त्म करके ही दम लिया जायेगा . इसे गलत और सही के नज़रिए से न देखा जाए बस ये समझा जाये हम सूचना तकनीक के इस युग में कितने प्रत्याशित होते जा रहे हैं .सब कुछ कितना मशीनी होता जा रहा है.सोशल मीडिया सूचनाओं के आदान प्रदान और वैचारिक विमर्श के लिए एक क्रांतिकारी तकनीक है पर जिन्दगी के कठिन मसले आपसी लड़ाई झगडे के लिए तो यह जगह बिलकुल भी ठीक नहीं क्योंकि अपनी निजता को बचा कर रखने में हमारी भी कोई जिम्मेदारी बनती है .मेरे एक मित्र ने शादी से पहले स्टेट्स अपडेट किया इन रिलेशनशिप विद पर बात शादी तक नहीं पहुँची अब समाज के तरह तरह के सवालों से बचने के लिए अपने पुराने स्टेटस हटाने पड़े और लडकी की क्या स्थिति हुई होगी इसका सिर्फ अंदाज़ा लगाया जा सकता है .डिजीटल दोस्ती और दुश्मनी हमको एक व्यक्ति के तौर पर हल्का बना रहे हैं वहीं वर्च्युल सम्बन्ध पारस्परिक मेल मिलाप के अभाव में औपचारिकताओं के मोहताज़ बन कर रह जा रहे हैं.जिन्दगी जीने का असली मजा तो तभी है जब आपके पास दो चार ऐसे लोग हों जिनसे आप बगैर फोन किये कभी भी मिल सकते हों या अगर आप फेसबुक पर अपने मित्र को शुभकामना न भी दें तो सम्बन्धों पर कोई असर न पड़ें क्योंकि रिश्ते सोशल मीडिया के मोहताज नहीं होते हैं फिर वो सम्बन्ध ही क्या जिसका आपको ढिंढोरा पीटना पड़े और यही प्राइवेसी है जो मेरे हैं वो मेरे रहेंगे |
प्रभात खबर में 08/11/17 को प्रकाशित 

Monday, November 6, 2017

विचार मंथन से आशंका और उम्मीदों का जन्म

विमर्श के कई आयाम होते हैं और हर विमर्श नए विचार  का स्वागत बाँहें फैला करे यह जरुरी तो नहीं है ,पर यह यह संवादी की खूबसूरती ही है कि अभिव्यक्ति के इस आयोजन में  मौका तो था विधाओं के छूटते सिरे पर विमर्श का पर इस विमर्श से जो नए विचार निकले उनमें जहाँ ज्ञान की गंगोत्री थी तो कुछ आशंकाएं भी कुछ चिंता थी तो आने वाला वक्त आज से बेहतर होगा ऐसी एक उम्मीद भी |इस रिपोर्ट को लिखते वक्त मेरे बगल एक युवा बैठा था जो लगातार मंच पर बैठे वक्ताओं के बारे में पूछ ताछ कर रहा था |मुझे ख़ासा गुस्सा आ रहा था क्योंकि उसके सवालों के बीच मैं मंच पर हो रहे वार्तालाप के सिरे को खो दे रहा था |शायद उसका साहित्य से कोई लेना देना न हो पर मैंने उसे डानटा नहीं वो डेढ़ घंटे के इस सत्र में पूरी तल्लीनता से मंच पर मुद्दे को समझने की कोशिश करता रहा |आज भले ही उसे कुछ ख़ास समझ न आया हो पर उसकी जिज्ञासा ने मुझे यह उम्मीद जरुर दी कि संवादी जैसे कार्यक्रम आज के युवाओं में साहित्य के संस्कार के बीज जरुर बो जायेंगे |अगली बार शायद जब मैं उससे मिलूं तो वह सब कुछ न सही थोडा बहुत साहित्य के बारे में जरुर जान गया होगा |बहरहाल विधाओं के छूटते सिरे के बहाने साहित्य की उन विधाओं के बारे में चर्चा हो रही थी जो आजकल लुप्त सी होती जा रही हैं कारण कुछ भी हो सकता है तकनीक का बढ़ता प्रयोग ,उदारीकरण या इंसान का इस मशीनी दुनिया में लगातार अकेले होते जाना |इस चर्चा में भाग ले रहे थे अपनी अपनी साहित्यिक विधाओं के माहिर डॉ विनय कुमार ,डॉ सच्चिदानन्द जोशी, डॉ अजय सोडानी और मनीषा कुलश्रेष्ठ जबकि इस महत्वपूर्ण विषय के संचालन का शानदार दायित्व निभाया लीलाधर मंडलोई  ने |
बात शरू हुई हिन्दी  साहित्य  की विभिन्न विधाओं में आजकल क्या चल रहा है और बात का सिरा पकड़ा डॉ विनय कुमार ने दिनकर को याद करते हुए कि भावनाओं की मरोड़ से छंद पैदा होते हैं और इसी मरोड़ से साहित्य की अन्य विधाएं भी पैदा होती हैं स्रष्टि की शुरुआत में भावनाएं थी विचार नहीं इसलिए कविताएँ फिर समय बढ़ा विचार आये जिससे कहानियां निकलीं फिर उपन्यास और अन्य  विद्याएं |मशीनों ने जीवन की रफ़्तार बढ़ाई तो हमारी इच्छाएं भी तेजी से बढीं पर जब किसी भी चीज की रफ़्तार बढ़ती है तो परिदृश्य छूटने लगते हैं और ऐसा ही साहित्य की छूटती विधाओं के साथ हुआ ,पत्र लेखन की जगह अब ई मेल और व्हाट्स एप ने ले लिया है पर पत्र लिखने के अंत में जो हस्ताक्षर का कमिटमेंट हुआ करता था |अब वह गायब है |डॉ सचिदानंद ने कहा तकनीक केन्द्रित जीवन ने हमारे जीवन की गोलाइयों को खत्म कर दिया है |प्रकृति का संगीत सुनने की बजाय हम तकनीक का संगीत सुन रहे हैं |साहित्य का फ़ॉर्मेट बदल गया है |अखबारों की इस प्रव्रत्ति पर व्यंग्य करते हुए उन्होंने कहा भाव शब्द नाप के व्यक्त नहीं किये जा सकते |
डॉ अजय सोडानी ने कहा समाज का साहित्य पर असर पड़ता है पर साहित्य का समाज पर नहीं बल्कि व्यक्ति पर प्रभाव होता है |इस वक्त का समाज दो मनोविकार से ग्रस्त है पहला विकास का कि जो कुछ पुराना या उपलब्ध है उसे हटाकर नया बनाना है हम मानव सृजित प्रकृति में रहना चाहते हैं दूसरा समयाभाव हम हर चीज की जल्दीबाजी में और अगर ऐसा होगा तो कहानियां तीन सौ शब्दों में लिखी जायेंगी और कविताओं में से लय गायब हो जायेगी |
मनीषा कुलश्रेष्ठ ने माना उनके देखते देखते रेखाचित्र ,ललित निबंध ,पत्र लेखन धूमिल पड़ते गए और ब्लॉग पोर्टल की नई दुनिया ने जन्म ले लिया |विधाएं पग डंडियाँ हैं जो समय के साथ कुछ फॉर लेन  हो गयीं कुछ पर खर पतवार जम गयीं पर विधा एक ऐसी दादी है जो चाहती है कि सब अपने अपने घर बसा लें पर त्योहारों पर घर जरुर लौटें अगर ऐसा होता रहेगा तो विद्याएं आगे बढ़ती रहेंगी |
दैनिक जागरण में 06/11/2017 को प्रकाशित 

Saturday, November 4, 2017

महिलाओं के आने से राजनीति गंदा शब्द नहीं रह गया है

मौका था संवादी का और उत्सव अभिव्यक्ति का और मुद्दा आधी आबादी का “राजनीति ,महिला और सेक्स यह मुद्दे के प्रति सम्वेदनशीलता थी या जागरूकता पर महिलाओं से सम्बन्धित इस मुद्दे को सुनने वाले लोगों में पुरुष ज्यादा थे और माहौल में इतना सन्नाटा कि मानो कोई फिल्म चल रही हो |मंच पर थी प्रियंका चतुर्वेदी,प्रवक्ता कांग्रेस पार्टी  और पंखुरी पाठक,समाजवादी पार्टी  और संचालन का जिम्मा सम्हाल रखा था पत्रकार राखी बक्शी ने |बात शुरू हुई विषय के शीर्षक को लेकर कि राजनीति ,महिला और सेक्स क्यों हम पुरुषों के लेकर इस तरह की चर्चा क्यों नहीं करते? प्रियंका चतुर्वेदी का मानना था की अगर हम वाकई में समाज में बदलाव लाना चाहते हैं तो हमें राजनीति में आना ही पड़ेगा और कोई विकल्प नहीं है क्योंकि नीतियां राजनीतिज्ञ ही बनाते हैं और जब उन्होंने राजनीति में आने की सोची तो उन्हें बिलकुल अंदाजा नहीं था कि वे किस क्षेत्र में जा रही हैं |जिसमें चारित्रिक हत्या से लेकर ट्रोलिंग जैसी समस्याओं से जूझना पड़ा |शुरुवात में वह डिप्रेशन में चली जाती थीं पर उन्हें लगा कि वे चुप नहीं बैठेंगी |बात राजनीति की हो या कोई और क्षेत्र भारत में महिलाओं को दुगुनी मेहनत करनी पड़ती है और राजनीति में समस्या तब गंभीर हो जाती है जब आप किसी राजनैतिक परिवार से न आते हों |वैसे भी समाज में लोग लड़कियों के स्वतंत्र विचार और गुस्से को लोग स्वीकार नहीं करते और फिर वे आपके चरित्र के बारे में बातें करनी शुरू कर देते हैं |
पंखुरी पाठक का अनुभव भी कुछ ज्यादा अलग नहीं था वे अपनी पार्टी के मुखिया को यह श्रेय देती हैं कि अखिलेश यादव के समर्थन के बिना आज वहां नहीं होतीं जहाँ वह हैं |उनके पिता से शुरुआत में जब पूछा जाता कि उनकी बेटी क्या करती है तो उनके पास बताने के लिए कुछ नहीं होता था पर फिर भी उनके पिता ने उनका हौसला बनाये रखा |राजनीति में जितनी ज्यादा लड़कियां आयेंगी यह क्षेत्र अपने आप महिलाओं के लिए बेहतर होता जाएगा |किसी भी देश की राजनीति उसके समाज का आईना होती है और भारत भी इसमें अपवाद नहीं है पर महिलाओं को अपने हिस्से के हक के लिए लड़ना ही होगा और वो लड़ रही हैं इस पुरुषवादी समाज को एक बराबरी का समाज बनाने के लिए |यह देश की सारी महिलाओं की लड़ाई है |उन्हें भी सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग का शिकार होना पड़ता है पर अब वे उसे ज्यादा गंभीरता से नहीं लेतीं |
महिलायें में कम क्यों आती हैं इसका बड़ा सधा हुआ जवाब प्रियंका चतुर्वेदी का था समाज की समस्याएं अपनी जगह हैं पर राजनीति में न तो को जॉब सिक्योरटी है और न ही कोई निश्चित वेतन इनके अभाव में लड़कियां सुरक्षित विकल्प का रास्ता चुन लेती हैं इसलिए राजनीति के मुकाबले उन क्षेत्रों में जहाँ ये दोनों सुविधाएं मिलती हैं वहां लड़कियां बढ़ रही हैं |
पंखुरी का मानना था महिलाओं को हर कदम पर समाज को  इम्तिहान देना  पड़ता है और राजनीति अपवाद नहीं है खुबसूरत है तो क्यों खुबसूरत है और बदसूरत है तो उसकी अपनी अलग समस्याएं हैं मतलब आप बच नहीं सकतीं |
पर उम्मीद की किरण दोनों को दिखती है प्रियंका कहती हैं राजनीति में महिलाओं के आने से जहाँ अब राजनीति गन्दा शब्द नहीं रह गया है अब लोगों की राय बदल रही है |पंखुरी की राय भी कुछ ऐसी ही थी अब यदि सोशल मीडिया पर उन्हें ट्रोल किया जाता है तो अब पुरुष भी उनके समर्थन में आगे आते हैं जो बता रहा है धीरे ही सही पर बदलाव की बयार बहनी शुरू हो गयी है |
दैनिक जागरण में 04/11/17 को प्रकाशित 

Wednesday, October 25, 2017

बराबरी का हक़ देने की व्यर्थ होती कोशिशें

लैंगिक समानता के हिसाब से आज की दुनिया में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर का अधिकार मिल चुका है पर जमीनी हकीकत कुछ और ही है| जेंडर इनेक्वेलिटी इंडेक्स 2016 की  रिपोर्ट के अनुसार लैंगिक समानता सूचकांक में भारत का 159 देशों में 125 वाँ स्थान है|यह एक बानगी भर है जो महिला सशक्तिकरण से जुड़े मुद्दों के बारे में हमें चेताती है|देश में महिलाओं की भूमिकाउनकी,शिक्षास्वतंत्रताएवं देश के विकास में उनकी भागीदारी जैसे  मुद्दे मुखरता से केंद्र में रहते हैं पर इन सबके बीच एक गौर करने वाला आंकड़ा कहीं पीछे छूट जाता है वह आंकड़ा है कार्य क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी यानि रोजगार देने वाली वह जगहें वहां महिलाओं की भागीदारी कितनी है और उन आंकड़ों की नजर में भारत के कुल कामगारों में महिलाओं की भागीदारी निरंतर कम होती जा रही है।2011 की  जनगणना से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर यह निष्कर्ष निकले हैं| ब्रिक्स देशों जिसमें ब्राज़ीलरूस , चीन एवं दक्षिण अफ्रीका शामिल हैं वहां  भी कुल कामकाजी महिलाओं की संख्या में भारत सबसे पीछे है। यहाँ तक की सोमालिया जैसा देश भी इस मामले में हमसे कहीं आगे है। वर्ष 2011 में श्रमिक बल में महिलाओं की कुल भागीदारी कुल 25 प्रतिशत के आसपास थी। ग्रामीण क्षेत्रों यह प्रतिशत 30 के लगभग एवं शहरी क्षेत्रों में यह प्रतिशत केवल 16 के लगभग था। ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी के ज्यादा होने का कारण उनका कृषि से सम्बन्धित कार्यों में जुड़े होना जो ज्यादातर कम आय के होते हैं और ग्रामीण ढांचे में महिलाओं से उनको करने की उम्मीद की जाती है | महिलाओं के कार्यक्षेत्र में कम भागीदारी के बड़ी वजहें हमारे समाजशास्त्रीय ढांचे में है जहाँ महिलाओं के ऊपर परिवार का ज्यादा दबाव रहता है जिसमें शामिल है  महिलाओं की आगे की पढ़ाई,शादीबच्चों का पालन-पोषण एवं पारिवारिक दबाव। अर्थशास्त्रीय नजरिये से ग्रामीण भारत में  जो महिलाएं काम करती भी हैं उनमें से अधिकतर वही होती हैं जो आर्थिक रूप से निर्बल होती है और उनके पास और कोई चारा नहीं होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग अस्सी  प्रतिशत कामगार महिलाएं कृषि से संबंधित कार्यों में संलग्न हैं जबकि केवल 7.5 प्रतिशत के आसपास महिला कामगार औद्योगिक उत्पादन से जुड़ी हुई हैं। शहरी क्षेत्रों में सबसे अधिक महिला कामगार घरेलू सेवाओं से जुड़ी हुई हैं। भारत में अधिकतर महिला श्रमिक असंगठित क्षेत्रों से जुड़ी हुई हैं। यह वह क्षेत्र है जहां पुरुष कामगारों का भी हद से अधिक शोषण होता है तो महिला कामगारों की तो बात ही छोड़ दी जानी चाहिए । शहरी क्षेत्रों में भी सेवा क्षेत्र  जैसे विकल्प जहां महिलाओं के हिसाब से  काफी काम होता है वहां भी उनकी संख्या नगण्य है। यदि यान्त्रिकी अथवा वाहन उद्योग की भी बात की जाये तो वहाँ कोई महिला कामगार शायद ही मिले। शहरी क्षेत्रों में काम करने वाली अधिकतर महिलाएं अप्रशिक्षित हैं। साथ ही लगभग एक तिहाई शहरी महिला कामगार अशिक्षित हैं जबकि उसी सापेक्ष  पुरुषों की बात की जाए तो ऐसे पुरुषों की संख्या  महज ग्यारह प्रतिशत है। श्रमिक बल में महिलाओं की घटती संख्या का एक प्रमुख कारण है तकनीकी एवं व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में उनकी बेहद ही कम संख्या का होना भी है । आंकड़े बताते हैं कि इस तरह के पाठ्यक्रमों में शामिल महिलाओं का प्रतिशत मात्र सात  है। जो महिलाएं इन पाठ्यक्रमों में आती भी हैं वे महिलाओं के लिए पारंपरिक रूप से मान्य पाठ्यक्रमों जैसे सिलाई-कढ़ाई एवं नर्सिंग आदि में ही दाखिला लेती हैं। शहरी क्षेत्रों में केवल 2.9 प्रतिशत महिलाओं को ही तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त है। जो कि पुरुष कामगारों की तुलना में आधे से भी कम है। अखिल भारतीय उच्चतर शिक्षा सर्वेक्षण की वेबसाईट पर दिए गए   आंकड़ों के अनुसार स्नातक स्तर के पाठ्यक्रमों में महिलाओं की लगभग तिहत्तर  प्रतिशत संख्या  है जबकि स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में यह प्रतिशत घटकर मात्र  सत्ताईस ही रह जाता है। ऐसी  स्थिति में महिला कामगारों के संगठित क्षेत्रों में काम करने की संभावनाएँ काफी कम हो जाती हैं। इंडियास्पेण्ड्स वेबसाइट के आंकड़ों के अनुसार कई राज्यों में उच्च शिक्षा को बीच में ही छोड़ने वाली महिलाओं की संख्या में इजाफा हो रहा है। अपेक्षाकृत अमीर राज्य जैसे केरल एवं गुजरात भी इस चलन से अछूते नहीं हैं यानि आर्थिक रूप से अगड़े राज्य भी लैंगिक असमानता के शिकार हैं । भारत सरकार के नीति आयोग के अंतर्गत कार्य करने वाले इंस्टीट्यूट फॉर अप्लाइड मैनपावर एंड रिसर्च के द्वारा कराये गए शोध के अनुसार तकनीकी पाठ्यक्रमों में कम भागीदारी एवं उच्च-शिक्षा को बीच में ही छोड़ देने की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण ही महिलाओं के तकनीकी श्रमिक बल में योगदान में भी कमी आ रही है।मातृत्व की भूमिकाचूल्हे-चौके की ज़िम्मेदारीसामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रतिबंध एवं पितृसत्तात्मक मान्यताओं और परम्पराओं  की वजह से भी श्रमिक बल में महिलाओं की संख्या घटती जा रही है। शिक्षा जारी रखने एवं विवाहोपरांत प्रवसन भी कुछ हद तक कामगारों में महिलाओं की घटती संख्या के लिए जिम्मेदार हैं। महिलाओं का रोजगार उनके आर्थिक एवं सामाजिक उत्थान का एक महत्वपूर्ण कारक है। श्रमिक बल में महिलाओं की घटती संख्या नीति निर्धारकों के लिए भी चिंता का विषय है क्योंकि यदि यही स्थिति रही तो महिला सशक्तिकरणलिंगभेद उन्मूलन एवं महिलाओं को समाज में बराबरी का हक देने की सारी सरकारी और गैर सरकारी कोशिशें व्यर्थ हो जाएंगी ऐसे में जिस भारत का निर्माण होगा वैसे भारत की कल्पना  तो किसी ने भी न की होगी । अतः यह आवश्यक है की न सिर्फ असंगठित बल्कि संगठित क्षेत्रों के कामगारों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए उचित कदम उठाएँ जाएँ।    
आई नेक्स्ट में 25/10/17 को प्रकाशित 

Wednesday, October 18, 2017

डिजीटल भारत में कंप्यूटर शिक्षा

नब्बे के दशक में स्कूली शिक्षा में पुस्तक कला जैसे विषयों को हटाकर कंप्यूटर शिक्षा को स्कूली शिक्षा का अंग बनाया गया जिसका परिणाम यह हुआ कि दो हजार के शुरुआती दशक में ही भारतीय परचम इस क्षेत्र में लहराने लगा जिससे कई सारी मध्यम वर्गीय सफलता की कहानी बनी जैसे की इन्फ़ोसिस और अन्य स्वदेशी  कम्पनियां जिन्होंने लाखों युवाओं को इस क्षेत्र में करियर बनाने के लिए प्रेरित किया पर यह सफलता की कहानियां लम्बे समय तक जारी नहीं रह सकीं  |भारत में  सूचना प्रौद्योगिकी  का बाजार एक सौ पचास बिलियन डॉलर का है जो भारत के कुल सकल घरेलू उत्पाद का 9.5 प्रतिशत है और पूरी दुनिया में 3.7 मिलीयन लोगों को रोजगार प्रदान कर रहा  है |अर्थव्यवस्था को इतना महतवपूर्ण योगदान देने वाला क्षेत्र आज उत्पादकता के लिहाज से इसलिए पिछड़ रहा है क्योंकि भारत की कंप्यूटर शिक्षा में नवोन्मेष की भारी कमी है और यह बाजार की मांग के हिसाब से खासी पिछड़ी हुई है | तकनीक पर बढ़ती इस   निर्भरता को अनवरत और लाभ उठाने वाला तभी बनाया जा सकता है जबकि सूचना प्रौद्योगिकी  शिक्षा का अभ्यास कॉलेज और स्कूली स्तर पर ज्यादा अद्यतन तरीके से कराया जाए | स्कूल स्तर  पर कंप्यूटर शिक्षा पर दो तरह की समस्याओं का शिकार है| पहला स्कूलों में अभी भी फोकस एम् –एस वर्ड,एक्सेल,पावर प्वाईंट आदि पर है |दूसरा कंप्यूटर की प्राथमिक भाषाओँ को सिखाने में सारा जोर “बेसिक” और “लोगो” जैसी भाषाओं पर ही है |एक समय की अग्रणी कंप्यूटर भाषाएँ जैसे सी, लोगो ,पास्कल ,कोबोल बेसिक ,जावा जो की अब चलन से बाहर हो चुकी हैं अभी भी पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं जबकि कंप्यूटर प्रौद्योगिकी में अग्रणी देश ओपेन सोर्स सोफ्टवेयर और ओपन सोर्स लेंग्वेज को अपना चुके हैं जैसे कि  आर , पायथॉन  रूबी  ऑन  रेललिस्प टाइप स्क्रिप्ट कोटलिन स्विफ्ट और रस्ट इत्यादि |यह भाषाएँ  सी, लोगो ,पास्कल ,कोबोल बेसिक ,जावा के मुकाबले ज्यादा संक्षिप्त,सहज और समझने में आसान हैं |इन भाषाओँ के प्रयोग से किसी भी काम को कल्पना से व्यवहार में बड़ी आसानी से लाया जा सकता है |उल्लेखनीय है की यह भाषाएँ ही हैं जिनसे एक कोड का निर्माण कर किसी भी काम को करने के लिए सोफ्टवेयर का निर्माण किया जाता है |महत्वपूर्ण है कि ये भाषाएँ उन क्षेत्रों में भी ज्यादा काम की हैं जो आजकल बहुत मांग में है जैसे कि “आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस”, रोबोटिक्स आदि|
भविष्य की दुनिया तकनीक और ऑटोमेशन की है जहाँ सभी प्रकार के उद्योग धंधे और व्यवसाय सॉफ्टवेयर आधारित होंगे | आज हर उद्योग  किसी न किसी रूप में सूचना प्रौद्योगिकी की सहायता से चल रहा है  वो चाहे निर्माण,परिचालन ,भर्ती हो या लेखा सभी कम्प्युटरीकृत होते जा रहे हैं  और उपभोक्ता भी पहले के मुकाबले आज निर्णय और खरीदने की प्रक्रिया में ज्यादा से ज्यादा तकनीक का इस्तेमाल कर रहा है |अब कंप्यूटर कौशल और उसकी भाषाएँ आधारभूत जरूरतें हैं | कंप्यूटर की उच्च शिक्षा का और भी बुरा हाल है |शिक्षण संस्थान प्रायोगिक कार्य और वास्तविक कोड निर्माण नहीं करवा पा रहे हैं इसलिए जब कोई कम्प्यूटर स्नातक किसी नौकरी में आता है तो वह अपनी कम्पनी में  इन कार्यों को  सीखता है जिससे कम्पनी पर अनावश्यक बोझ पड़ता है और बहुत समय नष्ट होता है |
 साल 2011 में आयी नासकॉम की एक रिपोर्ट के अनुसार देश के  मात्र 25 प्रतिशत आई टी इंजीनियर  स्नातक ही रोजगार के लायक थे पर छ साल बाद स्थिति और खराब हुई है | अस्पाएरिंग माईंड स्टडी की एक रिपोर्ट स्थिति की गंभीरता की ओर इशारा करती है ,रिपोर्ट के अनुसार भारत के पांच  प्रतिशत कंप्यूटर इंजीनियर ही  उच्च स्तर की प्रोग्रामिंग के लिए उपयुक्त  हैं |यह रिपोर्ट उस समय आयी है जब ग्राहकों की मांग लगातार बढ़ रही है |तेजी से डिजीटल होते भारत में जब रोजगार के नए क्षेत्र तेजी से ऑनलाईन दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं जिनमें कपडे प्रेस करने से लेकर टूटे नल को ठीक करने वाले प्लंबर जैसे काम भी  शामिल हैं  ये बताते हैं कि इस क्षेत्र में काम के अवसर और तेजी से बढ़ते रहेंगे |नई-नई  तकनीक और तकनीकी नवोन्मेष को भारतीय कौशल की विचार शक्ति में लाने के लिए ज्यादा मुक्त और उन्नत कंप्यूटर शिक्षा की तरफ बढना ही एकमात्र समाधान है अन्यथा एक वक्त में सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अगुआ बनकर उभरे भारत के लिए प्रतिस्पर्धा के बाजार में टिकना सम्भव नहीं होगा |

अमर उजाला में 18/10/17 को प्रकाशित 

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