Sunday, December 16, 2012

सूचना प्रौद्योगिकी की सियासत

सूचना प्रौद्योगिकी ने भले ही पूरी धरती को एक गाँव बना दिया हो और हम सूचना समाज की ओर बढ़ चले हों पर भारत के गाँव बदलाव की इस बयार का सुख नहीं ले पाए हैं| वैसे तो देश में सूचना क्रांति के विकास के आंकड़े हौसला बढ़ाते हैं| मैककिन्सी ऐंड कंपनी द्वारा किया गया एक अध्ययन बताता है कि 2015 तक भारत में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले लोगों की तादाद तिगुनी होकर पैंतीस करोड़ से भी ज्यादा हो जाएगी पर तस्वीर का एक हिस्सा उतना चमकदार नहीं है हमारी करीब साठ प्रतिशत आबादी अब भी शहरों से बाहर रहती है। सिर्फ आठ प्रतिशत भारतीय घरों में कंप्यूटर हैं|इंटरनेट ऐंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के मुताबिक भारत की ग्रामीण जनसंख्या का दो प्रतिशत ही इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहा है। यह आंकड़ा इस हिसाब से बहुत कम है क्योंकि इस वक्त ग्रामीण इलाकों के कुल इंटरनेट उपयोगकर्ताओं में से अट्ठारह  प्रतिशत को इसके इस्तेमाल के लिए दस किलोमीटर से ज्यादा का सफर करना पड़ता है।तकनीक के इस डिजीटल युग में हम अभी भी रोटी कपडा और मकान जैसी  मूलभूत समस्याओं के उन्मूलन में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पा रहे हैं |खाद्य सुरक्षा बिल पास होने के इंतज़ार में है | अमरीका के अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति और शोध संस्थान और कन्सर्न वर्ल्डवाइड ने 79 देशों को लेकर एक  विश्व भुखमरी सूचकांक तैयार किया है जिसमें भारत को 65वें स्थान पर रखा गया है|भुखमरी से निपटने के मामले में भारत चीन ही नहीं बल्कि पाकिस्तान और श्रीलंका से पीछे है| संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ की नई रिपोर्ट यह बताती है कि साल 2011 में दुनिया के अन्य देशों की मुकाबले भारत में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की सबसे ज्यादा मौतें हुईं। गौरतलब है कि सूचना तकनीकी का इस्तेमाल मानव संसाधन की बेहतरी के लिए बहुत बड़ा प्रभाव छोड़ने में असफल रही है माना जाता रहा है कि इंटरनेट का इस्तेमाल सरकारी योजनाओं में पारदर्शिता लाएगा और भ्रष्टाचार पर लगाम कसेगा पर ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की नयी रिपोर्ट हमारी आँखें खोल देती है जिसमे भारत को 176 देशों में भ्रष्टाचार के मामले में 94 पायदान पर रखा गया है|सूचना क्रांति का शहर केंद्रित विकास देश के सामाजिक आर्थिक ढांचे में डिजीटल डिवाईड को बढ़ावा दे रहा है| प्रख्यात जोखिम विश्लेषण फर्म मेपलक्राफ्ट  द्वारा जारी डिजिटल समावेशन सूचकांक में ब्रिक देशों के समूह में मात्र भारत को अत्यधिक जोखिम वाले देश  के रूप में वर्गीकृत किया गया है जिसका मतलब है कि आर्थिक विकास के बावजूद अभी भी देश की आबादी का बड़ा हिस्सा डिजीटल समावेशन से दूर है हालांकि बाजार का विस्तार हुआ है लेकिन आईसीटी के उपयोग का  असमान वितरण चिंता का बड़ा कारण है|
उदहारण के रूप में भारत की अमीर जनसँख्या का बड़ा तबका शहरों में रहता है जो सूचना प्रौद्योगिकी का ज्यादा इस्तेमाल करता है|उदारीकरण के पश्चात देश में एक नए मध्यम वर्ग का विकास हुआ जिसने उपभोक्ता वस्तुओं की मांग को प्रेरित किया जिसका परिणाम सूचना प्रौद्योगिकी में इस वर्ग के हावी हो जाने के रूप में भी सामने आया देश की शेष सत्तर प्रतिशत जनसँख्या न तो इस प्रक्रिया का लाभ उठा पा रही है और न ही सहभागिता कर पा रही है|आश्चर्यजनक रूप से इसके पीछे भी बाजार का अर्थशास्त्र जिम्मेदार है न कि तकनीक का अभाव,सूचना प्रौद्योगिकी कोई लोककल्याणकारी नीति पर नहीं बल्कि मुनाफे के अर्थशात्र पर निजी कंपनियों के हाथों में हैं जिनका जोर फायदे को अधिकतम करना है, जाहिर तौर पर इसी लिए इंटरनेट सेवाओं का विस्तार शहरों और उनके इर्द गिर्द के कस्बों में ज्यादा हो रहा है|सामन्यत:एक ग्रामीण इलाके के निवासी की खरीद क्षमता शहरी निवासी से कम होती है इसीलिये बैंडविड्थ और कनेक्टीविटी की समस्या ग्रामीण इलाकों में ज्यादा है| नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन की रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्षपिछले दस वर्ष  में ग्रामीण क्षेत्रों में करीब 0.4 प्रतिशत परिवारों को ही घर में इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध थी।सूचना प्रौद्योगिकी के आने से यह उम्मीद जगी थी कि शहरों और गावों के बीच का अंतर घटेगा और गाँव बिना शहर हुए विकास की धारा का हिस्सा बनेंगे पर व्यवहार में यह डिजीटल डिवाईड उसी आर्थिक सुधार की प्रतिकृति हैं जिसमे अमीर और गरीब में फासला बढ़ रहा है| सूचना प्रौद्योगिकी  मानव समस्याओ का समाधान करने मे मदद करनेवाली मशीनो और प्रक्रिया का विकास प्रयोग है पर यदि इस तकनीक का वितरण असमान होगा तो यह समस्याएं कम करने की बजाय बढाएंगी|भारत जैसे विकास शील देश के ग्रामीण इलाकों में यह तकनीक जितनी जल्दी सर्व सुलभ होगी देश के विकसित राष्ट्र में बदलने का सपना उतनी जल्दी हकीकत बनेगा |
अमर उजाला में 16/12/12 को प्रकाशित 

Tuesday, December 11, 2012

वेब मीडिया बदल रहा है उपभोक्ताओं का मिजाज

इंटरनेट की शुरुआत से ही कन्वर्जेंस की संभावनाओं के असीमित विकल्प खुल गए थे, पर तकनीकी और कंटेंट के स्तर पर यह बदलाव हमारी मीडिया हैबिट पर किस तरह से असर करेगा, इसे लेकर आशंकाएं थीं। भारत जैसे देश में इस बारे में सभी मान रहे थे कि यह परिवर्तन बहुत समय लेगा और तब तक प्रचलित जन-संचार माध्यम अपनी धाक जमाए रखेंगे। सूचनाएं और समाचार पाने का सबसे तेज माध्यम अभी तक टेलीविजन ही था, पर अब यह तस्वीर बदलने लगी है और टेलीविजन को कड़ी टक्कर दे रहा है वेब मीडिया, यानी एक ऐसा माध्यम, जिसका प्रयोग इंटरनेट द्वारा किया जाता है।भारत जैसे देश में अभी इंटरनेट की ब्रॉड बैंड सुविधाओं का व्यापक विस्तार होना बाकी है, लेकिन अब इंटरनेट की सुविधा से लैस मोबाइल फोन मीडिया हैबिट के परिदृश्य पर बड़ा असर डाल रहे हैं। भारत में इस बदलाव की वाहक कामकाजी युवा पीढ़ी है, जो तकनीक पर ज्यादा निर्भर है और परंपरागत रूप से मीडिया उपभोग के समय का भी अधिकतम लाभ लेना चाहती है, यानी खबर पढ़ते-देखते समय भी अपने काम पर रहा जाए। एसी नील्सन के वैश्विक मीडिया खपत सूचकांक 2012 से पता चलता है कि एशिया (जापान को छोड़कर) और ब्रिक देशों में इंटरनेट मोबाइल फोन पर टीवी व वीडियो देखने की आदत पश्चिमी देशों व यूरोप के मुकाबले तेजी से बढ़ रही है, यानी वेब मीडिया परंपरागत इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को बहुत तेजी से चुनौती दे रहा है।यही वजह है कि हर इलेक्ट्रॉनिक टीवी चैनल अब अपनी वेबसाइट पर ज्यादा ध्यान देने लगा है, जिसमें लाइव स्ट्रीमिंग के साथ खबरों का विश्लेषण और पुराने वीडियो भी उपलब्ध रहते हैं। बहरहाल, बदलाव का यह असर बहुआयामी है। समाचारपत्र और एफ एम रेडियो चैनल भी अपनी साइबर उपस्थिति पर ज्यादा जोर दे रहे हैं। बीबीसी  व डायचे वेले जैसे अंतरराष्ट्रीय प्रसारक अपने वेब पोर्टल पर खासा जोर दे रहे हैं। वहां दृश्य-श्रव्य सामग्री के अलावा गंभीर विश्लेषण हैं, वहीं समाचारपत्र ई-पेपर के अलावा अपनी वेबसाइट को लगातार अपडेट रख रहे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक मीडिया उपभोग के मामले में टेलीविजन अब भी नंबर एक है, पर लोगों के इंटरनेट पर समय बिताने के मामले में बहुत तेजी से इजाफा हो रहा है, जिससे विज्ञापनदाताओं का झुकाव भी वेब की तरफ हो रहा है। निवेश पर सर्वाधिक लाभ एशिया-प्रशांत क्षेत्रों में डिजीटल मार्केटिंग चैनलों द्वारा हो रहा है, ऐसा इस रिपोर्ट का मानना है।
भारत के संदर्भ में यह बदलाव ज्यादा तेजी से होगा, क्योंकि मैकेंजी ऐंड कंपनी द्वारा किया गया एक अध्ययन बताता है कि 2015 तक भारत में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले लोगों की तादाद 35 करोड़ से ज्यादा हो जाएगी, जिनके हाथों में एक ऐसी तकनीक होगी, जिससे उनकी परंपरागत टीवी पर निर्भरता कम होगी और इसमें बड़ी भूमिका स्मार्ट फोन निभाने वाले हैं।
हिन्दुस्तान में 11/12/12 को प्रकाशित 

Monday, November 19, 2012

अपनी अपनी रेखाएं


जिंदगी का त्यौहार,वैसे त्यौहार कोई भी हों वो जब आते हैं तो लगता है कि वो जाएँ ही ना छुटियाँ मस्ती,खाना पीना और भी बहुत कुछ आप भी सोच रहे होंगे कि मैं कौन अनोखी बात बता रहा हूँ.त्योहारों का आना जितना सच है उतना ही उनका जाना भी सच है. इन त्योहारों के मौसम में घर की सफाई में एक पुरानी किताब मिली जानते हैं उसका विषय था ज्योमेट्री जी हाँ रेखा गणित और क्या कुछ आँखों के आगे घूम गया वो स्कूल के दिन वो एल एच एस इस ईक्युल टू आर एच एस और इतिसिद्धम. तब लगता था हम ये सब क्यूँ पढते हैं वैसे भी गणित मुझे बहुत बोर करती थी. जिंदगी तो आगे बढ़ चली पर अब समझ आ रहा है जीवन में रेखा का क्या महत्व हैक्योंकि इसी पर जिंदगी का गणित टिका हुआ है.अब बात आपके सर के ऊपर से जा रही है चलिए मैं आपको समझाता हूँ रेखा मतलब लाइन, लिमिट ,सीमा या फिर कुछ आड़ी तिरछी सीधी पंक्ति वैसे इनका कोई मतलब नहीं है पर इन्हें सिलसिलेवार लगा दिया जाए तो किसी के घर का नक्शा बन जाता है तो कोई कुछ ऐसा जान जाता है जिसे कल तक कोई नहीं जानता था.रेखा ही है वो टूल है जिससे आप अपने सपनों को वास्तविकता का जामा पहना सकते हैं पर ये ध्यान रहे कि उस रेखा का डायरेक्शन किस तरफ है क्योंकि वो चाहे गणित का सवाल हो या जिंदगी की उलझन काफी कुछ आपके दिमाग के डायरेक्शन पर निर्भर करता है.
विषय कोई भी हो चाहे इतिहास, भूगोल गणित या फिर साहित्य बगैर रेखाओं के इनका कोई अस्तित्व नहीं है अब देखिये ना लिपि या स्क्रिप्ट भी तो कुछ रेखाओं का कॉम्बिनेशन है यानि दुनिया को समझने के लिए हमें रेखाओं की जरुरत है इतिहास में समयरेखा है तो भूगोल में अक्षांश और भूमध्य जैसी रेखाएं. कॉपियों में लिखने का अभ्यास पहले लाईनदार पन्नों से होता है बाद में जब हम अभ्यस्त हो जाते हैं तो उनकी जगह सफ़ेद पन्ने ले लेते है और तब हम कितनी भी जल्दी क्यूँ ना लिखें शब्द अपनी जगह से नहीं भागते वे उसी तरह लिखें जाते हैं जैसे हम लाईनदार कॉपियों में लिखते हैं.क्यूँ कुछ तस्वीर साफ़ हो रही है.जीवन में इन रेखाओं का कितना बड़ा दायरा है वो जीवन की रेखा से लेकर गरीबी रेखा तक देखा और समझा जा सकता है. लगता है बात थोड़ी भारी हो रही है और यांगिस्तानियों के पास भारी बात सुनने का वक्त नहीं है तो हम इसे थोडा आसान करते हैं. यानि लाईफ में स्वछंदता और उन्मुक्तता मौज मस्ती अच्छी है पर उसकी एक सीमा होनी चाहिए और इस रेखा को हमें ही खींचना चाहिए फेस्टिवल हमें जश्न मनाने का जहाँ  मौका देते हैं वहीं ये भी बताते हैं कि जीवन महज मौजमस्ती का नाम नहीं बल्कि समाज में हमारा पोजीटिव कंट्रीब्यूशन भी  है.महत्वपूर्ण है कि ये बात कोई दूसरा हमें ना बताये क्योंकि सेल्फ रेग्युलेशन,सेल्फ से आता है और यही सेल्फ रेग्युलेशन जो हमें अनुशासित करता है.जब हम दूसरे की सीमाओं का सम्मान करेंगे तो लोग खुद ब खुद हमें अपना जीवन जीने के लिए स्वतंत्र छोड़ देंगे पर हम ये सोचें कि हम सबके बारे में कुछ भी गॉसिप कर सकते हैं पर कोई हमारे बारे में कोई कुछ नहीं बोलेगा ऐसा होना मुश्किल है. सफल होने की कोई सीमा नहीं है पर ख्वाब अगर हकीकत के आइने में देखें जाएँ तो उनके सफल होने की गुंजाईश ज्यादा होती है मतलब अपनी सीमाओं को जानकर उसके हिसाब से जब योजनाएं बनाई जाती हैं तो वो निश्चित रूप से सफल होती हैं. तो मुझे तो अपनी सीमाओं  का अंदाजा है और अपनी जीवन रेखा को इसी तरह बना रहा हूँ कि मेरी जिंदगी के कुछ मायने निकले पर आप क्या कर रहे हैं जरुर बताइयेगा.
आई नेक्स्ट में 19/11/12 को प्रकाशित 

Saturday, October 27, 2012

सवाल सिर्फ हिरासत में मौत का नहीं


पुलिस किसी भी संवैधानिक तंत्र का वह अहम हिस्सा है जो देश की आंतरिक  नागरिक सुरक्षा व्यवस्था के लिए जिम्मेदार है |सूचना क्रांति के इस युग ने लोगों को जवाबदेही के प्रति जागरूक किया है और राज्यों की पुलिस भी इससे अछूती नहीं है |मित्र पुलिस, आपके साथ सदैव जैसे नारे हमें मुंह चिढाते लगते हैं,आंकड़े एक त्रासदी की तस्वीर पेश करते हैं |एशियाई मानवाधिकार केन्द्र नई दिल्ली द्वारा तैयार रिपोर्ट के मुताबिक, देश  में पिछले एक दशक से ज्यादा समय में कम से कम 14,231 लोग हिरासत में मारे गए,जिसका मतलब है प्रति दिन औसत रूप में चार व्यक्ति से ज्यादा पुलिस हिरासत में मरे ये आंकड़े जेल में हुई मौतों से अलग हैं | इस  अध्ययन का आधार भारत सरकार के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा दिए गए आंकड़ों पर आधारित है। पुलिस हिरासत में हुई मौत  गंभीर सवाल खड़े करती है रिपोर्ट के मुताबिक इन मौतों  का बड़ा कारण हिरासत में दी गयी  प्रताडना है जिससे पीड़ित व्यक्ति की मृत्यु हिरासत में आने के 48 घंटे के अंदर हो गयी | उल्लेखनीय है कि हिरासत में मौत उन राज्यों में ज्यादा हुई  है जहाँ आम तौर पर शांति है और किसी आंतरिक संघर्ष का इतिहास नहीं है | महाराष्ट्र में पिछले दशक में पुलिस हिरासत में सबसे ज्यादा 250 लोगों की मौत हुई।पुलिस की कार्यप्रणाली हमेशा पर अक्सर सवालिया निशान लगते रहे हैं|पुलिस को लोकतान्त्रिक मूल्यों के प्रति सजग और आम लोगों का भरोसा जीतेने वाला होना चाहिए| देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में एक लाख जनसंख्या पर मात्र 74 पुलिसकर्मी हैं जबकि बिहार में इतनी ही आबादी पर सिर्फ 63 पुलिस वाले हैं। देश में एक लाख की  आबादी पर स्वीकृत पुलिस कर्मियों की संख्या का राष्ट्रीय औसत 177.67 है लेकिन वास्तव में 134.28 पुलिस कर्मी ही तैनात है। संयुक्त राष्ट्र संघ के  मानक  के अनुसार एक लाख पर कम से कम 220 पुलिस कर्मी होने चाहिए।इस मामले में पूर्वोत्तर क्षेत्र के राज्यों में पुलिस जनता अनुपात सर्वाधिक है। मिजोरम में प्रति एक लाख पर 1084.99, नागालैंड में 1034.68, त्रिपुरा में 936.69, सिक्किम में 602.68 और अरुणाचल प्रदेश में 568.82 पुलिस कर्मी हैं। देश की राजधानी दिल्ली में  प्रति एक लाख पर 390.55 पुलिस कर्मी हैं जबकि इनकी स्वीकृत संख्या 431.29 है।
देश में पुलिस सुधार के लिए बनी कमेटियों का एक लंबा इतिहास रहा है| व्यवहार में कुछ भी होता न देख सुप्रीम कोर्ट ने पांच साल पहले राज्य सरकारों को पुलिस व्यवस्था में सुधार  के लिए व्यापक  सुझाव दिए थे,जिसमें 'पुलिस स्थापना बोर्ड' का गठन, पुलिस उत्पीड़न की सुनवाई के लिए राज्यों व जिला स्तर पर 'पुलिस शिकायत प्राधिकरण' गठित करना और सबसे महत्वपूर्ण अपराध की विवेचना और कानून एवं व्यवस्था का काम अलग अलग  करना भी शामिल था |जिससे पुलिस व्यवस्था पर पड़ रहे काम के बोझ को कम किया जा सके पर राज्यों की राजनैतिक इच्छा शक्ति की कमी के अभाव में यथा स्थिति जारी है और पुलिस व्यवस्था सत्ताधारी राजनैतिक दल की हितपूर्ति का साधन मात्र बनी हुई है |लोगों को अभी भी सही मायनों में मित्र पुलिस का  इन्तजार है | 
हिन्दुस्तान में 27/10/12 को प्रकाशित 

Monday, October 15, 2012

बच्चों के गोद लेने का गुणा भाग

आप लोगों ने सड़कों पर अक्सर ऐसे बच्चों को भीख मांगते ,सड़कों पर घूमते ऐसे न जाने कितने अबोध बच्चों को देखा होगा और उनके लिए कुछ करने की कसक भी मन में जगी होगी फिर दुनियादारी और नियम कानून के कठोर धरातल ने उस कसक को अचानक समाप्त कर दिया होगा |बच्चा गोद लेना या किसी बच्चे को अपनाना भारत में अभी भी सामान्य व्यवहार का हिस्सा नहीं बन पाया है और शायद इसीलिये बच्चों को अवैध रूप से गोद लेने का चलन भी बढ़ा है और बच्चों की तस्करी भी जिनकी पुष्टि बचपन बचाओ संस्था के शोध द्वारा जुटाये गए वह  आंकड़े करते हैं जिनके अनुसार वर्ष 2008 से 2010 के मध्य117480 बच्चों की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज़ कराई गयी| इनमें से 74209 बच्चों को तो ढूंढ लिया गया पर 41546 का आज तक कोई सुराग नहीं लग सका है|सामान्य तौर पर एक  बच्चे को गोद लेना एक नए सम्बन्ध  की शुरुआत कही जा सकती है। यह एक ऐसी कानूनी प्रक्रिया है जिसमें एक दम्पति या एकल अभिभावक को एक बच्चाउनके बेटे या बेटी के रूप मेंहमेशा के लिए सौंप दिया जाता है। एकल पुरुष अभिभावक  को गोद के रूप में बेटी दिए जाने का प्रावधान नहीं है।याद रखें! जब आप किसी बच्चे को गोद लेते हैं तो आप इस बात को अच्छी तरह और दिल से मानते हैं कि उसे अपने बेटे/बेटी जैसा प्यार देंगे और अब उसकी अच्छी तरह से परवरिश एवं अच्छी शिक्षा की सारी जिम्मेदारी आप की है जिसे आप ख़ुशी-ख़ुशी निभाएंगे। गोद लेने की प्रक्रिया उस वक़्त से शुरू होती है जब बच्चे की जैविक माता या माता-पिता बच्चे का पालन-पोषण कर पाने में खुद को असमर्थ पातें हैं या किसी मजबूरी वश बच्चे को अपने पास  नहीं रख पाते। ऐसा बच्चे के जन्म के पहले भी हो सकता है और बच्चे के जन्म के बाद भी ।
पिछले साल भारत सरकार ने भारत में बच्चा गोद लेने का शुल्क बीस हजार रुपैये दुगुना से बढाकर कर चालीस हजार रुपैये कर दिया सेन्ट्रल एडॉप्शन रिसोर्स अथोरिटी के मुताबिक भारतीय गणराज्य तो गोद लेने के लिए कोई शुल्क नहीं लेता  पर चिल्ड्रन केयर फंड के लिये कुछ राशि सहयोग के रूप में ली जाती है|आंकड़ों की अगर बात करें तो पिछले पांच सालों में बच्चा गोद लेने वाले लोगों की संख्या में इजाफा हुआ है| सेन्ट्रल एडॉप्शन रिसोर्स अथोरिटी के अनुसार 2006 में जहाँ कुल 3262 बच्चे गोद लिए गए वहीं ये संख्या साल 2011 आते आते यह आंकड़ा 6494 हो गया था इन आंकड़ों में देश के भीतर और विदेश में गोद लिए बच्चे शामिल हैं इन आंकड़ों के आगे भी कुछ तथ्य हैं जो वास्तविक हैं बस फर्क यह है कि आंकड़ों में भाव नहीं होते संवेदनाएं नहीं होतीं वे कोरे आंकड़े होते हैं पर गोद लेकर किसी बच्चे का अभिभावक बनना सीधे सीधे मानवीय संवेदनाओं से जुड़ा मामला है|गोद लेने का शुल्क दुगुना कर देना यह बताता है कि संवेदनाएं भी मुफ्त में नहीं मिलती और इस शुल्क वृद्धि के निहितार्थ पर जरुर कुछ सवाल खड़े होते हैं|
संतति सुख अपने आप में पूर्ण शब्द है जिसको मुद्रा और माल बना कर बाजारतंत्र के हवाले कर देने का परिणाम निम्न  व मध्यम वर्ग के परिवारों की  संवेदनाओं पर आर्थिक रूप से उच्च वर्ग का हक होगा|  पूंजी के आधार पर वर्गीकरण के इस समय में हमारे मानवीय सूत्र लगातार परिजीवता  की  तरफ बढ़ रहें हैंहमारे स्व के अस्तित्व पर इन निर्णयों के जरिये बार बार हस्तक्षेप किया जा रहा है. नब्बे के दशक के बाद आये कथित बाजारवादी भूमंडलीकरण ने व्यक्ति के जीवन के हर पहलू को कहीं ना कहीं स्पर्श जरुर किया हैहम आँखे बंद कर कितना भी अनजान बनने कि कोशिश कर लें ऐसे निर्णय हमें आंखे खोलने ना सही पर आँखें मिचमिचाने को मजबूर जरुर करते हैंसमाज में उपभोक्तावादी  सरकारी निर्णयों में ‘’सहयोगराशि’’ शब्द का प्रयोग अध्ययन का विषय हो सकता है| इसमें कोई शक नहीं कि अनाथालय में गए बच्चों को एक बेहतर जीवन मिलना चाहिए और गोद देने पूर्व उनके भावी अभिभावकों की आर्थिक स्थिति का अच्छा होना उनके बेहतर भविष्य का संकेत हो सकता है पर आर्थिक  स्थिति बेहतर होने से यदि बच्चों का भविष्य सुधर रहा होता तो ये देश कब का बदल गया होता देश बनता है नागरिकों से जो संस्कारवान हों जिनको जीवन मूल्यों का ज्ञान हो पर मूल्य और संस्कार जैसे शब्द खरीदे बेचे नहीं जाते इनको जीना सीखाया जाता है |सिक्के का दूसरा पहलु यह भी है कि दुनिया की उभरती हुई आर्थिक शक्ति में ये बच्चे कहाँ से आ जाते हैं जिन्हें गोद लेने की जरुरत पड़ती है क्यों इनके माता पिता इनको त्याग देते हैं ? इन  बच्चों के लिए हमारा सामजिक आर्थिक ढांचा जिम्मेदार है गरीबी, अशिक्षा लिंग विशेष के प्रति पूर्वाग्रही रवैया और ज्यादा बच्चे एक ऐसा दुष्चक्र रचते हैं कि कुछ लोगों के लिए बच्चे बोझ हो जाते हैं|हमारा समाज भी इन ठुकराए हुए बच्चों के प्रति कोई खास संवेदनशील भूमिका नहीं निभाता ऐसे में इन बच्चों का एकमात्र ठिकाना अनाथालय ही होता भले ही सरकार ये दावा करे कि ये शुल्क वृद्धि बच्चों को गोद लेने की प्रक्रिया को सरल करेगी और बच्चों को एक बेहतर भविष्य मिलेगा पर तथ्य यह है कि भारत में किसी नवजात को गोद लेने में कम से कम चार से पांच माह का समय लग जाता है|हम सोंचना होगा कि क्या जीवन के अस्तित्व का एक मात्र आधार अर्थ ही है ? या अर्थ ही ऐसा घटक है जिससे हम संवेदनाओं का मूल्यांकन करें संतति सुख सार्वभौमिक है |शुल्क वृद्धि का ये फैसला न्याय संगत नहीं है इससे बच्चा गोद लेने वाले मध्य आय वर्ग के लोग हतोत्साहित होंगे|इस शुल्क वृद्धि का इस्तेमाल अगर गोद लेने वाले बच्चे पर ही किया जाए तो ज्यादा बेहतर होगा इस शुल्क का एक हिस्सा ब्याज के साथ उन अभिभावकों को तब मिले जब बच्चा अट्ठारह साल की उम्र पूरी कर ले|इससे मध्य आयवर्ग के लोग भी बच्चा गोद लेने के लिए उत्साहित होंगे पर मध्य वर्ग की चिंता किसे है क्योंकि ये सारी व्यवस्था कुछ साधन संपन्न लोगों के लिए ही है|सरकार वैसे भी अपने निर्णयों से ये जाहिर कर चुकी है कि भारत का मध्यवर्ग आर्थिक रूप से संपन्न है जोमंहगा पानी खरीद कर पीता है, मंहगी आइसक्रीम खाता है,मगर गेहूं या चावल महंगा नहीं खरीदना चाहताहै |मानव संतति का अंगीकरण(गोद लेना ) किसी कोरे कागज को अपनाने जैसा है जो हमें बिना किसी लिखावट के मिलता है गोद लेने का यह पक्ष मनुष्यता कि गरिमा को बढाता है और मनुष्यता व पशुता के बीच भेद स्थापित करने वाली परिपाटी भीआर्थिक स्थिति के आधार पर प्राण का वर्गीकरण करना निश्चित रूप के मनुष्यता और पशुता के अंतर को कम करने जैसा ही है |
राष्ट्रीय सहारा में 15/10/12 में प्रकाशित 

Tuesday, October 9, 2012

जानलेवा बीमारियों से लड़ते बच्चे

स्वास्थ्य किसी भी देश की महत्वपूर्ण प्राथमिकता का क्षेत्र होता है पर आंकड़ों के हिसाब से भारत की तस्वीर  इस मायने में बहुत साफ़ नहीं है बाल स्वास्थ्य इसका कोई अपवाद नहीं है बच्चे देश का भविष्य हैं पर उन बच्चों का क्या जो भविष्य में बढ़ने की बजाय अतीत का हिस्सा बन जाते हैं | साल 2011 मेंदुनिया के अन्य देशों की मुकाबले भारत में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की सबसे ज्यादा मौतें हुईं।ये आंकड़ा समस्या की गंभीरता को बताता है जिसके अनुसार भारत में  प्रतिदिन 4,650 से ज्यादा पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु होती है|संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ की नई रिपोर्ट यह बताती है कि बच्चों के स्वास्थ्य के मामले में अभी कितना कुछ किया जाना है |संयुक्त राष्ट्र का यह  अध्ययन यह आंकलन करता  है कि भारत में जन्म लेने वाले प्रत्येक 1,000 बच्चों में से 61 बच्चे अपना  पांचवा जन्मदिन नहीं मना पाते हैं। महत्वपूर्ण बात ये है कि ये संख्या रवांडा (54 बच्चों की मृत्यु) नेपाल (48 बच्चों की मृत्यु) और कंबोडिया (43 बच्चों की मृत्यु) जैसे आर्थिक रूप से पिछड़े देशों के मुकाबले ज्यादा है|सियेरा लियोन में बच्चों के जीवित रहने की संभावनाएं सबसे कम रहती हैं,जहां प्रत्येक 1,000 बच्चों में मृत्यु दर 185 है।दुनिया भर में बच्चों की मृत्यु की सबसे बड़ी वजह न्यूमोनिया है जिनसे १८ प्रतिशत मौतें होती हैं और दूसरी वजह डायरिया है जिससे ११ प्रतिशत मौतें होती हैं भारत डायरिया से होने वाली मौतों के मामले में सबसे आगे  है। 2010 में जितने बच्चों की मृत्यु हुईउनमें 13 प्रतिशत की मृत्यु वजह की डायरिया ही था  दुनिया में डायरिया से होने वाली मौतों में अफगानिस्तान के बाद भारत का ही स्थान  है।रिपोर्ट के मुताबिक भारत जैसे देशों में डायरिया की मुख्य वजह साफ़ पानी की कमी, और निवास के स्थान के आस पास गंदगी का होना है जिसकी एक वजह खुले में मल त्याग भी है |गंदगी ,कुपोषण और मूल भूत स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव मिलकर एक ऐसा दुष्चक्र रचते हैं जिनका शिकार ज्यादातर गरीब घर के बच्चे होते हैं |तथ्य यह भी है आर्थिक आंकड़ों और निवेश के नजरिये से भारत तरक्की करता दिखता है पर इस आर्थिक विकास का असर समाज के आर्थिक रूप कमजोर तबके पर नहीं हो रहा है जिसका परिणाम पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की ज्यादा मृत्यु ,वह भी डायरिया जैसी बीमारी से जिसका बचाव थोड़ी सावधानी और जागरूकता से किया जा सकता है | बढते शहरीकरण ने शहरो में जनसँख्या के घनत्व को बढ़ाया है| निम्न आयवर्ग के लोग रोजगार की तलाश में उन शहरों का रुख कर रहे हैं जो पहले से ही जनसँख्या के बोझ से दबे हैं नतीजा शहरों में निम्न स्तर की जीवन दशाओं के रूप में सामने आता है |गाँव जहाँ जनसंख्या का दबाव कम हैं वहां स्वास्थ्य सेवाओं की हालत दयनीय है और स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों पर जागरूकता का पर्याप्त अभाव है|
 विकास संचार के मामले में अभी हमें एक लंबा रास्ता तय करना है जिससे लोगों में जागरूकता जल्दी लाई जाए विशेषकर देश के ग्रामीण इलाकों में| इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जिसका प्रभाव ज्यादा है पर वह अपने मनोरंजन एवं सूचना में संतुलन बना पाने में असफल रहा है जिसका नतीजा संचार संदेशों में कोरे मनोरंजन की अधिकता के रूप में सामने आता है |सरकार का रवैया इस दिशा में कोई खास उत्साह बढ़ाने वाला नहीं रहा है देश के सकल घरेलु उत्पाद (जी डी पी ) का 1.4 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं  पर खर्च किया जाता है जो कि काफी कम है सरकार ने इसे बढ़ाने का वायदा तो किया पर ये कभी पूरा हो नहीं पाया | भारत सरकार के सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य के अनुसार वह साल 2015 तक शिशु मृत्यु दर को प्रति 1,000 बच्चों पर 38 की संख्या  तक ले आयेगी |बढ़ती शिशु मृत्यु दर का एक और कारण कुपोषण भी है 'सेव द चिल्ड्रन'संस्था  का एक अध्ययन बताता  है कि भारत बच्चों को पूरा पोषण मुहैया कराने के मामले में बांग्लादेश और बेहद पिछड़े माने जाने वाले अफ्रीकी देश डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो से भी पिछड़ा हुआ है| हालांकिभारत में पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर 1990 के मुकाबले  46 प्रतिशत कम हुई है पर इस आंकड़े पर गर्व नहीं किया जा सकता|सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य को तभी प्राप्त किया जा सकता है  जब गरीबों में स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता पैदा की जाए  और उनकी जीवन दशाओं को बेहतर किया जाए. इस दिशा में सरकार को सार्थक पहल करनी होगी  पर यूनिसेफ की यह रिपोर्ट बताती है कि यह आंकड़ा प्राप्त करना आसान नहीं होगा| 
अमरउजाला में 09/10/12 को प्रकाशित 

Monday, October 8, 2012

कहानी कागज की



बदलती दुनिया के साथ बदलते हुए यांगिस्तानियों बदलाव नेचर का नियम है पर ये चेंज हमें इस बात का एहसास भी कराता है कि हम आगे बढ़ रहे हैं पर परिवर्तन का मतलब पुरानी चीजों से पीछा छुड़ाना नहीं है सुनहरे  वर्तमान की नींव इतिहास पर ही रखी जाती है.मैं बिलकुल भारी भरकम बात करके आपको बोर नहीं करना चाहता .आज की दुनिया इंटरनेट की दुनिया जिसमे काफी कुछ आभासी है पर कितना कुछ इसने बदल दिया है पर ये बदलाव यूँ ही नहीं हुआ है एक छोटा सा उदहारण है इंटरनेट ने कागज़ पर हमारी निर्भरता को कम किया है वो कागज़ जिससे हमारी ना जाने कितनी यादें जुडी हैं वो स्कूल की नयी किताबें जिससे आती खुशबू आज भी हमें अपने बचपने में ले जाती है और हम उस दौर को एक बार फिर जी लेना चाहते हैं वो कॉलेज की डिग्री का कागज़  जिसने हमें पहली बार एहसास कराया कि हमने जीवन का अहम पड़ाव पार कर लिया फिर वो शादी के कार्ड का कागज जब हम एक से दो हो गएअपने  पहले अपोइंटमेंट लेटर को कौन भूल सकता है जब आपने पहली बार फाइनेंशियल इंडीपेंडेंस का लुत्फ़ उठाया और ये सिलसिला चलता रहता है पर अब सबकुछ ऑन लाइन है .पर कभी कभी तो प्रिंट आउट भी  निकलना पड़ता है भले ही सब कुछ ऑन लाइन हो रहा है पर कागज़ तो हमारे जीवन का हिस्सा है ही ना अब इस लेख को कुछ लोग अखबार में पढेंगे कुछ नेट पर तो हो गया न ओं लाइन और ऑफ लाइन का कोम्बिनेशन .गुड ओब्सर्वेशन क्यूँ सही कह रहा हूँ ना .तो ये पेज जल्दी ही इतिहास का हिस्सा हो जायेंगे जब बच्चे लिखना पढ़ना कॉपी और कागज़ से नहीं टेबलेट और लैपटॉप पर सीखेंगेअब ग्रीटिंग कार्ड से लेकर शादी के कार्ड और अपोइंटमेंट लेटरसीधे   ई मेल किये जाते हैं पर वो कागज़ के कुछ टुकड़े ही थे जिनपर भविष्य के कंप्यूटर और इंटरनेट की इबारत लिखी गयी बोले तो कागज़ ही ने  जिन्होंने हमें ऑफ लाइन से ऑन लाइन होने का जरिया दिया तभी तो किसी भी वेबसाईट के खास हिस्से को वेबपेज ही कहते हैं  जबकि इस वेब पेज में उस पेज जैसा कुछ नहीं होता जिसे हम जानते हैं तो डायरेक्ट दिल से जब हम जड़ों से जुड़े रहेंगे तो आगे बढते रहेंगे पर उनसे कट कर हम कभी तरक्की के रास्ते पर नहीं बढ़ पायेंगे .
पर ये तो आधी बात हुई मैं तो कुछ और ही कहना चाहता हूँ  कि जीवन में कितनी बातें ऐसी होती हैं जिन्हें हम ओबियस मानकर छोड़ देते हैं पर जरा सा जोर डालने पर हमें पता पड़ता है कि उनकी हमारे जीवन में कितनी अहमियत होती है और कागज़ तो बहाना भर है आपको ये समझाने को हम कितने भी आगे क्यूँ ना निकल जाएँ  पर अपने बेसिक्स को न भूलें और  मॉडर्न हो जाने का मतलब पुरानी चीजों  को भूल जाना नहीं है बल्कि उनको याद करके आने वाली दुनिया को और बेहतर करना है अब उस मामूली कागज़ को लीजिए उसके साथ हम क्या करते हैं.हर मेल का प्रिंट आउट निकलना जरूरी तो नहीं है .प्रिंट आउट निकले पन्ने के दूसरी तरफ भी कुछ लिखा जा सकता है पर हम उन्हें रद्दी मानकर फैंक देते हैं .हम जितना कागज़ ज्यादा इस्तेमाल करते हैं उतना ही पेड ज्यादा काटे जाते हैं तो कागज का इस्तेमाल सम्हाल कर कीजिये तभी हम अपने  पर्यावरण को बचा पायेंगे तो कागज़ की इस कहानी के साथ आज के लिए इतना ही......
आई नेक्स्ट में 8/10/12  को प्रकाशित 

Thursday, September 27, 2012

उनके श्रम को श्रम ही नहीं मानता समाज


लैंगिक समानता के हिसाब से आज की दुनिया में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर का अधिकार मिल चुका है पर जमीनी हकीकत कुछ और ही है विश्व आर्थिक मंच की एक रिपोर्ट के अनुसार लैंगिक समानता सूचकांक में भारत का 135 देशों में  113 वाँ स्थान है. वर्ल्ड इकॉनॉमिक फ़ोरम का सूचकांक दुनिया के देशों की उस क्षमता का आंकलन करता है जिससे यह पता चलता है कि किसी देश ने  पुरुषों और महिलाओं को बराबर संसाधन और अवसर देने के लिए कितना प्रयास किया.इस मामले ऐसा माना जाता है कि शहरी भारतीय महिला ग्रामीण महिला के मुकाबले ज्यादा बेहतर स्थिति में है जहाँ उन्हें कम अवैतनिक घरेलू शारीरिक श्रम करना पड़ता है.यह तथ्य अलग है कि उनके इस तरह के श्रम का आर्थिक आंकलन नहीं किया जाता है. ऐसे अवैतनिक कार्य  जो महिलाओं द्वारा घरेलू श्रम के तौर पर किए जाते हैं दुनिया की सभी अर्थव्यवस्थाओं में उपस्थित हैं, लेकिन ये विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में ज्यादा दिखाई पड़ते हैं.ऑर्गनाइज़ेशन फोर इकॉनॉमिक कोऑपरेशन ऐंड डेवलेपमेंट’ (आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन) द्वारा 2011 में किए एक सर्वे में छब्बीस सदस्य देशों और भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के अध्ययन से यह पता चलता है कि  कि भारत ,तुर्की और मैक्सिको की महिलाएं पुरुषों के मुकाबले पांच घंटे ज्यादा अवैतनिक श्रम  करती हैं. भारत में अवैतनिक श्रम कार्य के संदर्भ में बड़े  तौर पर लिंग विभेद है, जहां पुरुष प्रत्येक दिन घरेलू कार्यों के लिए एक घंटे से भी कम समय देते हैं. रिपोर्ट के अनुसार  भारतीय पुरुष टेलीविज़न देखने, आराम करने, खाने, और सोने में ज्यादा  वक्त बिताते हैं.आमतौर पर प्रगतिशील माने जाने वाले उत्तरी यूरोपीय देशों में भी अवैतनिक घरेलू श्रम कार्य के सन्दर्भ में औसत रूप से एक महिला को पुरुषों के मुकाबले लगभग एक घंटे का ज्यादा श्रम करना पड़ता है.समय की मांग है कि महिलाओं द्वारा किये जा रहे घरेलू श्रम कार्य का वित्तीय आंकलन किया जाए .घर परिवार मर्यादा नैतिकता और संस्कार की दुहाई के नाम पर महिलाओं को अक्सर घरेलू श्रम के ऐसे चक्र में फंसा दिया जाता है कि वे अपने अस्तित्व से ही कट जाती हैं . भारतीय परिस्थियों में इस श्रम की व्यापकता को देखते हुए यह आसान काम नहीं है लेकिन महिलाओं को सशक्त बनाने की दिशा में यह एक सार्थक कदम हो सकता है.इसके लिए सरकार द्वारा महिलाओं के घरेलू श्रम का वित्तीय आंकलन कराया जाए और उनके श्रम  के बदले आर्थिक भुगतान सरकार द्वारा  किया जाए .वित्तीय आंकलन जहाँ महिलाओं को मनोवैज्ञानिक रूप से सशक्तता का एहसास कराएगा जो अपने आप को महज एक घरेलू महिला मानती हैं और इस एहसास से जकड़ी रहती हैं कि वे कुछ नहीं करतीं .वहीं दुसरी ओर आर्थिक भुगतान उनके द्वारा की गयी सेवाओं को श्रेणीबद्ध करने में सहायक सिद्ध होगा. जिससे घरेलू श्रम सेवा को जी डी पी से जोड़ा जा सकेगा.सही मायनों में महिला सशक्तीकरण भारत में तभी संभव है जब घरेलू महिलाओं के द्वारा किये जा रहे श्रम का आर्थिक मुआवजा दिया जाए. 
दैनिक हिन्दुस्तान में 27/09/12 को प्रकाशित 

Wednesday, September 12, 2012

यही है आगे बढ़ने का फंडा

यांगिस्तानियों के लिए 2000 का दशक कई मायने में महत्वपूर्ण रहा , यूँ कहें कि हम ऐसी कई चीजों का हिस्सा बने जो कल तक हमारे लिए अनमोल थीं और आज इतिहास हैं पर पिछले कुछ सालों में दू निया इतनी तेजी से बदल गयी कि हमें उन्हें याद करने का मौका नहीं मिला तो आज थोडा नोस्टालजिक हुआ जाए और ये पता किया जाए कि क्या वाकई क्योंकि यादें भी तो हमारे जीवन का हिस्सा हैं |अब अट्ठन्नी इतिहास बनने को है पर चवन्नी तो इतिहास बन चुकी है पचीस पैसे में भला आज क्या मिलेगा पर कभी यही चवन्नी हमें ज़माने भर की खुशियाँ दे देती हैं और उसी  चवन्नी से जुडी हुई कितनी चीजें आउट डेटेड हो गयीं जैसे  लेमनचूस ,कम्पट खाने से लेकर पहनने और पढ़ने तक कितना कुछ बदल गया |कोमिक्स पचास पैसे में किराए पर मिलती थी और वीडियो गेम विलासिता माने जाते थे |मोहल्ले में वी सी आर कहीं भी लगे आमन्त्रण की जरुरत नहीं थी बस सारी रात जागकर फिल्म तो देखनी ही थी|छत का ऐसा बहुउपयोगी प्रयोग तो शायद ही किसी सभ्यता ने ऐसा किया होगा |छतों पर क्रिकेट से लेकर फुटबाल और ना जाने कितने देशी विदेशी खेल, खेल लिए जाते शाम को दोस्तों और परिवार के साथ गप्प मारने की बेहतरीन जगह और गर्मी की रात में सोने के लिए इससे बेहतर जगह हो ही नहीं सकती थी जाड़े में धूप सेंकना हो तो बस छत ही याद आती थी त्योहारों पर तो असली रौनक छत पर ही दिखती थी |स्कूटर घर की शान हुआ करती थी सिलेंडर लाने से लेकर पूरे परिवार के साथ घूमने जाने तक न जाने कितने काम उन नन्हे पहियों पर हो जाया करते थे|सेंटी मत होइए दिन कैसे भी हों बीत ही जाते हैं हर इंसान को गुजरा कल अच्छा लगता है पर हमारे आज की बुनियाद उसी गुजरे हुए कल से निकली है आप सोचेंगे ऐसा कैसे हमें तो बस पुराने दिन याद आते हैं पर उन दिनों को याद करते हुए हम भूल जाते हैं कि उन दिनों में बहुत कुछ ऐसा था जो हम याद नहीं करना चाहते हैं इसलिए वो हमें याद नहीं रहता एक तरह की असंतुष्टि थी जिसने हमें अपना भविष्य बनाने के लिए प्रेरित किया और अगर ऐसा ना होता तो स्कूटर कभी इतिहास नहीं बनता और नैनो कार का सपना कभी साकार नहीं होता फ़िल्मे देखने के लिए सारी रात जागने की जरुरत नहीं डी वी डी प्लेयर इतने सस्ते हो गए कि आप अपनी मर्जी से जब चाहें फिल्म देख सकते हैं |जिंदगी के मायने बदल रहे हैं क्योंकि समय बदल रहा है यादें को चिपका के अगर बदलाव से डरते रहे तो तरक्की का रास्ता धीमा हो जाएगा जेनरेशन गैप दो पीढ़ियों का टकराव हो सकता है पर विकास का रास्ता टकराव से ही बनता है जो तेरा है वो मेरा है वो पीढ़ियों में नहीं दोस्ती में अच्छा अच्छा लगता है क्योंकि दोस्ती दो समान विचार के लोगों में होती है पर दादा दादी के किस्से हमारे नहीं हो सकते और हमारे किस्से आगे आने वाली पीढ़ियों के नहीं है यही है आगे बढ़ने का फंडा यादों को दिल में जरुर रखिये पर जिंदगी को बेहतर बनाने की कोशिश करते रहिये क्योंकि आज का मंत्र है जो तेरा है वो मेरा तो है पर टर्म एंड कंडीशन के साथ तो दुनिया बदल चुकी है और लोग भी आपकी यादों में जो कुछ भी है वो उस वक्त की निशानी है जब दुनिया इतनी तेज नहीं थी कि सुबह उठने के साथ मोबाईल के नए एप्स आपका इन्तजार कर रहे होते हैं तब कि दुनिया में टेक्नोलोजी इतना अहम रोल नहीं प्ले कर रही थी जितना आज अब अगर आज का जीवन आपकी यादों से ज्यादा आसान है तो कुछ ना कुछ कीमत तो चुकानी पड़ेगी क्योंकि सरसों का साग और पिज्जा एक साथ मिलना असंभव तो नहीं पर मुश्किल जरुर है तो बीती यादों का जश्न  मनाया जाए और जो कुछ नया हो रहा है उसका स्वागत किया जाए हाँ अगर आपको इस लेख को पढकर  बीते दिन याद आ गए तो फिर बदलाव के लिए तैयार रहिये क्योंकि यही बदलाव नयी पीढ़ी के लिए कल याद बन जाने वाले हैं |
आई नेक्स्ट में 12/09/12 को प्रकाशित 

Sunday, September 9, 2012

बदल रहा है भारतीय टेलीविजन का चेहरा


भारत की टेलीविजन देखने वाली जनता का नब्बे प्रतिशत हिस्सा मनोरंजक  चैनल देखता है |दिसंबर 2011 तक भारत में 402 समाचार चैनल और 415 मनोरंजक  चैनल अपने कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं |सी एम् एस मीडिया लैब द्वारा टेलीविजन कार्यक्रमों के प्राईम टाईम विश्लेषण के शोध से यह पता चलता है कि सर्वाधिक देखे जाने वाले ६ चैनलों के प्राईम टाईम कार्यक्रमों में बीस प्रतिशत से ज्यादा कार्यक्रम नॉन फिक्शन (गैर काल्पनिक )श्रेणी के हैं |यह आंकड़े बताते हैं कि नॉन फिक्शन (गैर काल्पनिक) कार्यक्रम लोकप्रिय मनोरंजक चैनलों में ज्यादातर सप्ताहांत में प्रसारित किये जाते हैं जबकि इन्हीं चैनलों पर  सोप ऑपेरा के लिए हफ्ते के पांच दिन आरक्षित रहते हैं फिर भी नॉन फिक्शन (गैरकाल्पनिक कार्यक्रमों में दर्शकों की रूचि ज्यादा बढ़ रही है |यह तो बात उन चैनलों की है जो मनोरंजन के अन्य कार्यक्रम भी दिखाते हैं पर बड़ा बदलाव वो चैनल ला रहे हैं जो मुख्यता इसी श्रेणी के कार्यक्रम दिखा रहे हैं| 1985 में मनोहर श्याम जोशी द्वारा लिखित धारावाहिक हम लोग से भारत में सोप ओपेरा की शुरुवात हुई और धीरे धीरे यह हर घर का हिस्सा बन गए ,कथानक और चरित्र भले ही बदलते रहे हों पर इनके कथ्य का मूल भाव परिवार और इंसानी रिश्ते के आस पास रहे बाद में एकता कपूर के के नाम से शुरू होने वाले धारावाहिकों ने ग्लैमर का तडका लगा दिया हम लोग के मध्यवर्ग से शुरू हुई इन धारवाहिकों की कहानी कब उच्च वर्ग के इर्द गिर्द घूमने लग गयी इसका एहसास भी हमें न हुआ पर बुद्धू बक्सा अब बुद्धू नहीं रहा है और दर्शक भी समझदार हो रहे हैं|सी एम् एस मीडिया लैब का ये सर्वेक्षण तो यही बता रहा है |वास्तविक रूप में दर्शकों को अभी भी मनोरंजन के लिए टेलीविजन पर निर्भरता ज्यादा है लेकिन उनकी रूचियाँ बदल रही हैं जिसे फैक्चुअल इंटरटेन्मेंट का नाम मिला हैदुनिया की जानी मानी प्रसारक और टेलीविजन हस्ती ओपरा विनफ्री पिछले दिनों भारत में थी और अपनी इस यात्रा को उन्होंने एक टीवी वृत्तचित्र का रूप देकर सारी दुनिया में प्रसारित किया गया और दुनिया ने भारत को ओपरा के नजरिये से देखा|वास्तविक तथ्य के साथ मनोरंजन भारत एक नई तरह की टेलीविजन क्रांति की तरफ बढ़ रहा है|जिसमे सोप ओपेरा,कोमेडी,और फ़िल्मी गाने के बगैर चैनल चल रहे हैं|इन चैनलों में लाईफ स्टाईलयात्राविज्ञान और इंसानी जीवटता की सच्ची कहानियां हैं वो भी बगैर किसी लाग लपेट के |पिछले बीस सालों में टेलीविजन धारावाहिकों के कथ्यों में इंसानी रिश्तों की जटिलता को ही दिखाने की कोशिश की जाती रही है यदि किसी सामाजिक समस्या को उठाया भी गया तो टी आर पी और बाजार के दबाव में वो अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाए बाल विवाह जैसी गंभीर सामाजिक समस्या पर आधारित धारावाहिक  'बालिका वधू भी अब अपने उद्देश्य से भटक ससुराल के ड्रामा पर अटक गया,'मन की आवाज़ प्रतिज्ञाएक आत्मविश्वासी लड़की की कहानी से शुरु हुआ लेकिन कहानी फिर भटक गई. प्रतिज्ञा उसी लड़के से शादी कर बैठती है जो उसे तंग करता है|'बैरी पियाऔर 'न आना इस देस लाडोभी सामाजिक समस्याओं और ग़रीबों के सशक्तिकरण के मुद्दे को लेकर शुरु हुए पर पहचान छोड़ने में असफल रहे|दूसरी तरफ प्रयोगधर्मिता गैर काल्पनिक कार्यक्रमों का मूल आधार है मनोरंजन चैनलों में रीयल्टी शो सबसे ज्यादा हावी हैं जो कि ज्यादातर पश्चिमी देशों के आयातित फोरमेट पर हैं| रियल्टी शो ने भारतीय टेलीविजन के परदे को हमेशा के लिए बदल दिया ये शादियाँ करा रहे हैं लोगों को मिला रहे हैं उनकी समस्याएं सुलझा रहे हैं नयी प्रतिभाओं को सामने ला रहे हैं यानि घर के बड़े बूढ़े से लेकर यार दोस्त तक सभी भूमिकाओं को ये बुद्धू बक्सा बखूबी निभा रहा है|दर्शक इनको लेकर कभी हाँ ,कभी ना वाली स्थिति से उबर अब उपभोक्ता में तब्दील हो गए हैं | वहीं गैर काल्पनिक श्रेणी में एक और विधा उभर रही है जिसे  फैक्चुअल इंटरटेन्मेंट के नाम से जाना जाता है जिसमे वास्तविक तथ्यों को मनोरंजक बना कर प्रस्तुत किया जाता है|जो समाचार और वृतचित्रों का मिला जुला रूप है जिसमे इतिहास को जीवंत किया जा रहा है और वर्तमान को दृश्य बंध |इस तरह के कार्यक्रम डिस्कवरी,और हिस्ट्री जैसे चैनलों पर प्रमुखता से दिखाया जा रहे हैकुछ ट्रक ड्राईवर दुनिया की दुर्गम सड़कों पर ट्रक चला रहे हैं तो कहीं हाथ से मछली पकड़ने की होड लगी,कहीं एक युवक सुपर मानवों की तलाश में दुनिया का चक्कर काट रहा है,कहीं एक यात्री दुनिया के अलग अलग देशों में अलग अलग व्यापार कर यात्रा के पैसे जुटा रहा है |हमारे आस पास के जीवन में इतना मनोरजन होगा किसी ने सोचा ना था इसीलिये अब इन्फोटेनमेंट की जगह फैक्चुअल इंटरटेन्मेंट ज्यादा पसंद किया जा रहा है ,महत्वपूर्ण बात ये है कि अब इस तरह के चैनलों में भारत बहुत तेजी से दिखने लग गया है इसका एक कारण है उदारीकरण के बाद एक बड़ा मध्यवर्ग उभरा है जो पर्यटन और खान पान से जुडी चीजों में खासी रूचि ले रहा है|जिसके लिए पर्यटन का मतलब धार्मिक स्थलों की यात्रा नहीं बल्कि अनदेखी जगहों को देखना है वहीं विदेशी भी भारत को एक बड़े बाजार के रूप में देख रहे हैं और इसके लिए वे भारत को समझना चाहते हैं जिसमे यात्रा और खान पान से सम्बन्धित कार्यक्रम काफी मददगार होते हैं|ये द्वीपक्षीय प्रक्रिया जहाँ दर्शकवर्ग को बढ़ा रही हैं वहीं व्यवसाय के लिहाज से एक बड़ा बाजार भी बन रहा है |कंटेंट के स्तर पर ये वृतचित्र जैसी विधा को आम दर्शक तक पहुंचा कर उसे लोकप्रिय कर रहे हैं|
इन सब कारणों से लाईफ स्टाईल आधारित चैनलों को बढ़ावा मिल रहा है  और भारतीय  स्थापत्य ,भोजन और वन्य जीवन से जुड़े कार्यक्रम प्रमुखता से दिखाए जा रहे हैंक्षेत्रीय भाषाओँ में उपलब्धता के कारण दर्शक अपनी भाषा में इन कार्यक्रमों का लुत्फ़ ले पा रहे हैं हालाँकि ये अभी शुरुवात है पर भारतीय टीवी स्क्रीन का चेहरा बदल रहा है   |फैक्चुअल इंटरटेंमेंट का अभी कुल टेलीविजन कार्यक्रमों का मात्र 1.5% है और वर्ष 2008 से यह तीस प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है और इस का कुल व्यवसाय 200 से 250 करोड़ रुपैये के बीच है | और भविष्य में इसके तेजी से बढ़ने की उम्मीद है |
नेशनल दुनिया में 09/09/12 को प्रकाशित 

Monday, September 3, 2012

राजनीति का बड़ा पर्दा


राजनीति भी अजीब चीज है जब दूसरों के साथ हो तो मजा देती है जब खुद के साथ हो तो सजा पर फिर भी एक आम इंसान तो यही चाहता है कि उसका जीवन शांति से चलता रहे पर अपना सोचा कहाँ होता है आप भी सोच रहे होंगे कि ये राजनीति को मैं कहाँ से ले आया |अरे भाई अपने आस पास नजर दौडाइए देखिये हर जगह इसी की चर्चा है संसद थमी है राजनीति के कारण विश्वविद्यालय गर्म हैं होने वाले चुनाव के कारण और सिनेमा में गैंग्स ऑफ वासेपुर का कथानक भी राजनीति और माफिया के गठजोड़ पर ही है |वैसे हमारे जीवन में राजनीति का बड़ा महत्व है पर जब फिल्मों की होती है तो वहां भी राजनैतिक दांव पेचों को खूब दिखाया जाता है ये अलग बात है कि यहाँ गांधीगिरी,भाईगिरी तो चल जाती है पर नेतागिरी को पसंद करने वाले लोग कम ही होते हैं |1975 में आंधी फिल्म का विषय राजनैतिक था जिस कारण आपातकाल में फिल्म को कुछ समय के लिए प्रतिबन्ध भी झेलना पड़ा |फिल्म के गाने तो खूब चले पर फिल्म नहीं चली|1984 में दो फ़िल्में राजनैतिक विषयों को लेकर बनी राजेश खन्ना अभिनीत आज का एम् एल ए रामवतार और अमिताभ बच्चन अभिनीत इन्कलाब दोनों ही फिल्मों में राजनैतिक व्यवस्था की गंदगी से परेशान राजनैतिक चरित्रों को दिखाया गया था | हू तू तू (1999) भी राजनीति और अपराध के गठजोड़ पर बनी एक और फिल्म थी| नायक (2001) फिल्म में पहली बार एक नेता को आदर्श रूप में दिखाया गया जो एक दिन के लिए राज्य का मुख्यमंत्री बनता है और एक भ्रष्ट मुख्यमंत्री से लोगों को निजात दिलवाता है | 2003 में मधुर भंडारकर द्वारा निर्देशित सत्ता फिल्म में दिखाया गया कि कैसे एक  राजनैतिक व्यक्ति अपनी सत्ता बचाने के लिए रिश्तों का  किस तरह दोहन करता  हैं| कोलकाता के युवकों और राजनीति की कहानी में लिपटी मणि रत्नम की फिल्म युवा  काफी कुछ कहती है |2009 में आयी गुलाल उत्तर भारत की छात्र राजनीति की हू ब हू  तस्वीर उतारती है |2010 में आयी फिल्म राजनीति जहाँ समसामयिक राजनीति की गंदगी को दिखाती है वहीं रण फिल्म बड़ी खूबसूरती से दिखाती है कि राजनैतिक घराने मीडिया का इस्तेमाल किस तरह से अपने फायदे के लिए करते हैं |मजेदार बात ये है कि राजनीति के कथानक पर बनी ज्यादातर फ़िल्में व्यवसायिक रूप से असफल रही हैं लेकिन तथ्य यह भी है कि हमारे समाज में राजनीति की भूमिका हमेशा रही है शायद इसीलिये हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में लगातार आगे बढ़ रहे हैं |देखा न आप बोर होने लग गए जब सीरियस मुद्दों पर बात शुरू होती है तो हमारा यही रवैया गलत लोगों को राजनीति में आगे बढ़ा देता है |हर फिल्म में राजनीति को नकारात्मक रूप में दिखाया जाता है जो इस बात का परिचायक है कि राजनीतिज्ञों पर हमारा भरोसा कम हुआ है |ऐसा हो क्यों रहा है यह सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण है राजनीति में गंदगी गलत लोगों के उसमे आने के कारण है और इसको सुधारने की जिम्मेदारी हम यंगिस्तानियों की है |आपकी जिंदगी इसलिए कूल है क्योंकि आपको सिस्टम से मतलब नहीं है घर से कॉलेज या फिर ऑफिस दोस्तों के साथ चिल करना और मस्त रहना पर जरा ये भी तो सोचिये कि अगर हमारा सिस्टम राजनीति में गलत लोगों के आने के कारण बिगड  गया तो आपकी लाईफ भी डिस्टरब होगी क्यूँ लग गए न सोचने तो सही लोगों का चुनाव कीजिये और अगर आपको लगता है कि इस गंदगी को आप कम कर सकते हैं तो आइये राजनीति के मैदान में पर ये मत भूलिएगा जो बात आपको बुरी लगती है वो औरों को क्यों अच्छी लगेगी |
आई नेक्स्ट में 03/09/12 को प्रकाशित  

Tuesday, August 28, 2012

सोशल मीडिया की कुंजी अमेरिका के हाथ

इंटरनेट और सोशल नेटवर्किंग साईट्स एक बार फिर चर्चा में मुद्दा असम में हुई समस्या और भारत के कई शहरो से उत्तर पूर्व के निवासियों का पलायन सरकार ने इसके लिए इंटरनेट और सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर फ़ैली अफवाहों और भडकाऊ तस्वीरों को दोषी माना और कार्यवाही करते हुए 245 वेबसाइट-वेब पन्नों को ब्लॉक कर दिया गया|आश्चर्यजनक रूप से तेजी दिखाते हुए सरकार के इस  फैसले के बाद अमरीकी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता विक्टोरिया नूलैंड बयान दिया  कि अमरीका इंटरनेट की आजादी के पक्ष में है| भारत  सरकार से निवेदन किया कि वो मूलभूत अधिकारोंकानून और मानवाधिकारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जारी रखे|आमतौर पर अमेरिकी सरकार के इस बयान को इंटरनेट और मानवाधिकारों के पक्ष में अमेरिका के समर्थन के रूप में देखा गया पर क्या वास्तव में ऐसा है या अमेरिका का ये बयान उसकी व्यसायिक प्रतिबद्धताओं का नतीजा है|अमेरिका का इतिहास बताता है कि वो ऐसी नीतियां बनाता है जो उसके व्यवसायिक हितों की पूर्ति करे और ऐसी संस्थाओं का संरक्षण करता है जो उसके हित लाभ के साधन में मदद करे |तस्वीर का एक रुख विकिलीक्स से जुड़ा है इसी मुद्दे पर जब एक पत्रकार ने अमरीकी विदेश मंत्रालय से विकिलीक्स के मामले पर इंटरनेट की आजादी के बारे में उनकी राय पूछी तो जवाब मिला  कि वो मामला अलग है| बात भले छोटी हो पर इसके निहितार्थ बड़े हैं| 
          विकिलीक्स का जन्म ही इंटरनेट की ताकत और विस्तार के कारण हुआ और इस पर सबसे बड़ी चोट अमेरिका ही ने पहुंचाई |विकिलीक्स के द्वारा जारी किये गए सैकड़ों गोपनीय कूटनीतिक संदेशो से सारी दुनिया अमेरिका के दोहरे रवैये को जान गयी वहीं इस खुलासे से वेब पत्रकारिता को नया आयाम मिला आमतौर पर समाचार पोर्टल टीवी और अखबार की सामग्री से ख़बरें बनाते थे पर मानव सभ्यता के इतिहास में पहली बार वेब से आयी सामग्री टीवी और अख़बारों की ख़बरों का आधार बनी|भारत को मानवाधिकार और इंटरनेट की आजादी का पाठ पढाने वाले इस बयान को जरा इन आंकड़ों के संदर्भ में पढ़ें तो एक बार फिर अमेरिका का व्यवसायिक नजरिया स्पष्ट हो जाएगा | अंतरराष्ट्रीय दूरसंचार यूनियन यानि आईटीयू के आंकड़ों के अनुसार विश्व में इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या में पिछले चार वर्षों में 77 करोड़ का इजाफ़ा हुआ है|सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था विकास केंद्रित हुई है| मैकिंसे के नए अध्ययन में खुलासा हुआ है कि भारत में इंटरनेट ने बीते पांच साल में जीडीपी की वृद्धि  में पांच प्रतिशत का  योगदान किया है, आर्थिक विकास की गति को बढ़ाने में इन्टरनेट की भूमिका में  अमेरिका के व्यवसायिक हित सम्मिलित हैं ,इंटरनेट के अस्तित्व में आने से इस पर हमेशा अमेरिकी सरकारकंपनियोंऔर प्रयोगकर्ताओं  का अधिपत्य  रहा है लेकिन अब इसमें तेजी से बदलाव आ रहा है जिसका केंद्र भारत और ब्राजील जैसे देश शामिल हैं जहाँ इंटरनेट तेजी से फल फूल रहा है जिसमे बड़ी भूमिका फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल नेटवकिंग साईट्स निभा रही है |सोशल नेटवर्किंग साईट्स के प्रभाव का आंकलन करते वक्त हम इसके व्यवसायिक पक्ष को  दरकिनार नहीं कर सकते जो अमेरिका की अर्थव्यवस्था में अपना अहम योगदान दे रही हैं क्योंकि सभी बड़ी सफल सोशल नेटवर्किंग साईट्स का उद्गम अमेरिका ही है फेसबुक का मतलब महज सोशल नेटवर्किंग नहीं है बल्कि  ये विज्ञापन ,मीडिया और नए रोजगार के निर्माण से भी सम्बन्धित है | फेसबुक को अन्य देशों की क्षेत्रीय सोशल नेटवर्किंग साइट जैसे दक्षिण कोरिया में सिवर्ल्डजापान की मिक्सीरूस में वोकांते से कड़ी टक्कर  मिल रही है। भारत में सक्रि फेसबुक  उपभोक्ताओं की संख्या 31 दिसम्बर 2011 तक पिछले वर्ष की तुलना में 132 फीसदी की वृद्धि के साथ 4.60 करोड़ रही।फेसबुक के ये प्रयोगकर्ता किसी भी कम्पनी के विज्ञापन प्रसार के लिए एक बड़ा बाजार हैं | मेरीलैंड विश्विद्यालय द्वारा किये गए एक शोध के मुताबिक फेसबुक एप अर्थव्यवस्था ने अमेरीकी अर्थववस्था में वेतन के रूप में 12.19 बिलियन डॉलर का योगदान दिया वहीं 182,000 नए रोजगार पैदा किये |अमेरिका के मुकाबले भारत के बाजार में अभी बड़ी संभावनाएं जिनका दोहन होना है  |भारत में हुई मोबाईल क्रांति और युवाओं का बड़ा वर्ग सोशल नेटवर्किंग साईट्स के लिए एक बड़ा बाजार उपलब्ध करा रहा है|ऐसे समय में भारत सरकार द्वारा कुछ वेब् साईट्स को ब्लॉक करने के फैसले से अमेरिका को तुरंत बयान देने पर मजबूर होना पड़ा | सूचना क्रांति ने लोगों के  मूलभूत अधिकारों,और मानवाधिकारों को एक बड़े बाजार में तब्दील कर दिया है|यह भी सूचना क्रांति का एक पक्ष है |
अमर उजाला में 28/08/12 को प्रकाशित 

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