Thursday, August 20, 2015

नेटवर्क की मेमोरी में गुम हो रही यादाश्त

इंटरनेट ने उम्र का एक चक्र पूरा कर लिया है। इसकी खूबियों और इसकी उपयोगिता की चर्चा तो बहुत हो ली, अब इसके दूसरे पहलुओं पर भी ध्यान जाने लगा है। कई देशों के न्यूरो वैज्ञानिक व मनोवैज्ञानिक, लोगों पर इंटरनेट और डिजिटल डिवाइस से लंबे समय तक पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन कर रहे हैं। मुख्य रूप से इन शोधों का केंद्र युवा पीढ़ी पर नई तकनीक के संभावित प्रभाव की ओर झुका हुआ है, क्योंकि वे ही इस तकनीक के पहले और सबसे बड़े उपभोक्ता बन रहे हैं। साल 2011 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ कोलंबिया द्वारा किए गए रिसर्च में यह निष्कर्ष निकाला गया था की युवा पीढ़ी किसी भी सूचना को याद करने का तरीका बदल रही है, क्योंकि वह आसानी से इंटरनेट पर उपलब्ध है। वे कुछ ही तथ्यों को याद रखते हैं, बाकी के लिए इंटरनेट का सहारा लेते हैं। इसे गूगल इफेक्ट या गूगल-प्रभाव कहा जाता है।
इसी दिशा में कैस्परस्की लैब ने साल 2015 में डिजिटल डिवाइस और इंटरनेट से सभी पीढ़ियों पर पड़ने वाले प्रभाव के ऊपर शोध किया है। कैस्परस्की लैब ने ऐसे छह हजार लोगों की गणना की, जिनकी उम्र 16-55 साल तक थी। यह शोध कई देशों में जिसमें ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली, स्पेन आदि देशों के 1,000 लोगों पर फरवरी 2015 में ऑनलाइन किया गया। शोध में यह पता चला की गूगल-प्रभाव केवल ऑनलाइन तथ्यों तक सीमित न रहकर उससे कई गुना आगे हमारी महत्वपूर्ण व्यक्तिगत सूचनाओं को याद रखने के तरीके तक पहुंच गया है। शोध बताता है कि इंटरनेट हमें भुलक्कड़ बना रहा है, ज्यादातर युवा उपभोक्ताओं के लिए, जो कि कनेक्टेड डिवाइसों का प्रयोग करते हैं, इंटरनेट न केवल ज्ञान का प्राथमिक स्रोत है, बल्कि उनकी व्यक्तिगत जानकारियों को सुरक्षित करने का भी मुख्य स्रोत बन चुका है।
इसे कैस्परस्की लैब ने डिजिटल एम्नेशिया का नाम दिया है। यानी अपनी जरूरत की सभी जानकारियों को भूलने की क्षमता के कारण किसी का डिजिटल डिवाइसों पर ज्यादा भरोसा करना कि वह आपके लिए सभी जानकारियों को एकत्रित कर सुरक्षित कर लेगा। 16 से 34 की उम्र वाले व्यक्तियों में से लगभग 70 प्रतिशत लोगों ने माना कि अपनी सारी जरूरत की जानकारी को याद रखने के लिए वे अपने स्मार्टफोन का उपयोग करते है। इस शोध के निष्कर्ष से यह भी पता चला कि अधिकांश डिजिटल उपभोक्ता अपने महत्वपूर्ण कांटेक्ट नंबर याद नहीं रख पाते हैं।
एक यह तथ्य भी सामने आया कि डिजिटल एम्नेशिया लगभग सभी उम्र के लोगों में फैला है और ये महिलाओं और पुरुषों में समान रूप से पाया जाता है। ज्यादा प्रयोग के कारण डिजिटल डिवाइस से हमारा एक मानवीय रिश्ता सा बन गया है, पर तकनीक पर अधिक निर्भरता हमें मानसिक रूप से पंगु भी बना सकती है। इसलिए इंटरनेट का इस्तेमाल जरूरत के वक्त ही किया जाए।
हिन्दुस्तान में 20/08/15 को प्रकाशित 

Saturday, August 15, 2015

चुनावी जंग में सराबोर सोशल मीडिया


बिहार विधान सभा चुनाव ,पहले ऐसे महत्वपूर्ण चुनाव हैं जिनमें सोशल नेटवर्किंग साईट्स अहम् भूमिका निभाने जा रहे है |यूँ तो 2014 के लोकसभा चुनाव देश के इतिहास में इसलिए याद रखे जायेंगे जब पहली बार प्रचार के लिए सोशल नेटवर्किंग साईट्स का इस्तेमाल किया गया और चुनाव में नेटीजन ने अहम् भूमिका निभायी |उसके बाद देश में कई विधानसभा चुनाव हुए पर बिहार इसलिए महत्वपूर्ण है जहाँ के सारे प्रमुख नेताओं ने प्रचार और जनसंपर्क के इस नए माध्यम से दूरी बनाये रखी और समय समय पर इसकी आलोचना भी की जिसमें राजद नेता लालू प्रसाद यादव और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी शामिल थे |बीजेपी जरुर अपवाद थी जिसने लोकसभा चुनाव के वक्त से ही इस क्षेत्र में बढ़त ले ली ,लोकसभा चुनाव से विधानसभा चुनाव तक परिद्रश्य काफी बदल गया |जनता दल यूनाईटेड और राष्ट्रीय जनता दल को लोकसभा में करारी हार मिली जबकी बीजे पी और सहयोगी दलों ने बढ़तले ली|शायद अपनी हार से सबक लेते हुए और सोशल मीडिया की ताकत को भांपते हुए  लालू और नीतीश  की पार्टियों ने भी अपनी साइबर उपस्थिति बढ़ने पर जोर दिया | एक साल पहले तक जिस ट्विटर को नीतीश कुमार  चिडिय़ों का कोलाहल कहकर मजाक उड़ाया करते थे,आज उसी को पूरी गंभीरता से लेने लगे हैं. इस वक्त  करीब 75,702 ट्विटर फॉलोअर्स के साथ नीतीश भले ही 1.38 करोड़ फालोअर्स वाले मोदी से काफी पीछे हों, लेकिन साफ है कि वे सोशल मीडिया के महत्व को अच्छी तरह समझने लगे हैं| उसकी पहुंच को समझते हुए नीतीश ने 16 जुलाई को घोषणा की कि वे खुद को पोस्ट किए गए सभी सवालों का जवाब देंगे |वहीं लालू ने ट्विटर पर नीतीश कुमार से बढ़त ले रखी है और ट्विटर पर उनके 101,678 फालोअर्स हैं |ट्विटर के अलावा ये दोनों फेसबुक पर भी सक्रीय हो चुके हैं तथा अपने दलों की वेबसाईट के माध्यम से भी लोगों को जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है | मगध में मोदी के आने से  ही सोशल मीडिया पर भी हलचल तेज हो गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गया की जमीं पर कदम रखने से पहले ही ट्विटर पर ट्रेंड बन गया। गया (Gaya) और बिहार असेंबली (Bihar Assembly) टैग से सुबह से ही ट्वीट शुरू हो गए। रैली समाप्त होने पर हैशटैग परिवर्तन इन बिहार (#ParivartanInBihar) पहले नंबर पर ट्रेंड करने लगा। इन सबके बीच दो अन्य टैग भी खूब ट्रेंड करते रहे। (PM Narendra Modi) और (BJP President Amit Shah) टैग से समर्थकों और विरोधियों ने मोदी व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह पर ट्वीट किए। ट्विटर पर भले ही टॉप ट्रेडिंग टॉपिक में भाजपा शामिल रही, लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद ने भी अपनी उपस्थिति बनाए रखी। नरेंद्र मोदी के भाषण के जवाब में उन्होंने अपने ट्वीट से खूब वाह वही  बटोरी। हाल ही में सामने आई भागलपुर दंगों की जांच रिपोर्ट भी ट्विटर पर छाई रही। इस समय ट्विटर पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव, पूर्व उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी, केन्द्र में बिहार के भाजपा के मंत्री गिरिराज समेत सभी प्रमुख नेताओं के अकाउंट मौजूद हैं।  निर्वाचन आयोग की सूची के अनुसार  18-19 आयु वर्ग  के  24.13 लाख मतदाता 20-29 आयु वर्ग के  1.80 करोड़ मतदाता और  30-39 आयु वर्ग के : 1.74 करोड़ मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग आगामी विधानसभा चुनाव में करेंगे |इन युवा मतदाताओं का सहयोग जिस भी किसी पार्टी को मिलेगा जीत उसी की होगी |कोई भी पार्टी इन युवा मतदाताओं से दूरी बनाने का जोखिम नहीं मोल ले सकती और इन युवा मतदाताओं को जोड़ने का सबसे आसान और सस्ता विकल्प है सोशल नेटवर्किंग साईट्स |सिर्फ पटना जिला के कुल मतदाताओं में आधे से अधिक युवा मतदाता हो गए हैं। पटना में 18 से 39 वर्ष के मतदाताओं की संख्या बढ़कर 23 लाख 80 हजार 580 हो गयी है। यानी जिले के कुल मतदाता में 54 फीसदी से अधिक युवा मतदाता हो गए हैं। तकनीक के दम पर यह महागठबंधन दलितों, पिछड़ों से लेकर गांवों और शहरों तक पहुंचना चाहता है|पार्टियां अपने वोटरों को लुभाने के लिए फेसबुक पर वादे करने के साथ-साथ व्हाट्सएप पर संवादमूलक और सूचनाबद्ध संदेश भेज रही हैं। बिहार के सूचना एवं प्रौद्योगिकी विभाग के अनुसार, राज्य की 11 करोड़ जनसंख्या में सिर्फ पांच लाख लोग कंप्यूटर पर इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं, जबकि दो से तीन करोड़ लोग मोबाइल फोन पर इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। लोकजनशक्ति पार्टी की हाईटेक पब्लिसिटी की कमान रामविलास पासवान के पुत्र व सांसद चिराग पासवान  ने संभाला है। पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी भी सोशल मीडिया के माध्यम से लगातार सम्पर्क में हैं। उन्होंने तो पिछले माह अपने फेसबुक मित्रों  को एक चाय  पार्टी पर भी बुलाया था। लोकसभा चुनाव में मुंह की खायी कांग्रेस ने भी विधानसभा चुनाव में सोशल मीडिया का सशक्त उपयोग करने की पूरी रणनीति बनायी है। दिल्ली से आईटी स्पेशलिस्टों की कोर टीम बुलाकर सोशल मीडिया प्रोफेशनल्स की बिहार टीम को ट्रेंड किया जा रहा है |यह कोई अब छिपा तथ्य नहीं है की सोशल मीडिया की पहुंच और लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है| इसके महत्व का का अंदाज़ा इस  बात से लगाया जाया जा  सकता हैं कि विपक्ष आजकल प्रधानमंत्री को ट्वीट तक न करने पर घेरता है. साथ ही नीतिश और लालू से लेकर भाजपा और आप जैसी पार्टियाँ  जिस चालाकी से सोशल मीडिया का उपयोग कर रहे हैं  उससे सभी परिचित हैं  |इन सब तैयारियों के बीच यह सवाल उठाना लाज़िमी हैं कि आखिर जातिगत और धार्मिक राजनीति के लिए जाने वाले बिहार में सोशल मीडिया का उपयोग किस तरह से होगा?सोशल मीडिया पर अफवाहें बड़ी तेजी से फैलती हैं क्या सोशल मीडिया का इस्तेमाल जातीय और धार्मिक पूर्वाग्रह को बढ़ाने के लिए नहीं किया जाएगा क्योंकि जैसे जैसे चुनाव की तिथि नजदीक आयेगी यह संग्राम और तीखा होगा|जिसकी सबसे ज्यादा धमक सोशल मीडिया पर सुनायी पड़ेगी |क्या सोशल मीडिया महज इस तरह की राजनीति के तरीके को बदलेगी बाकी सब पूर्ववत रहेगा |बिहार चुनाव इस सब बात के गवाह बनेंगे |इतिहास बताता है और यह सच्चाई भी  है कि भारतीय राजनीति में सिर्फ चुनाव प्रचार के तरीके बदलते रहे हैं अखबार ,रेडिओ और टीवी के रास्ते शुरू हुआ यह सफर आज सोशल मीडिया तक पहुँच गया है |चेहरे बदले पार्टियाँ बदलीं पर राजनीति का चरित्र नहीं बदला |हर चुनाव के बाद मतदाता को अपने ठगे जाने का एहसास होता है और उसे  को बुरे और अधिक बुरे में चुनाव करना  पड़ता हैं और यही भारतीय लोकतंत्र की विडंबना  है| सोशल मीडिया पर किये जाने वाले वायदे क्या हकीकत का मुंह देखंगे | क्या बिहार चुनाव इससे अलग  कुछ देश को दे पायेगा या हर बार की तरह पुँरानी कहानी फिर दोहराई जायेगी इसका देश के साथ बिहार वासियों को भी इन्तजार है |
राष्ट्रीय सहारा में 15/08/15 को प्रकाशित लेख 

Monday, August 10, 2015

स्थानीय भाषा में इंटरनेट

इंटरनेट शुरुवात में किसी ने नहीं सोचा होगा कि यह एक ऐसा आविष्कार बनेगा जिससे मानव सभ्यता का चेहरा हमेशा के लिए बदल जाएगा आग और पहिया के बाद इंटरनेट ही वह क्रांतिकारी कारक जिससे मानव सभ्यता के विकास को चमत्कारिक गति मिली|इंटरनेट के विस्तार के साथ ही इसका व्यवसायिक पक्ष भी विकसित होना शुरू हो गया|प्रारंभ में इसका विस्तार विकसित देशों के पक्ष में ज्यादा पर जैसे जैसे तकनीक विकास होता गया इंटरनेट ने विकासशील देशों की और रुख करना शुरू किया और नयी नयी सेवाएँ इससे जुडती चली गयीं  |
इंटरनेट एंड मोबाईल एसोसिएशन ऑफ़ इण्डिया की नयी रिपोर्ट के मुताबिक क्षेत्रीय भाषाओँ के प्रयोगकर्ता सैंतालीस प्रतिशत की दर से बढ़ रहे हैं जिनकी संख्या संख्या साल 2015 के अंत तक 127 मिलीयन हो जाने  की उम्मीद है | भारत सही मायने में कन्वर्जेंस की अवधारणा को साकार होते हुए देख रहा हैजिसका असर तकनीक के हर क्षेत्र में दिख रहा है। इंटरनेट मुख्यता कंप्यूटर आधारित तकनीक रही है पर स्मार्ट फोन के आगमन के साथ ही यह धारणा तेजी से ख़त्म होने लग गयी और जिस तेजी से मोबाईल पर इंटरनेट का इस्तेमाल बढ़ रहा है वह साफ़ इशारा कर रहा है की भविष्य में इंटरनेट आधारित सेवाएँ कंप्यूटर नहीं बल्कि मोबाईल को ध्यान में रखकर उपलब्ध कराई जायेंगी|
भारत की विशाल जनसंख्या इस परिवर्तन के मूल में है। इंटरनेट पर अंग्रेजी भाषा का आधिपत्य खत्म होने की शुरुआत हो गई है। गूगल ने हिंदी वेब डॉट कॉम से एक ऐसी सेवा शुरू की हैजो इंटरनेट पर हिंदी में उपलब्ध समस्त सामग्री को एक जगह ले आएगी। इसमें हिंदी वॉयस सर्च जैसी सुविधा भी शामिल है। गूगल का यह प्रयास ज्यादा से ज्यादा लोगों को इंटरनेट से जोड़ने की दिशा में उठाया कदम है। इस प्रयास को गूगल ने इंडियन लैंग्वेज इंटरनेट एलाइंस (आईएलआईए) कहा है। इसका लक्ष्य 2017 तक 30 करोड़ ऐसे नए लोगों को इंटरनेट से जोड़ना हैजो इसका इस्तेमाल पहली बार स्मार्टफोन या अन्य किसी मोबाइल फोन से करेंगे।
गूगल के आंकड़ों के मुताबिकअभी देश में अंग्रेजी भाषा समझने वालों की संख्या 19.8 करोड़ हैऔर इसमें से ज्यादातर लोग इंटरनेट से जुड़े हुए हैं। तथ्य यह भी है कि भारत में इंटरनेट बाजार का विस्तार इसलिए ठहर-सा गया हैक्योंकि सामग्रियां अंग्रेजी में हैं। आंकड़े बताते हैं कि इंटरनेट पर 55.8 प्रतिशत सामग्री अंग्रेजी में हैजबकि दुनिया की पांच प्रतिशत से कम आबादी अंग्रेजी का इस्तेमाल अपनी प्रथम भाषा के रूप में करती हैऔर दुनिया के मात्र 21 प्रतिशत लोग ही अंग्रेजी की समझ रखते हैं। इसके बरक्स अरबी या हिंदी जैसी भाषाओं मेंजो दुनिया में बड़े पैमाने पर बोली जाती हैंइंटरनेट सामग्री क्रमशः 0.8 और 0.1 प्रतिशत ही उपलब्ध है। बीते कुछ वर्षों में इंटरनेट और विभिन्न सोशल नेटवर्किंग साइट्स जिस तरह लोगों की अभिव्यक्तिआशाओं और अपेक्षाओं का माध्यम बनकर उभरी हैंवह उल्लेखनीय जरूर हैमगर भारत की भाषाओं में जैसी विविधता हैवह इंटरनेट में नहीं दिखती।आज 400 मिलियन भारतीय अंग्रेजी भाषा की बजाय हिंदी भाषा की ज्यादा समझ रखते हैं लिहाजा भारत में इंटरनेट को तभी गति दी जा सकती हैजब इसकी अधिकतर सामग्री हिंदी समेत अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में हो।आज जानकारी का उत्तम स्रोत कहे जाने वाले प्रोजेक्ट विकीपिडिया पर तकरीबन पेज 22000 हिंदी भाषा में हैं ताकि भारतीय यूजर्स इसका उपयोग कर सकें। भारत में लोगों को इंटरनेट पर लाने का सबसे अच्छा तरीका है उनकी पसंद का कंटेंट बनाना यानि कि भारतीय भाषाओं को लाना|वैश्विक परामर्श संस्था मैकेंजी का एक नया अध्ययन बताता है कि 2015 तक भारत के जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में इंटरनेट 100 अरब डॉलर का योगदान देगाजो 2011 के 30 अरब डॉलर के योगदान के तीन गुने से भी ज्यादा होगा। अध्ययन यह भी बताता है कि अगले तीन साल में भारत दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा इंटरनेट उपभोक्ताओं को जोड़ेगा। इसमें देश के ग्रामीण इलाकों की बड़ी भूमिका होगी। मगर इंटरनेट उपभोक्ताओं की यह रफ्तार तभी बरकरार रहेगीजब इंटरनेट सर्च और सुगम बनेगा। यानी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को इंटरनेट पर बढ़ावा देना होगातभी गैर अंग्रेजी भाषी लोग इंटरनेट से ज्यादा जुड़ेंगे।गूगल पिछले 14 सालों सेसर्च(खोज ) पर काम कर रहा है। यह सर्च भविष्य में सबसे ज्यादा मोबाइल के माध्यम से किया जाएगा। विश्व भर में लोग अब ज्यादातर मोबाइल के माध्यम से इंटरनेट चला रहे हैं। बढते स्मार्ट फोन के प्रयोग ने सर्च को और ज्यादा स्थानीयकृत किया है वास्तव में खोज ग्लोबल से लोकल हो रही है जिसका आधार भारत में तेजी से बढते मोबाईल इंटरनेट प्रयोगकर्ता हैं जो अपनी खोज में स्थानीय चीजों को ज्यादा महत्त्व दे रहे हैं|
ये रुझान दर्शाते हैं कि भारत नेट युग की अगली पीढ़ी में प्रवेश करने वाला है जहाँ सर्च इंजन भारत की स्थानीयता को ध्यान में रखकर खोज प्रोग्राम विकसित करेंगे और गूगल ने स्पीच रेकग्नीशन टेक्नीक पर आधारित वायस सर्च की शुरुवात की है जो भारत में सर्च के पूरे परिद्रश्य को बदल देगी|स्पीच रेकग्नीशन टेक्नीक लोगों को इंटरनेट के इस्तेमाल के लिए किसी भाषा को जानने की अनिवार्यता खत्म कर देगी वहीं बढते स्मार्ट फोन हर हाथ में इंटरनेट पहले ही पहुंचा रहे हैं |आंकड़ों की द्रष्टि में ये बातें बहुत जल्दी ही हकीकत बनने वाली हैं |वैश्विक  परामर्श संस्था मैकिन्सी कम्पनी का एक नया अध्ययन बताता है कि इंटरनेट  साल 2015 तक  भारत की जी डी पी (सकल घरेलू उत्पाद )में १०० बिलियन डॉलर का योगदान देगा जो कि वर्ष2011 के 30 बिलियन डॉलर के योगदान से तीन गुने से भी ज्यादा होगा अध्ययन यह भी बताता है कि अगले तीन साल में भारत दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा इंटरनेट उपभोक्ताओं को जोड़ेगा और देश की कुल जनसंख्या का 28 प्रतिशत इंटरनेट से जुड़ा होगा जो चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा जनसँख्या समूह होगा |इसलिए इंटरनेट सिर्फ अंग्रेजी भाषा जानने वालों का माध्यम नहीं रह गया है |
ऑनलाइन खरीददारी का दायरा बढेगा
फॉरेस्टर की एक रिपोर्ट के मुताबिकलगभग 3.5 करोड़ लोग ऑनलाइन खरीदारी करते हैंजिनकी संख्या 2018 तक 12.80 करोड़ हो जाने की उम्मीद है। इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं के मामले में भारत दुनिया में तीसरे नंबर पर हैपर यहां ई-कॉमर्स का भविष्य मोबाइल के हाथों में है। मार्केट रिसर्च संस्था आईडीसी के मुताबिकभारत में स्मार्टफोन का बाजार 40 प्रतिशत की गति से बढ़ रहा है। मोबाइल सिर्फ बातें करनेतस्वीरों व संदेशों का माध्यम भर नहीं रह गए हैं। अब स्मार्टफोन में चैटिंग ऐप के अलावाई-शॉपिंग के अनेक ऐप लोगों की जरूरत का हिस्सा बन चुके हैं। इंटरनेट ऐंड मोबाइल एसोशिएशन ऑफ इंडिया व केपीएमजी की रिपोर्ट के मुताबिकभारत का ई-कॉमर्स का बाजार 9.5 बिलियन डॉलर का हैजिसके इस साल के अंत तक 12.6 बिलियन डॉलर हो जाने की उम्मीद है और 2020 तक यह देश की जीडीपी में चार प्रतिशत का योगदान देगा। अभी ओनलाईन खरीददारी के लिए अंगरेजी भाषा पर निर्भरता ज्यादा है कुछ साईटों को छोड़कर अभी सभी बड़े ऑनलाइन स्टोर्स अंग्रेजी पर निर्भर हैं  पर जैसे जैसे क्षेत्रीय भाषाओँ में खरीददारी का दायरा बढेगा ये कारोबार और गति पकड़ेगा |
 क्षेत्रीय भाषाओँ का है बड़ा बाजार             
 हिंदी को शामिल करते हुए इस समय इंटरनेट की दुनिया बंगाली ,तमिलकन्नड़ ,मराठी ,ड़िया , गुजराती ,मलयालम ,पंजाबीसंस्कृत,  उर्दू  और तेलुगु जैसी भारतीय भाषाओं में काम करने की सुविधा देती है आज से दस वर्ष पूर्व ऐसा सोचना भी गलत माना जा सकता था पर इस अन्वेषण के पीछे भारतीय इंटरनेट उपभोक्ताओं के बड़े आकार का दबाव काम कर रहा था भारत जैसे देश में यह बड़ा अवसर है जहाँ मोबाईल इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं की संख्या विश्व में अमेरिका के बाद सबसे ज्यादा है । इंटरनेट  हमारी जिंदगी को सरल बनाता है और ऐसा करने में गूगल का बहुत बड़ा योगदान है। आज एक किसान भी सभी नवीनतम तकनीकों को अपना रहे हैंऔर उन्हें सीख भी  रहे हैंलेकिन इन तकनीकों को उनके लिए अनुकूलित बनाना जरूरी है जिसमें भाषा का व कंटेंट का बहुत अहम मुद्दा है।इसलिए भारत में हिन्दी और भारतीय भाषाओं  में इंटरनेट के विस्तार पर बल दिया जा रहा है |
किसानों को होगा फायदा
इंटरनेट एंड मोबाईल एसोसिएशन ऑफ़ इण्डिया की नयी रिपोर्ट इसी तथ्य की पुष्टि करती है कि ग्रामीण इलाकों में इंटरनेट का विस्तार बढ़ रहा है |हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के विस्तार का दायरा अभी भले ही इंटरनेट खोज और वॉयस सर्च तक सिमटा हैमगर उम्मीद यही है कि इस प्रयोग का असर जीवन के हर क्षेत्र में पड़ेगा। इसका सबसे बड़ा फायदा ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले किसानों को मिलेगाक्योंकि इंटरनेट पर हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में खेती से संबंधित बहुत ज्यादा सामग्री उपलब्ध नहीं हैऔर उनका अंग्रेजी ज्ञान सीमित है।हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में में इंटरनेट का प्रसार बढ़ने से ग्रामीण क्षेत्र के किसान सबसे ज्यादा लाभान्वित होंगे।
स्मार्ट फोन पर भारतीय बिताते हैं सबसे ज्यादा समय इंटरनेट का बहुआयामी इस्तेमाल हो रहा है और भाषाई आधार पर भारतीय भाषाई कंटेंट की मांग सिर्फ पाठ्य सामग्री ही नहीं औडियो एयर वीडिओ में भी बढ़ रही है |आंकड़े भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं |टेलीकॉम कंपनी एरिक्सन ने अपने एक शोध के नतीजे प्रकाशित किए हैंजो काफी दिलचस्प हैं। इससे पता चलता है कि स्मार्टफोन पर समय बिताने में भारतीय पूरी दुनिया में सबसे आगे हैं। एक औसत भारतीय स्मार्टफोन प्रयोगकर्ता रोजाना तीन घंटा 18 मिनट इसका इस्तेमाल करता है। इस समय का एक तिहाई हिस्सा विभिन्न तरह के एप के इस्तेमाल में बीतता है। एप इस्तेमाल में बिताया जाने वाला समय पिछले दो साल की तुलना में 63 फीसदी बढ़ा है। स्मार्टफोन का प्रयोग सिर्फ चैटिंग एप या सोशल नेटवर्किंग के इस्तेमाल तक सीमित नहीं हैलोग ऑनलाइन शॉपिंग से लेकर तरह-तरह के व्यावसायिक कार्यों को स्मार्टफोन से निपटा रहे हैं।मोबाइल का बढ़ता इस्तेमाल भारतीय परिस्थितियों के लिए ज्यादा सुविधाजनक है। बिजली की समस्या से जूझते देश में मोबाइल टीवी के मुकाबले कम बिजली खर्च करता है। यह एक निजी माध्यम हैजबकि टीवी और मनोरंजन के अन्य माध्यम इसके मुकाबले कम व्यक्तिगत हैं। दूसरे आप इनका लुत्फ अपनी जरूरत के हिसाब से जब चाहे उठा सकते हैंयह सुविधा टेलीविजन के परंपरागत रूप में इस तरह से उपलब्ध नहीं है। सस्ते होते स्मार्टफोनबड़े होते स्क्रीन के आकारनिरंतर बढ़ती इंटरनेट स्पीड और घटती मोबाइल इंटरनेट दरें इस बात की तरफ इशारा कर रही हैं कि आने वाले वक्त में स्मार्टफोन ही मनोरंजन और सूचना का बड़ा साधन बन जाएगा। भारतीयों का इतना समय इंटरनेट पर बिताना इंटरनेट कंटेंट प्रोवाईडर को मजबूर कर रहा है कि वे भारतीय भाषाओँ में कंटेंट की उपलब्धता सुनिश्चित करें |
विज्ञापन बाजार में आएगा बड़ा बदलाव
निकट भविष्य में रेडियोटीवी और समाचार-पत्रों की विज्ञापनों से होने वाली आय में कमी होगीक्योंकि ये माध्यम एकतरफा हैं। मोबाइल के मुकाबले इन माध्यमों पर विज्ञापनों का रिटर्न ऑफ इन्वेस्टमेंट (आरओआई) कम है। मोबाइल आपको जानता हैउसे पता है कि आप क्या देखना चाहते हैं और क्या नहीं देखना चाहते हैं। मोबाइल फोन के इस्तेमाल से जुड़ा एक दिलचस्प आंकड़ा यह भी है कि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में मोबाइल उपभोक्ताओं की संख्या में कोई खास अंतर नहीं है। मोबाइल के जरिये अब बेहद कम खर्च पर देश के निचले तबके तक पहुंचा जा सकता है।मोबाइल मार्केटिंग एसोसिएशन के अनुसार,भारत में वित्तीय वर्ष 2013 में मोबाइल विज्ञापन 60 प्रतिशत की दर से बढ़ा है। वैश्विक परिदृश्य में शोध संस्था ई मार्केटियर के अनुसारमोबाइल विज्ञापनों से होने वाली आय में 103 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। साल 2014 की पहली तिमाही में इंटरनेट विज्ञापनों पर व्यय की गई कुल राशि का 25 प्रतिशत मोबाइल विज्ञापनों पर किया गया। इसमें बड़ी भूमिका फ्री मोबाइल ऐप निभा रही हैंजिनके साथ विज्ञापन भी आते हैं। इस बात ने विज्ञापनदाताओं का भी ध्यान बहुत तेजी से अपनी ओर आकर्षित किया है। इस समय भारत में दिए जाने वाले कुल मोबाइल विज्ञापनों का लगभग 60प्रतिशत टेक्स्ट के रूप में होता है। आधुनिक होते मोबाइल फोन के साथ अब वीडियो और अन्य उन्नत प्रकार के विज्ञापन भी चलन में आने लगे हैं। एक रिपोर्ट के अनुसारमार्च 2015 तक भारत में मोबाइल के माध्यम से इंटरनेट का उपभोग करने वालों की संख्या 16 करोड़ से भी अधिक हो जाएगी।मोबाइल फोन एक अत्यंत ही व्यक्तिगत माध्यम है और इसीलिए इसके माध्यम से इसको उपयोग करने वाले के बारे में सटीक जानकारी एकत्रित की जा सकती है।

प्रभात खबर में 10/08/15 को प्रकाशित 

Tuesday, August 4, 2015

ऑनलाइन शादियाँ ऐतबार का संकट

इंटरनेट ने लोक व लोकाचार के तरीकों को काफी हद तक बदल दिया है। बहुत-सी परंपराएं और बहत सारे रिवाज अब अपना रास्ता बदल रहे हैं। यह प्रक्रिया इतनी तेज है कि नया बहुत जल्दी पुराना हो जा रहा है। विवाह तय करने जैसी सामाजिक प्रक्रिया पहले परिवार और यहां तक कि खानदान के बड़े-बुजुर्गों, मित्रों, रिश्तेदारों वगैरह को शामिल करते हुए आगे बढ़ती थी, अब उसमें भी ‘ई’ लग गया है। अब लोग मैट्रीमोनी वेबसाइट की सहायता से जोड़ियां ही नहीं बना रहे, शादियां भी रचा रहे हैं। देश की ऑनलाइन मैट्रीमोनी का कारोबार अगले तीन साल में 1,500 करोड़ तक पहुंचने की उम्मीद है। इंटरनेट ऐंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अनुसार, वैवाहिक वेबसाइटों पर साल 2013 में 8.5 लाख प्रोफाइल अपलोड की गई, जिनकी संख्या साल 2014 में बढ़कर 19.6 लाख हो गई। यानी एक साल में 130 फीसदी का इजाफा।
सामाजिक रूप से देखें, तो जहां पहले शादी के केंद्र में लड़का और लड़की का परिवार रहा करता था, अब वह धुरी खिसककर लड़के व लड़की की इच्छा पर केंद्रित होती दिखती है। यह अच्छा भी है, क्योंकि शादी जिन लोगों को करनी है, उनकी सहमति परिवार में एक तरह के प्रजातांत्रिक आधार का निर्माण करती है, न कि उस पुरातन परंपरा के आधार पर, जहां माता-पिता की इच्छा ही सब कुछ होती थी। वर या वधू तलाशने के लिए दूर-दराज की जगहों की खाक छाननी पड़ती थी, जिसमें समय व पैसे की खासा बर्बादी होती थी और मानसिक तनाव अलग होता था। यही काम अब मैट्रीमोनिअल साइट व ऑनलाइन डेटिंग साइट कर रही हैं और वह भी बगैर किसी बिचौलिये के। वैसे यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि इससे पारदर्शिता आई है। इन वेबसाइटों पर आप सुविधाजनक रूप से प्रोफाइल सेट कर सकते हैं। अपनी तस्वीर डाल सकते हैं तथा अपनी पसंद से उन प्रोफाइल को चेक करके कदम बढ़ा सकते हैं। कई वेबसाइटों में चैटिंग की सुविधा है, जिसमें ऑनलाइन चैटिंग कर लड़का या लड़की एक-दूसरे को समझ सकते हैं।
लेकिन कुछ और तथ्यों पर गौर किया जाना भी जरूरी है। इन साइटों से हुई शादियों में धोखाधड़ी के कई मामले भी सामने आए हैं। दी गई जानकारी कितनी सही है, इसे जांचने का कोई तरीका ये साइट उपलब्ध नहीं करातीं। उनकी जिम्मेदारी लड़का-लड़की को मिलाने तक सीमित रहती है। हालांकि, झूठ बोलकर शादी कर लेने में नया कुछ नहीं, पर इंटरनेट के जरिये हुई शादियों के पीछे कोई सामजिक दबाव नहीं काम करता और गड़बड़ी की स्थिति में आप किसी मध्यस्थ को दोष देने की स्थिति में भी नहीं होते। और न कोई ऐसा होता है, जो बिगड़ी बात को पटरी पर लाने में मदद करे। हमारे पास ऐसे आंकड़े भी तो नहीं, जिनसे कहा जा सके कि धोखाधड़ी की घटनाएं पारंपरिक शादियों में ज्यादा होती थीं, या ऑनलाइन व्यवस्था में ज्यादा हो रही हैं। 
हिंदुस्तान में 04/08/15 को प्रकशित 

Saturday, August 1, 2015

ऐसे कैसे होगा बाल श्रम उन्मूलन


बाल श्रम की अवधारणा को सामान्य अर्थ में यूँ समझा जा सकता है जब कोई श्रम स्वतंत्रता के साथ खेलने,सीखने, पढ़ने  और विश्राम  के अवसर छीन ले, तब वह बचपन के खिलाफ हो जाता है। बाल श्रम (निषेध तथा विनियमन) अधिनियम 1986 के अनुसार कोई व्यक्ति जिसने चौदह वर्ष की आयु पूरी नहीं की है उसे बच्चे के रूप में परिभाषित करता है लेकिन बाल श्रम निवारण अधिनियम में  सरकार द्वारा प्रस्तावित संशोधन अगर लागू हो गया तो देश में बाल श्रम उन्मूलन को लेकर किये गए पिछले कई सालों  की मेहनत के बर्बाद हो जाने की आशंका है  और लाखों बाल मज़दूरों को पुनः शोषण और उत्पीडन के   दलदल में जाना होगा | यह संशोधन १४ वर्ष से कम उम्र के बच्चों को घरेलु उद्योगों में काम करने की छूट दे देगा| इन घरेलु उद्योगों में कालीन बनाने के कारखाने, बीड़ी बनाने के कारखाने, नगों को तराशने वाले उपक्रम,ताला बनाने वाले कारखाने और माचिस की डिब्बी आदि बनाने वाले छोटे कारखाने शामिल हैं| यह नए नियम मनोरंजन उद्योग जैसे बॉलीवुड और खेलों पर भी लागू होंगे| भारत के श्रम एवं रोज़गार मंत्री श्री दत्तात्रेय ने अप्रैल की शुरुआत में इस संशोधन के बाबत बताया था| श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय के अनुसार इस संशोधन के बाद बाल श्रम अधिनियम घरेलु उद्योग धंधों पर नहीं लागु होगा| इस नए संशोधन के बाद खेती और पशुपालन के काम में बच्चों को लगाया जा सकेगा| मंत्रालय के अधिकारियों के अनुसार इस संशोधन का उद्देश्य बच्चों में उद्यमिता की भावना का विकास करना है| मंत्रालय का यह मानना है कि यह संशोधन ख़ासकर के उन परिवारों के लिए फायदेमंदहोगा जो गरीबी में गुजर बसर करने को मजबूर हैं| उल्लेखनीय है कि यह नया संशोधन शिक्षा के अधिकार की मूल भावना के बिलकुल विपरीत है| शिक्षा के अधिकार क़ानून के अनुसार १४ वर्ष तक के प्रत्येक बच्चे को मुफ्त शिक्षा का  अधिकार दिया गया  है| संशोधित बाल श्रम क़ानून के लागू  होने के पश्चात शिक्षा के अधिकार कानून पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा| वर्ष २००१ में देश  में बाल मज़दूरों की संख्या १ करोड़ २६ लाख थी जो शिक्षा के अधिकार कानून 2009 के लागू  होने के बाद  वर्ष २०१४ तक घटकर सिर्फ ४३ लाख रह गयी|इससे इस तथ्य को बल मिलता है कि शिक्षा का अधिकार कानून जमीनी स्तर पर कुछ बदलाव ला पाने में सक्षम हुआ है पर यह  प्रस्तावित संशोधन नोबल पुरुस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी और स्वामी अग्निवेश  जैसे समाजसेवियों की वर्षो की मेहनत पर पानी फेर देगा जो वर्षों से बाल श्रम के मुद्दे पर काम कर रहे है  और इस तथ्य को नाकारा नहीं जा सकता कि देश में बाल मज़दूरों की संख्या फिर से बढ़ने लगेगी।   इस कानून के आने सेबिहार, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े राज्यों के बच्चे स्कूल से निकालकर घरेलु उद्योगों के नाम पर चल रही फैक्ट्रीयों  में झोंक दिए जाएंगे| इस क़ानून के आधार पर लड़िकयों को स्कूल न भेजकर घरेलु काम-काज में लगा दिया जाएगा| इस नए संशोधन से सबसे ज्यादानुकसान  दलित, मुस्लिम एवं अन्य पिछड़े तबकों से आने वाले बच्चों को होगा| अंततः यह कानून फैक्ट्री मालिकों के लिए ही फायदेमंद साबित होगा क्योंकि बच्चों को काम पैसे देकर ज्यादा देर तक काम करवाया जा सकता है और वे इस शोषण के खिलाफ आवाज़ भी नहीं उठा सकते हैं| यह संशोधन असंवैधानिक भी है क्योंकि यह सीधे-सीधे संसद की उपसमिति के उस सिफारिश के विरुद्ध भी है जिसमें बच्चों को घरेलु कामों में भी लगाना निषिद्ध किया गया है| यह संशोधन देश में निरक्षरता को बढ़ावा देगा और प्रधानमन्त्री  के कौशल विकास के सपने के भी खिलाफ होगा| बाल श्रम कानून होने के बावजूद भी हम गली मोह्हले की दुकानों और छोटी मोटी फैक्ट्रीयों में बच्चों को काम करते देख सकते हैं| इस संशोधनके आने से बच्चों को काम में लगाने वालों को खुली छूट मिल जाएगी क्योंकि इस बात का निर्णय करना कि कौन से काम घरेलु उद्योगों के अंतर्गत आएंगे और कौन से नहीं लगभग असंभव होगा|अतः बाल श्रम को रोकना लगभग असंभव हो जाएगा| श्रम मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष २००४ से लेकर वर्ष २०१४ के मध्य बाल श्रमकानून के अंतर्गत लगभग सिर्फ ११६८ लोगों को सजा अथवा जुर्माना हुआ| जिस देश में लाखों बाल मज़दूर हैं वहां पर इतने कम लोगों को सजा मिलना अपने आप में चिंता का विषय है| इस नए संशोधन के लागु होने के बाद इस संख्या के नगण्य हो जाने की आशंका है| कुल मिलकर इस नएसंशोधन के अस्तित्व में आ जाने से हमारे देश में बाल मज़दूरों की स्थिति और दयनीय हो जाएगी और जिन बच्चों के बल पर हम भविष्य कीमहाशक्ति बनने का सपना देख रहे हैं उनका खुद का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा|विकास के लिए प्रतिबद्ध सरकार का इस दिशा में आगे बढ़ना इस ओर इशारा करता है निवेश और बाज़ार के लिए अनुकूल वातावरण बनाते-बनाते कहीं बाल श्रम एक स्वीकार्य व्यवस्था न बन जाए!
अमर उजाला कॉम्पेक्ट में 01/08/15 को प्रकाशित 

पसंद आया हो तो