Tuesday, June 18, 2013

चलो लिखें कल की इबारत

एक ओबसर्वेशन है बिल्कुल सिंपल वाला साधारण, जब भी आप घर से बाहर निकलते हैं तो एक चीज जो हमें जरुर दिखती है वह है पान की पीक लोगों का थूक.छी छी सुबह सुबह मैं भी कैसी बातें करने लग गया अरे हमें क्या लोग थूकते होंगे रोड पर या जहाँ जगह मिली वहां नजर बचाकर चलिए इस बात को छोड़ा जाए और कुछ आपकी हमारी बात की जाए ये सब तो चलता रहता है और हमें क्या करना है इन बातों से तो मौसम में तो आपका इंटरेस्ट होगा न .भाई मौसम बदल रहा है. बारिश कहीं शुरू हो गयी है तो कहीं आने वाली है.ऐसे में बीमार पड़ने का अंदेशा ज्यादा रहता है तो अपना ख्याल रखियेगा वैसे भी कोई खुद बीमार नहीं होना चाहता पर कभी कभी हमें खुद समझ नहीं आता कि लाख सावधानी बरतने के बाद भी हम बीमार पड़ जाते हैं तब बहुत बुरा लगता है.पिछले दिनों मैं भी बीमार पड़ गया तब मजबूरी में सोचना पड़ा कि आखिर ऐसा हुआ क्यूँ और जो जवाब मिला वो काफी डर्टी वाला गन्दा था या यूँ कहें कि छी टाईप का था मैं किसी के थूक से बीमारी का शिकार हुआ. जी हाँ रोड पर या यहाँ वहां जब हम थूकते हैं तो उसके साथ हमारे शरीर में उपस्थित जीवाणु भी वायुमंडल में आ जाते हैं और उसके आस पास से गुजरने वाले व्यक्ति को इन्फेक्टेड कर देते हैं. वैसे तो थूकने की कोई निश्चित जगह नहीं है पर लोगों की थूकने की फेवरिट जगह रोड ही है.समस्या ये भी है कि आपको अगर काम करना है तो घर से निकल कर उसी रोड पर आना पड़ेगा जहाँ भाई लोग थूक चुके हैं या थूक रहे होते हैं.आमतौर पर किसी भी सरकारी ईमारत में घुस जाइए तो पान की पीक से रंगी लाल दीवारें बता देंगी कि इस ईमारत में कौन रहता है क्या करें कंट्रोल नहीं होता क्यूंकि जो जमीन सरकारी है वो जमीन हमारी है वाली आदत पडी है घर में नहीं थूकना है पर बाहर तो थूका ही जा सकता है.आइये समस्या की गंभीरता को समझने की कोशिश करते हैं. टीबी या तपेदिक के पूरे विश्व मे सबसे ज्यादा मरीज भारत में हैं जो हर साल दो लाख लोगों की जान ले लेता है. इसके फैलने में एक बड़ा कारण रोगी व्यक्तियों का थूक है.स्वाइन फ्लू, न्यूमोनिया और पेट आंत संबंधी बीमारियों के फैलने में हमारे इस थूक का बड़ा रोल रहता है.भारतीय रेल करीब डेढ़ करोड़ रुपैये हर साल सिर्फ थूक के दाग मिटाने में खर्च कर देता है.अब तो आप समझ ही रहे होंगे कि मुंह से निकला थोडा सा थूक देश और अर्थव्यवस्था को कैसे थूक लगा रहा है. थू थू करना एक मुहावरा है जिसका मतलब है किसी की बुराई करना पर अगर आज से हम एक छोटी सी कोशिश करें कि अपनी यहाँ वहां थूकने की आदत की थू थू करेंगे और इसको हमेशा के लिए खत्म कर देंगे,ध्यान रखियेगा अक्सर हम  थोड़ी देर के लिए जज्बाती होते हैं जैसे अभी आप इस आर्टिकल को पढकर हो रहे हैं, पर थोड़ी देर में सब भूल कर फिर वही करने लग जाएँ जो कल तक करते थे तो ये ठीक नहीं होगा  क्योंकि थूक के चाटना किसी को भी पसंद नहीं होता है.यदि आप स्वस्थ हैं तो भी आपका थूक अपने आस पास के एरिये को तो गन्दा कर ही रहा है जिससे भी कई तरह की डिजीज होती हैं. बार बार थूकने का एक कारण तम्बाकू और उससे बने डिफरेंट प्रोडक्ट का यूज भी है ऐसे भाई लोग जिनका अपने ऊपर कोई कंट्रोल नहीं है और टोबेको प्रोडक्ट का यूज नहीं छोड़ पा रहे हैं वो अपने गुस्से को थूक दें पर अपने थूक को पब्लिक प्लेस पर न थूकें ,इतना तो कर ही सकते हैं न क्यूंकि बीमारी की किसी से यारी नहीं होती है हो सकता है कल आपके किसी अपने की बारी आ जाए तब आप दुनिया भर को कोसेंगे
अरे बिल्कुल दिमाग नहीं लगाना है बस एक इफर्ट करना है कि हम इधर उधर पब्लिक प्लेसेज पर नहीं थूकेंगे और टोबैको प्रोडक्ट का यूज नहीं करेंगे बस फिर क्या हम भी हेल्थी वाले तंदुरुस्त हो जायेंगे और हमारा इनवायरमेंट भी .
आई नेक्स्ट में 18/06/13 को प्रकाशित 

Saturday, June 15, 2013

प्रीत

प्रीत के पावन बंधन में 
तुमने मुझको बाँधा प्रिये 
तुम हो मेरा जीवन धन 
मैंने आज माना प्रिये 
मन के सूने आँगन में 
जब तुम धीरे से आ जाती हो 
मेरे नयनों के बंद कपाटों में
जब तुम चुपके से मुस्काती हो
सुनहरे भविष्य के सपनों में
तब मैं भी खो जाता हूँ
तुमसे मिलन की आस में
विरह गीत गाता हूँ मैं
रात जब धीरे धीरे गहराती है
जब तारों को भी निद्रा आती है
तब मैं भी थोडा डर जाता हूँ
तुमसे विछोह की कल्पना में
स्वप्न में ही अकुलाता हूँ
क्या तुम बिन संभव होगा जीवन
क्यों नहीं हो सकता हमारा मिलन
प्रश्न अपने आप से कर जाता हूँ .
(पुरानी कविताओं को सहेजने की कोशिश जारी है .......)

गाँव की कला को ब्रांड बना दें

चिंता करना राष्ट्रीय कर्तव्य है और इस चिंता में अक्सर गाँवों का जिक्र आ जाता है पर गाँव है कि विकसित होता नहीं योजना आयोग की योजनाएं साल दर साल आती जाती रहती हैं पर गाँव तो बेचारा है यादों में रहने वाले गाँव की हकीकत उतनी रूमानी नहीं है इस तथ्य को समझने के लिए किसी आंकड़े  की जरुरत नहीं है गाँव में वही लोग  बचे हैं जो पढ़ने शहर नहीं जा पाए या जिनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं हैदूसरा ये मिथक कि खेती एक लो प्रोफाईल प्रोफेशन है जिसमे कोई ग्लैमर नहीं है फिर क्या गाँव धीरे धीरे हमारी यादों का हिस्सा भर हो गए हैं  जो एक दो दिन पिकनिक मनाने के लिए ठीक है  और शायद इसीलिये गाँव खाली हो रहे हैं और शहर जरुरत से ज्यादा भरे हुए आखिर समस्या कहाँ है गाँव को पुरानी पीढ़ी ने इसलिए पीछे छोड़ा क्यूंकि तरक्की रास्ता शहर  से होकर जाता था फिर जो गया उसने मुड़कर गाँव की सुधि नहीं ली क्यूंकि गाँव के लोग शहर जाकर विकसित हो रहे थे पर गाँव आर्थिक रूप से पिछड़े ही रहे एक तरफ 6लाख छोटे गाँव और दूसरी तरफ 600 शहर, कोई भी जागरूक और धन से संपन्न ग्रामीण शहर ही जाना चाहेगा और हुआ भी कुछ ऐसा ही दुनिया की हर विकसित अर्थव्यवस्था ऐसे ही आगे बढ़ी है जिसमे कृषि क्षेत्र की उत्पादकता को बढ़ाया गया और बची श्रम शक्ति को औधोगिकी करण में इस्तेमाल किया गया|भारत के गाँव के सामने विकल्प हैं पर यदि समय रहते इनको आजमा लिया जाए,गाँव से पलायन इसलिए होता है कि वहां सुविधाएँ नहीं है सुविधाएँ के लिए धन की जरुरत है वो दो तरीके से आ सकता है पहला सरकार द्वारा दूसरा पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप से,सरकार अपनी प्राथमिकताओं के हिसाब से काम करती है इसमें अगर तेजी लानी है तो पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप को बढ़ावा देना होगा अब यहाँ समस्या ये है कि गाँव ,जनसँख्या के अनुपात में शहरो से काफी छोटे होते हैं इसलिए आधारभूत सेवाओं के विकास में लागत बढ़ जाती है और इनकी वसूली में भी देर होती है जिससे निजी निवेशक पैसा लगाने से कतराते हैं दूसरी समस्या ग्रामीण जनसँख्या का आर्थिक रूप से कमजोर होना भी है जो जनसँख्या वर्ग दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रहा हो उसे सुविधाओं की जरुरत बाद में होगी जिससे गाँव विकास की दौड में पीछे छूटते जा रहे हैं और इससे ग्राम पलायन के एक ऐसे दुष्चक्र का निर्माण होता है जिससे देश आजतक जूझ रहा है सुविधाओं के अभाव में जिसको मौका मिलता है  लोग गाँव छोड़ देते हैं क्यूंकि शहर में मूलभूत बिजली पानी और सडक की स्थिति गाँव से बेहतर है  और ऐसे लोग दुबारा गाँव नहीं लौटते|खेती फायदे का सौदा छोटे और मझोले किसानों के लिए अब नहीं रही कारण जोत छोटी होने के कारण लागत ज्यादा आती है और लाभ कम, एक और कारण गाँव में आधारभूत सुविधाओं का अभाव समस्याओं को बढाता है और ये दुष्चक्र चलता रहता है,ग्रामीण अर्थव्यवस्था इस हद तक कृषि के इर्द गिर्द घूमती है कि कोई और विकल्प उभर ही नहीं पाया, पारम्परिक कुटीर उद्योग और कला ब्रांडिंग और मार्केटिंग के अभाव में रोजगार का अच्छा विकल्प नहीं बन पाए तो पर्यटन के अवसरों को कभी पर्याप्त दोहन किया ही नहीं गया नतीजा एक ऐसे गाँव में रहना जहाँ सुविधाएँ नहीं वहां के लोग  शहर जाकर मजदूरी करना बेहतर समझते हैं बन्स्बत अपने गाँव में रहकर खेती करना, सुविधाएँ किस तरह लोगों को आकर्षित करती हैं इसको पंजाब के खेतों में देखा जा सकता है जहाँ बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँव के किसान,खेतों मजदूरी और अन्य कार्य करने हर साल आते हैं|पर अब तस्वीर थोड़ी बदल रही है हर बदलाव जहाँ कुछ चुनौतियाँ लाता है वहीं कुछ अवसर भी उदारीकरण की बयार से गाँव के लोगों की क्रय शक्ति बढ़ रही है|नेशनल सैम्पल सर्वे संगठन और क्रिसिल की एक रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण भारत शहरी भारत के मुकाबले ज्यादा खर्च कर रहा है1, यानि गाँव उस दुष्चक्र से निकलने की कोशिश में कामयाब हो रहा है जो उसकी तरक्की में सबसे बड़ी बाधा रही है ग्रामीण भारत की क्रय शक्ति बढ़ रही है|  
ग्राम्य सन्देश पत्रिका के जुलाई अंक में प्रकाशित  

Friday, June 14, 2013

फेसबुक ज्ञान

उधर तुम चैट पर जल रही होती हो कभी हरी तो कभी पीली और इधर वो तो बस लाल ही होता हैएप्प्स के बीच में फंसी जिन्दगी वो जाना भी नहीं चाहता था और जताना भी नहीं वो जितने एप्स डाउनलोड करता वो उतना ही दूर जा रही थी अब मामला हरे और लाल का नहीं था अब मसला जवाब मिलने और उसके लगातार ऑन लाइन रहने के बीच के फासले का था स्मार्ट फोन की कहानी और उसकी कहानी के बीच एक नई कहानी पैदा हो रही थीउसने स्माईली का प्रयोग करना शुरू कर दियापर दिल की भावनाओं को चंद चिह्नों में समेटा जा सकता है क्या ? रीयल अब वर्चुअल हो चला था |दो चार स्माईली के बीच सिमटता रिश्ता वो कहता नहीं था और उसके पास सुनने का वक्त नहीं थाएप्स की दीवानी जो ठहरी , सब कुछ मशीनी हो रहा था|सुबह गुडमार्निंग का रूटीन सा एफ बी मैसेज और शाम को गुडनाईट दिन भर हरी और पीली होती हुई चैट की बत्तियों के बीच कोई जल रहा था तो कोई बुझता जा रहा था|काश तुम टाईम लाइन रिवियू होते जब चाहता अनटैग कर देता है|वो तो हार ही रहा था पर वो भी क्या जीत रही थीकुछ सवाल जो चमक रहे थे चैट पर जलने वाली बत्ती की तरह रिश्ते मैगी नहीं होते कि दो मिनट में तैयार ,ये सॉरी और थैंक यू से नहीं बहलते इनको एहसास चाहिए जो व्हाट्स एप और टैंगो जैसे एप्स नहीं देते उसे आगे जाना था पर ये तो पीछे जाना चाहता था जब रीयल पर वर्चुअल हावी नहीं था क्या इस रिश्ते को साइन आउट करने का वक्त आ गया था या ये सब रीयल नहीं महज वर्चुअल थावो हमेशा इनविजिबल रहा करता था वर्चुअल रियल्टी की तरह जहाँ हैवहाँ है नहींजहाँ नहीं हैवहां हो भी नहीं सकता वो इनविजिबल ही आया था और इनविजिबल ही विदा किया जा रहा था शायद ब्लॉक होना उसकी नियति है.अब वो जवाब नहीं देती थी और जो जवाब आते उनमे जवाब से ज्यादा सवाल खड़े होते. चैट की बत्तियाँ उसके लिए बंद की जा चुकी थी इशारा साफ़ था अब उसे जाना होगा साइन आउट करने का वक्त चुका था. वर्चुअल रीयल नहीं हो सकता सबक दिया जा चुका था . जिंदगी आगे बढ़ने का नाम है पीछे लौटने का नहीं|

Monday, June 3, 2013

गर्मियों में आग से तबाह होती किसानों की पूंजी

मई लगते ही सूरज अपने तेवर दिखाना शुरू कर देता है। स्कूल कॉलेज की छुट्टियाँ जहाँ समर कैंप्स की रौनक बढ़ा देती है वहीं आर्थिक रूप से समर्थ लोग किसी हिल स्टेशन पर सुक़ून भरे समय की तलाश में निकल पड़ते हैं। जब ऐसे ज़्यादातर लोग गर्मियाँ एंज्वॉय कर रहे होते हैंठीक उसी समयकिसी सुदूर गाँव में हमारा अन्नदाता अपनी अपनी नंगी झुलसी चमड़ी पर सूरज का तापमान माप रहा होता है। लहलहाती पकी फ़सल को देखकर आंखो में चमक के साथ चेहरे पर चिंता की झुर्रियां उसके किसान होने का प्रमाण देती हैं। एक ऐसे देश का किसान जो सबसे तेजी से उसके खुरदुरे कंधों पर टिकाकर तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ रहा है। पर खुद उसकी आजीविक अभी भी सूर्य और इंद्रदेवता की मेहरबानी पर टिकी है।गांवों में शहरों के मुक़ाबले आग लगने की घटनाएं ज़्यादा होती है और सुरक्षा के इंतज़ाम नदारत।साल भर किसान रातों को जागकर नीलगायों से फ़सल बचाने को हांका लगाता है और जब अनाज घर आने का समय आता है तो आग फ़सल के साथ साथ उसकी तमाम योजनाओं और उम्मीदों को भी जलाकर राख हो जाती है|आखिर उन्हीं का उगाया अन्न और सब्ज़ियां हम मॉल्स से खरीदना पसंद कर रहे हैं उन्हे डबलरोटी और नरेगा के सपनों के बजाय रोटी पहले मुहैया करायी जाये।।एनडीएमए(,National Disaster Management Authority) के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, 2007 में भारत में आग की वजह से 20,772 लोग मरे 2006 में ये संख्या 19,222 थी। 1958 में सरकार ने एक फायर बिल मॉडल का मसौदा तैयार किया था और सभी राज्यों को  भेजा गया था |
वे राज्यजिन्होंने अपना खुद का अग्नि एक्ट अधिनियमित नहीं किया हैएक वर्ष के भीतर-भीतर उन्हें एक उपयुक्त अग्नि अधिनियम लागू करना चाहिए। लेकिनचौवन साल  के बाद भीकुछ राज्यों ने इस पर अमल नहीं किया है।भारत में प्रशिक्षित अग्नि-शमन कर्मचारी छियानवे प्रतिशत कम हैं।इस समस्या की जड़ें गांवों के विकास से जुड़े बेतरतीब ढाँचे में निहित हैं। पहला तो ये कि जितनी भी सरकारी योजनाएं हैं वो गांव का विकास शहरों की तर्ज़ पर किये जाने की वकालत करती हैं।हमारा फायर ब्रिगेड सिस्टम भी आगजनी की दशा में घटनास्थल तक तभी पहुँचता है जब सब कुछ ख़ाक हो चुका होता है और आग के नाम पर बुझाने को बचती है तो सिर्फ गर्म राख|पानी और आग हमारे देश के ग्रामीण इलाकों में हमेशा परेशानी का सबब रहे हैं| इसमें पानी(बाढ़) से होने वाले नुक्सान पर तो सब की नज़र जाती है| इस बात के पर्याप्त आंकडे भी हैं की जल की अधिकता ( बाढ़) या फिर जल की कमी ( सूखा ) के कारण जान- माल का कितना नुक्सान हुआ| पर आग से होने वाले नुक्सान पर उतना धयान नहीं दिया गया|हर साल लाखों किसान आगजनी की चपेट में अपना सब कुछ खो देते हैं|यह प्रकोप देश में मार्च से लेकर जून तक कुछ अधिक ही होता है इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होती है गेहूं की फसल| हर साल लाखों एकड़ गेहूं की फसल खेत में ही आग में ख़ाक हो जाती है|इसी के साथ गन्ना समेत कुछ अन्य फसल हैं जो आगजनी का शिकार बनती हैं| संसाधनों की बुरी हालत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि  कई कई जिलों में सिर्फ जिला मुख्यालय पर अग्निशमन केंद्र है| वहां पर भी मात्र एक या दो अग्निशमन दल और गाड़ियाँ (दमकल ) हैं. ऐसे में अगर सुदूर कहीं गाँव में आग लगती है तो सूचना मिलने के बावजूद केंद्र से घटनास्थल तक मदद पहुँचने में घंटों लग जाते हैं. इतनी देर में आग अपना काम कर चुकी होती है. गाँवों तक पहुँचने वाले मार्ग भी इतने बेहतर नहीं हैं कि मदद जल्दी पहुंचाई जा सके|आग से निपटने के लिए विभागों के पास जो उपकरण हैं वो खासे पुराने हैं. गाड़ियाँ तो ऐसी हैं की उन्हें विंटेज रैलियों में शामिल किया जाने लगा है. कर्मचारियों में आपदा प्रबंधन की दक्षता का अभाव साफ़ झलकता है. ऐसे तमाम कारण हैं जो आग से होने वाले नुक्सान को कई गुना तक बढ़ा  देते हैं|आग लगने पर गरीब किसान के पास कुछ नहीं बचता उसकी जमा पूँजी और निवेश सब स्वाहा हो जाता है| किसी तरह से कोई जनहानि न भी हुई तो भी किसान की कमर टूट जाती है. ऐसा देखने में आया है की इन आगों में सबसे अधिक शिकार मवेशी होते हैं| ये मवेशी किसानों के लिए एक निवेश की तरह होते हैं| जो उन्हें कुछ आय भी देते हैं और बेचने पर जमा पूँजी भी निकलती हैं. इनके जलने से किसान को बड़ी चपत लगती है| अभी तक किसानो में फसल और मवेशियों का बीमा करने की जागरूकता  नहीं आई है इसलिए  इसकी भरपाई भी नहीं हो पाती. बाढ़ तो आने से पहले कुछ अंदेशा भी हो जाता है पर आग लगने की घटना तुरंत होती है. पर आग की घटना कभी कभार ही बड़े पैमाने पर मीडिया और सरकार  का ध्यान खींच पाती  है इसलिए इसे बाढ़ की तरह से गंभीरता से  नहीं लिया  जा रहा है|
गाँव कनेक्शन साप्ताहिक  के 2 जून के अंक में प्रकाशित 

पसंद आया हो तो