Wednesday, July 30, 2014

आधी आबादी की समस्याएं

स्वच्छता और साफ़ सफाई अभी भी हमारी स्वास्थ्य प्राथमिकता में नहीं है ऐसे में विशेषकर महिलाओं के स्वास्थ्य के सम्बन्ध में मासिक धर्म पर बात करना गाँवों क्या शहरों में भी उचित नहीं समझा जाता है|भारत जैसे देश में जहाँ पहले से ही इतनी स्वास्थ्य समस्याएं हैं वहां देश की आधी आबादी किस गंभीर समस्या से जूझ रही है इसका सिर्फ अंदाज़ा लगाया जा सकता है |महिलाओं का मासिक धर्म एक सहज वैज्ञानिक और शारीरिक क्रिया है. ए सी नील्सन की रिपोर्ट “सेनेटरी प्रोटेक्शन:एवरी विमेंस हेल्थ राईट के अनुसार मासिक धर्म के समय स्वच्छ सेनेटरी  पैड के अभाव में देश की सत्तर प्रतिशत महिलायें प्रजनन प्रणाली संक्रमण का शिकार होती हैं जो कैंसर होने के खतरे को बढाता हैपर्याप्त साफ़ सफाई और स्कूल में उचित शौचालयों के अभाव में देश की तेईस प्रतिशत किशोरियां स्कूल जाना छोड़ देती हैं|भारत में सांस्कृतिक - धार्मिक वर्जनाओं के कारण मासिक धर्म को प्रदूषित कर्म की श्रेणी में माना जाता है|मासिक धर्म के दिनों में उन्हें घर के सामान्य काम काज से दूर कर दिया जाता है,वैज्ञानिक द्रष्टिकोण और सोच के अभाव में यह परम्परा अभी भी ग्रामीण इलाकों में जारी है|किशोरियां भारत की आबादी का पांचवा हिस्सा है पर उनकी स्वास्थ्य जरूरतों के मुताबिक़ स्वास्थ्य कार्यक्रमों का कोई ढांचा हमारे सामने नहीं है|
सेक्स शिक्षा के अभाव और मासिक धर्म जैसे संवेदनशील विषयों पर बात न करने जैसी परम्परा किशोरियों को एक ऐसे दुष्चक्र में फंसा देती है जिससे निकलने के लिए वो जीवन भर छटपटाती रहती हैं|प्रजनन स्वास्थ्य का यह सवाल प्रत्यक्ष रूप से सुरक्षित मातृत्व के अधिकार से भी जुड़ता है।जब प्रजनन स्वास्थ्य की बात होगी  तो मासिक धर्म की बात अवश्यम्भावी हो जायेगी|
छोटे शहरों और कस्बों के स्कूलों में महिला शिक्षकों की कमी और ग्रामीण भारत में सह शिक्षा के लिए परिपक्व वातावरण का न होना समस्या को और भी जटिल बना देता है |क्षेत्रीय भाषाओँ में प्रजनन अंगों के बारे में जानकारी देना शिक्षकों के लिए अभी भी एक चुनौती है|सेक्स शिक्षा की जरुरत पर अभी भी देश में कोई सर्व स्वीकार्यता नहीं बन पायी है,सब अपनी डफली अपना राग बजाने में व्यस्त हैं|हिन्दुस्तान लेटेक्स फैमली प्लानिंग प्रमोशन ट्रस्ट की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में सेनेटरी पैड का प्रयोग कुल महिला जनसँख्या का मात्र दस से ग्यारह प्रतिशत होता है जो यूरोप और अमेरिका के 73 से 92 प्रतिशत के मुकाबले नगण्य है|शहरों में विज्ञापन और जागरूकता के कारण यह आंकड़ा पचीस प्रतिशत के करीब है पर ग्रामीण भारत में सेनेटरी पैड और मासिक धर्म,स्वच्छता स्वास्थ्य जैसे मुद्दे एकदम गायब हैं|सेनेटरी पैड के कम इस्तेमाल के कारणों में जागरूकता का अभाव,उपलब्धता और आर्थिक सामर्थ्य का न होना जैसे घटक शामिल हैं|सरकार ने 2010 में मासिक धर्म स्वच्छता योजना,राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत शुरू की थी जिसमें सस्ती दरों पर सेनेटरी पैड देने का कार्यक्रम शुरू किया पर सामजिक रूढिगत वर्जनाओं के कारण इस प्रयास को अपेक्षित सफलता नहीं मिल रही है|सेनेटरी पैड तक पहुँच होना ही एक चुनौती नहीं  है प्रयोग किये गए सेनेटरी पैड का क्या किया जाए यह भी एक गंभीर प्रश्न है|मेरीलैंड विश्वविद्यालय के डॉ विवियन होफमन ने अपने एक शोध में पाया कि बिहार की साठ प्रतिशत महिलायें  प्रयोग किये गए सेनेटरी पैड या कपड़ों को खुले में फैंक देती हैं|प्रजनन अंग संबंधी स्वास्थ्य समस्याओं में सेनेटरी पैड के अलावा साफ़ पानी और निजता(प्राइवेसी ) की कमी भी समस्या एक अन्य आयाम है|मेडिकल प्रोफेशनल भी इस मुद्दे को उतनी गंभीरता से नहीं लेते जितना की अपेक्षित हैमेडिकल स्नातक स्तर इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर एक भी अध्याय पाठ्यपुस्तकों में शामिल नहीं है|सरकारी स्वास्थ्य कार्यक्रमों जैसे पल्स पोलियो,परिवार नियोजन पर जितना जोर दिया गया है उतना जोर मासिक धर्म,प्रजनन अंगों के स्वास्थ्य आदि मुद्दों पर नहीं दिया जा रहा है |इस दिशा में मेडिकल और पैरा मेडिकल हेल्थ प्रोफेशनल को और ज्यादा ध्यान देने की आवश्यकता है|सिर्फ सेनेटरी पैड बाँट भर देने से जागरूकता नहीं आयेगी| राष्‍ट्रीय ग्रामीण स्‍वास्‍थ्‍य मिशनके अंतर्गत सरकार ने प्रत्‍येक गांव में एक महिला प्रत्‍यायित सामाजिक स्‍वास्‍थ्‍य कार्यकर्ता (आशा) की नियुक्ति का प्रावधान किया है प्रत्‍यायित सामाजिक स्‍वास्‍थ्‍य कार्यकर्ता (आशा) समुदायों के बीच स्‍वास्‍थ्‍य सक्रियता पहल करने में सक्रिय है,उन्हें मासिक धर्म स्वास्थ्य जैसे मुद्दे पर जोड़ा जाए और आशा कार्यकर्ता गाँव -गाँव जा कर लोगों को जागरूक करें जिससे इस समस्या से लोग रूबरू हो सकें और एक बड़े स्तर पर एक संवाद शुरू हो सके और रूढिगत वर्जनाओं  पर प्रहार हो|आमतौर पर जब तक समाज में यह धारणा रहेगी कि मासिक धर्म महिलाओं से जुड़ा एक स्वास्थ्य मुद्दा है तबतक समस्या का समाधान होना मुश्किल है इस मुद्दे से एक स्वस्थ और विकसित समाज का भविष्य जुड़ा है |
अमर उजाला कॉम्पेक्ट में 30/07/14 को प्रकाशित 

Monday, July 21, 2014

इंटरनेट पर झूठ-सच पकड़ने की शुरुआत

पिछले कुछ वर्षों में सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर ऑनलाइन वीडियो का चलन और लोकप्रियता, दोनों ही बढ़े हैं। अक्सर ऐसे कई वीडियो सुर्खियां बटोरते रहते हैं, जैसे दिल्ली में चलती मेट्रो ट्रेन के खुले दरवाजे का वीडियो। ऑनलाइन वीडियो की इस लोकप्रियता का एक कारण सस्ते मोबाइल फोन में भी वीडियो बनाने की सुविधा का उपलब्ध हो जाना है, जिन्हें आसानी से फोन के जरिये ही यू-ट्यूब पर साझा भी किया जा सकता है। हर महीने 100 करोड़ से भी अधिक लोग इस साइट को देखते हैं। इस वेबसाइट पर हर मिनट लगभग 100 घंटे से भी अधिक समय के वीडियो डाले जाते हैं। बॉलीवुड फिल्मों की सफलता या विफलता में ये एक अहम भूमिका निभाने लगे हैं। किसी फिल्म के गाने या उसके ट्रेलर को मिले लाइक से उस फिल्म की सफलता का अंदाज लगाया जाने लगा है।
कई बार तो दुनिया के किसी भी कोने में होने वाली कोई भी घटना समाचार चैनलों पर आने से पहले ही यू-ट्यूब पर दिख जाती है। तस्वीर का दूसरा पक्ष यह भी है कि इन वीडियो की सत्यता परखने का कोई जरिया आमतौर पर उपलब्ध नहीं है। वीडियो सच्चा है या झूठा, इसे आप नहीं समझ सकते। अक्सर झूठे वीडियो ही ज्यादा दिखाई देते हैं। फेसबुक ने इस समस्या को देखते हुए कंटेंट की प्रामाणिकता को पुख्ता करने के लिए स्टोरीफुल कंपनी के साथ फेसबुक वायर सेवा शुरू की है। इंटरनेट पर कंटेंट की प्रामाणिकता अब एक बड़ी समस्या बन चुकी है। मुजफ्फरनगर दंगों के विकराल होने के पीछे ऐसे ही कुछ फर्जी वीडियो का योगदान सामने आया, जो भारत के थे ही नहीं। ऐसे वीडियो बहुत तेजी से फैलते हैं और समाज पर उनका असर भी तुरंत दिखता है। आमतौर पर लोग जो देखते हैं, उसे सच मान लेते हैं, भले ही उसकी असलियत कुछ भी हो। इस बात की पुष्टि करने का कोई तरीका उपलब्ध नहीं है कि क्या वीडियो नया है या पुराना और संदर्भ से बिल्कुल अलग है।
मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने इस समस्या से निपटने के लिए सिटिजन एविडेंस लैब नाम की एक वेबसाइट शुरू की है। इस वेबसाइट के माध्यम से दुनिया भर के पत्रकार, वकील और मानवाधिकार के लिए कार्य करने वाले कार्यकर्ता इंटरनेट पर उपलब्ध वीडियो की प्रामाणिकता परख सकेंगे। इस वेबसाइट में दिए गए टूल्स द्वारा यू-ट्यूब जैसी वेबसाइट पर पोस्ट किए गए वीडियो के बारे में कई बातें जान सकेंगे, जो उन्हें उन वीडियों की प्रामाणिकता और सत्यता जांचने में सहायता करेंगी। इससे वीडियो पोस्ट करने वाले के पूर्व व्यवहार, पोस्ट करने का समय, वीडियो बनाने का समय जैसी जानकारियां प्राप्त की जा सकेंगी। बेशक, इससे मदद मिलेगी, लेकिन इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारियों, खासकर तस्वीरों और वीडियो का सच जानने का प्रयास अभी बस शुरू ही हुआ है, यह संघर्ष काफी लंबा होगा।
हिन्दुस्तान में 21/07/14  को प्रकाशित 

Thursday, July 10, 2014

बारिश का बजट कनेक्शन

जब तक ये लेख आपके हाथों में पहुंचेगा तो बादल आपको बारिश से भिगो  चुके होंगे पर इस बार की बारिश कुछ खास है.इस बारिश में कई सालों बाद देश का बजट आ रहा है.यानि बारिश का बजट से कनेक्शन होने जा रहा है.फिर वही पुराना सवाल बादल,बारिश और बजट तो हम क्या करें.हम्म सवाल तो मेरे सामने भी है कि इस बार बारिश का बजट कैसा होगा. इसके अलावा इस बार बारिश पर अलनीनो का प्रभाव है. खैर इस सब से आपको क्या मतलब? आपके लिए तो बारिश का मौसम छई..छपा...छई करने और चाय पकौड़ी खाने का होता है. वैसे आपको बताता चलूँ बारिश सावन के महीने में ज्यादा होती है और आपने वो गाना तो जरुर सुना होगा “तेरी दो टकियां की नौकरी में मेरा लाखों का सावन जाए” आपको पता है सावन क्यूँ लाखों का है.अरे भाई देश का बजट मॉनसून पर डिपेंड करता है,यानि बारिश बहुत इम्पोर्टेंट है पर बजट तो तभी बनेगा जब “वी दा पीपल” काम करेंगे जिससे आमदनी होगी और सावन लाखों का नहीं अरबों का होगा और काम तभी होगा जब बारिश होगी क्यूंकि अभी भी हमारी इकोनोमी एग्रीकल्चर बेस्ड है और खेती के लिए पानी की जरुरत होती है.पानी के लिए हम ज्यादातर बारिश पर निर्भर हैं.तो ऐसे ही मौसम में चाय पीते हुए मैंने अखबारी सुर्ख़ियों में पढ़ा कि  राजस्थान के नागौर जिले में पिछले सत्रह  साल से अच्छी बारिश नहीं हुई है तो वहां के हालत खराब हैं, अब आप कहेंगे की इसे यहां लिखने का क्या मतलब. मतलब है तभी तो लिख रहा हूँ…. बारिश होते ही आपके दिमाग में पहला थॉट यही आता है न गरम गरम पकौड़ी और चाय हो,कहीं जाना न हो बस घर पर बैठा जाए पर हमेशा ऐसा हो नहीं पाता. चलिए बारिश का बजट कनेक्शन तो पहले एस्टेब्लिश कर लिया जाए,आजकल जमाखोरी की चर्चा बहुत हो रही है जमाखोरी की वजह बारिश की कमी है जिससे अनाज और सब्जियों की पैदावार कम होने की आशंका है.जमाखोर इसलिए सब्जियों को मार्केट में नहीं भेज रहे बाद में बढ़ी कीमत पर वो ज्यादा मुनाफा कमाएंगे और हमारा और देश का बजट बिगाड़ेंगे.अब आप कहेंगे कि बजट का बाजा जमाखोर ही बजा रहे हैं.पर क्या आपने सोचा कि बारिश के पानी की जमाखोरी हमने की होती तो सब्जियों की जमाखोरी करने वाले कुछ नहीं कर पाते.क्योंकि खेतों की  सिंचाई के लिए हमें मॉनसून का मुंह नहीं ताकना पड़ता.देश में नागौर जैसे और भी इलाके हैं जहाँ के लोग हमारे आपके जैसे खुशनसीब नहीं हैं और आज भी  बारिश के इंतज़ार में है.इसे समझने के लिए पर्यावरणीय नजरिये की जरूरत है. वहां  जो हालत है वह मानवीय कुप्रबंधन का परिणाम है.कुछ सालों में नागौर जैसे हालात हर जगह होंगे. जरा सोचिये अगर अलनीनो के चलते मानसून की जरा सी देरी से बिजली और महंगाई का इतना बड़ा संकट खड़ा हुआ है लेकिन परवाह किसे है, लोग तो महंगाई के लिए बजट और सरकार को कोस लेंगे बस. बारिश तो छई... छपा.... छई के लिए है न जनाब.कहने का मतलब इतना सा है की हमारी हर छोटी छोटी परेशानियों के पीछे के तार भी हमारी छोटी छोटी लापरवाहियों से जुड़े होते हैं. बजट तो आ जाएगा पर बारिश की कमी के बारे में थोडा सीरियसली सोचने की जरुरत है. बजट के बाद पड़ने वाले प्रभावों पर सब अपनी ओपीनियन देंगे पर बारिश का बजट कनेक्शन कौन देखेगा ? इसे अनदेखी करने की भूल न करें. बारिश कम होने के पीछे के रीजन को समझें और उसमे अपनी रिस्पांसिबिलिटी को समझें.बारिश के पानी को बचाएं क्यूंकि जमीनी पानी का लेवल लगातार गिर रहा है और इस लेवल को बढ़ाने का एक ही तरीका रेन वाटर हार्वेस्टिंग यानि पानी की जमाखोरी की जाए और विश्वास रखिये इस जमाखोरी से देश का बजट सुधरेगा.अब तक आपको समझ में आ गया होगा कि बादल,बरसात और बजट का ये मौसम हम सबके लिए क्या मायने रखता है तो सोच क्या रहे हैं लग जाइए पानी की जमाखोरी में.देखो बारिश हो रही है.
आई नेक्स्ट में 10/07/14 को प्रकाशित 

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