Monday, December 24, 2018

निजता के अधिकार पर न हो विवाद

आप अपने मोबाइल और लैपटॉप में क्या रखते हैं ये जानने का अधिकार पहले केवल आपको था लेकिन अब ये केवल आपका अधिकार नहीं रह गया है.  विगत बीस  दिसंबर को गृह मंत्रालय ने एक आदेश जारी कर दिल्ली पुलिस कमिश्नरसीबीडीटीडीआरआईईडीरॉएनआई जैसी 10 एजेंसियों को देश में चलने वाले सभी कंप्यूटर की निगरानी करने का अधिकार दे दिया है. कई सवाल  आम लोगों के मन में सरकार के उस आदेश के बाद उठ रहे हैंजिसमें उसने देश की सुरक्षा और ख़ुफिया एजेंसियों को सभी के कंप्यूटर में मौजूद डेटा पर नज़र रखनेउसे सिंक्रोनाइज (प्राप्त) और उसकी जांच करने के अधिकार दिए हैं.सरकार के इस आदेश के बाद  काफी विवाद हो रहा है. इस मामले में विपक्षी दलों द्वारा विरोध दर्ज कराने पर राज्यसभा भी स्थगित कर दी गई. सोशल मीडिया पर भी सरकार के इस फ़ैसले का काफी  विरोध हो रहा है. लोगों का मानना है कि यह उनकी निजता के अधिकार में हस्तक्षेप है. तकनीक के जरिए आपराधिक गतिविधियों को अंजाम नहीं दिया जा सकेइसको ध्यान में रखते हुए आज से  करीब सौ साल पहले इंडियन टेलिग्राफ एक्ट बनाया गया था.जिसके मूल में अंग्रेजों की यह धारणा थी कि इस देश पर उनके शासन को किसी तरह की चुनौती न मिले .जिसके  तहत सुरक्षा एजेंसियां उस समय टेलिफोन पर की गई बातचीत को टैप करती थी.संदिग्ध लोगों की बातचीत में अक्सर  सुरक्षा एजेंसियों की  निगरानी होती थी.उसके बाद जब तकनीक ने प्रगति की कंप्यूटर और मोबाईल का चलन बढ़ा और इसके जरिए अपराधिक गतिविधियों  को अंजाम दिया जाने लगातो साल 2000 में भारतीय संसद ने आईटी कानून बनाया. देशहित राजनीतिक व आम चर्चाओं का मुद्दा हमेशा से रहा है. मौजूदा हालात में देशहित अब भावनात्मक मुद्दा भी बन गया है.  और फिलहाल ताज़ा मसला देशहित का  संविधान के मौलिक अधिकार से टकराव का है.  वहीं सरकार का कहना है कि ये अधिकार एजेंसियों को पहले से ही प्राप्त थे. उसने सिर्फ़ इसे दोबारा जारी किया है.इन  अधिकारों के तहत ये जाँच एजेंसियां देश भर में किसी भी व्यक्ति का भी डाटा खंगाल सकती हैं.  चाहे वो आपका लैपटॉप होया मोबाइल या फिर किसी भी प्रकार का इलेक्ट्रॉनिक गैजेट. इससे पहले जाँच एजेंसियां केवल किसी के  फ़ोन कॉल्स और ई-मेल का ब्योरा ही जुटा सकती थीं वो भी गृह मंत्रालय के आदेश के बाद . और यदि कोई भी नागरिक जाँच एजेंसियों को ऐसा करने से रोकता है तो उसे जेल भेजा जा सकता है साथ ही उस पर जुर्माना  भी लगाया जा सकता है. इन दस जाँच एजेंसियों में मुख्य रूप से सीबीआई नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसीइंटेलिजेंस ब्यूरो  और दिल्ली पुलिस शामिल हैं . इस आदेश के बाद से ही देश भर में चर्चाओं का दौर जारी है. विपक्ष का कहना है कि ये पूरी तरह से संविधान में प्रत्येक नागरिक को दिए गए निजता के अधिकार का पूरी तरह से हनन है.  विप्लाश का आरोप है कि सरकार हाल ही में हुए चुनावों में मिली हार के बाद प्रत्येक नागरिक का ब्यौरा अपने फायदे के लिए जुटाना चाहती है. देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस इस आदेश के पुरज़ोर विरोध में है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का कहना है कि मोदी सरकार देश को सर्विलांस देश” बनाना चाहती है. उल्लेखनीय  ये है कि 2009 में तत्कालीन  यूपीए सरकार ने भी इसी  तरह का एक अध्यादेश जारी किया था जिसमें जाँच एजेंसियों के अधिकारों को बढ़ाने की बात की गयी थी. सरकार ने स्पष्ट किया है कि  कि जिन व्यक्तियों से  देश की सुरक्षासमग्रता को खतरा होगा केवल उन्हीं के डाटा को खंगाला जायेगा. निर्दोष नागरिकों को इससे कोई परेशानी नहीं होगी. अब यदि इस आदेश की  सामान्य रूप से सामान्य नागरिक के तौर पर विवेचना की जाये तो एक तरफ जहाँ ये आदेश संविधान में मिले निजता के अधिकार को चुनौती देता प्रतीत होता है वहीँ एक और सवाल यहाँ ये उठता है कि जिनसे देश हित को खतरा है उन्हें सरकार कैसे चिन्हित करेगी?  यदि आम नागरिक के तौर पर सोचा जाये तो सभी के डाटा खंगालने के बाद ही ये पता चल पायेगा कि कौन देशहित के खिलाफ़ कार्य कर रहा है. इस प्रकार सीधे-सीधे तौर पर हर आम नागरिक इसके दायरे में आ ही जाता है.जिससे निजता का अधिकार प्रभावित होता है .वैसेआईटी एक्ट के सेक्शन 69 के तहत अगर कोई भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ग़लत इस्तेमाल करता है और वो राष्ट्र की सुरक्षा के लिए चुनौती है तो अधिकार प्राप्त एजेंसियां कार्रवाई कर सकती है.तथ्य  यह भी है कि आईटी एक्ट के सेक्शन 69 के तहत कौन सी एजेंसियां जांच करेंगीइसके आदेश कब दिए जा सकते हैंये अधिकार केस के आधार पर दिए जाते हैं और इसका फैसला जांच एजेंसियां करती हैं . सरकार ऐसे  अधिकार सामान्य तौर पर नहीं दे सकती है. इस कानून के सेक्शन 69 में इस बात का जिक्र है कि अगर कोई राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए चुनौती पेश कर रहा है और देश की अखंडता के ख़िलाफ़ काम कर रहा है तो सक्षम एजेंसियां उनके कंप्यूटर और डेटा की निगरानी कर सकती हैं.इस कानून के मुताबिक़  निगरानी के अधिकार किन एजेंसियों को दिए जाएंगेयह सरकार तय करेगी.
वहीं सब-सेक्शन दो में अगर कोई अधिकार प्राप्त एजेंसी किसी व्यक्ति  को सुरक्षा से जुड़े किसी मामले में बुलाया जाता  है तो उसे एजेंसियों के साथ  सहयोग करना होगा और सारी जानकारियां उपलब्ध करानी होंगी.इसी कानून में  यह भी स्पष्ट किया गया है कि अगर बुलाया गया व्यक्ति एजेंसियों की मदद नहीं करता है तो वो सजा का अधिकारी होगा. जिसमें सात साल तक की  जेल की सजा का  भी प्रावधान है.
फिलहाल देश में देशहित बनाम मौलिक अधिकारों पर बहस जारी है.  देशहित में कितने मौलिक अधिकार बचे रह जाते हैं या मौलिक अधिकारों में कितना देशहित बचा रह जाता है ये देखने वाली बात होगी. 
दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में 24/12/2018 को प्रकाशित 

Monday, December 10, 2018

इंटरनेट का बढ़ता दुष्प्रभाव

पिछले तकरीबन एक दशक से भारत को किसी और चीज ने उतना नहीं बदलाजितना मोबाइल फोन ने बदल दिया है। संचार ही नहींइससे दोस्ती और रिश्ते तक बदल गए हैं। इतना ही नहींदेश में अब मोबाइल बात करने का माध्यम भर नहीं हैबल्कि यह मनोरंजन और खबरोंसूचनाओं वगैरह के मामले में परंपरागत संचार माध्यमों को टक्कर दे रहा है।डिजिटल इंडिया के बढ़ते कदमों के साथ यह चर्चा भी देश भर में आम है कि स्मार्टफोन व इंटरनेट लोगों को व्यसनी बना रहा है। इंटरनेट ने उम्र का एक चक्र पूरा कर लिया है। इसकी खूबियों और इसकी उपयोगिता की चर्चा तो बहुत हो लीअब इसके दूसरे पहलुओं पर भी ध्यान जाने लगा है। कई देशों के न्यूरो वैज्ञानिक व मनोवैज्ञानिकलोगों पर इंटरनेट और डिजिटल डिवाइस से लंबे समय तक पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन कर रहे हैं। मुख्य रूप से इन शोधों का केंद्र युवा पीढ़ी पर नई तकनीक के संभावित प्रभाव की ओर झुका हुआ हैक्योंकि वे ही इस तकनीक के पहले और सबसे बड़े उपभोक्ता बन रहे हैं। कहा जाता है कि मानव सभ्यता शायद पहली बार एक ऐसे नशे से सामना कर रही हैजो न खाया जा सकता हैन पिया जा सकता हैऔर न ही सूंघा जा सकता है। चीन के शंघाई मेंटल हेल्थ सेंटर के एक अध्ययन के मुताबिकइंटरनेट की लत शराब और कोकीन की लत से होने वाले स्नायविक बदलाव पैदा कर सकती है। वी आर सोशल की डिजिटल सोशल ऐंड मोबाइल 2015 रिपोर्ट के मुताबिकभारत में इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं के आंकड़े काफी कुछ कहते हैं। इसके अनुसारएक भारतीय औसतन पांच घंटे चार मिनट कंप्यूटर या टैबलेट पर इंटरनेट का इस्तेमाल करता है। इंटरनेट पर एक घंटा 58मिनटसोशल मीडिया पर दो घंटे 31 मिनट के अलावा इनके मोबाइल इंटरनेट के इस्तेमाल की औसत दैनिक अवधि है दो घंटे 24मिनट। इसी का नतीजा हैं तरह-तरह की नई मानसिक समस्याएं- जैसे फोमोयानी फियर ऑफ मिसिंग आउटसोशल मीडिया पर अकेले हो जाने का डर। इसी तरह फैडयानी फेसबुक एडिक्शन डिसऑर्डर। इसमें एक शख्स लगातार अपनी तस्वीरें पोस्ट करता है और दोस्तों की पोस्ट का इंतजार करता रहता है। एक अन्य रोग में रोगी पांच घंटे से ज्यादा वक्त सेल्फी लेने में ही नष्ट कर देता हैदेश में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों की संख्या इस साल जून तक 50 करोड़ पार कर गयी है इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया तथा केंटार आईएमआरबी द्वारा संयुक्त रूप से तैयार इस रिपोर्ट में कहा गया है कि इंटरनेट उपभोक्ताओं   की संख्या वार्षिक  आधार पर 11.34 प्रतिशतसे  बढ़कर दिसंबर 2017 में अनुमानित 48.1 करोड़ हो गईभारत में इंटरनेट-2017 शीर्षक से प्रकाशित इस रिपोर्ट के अनुसार  देश में कुल इंटरनेट घनत्व दिसंबर 2017 के अंत में जनसंख्या का पैंतीस  प्रतिशत रहां |
लोगों में डिजिटल तकनीक के प्रयोग करने की वजह बदल रही है। शहर फैल रहे हैं और इंसान पाने में सिमट रहा है।नतीजतनहमेशा लोगों से जुड़े रहने की चाह उसे साइबर जंगल की एक ऐसी दुनिया में ले जाती हैजहां भटकने का खतरा लगातार बना रहता है। भारत जैसे देश में समस्या यह है कि यहां तकनीक पहले आ रही हैऔर उनके प्रयोग के मानक बाद में गढ़े जा रहे हैं। कैस्परस्की लैब द्वारा इस वर्ष किए गए एक शोध में पाया गया है कि करीब 73 फीसदी युवा डिजिटल लत के शिकार हैंजो किसी न किसी इंटरनेट प्लेटफॉर्म से अपने आप को जोड़े रहते हैं। वर्चुअल दुनिया में खोए रहने वाले के लिए सब कुछ लाइक्स व कमेंट से तय होता है। वास्तविक जिंदगी की असली समस्याओं से वे भागना चाहते हैं और इस चक्कर में वे इंटरनेट पर ज्यादा समय बिताने लगते हैंजिसमें चैटिंग और ऑनलाइन गेम खेलना शामिल हैं। और जब उन्हें इंटरनेट नहीं मिलतातो उन्हें बेचैनी होती और स्वभाव में आक्रामकता आ जाती है। साल 2011 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ कोलंबिया द्वारा किए गए रिसर्च में यह निष्कर्ष निकाला गया था की युवा पीढ़ी किसी भी सूचना को याद करने का तरीका बदल रही हैक्योंकि वह आसानी से इंटरनेट पर उपलब्ध है। वे कुछ ही तथ्यों को याद रखते हैंबाकी के लिए इंटरनेट का सहारा लेते हैं। इसे गूगल इफेक्ट या गूगल-प्रभाव कहा जाता है।
इसी दिशा में कैस्परस्की लैब ने साल 2015 में डिजिटल डिवाइस और इंटरनेट से सभी पीढ़ियों पर पड़ने वाले प्रभाव के ऊपर शोध किया है। कैस्परस्की लैब ने ऐसे छह हजार लोगों की गणना कीजिनकी उम्र 16-55 साल तक थी। यह शोध कई देशों में जिसमें ब्रिटेनफ्रांसजर्मनीइटलीस्पेन आदि देशों के 1,000 लोगों पर फरवरी 2015 में ऑनलाइन किया गया। शोध में यह पता चला की गूगल-प्रभाव केवल ऑनलाइन तथ्यों तक सीमित न रहकर उससे कई गुना आगे हमारी महत्वपूर्ण व्यक्तिगत सूचनाओं को याद रखने के तरीके तक पहुंच गया है। शोध बताता है कि इंटरनेट हमें भुलक्कड़ बना रहा हैज्यादातर युवा उपभोक्ताओं के लिएजो कि कनेक्टेड डिवाइसों का प्रयोग करते हैंइंटरनेट न केवल ज्ञान का प्राथमिक स्रोत है,बल्कि उनकी व्यक्तिगत जानकारियों को सुरक्षित करने का भी मुख्य स्रोत बन चुका है। इसे कैस्परस्की लैब ने डिजिटल एम्नेशिया का नाम दिया है। यानी अपनी जरूरत की सभी जानकारियों को भूलने की क्षमता के कारण किसी का डिजिटल डिवाइसों पर ज्यादा भरोसा करना कि वह आपके लिए सभी जानकारियों को एकत्रित कर सुरक्षित कर लेगा। 16 से 34 की उम्र वाले व्यक्तियों में से लगभग 70 प्रतिशत लोगों ने माना कि अपनी सारी जरूरत की जानकारी को याद रखने के लिए वे अपने स्मार्टफोन का उपयोग करते है। इस शोध के निष्कर्ष से यह भी पता चला कि अधिकांश डिजिटल उपभोक्ता अपने महत्वपूर्ण कांटेक्ट नंबर याद नहीं रख पाते हैं।
एक यह तथ्य भी सामने आया कि डिजिटल एम्नेशिया लगभग सभी उम्र के लोगों में फैला है और ये महिलाओं और पुरुषों में समान रूप से पाया जाता है। ज्यादा प्रयोग के कारण डिजिटल डिवाइस से हमारा एक मानवीय रिश्ता सा बन गया हैपर तकनीक पर अधिक निर्भरता हमें मानसिक रूप से पंगु भी बना सकती है। यही इंटरनेट एडिक्शन बहुत से लोगों की मौत का कारण भी बना जब ब्लू व्हेल जैसे खतरनाक ओनलाईन खेल खेलते हुए लोगों ने अपनी जाने दीं |
 इसलिए इंटरनेट का इस्तेमाल जरूरत के वक्त ही किया जाए।इससे निपटने का एक तरीका यह है कि चीन से सबक लेते हुए भारत में डिजिटल डीटॉक्स यानी नशामुक्ति केंद्र खोले जाएं और इस विषय पर ज्यादा से ज्यादा जागरूकता फैलाई जाए।
दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 10/12/18 को प्रकाशित 

Thursday, December 6, 2018

ग्लोबल वार्मिंग :अनुमान से बड़ा खतरा

ग्लोबल वार्मिंग या वैश्विक तापमान बढ़ने का मतलब है कि पृथ्वी लगातार गर्म होती जा रही हैवैज्ञनिकों  का कहना है कि आने वाले दिनों में सूखा बढ़ेगाबाढ़ की घटनाएँ बढ़ेंगी और मौसम का मिज़ाज बुरी तरह बिगड़ा हुआ दिखेगा.इसका असर दिखने भी लगा हैग्लेशियर भी पिघल रहे हैं और रेगिस्तान पसरते जा रहे हैंकहीं असामान्य बारिश हो रही है तो कहीं असमय ओले पड़ रहे हैं.हाल ही में आई लेंसेट काउंट डाउन रिपोर्ट 2018 के अनुसार खतरा जितना अनुमान लगाया गया था उससे ज्यादा बड़ा है ,ग्लोबल वार्मिंग रोकने में जितने कारगर कदम उठाये जाने चाहिए थे वे नहीं उठाये गए जिससे मानवीय जीवन  और देशों के स्वास्थ्य तंत्र दोनों को खतरा है .इस रिपोर्ट में दुनिया के पांच सौ शहरों में किये गए सर्वे के बाद यह निष्कर्ष निकाला गया कि उनका सार्वजनिक स्वास्थ्य आधारभूत ढांचा जलवायु परिवर्तन से बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है जो यह बताता है कि रोगियों की संख्या जिस तेजी से बढ़ रही है उस तेजी से रोगों से निपटने के लिए  दुनिया के अस्पताल  तैयार नहीं है .इसमें विकसित और विकासशील दोनों देश शामिल हैं .बीती गर्मियों में चली गर्म हवाओं ने सिर्फ इंग्लैंड में ही सैकड़ों लोगों को अकाल मौत का शिकार बना डाला .कारण सीधा है इंग्लैंड के अस्पताल अचानक जलवायु में हुए इस परिवर्तन के कारण बीमार पड़े लोगों से निपटने के लिए तैयार नहीं थे .इस रिपोर्ट के अनुसार साल 2017 में अत्यधिक गर्मी के कारण एक सौ तिरपन बिलियन घंटों का नुक्सान सारी दुनिया के खेती में लगे लोगों को उठाना पड़ा .सारी दुनिया में हुए कुल नुक्सान का आधा हिस्सा अकेले भारत ने उठाया जो कि भारत की कुल कार्यशील जनसँख्या का सात प्रतिशत है जबकि चीन को 1.4 प्रतिशत का ही नुक्सान हुआ.कुल मिलाकर इन सबका परिणाम राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं और लोगों के घरेलु बजट पर पड़ा .उसी तरह तापमान और वर्षा में हल्का सा परिवर्तन पानी और मच्छरों द्वारा फैलने वाले रोगों की वृद्धि के रूप में सामने आया .दुनिया भर में हो रहे इस जलवायु परिवर्तन का कारण वैज्ञानिक के अनुसार  ग्रीन हाउस गैसों के कारण हैजिन्हें सीएफसी या क्लोरो फ्लोरो कार्बन भी कहते हैं.इनमें कार्बन डाई ऑक्साइड हैमीथेन हैनाइट्रस ऑक्साइड है और वाष्प है.वैज्ञानिकों का कहना है कि ये गैसें वातावरण में बढ़ती जा रही हैं और इससे ओज़ोन परत की छेद का दायरा बढ़ता ही जा रहा है.ओज़ोन की परत ही सूरज और पृथ्वी के बीच एक कवच की तरह है.ग्लोबल वार्मिंग मनुष्यों की गतिविधियों के परिणाम के रुप में समय की एक अपेक्षाकृत कम अवधि में पृथ्वी की जलवायु के तापमान में एक उल्लेखनीय वृद्धि हुई है. विशिष्ट शब्दों में सौ या दौ सौ साल में1 सेल्सियस या अधिक की व्रद्धि को ग्लोबल वार्मिंग की श्रेणी में रखा जाता हैऔर पिछ्ले सौ साल में  यह 0.4 सेल्सियस बढ चुका है जो की बहुत महत्वपूर्ण  है.ग्लोबल वार्मिंग को समझने के लिए मौसम और जलवायु के अंतर को समझना बहुत जरूरी है .मौसम स्थानीय और अल्पकालिक होता हैमान लीजिये की आप हिमाचल में है और वहां बर्फ़ गिर रही है तो उस मौसम और बर्फ़ का असर सिर्फ़ हिमाचल  और उसके आसपास के इलाकों में ही रहेगा सिर्फ़ उन इलाको में ही ठंड बढेगी जो हिमाचल के आस पास होंगे । जलवायु की अवधि लम्बी होती है और ये एक छोटे से स्थान से संबंधित नही है। एक क्षेत्र की जलवायु समय की एक लंबी अवधि में एक क्षेत्र के औसत मौसम की स्थिति है।अब धरती के लिए चिंता करने की बात यह है कि धरती की जलवायु में परिवर्तन आ रहा है . जानना ज़रुरी है की जब हम लम्बी अवधि की जलवायु की बात करते है तो उसका मतलब होता है बहुत लम्बी अवधियहां तक की कई सौ साल भी बहुत कम अवधि है जलवायु में आने के लिये। वास्तव मेंजलवायु में परिवर्तन होते-होते कभी-कभी दसियों से हज़ारों वर्ष लग जाते है। इसका मतलब है की अगर एक सर्दी में बर्फ़ नही गिरी और ठंड नही पडीं---और एक साथ दो-तीन सर्दियों में ऐसा हो जाये----तो इससे जलवायु में परिवर्तन नहीं होता है.
ग्लोबल वार्मिंग ग्रीनहाउस प्रभाव में वृद्धि के कारण होता है। वैसे ग्रीनहाउस प्रभाव कोई बुरी चीज़ नही है अपने-आप में---ये पृथ्वी को जीवन के लायक बनाये रखने के लिये गर्म रखता है. मान लीजिये पृथ्वी आपकी कार की तरह है जो दोपहर के वक्त धूप  में पार्किंग में खडी है। आपने गौर किया होगा की जब आप कार में बैठते है तो कार का तापमान बाहर के तापमान से ज़्यादा गर्म होता है थोडे वक्त तक। जब सूर्य  की किरणें आपकी कार की खिडकियों से अन्दर प्रवेश करती है तो सूर्य  की कुछ गर्मी कार की सीट्सकारपेटसडेशबोर्ड और फ़्लोर मेटस सोख लेते हैजब ये सब चीज़े उस सोखी हुई गर्मी को वापस बाहर फ़ेंकते है तो सारी गर्मी खिडकियों से बाहर नही जाती कुछ वापस आ जाती है। सीटों से निकली गर्मी का तरंगदैधर्य (Wavelength) उन सूर्य की किरणों के तरंगदैधर्य (Wavelength) से अलग होता है जो पहली बार कार की खिडकी से अन्दर आयीं थीतो अन्दर ज़्यादा ऊर्जा आ रही है और ऊर्जा बाहर कम जा रही है। इसके परिणाम में आपकी कार के तापमान में एक क्रमिक वृद्धि हुई। आपकी गर्म कार के मुकाबले ग्रीनहाउस प्रभाव थोडा जटिल हैजब सूर्य की किरणें पृथ्वी के वातावरण और सतह से टकराती है तो सत्तर  प्रतिशत ऊर्जा पृथ्वी पर ही रह जाती है जिसको धरतीसमुद्र पेड तथा अन्य चीज़े सोख लेती है। बाकी का तीस प्रतिशत अंतरिक्ष में बादलोंबर्फ़ के मैदानोंतथा अन्य रिफ़लेक्टिव चीज़ो की वजह से रिफ़लेक्ट हो जाता है .परन्तु जो सत्तर प्रतिशत ऊर्जा पृथ्वी पर रह जाती वो हमेशा नही रहती (वर्ना अब तक पृथ्वी आग का गोला बन चुकी होती)। पृथ्वी के महासागर और धरती अकसर उस गर्मी को बाहर फ़ेंकते रहते है जिसमें से कुछ गर्मी अंतरिक्ष में चली जाती है बाकी यहीं वातावरण में दूसरी चीज़ों द्वारा सोखने के बाद समाप्त हो जाती है जैसे कार्बन डाई-आक्साइडमेथेन गैसऔर पानी की भाप। इन सब चीज़ों के ऊर्जा को सोखने के बाद बाकी ऊर्ज़ा गर्मी के रूप में हमारी पृथ्वी पर मौजुद रहती है. बाहर के वातावरण के मुकाबले जितनी ऊर्जा वातावरण में प्रवेश कर रही है उतनी बाहर नही जा रही है जिसके परिणाम में पृथ्वी गर्म रह्ती है।ग्लोबल वार्मिंग में कमी के लिए मुख्य रुप से सीएफसी गैसों का ऊत्सर्जन कम रोकना होगा और इसके लिए फ्रिज़एयर कंडीशनर और दूसरे कूलिंग मशीनों का इस्तेमाल कम करना होगा या ऐसी मशीनों का उपयोग करना होगा जिनसे सीएफसी गैसें कम निकलती हैं.औद्योगिक इकाइयों की चिमनियों से निकले वाला धुँआ हानिकारक हैं और इनसे निकलने वाला कार्बन डाई ऑक्साइड गर्मी बढ़ाता हैइन इकाइयों में प्रदूषण रोकने के उपाय करने होंगे.वाहनों में से निकलने वाले धुँए का प्रभाव कम करने के लिए पर्यावरण मानकों का सख़्ती से पालन करना होगा.उद्योगों और ख़ासकर रासायनिक इकाइयों से निकलने वाले कचरे को फिर से उपयोग में लाने लायक बनाने की कोशिश करनी होगी.और प्राथमिकता के आधार पर पेड़ों की कटाई रोकनी होगी और जंगलों के संरक्षण पर बल देना होगा.अक्षय ऊर्जा के उपायों पर ध्यान देना होगा यानी अगर कोयले से बनने वाली बिजली के बदले पवन ऊर्जासौर ऊर्जा और पनबिजली पर ध्यान दिया जाए तो आबोहवा को गर्म करने वाली गैसों पर नियंत्रण पाया जा सकता है.याद रहे कि जो कुछ हो रहा है या हो चुका है वैज्ञानिकों के अनुसार उसके लिए मानवीय गतिविधियाँ ही दोषी हैं.
दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में 06/12/2018 को प्रकाशित लेख 

टेंशन बहुत है यार !

टेंशन बहुत है यार आपने भी ये जुमला सुना होगा और तनाव  को महसूस भी किया होगा.तनाव  यूँ तो स्वास्थ्य के लिए अच्छी बात नहीं है, पर अगर जिंदगी में आगे बढ़ना हो तो थोडा  तनाव  तो लेना ही पड़ेगा.टेंशन हम सब की जिन्दगी का हिस्सा है कुछ कम या ज्यादा.हम अपने जीवन से तनाव  को हमेशा के लिए खत्म  तो नहीं कर सकते हैं, पर इसको कम जरुर कर सकते हैं. तनाव  का मतलब चिंता,अब जिंदगी है तो चिंताएं भी होंगी. यूँ कहें की ‘थोडा है थोड़े की जरुरत है’.इस प्रतिस्पर्धा वाले युग में अब मस्त होकर जीवन तो गुजारा नहीं जा सकता हैं .मैं आपको समझाता हूँ. अब अगर पढ़ाई का तनाव  नहीं लेंगे तो परीक्षा वाले दिन और ज्यादा तनाव  होगा कि काश रोज थोड़ी पढ़ाई करते तो परीक्षा वाली रात कयामत की रात न होती यानि रोज पढ़ कर हम परीक्षा के तनाव  को खत्म तो नहीं कर सकते पर कम जरुर कर सकते हैं.अब देखिये आजकल कंप्यूटर का ज़माना है पर इसकी हार्ड डिस्क कब क्रैश  हो जाए क्या पता ? अगर हम अपने सारे डाटा का बैकअप रखेंगे तो हार्ड डिस्क क्रैश भी होगी तो तनाव  कम होगा.
वैसे हमारी प्रगति में इस तनाव की बड़ी भूमिका है.आपने गौर किया होगा कि जब काम हमारे हिसाब से नहीं होता तब हमें तनाव  होता है और तब हम चीजें बेहतर करने की कोशिश करते हैं. जो लोग तनाव  से हार मानकर हथियार डाल देते हैं. वो जीवन में कुछ ख़ास नहीं कर पाते और जो तनाव  से लड़ते हैं. वो बड़े लीडर या आविष्कारक बन जाते हैं.जिन्हें दुनिया पहचानती है.न्यूटन ने जब सेब को जमीन पर गिरते देखा तो ये सोचा कि ये जमीन पर क्यों गिरा ये ऊपर आसमान में क्यूँ नहीं गया और इस तनाव में उन्होंने धरती का गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत खोज निकाला.
तो हम अगर आज आगे बढ़ रहे हैं तो मेहनत के अलावा तनाव भी इसके लिए जिम्मेदार है जो आपको बगैर काम खत्म हुए चैन से बैठने नहीं देता.क्या समझे ये तनाव  का पॉजिटिव इफेक्ट है पर अगर आप सिर्फ तनाव  ले रहे हैं और काम नहीं कर रहे हैं तो समझ लीजिये आप मुश्किल में  हैं.काम का ज़िक्र करना और ज़िक्र का फ़िक्र करना अपने आप में एक समस्या है और ऐसे ही लोग अक्सर ये बोलते सुने जाते हैं बड़ी टेंशन है यार,तनाव  सभी को है पर उसका जिक्र सबसे करके क्या फायदा तो तनाव  के टशन का दूसरा सबक है अगर तनाव आपको बहुत ज्यादा है तो उसका जिक्र उन लोगों से कीजिये जो आपके अपने हैं और ऐसे ही लोग आपको तनाव  से निकाल पायेंगे पर ध्यान रहे आपको उन पर भरोसा करना पड़ेगा.
तनाव  एक स्टेट आफ माईंड है पर जिसे आप मैनेज कर सकते हैं,जब आप किसी मसले पर ज्यादा देर तक चिंता के साथ सोचते हैं तो वो तनाव  हो जाता है. इसे जरुरत से ज्यादा मत बढ़ने दीजिये और समय रहते इसका मैनेजमेंट कीजिये.तनाव  को मैनेज करने का हर इंसान का अपना एक अलग तरीका होता है.कोई गाने सुनता है तो कोई लॉन्ग ड्राइव पर निकल जाता है. तो आपको जब लगे कि तनाव ज्यादा ज्यादा बढ़ रहा है तो वो काम करें जो आपको पसंद हो फिर देखिये कि कैसे आपका सारा तनाव  छू मंतर हो जाएगा.जैसे खाने में स्वाद बढाने के लिए मसलों का इस्तेमाल होता है वैसे ही जिन्दगी का असली मजा तो तभी है जब उसमें थोडा बहुत मसाला हो. 
प्रभात खबर में 06/12/2018 को प्रकाशित 

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