Wednesday, April 27, 2016

युद्धबंदियों के दर्द को उकेरती एक दास्तां

पुस्तक का नाम : पाकिस्तान में युद्ध कैद के वे दिन
लेखक :ब्रिगेडियर अरुण बाजपेयी  
प्रकाशक :राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड
मूल्य :85 रुपये
पकिस्तान मतलब  दुश्मन देश और ऐसे देश में जब कभी कोई भारतीय सैनिक पकड़ लिया जाए तो उसके साथ कैसा व्यवहार होगा. पाकिस्तान में युद्ध कैद के वे दिन’ लेखक के साथ घटित सच्ची घटना पर आधारित किताब है। घटना को लगभगपचास   वर्ष बीत चुके हैं लेकिन लेखक ने यादों  के सहारे इस पुस्तक को लिखते हुए उन दर्दनाक पलों  को एक बार पुनः जीया  है और पूरी ईमानदारी  के साथ अपने जीवन के कठिनतम अनुभवों  का जीवंत चित्रण किया है। 1965 के भारत-पाक युद्ध में लेखक पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त में सीमा रेखा के 35 किलोमीटर भीतर युद्ध कैदी बने और भारतीय सेना के दस्तावेजों में लगभग एक वर्ष तक लापता ही घोषित रहे। एक दुश्मन देश में एक वर्ष की अवधि युद्ध कैदी के रूप में बिताना कितना त्रासद और साहसिक कार्य था तथा वहाँ उन्हें किन-किन समस्याओं से रू-ब-रू होना पड़ाइसकी बानगी इस किताब में समाहित है . वो लिखते हैं पाकिस्तानी चिकित्सा कोर के मेजर साहब ने मेरी वर्दी उतरवा कर मुझे अस्पताल में पहनने के साफ़ कपडे दिए |हाँ यह जरुर था कि उन कपड़ों के पीछे बड़े काले अक्षरों में लिखा था : पी. डब्ल्यू (प्रिजनर  ऑफ़ वार ) यानी युद्ध कैदी | साफ़ और स्वाच कपडे पहनकर पहली बार पिछले दस दिनों में मुझे ऐसा लगा कि मैं भी इंसान हूँ क्योंकि पहले युद्ध, जिसमें पानी का पूर्ण अभाव था और फिर पाकिस्तानी कैद, सब उसी एक वर्दी में ही चलता रहा था” |
1965 के पाकिस्तान के हालात का सटीक चित्रण करती है कि उन दिनों पाकिस्तानी सेना कैसे काम करती थी .वो लिखते हैं मुझे उनके सैनिक अस्पताल में वही खाना मिलता था जो कि एक पाकिस्तानी सेना के अफसर ओहदे के मरीज को मिलता था .देखभाल भी सही थी .इसका मुख्य कारण था कि उस समय की पाकिस्तानी सेना आजकल की कट्टरपंथी पाकिस्तानी सेना नहीं थी .पकिस्तान को स्वतंत्र हुए अभी १८ वर्ष ही हुए थे. पाकिस्तानी सेना के वरिस्थ अफसर और जे सी ओ ओहदे के अफसर पहले भारतीय सेना में काम कर चुके थे,जब पाकिस्तानी सेना का जन्म नहीं हुआ था .अत: दोनों सेनायें १९६५  में दुश्मन जरुर थी पर एक दुसरे से घृणा नहीं करती थी” .
पुस्तक सिलसिलेवार तरीके से ब्रिगेडियर अरुण बाजपेयी  के पकडे जाने और उनके एक साल पाकिस्तान में युधबंदी जीवन का सिलसिलेवार वर्णन करती है.किसी युधबंदी का ऐसा आँखों देखा हाल हिन्दी में कम ही पढने को मिलता है. किसी कैदी के घर जाने की खुशी को अगर महसूस करना हो तो जरा इन पंक्तियों को पढ़ें : जून 1966 के अंत में या जुलाई के महीने के आरम्भ में करीब सुबह दस बजे एकाएक पाकिस्तानी कैम्प कमान्डेंट साहब हमारे पास आ धमके .उनके चेहरे पर मुस्कान खेल रही थी. आने के साथ उन्होंने हम सबसे मुखातिब होते हुए कहा ,ब्वायज यू आर गोईंग होम .हम लोगों को यह खबर मिलने की कत्तई अपेक्षा नहीं थी .हमें युद्ध कैदी बने करीब दस महीने गुजर चुके थे .इस घटनाचक्र ने हम सबकी जिन्दगी कुछ सकारातमक और कुछ नकारात्मक रूप से प्रभावित की थी .कुछ छापें तो अमिट थी .
यह पुस्तक जहाँ एक तरफ पाकिस्तानी सैनिकों की क्रूरता को बताती हैं वहीं कुछ ऐसे किरदारों का जिक्र भी करती जो देवदूत जैसे थे .जैसे वो नर्स जो ब्रिगेडियर अरुण बाजपेयी  की घायल टांग का इलाज कर रही थी जिसकी वजह से उनकी टांग कटने से बच गयी .
युद्ध के ऊपर लिखी गयी कुछ पठनीय पुस्तकों में से एक यह पुस्तक एक सैनिक के जीवन कई दुर्लभ पक्षों पर प्रकाश डालती है .
 आई नेक्स्ट में 27/04/16 को प्रकाशित 

Tuesday, April 12, 2016

सिनेमाई खलनायक

फिल्मी दुनिया समय के साथ काफी बदली  है। कहानी बदली, संगीत बदला, फिल्म का प्रस्तुतिकरण और प्रमोशन बदला लेकिन हर चीज में बदलाव को नोटिस करने वाली लोगों की पैनी नजर के सामने फिल्मों का खलनायक  भी बदल गया, यहाँ से पचास पचास कोस दूर जब कोई बच्चा रोता है कहने वाला वाला गब्बर कब गाँव के बीहड़ों से निकलकर शहर के उस आम इंसान जैसा हो गया कि उसको पहचानना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो गया। काफी समय तक खलनायको का  चरित्र,नायकों के बराबर का हुआ करता था|ये तथ्य अलग है कि इनके रूप,नाम और ठिकाने बदलते रहे कभी ये धूर्त महाजन, जमींदार, डाकू तो कभी तस्कर  और आतंकवादी के रूप में हमारे सामने आते रहे। व्यवस्था से पीड़ित हो खलनायक बन जाना कुछ ही फिल्मों का कथ्य रहा है पर एंग्री यंगमैन अमिताभ बच्चन के बाद खलनायक बस खलनायक ही हुआ करता था वह क्यों गलत है इस प्रश्न का उत्तर किसी भी फिल्म में नहीं मिलता। नब्बे के दशक के बाद में मानसिक रूप से बीमार या अपंग खलनायकों का दौर आया परिंदा में नाना पाटेकर, डर में शाहरुख खान, ओंकारा में सैफ अली खान,'दीवानगी' के अजय देवगन और 'कौन' की उर्मिला ऐसे ही खलनायकों की श्रेणी में आते  हैं । एक मजेदार तथ्य यह भी है कि दुष्ट सासों की भूमिका तो खूब लिखी गयी पर महिला खलनायकों को ध्यान में रखकर हिन्दी फिल्मों में चरित्र कम गढे गए अपवाद रूप में खलनायिका,गुप्त राज, और कलयुग जैसी गिनी चुनी फिल्मों के नाम ही मिलते हैं । समय के साथ इनके काम करने के तरीके और ठिकाने बदल रहे थे। जंगलों बीहड़ों से निकलकर पांच सितारा संस्कृति का हिस्सा बने खलनायक मानो अपने वक्त की कहानी सुना रहे हैं कि कैसे हमारे समाज में बदलाव आ रहे थे |गाँव ,खेत खलिहान,जानवर फ़िल्मी परदे से गायब हो रहे थे और उनकी जगह कंक्रीट के जंगल सिनेमा के मायालोक का हिस्सा हो रहे थे। साम्प्रदायिकता कैसे हमारे जीवन में जहर घोल रही है इसका आंकलन भी हम फ़िल्में देखकर सहज ही लगा सकते हैं। सिनेमा के खलनायकों के कई ऐसे कालजयी खलनायक चरित्र जिनके बारे में सोचते ही हमें उनका नाम याद आ जाता है। कुछ नामों पर गौर करते हैं गब्बर, शाकाल, डोंन,मोगेम्बो, जगीरा जैसे कुछ ऐसे चरित्र हैं जो हमारे जेहन में आते हैं पर इन नामों से उनकी सामजिक,जातीय धार्मिक पहचान स्पष्ट नहीं होती वो बुरे हैं इसलिए बुरे हैं पर आज ऐसा बिलकुल भी नहीं है। संसधानों के असमान वितरण से परेशान पहले डाकू खलनायक आते हैं.मुझे जीने दो ,मदर इन्डिया,पान सिंह तोमर जैसी फ़िल्में इसकी बानगी भर हैं फिर समाजवाद व्यवस्था ने हर चीज को सरकारी नियंत्रण में कर दिया जिसका नतीजा तस्करी के रूप में निकला और विलेन तस्कर हो गया.अमिताभ बच्चन का दौर कुछ ऐसी फिल्मों से भरा रहा,कालिया,दीवार, राम बलराम जैसी फिल्मे उस दौर की हकीकत को बयान कर रही थी। तस्करों ने पैसा कमाकर जब राजनीति को एक ढाल बनाना शुरू किया तो इसकी प्रतिध्वनि फिल्मों में भी दिखाई पडी अर्जुन,आख़िरी रास्ता और इन्कलाब जैसी फ़िल्में समाज में हो रहे बदलाव को ही रेखांकित कर रही थी फिर शुरू हुआ उदारीकरण का दौर जिसने नायक और खलनायक के अंतर को पाट दिया एक इंसान एक वक्त में सही और गलत दोनों होने लगा,भौतिक प्रगति और वित्तीय  लाभ में मूल्य और नैतिकता पीछे छूटती गयी और सारा जोर मुनाफे पर आ गया इसके लिए क्या किया जा रहा है इससे किसी को मतलब नहीं महत्वपूर्ण ये है कि मुनाफा कितना हुआ जिसने स्याह सफ़ेद की सीमा को मिटा दिया और फिल्म चरित्र में एक नया रंग उभरा जिसे ग्रे(स्लेटी)कहा जाने लग गया पर इन सबके बीच में खलनायकों की बोली भी बदल रही थी। सत्तर और अस्सी के दशक तक उनकी गाली की सीमा सुअर के बच्चों,कुत्ते के पिल्ले और हरामजादे तक ही सीमित रही पर अब गालियाँ खलनायकों की बपौती नहीं रह गयी। भाषा के स्तर पर भी नायक और खलनायक का भेद मिटा है. बैंडिट क्वीन से शुरू हुआ ये गालियों का सफर गैंग्स ऑफ वासेपुर तक जारी है जाहिर है गाली अब अछूत शब्द नहीं है वास्तविकता दिखाने के नाम पर इनको स्वीकार्यता मिल रही है और सिनेमा को बीप ध्वनि के रूप में नया शब्द मिला है.रील लाईफ के खलनायकों की ये कहानी समाज की रीयल्टी को समझने में कितनी मददगार हो सकती है ये भी एक नयी कहानी है । 
प्रभात खबर में  12/04/16 को प्रकाशित 

Saturday, April 9, 2016

डंपिंग ग्राउंड न बन जाए मेक इन इण्डिया

मेक इन इण्डिया के विचार के पीछे यह उद्देश्य  है कि दुनिया के अन्य उद्यमियों  के साथ भारतीय भी तकनीक के क्षेत्र में  कुछ नया इनोवेशन करेंगे जिससे देश तेजी से आगे से बढ़ सकेगा .सरकार मेक इन इण्डिया नारे के प्रति बहुत ही संजीदा है.सरकार का विश्वास है कि साल 2022  तक इससे दस करोड़ नयी नौकरियां सृजित होंगी और इस आशा का कारण यह  विश्वास है कि भारत उत्पादन के क्षेत्र में चीन की तर्ज पर विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन का हब बनेगा . मेक इन इण्डिया की यह पहल स्वागत योग्य है पर डर इस बात का है कि यह कार्यक्रम महज दूसरे देशों की तकनीक का डंपिंग ग्राउंड बन कर न रह जाए क्योंकि आंकड़े कुछ और ही तस्वीर पेश कर रहे हैं संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (डब्ल्यूआईपीओ) ने साल 2015 में जो ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स जारी किया उसमें भारत 81वें स्थान पर है. इस सूची में पहले स्थान पर स्विट्जरलैंड है वहीं चीन रूस और ब्राजील जैसे देश क्रमश: उन्तीसवें ,अड़तालीसवें और सत्तरवें स्थान पर हैं .यह सूची स्पष्ट ईशारा करती है भारत में बहुत ज़्यादा खोज नहीं हो रही, जो थोड़ा बहुत खोज हो रही है, उसमें सबसे आगे केंद्र सरकार की संस्था काउंसिल फ़ॉर साइंटिफ़िक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (सीएसआईआर) है. इसने 10 साल में कुल  भारतीय 10,564 पेटेंट में से 2,060 पेटेंट हासिल किए हैं. इसके बाद सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की कुछ बड़ी कंपनियां हैं.गौरतलब है कि भारत में बीते दस साल में सबसे ज़्यादा पेटेंट रसायन के क्षेत्र में शोध के लिए मिले हैं.लेकिन महत्वपूर्ण सवाल ये है कि हर क्षेत्र में इनोवेशन को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने कौन से ऐसे कदम उठाये .राष्ट्रीय बौद्धिक संपदा अधिकार नीति की अभी तक घोषणा नहीं हो पायी है हालांकि साल 2009 के यूटिलाइज़ेशन ऑफ़ पब्लिक फ़ंडेड इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी बिल का भी यही मक़सद था पर इसका विरोध हुआ था कि किस तरह इन संस्थानों को पेटेंट लेने को मजबूर किया जा सकता है और कैसे इन पेटेंट पर किसी ख़ास कंपनी को ही लाइसेंस दिया जाएगा .एक और बड़ा मुद्दा यह भी था कि इन संस्थाओं को सरकारी पैसा मिलता है तो कोई निजी कंपनी कैसे इस शोध से फ़ायदा उठा सकती है.यह विधेयक 2014 में वापस ले लिया गया था. तथ्य यह भी है कि पांच प्रतिशत  से ज़्यादा पेटेंट व्यावसायिक रूप से सफल  नहीं होते .सरकारी संस्थानों के अधिकतर शोध उद्योगों के काम के नहीं होते  हैं, उनका ध्यान अकादमिक शोध पत्र प्रकाशित करने में ज्यादा होता है .आलोचकों का मानना है पेटेंट प्रणाली नई खोजों को नुक्सान ही पहुंचाती है, ख़ास कर सूचना प्रौद्योगिकी और सोफ्टवेयर  के क्षेत्र में.दूसरी बात भी है, सॉफ़्टवेयर क्षेत्र इतनी तेज़ी से बदलता है कि बीस  साल के पेटेंट का कोई मतलब नहीं है. भारतीय पेटेंट कार्यालय ने इन गाइडलाइंस को फ़िलहाल हटा दिया है .इनोवेशन के लिए शिक्षा पर ध्यान देने की जरुरत है आर्थिक विकास के लिए शिक्षित और कौशलयुक्त कामगारों का होना बहुत आवश्यक है, लेकिन देश में शिक्षा पर खर्च किए जाने वाले धन में कटौती की जा रही है. आज भारत का एक भी विश्वविद्यालय ऐसा नहीं जिसकी गिनती दुनिया के दो सौ  सबसे अच्छे विश्वविद्यालयों में होती हो .सरकार ने शिक्षा के लिए बजट 2016 में करीब  पचास  प्रतिशत की कटौती की है.इस परिस्थिति में यदि देश के सत्तावन  फीसदी छात्रों के पास रोजगार प्राप्त करने की क्षमता प्रदान करने वाला कौशल नहीं है, तो इसमें बहुत अधिक आश्चर्य नहीं होना चाहिए . आर्थिक विकास का आधार मानवीय क्षमता का विकास है . यदि मानवीय क्षमता में वृद्धि नहीं होगी और कौशलयुक्त श्रमशक्ति उपलब्ध नहीं होगी, तो आर्थिक विकास स्थायी रूप नहीं ले सकता . मेक इन इण्डिया कार्यक्रम का उद्देश्य दुनिया भर के उद्यमियों के लिए इस मकसद से शुरू किया गया है कि वे  भारत में अपने संयंत्र लगाकर देश में  अपने उत्पादों का निर्माण करें. ऐसा तभी हो सकता है जब विदेशी निवेशकों और उद्योगपतियों को भारत में कुशल श्रमशक्ति उपलब्ध हो .  इसके लिए जरूरी है कि शिक्षा और रोजगार को आपस में जोड़ा जाये और छात्रों के भीतर नए-नए कौशल और क्षमताएं पैदा की जाएं. यह तभी संभव हो सकता है जब शिक्षा नीति में आवश्यक बदलाव किया जाए और उस पर अपेक्षित मात्रा में खर्च किया जाए नहीं तो भारत के शिक्षित बेरोजगारों की संख्या बढ़ती ही जाएगी . व्यापारिक संगठन एसोचैम के ताजा अध्ययन में कहा गया है कि बीते दस वर्षों के दौरान निजी स्कूलों की फीस में लगभग 150 फीसदी बढ़ोतरी हुई है. सरकारी स्कूलों के लगातार गिरते स्तर ने इस समस्या को और जटिल बना दिया है .पिछले 2011 के जनगणना के आंकड़ों के मुकाबले भारतीय ग्रामीण निरक्षरों की संख्या में 8.6 करोड़ की और बढ़ोत्तरी दर्ज हुई है.ये आंकड़े सामाजिक आर्थिक और जातीय जनगणना (सोशियो इकोनॉमिक एंड कास्ट सेंसस- एसईसीसी) ने जुटाए हैं.महत्वपूर्ण  है कि एसईसीसी ने 2011 में 31.57 करोड़ ग्रामीण भारतीयों की निरक्षर के रूप में गिनती की थीउस समय यह संख्या दुनिया के किसी भी देश के मुक़ाबले सबसे ज़्यादा थी.ताज़ा सर्वेक्षण के मुताबिक़, 2011 में निरक्षर भारतीयों की संख्या 32.23 प्रतिशत थी जबकि अब उनकी संख्या बढ़कर 35.73 प्रतिशत हो गई है. शिक्षा एक ऐसा पैमाना है जिससे कहीं हुए विकास को समझा जा सकता है ,शिक्षा जहाँ जागरूकता लाती है वहीं मानव संसाधन को भी विकसित करती है .इस मायने में शिक्षा की हालत गाँवों में ज्यादा खराब है .सरकार ने शिक्षा का अधिकार कानून तो लागू कर दिया हैलेकिन इसके लिए सबसे जरूरी बात यानि ग्रामीण सरकारी स्कूलों का स्तर सुधारने पर अब तक न तो केंद्र ने ध्यान दिया है और न ही राज्य सरकारों नेग्रामीण इलाकों में स्थित ऐसे स्कूलों की हालत किसी से छिपी नहीं हैजो मौलिक सुविधाओं और आधारभूत ढांचे की कमी से जूझ रहे हैं ध्यान रखा जाना चाहिए जब तक देश में शिक्षा की हालत ठीक नहीं होगी इनोवेशन को बढ़ावा नहीं मिलेगा मेक इन इण्डिया कार्यक्रम अपने मकसद में सफल नहीं हो पायेगा |
आई नेक्स्ट में 09/04/16 को प्रकाशित 

Thursday, April 7, 2016

गाँव को गाँव ही रहने दें

गाँव तो  जिन्दा हैं पर गाँव की संस्कृति मर रही है गाँव शहर  जा रहा है और शहर का बाजार गाँव में आ रहा है पर उस बाजार में गाँव की बनी हुई कोई चीज नहीं है|सिरका,बुकनू(नमक और विशेष मसालों का मिश्रण)पापड जैसी चीजों से सुपर मार्केट भरे हैं पर उनमें न तो गाँवों की खुशबू है न वो भदेसपन जिसके लिए ये चीजें हमारे आपके जेहन में आजतक जिन्दा हैं |सच ये है कि भारत के गाँव आज एक दोराहे पर खड़े हैं एक तरफ शहरों की चकाचौंध दूसरी तरफ अपनी मौलिकता को बचाए रखने की जदोजहद|विकास और प्रगति के इस खेल में आंकड़े महत्वपूर्ण हैं भावनाएं संवेदनाओं की कोई कीमत नहीं |वैश्वीकरण का कीड़ा और उदारीकरण की आंधी में बहुत कुछ बदला है और गाँव भी बदलाव की इस बयार में बदले हैं |गाँव की पहचान उसके खेत और खलिहानों और स्वच्छ पर्यावरण से है पर खेत अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं भारत के विकास मोडल की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह गाँवों को आत्मनिर्भर बनाये रखते हुए उनकी विशिष्टता को बचा पाने मे असमर्थ रहा है यहाँ विकास का मतलब गाँवों को आत्मनिर्भर न बना कर उनका शहरीकरण कर देना भर रहा है|विकास की इस आपाधापी में सबसे बड़ा नुक्सान खेती को हुआ है |भारत के गाँव हरितक्रांति और वैश्वीकरण से मिले अवसरों के बावजूद खेती को एक सम्मानजनक व्यवसाय के रूप में स्थापित नहीं कर पाए|इस धारणा का परिणाम यह हुआ कि छोटी जोतों में उधमशीलता और नवाचारी प्रयोगों के लिए कोई जगह नहीं बची और खेती एक बोरिंग प्रोफेशन का हिस्सा बन भर रह गयी|गाँव खाली होते गए और शहर भरते गए|इस तथ्य को समझने के लिए किसी शोध को उद्घृत करने की जरुरत नहीं है गाँव में वही युवा बचे हैं जो पढ़ने शहर नहीं जा पाए या जिनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं हैदूसरा ये मान लिया गया कि खेती एक लो प्रोफाईल प्रोफेशन है जिसमे कोई ग्लैमर नहीं है फिर क्या गाँव धीरे धीरे हमारी यादों का हिस्सा भर हो गए जो एक दो दिन पिकनिक मनाने के लिए ठीक है पर गाँव में रहना बहुत बोरिंग है फिर क्या था गाँव पहले फिल्मों से गायब हुआ फिर गानों से धीरे धीरे साहित्य से भी दूर हो गया|समाचार मीडिया में वैसे भी गाँव सिर्फ अपराध की ख़बरों तक सीमित और इस स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है

खुली अर्थव्यवस्था,विशाल जनसँख्या जो खर्च करने के लिए तैयार है  और तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था ये सारी चीजें एक ऐसे भारत का निर्माण कर रही हैं जहाँ व्यापार करने की अपार संभावनाएं हैं भारत तेजी से बदल रहा है पर आंकड़ों के आईने में अभी भारत बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के व्यापार के लिए एक आदर्श देश नहीं बन पाया है |मॉर्गन स्टेनली की एक ताजा रिपोर्ट में कहा गया कि भारत के शहर  अभी भी मूलभूत सुविधाओं के अभाव से जूझ रहे हैं |इस रिपोर्ट में भारत के दौ सौ शहरों का अध्ययन किया गया है रिपोर्ट में शामिल शहरों में छाछ्ट प्रतिशत के पास अभी भी कोई सुपर मार्केट नहीं है |कोल स्टोरेज की  पर्याप्त संख्या में न होने के कारण अधिकतर भारतीय अपने दैनिक जीवन से जुडी हुई चीजों की खरीद फरोख्त आस पास की दुकानों से खरीदते हैं |पचहतर प्रतिशत भारतीय शहरों (रिपोर्ट में शामिल शहर )में कोई बेहतरीन पांच सितारा सुविधाओं से युक्त होटल नहीं है|
देश की अर्थव्यवस्था तभी तेज गति से दौड़ेगी जब निवेश तेजी से होगा जिससे उत्पादन बढेगा और विदेशी निवेश तभी तेजी से बढेगा जब पर्याप्त आधारभूत सुविधाओं की उपलब्धता होगी पर हमारे शहर आवश्यक आधारभूत सुविधाओं के अभाव का सामना कर रहे हैं|अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए सरकार ने मेक इन इण्डिया और स्मार्ट सिटी परियोजना पर काम शुरू किया|मेक इन इण्डिया कार्यक्रम का उद्देश्य देश में सौ मिलीयन रोजगार का स्रजन करना और देश की जी डी पी में उत्पादन योगदान को सत्रह प्रतिशत से बढ़ाकर पच्चीस प्रतिशत करना है |कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब पर पर इस कार्यक्रम की सफलता निर्भर करती है|सबसे पहला है आधारभूत ढांचे का विकास एक ऐसी जगह जहाँ से व्यवसाय का विकास किया जा सके जिसमें शामिल है सडकबिजली और रेल व्यवस्था का नेटवर्क,बहुत प्रयास के बावजूद भारत अभी भी पर्याप्त सड़कें नहीं बना पाया हैबंदरगाहों की संख्या और रेल नेटवर्क का विस्तार भी उस गति से नहीं हुआ है जिसकी उद्योग जगत को दरकार है |दो साल पहले उत्तर पूर्व राज्य के किसानों को अपनी शानदार फसल को औने पौने दाम पर इसलिए बेच देना पड़ा था क्योंकि पर्याप्त परिवहन सुविधा न होने के कारण उस फसल को भारत के दुसरे राज्यों में भेजा जाना संभव नहीं था|चीन से समुद्र के रास्ते मुंबई  माल आने में बाढ़ दिन लगते हैं वहीं उसी सामान को सडक से उत्तरांचल पहुँचने में बीस दिन लग जाते हैं |तथ्य यह भी है कि आधारभूत सुविधाएँ एक दिन में विकसित नहीं हो सकती इसके लिए सरकार को प्रयास करना होगा और निवेश के लिए पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप को बढ़ावा देना चाहिए और यह निवेश महज आर्थिक न होकर सामाजिक और ग्रामीण भी होना चाहिए|आर्थिक जगत टैक्स सुधारों का लम्बे समय से इन्तजार कर रहा है जिसमें समान वस्तु एवं सेवा करइंटेलेक्चुअल प्रोपर्टी राईट्स पालिसी और बैंकरप्सी कोड जैसे अहम् नियम शामिल हैं जिन पर लम्बे समय से फैसला लंबित है |पिछले साल विश्व बैंक की इज ऑफ़ डूईंग बिजनेस इंडेक्स में भारत बारह  स्थान चढ़कर एक सौ तीसवें नंबर पहुंचा पर यह स्थान मैक्सिको और रूस जैसे देशों से काफी पीछे है जो क्रमश: अड़तीस और इक्यावन स्थान पर हैं और जहाँ व्यसाय शुरू करने का अवसर भारत के मुकाबले कहीं ज्यादा सरल है इस इंडेक्स में हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान हमसे बस थोड़ा ही पीछे है जो एक सौ अड़तीसवें स्थान पर है |‌‍‍‌‍ एक और चुनौती जिससे भारत जूझ रहा है विकास की इस दौड़ में गाँवों के पीछे छूट  जाने का भयमेक इन इण्डिया में होने वाला अधिकाँश निवेश शहर केन्द्रित है या उन जगहों पर होगा जहाँ आधारभूत ढांचा पहले से उपलब्ध हैनिवेश की पहली शर्त आधारभूत ढांचा होने से भारत के गाँव एक बार फिर  आगे बढ़ने से वंचित रह जायेंगे जिस तेजी से शहर विकसित हो रहे हैं क्योंकि उनकी क्रय शक्ति कम है जिससे निजी निवेशक गाँव में निवेश करने से हिचकते हैं और आधारभूत ढांचे का सबसे बुरा हाल गाँवों में ही हैऐसे में उनके विकास की जिम्मेदारी एक बार फिर सरकार भरोसे रह जायेगीइस कार्यक्रम में गाँवों की अनदेखी की जा रही है सारा जोर शहरों पर है|शहर केन्द्रित विकास का यह मोडल भारत की परिस्थितियों में कितना सफल होगा  इसका फैसला होना अभी बाकी है क्योंकि विकास का तात्पर्य समेकित विकास से है न कि सिर्फ शहरों के विकास से हैमेक इन इंडिया कार्यक्रम की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि सरकार व्यवस्था गत खामियों को कितनी जल्दी दूर करती है और आधारभूत सुविधाओं को कितनी जल्दी उपलब्ध कराती है 
राष्ट्रीय सहारा में 06/04/16 को प्रकाशित 

Friday, April 1, 2016

डिजीटल तकनीक को चुनौती देते अखबार

भारत वास्तव में विचित्रताओं का देश है |एक तरफ जब दुनिया के तमाम देश डिजीटल कंटेंट की बढ़त के कारण समाचार पत्रों गकी प्रसार संख्या में आयी गिरावट से जूझ रहे हैं|अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन जैसे देशों में गिरावट की यह दर ओडिट ब्यूरो ऑफ़ सर्कुलेशन के आंकड़ों के अनुसार लगभग दस प्रतिशत वार्षिक है|वहीं भारत का समाचार पत्र उद्योग फिक्की के पी एम् जी की एक रिपोर्ट के अनुसार अगले तीन साल तक आठ प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि से बढेगा |इस वक्त यह उद्योग तीस हजार करोड़ मूल्य का है |फिच रेटिंग की भारतीय इकाई इंडिया रेटिंग एंड रिसर्च की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों का बाजार 2017 तक दस से बारह प्रतिशत की दर से बढेगा और यह वृद्धि अंग्रेजी समाचार पत्रों के मुकाबले ज्यादा होगी |भारत की कुल जनसंख्या में  मात्र दस प्रतिशत लोग ही अंग्रेजी बोलते हैं जिससे भारत की विशाल जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा अपनी सूचना जरूरतों की पूर्ति के  लिए हिन्दी सहित अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के समाचार पत्र पर निर्भर रहता है| इसमें हिन्दी का सबसे बड़ा बाजार है जो लगभग  उनतालीस प्रतिशत है और अंग्रेजी भाषा का लगभग सोलह प्रतिशत है |क्षेत्रीय भाषाओँ के समाचार बाजार बढ़ने का पहला  बड़ा कारण अंग्रेजी के पाठकों के बाजार का स्थिर हो जाना और नए जुड़ते अंग्रेजी के पाठकों का डिजीटल सामाग्री को प्राथमिकता देना है|आम तौर पर अंग्रेजी भाषा का पाठक आर्थिक रूप से क्षेत्रीय भाषाओँ के पाठकों के मुकाबले ज्यादा सम्रद्ध होता है ऐसे में अंग्रेजी भाषा के नए पाठक के पास प्रिंट सामग्री के मुकाबले डिजीटल सामग्री का विकल्प ज्यादा सुलभ होता है,क्योंकि डिजीटल सामग्री के लिए डिजीटल उपकरणों (कंप्यूटर,लैपटॉप,स्मार्टफोन )का होना आवश्यक है जो भारतीय परिस्थितियों में अभी भी एक महंगा माध्यम है इसलिए अंग्रेजी भाषा के पाठक के पास क्षेत्रीय भाषाओँ के पाठकों के मुकाबले मुद्रित समाचार माध्यमों  से मुंह मोड़ने का पर्याप्त कारण उपलब्ध रहता है|दूसरा कारण भारत की साक्षरता दर का निरंतर बढ़ना और हिन्दी सहित दूसरी क्षेत्रीय भाषाओँ के नए पाठकों का उदय भी है|भारत के ग्रामीण इलाकों में साक्षरता की दर जो 1991 में 45 प्रतिशत थी वह 2011 में बढ़कर उनहत्तर प्रतिशत हो चुकी है|भारत के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले नव साक्षर अपनी सूचना जरूरतों की पूर्ति के लिए अपनी सामजिक और आर्थिक स्थित के कारण हिन्दी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ को ही प्राथमिकता देता हैगूगल के आंकड़ों के मुताबिकअभी देश में अंग्रेजी भाषा समझने वालों की संख्या 19.8 करोड़ हैऔर इसमें से ज्यादातर लोग इंटरनेट से जुड़े हुए हैं। तथ्य यह भी है कि भारत में इंटरनेट बाजार का विस्तार इसलिए ठहर-सा गया हैक्योंकि सामग्रियां अंग्रेजी में हैं। आंकड़े बताते हैं कि इंटरनेट पर 55.8प्रतिशत सामग्री अंग्रेजी में हैजबकि दुनिया की पांच प्रतिशत से कम आबादी अंग्रेजी का इस्तेमाल अपनी प्रथम भाषा के रूप में करती हैऔर दुनिया के मात्र 21 प्रतिशत लोग ही अंग्रेजी की समझ रखते हैं। इसके बरक्स अरबी या हिंदी जैसी भाषाओं मेंजो दुनिया में बड़े पैमाने पर बोली जाती हैंइंटरनेट सामग्री क्रमशः 0.8 और 0.1 प्रतिशत ही उपलब्ध है। ज्यादातर अंग्रेज़ी के समाचार पत्रों में शहरों के समाचारों को ज्यादा महत्त्व दिया जाता  क्योंकि उनके पाठकों का बड़ा हिस्सा शहरों में ही रहता है |
 इण्डिया रेटिंग की इस रिपोर्ट के अनुसार ई कॉमर्स आने वाले वक्त में अखबारी विज्ञापनों  का बड़ा जरिया बनेंगे क्योंकि इनके बाजार में बड़ी वृद्धि होनी है और देश की ग्रामीण जनसँख्या को अपने बारे में बताने के लिए इन ई कॉमर्स कम्पनियों को ऐसे माध्यम की जरुरत पड़ेगी जो पाठकों की अपनी भाषा में हो ऐसे में हिन्दी सहित अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ के अखबार एक अच्छा विकल्प साबित होंगे जिनके माध्यम से वो पाठकों को अपने प्रथम उपभोक्ता में तब्दील कर पायेंगे|एसोचैम के अनुसार भारत में ई कॉमर्स का बाजार 2016 में  पैंसठ प्रतिशत की दर से बढेगा जिससे ढाई लाख करोड़ रुपये की आय होगी जिसका एक बड़ा हिस्सा हिन्दी सहित अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ के समाचार पत्रों में विज्ञापनों पर खर्च किया जाएगा| विज्ञापनों  पर जितना ज्यादा खर्च किया जाएगा उतना ही  क्षेत्रीय भाषाओँ के समाचार पत्र समर्द्ध होंगे और नए केन्द्रों से समाचार पत्रों का प्रकाशन होगा जिसमें भारत के वे क्षेत्र भी शामिल होंगे जिनकी समस्याओं की या तो आज तक सुनवाई नहीं हुई है या बड़े शहरों की समस्याओं  के आगे उनकी समस्याएं समाचार पत्रों की प्राथमिकता में नहीं आ पाती हैं |आज के डिजीटल दौर में बस्तर में जिस तरह क्षेत्रीय पत्रकारों को निशाना बनाया जा रहा है वो भारत में क्षेत्रीय भाषा की बढ़ती ताकत का उदहारण है कि मौजूदा दौर में समाचार पत्रों की भूमिका बढी है |इस प्रश्न का उत्तर भविष्य के गर्भ में है कि क्षेत्रीय भाषाओं का बढ़ता बाजार कब तक डिजीटल तकनीक को चुनौती देता रहेगा |
अमर उजाला में 01/04/16 को प्रकाशित लेख 

पसंद आया हो तो