Tuesday, August 28, 2012

सोशल मीडिया की कुंजी अमेरिका के हाथ

इंटरनेट और सोशल नेटवर्किंग साईट्स एक बार फिर चर्चा में मुद्दा असम में हुई समस्या और भारत के कई शहरो से उत्तर पूर्व के निवासियों का पलायन सरकार ने इसके लिए इंटरनेट और सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर फ़ैली अफवाहों और भडकाऊ तस्वीरों को दोषी माना और कार्यवाही करते हुए 245 वेबसाइट-वेब पन्नों को ब्लॉक कर दिया गया|आश्चर्यजनक रूप से तेजी दिखाते हुए सरकार के इस  फैसले के बाद अमरीकी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता विक्टोरिया नूलैंड बयान दिया  कि अमरीका इंटरनेट की आजादी के पक्ष में है| भारत  सरकार से निवेदन किया कि वो मूलभूत अधिकारोंकानून और मानवाधिकारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जारी रखे|आमतौर पर अमेरिकी सरकार के इस बयान को इंटरनेट और मानवाधिकारों के पक्ष में अमेरिका के समर्थन के रूप में देखा गया पर क्या वास्तव में ऐसा है या अमेरिका का ये बयान उसकी व्यसायिक प्रतिबद्धताओं का नतीजा है|अमेरिका का इतिहास बताता है कि वो ऐसी नीतियां बनाता है जो उसके व्यवसायिक हितों की पूर्ति करे और ऐसी संस्थाओं का संरक्षण करता है जो उसके हित लाभ के साधन में मदद करे |तस्वीर का एक रुख विकिलीक्स से जुड़ा है इसी मुद्दे पर जब एक पत्रकार ने अमरीकी विदेश मंत्रालय से विकिलीक्स के मामले पर इंटरनेट की आजादी के बारे में उनकी राय पूछी तो जवाब मिला  कि वो मामला अलग है| बात भले छोटी हो पर इसके निहितार्थ बड़े हैं| 
          विकिलीक्स का जन्म ही इंटरनेट की ताकत और विस्तार के कारण हुआ और इस पर सबसे बड़ी चोट अमेरिका ही ने पहुंचाई |विकिलीक्स के द्वारा जारी किये गए सैकड़ों गोपनीय कूटनीतिक संदेशो से सारी दुनिया अमेरिका के दोहरे रवैये को जान गयी वहीं इस खुलासे से वेब पत्रकारिता को नया आयाम मिला आमतौर पर समाचार पोर्टल टीवी और अखबार की सामग्री से ख़बरें बनाते थे पर मानव सभ्यता के इतिहास में पहली बार वेब से आयी सामग्री टीवी और अख़बारों की ख़बरों का आधार बनी|भारत को मानवाधिकार और इंटरनेट की आजादी का पाठ पढाने वाले इस बयान को जरा इन आंकड़ों के संदर्भ में पढ़ें तो एक बार फिर अमेरिका का व्यवसायिक नजरिया स्पष्ट हो जाएगा | अंतरराष्ट्रीय दूरसंचार यूनियन यानि आईटीयू के आंकड़ों के अनुसार विश्व में इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या में पिछले चार वर्षों में 77 करोड़ का इजाफ़ा हुआ है|सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था विकास केंद्रित हुई है| मैकिंसे के नए अध्ययन में खुलासा हुआ है कि भारत में इंटरनेट ने बीते पांच साल में जीडीपी की वृद्धि  में पांच प्रतिशत का  योगदान किया है, आर्थिक विकास की गति को बढ़ाने में इन्टरनेट की भूमिका में  अमेरिका के व्यवसायिक हित सम्मिलित हैं ,इंटरनेट के अस्तित्व में आने से इस पर हमेशा अमेरिकी सरकारकंपनियोंऔर प्रयोगकर्ताओं  का अधिपत्य  रहा है लेकिन अब इसमें तेजी से बदलाव आ रहा है जिसका केंद्र भारत और ब्राजील जैसे देश शामिल हैं जहाँ इंटरनेट तेजी से फल फूल रहा है जिसमे बड़ी भूमिका फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल नेटवकिंग साईट्स निभा रही है |सोशल नेटवर्किंग साईट्स के प्रभाव का आंकलन करते वक्त हम इसके व्यवसायिक पक्ष को  दरकिनार नहीं कर सकते जो अमेरिका की अर्थव्यवस्था में अपना अहम योगदान दे रही हैं क्योंकि सभी बड़ी सफल सोशल नेटवर्किंग साईट्स का उद्गम अमेरिका ही है फेसबुक का मतलब महज सोशल नेटवर्किंग नहीं है बल्कि  ये विज्ञापन ,मीडिया और नए रोजगार के निर्माण से भी सम्बन्धित है | फेसबुक को अन्य देशों की क्षेत्रीय सोशल नेटवर्किंग साइट जैसे दक्षिण कोरिया में सिवर्ल्डजापान की मिक्सीरूस में वोकांते से कड़ी टक्कर  मिल रही है। भारत में सक्रि फेसबुक  उपभोक्ताओं की संख्या 31 दिसम्बर 2011 तक पिछले वर्ष की तुलना में 132 फीसदी की वृद्धि के साथ 4.60 करोड़ रही।फेसबुक के ये प्रयोगकर्ता किसी भी कम्पनी के विज्ञापन प्रसार के लिए एक बड़ा बाजार हैं | मेरीलैंड विश्विद्यालय द्वारा किये गए एक शोध के मुताबिक फेसबुक एप अर्थव्यवस्था ने अमेरीकी अर्थववस्था में वेतन के रूप में 12.19 बिलियन डॉलर का योगदान दिया वहीं 182,000 नए रोजगार पैदा किये |अमेरिका के मुकाबले भारत के बाजार में अभी बड़ी संभावनाएं जिनका दोहन होना है  |भारत में हुई मोबाईल क्रांति और युवाओं का बड़ा वर्ग सोशल नेटवर्किंग साईट्स के लिए एक बड़ा बाजार उपलब्ध करा रहा है|ऐसे समय में भारत सरकार द्वारा कुछ वेब् साईट्स को ब्लॉक करने के फैसले से अमेरिका को तुरंत बयान देने पर मजबूर होना पड़ा | सूचना क्रांति ने लोगों के  मूलभूत अधिकारों,और मानवाधिकारों को एक बड़े बाजार में तब्दील कर दिया है|यह भी सूचना क्रांति का एक पक्ष है |
अमर उजाला में 28/08/12 को प्रकाशित 

Saturday, August 25, 2012

इंटरनेट की राजनीतिक भूमिका को समझिए

सरकार गरीबों को मुफ्त मोबाइल देगी या नहीं, इस पर अंतिम फैसला तो होना अभी बाकी है, पर हकीकत यह है पंजाब से तमिलनाडु तक सूचना प्रौद्योगिकी देश की राजनीति में आश्चर्यजनक रूप में अहम भूमिका निभा रही है। रोटी, कपड़ा व मकान का वायदा करने वाले दल अब मजबूरी में ही सही, पर लोगों को मोबाइल, लैपटॉप और टेबलेट जैसे इलेक्ट्रॉनिक गैजेट देने की घोषणाएं करने लगे हैं, जिसका मकसद अंतत: इंटरनेट के इस्तेमाल को बढ़ावा देना है।मैककिन्सी ऐंड कंपनी द्वारा किया गया एक अध्ययन बताता है कि 2015 तक भारत में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले लोगों की तादाद तिगुनी होकर 35 करोड़ से भी ज्यादा हो जाएगी। यानी अमेरिका की वर्तमान जनसंख्या से भी ज्यादा हो जाएगी, जिसमें बड़ी भूमिका स्मार्टफोन निभाने वाले हैं। स्मार्टफोन वे मोबाइल फोन हैं, जिन पर इंटरनेट भी चल सकता है। गूगल के एक सर्वे के मुताबिक, भारत में स्मार्टफोन इस्तेमाल करने वाले लोगों की तादाद फिलहाल अमेरिका के 24.5 करोड़ स्मार्टफोन धारकों से आधी से भी कम है।अभी सिर्फ आठ प्रतिशत भारतीय घरों में कंप्यूटर हैं, पर उम्मीद है कि 2015 तक मोबाइल फोन इंटरनेट तक पहुंचने का बड़ा जरिया बनेंगे और 350 करोड़ संभावित इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों में से आधे से ज्यादा मोबाइल के जरिये ही इंटरनेट का इस्तेमाल करेंगे। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि अन्य  क्षेत्रों के मुकाबले इंटरनेट में महिलाओं की भागीदारी कहीं तेजी से बढ़ रही है।भारत में फेसबुक से अभी 29 प्रतिशत महिलाएं जुड़ी हैं, जिनकी संख्या आने वाले वर्षों में पचास प्रतिशत होने की उम्मीद है। आने वाले साल भारत में सामाजिक-आर्थिक स्तर पर एक बड़े परिवर्तन का गवाह बनेंगे। इंटरनेट का ज्यादा इस्तेमाल जहां पारदर्शिता और जवाबदेही लाएगा, वहीं लोग मुखर तरीके से अपनी बात सोशल नेटवर्किंग साइटों के माध्यम से रख पाएंगे। इससे एक स्वस्थ जनमत के निर्माण में मदद मिलेगी।इसमें कोई शक नहीं कि ये आंकड़े उम्मीद जताते हैं, पर कुछ सवाल भी हैं, जिनके जवाब मिलने बाकी हैं। इंटरनेट ऐंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के मुताबिक, भारत की ग्रामीण जनसंख्या का दो प्रतिशत ही इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहा है। यह आंकड़ा इस हिसाब से बहुत कम है, क्योंकि हमारी करीब साठ प्रतिशत आबादी अब भी शहरों से बाहर रहती है। इस वक्त ग्रामीण इलाकों के कुल इंटरनेट उपयोगकर्ताओं में से 18 प्रतिशत को इसके इस्तेमाल के लिए 10 किलोमीटर से ज्यादा का सफर करना पड़ता है।इस दूरी को खत्म करने के लिए गंभीरता से प्रयास करने होंगे। जाहिर है, मोबाइल फोन एक अच्छा विकल्प साबित हो सकते हैं। देश में सूचना-तकनीक का विस्तार हो रहा है, पर इसका लाभ इस बात पर निर्भर करेगा कि इंटरनेट का इस्तेमाल कौन और कैसे कर रहा है?
हिन्दुस्तान में 25/08/12 को प्रकाशित 

Tuesday, August 21, 2012

यह बदलाब बहुत कुछ कहता है


देश की आजादी के पैंसठवें साल के दिन दो ख़बरें एक साथ आयीं पहली कि कनाडा की नॉर्थन ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय के डी अजितहान डोंकर और रवि सक्सेना ने एक हजार  निजी और सरकारी शीर्ष भारतीय कंपनियों के बोर्ड सदस्यों का अध्ययन किया है. अध्ययन में पाया गया कि 93 प्रतिशत बोर्ड सदस्य अगड़ी जातियों से थे जबकि अन्य पिछड़ी जातियों से सिर्फ़ 3.8 प्रतिशत निदेशक ही थे|साठ के दशक से आरक्षण नीति होने के बावजूद अनुसूचित जाति और जनजाति के निदेशक इस कड़ी में सबसे नीचे, 3.5 प्रतिशत हीथे|शोधकर्ताओं के मुताबिकये नतीजे दिखाते हैं कि भारतीय कॉरपोरेट जगत एक छोटी और सीमित दुनिया है जहाँ भारत की विविधता नहीं दिखती | भारतीय कॉरपोरेट घराने  अब भी योग्यता या अनुभव से ज़्यादा जाति के आधार पर काम करते है|दूसरी खबर एक टीवी चैनल द्वारा महात्मा गांधी के बाद महानतम भारतीय चुनने की प्रतियोगिता   में लोगों ने करीब दो करोड़ वोट देकर डॉ भीम राव आंबेडकर को चुना|ग्रेटस्ट इंडियन की इंटरनेट और मोबाइल से हो रही वोटिंग में बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर को इतने वोट सिर्फ दलितों की वजह से नहीं मिल सकते|बाबा साहब का महानतम भारतीय के रूप में चुना जाना उनके दलित होने के कारण और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है| आजादी के पैंसठ  साल बाद बाबा बगैर राजनैतिक हस्तक्षेप के बाबा साहब को महानतम भारतीय का दर्जा दिया जा रहा है तो यह बताता है कि देश सामजिक रूप से बदल  रहा है | अगर यही सर्वेक्षण आज से बीस साल पहले हुआ होता तो बाबा साहब को इतने वोट कभी नहीं मिलते |इस परिणाम के कई निहितार्थ हैं इससे ये तथ्य स्थापित होता है कि सूचना क्रांति के फल का असर धीरे धीरे ही सही समाज में हो रहा है| इन्टरनेट और मोबाईल के इस्तेमाल  में जातिगत दुराग्रह कम हैं   और  ऐसी प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाले भारतीय मध्यवर्ग की मानसिकता बदली  है|मोबाईल के रूप में समाज के हाशिए पर रही जनसँख्या को एक ऐसा हथियार मिला जिसका इस्तेमाल वो अपनी राय देने में कर सकता है|इंटरनेट और मोबाईल देश में  सामाजिक आर्थिक स्तर पर हो रहे बदलाव के नए वाहक बन कर उभरे हैं जिसकी पुष्टि    मैककिन्सी ऐंड कंपनी द्वारा की जारी की गयी एक रिपोर्ट करती है  कि  साल 2015 तक भारत में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की तादाद तिगुनी हो कर पैंतीस करोड  से भी ज्यादा हो जाएगी। जिसमे बड़ी भूमिका मोबाईल फोन  निभाने वाले हैं | इंटरनेट के लिए कंप्यूटर की निर्भरता को कम कर देंगे  बाबा साहब सिर्फ दलितों के ही नेता नहीं थे और मध्यवर्ग महज शहरी सवर्णों का जुटान नहीं रहाइसमें पिछड़ी और दलित जातियों का भी बड़ी तादाद में प्रवेश हुआ है। एक ऐसा देश जहाँ आजादी के बाद नायकों की तलाश सिर्फ क्रिकेट खिलाडियों और बोलीवुड के नायकों पर खत्म  हो जाती थी वहां बाबा साहब जैसेमूकनायक को लोग देश का वास्तविक नायक करार दे रहे हैं तो इसके कारणों की जांच पड़ताल आवश्यक है |जाति व्यवस्था इस देश का सच है और कनाडा की नॉर्थन ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय द्वारा भारतीय कंपनियों के बोर्ड सदस्यों का अध्ययन इस बात की पुष्टि भी करता है कि अभी भी संसाधनों का बंटवारा उचित रूप से नहीं हुआ है फिर भी बाबा साहब द्वारा दलितों के सामजिक उत्थान के  लिए गए प्रयासों  के कारण आज का मध्यवर्ग सामाजिक  रूप से ज्यादा विविधता लिए हुए है जो कथित तौर पर कुछ सवर्ण जातियों का समूह नहीं है आरक्षण व्यवस्था से देश के मध्य वर्ग में बदलाव हुए हैं जिसमे दलित और अन्य पिछड़े वर्ग की जातियों का बड़े पैमाने पर प्रवेश हुआ है |  वहीं राजनैतिक रूप से दलित बहुजन पिछले बीस वर्षों में सशक्त बनकर उभरे हैं |उत्तर प्रदेश और बिहार में यह बदलाव साफ़ तौर पर देखा जा सकता है |उन्हें इस बात का एहसास हुआ है कि लोकतंत्र में संख्या बल के मायने हैं और वे अपनी हिस्सेदारी सत्ता में तभी बढ़ा सकते है जब अपनी भागीदारी को बढ़ाएं|इस बदलाव को पीछे एक बड़ी भूमिका भारत में हो रही सूचना क्रांति की है| कोई भी तकनीक प्रयोग के सापेक्ष होती है जिसका इस्तेमाल  प्रयोगकर्ता  की मानसिकता पर निर्भर है|मानसिकता निर्माण में बड़ी भूमिका शिक्षा की होती है जिससे जागरूकता आती है |सूचना की नयी तकनीकों में जिसमे इंटरनेट अव्वल है इस प्रक्रिया को कई गुना तेज कर दिया है| बदलाव तो निश्चित तौर पर हो रहा है|फेसबुक जैसी कई सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर कई  दलित चिन्तक सामाजिक मुद्दों पर  ज्यादा बेबाकी से अपनी राय रख पा रहे हैं जाहिर तौर पर उन विचारों से  बाबा साहब का दर्शन ज्यादा लोगों तक कम समय में पहुँच पा रहा है| ये इस बात का भी सुबूत है डा.अंबेडकर के पक्ष में कथित सवर्ण जातियों में जन्में लोगों का भी एक तबका खुलकर हाथ उठा रहा है|ये बाबा साहब के देखे गए एक सपने के सच होने की कहानी है उन्होंने दलितों से कहा था "शिक्षित हो संघर्ष करो आगे बढ़ो"
 इन्टरनेट इस्तेमाल करने वाले जिन युवाओं  के बारे में यह आम धारणा बना ली जाती है कि वह देश की जड़ों से कटे शहरी इलीट हैं  जिन्हें  देश के इतिहास और अपने महापुरुषों के योगदान की जानकारी नहीं है,इस पोल ने उस मिथक को भी तोडा है  अगर ऐसा होता तो वह आंबेडकर को चुनने की बजाय  ऐसे लोगों को वोट करते जो कई वजहों से समाचार माध्यमों में छाये रहते हैं या ऐसे लोगों का चुनाव होता जो ज्यादा सामयिक हैं जैसे  डॉ कलाम ,जवाहरलाल नेहरू ,इंदिरागांधी या मदर टेरसा पर बाबा साहब आंबेडकर के चुनाव  से यह साफ़ हो जाता है कि देश का पढ़ा लिखा शिक्षित तबका इतिहास की  भी जानकारी रखता है और ऐतिहासिक पुरुषों के योगदान का भी. इन्टरनेट इस्तेमाल करने वाले ये सभी साक्षर हैं और सही गलत का निर्णय करने में सक्षम हैं. सर्वेक्षण का एक सुखद पहलू यह भी है कि इंटरनेट के बढते इस्तेमाल से हम  पुरातन सोच को बदल रहे है और तकनीकी का इस्तेमाल रूढ़ियों को कम करने में काफी मददगार है. इन्टरनेट का इस्तेमाल सामाजिक एकीकरण में तो अहम् भूमिका निभा ही रहा है लोगों में हमारे इतिहास और और ऐतिहासिक पुरुषों के बारे में भी जागरूक कर रहा है|फिर भी हमारी सामजिक संरचना में आ रहे ये बदलाव सिर्फ उम्मीद ही जगाते हैं क्योंकि जमीनी स्तर पर अभी भी बहुत कुछ किया जाना और होना दोनों बाकी है  पर फिर भी  चिंतन और चेतना में आ रहा ये बदलाव स्वागतयोग्य है|
 नेशनल दुनिया में 21/08/12 में प्रकाशित 

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Saturday, August 18, 2012

हिंदी के ग्लोबल होने की प्रतीक्षा


सामान्यत: माना जा रहा है कि हिंदी आज एक बड़ा बाजार है। हिंदी मीडिया का बहुमुखी विस्तार हो रहा है पर क्या वास्तव में ऐसा है और हिंदी भाषा का उन्नयन हो रहा है। आज हिंदी के अखबारों में विभिन्न विषयों से सम्बंधित लेख भरे पड़े हैं। एक पेज के सम्पादकीय पृष्ठ की परम्परा अब पुरानी हो चली है। अब तो इसके साथ-साथ विचार सम्पादकीय पृष्ठ भी दिया जाने लगा है। सूचना आधिक्य का युग सही मायनों में साकार हो रहा है पर तस्वीर का एक रुख और भी है जो असल चिंता का कारण है। सवाल है कि वास्तव में हिंदी के समाचार पत्रों में सामग्री के स्तर पर आयी यह क्रांति हिंदी के विस्तार की है या सूचना क्रांति के कारण अंग्रेजी पर बढ़ती निर्भरता और मौलिक चिंतन की उपेक्षा कर अनुवाद संस्कृति को बढ़ावा दिया जा रहा है। वास्तविकता यह भी है कि आज भी सामान्यत: जब तक किसी विचार पर अंग्रेजी की मुहर नहीं लगती, उसे स्वीकृति नहीं मिलती। चाहे बात कितनी भी विशुद्ध भारतीय क्यों न हो, विचार तो किसी अंग्रेजी लेखक के ही होने चाहिए। पिछले कुछ वर्षो से अंग्रेजी लेखकों के लेखों को हिंदी के अखबारों में छापने का चलन बढ़ा है यानी ऐसे भारतीय लेखक जो मूलत: अंग्रेजी में लिखते हैं और उनके विचार अनुवाद के तहत प्रस्तुत किये जाते हैं। ऐसे ही दूसरे अंतरराष्ट्रीय समाचार पत्रों के लेखों का हिंदी तर्जुमा हिंदी के समाचार पत्रों में छापा जाता है। सैद्धांतिक तौर पर इस मुद्दे पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। ज्ञान का विस्तार ऐसे ही होता है। विचारों को आयातित करना कहीं से भी गलत नहीं है। हमारे पूर्वज भी ऐसा करते रहे हैं। दूसरों को सुनना और अपनी बात कहने से ही मानव समाज की उत्तरोत्तर उन्नति होती है। इसमें किसी को आपति नहीं होनी चाहिए। अंग्रेजी के लेखक अपने ज्ञान से हिंदी पाठकों को समृद्ध कर रहे हैं पर अक्सर जो दिखता है वैसा होता नहीं है। प्रश्न यह भी उठता है कि क्या हिंदी में गंभीर और गूढ़ विषयों पर विशेषज्ञ लेखकों का अभाव है? कई बार हिंदी के स्तंभकारों को अनुवाद लेखों की कीमत पर जगह नहीं दी जाती है? दरअसल पूरी बात ब्रांडिंग की है। बात समझने की नहीं बल्कि जो दिखता है, वही बिकता है वाले विचार को तरजीह मिलती है। हमारी नयी पीढ़ी हिंदी बोल और सुन तो लेती है क्योंकि परिवेश हिंदी का है पर उसे लिखना नहीं चाहती है। यह तथ्य इंगित करता है कि हिंदी का विस्तार किस तरह से हो रहा है। सारी दुनिया के लिए भारत एक बड़ा बाजार है। और उसके केंद्र में है भारत का विशाल मध्य वर्ग जो जनसंख्या के हिसाब से चाहे जितना भी हो लेकिन उसकी क्रय शक्ति ज्यादा है। दरअसल अंग्रेजी के लेखकों के साथ ग्लैमर जुड़ा होता है जिसके कारण उस लेखक और उसके विचार की ब्रांडिंग आसान हो जाती है। यह तथ्य अब किसी से छुपा नहीं है कि आज अखबार सूचना और विचार का वाहक न होकर महज एक उत्पाद बन गया है। अगर ब्रांडिंग ठीक नहीं होगी तो विज्ञापन पर संकट आ जाएगा। इस कारण हिंदी के लेखकों को तमाम मुद्दों पर अपने विचार प्रस्तुत करने का उतना मौका नहीं मिल पाता है। अंग्रेजी के कई स्तंभकार हिंदी समाचार पत्रों में नियमित रूप से छपते हैं पर यह भाषाई वैचारिक आदान-प्रदान अंग्रेजी के समाचार पत्रों से गायब है। वहां आप हिंदी के लेखकों को नहीं पाएंगे। कोई भी भाषा जितनी अधिक दूसरी भाषाओं ‘में’ और ‘से’
अनुवादित होगी, उतनी ही आगे बढ़ेगी और अंग्रेजी में इसमें अग्रणी है। ‘अंग्रेजी में’ और ‘अंग्रेजी से’ सर्वाधिक अनुवाद हुए हैं। इसीलिए अंग्रेजी के विस्तार को सहज ही देखा- समझा जा सकता है। संस्कृति, सभ्यता और भाषा आगे बढ़ने में एक-दूसरे की मदद करती हैं। इसके बाई प्रोडक्ट के रूप में हिंग्लिश हमारे सामने है जो हिंदी और इंग्लिश भाषा के मिलन से आयी है। यूनिर्वसटिी ऑफ वेल्स के भाषा विज्ञानी डेविड क्रिस्टल ने गणना कर बताया है कि दुनिया में हिंग्लिश बोलने वाले जल्दी ही इंग्लिश बोलने वालों की संख्या से ज्यादा हो जाएंगे। ध्यान देने वाली बात यह है कि इस भाषा के विकास के लिए न तो कोई दिवस मनाया गया और ना ही पखवाड़ा। दरअसल ऐसा इसलिए हो पाया क्योंकि हिंग्लिश के पीछे बाजार खड़ा है। इसके उलट हिंदी के पास न तो स्टेटस सिम्बल का ग्लैमर है और न ही बाजार का सीधा समर्थन। इसका ताजा उदाहरण कुछ दिनों पहले अंग्रेजी के एक प्रख्यात लेखक का सोशल साइट पर देश के भावी प्रधानमंत्री के बारे में सवाल उछालना और उसी आधार पर हिंदी के एक समाचार पत्र के सम्पादकीय पेज पर एक लेख लिखना है। यह ताकत हिंदी के किस लेखक के पास है? इसका सीधा संबंध बाजार से है। अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद एक बड़े बाजार का रूप ले चुका है जबकि अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद का कोई बड़ा बाजार नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो अंग्रेजी को बाजार का साथ मिला जबकि हिंदी अभी भी बाजार में अपना अस्तित्व तलाश रही है। बाजारवाद का एक पहलू यह भी है कि भाषा वही आगे बढ़ेगी जिसके पाठक के पास क्रय शक्ति ज्यादा होगी। दरअसल अनुवाद एक भाषा के कथ्य को दूसरी भाषा में बदल देने की कला भर नहीं है। इसके जरिए एक भाषा में कही गई बात और उसमें प्रस्तुत भावों को बहुत ही गंभीरता से दूसरी भाषा में अनूदित कर प्रस्तुत करना होता है। अनुवाद के जरिए सिर्फ भाषा ही नहीं वरन एक पूरी संस्कृति को भी संचारित किया जाता है। यही वह प्रमुख कारण है कि हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद कम या न के बराबर होता है। हैरी पॉटर और नार्नियां सीरीज की वि प्रसिद्ध किताबें आज हिंदी के पाठकों के लिए सर्वसुलभ हैं। इनके अलावा अंग्रेजी की कई बेस्ट सेलर किताबों के हिन्दी संस्करण भी आसानी से बाजार में उपलब्ध हैं लेकिन हिंदी का मौलिक चिंतन और लेखन अंग्रेजी में कब जा पाएगा, यह प्रश्न लंबे समय बना हुआ है और शायद बना रहने वाला है। वैीकरण और उदारीकरण ने भारतीय फिल्मों और खाने को तो ग्लोबल कर दिया है लेकिन हिन्दी भाषा का मामले में स्थिति अभी बहुत चिंतनीय है। वैीकरण और उदारीकरण अच्छा है या खराब, यह बहस का विषय हो सकता है पर हिन्दी के लिए यह एक अवसर है क्योंकि इन्ही कारणों से भारतीय सारी दुनिया में फैले और उन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। लेकिन हिन्दी लेखन को बड़े पैमाने अनूदित किया जाए, ऐसा अब तक नहीं हो सका है। हिंदी अखबारों द्वारा अनूदित अंग्रेजी के लेखों को छापना यह सिद्ध करता है अंग्रेजी ने वैीकरण को एक अवसर के रूप के रूप में अच्छी तरह से इस्तेमाल किया है और वह ज्यादा पाठकों तक पहुंची है। बहरहाल भविष्य में यह उम्मीद की जानी चाहिए कि यह दौर खत्म होगा और हिंदी सही मायने में ग्लोबल होगी और पाठक को मौलिक सामग्री मिलेगी।
राष्ट्रीय सहारा में दिनांक 12/08/12 को प्रकाशित 

Monday, August 13, 2012

Factual Entertainment


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जिंदगी में अगर इंटरटेन्मेंट ना हो तो लाईफ कितनी बोरिंग हो जायेगी इंटरटेन्मेंट बोले तो चिल करना ,फिल्म देखना ,नेट सर्फ़ करना और कुछ नहीं तो टीवी देखना |क्यों सच कहा ना टीवी देखना सबसे कॉमन तरीका है इंटरटेन् होने का इसीलिये तो टीवी को बुद्धू बक्सा कहा जाता है पर अब ये बुद्धू बक्सा इंटेलिजेंट हो गया है|मुझे पता है आपका वक्त कीमती है आप मेरे लेख को यूँ ही नहीं पढेंगे तो मैं कुछ ऐसा बता रहा हूँ जो आप जान तो रहे हैं पर मान नहीं रहे है देखिये इंटरटेन्मेंट एक रिस्पेक्तिव टर्म है अलग अलग समय पर लोग इंटरटेन्मेंट के नए नए तरीके निकालते रहे हैं पिछले बीस सालों से हम इंसानी रिश्ते परिवारों की आपसी उठा पटक को देख कर खुश होते रहे पर इन बीस सालों में दुनिया कितनी बदल गयी टेक्नॉलाजी हमारे जीवन का अहम हिस्सा बन  गयी और यांगिस्तानियों की एक नयी फ़ौज दर्शक बन गयी जिसे चीजों के बारे में जानने का शौक है जीवन को समझने की चाह और इसीलिये टीवी इन्फोटेनमेंट से फैक्चुअल इंटरटेन्मेंट की तरफ बढ़ चला जहाँ कोई फंतासी नहीं है जीवन की सच्ची कहानियां हैं टीवी ज्ञान दे रहा है हमें अवेयर कर रहा है|है जिसमे वास्तविक तथ्यों को मनोरंजक बना कर प्रस्तुत किया जा रहा है|जो समाचार और वृतचित्रों का मिला जुला रूप है| जहाँ इतिहास जीवंत हो रहा है और वर्तमान को भविष्य के लिए संजोया जा रहा है |इस तरह के कार्यक्रम डिस्कवरी,हिस्ट्री,फोक्स,एनीमल प्लैनेट  जैसे चैनलों पर प्रमुखता से दिखाया जा रहे हैकुछ ट्रक ड्राईवर दुनिया की दुर्गम सड़कों पर ट्रक चला रहे हैं तो कहीं हाथ से मछली पकड़ने की होड लगी,कहीं एक युवक सुपर मानवों की तलाश में दुनिया का चक्कर काट रहा है,कहीं एक यात्री दुनिया के अलग अलग देशों में अलग अलग व्यापार कर यात्रा के पैसे जुटा रहा है |हमारे आस पास के जीवन में इतना मनोरजन होगा किसी ने सोचा ना था|कार्यक्रमों में नए कंटेंट के लिए बस अपने आस पास कुछ ऐसा खोजना है जो आपके आस पास हो पर आप उसकी अहमियत ना समझ रहे हों बस अपने ओब्सर्वेशन को कीन करना है |भारत में कितने लोग डेली पैसेंजर हैं जिनके जीवन का आधे से ज्यादा हिस्सा अपने काम के सिलसिले में ट्रेन में बीतता है कितनी कहानी रोज जन्म लेती हैं कितने झूठे सच्चे वायदे किये जाते हैं कोई अपनी पत्नी की बेरुखी की समस्या बता कर अपनी महिला मित्र से संवेदना बटोर रहा होता कोई उस दिन का इन्तजार जब वो इस ट्रेन पकड़ने छोड़ने के सिलसिले से मुक्त हो जाएगा, है ना मजेदार अब कथाक्रम को धारावाहिक बना टीवी पर दिखाया जाएगा जिसमे सबकुछ असली होगा तो यांगिस्तानियों को डायरेक्ट दिल से मजा आएगा
आई नेक्स्ट में 13/08/12 को प्रकाशित  

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