Wednesday, May 27, 2020

पीछे मुड़कर जीवन को देखना

डेढ़ महीने के घरेलू काम काज करते हुए मुझे किचन और घर की काफी चीजों को करीब से देखने का मौका मिला |ये सब काम मुझे कितना सिखा सकते हैं ये इस जन्म में लॉक डाउन जैसे अप्रत्याशित वक्त के कारण ही सम्भव हो पाया |जीवन में आगे जाना ही सब कुछ नहीं है कभी कभी आप पीछे लौटते हुए भी आगे जा सकते हैं |झाड़ू और पोंछा यूँ तो घर की साफ़ सफाई की क्रियाएं हैं पर अपनी प्रकृति में दोनों अलग हैं |पोंछा लगाते हुए आप पीछे आते हैं और कमरा साफ़ हो जाता है यानि हार के जीतने वाले को बाजीगर वाली बातझाड़ू लगाते वक्त आप आगे जाते हैं और कमरा साफ़ |झाड़ू जहाँ आपको जब जीवन समान्य हो तो तरक्की कैसे करें ये सिखाती है वहीं पोंछा असमान्य स्थितियों में भी आप कैसे विजेता हो सकते हैं |बगैर रगड़े कोई बर्तन न चमकता है अगर सफलता की कामना है तो पहले असफल हो | घर में रहते हुए और एक महीने से ज्यादा का वक्त हो गया ।इन डेढ़  महीनों में जिंदगी को कई बार मुड़ मुड़ के देखा ।दिनचर्या एकदम बदल गयी जिसमें नियम से पूरे घर का झाड़ू पोंछा और बर्तन धोना शामिल है ।कभी कभी खाना भी बनाता हूँ।बर्तन देर रात में धोता हूँ जब पूरा घर नींद के आगोश में होता है और मैं विविधभारती पर बजते गानों के बीच जिंदगी के पन्ने पलटता हूँ और सोचता हूँ इस प्रगति और विकास के खेल में हमें मिला क्या ? बचपन में मम्मी की मदद के लिए बर्तन धोता था क्योंकि कोई नौकरानी रखी नहीं जा सकती थी और परिवार बड़ा था ।झाड़ू पोंछा लगाना तो खेल था गाने बजा कर नाच नाच कर सफाई ।तब लेकिन विकास का रोग नहीं लगा था एक तौलिया में सारे घर का काम चल जाता था चार भाई और माता पिता ।खाली समय में चावल से तिनके निकालने का खेल ।इन सब के बीच मैं बढ़ रहा था और मेहनत से पढ़ भी रहा था कि इससे तरक्की होगी ।
आज तीन लोगों के परिवार में तीन तौलिया और नहाने के सबके अलग अलग साबुन है ।घर के हर काम के लिए मेड और न जाने क्या क्या जिनकी पता नहीं हमें जरूरत भी है या नही ।शॉपिंग करना शौक है और इन सबकी कीमत पर्यावरण ने चुकाई है ।बात अब समझ में आ रही है ।
आज मजबूरी में ही सही सभी ने इस जीवन को स्वीकार कर लिया है ।पसन्द का साबुन न मिल रहा है तो जो है उसी में काम चलाओ। दो जोड़ी कपड़े में काम चल रहा है ।ग्लोबलाइजेशन के फायदे पर निबंध लिखते लिखते अब उसके नुकसान पर बात करने का दौर आ गया है ।रात में बर्तन धोते धोते अक्सर यही सोचता हूँ जब मम्मी कहती थी बेटा पढ़ लिख कर बड़े आदमी बन जाओ फिर ये सब नहीं करना पड़ेगा जब हमें वापस लौटना ही था तो इतनी दूर क्यों निकल गए ।क्या यही विकास और प्रगति का चक्कर है ।खैर जाने दीजिए इतना लंबा कौन पढ़े ।चलते चलते बचपन में बर्तन धोने के अनुभव के मुकाबले आजकल बर्तन धोना कहीं ज्यादा आसान है पर राख और ईंट के टुकड़े का न मिलना आज के अनुभव को उतना मजेदार नहीं बनाता । बहरहाल आज के लिए इतना ही हम कुछ नया ज्ञान लेने के लिए निकलते हैं |
 प्रभात खबर में 27/05/2020 को कोलकत्ता संस्करण में प्रकाशित 

Wednesday, May 20, 2020

अजब -गजब गीत

कभी कभी कोई गानासुबह सुबह आप सुन ले तो वो आपके जहन पर पूरा दिन हावी रहता है. लेकिन उन गीतों का क्या,जिनके बोलों का कोई सीधा अर्थ नहीं निकलता फिर भी वो हमारी जबान पर चढ़ जाते हैं अगर ऐसा नहीं है तो गीतों से होने वाले संचार का कोई मतलब नहीं रहेगा. वाकई ये गानों की दुनिया एकदम निराली है. क्या आपने कभी सुना है कि किसी शब्द का कोई अर्थ न हो फिर भी गानों में उनका इस्तेमाल होता है. मै कोई पहेली नहीं बुझा रहा हूँ आपने कई ऐसे गाने सुने होंगे जिनके कुछ बोलों का कोई मतलब नहीं होता है लेकिन गानों के लिये बोल जरुरी होते हैं किशोर कुमार की आवाज़ में ये गाना याद करिए ईना मीना डीका ,डाई डम नीका किसी शब्द का मतलब समझ में आया ?फिर भी ऐसे गाने जब भी बजते हैं हमारे कदम थिरकने लगते हैं. अब इस तरह के गानों से कम से कम ये तो सबक मिलता है कि इस जिन्दगी में कोई चीज़ बेकार नहीं बस इस्तेमाल करने का तरीका आना चाहि. वैसे भी क्रियेटिविटी का पहला रूल है हर विचार अच्छा होता है और ये हमारे गीतकारों की क्रियेटिविटी ही है कि वो गानों के साथ लगातार प्रयोग करते आये हैं.कभी धुन को शब्दों में ढाल देते हैं और कभी ऐसे शब्दों को गीत में डाल देते हैं कि हम गुनगुना उठते हैं. अई ईया सुकू सुकू (फिल्म:जंगली ) फिल्म कमीने का ढेन टणेन धुन को शब्द बनाने का बेहतरीन प्रयास है. फ़िल्मी गानों के ग्लोबल होने का कारण शायद गीतकारों की प्रयोगधर्मिता ही है.” इस तरह के गानों के शब्दों का अर्थ भले ही न हो लेकिन ये सन्देश देने में तो सफल रहते ही हैं डांस की मस्ती को "रम्भा हो हो हो"(अरमान ) जैसे गीतों से बेहतर नहीं समझा जा सकता है .राम लखन फिल्म का गाना नायक की अलमस्ती को कुछ ऐसे ही शब्दों में बयां कर रहा है "रम प् पम प् पम ए जी ओ जी करता हूँ जो मैं वो तुम भी करो जी” असल में इस तरह के शब्दों का काम गानों की बोली में भावना को डालना होता है. हम हवा को देख नहीं सकते सिर्फ महसूस कर सकते हैं .गीतकार जब भावनाओं को नए तरीके से महसूस कराना चाहता है तो वह इस तरह के शब्दों का सहारा लेता है लेकिन यह काम बगैर संगीतकार के सहयोग  के नहीं हो सकता है .जिन्दगी में भी अगर मेहनत सही दिशा में की जाए तभी सफल होती है और हर काम खुद नहीं करने की कोशिश करनी चाहिए. जिन्दगी में कितना कुछ है जो हम महसूस कर सकते हैं लेकिन व्यक्त नहीं कर सकते और इन भावनाओं  को व्यक्त  करने के लिए जब इन अजब गज़ब से शब्दों का सहारा लेकर कोई गीत रच दिया जाता है तो ये अर्थहीन शब्द भी अर्थवान हो जाते हैं . छई छपा छई छपाक के छई पानीयों पर छींटे उडाती हुई लडकी (हु तु तुपानी के साथ खेल का इससे सुन्दर बयान क्या हो सकता है .गानों में इस तरह के प्रयोग की शुरुवात जंगली फिल्म से हुई .आप भी अभी तक याहू को नहीं भूले होंगे और ये सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है .जिन्दगी भी तो कभी एक सी नहीं रहती ,गाने भी हमारी जिन्दगी के साथ बदलते रहे .आज की इस लगातार सिकुड़ती दुनिया में जहाँ व्हाट्स एप संदेश  भाषा के नए व्याकरण को बना रहा है .ऐसे में अगर गाने शब्दों की पारंपरिक दुनिया से निकल कर भावनाओं की दुनिया में पहुँच रहे हैं तो क्यों न गानों की इस बदलती दुनिया का जश्न मनाया जाए क्योंकि ये अजब गज़ब गाने अब हमारी जिन्दगी का हिस्सा हैं.

प्रभात खबर में 20/05/2020 को प्रकाशित लेख 

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