Tuesday, October 29, 2019

समझना होगा इंटरनेट से जुडी चुनौतियों को

पिछले कुछ वर्षों में इंटरनेट / सोशल मीडिया प्लेटफार्मों का उपयोग करते हुए हेट स्पीचफर्जी समाचारराष्ट्र विरोधी गतिविधियोंअपमानजनक पोस्ट और अन्य गैरकानूनी गतिविधियों में तेजी आई है. केंद्र ने कहा है कि एक तरफ प्रौद्योगिकी ने आर्थिक और सामाजिक विकास किया है तो दूसरी तरफ झूठे समाचारों में काफी  वृद्धि हुई है. लोकतांत्रिक राजनीति के लिए अड़चन  पैदा करने में  इंटरनेट एक शक्तिशाली टूल के रूप में उभरा है.    इससे हमारे समाज के सामने एक नई चुनौती पैदा हो गई है. गलत सूचनाओं को पहचानना और उनसे निपटना आज के दौर के लिए एक बड़ा सबक है। फेक न्यूज आज के समय का सच है। पिछले दिनों देश में घटी मॉब लिंचिंग की कई घटनाओं के पीछे इसी फेक न्यूज का हाथ रहा है. फेक न्यूज के चक्र को समझने के लिए मिसइनफॉर्मेशन और डिसइनफॉर्मेशन में अंतर समझना जरूरी है.
मिसइनफॉर्मेशन का मतलब ऐसी सूचनाओं से है जो असत्य हैं पर जो इसे फैला रहा है वह यह मानता है कि यह सूचना सही है। वहीं डिसइनफॉर्मेशन का मतलब ऐसी सूचना से है जो असत्य है और इसे फैलाने वाला भी यह जानता है कि अमुक सूचना गलत हैफिर भी वह फैला रहा है। भारत डिसइनफॉर्मेशन और मिसइनफॉर्मेशन के बीच फंसा हुआ है। अब सोशल मीडिया इतना तेज़ और जन-सामान्य का संचार माध्यम बन गया कि इसने हर उस व्यक्ति को जिसके पास स्मार्ट फोन है और सोशल मीडिया पर उसकी एक बड़ी फैन फोलोविंग  वह एक चलता फिरता मीडिया हाउस बन गया  है .
इस खेल में इंटरनेट की कई कम्पनियां भी शामिल हैं जब सोशल मीडिया को लोगों के आधार अकाउंट से जोड़ने का मामला तमिलनाडु हाईकोर्ट पहुंचा तो उसी से जुड़े मामलों को फेसबुक कंपनी ने मद्रासबॉम्बे और मध्य प्रदेश हाई कोर्टों से सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसफर करने की मांग की .सुप्रीम कोर्ट में तमिलनाडु सरकार की तरफ से दलील देते हुए अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने पहले कहा था कि सोशल मीडिया यूज़र्स की प्रोफाइल को आधार कार्ड से जोड़ना फ़र्ज़ी खबरों पर लगाम लगाने के लिए ज़रूरी है।” उनके हिसाब से इससे डेफमेट्री आर्टिकल्सअश्लील और एंटी-नेशनल कंटेंट पर भी लगाम लगेगी।इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने 24 सितंबर को केंद्र सरकार को निर्देश दिया था कि वह ऑनलाइन निजता और राज्य की संप्रभुता के हितों को संतुलित करके सोशल मीडिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए दिशानिर्देश तैयार करने के बारे में एक हलफनामा दायर करे. जस्टिस दीपक गुप्ता और अनिरुद्ध बोस की पीठ ने कहा था कि इसमें राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंताओं को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि यह अदालतों के लिए नहीं है कि वे सोशल मीडिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए दिशा-निर्देश तैयार करें। नीति केवल सरकार द्वारा तय की जा सकती है। एक बार सरकार नीति बनाती है तो कोर्ट नीति की वैधता पर निर्णय ले सकता है . हालाँकि अभी इस मुद्दे पर सरकार ने कोई फैसला नहीं लिया है पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकार और निजता के अधिकार के समर्थक इस कदम का विरोध कर रहे हैं .फेसबुक और व्हाट्स एप जैसी कम्पनियां इस तरह की सोच को नागरिकों के निजता के अधिकार के खिलाफ बता रही हैं . फेसबुक का कहना है कि वो अपने यूज़र्स के आधार कार्ड नंबर को किसी थर्ड पार्टी के साथ शेयर नहीं कर सकता। क्योंकि ऐसा करना उसकी प्राइवेसी पॉलिसी के खिलाफ होगा।इस समस्या एक सबसे बड़ा पहलु है इसका व्यवसायिक पक्ष इंटरनेट की बड़ी कम्पनियां .सोशल मीडिया पर आने से जिस तथ्य को हम नजरंदाज करते हैं वह है हमारी निजता का मुद्दा और हमारे दी जाने वाली जानकारी.जब भी हम किसी सोशल मीडिया से जुड़ते हैं हम अपना नाम पता फोन नम्बर ई मेल उस कम्पनी को दे देते है.असल समस्या यहीं से शुरू होती है .  इस तरह सोशल मीडिया पर आने वाले लोगों का डाटा कलेक्ट  कर लिया जाता है .उधर इंटरनेट के फैलाव  के साथ आंकड़े बहुत महत्वपूर्ण हो उठें .लोगों के बारे में सम्पूर्ण जानकारियां को एकत्र करके बेचा जाना एक व्यवसाय बन चुका है और  इनकी कोई भी कीमत चुकाने के लिए लोग तैयार बैठे हैं .कई बार एक गलती  किसी कंपनी की उस लोकप्रियता  पर भारी पड़ जाती है जो उसने एक लंबे समय में अर्जित की होती है. टेकक्रंच  की एक रिपोर्ट के मुताबिक मई माह में लाखों मशहूर और प्रभावशाली व्यक्तियों का पर्सनल डेटा इन्स्ताग्राम  के जरिए लीक हो गया है. इस डेटाबेस में 4.9 करोड़ हाई-प्रोफाइल लोगों के व्यक्तिगत रिकॉर्ड  हैंजिनमें जाने-माने फूड ब्लॉगरऔर सोशल मीडिया के प्रभावशाली लोग शामिल थे.रिपोर्ट में दावा किया गया है कि जिन लोगों का डेटा लीक हुआ है उसमें उनके फॉलोवर्स की संख्याबायोपब्लिक डेटाप्रोफाइल पिक्चरलोकशन और पर्सनल कॉन्टैक्ट भी शामिल थे.तथ्य यह भी है कि जैसे ही ऐसा करने वाली फर्म के बारे में रिपोर्ट छपी उसने तुरंत अपने डेटाबेस को ऑफलाइन कर लिया. ध्यान रहे कि इंटरनेट की दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण बात है इसकी गतिशीलता नया बहुत जल्दी पुराना हो जाता है और नई संभावनाओं के द्वार खुल जाते हैं .सोशल मीडिया प्लेटफोर्म नित नए रूप बदल रहे हैं उसमें नए नए फीचर्स जोड़े जा रहे हैं .इस सारी कवायद का मतलब ऑडिएंस को ज्यादा से ज्यादा वक्त तक अपने प्लेटफोर्म से जोड़े रखना .इसका बड़ा कारण इंटरनेट द्वारा पैदा हो रही आय भी है .कम्पनियां अनाधिकृत डाटा के व्यापार में शामिल हैं भले ही वे इसको न माने पर वे अपना डाटा देश की सरकार के साथ नहीं शेयर करना चाहती वहीं सरकार इस तरह के नियम बना कर अपनी आलोचनाओं को कुंद कर सकती है .फिलहाल देश इन्तजार कर रहा है की सोशल मीडिया पर आने वाला वक्त कितना सुहाना होने वाला है .
दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में 29/10/2019 को प्रकाशित 

Tuesday, October 22, 2019

निजता संबंधी नीतियों की अनदेखी

आज इंटरनेट और मोबाईल हर क्षेत्र का आधार बन चुका है । बढ़ती तकनीक के जरिए आज लोगों की ना सिर्फ जिंदगी आसान हुई है ,बल्कि इस वजह से कई सारी समस्याएं भी पैदा  हुई हैं । हम रोज इंटरनेट के जरिए अनेकों  जानकारी लेते व देते हैं पर  इन सबके बीच हम यह भूल जाते हैं कि हम अपनी जानकारी का इस्तेमाल किस तरह से कर रहे हैं ,और हमारी निजता इससे किस तरह से प्रभावित हो रही है | इन्टरनेट एक अद्भुत दुनिया है, जिसने मनुष्य की कल्पनाओं को पंख प्रदान करें हैं । यह एक ऐसी तिलिस्मी दुनिया है ,जो आपको कुछ इस तरह बांधने की क्षमता रखती है, कि जिससे दूर होना आपके लिए मुश्किल हो जाता है ।हर रोज हम अलग-अलग सोशल नेटवर्किंग साइट्स ,अलग-अलग वेबसाइट से जुड़ते हैं तरह तरह के एप डाउनलोड करते हैं| ऐसा करते वक्त कई बार हम अपनी निजी जानकारी जैसे अपना नाम, पता ,फोन नंबर, ईमेल आईडी ,वगैरह का इस्तेमाल भी ऑनलाइन करते हैं और इसको एक आम प्रक्रिया का हिस्सा मान लेते हैं । पर क्या आपको पता है की निजता का मुद्दा आज के समय में एक व्यापक समस्या का कारण बन चुका है।        आपका डाटा आपकी पहचान है और आपके डेटा पर कंपनियों की नजर आपको हानि पहुंचा सकती है। यह मुद्दा हम अक्सर नजरअंदाज कर देते हैं और समस्या की शुरुआत यहीं से होती है। आज इंटरनेट पर ऑनलाइन एप्स और वेबसाइट्स की भरमार है । हम सब किसी न किसी वजह से उनका इस्तेमाल भी करते हैं ।
 कई बार संचार के लिए, तो कई बार एंटरटेनमेंट के लिए । कई बार हमें कोई ऐप रोचक लगती हैं तो हम उसको डाउनलोड कर लेते हैं । डाउनलोड करने के बाद ऐप हमारे फोन में कई सारे परमिशन मांगते हैं और अक्सर ऐप को इस्तेमाल करने की जल्दी में हम यह नजरअंदाज कर देते हैं । जब हम किसी ऐप को परमिशन दे रहे हैं , तो हम उसको हमारी निजी जानकारी जैसे हमारे कांटेक्ट, हमारी गैलरी वगैरह में झांकने का मौका दे रहे हैं और यह काम वे हमारी जानकारी में करते हैं पर जागरूकता के अभाव में हम मौसम की जानकारी देने वाले  किसी एप को भी अपने कोंटेक्ट को देखने की अनुमति दे देते हैं |अब मौसम की जानकारी वाला एप हमारे कोंटेक्ट की जानकारी क्यों चाहता है यह सोचने की फुर्सत किसे है |
ये अद्भुत युग है जहाँ करोड़ों एप के बीच इंसान एक डाटा भर बन कर रह गया है |हमारे आपके मोबाईल में कई सारे एप है जो हमारी जिन्दगी को आसान बना रहे हैं पर इस सच्चाई के बीच हम यह तथ्य भूल जाते हैं कि बाजार के इस युग में मुफ्त में कुछ भी नहीं मिलता वहां इतने एप हमें मुफ्त में क्यों मिल रहे हैं ?सवाल का जवाब इसी क्यों में छुपा है कि इन एप कम्पनियों के लिए हम खुद ही अपना डाटा खुशी खुशी परोस दे रहे हैं और आदमी से डाटा बनने की इस प्रक्रिया में हमें खुद ही नहीं पता कि अब हमारा कुछ भी निजी नहीं रह गया है |आप एक समस्या से बचने के लिए एक एप डाउनलोड करते हैं उससे जुटाई गयी आपकी ही जानकारी आपके लिए दूसरी समस्या पैदा कर देती है उससे बचने के लिए हम दूसरा एप डाऊनलोड करते हैं इस तरह डाटा का कारोबार लगातार फलता फूलता रहता है और हमारा ही डाटा कई गुणकों में तब्दील होता जाता है | प्रमोशनल और टेलिमार्केटिंग कॉल्स की परेशानी से बचने के लिए  लिए लोगों ने ट्रू कॉलर  या ट्रैप कॉल जैसे ऐप्स डाउनलोड किये पर अब खबर ये है कि रोबोकॉल्स को ब्लॉक करने वाले ऐसे ऐप यूजर्स को स्पैम और स्पूफ कॉल्स से छुट्टी देने के अलावा उनका डेटा भी चुरा रहे हैं। एनसीसी ग्रुप नाम की साइबर सिक्यॉरिटी फर्म के सीनियर सिक्यॉरिटी कंसल्टेंट डैन हेस्टिंग्स ने कुछ सबसे पॉप्युलर रोबोकॉल ब्लॉकिंग ऐप्स का विश्लेषण  किया। इनमें ट्रैप कॉल, ट्रू कॉलर  और हिया भी शामिल थे और डैन ने पाया कि ये ऐप्स बुरी तरह लोगों की निजता  का उल्लंघन कर रहे हैं।इस  रिपोर्ट के बाद ऐसे सवाल फिर से उठ रहे हैं कि क्या ऐसे ऐप्स पर भरोसा किया जा सकता है इतना ही नहीं, ऐसे कई  ऐप्स उपयोगकर्ताओं  का डेटा थर्ड पार्टी कंपनियों को भी भेज रहे हैं।
समस्या ये है कि अगर आप ट्रू कॉलर का प्रयोग  कर रहे हैं तो जाहिर है आपके पूरे कॉन्टैक्ट्स ट्रू कॉलर के पास चले जाते हैं. इसलिए अगर आपके अकाउंट से डाटा चोरी  होता है, तो हमारे फोनबुक के सारे कॉन्टैक्ट्स भी चोरी हो जाते हैं| इस मामले में फेसबुक पहले ही दोषी पाया जा चुका है वहीं ट्विट्टर  ने भी खुलासा किया है जिसमें उसने यूजर्स की मर्जी के बिना ही उनके डाटा का इस्तेमाल विज्ञापन  के लिए किया है। कंपनी ने अपने आधिकारिक ब्लॉग पोस्ट में यूजर्स से माफी मांगते हुए का कि उसने एक साल तक बिना परमिशन के यूजर्स के डाटा का इस्तेमाल विज्ञापन  के लिए हुआ है।
हालांकि कंपनी ने अपने ब्लॉग पोस्ट में यह भी बताया है कि इस बग को फिलहाल ठीक  कर लिया गया है। आज के युग में सूचना एवं जानकारी ही ताकत है , जिसके पास यह ताकत है वह पूरे विश्व को जीतने की क्षमता रखता है ,और कुछ ऐसी ही जीतने की होड़ होती है ऑनलाइन कंपनियों में , क्योंकि वे बाजार में तब ही सफल होंगे  ,जब उनके पास अपने  ग्राहक की पूर्ण जानकारी उपलब्ध हो और आज के समय में यह जानकारी हम उनको खुद इंटरनेट और तमाम एप  के जरिए खुद ही पहुंचाते हैं और इस जानकारी का बेचा जानाअब  एक बड़ा व्यवसाय बन गया है।अक्सर हम जब कोई वेबसाइट खोलते हैं या कोई एप डाउनलोड करते हैं ,तो एक लंबी चौड़ी प्राइवेसी और टर्म्स एंड कंडीशन की सूची हमारे सामने आ जाती है अधिकांश लोग यह गोपनीयता नीति नहीं पढ़ते हैं, और जो पढ़ते हैं उनका मानना है कि उसमें क्या लिखा है, वह उनके लिए समझना बहुत मुश्किल होता है।
 कानूनी शब्द जाल और असप्श्तीकृत वाक्यांशों से भरे इन पन्नों का उद्देश्य मुख्यता: कंपनी को कानूनी तौर पर किसी दायित्व से बचाना होता है न कि उपभोक्ता को सूचित करने का |सूचनात्मक गोपनीयता का अधिकार आपकी निजी जानकारी की वकालत करता है , जिसके अनुसार हर एक व्यक्ति को यह निर्धारित करने में सक्षम होना चाहिए कि उनकी जानकारी का उपयोग कौन और किस उद्देश्य के लिए कर सकता है।डाटा उलंघन केसेस लगभग हर रोज होते हैं, दुर्भाग्य से अधिकांश लोग समस्या की गंभीरता को तब तक नहीं समझते हैं , जब तक कि यह व्यक्तिगत रूप से पहचान की चोरी या अन्य दुर्भावनापूर्ण गतिविधि के माध्यम से उन्हें प्रभावित नहीं करते।नागरिकों के मौलिक अधिकार की रक्षा करना सरकार का दायित्व होता है , और किसी की निजी जानकारी पर सेंध लगना सरकार की कमज़ोरी को भी दर्शाता है। हम डिजिटल तो हो रहे हैं , पर शायद आज भी उसके लिए तैयार नहीं है । आज सरकार के साथ-साथ लोगों को भी जागरूक रहने की आवश्यकता है, कि वह अपना डाटा किस कंपनी को दे रहे हैं, वह डेटा किस तरह से इस्तेमाल करा जाएगा और डाटा से संबंधित कंपनी की क्या पॉलिसी है। साथ ही साथ उपभोक्ता की जानकारी सुरक्षित रखना कंपनियों का दायित्व है, और वे उस जानकारी के प्रति जवाबदेह हैं ।साइबर गोपनीयता जैसे मामलों पर एक मज़बूत ढांचे की आज देश को जरूरत है । जिससे हमारा भारत तकनीक की दौड़ में बाकी देशों से कंधा मिलाकर चल सके।

 दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 22/10/2019 को प्रकाशित 



आधी आबादी को पूरी स्वतंत्रता की जरुरत

असमानता कैसी भी हो उसका असर समाज के हर हिस्से पर पड़ता है |भारत में स्त्री पुरुष समाज के समान धरातल पर नहीं खड़े हैं लैंगिक नजरिये से यह कोई नया तथ्य नहीं है कि भारत में महिलाओं को समाज में अपनी जगह बनाने के लिए पुरुषों से कहीं ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है बात चाहे शिक्षा की हो या करियर या फिर जीवन साथी का चुनाव |सूचना क्रान्ति के इस युग में सोशल मीडिया के आगमन के साथ इस धारणा को बल मिला कि तकनीक इस लैंगिक असामनता को कम करने में कुछ मददगार होगी और इसमें अहम् योगदान फेसबुक जैसी सोशल मीडिया साईट्स देंगी फेसबुक के ही आंकड़ों के मुताबिक भारत में पंद्रह  करोड़ तीस लाख लोग इसका इस्तेमाल कर रहे थे पर यहाँ भी  विकसित देशों के विपरीत पुरुष वर्चस्व कायम है |भारत की महिलायें यहाँ भी उस पुरुषवादी मानसिकता का शिकार हैं जिसका सामना उन्हें जीवन के हर क्षेत्र में करना पड़ता है यूनाइटेड किंगडम की संस्था वी आर द सोशल” की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में फेसबुक का इस्तेमाल करने वाली कुल आबादी में महिलाओं का हिस्सा मात्र चौबीस प्रतिशत है यानि तीन पुरुष प्रयोगकर्ताओं के मुकाबले एक महिला प्रयोगकर्ता |एक ऐसा देश जो दुनिया में दूसरे स्थान पर सबसे ज्यादा स्मार्ट फोन प्रयोग करता है वहां महिलाओं के सम्बन्ध में ऐसे आंकड़े चौंकाते नहीं पर परेशान जरुर करते हैं देश में इस समय दुनिया की सबसे युवा आबादी बसती है जो सोशल मीडिया का सबसे ज्यादा प्रयोग करती है |पर विभिन्न आयु वर्गों के फेसबुक इस्तेमाल में 18 से 24 और 24 से 35 में यह अंतर सबसे ज्यादा है |वैसे भी फेसबुक एक शहरी और पढ़े लिखे लोगों का माध्यम है यह वह आबादी है जो पढी लिखी है और आर्थिक रूप से बेहतर स्थिति में है वहां  भी महिलायें पुरुषों के मुकाबले चुप हैं |तकनीक लिंग निरपेक्ष होती है पर उसका इस्तेमाल प्रयोग करने वाले की मानसिकता पर निर्भर करता है |
आंकड़ों के संदर्भ में अगर हम देखें तो चूंकि भारतीय सामाजिक ढांचा पितृ सत्तात्मक है और ज्यादातर  महिलाओं को वित्तीय आत्मनिर्भरता हासिल नहीं है इसलिए किसी भी घर में जब कोई नयी तकनीक आती है तो उसका पहला उपभोक्ता पुरुष ही होता है क्योंकि उसके पास वित्तीय आत्म निर्भरता है |स्मार्ट फोन आमतौर पर सामान्य फोन के मुकाबले थोड़े महंगे होते हैं तो महिलाओं को या तो घर के किसी पुरुष के छोड़े हुए मोबाईल मिलते हैं या सस्ते वाले बगैर इंटरनेट के फोन इस धारणा के साथ कि वे इंटरनेट वाले फोन का क्या करेंगी |वैसे भी फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफोर्म अपने आप को व्यक्त करने का मौका देते हैं पर एक आम हिन्दुस्तानी महिला को पत्नी या बहन के रूप में घरेलू निर्णय प्रक्रिया में वो स्थान नहीं दिया जाता (अपवादों को छोड़कर सम्पूर्ण भारत के सम्बन्ध में  ) जिसकी हकदार वो हैं ऐसी स्थिति में वो आत्मविश्वास की कमी का शिकार हो जाती हैं |ऐसे में वो फेसबुक जैसे माध्यमों  पर या तो आने से हिचकती हैं और अगर आती हैं तो ज्यादा सक्रिय नहीं रहती हैं क्योंकि उन्हें डर लगता है कि पता नहीं वो सही कह रही हैं या गलत |शिक्षा का पहला मौका किसी भी परिवार में लड़कों को पहले मिलता है तो लड़कियों का शिक्षित न होना भी उन्हें तकनीक से दूरी बनाये रखने में मदद करता है क्योंकि स्मार्ट फोन तकनीकी रूप से थोड़े जटिल होते हैं और उसके इस्तेमाल को सीखने में किसी कम पढ़े लिखे या अशिक्षित व्यक्ति को ज्यादा परेशानी होगी  |
तथ्य यह भी है कि महिलाओं के मुकाबले पुरुष भारत में किसी भी सोशल मीडिया प्लेटफोर्म पर ज्यादा सुरक्षित है वो कुछ भी लिख सकता है कैसी भी तस्वीरें डाल सकता है पर अगर महिलाएं फेसबुक पर पुरुषों जितनी बिंदास हो जाएँ तो उन्हें तुरंत चरित्र प्रमाण पत्र मिलने लग जाते हैं इसलिए कम ही महिलाएं फेसबुक पर ज्यादा मुखर रह पाती हैं और सामान्य महिलायें निजता के हवाले से या तो इससे दूर रहना पसंद करती हैं या फेसबुक का बहुत नियंत्रित उपयोग करती हैं |किसी सामान्य पुरुष के मुकाबले महिलायें ज्यादा खतरे में रहती हैं |मोर्फिंग के डर से अकेले की तस्वीरें कम डालना ,क्या लिखें क्या न लिखें इस संशय में रहना लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे अगर मैंने यह तस्वीर लगा दीअगर मेरा अकाउंट हैक हो गया तो ऐसी पीडायें हैं जिनसे एक पुरुष का सामना कभी नहीं होता है |समाचार पत्रों में अक्सर ऐसी घटनाओं का ब्यौरा रहता है जब किसी न किसी महिला को इन सबसे गुजरना पड़ता है कुछ तो सामाजिक तिरस्कार के डर से आत्महत्या तक कर लेती हैं भारत में किसी भी महिला को पुरुषों के मुकाबले ज्यादा अजनबियों के मित्रता निवेदन मिलते हैं |समाज वैसे भी महिलाओं की यौनिकता को नियत्रण में रखना चाहता है इसलिए महिलाओं के मिलने जुलने ,हंसने ,उठने बैठने तक सभी स्तरों पर उनके लिए एक आदर्श मानक बनाये गए हैं जिससे अच्छी महिला और बुरी महिला का प्रमाण पत्र दिया जा सके और ये मानक फेसबुक जैसे सोशल प्लेटफोर्म पर भी लागू रहते हैं पति के फेसबुक का पासवर्ड पत्नी को न पता हो पर पत्नी का पासवर्ड पति को पता होना चाहिए ऐसे बहुत से तुच्छ मानक आचरण भी महिलाओं के फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफोर्म से दूरी के कारण है |महिलाओं के प्रति असमान व्यवहार की जो लड़ाई जमीन पर चल रही थी अब उसकी शुरुआत वर्च्युल दुनिया में भी हो गयी है |महिलायें यह लड़ाई शिक्षा और वित्तीय आत्मनिर्भरता से ही जीत सकती हैं 
दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में 22/10/2019 को प्रकाशित 

Wednesday, October 16, 2019

डेटिंग एप्स पर भी प्राइवेसी से खिलवाड़

वर्तमान समाज  एक एप का समाज है दुनिया  स्मार्ट फोन के रूप में हथेली में सिमट चुकी है |इंटरनेट और डेस्कटाप कम्प्यूटरों से शुरू हुआ  यह सिलसिला मोबाईल  के माध्यम से एक एप में  सिमट  चुका है पिछले एक दशक में इंटरनेट ने भारत को  जितना बदला उतना  मानव सभ्यता के ज्ञात इतिहास में किसी और चीज ने नहीं बदला है ,यह बदलाव बहु आयामी है बोल चाल  के तौर तरीके से  शुरू हुआ यह सिलसिला  खरीददारी  ,भाषा  साहित्य  और  हमारी अन्य प्रचलित मान्यताएं और परम्पराएँ  सब  अपना रास्ता बदल रहे हैं। यह बदलाव इतना  तेज है कि इसकी नब्ज को पकड़  पाना समाज शास्त्रियों  के लिए भी आसान नहीं है  और  आज इस तेजी  के मूल में एप” ( मोबाईल एप्लीकेशन ) जैसी यांत्रिक  चीज  जिसके माध्यम से मोबाईल  फोन में  आपको किसी वेबसाईट को खोलने की जरुरत नहीं पड़ती |आने वाली पीढियां  इस  समाज को एक एप” समाज के रूप में याद  करेंगी जब  लोक और लोकाचार  को सबसे  ज्यादा  एप” प्रभावित कर रहा  था |हम हर चीज के लिए बस एक अदद एप” की तलाश  करते हैं |जीवन की जरुरी आवश्यकताओं के लिए  यह  एप” तो ठीक  था  पर  जीवन साथी  के चुनाव  और दोस्ती  जैसी भावनात्मक   और  निहायत व्यक्तिगत  जरूरतों   के लिए  दुनिया भर  के डेटिंग एप  निर्माताओं  की निगाह  में भारत सबसे  पसंदीदा जगह बन कर उभर  रहा है | उदारीकरण के पश्चात बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ और रोजगार की संभावनाएं  बड़े शहरों ज्यादा बढीं ,जड़ों और रिश्तों से कटे ऐसे युवा  भावनात्मक  सम्बल पाने के लिए और ऐसे रिश्ते बनाने में जिसे वो शादी के अंजाम तक पहुंचा सकें  डेटिंग एप का सहारा ले रहे हैं |
भारत में है युवाओं की सबसे ज्यादा आबादी
संयुक्त राष्ट्र की एक  रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया का सबसे युवा देश है। यहां 35.6 करोड़ आबादी युवा है भारत की अठाईस प्रतिशत  आबादी की आयु दस साल से चौबीस  साल के बीच है। सिर्फ भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में मौजूदा समय में युवाओं कीसबसे  सबसे अधिक है इसी आबादी का बड़ा हिस्सा वह है  जो स्मार्ट फोन का इस्तेमाल बगैर किसी समस्या करता है  ये तकनीक को अच्छी तरह जानते और समझते हैं |मोबाईल ख़ासा व्यक्तिगत माध्यम है और हर व्यक्ति अपनी जरूरतों के हिसाब से एप” चुनकर इंस्टाल कर सकता है |पिछले एक दशक में  शहरी भारतीय रहन सहन में ख़ासा परिवर्तन आया है और युवा जल्दी आत्म निर्भर हुए हैं जहाँ वो अपने जीवन से जुड़े फैसले खुद ले रहा है |यूँ तो देश में  ऑनलाइन मैट्रीमोनी का कारोबार अगले तीन साल में 1,500 करोड़ तक पहुंचने की उम्मीद है। इंटरनेट ऐंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अनुसारवैवाहिक वेबसाइटों पर साल 2013 में 8.5 लाख प्रोफाइल अपलोड की गईजिनकी संख्या साल 2014 में बढ़कर 19.6 लाख हो गई। यानी एक साल में 130 फीसदी का इजाफा।पर डेटिंग एप का बढ़ता चलन इस ओर इशारा कर रहा है कि सम्बन्ध बनाने में भी अब लोग वेबसाईट के बजाय एप पर अधिक निर्भरता बढ़ा रहे हैं वर्तमान में डेटिंग एप  का आकार 13 करोड़ डॉलर से भी ऊपर चला गया है और जो लगातार बढ़ रहा  है। ओनलाईन डेटिंग साईट्स में अव्वल  टिंडर इंडिया का  दावा है कि उसे    एक दिन में 14 मिलियन स्वाइप्स होते हैं जो कि सितंबर 2015 में 75 लाख तक ही थे।ये डेटिंग एप अपनी प्रकृति में अलग अलग सेवाएँ देने का वायदा करते हैं वैसे भी भारतीय डेटिंग एप यहाँ की परिस्थितयों को बेहतर समझते हैं क्योंकि भारत रिश्तों और सेक्स के मामले में एक बंद समाज रहा है पर अब वो धीरे धीरे खुल रहा है |ट्रूली मैडली जैसे एप यह सुनिश्चित करने की कोशिश करते  हैं कि कोई शादी शुदा  इस एप से न जुड़े वे महिलाओं की सुरक्षा का वायदा करते हैं वहीं टिनडर जैसा अन्तराष्ट्रीय ब्रांड गैर गंभीर सम्बन्धों को बढ़ावा देता है पर भारतीय डेटिंग प्लेटफोर्म शहरी भारतीयों का इस बात का भरोसा देते हैं कि आप गैर गंभीर सम्बन्धों को भविष्य में एक नाम दे सकें और अपने भविष्य के जीवन साथी को सिर्फ तस्वीर देख कर न चुने बल्कि उनके साथ एक गैर प्रगाढ़ सम्बन्ध बनाएं और वक्त के साथ यह फैसला करें कि अमुक व्यक्ति एक जीवन साथी के रूप में आपके लिए बेहतर रहेगा या नहीं ,यहाँ ऐसे डेटिंग एप  ऑनलाइन मैट्रीमोनी साईट्स से एक कदम आगे निकल जाते हैं और एक उदार द्रष्टिकोण का निर्माण करते हैं जो भारतीय पारम्परिक वैवाहिक व्यवस्था से अलग एक विकल्प युवाओं को देते हैं जो जाति,धर्म और समाज से परे विवाह का आधार व्यक्ति की अपनी पसंद बनता है |इन डेटिंग एप की सफलता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ऑनलाइन प्लेटफार्म के अलावा ये विज्ञापनों के लिए पारम्परिक रूप से महंगे माध्यम टीवी का भी इस्तेमाल  कर रहे हैं |
तरह तरह के डेटिंग एप और उनसे जुड़े खतरे
ट्रूली मैडली, वू ,टिनडर,आई क्रश फ्लश और एश्ले मेडिसन जैसे डेटिंग एप भारत में काफी लोकप्रिय हो रहे हैं जिसमें एश्ले मेडिसन जैसे एप किसी भी तरह की मान्यताओं को नहीं मानते हैं आप विवाहित हों या अविवाहित अगर आप ऑनलाईन किसी तरह की सम्बन्ध की तलाश में हैं तो ये एप आपको भुगतान लेकर सम्बन्ध बनाने के लिए प्रेरित करता है हालंकि डेटिंग एप का यह कल्चर अभी मेट्रो और बड़े शहरों  तक सीमित है पर जिस तरह से भारत में स्मार्ट फोन का विस्तार हो रहा है और इंटरनेट हर जगह पहुँच रहा है इनके छोटे शहरों में पहुँचते देर नहीं लगेगी |पर यह डेटिंग संस्कृति भारत में अपने तरह की  कुछ समस्याएं भी लाई है जिसमें सेक्स्युल कल्चर को बढ़ावा देना भी शामिल है |वैश्विक सॉफ्टवेयर एंटी वायरस  कंपनी नॉर्टन बाई सिमेंटेक के अनुसार ऑनलाइन डेटिंग सर्विस एप साइबर अपराधियों का मनपसंद प्लेटफार्म बन चुका है। भारत के लगभग 38 प्रतिशत उपभोक्ताओं ने कहा कि वह ऑनलाइन डेटिंग एप्स का प्रयोग करते हैं। ऐसे व्यक्ति  जो मोबाइल में डेटिंग एप रखते हैउनमें से करीब 64 प्रतिशत  महिलाओं और 57 प्रतिशत  पुरुषों ने सुरक्षा संबंधी परेशानियों का सामना किया है। आपको कोई फॉलो कर रहा हैआप की पहचान चोरी होने के डरके साथ-साथ उत्पीड़ित और कैटफिशिंग के शिकार होने का खतरा बरकरार रहता है।
दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में 16/10/2019 को प्रकाशित 

Monday, October 14, 2019

उसने कहा था



क्यों जाने सब कि तुमने अपने जीवन में  क्या क्या किया
क्या जरूरत है
कविताएं लिखने की और दुनिया को जताने की
मैंने सुना
फिर सोचा
हाँ क्या जरुरत है
सच है
मेरी भावनाएं सम्वेदनाएँ मेरी हैं
वो जिसके लिए हैं
शायद वो तो
समझती होगी
उस विज्ञान की तरह  
जहाँ हर क्रिया की प्रतिक्रिया है
प्रतिक्रिया
वो तो सिर्फ सुनती है
हो सकता है वो न समझती हो
विज्ञान के पास भी
कहाँ है सारे प्रश्नों के जवाब
क्या प्यार की प्रतिक्रिया प्यार ही है ?
तो वो क्यों कहती है
ये प्यार नहीं
महज आकर्षण है
शायद वासना
पर वासना किसी चेहरे का मोहताज नहीं होती
हो सकता है इस सवाल का जवाब भी
उसके पास न हो
पर उसने  कहा था
और हाँ मैंने सुना था
आज भी सुन रहा हूँ
उसे हिंदी बोर करती है
मेरी भावनाएं मेरी हैं
कवितायेँ लिखने से आदमी प्रेमी नहीं होता ......

Wednesday, October 9, 2019

रीजनल लेंग्वेजेज की इंटरनेट से गहरी दोस्ती

इंटरनेट ने सही मायने में भारत को एक ग्लोबल विलेज के रूप में तब्दील कर दिया है.लम्बे समय तक भाषा एक बड़ी समस्या थी अगर आपको अंग्रेजी नहीं आती तो इंटरनेट पर आप सिर्फ तस्वीरें ही देख सकते थे पर स्पीच रिकग्नीशन टूल और यूनीकोड फॉण्ट ने वह समस्या भी दूर कर दी आपको बस अपने कंप्यूटर या स्मार्ट फोन  में कुछ सोफ्टवेयर या एप डाउनलोड करना है और आप इंटरनेट के विशाल सागर में गोते लगाने के लिए तैयार हैं वह भी अपनी भाषा में  .पर इंटरनेट में कुछ क्षेत्र अभी भी ऐसे हैं जहाँ बाजार न होने के कारण उसमें शोध और उन्नयन उस गति से नहीं हुआ जितना अंग्रेजी भाषा के साथ हुआ और यूनिकोड फॉण्ट उनमें से एक ऐसा ही क्षेत्र है .यूनिकोड फॉण्ट ऐसे फॉण्ट होते हैं कि उनमें लिखने पढने के लिए आपको अलग से उस फॉण्ट विशिष्ट को डाउनलोड करने की जरुरत नहीं होती और यह फॉण्ट इंटरनेट को सपोर्ट करते हैं .इंटरनेट में हिन्दी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ  का विस्तार इसी फॉण्ट के ज़रिये लगातार गति पा रहा है पर यूनिकोड फॉण्ट की शैली में शब्दों के भावों को वयक्त करने के लिए जो विशिष्टता और विविधता हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओँ के फॉण्ट में होनी चाहिए हिन्दी के पारम्परिक फॉण्ट  (चांदनी ,कुर्ती देव ,खलनायक आदि ) के मुकाबले में वह नहीं है और इसी कारण हिन्दी की तमाम वेबसाईट प्रस्तुतीकरण में एक जैसी ही  दिखती है  और अगर इसकी तुलना अंग्रेज़ी के फॉण्ट से  की जाए तो हिन्दी के यूनीकोड फॉण्ट कहीं नहीं ठहरते पर तथ्य यह भी है कि हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषाओं ने अंग्रेजी को भारत में इंटरनेट प्रयोगकर्ता भाषा के रूप में पहले ही दूसरे स्थान पर ढकेल दिया  है . गूगल और के पी एम् जी की रिपोर्ट के मुताबिक इंटरनेट पर भारतीय भाषाओँ के साल 2011 में 42 मिलीयन प्रयोगकर्ता थे जो साल 2016 में बढ़कर 234 मिलीयन हो गए हैं और यह सिलसिला लगातार बढ़ ही रहा है पर फॉण्ट की विविधता और वैशिष्ट्य  में अंग्रेजी अभी भी कहीं आगे है.ये फॉण्ट ही हैं जो वेबसाईट्स के कंटेट की द्र्श्यता में विविधता लाते हैं .जो पाठकों से विश्वास का सम्बन्ध बनाते हैं .पाठक उनके फॉण्ट से वेबसाईट का नाम तक पहचान लेते हैं .हिन्दी के ज्यादातर अखबार मुद्रित माध्यम में अपने लिए एक अलग प्रकार का फॉण्ट इस्तेमाल करते हैं पर मुद्रित माध्यम में वे पारम्परिक फॉण्ट का इस्तेमाल करते हैं और यूनिकोड फॉण्ट का छपाई में इस्तेमाल न के बराबर होता है .अंग्रेज़ी के फॉण्ट इस तरह की किसी भी सीमा से मुक्त हैं यानि जो फॉण्ट छपाई में इस्तेमाल होता है वही वेबसाईट या कंप्यूटर में भी इस्तेमाल किया जा सकता है .
लाखों करोडो वेबसाईट में फॉण्ट कंटेंट के प्रस्तुतीकरण के  नजरिये से अहम् भूमिका निभाते हैं .ऐसा ही कुछ अखबारों के साथ भी होता है पर वहां हिन्दी के पारम्परिक फॉण्ट इस्तेमाल किये जाते हैं जिनमें यूनीकोड के मुकाबले ज्यादा विविधता है पर इंटरनेट पर हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओँ की वेबसाईट फॉण्ट के नजरिये से एकरसता लिए हुए दिखती हैं .यूनीकोड फॉण्ट में विविधता की कमी के कारण मीडिया के अन्य माध्यमों जैसे समाचार पत्र ,फिल्म और टेलीविजन में यूनीकोड फॉण्ट का इस्तेमाल न होकर हिन्दी के पारम्परिक फॉण्ट का इस्तेमाल होता है जिनका प्रयोग करना यूनीकोड के मुकाबले कठिन होता है और इसके लिए जिस भाषा का वह फॉण्ट है आपको उस भाषा की पारम्परिक टाइपिंग आनी आवश्यक है जबकि यूनीकोड इस तरह की समस्याओं से परे  है आप जो कुछ भी किसी भारतीय भाषा में कहना चाह रहे हैं आपको उसे बस रोमन में लिखना होता है और वह उस भाषा में अपने आप परिवर्तित हो जाता है पर अब भारतीय भाषाओँ के यूनिकोड फॉण्ट में भी बदलाव दिख रहा है और उसका बड़ा कारण हिन्दी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ  का बढ़ता आधार है  .इंटरनेट पर 55.8 प्रतिशत सामग्री अंग्रेजी में हैजबकि दुनिया की पांच प्रतिशत से भी कम आबादी अंग्रेजी का इस्तेमाल अपनी प्रथम भाषा के रूप में करती है। इसके बरक्स अरबी या हिंदी जैसी भाषाओं मेंजो दुनिया में बड़े पैमाने पर बोली जाती हैंइंटरनेट सामग्री क्रमश: 0.8 और 0.1 प्रतिशत उपलब्ध है। बीते कुछ वर्षों में इंटरनेट और कई सोशल नेटवर्किंग साइट्स जिस तरह लोगों की अभिव्यक्ति व अपेक्षाओं का माध्यम बनकर उभरी हैंवह उल्लेखनीय जरूर है.एक टाईप” ग्रुप  के पंद्रह लोगों की टीम ने भारतीय भाषाओँ के लिए छ: ऐसे यूनिकोड फॉण्ट विकसित किये हैं जो भारत की क्षेत्रीय भाषाओँ को एक ही तरीके से लिखे जा सकते हैं  इस ग्रुप के द्वारा विकसित मुक्ता देवनागरी फॉण्ट प्रधानमंत्री कार्यालय समेत लगभग पैतालीस हजार वेबसाईट के द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा है .इसी का बालू फॉण्ट दस भारतीय भाषाओँ में उपलब्ध है जिनमें मलयालम,कन्नड़ और उड़िया जैसी भाषाएँ शामिल हैं .फॉण्ट संदेश प्रसार में कुछ ऐसा ही काम करते हैं जैसे आवाज का इस्तेमाल बोलने में होता है फॉण्ट शब्द के भावों को पाठकों तक ले जाते हैं और हर भाव के लिए एक ही फॉण्ट संदेश की गुणवत्ता को प्रभावित करता है .आज की पीढी इतना ज्यादा वक्त कम्प्यूटर पर बिता रही है तो पाठन एक अच्छे अनुभव में तब्दील होना चाहिए .
हिन्दी में शुरुवात में यूनिकोड फॉण्ट के लिए मंगल ही एक विकल्प हुआ करता था पर धीरे –धीरे उसका यह एकाधिकार टूटा .एरियल यूनिकोड फॉण्ट के आने से हिन्दी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ के फॉण्ट में एकरसता को विराम मिला है पर एरियल यूनीकोड  विंडोस टेन ऑपरेटिंग सिस्टम पर ही चलेगा और मंगल विंडोस सेवन पर   .गूगल के यूनिकोड में बत्तीस फॉण्ट हैं पर उसकी तकनीकी सीमायें हैं वो क्रोम पर ही काम करेंगे .मैक ऑपरेटिंग सिस्टम का देवनागरी फॉण्ट गूगल को सपोर्ट नहीं करेगा .बड़े संस्थान अपने लिए बाजार में विशेषीकृत यूनिकोड फॉण्ट पैसे देकर विकसित करा सकते हैं पर ऐसे में वो छोटे वेब प्रकाशक पिछड़ जाते हैं जो सीमित संसाधनों में अपनी वेबसाईट चला रहे हैं और उन्हें ओपन सोर्स के मुफ्त फॉण्ट पर निर्भर रहना पड़ता है जो अंग्रेजी के मुकाबले बहुत ही कम हैं .
जिसतरह भारत में इंटरनेट का इस्तेमाल बढ़ रहा था उस गति से हिन्दी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ की वेबसाईट की डिजाइन और प्रस्तुतीकरण में वैविध्य का अभाव दिखता था उम्मीद की जानी चाहिए कि यूनीकोड फॉण्ट के ओपन सोर्स  में शुरू हुआ यह प्रयास जारी रहेगा और हिन्दी समेत अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में भी कंटेंट के साथ फॉण्ट में भी विविधता बढ़ती जायेगी .
दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में 09/10/2019 को प्रकाशित 
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Tuesday, October 1, 2019

वुमेन्स के लिए सेफ नहीं सोशल मीडिया


एक देश के तौर पर भारत महिलाओं के लिए कभी एक सुरक्षित स्थल के रूप में नहीं माना गया है 2017 के ग्लोबल वूमन,पीस एंड सिक्योरिटी इंडेक्स के अनुसार एक सौ तिरपन देशों में भारत का नम्बर इस इंडेक्स में 131 वां रहा है|यह इंडेक्स किसी देश में महिलाओं के न्याय,सुरक्षा और समावेशन जैसे मानकों पर किसी देश की स्थिति के आधार पर उन्हें आंकता हैबढ़ती सूचना तकनीक और महिलाओं के अधिकारों के प्रति बढ़ती जागरूकता से यह माना जाने लगा था कि तकनीक से देश में महिलाओं का जीवन बेहतर होगा पर पुरुष सत्तामक सोच तकनीक के इस रूप को भी प्रभावित कर रही है और  भारत में होती मोबाईल क्रांति महिलाओं का जीवन और दुश्वार कर रही है |आम तौर पर माना जाता है कि तकनीक निरपेक्ष होती है और यह लिंग भेद नहीं करती है पर देश में आंकड़े कुछ और ही कहानी कह रहे हैं भारत दुनिया के सबसे ज्यादा स्पैम काल करने वाले देशों में पहले स्थान पर है पर इस दर्द को पुरुषों के मुकाबले ज्यादा महिलाओं को ही झेलना पड़ रहा है |देश की महिलायें औसत रूप से पुरुषों के मुकाबले अठारह प्रतिशत आवंछित मेसेज और स्पैम कॉल प्राप्त कर रही हैं |
अपनी तरह के दुनिया में पहली बार इस तरह के शोध का दावा करने वाली स्वीडन की कम्पनी ट्रू कॉलर एप जो मुख्यतः लोगों को फोन नम्बर पहचानने में मदद करती है ने यह इसी साल जनवरी से फरवरी महीने में देश के पंद्रह शहरों में यह सर्वे किया है ट्रू कॉलर एप के देश में लगभग पंद्रह करोड़ उपभोक्ता हैं |चुने गए शहरों में पंद्रह  से पैंतीस साल की महिलाओं को इस शोध सर्वे में शामिल किया गया |जिन महिलाओं पर यह सर्वे किया उनमें हर तीन में से एक महिला को अश्लील और अभद्र भाषा के फोन काल या संदेश मिलते हैं और इनकी आवृत्ति बहुत ऊँची है |अठहत्तर प्रतिशत महिलाओं को हर हफ्ते ऐसी फोन काल की गयी जिनकी भाषा अभद्र और अश्लील थी जबकि बयासी प्रतिशत महिलाओं ने माना उन्हें ऐसे वीडियो और फोटो हर हफ्ते मिलते हैं |
फोन और वीडियो भेजने वाले इन लोगों में पचास प्रतिशत एकदम अनजाने लोग होते हैं जबकि ग्यारह प्रतिशत पीछा करने वाले होते हैं जो किसी तरह उन महिलाओं और लड़कियों के नंबर तक अपनी पहुँच बना लेते हैं |ऐसी कई ख़बरों से देश पहले से ही दो चार हो चुका है जहाँ लड़कियों ने फोन नंबर बेचे जाने की घटनाएँ प्रकाश में आईं हैं |उत्तर प्रदेश में इस तरह की घटनाएँ रोकने के लिए 1090 वूमेन पावर लाइन जैसी हेल्पलाईन जरुर शुरू की है पर तथ्य यह भी है कि अश्लील और अभद्र भाषा के कॉल और संदेशों वाली स्थिति से देश की ज्यादातर लड़कियों को झेलना ही पड़ता है और पुलिस में इनकी रिपोर्ट पानी सर के ऊपर से जाने पर ही होती है |इस शोध में यह तथ्य भी सामने आया है कि इस तरह की घटनाए होने पर सबसे पहला काम कोई महिला या लडकी उस नंबर या सोशल मीडिया एकाउंट को ब्लॉक करने का करती हैं या इस तरह के किसी एप का इस्तेमाल करती हैं जिनसे इस तरह के  कॉलर से मुक्ति मिले |मात्र दस प्रतिशत महिलायें इस तरह की घटनाओं  की रिपोर्ट पुलिस को करती हैं |ऐसी  स्थिति अश्लील और अभद्र फोन करने वालों की हिम्मत को बढाती हैं |उन्हें पता होता है कि अमूमन उनके ऊपर कोई कार्यवाही नहीं होंगी और कार्यवाही के पहले स्तर में मात्र चेतावनी ही दी जाती है |सोशल मीडिया पर भी भारत की महिलाओं की उपस्थिति  भी बहुत अच्छी नहीं है यूके कंसल्टेंसी फार्म वी आर सोशल की एक रिपोर्ट के अनुसार सारी दुनिया में सोशल मीडिया में महिलाओं की  उपस्थिति पुरुषों के मुकाबले ज्यादा है पर फेसबुक जिसके भारत में सबसे ज्यादा प्रयोगकर्ता हैं मात्र चौबीस प्रतिशत महिलायें वहीं छियत्तर प्रतिशत पुरुष हैं |इस मामले में भारत की स्थिति अपने  पड़ोसियों पाकिस्तान और बांग्लादेश  से ही बेहतर है और यह असंतुलन हर उम्र वर्ग में है जो तेरह से लेकर पैंसठ वर्ष की आयु तक है | सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर भी महिलायें सुरक्षित महसूस नहीं करती हैं जहाँ पुरुषों के मुकाबले  महिलायें ज्यादा ट्रोल की जाती हैं पिछले साल क्रिकेटर मिताली राज ,अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा ,सोनम कपूर और तापसी पुन्नू को ट्रोल किया गया |ये वो महिलायें हैं जिन्होंने अपनी मेहनत और प्रतिभा के बूते सारी दुनिया में अपनी पहचान बनाई है फिर भी इनके कपड़ों और व्यकतिगत जीवन को लेकर इन्हें ट्रोल किया गया |जब समाज की इन नामचीन महिलाओं की ऐसी स्थिति है तो देश की आम  महिलाओं की सोशल मीडिया में क्या स्थिति होगी |तथ्य यह भी है कि आम पुरुषों के  मुकाबले महिलायें सोशल मीडिया पर उतनी स्वछन्द स्थिति का लुत्फ़ नहीं उठा सकतीं और अक्सर इस की कीमत अश्लीन संदेशों और फोटो के रूप में चुकानी पड़ती है |
उधर लड़कियां और महिलायें समाज के पितृ सत्तामक ढाँचे के कारण इसलिए चुप रहती हैं क्योंकि इस तरह की घटनाओं का दोष उनके ही सर मढ दिया जाएगा |कार्यवाही करने के केंद्र हमारे पुलिस थाने बिलकुल भी लिंग संवेदनशील नहीं है |जहाँ कोई भी महिला या लडकी अपने साथ हो रहे इस तरह के बर्ताव के लिए खुले मन से मदद मांग सके |इस तरह की स्थितियां कुल मिलाकर एक ऐसे दुष्चक्र का निर्माण करते हैं जिसमें पिसना इस देश की महिलाओं और लड़कियों की नियति बन जाता है |2018 के अंत तक साठ प्रतिशत भारतीयों के पास स्मार्ट फोन आ जायेगा यानि आने वाले वक्त में यह समस्या और बढ़ेगी अगर  तब तक कोई कारगर कदम नहीं उठाया जाएगा तो देश की लड़कियों और महिलाओं के लिए अभी स्मार्ट फोन का इस्तेमाल उतना सुहाना नहीं रहने वाला है जितना कि एक पुरुष के लिए  है |
दैनिक जागरण /आई नेक्स्ट में 01/10/2019 में प्रकाशित 


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