Friday, December 27, 2013

Change is the only constant thing

आई नेक्स्ट सात साल का हो गया,ये एक सपने के हकीकत बनने की कहानी थी एक ऐसा न्यूज़ पेपर जो नए ज़माने की सोच को सामने लाये,जिसकी कोई लिमिटेशन न हो जैसे आज का यूथ जो सपने देखता है और उनको पूरा करने का हौसला भी, तो उन्हीं की भाषा में उन्हीं के जैसा, जब अखबार की शुरुवात हुई तो तो देश वर्चुअल दुनिया के स्पेस में उड़ान भरने की तैयारी कर रहा था बस फिर क्या जैसे जैसे हम बदले हमारा आई नेक्स्ट भी बदलता गया.प्रिंट से वेब फिर न्यूज़ पोर्टल और सोशल नेटवर्किंग की दुनिया में इसने पैर पसारे. जरा सोचिये न हमारी दुनिया भी तो ऐसे ही बदल रही थी.हम लोगों से ग्लोबली कनेक्टेड हो रहे थे टैगिंग से होने वाली दोस्ती कैसे रीयल हैंग आउट में बदलने लग गयी| वर्चुअल रीयल होने लगा. आईनेक्स्ट की नजर हर चेंज पर थी चाहे वो चैट की बत्तियों से हरे लाल होते रीलेशन हों या सोशल नेटवर्किंग एक्टिविज्म का दौर, फीमेल्स की सक्सेस स्टोरीज हो या ग्लोबल का लोकल होना.ये सही मायने में बदलाव का अखबार बना जैसा की भारत में हर नयी चीज के साथ होता है शुरुवात में लोगों ने थोड़ी हिचक जरुर दिखाई लेकिन जब एक बार लोगों ने पढ़ना शुरू किया तो इसकी सर्कुलेशन लगातार बढ़ती गयी.वो कहते हैं न थिंक हट के बड़ा फर्क हमारा नजरिया डालता है क्यूंकि निगेटिव निगेटिव मिलकर पॉजिटिव हो जाता है तो “आई शेयर” आप जैसे रीडर्स के कारण “वी शेयर” बन गया लालच करना बुरी बात हो सकती है पर आज का यूथ ज्यादा का इरादा करता है और उसे पूरा करके भी दिखाता है तो ऐसे लालच को क्या आप बुरा कहेंगे.नशा करना बुरी बात होती है पर अगर नशा नेम और फेम का है तो प्रोब्लम क्या है. वैसे कोई भी चेंज मलटी  डाइमेन्शनल होता है कितना तेज सबकुछ बदल रहा है त्योहारों में अगर मिठाई की जगह चौकलेट आ रही हैं तो परवाह किसे है मिठाई की अपनी जगह चौकलेट की अपनी.आज की फास्ट लाईफ में मुंह मीठा करने के लिए हम वेट क्यूँ करें बस रैपर खोलें और खा लें.जब फुर्सत से होंगें तो मिठाइयाँ भी चख लेंगे.मस्ती की पाठशाला सिर्फ स्कुल में ही क्यूँ, घर में क्यूँ नहीं बिलकुल होनी चाहिए क्यूंकि हम हैं नए तो फिर अंदाज़ क्यूँ हो पुराना.
आज की जेनरेशन सवालों के जवाब चाहती है वो भी लौजिकल,त्यौहार मनाने का हम साल भर क्यूँ इन्तजार करें.हमारा हर दिन दसहरा और रात दीपावली हो सकती है पर कैसे अरे जनाब बस एटीट्यूड पोसिटिव होना चाहिए और यही तो “आईनेक्स्ट” भी कहता है बिलीव इन योरसेल्फ ये है निगेटिव का पॉजिटिव इफेक्ट,हार्ड न्यूज़ बहुत से अखबार दे रहे हैं पर आईनेक्स्ट इससे एक कदम आगे निकला उसने लोगों को मोटीवेट किया.जिन्दगी में अगर प्रोब्लम न हो तो लाईफ का सस्पेंस खत्म हो जाएगा, फिर क्या लेट्स फेस इट यार. एक छोटा सा अखबार आज तेरह एडिशन और  पांच स्टेट में अपनी प्रेसेंस को लगातार बड़ा बना रहा है.इसमें कोई शक नहीं रीडर्स के अफेक्शन और सपोर्ट के बिना ये पोसिबल नहीं हो सकता.आई नेक्स्ट के सपने की ये कहानी भले ही आपको सपने जैसी लगे लेकिन भरोसा रखिये   इस दुनिया में जो कुछ बेहतर हो रहा है उसके पीछे किसी न किसी का सपना जरूर है अगर हमने हवा में उड़ने का सपना न देखा होता तो शायद आज हम एयरोप्लेन  की जर्नी  को  एन्जॉय नहीं कर रहे होते . ह्यूमन सिविलाइजेशन  का डेवेलपमेंट  इसी सपने का ही परिणाम है जो हमारे पूर्वजों ने देखा इसलिए सपने देखिये लेकिन ध्यान रहे सिर्फ़ सपने देखने से कुछ भी न होगा उन सपनों को हकीकत में बदलने की कोशिश कीजिये, और अगर किसी कारण से आपका सपना हकीकत न भी बन पाए तो उस सुंदर सपने को आने वाली पीढीयों के लिए छोड़ जाइये सपने सिर्फ़ हमारे  हैं जिन्हें हम से कोई नहीं छीन सकता है तो सपने देखना मत छोडिये अगर एक सपना पूरा हो तो दूसरा सपना देखिये. हम आज अगर बढे हैं तो कहीं न कहीं उसमे हमारे और आपके सपनों का योगदान जरूर है. जिन्दगी में हमें जो मिला है या तो उससे संतुष्ट हो जाएँ या जिन्दगी को बेहतर बनांने की कोशिश करते रहें क्योंकि जिन्दगी रुकती तो नहीं किसी के लिए. आईनेक्स्ट चल भी रहा है और लगातार बदल भी रहा है.बढ़ने और बदलने के इस सिलसिले में हम लगातार आपके करीब आ रहे हैं आपसे संवाद स्थापित कर रहे हैं आपकी राय हमारे लिए अनमोल हैं तो हमें एस एम् एस, ई मेल या सोशल नेटवर्किंग जैसे किसी भी मीडियम से बताते रहिये कि आप क्या चाहते हैं तभी बढ़ने और बदलने का मजा भी है सफलता तभी मजा देती है जब आपके पास कोई बांटने वाला हो,हम खुशनसीब हैं की हमारे पास आप जैसे रीडर्स हैं तो हम भी आपको भरोसा देते हैं की बढ़ने और बदलने का ये सिलसिला आगे भी चलता रहेगा|
आई नेक्स्ट में 27/12/13 को प्रकाशित

Saturday, December 21, 2013

पर्यावरण की अनदेखी से न हो पर्यटन विकास

पिछले  कुछ वर्षों में देश में  होटलों की मांग में तेज़ी से वृद्धि हुई है। पर्यटन उद्योग का निरंतर विकास एवं विदेशी मुल्कों के साथ तेज़ी से बढ़ता व्यापार इस बढ़ती मांग के प्रमुख कारक हैं। एचवीएस हॉस्पिटेलिटी कंसल्टेंसी के मुताबिक अगले पांच साल में भारतीय होटलों में कमरों की संख्या 143 फीसदी बढ़ जाएगी और डेढ़ लाख कमरे बढ़ जायेंगेइसका अर्थ यह है कि पर्यटकों की बढ़ती संख्या का दबाव हमारे प्राकृतिक  संसाधनों पर और बढेगा तथ्य यह भी है कि पर्यटकों कि बढ़ती संख्या हमारे देश में रोजगार के नए अवसर पैदा करेगीसकल घरेलू उत्पाद में इजाफा होगा और बहुमूल्य विदेशी मुद्रा अर्जित होगी लेकिन  यदि बढ़ते पर्यटन से जुड़े पर्यावरणीय मुद्दों की अनदेखी की गयी तो इसके घातक  परिणाम हो सकते हैं। विकसित देशों ने पर्यटन से जुड़े पर्यावरणीय मुद्दों को गंभीरता से लिया  है। भारत जैसे देश में जहां पहले से ही पर्यावरण से जुड़े मुद्दों के प्रति संवेदनशीलता काफी कम हैवहां स्थिति ज्यादा खतरनाक हो सकती है । बढ़ते पर्यटन के साथ ही आवश्यकता होगी अधिक ऊर्जाअधिक पानीपर्याप्त  सफाई व्यवस्था और  बेहतर कूड़ा  प्रबंधन की और साथ ही यह समझने कि यदि इन मुद्दों पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया तो आगे चलकर यह पर्यटन व्यवसाय के लिए हानिकारक सिद्ध होगा। भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय ने नए बनने वाले एवं पहले से ही चालू होटलों के लिए कुछ दिशा-निर्देश बनाए हैं जिसमें  सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट,वॉटर हार्वेस्टिंग सिस्टमवेस्ट मैनेजमेंट सिस्टमजैसे  ईको-फ्रेंडली उपायों को अपनाना अपेक्षित है।  होटेलों के विभिन्न सितारा श्रेणियों में वर्गीकरण के समय यह उनके द्वारा अपनाए गए ईको-फ्रेंडली उपायों जैसे प्रदूषण नियंत्रणवातानुकूलन एवं रेफ्रीज़रैशन के लिए नॉन-सीएफसी उपकरणों का प्रयोगऊर्जा एवं जल संरक्षण आदि के लिए किए जाने वाले उपायों को भी ध्यान में रखा जाता है। भारतीय पर्यावरण मंत्रालय की वर्ष 2012-13 में प्रकाशित वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार सतत पर्यटन के मानदंड तैयार कर लिए गए हैं और इन्हें जल्दी से जल्दी लागू करने की कोशिश की जा रही है। एक बार इनके लागू हो जाने के बाद पर्यटन एवं आतिथ्य व्यवसाय से जुड़े सभी संगठनों के लिए इसे अपनाना अनिवार्य हो जाएगा।
सतत पर्यटन का विकास आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है लेकिन  यह विकास पर्यावरण की कीमत पर नहीं होना चाहिए । विकसित देशों में इस ओर काफी ध्यान दिया जा रहा है पर भारत में स्थिति चिंताजनक है। हम नए पर्यटन क्षेत्रों का विकास नहीं कर पा रहे हैं और पुराने पर्यटन क्षेत्र पर जरुरत से ज्यादा बोझ पड़ रहा है जिससे उनका पारिस्थितिकी संतुलन बिगड़ रहा है|उत्तराखंड में आयी तबाही एक ऐसी ही चेतावनी थी,जिसमें नदियों के जलमार्ग को ध्यान में रखे बगैर होटल बना लिए गए थे|होटल व्यवसाय पर्यटन उद्योग की रीढ़ हैं पर इनको अपनी सामजिक जिम्मेदारियों को भी समझना होगा|अंधाधुंध मुनाफाखोरी जहाँ पर्यटन उद्योग को क्षति पहुंचाएगी वहीं क्षेत्रीय पारिस्थितिकी तंत्र भी प्रभावित होगा जिसकी कीमत सबको चुकानी पड़ेगी  आवश्यकता इस बात की है कि अंधाधुंध मुनाफाखोरी केन्द्रित पर्यटन  विकास की जगह सतत पर्यटन विकास को ध्यान में रखते हुए नियम बनाए जाएँ और उन्हें सख्ती से लागू किया  जाए |
हिंदुस्तान में 21/12/13 को प्रकाशित 

Thursday, December 19, 2013

गरीब मास्टर की डायरी के कुछ पुराने पन्ने

 यादें भी अजीब होती हैं अब एल्बम का जमाना तो रहा नहीं पर पुराने स्टेटस देखना पुरानी यादों में जीना जैसा होता चार साल हुए इस वर्चुअल दुनिया को अपना हिस्सा बनाये हुए हम तो वहीं रहे पर कितने लोग आये और चले गए कमेन्ट ,लाईक और टैगिंग की सौगात देकर खोट मुझमें था या उनकी मजबूरियां कहना मुश्किल है सिलसिला जारी है पर मास्टर तो ठहरा मास्टर ज्ञान दे देता है लेना मुश्किल होता है| इस लेन देन के गुणा भाग में जिंदगी की रेखा गणित कब बीज गणित में तब्दील हो जाती है किसी को पता नहीं चलता |
(गरीब मास्टर की डायरी का पहला पन्ना ) 
"खड़िया" हाँ वो ही पहला शब्द था जिससे पहली बार जिंदगी ने कुछ सीखना शुरू किया था , "खड़िया" से शुरू हुआ सफर वर्चुअल दुनिया के की बोर्ड तक आ पहुंचा है पर वो खड़िया ही है जिसे मन आज तक नहीं भूला है जिंदगी की आपा धापी में बहुत कुछ भूला बहुत कुछ सीखा पर "खड़िया" का वो पहला पाठ जब आड़ी तिरछी रेखाओं से कुछ सीखने की शुरुवात की थी,आज भी मन को रोमांचित करती है |दुनिया कितनी भी बदल जाए "खड़िया" तुम मत बदलना क्योंकि जिंदगी की स्लेट तुम्हारे बिना खाली ही रहेगी |तुम सुन तो रही हो न......
(गरीब मास्टर की डायरी का दूसरा पन्ना )
ये आज तुम्हारे हैं पर हमेशा नहीं रहेंगे,गीता का ज्ञान है पर मुझे तो इनका होना पड़ता है बगैर किसी कारण भले ही ये मेरे कभी नहीं हो पाते,इस होने और न होने के बीच कट जाती है जिंदगी एक मास्टर की, और उनको पता भी नहीं पड़ता कि कभी कोई उनका हो जाता है |ये तो अपनी सुविधा से आपके होते हैं कोर्स खत्म रिश्ता खत्म हाँ आप भले ही यादों के सागर में कितने ही गोते लगाएं पर हासिल महज यादें ही होंगी वो तो चले जाते हैं आगे बढ़ने और मास्टर तो बेचारा मास्टर |
(गरीब मास्टर की डायरी का तीसरा पन्ना )
कैमरे की स्लो शटर स्पीड में आप गति को पकड़ सकते हैं पर जिंदगी की दौड में स्लो शटर स्पीड का कॉन्सेप्ट नहीं होता जिससे हम अपनी गलतियों की बारीकियों को जान पाते जो बीत जाता है वो बीत ही जाता है| सिर्फ जीतने की बातें करने से आप जीत नहीं सकते उसके लिए बहुत कुछ दांव पर लगाना पड़ता है |जब दांव भी आप अपनी मर्जी से लगाएंगे तो मुंह की खायेंगे, कुछ पाने के लिए प्राथमिकताएं तय करनी ही पड़ती हैं |
(प्राथमिकताओं की उधेड़ बुन में उलझे गरीब मास्टर की डायरी का चौथा पन्ना ) 
 हर साल चेहरे बदलते हैं किरदार नहीं क्लास का इतिहास बदलता है भूगोल नहीं, एक शिक्षक अपने विषय के अलावा कितना कुछ पढ़ रहा होता है ,क्लास में बनते बिगड़ते ग्रुप का अंकगणित कब समाजशास्त्र के बीजगणित में तब्दील हो जाता है और इससे शुरू हुआ राजनीति विज्ञान का सफर ना जाने कितनी लकीरें छोड़ जाता है ,उसका पता किसी को नहीं चलता|
(समाजशात्र की गणित में उलझे उस गरीब मास्टर की डायरी का पांचवां पन्ना, )
हर साल सेमेस्टर की परीक्षाओं के बीच कितना कुछ बदल जाता है दिसंबर के सेमेस्टर से जो संबंधों में गर्माहट आनी शुरू होती है वो गर्मी की परीक्षाओं तक पिघल चुकी होती है,वो अभी जाड़े को विदा भी नहीं कर पाया होता है कि गर्मी तपाने लगती है उसे तो यादों को सहेजने का मौका भी नहीं मिलता ,और उधर छात्रों को तो ज्ञान मिल चुका होता है पर मास्टर....... अपने ज्ञान के बोझ को ढोते हुए कब छात्रों के सामने सबसे बड़ा अज्ञानी साबित हो जाता इसकी गवाह छात्रों के बीच हुई कानाफूसी बनती हैं|
(जानते.. समझते... हुए अज्ञानी बनने का नाटक करते हुए भी ज्ञान बांटने का ढोंग करते गरीब मास्टर की डायरी का छठा पन्ना)
गर्मियों की छुट्टियों का आना और उनका चले जाना,परीक्षा हाल में छूटे नोट्स के साथ कहकहे लगाते छात्र मानो अपने संस्थान के साथ कपाल क्रिया (अंतिम संस्कार में की जाने वाली क्रिया जिससे मृतक अपने जन्म की यादों को भूल जाए )कर के जा रहे हों| कितने चेहरे घूम जाते हैं आँखों के सामने, अज्ञानी बनने की कोशिश करते सयाने ,सयाने बनने की कोशिश करते अज्ञानी|कौन कितना आगे जाएगा ये समय बताएगा | वे घर जायेंगे और धीरे धीरे सब कुछ भूल जायेंगे पर मास्टर को तो फिर आना है उन्हीं जगहों पर नयी कहानी लिखने| 
(छूटे हुए नोट्स और कहकहों के बीच क्या खोया क्या पाया, का हिसाब लगते गरीब मास्टर की डायरी का सातवां पन्ना ) 
 मैं ये करना चाहता हूँ, मैं वो करना चाहता ,हूँ पर करना क्या है? ये पता नहीं सच बोल देना कडुआ हो जाएगा और झूट बोलेंगे तो मीठी गोली देने की आदत है, क्योंकि जो कहा गया था वो हुआ नहीं |तुमने तो कह दिया ....पर मास्टर तो आज तक उन बातों को दिल से लगाए बैठा है कि गलती किसकी रही तुम जो कभी समझ नहीं पाए या उस मास्टर की जो समझा नहीं पाया |
(क्या सच है क्या झूठ उलझनों की सुलझन में उलझे गरीब मास्टर की डायरी की आठवां पन्ना )
एक मास्टर का जीवन बहुत छोटा होता है हर बैच के साथ वो जीता है और उसी के साथ खत्म होता है फिर नया बैच नया जीवन पर बच्चे बड़े नहीं होते वो तो हर बैच में बच्चे ही रहते हैं कुछ सेंटी ,कुछ चुप्पे, कुछ घुटे हुए ,कुछ तपे हुए ,कुछ निर्लिप्त पर मास्टर तो सबके लिए एक जैसा ही होता है तो सबक जो वो खुद नहीं सीख पाता है उसको सिखाने की कोशिश करता हुआ | "जाने वाले पे ना ऐतबार कर आने वाले का तू इंतज़ार कर, आज का ये दिन कल बन जाएगा कल पीछे मुड के न देख प्यारे आगे चल" 
(आने जाने के फेर में ऐतबार और इन्तजार के बीच में झूलते गरीब मास्टर की डायरी का नवां पन्ना )
मास्टर छात्रों की जिंदगी में अपनी मर्जी सी आता है पर जाने का फैसला उसके हाथ में नहीं,उनके हाथ में होता है, इस मामले में ये सभी बड़े निष्ठुर होते हैं |सर आप कितना अच्छा पढाते हैं, ये वाक्य हर बैच के साथ बदलता है पर नहीं बदलता तो उनका रवैया जिनको लगता है कि वो कितने समझदार हैं,  लेकिन मास्टर का आंकलन उसके दिए हुए ज्ञान से नहीं बल्कि छात्रों के बनाये गए बहानों को सच मानने से होता है |
(छात्रों के झूठ को जिंदगी का सच मान बैठे गरीब मास्टर की डायरी का दसवां पन्ना,जनता की बेहद मांग पर )
इसे मेरे ब्लॉग पर भी पढ़ सकते हैं

Tuesday, December 10, 2013

खामोशियाँ मुस्कुराने लगीं

आपने कभी सन्नाटे की आवाज सुनी है क्या ? सुनी तो जरुर होगी पर समझ नहीं पाए होंगे यूँ तो एक्सेस किसी भी चीज की बुरी होती है पर  लोग बिना बोले बहुत कुछ कह जाते हैं और कुछ लोग दिन भर बोलने के बाद भी मतलब का कुछ भी कम्युनिकेट नहीं कर पाते.वो गाना तो आपने भी सुना होगा न बोले तुम न मैंने कुछ कहा,तो भैया ये तो सिद्ध हुआ कि बगैर बोले भी बहुत कुछ कहा जा सकता है मगर कैसे ? बोलने का काम हमारी जबान ही नहीं करती बल्कि आँखों से लेकर पैर तक हमारे सभी अंग बोलते हैं तो कम्युनिकेशन में बॉडी लेंग्वेज का भी बड़ा इम्पोर्टेंट रोल है.दुनिया के बहुत से अभिनेताओं की खासियत यही रही है कि वे अपनी आँखों से बहुत कुछ कह देते हैं. प्रख्यात अभिनेता चार्ली चैपलिन ·को ही  लें, जिन्होंने अपनी मूक  फिल्मों ·के माध्यम से सालों तक  लोगों का मनोरंजन किया. उनकी  फिल्में देखते वक्त आपको  ·किसी संवाद ·की  आवयश्·ता ही महसूस नहीं होती. हमारी हिन्दी फिल्में भी अपने शुरुआती दौर में मू·क ही थीं लेकिन  उस दौर में भी उन्होंने लोगों ·का  खूब मनोरंजन ·किया और सराही गईं.
कई बार ज्यादा बोलने से शब्द अपना अर्थ खो देते हैं अरे अब आई लव यु को ही लीजिये फिल्मों में इस शब्द का इतना इस्तेमाल हुआ की अब मैं रील लाईफ या रीयल लाएफ़ में ये शब्द सुनता हूँ तो बस बेसाख्ता हंसी आ जाती है.प्यार एक फीलिंग है उसे एक शब्द में बाँधा या समेटा नहीं जा सकता वैसे फीलिंग से याद आया फीलिंग भी आजकल बिजली के बल्ब जैसी हो गयी है अचानक आती है और अचानक चली जाती है.जानते हैं ऐसा क्यूँ होता.चलिए मैं समझाता हूँ आपको,हम कुछ भी कहते हैं तो उससे पहले सोचते हैं ये बात अलग है की ये प्रोसेस इतना जल्दी होता है की हमें पता ही नहीं पड़ता की जो कुछ हम फटाफट बोले जा रहे हैं वो पहले हमारा दिमाग सोच रहा है उस सोच को शब्दों का लबादा ओढ़ा कर जब हम फीलिंग के साथ एक्सप्रेस करते हैं तो सुनने वाले पर असर होता है.लेकिन ये जरुरी भी नहीं की हर फीलिंग को एक्सप्रेस करने के लिए आपके पास शब्द हों ही तब क्या किया जाए जैसे खीज या फ्रस्टेशन.आप गुस्सा हैं तो चीख चिलाकर आप अपना गुस्सा निकाल सकते  हैं लेकिन  आप खीजे हुए हैं तो क्या बोलेंगे और जो कुछ भी बोलेंगे उसका मतलब सामने वाला समझेगा भी कि  नहीं,क्या पता और तब काम आता है मौन,मौन यानि साइलेंस.चुप्पी या सन्नाटा हमेशा कायरता की निशानी नहीं होती है.ये तो भावनाओं की भाषा होती है जो आप शब्दों से नहीं बोल सकते वो आप अपने मौन से बोल सकते हैं. पर हमें बोलने से कहाँ फुरसत बस बोले जा रहे हैं.सोशल नेटवर्किंग साईट्स ने हमें अपनी बात रखने का मंच दिया है पर क्या जरुरी है की  हम हर मुद्दे पर अपनी राय दें.मैं तुमसे प्यार करता हूँ ,मैं तुमसे गुस्सा हूँ ,मैं तुमसे खुश हूँ इतना काहे को बोलना कुछ सामने वाले को समझने भी दीजिये.एक्सप्रेशन जरुरी है पर उसके लिए हमेशा शब्दों पर निर्भर मत रहिये वैसे भी पर्सनाल्टी डेवेलपमेंट के इस युग में हमें बोलना जरुर सीखाया जाता है पर चुप रहना नहीं वैसे भी जब मौन बोलता है तो उसकी आवाज भले ही देर में सुनायी दे पर बहुत दूर तक सुनायी देती है.हम अपनी लाइफ से जब बोर हो जाते हैं, अपने आस पास के शोर शराबे से दूर भागने ·का मन करता है, ·किसी  से भी बात नहीं ·करना चाहते. तो क्या आपने ऐसे समय में ·भी खुद ·को  एकांत  में रखा है। अगर ऐसे समय में हम ·कहीं  बिलकुल  शांत जगह पर बैठ जायें तो हम बिना ·कुछ  कहे सुने खुद से ही बातें क·रने लगते हैं और फिर अपने आप ही हमें हमारी समस्याओं का समाधान सूझने लगता है.प्यार मुहब्बत के किस्सों में तो खामोशी से प्यार पैदा होने की बातें अक्सर होती रहती हैं.घर में आपका डौगी हो या कोई दूसरा जानवर कितनी जल्दी आपकी बॉडी लैंग्वेज से समझ जाता है कि आप खुश हैं या उदास.यानि एक  बात साफ है कि हम बगैर बोले अपनी फीलिंग्स को एक्सप्रेशन दे सकते हैं  और ऐसे एक्सप्रेशन बहुत ख़ास होते हैं. रिश्तों ·की  गर्माहट तो खामोशियों ·के  दौरान होने वाले कम्युनिकेशन से समझी जा सकती हैं.किसी ने क्या खूब कहा  कि खामोशियां मुस्कुराने लगी .... तन्हाईयां गुनगुनानी लगीं..
आईनेक्स्ट में 10/12/13 को प्रकाशित 

Monday, December 2, 2013

अंगदान की परम्परा शुरू करने की जरुरत


दुनिया की बड़ी आबादी वाले देशों में से एक भारत में में प्रतिवर्ष लगभग 5,00,000लोग वक़्त पर अंग न मिल पाने के कारण मौत का शिकार हो  जाते हैं।इन सारे लोगों को बचाया जा सकता था यदि भारत में स्वैच्छिक रूप से लोग अंगदान करते|ज्यादातर उन्हीं लोगों को समय रहते अंग मिल पाते हैं जो आर्थिक  रूप से संपन्न होते हैं|आर्थिक सम्पन्नता के इसी आधार के कारण मानव अंगों के अवैध कारोबार को बढ़ावा मिलता है| एक व्यक्ति द्वारा किये गए अंगदान से सामान्य रूप में  लगभग सात व्यक्तियों को जीवनदान मिल सकता है।अंगदान में एक बड़ी समस्या अस्पतालों द्वारा समय से रोगी को मष्तिस्क मृत (ब्रेन डेड ) घोषित न कर पाना भी है जिससे मृतक व्यक्ति के अंग खराब होने लगते हैं| वर्ष 1994 में सरकार ने ‘मानवीय इंद्रियों के प्रत्यारोपण के लिए अधिनियम, 1994’ कानून बनाया ताकि विभिन्न किस्म के अंगदान और प्रत्यारोपण गतिविधियों को सुचारु रूप दिया जा सके। चिकित्सकीय कार्यों के लिए मानवीय इंद्रियों को निकालने, उनका भंडारण करने और उनके प्रत्यारोपण को नियमित करने के अलावा इस कानून का मकसद था कि इंद्रियों के व्यावसायिक लेन-देन को रोका जा सके, ब्रेनडेड को स्वीकार किया जाए और इन मरीजों को संभावित इंद्रियदाताओं के तौर पर प्रयुक्त किया जाए। ध्यान रहे कि प्रस्तुत अधिनियम ने पहली दफा ब्रेनडेड की अवधारणा को कानूनी जामा पहनाया। यह कानून अन्य देशों में प्रयोग में लाये जाने वाले क़ानूनों से कुछ अधिक कठोर है। किसी भी व्यक्ति को ब्रेन-डेड घोषित करने एवं उसके अंगों के प्रत्यारोपण का कार्य केवल चंद अधिकृत अस्पताल ही कर सकते हैं। किसी को ब्रेन-डेड घोषित करने के लिए कम से कम चार डॉक्टरों सहमति होनी आवश्यक है। साथ ही यह परीक्षण 6 घंटों के अंतराल पर करना होता है और समय के जरा सा भी अधिक हो जाने पर अंगदान मुश्किल हो जाता है। अन्य कई देशों में किसी को भी ब्रेन-डेड घोषित करने के लिए केवल दो डॉक्टरों की सहमति चाहिए होती है और दो परीक्षणों के मध्य कोई निश्चित अंतराल रखना भी आवश्यक नहीं है। 1994 में बने इस अधिनियम की कुछ खामियों को मानव अंग प्रत्यारोपण (संसोंधन) अधिनियम, 2011 में दूर करने की कोशिश की गयी है। इस अधिनियम के अंतर्गत नेशनल ऑर्गन एवं टिशू ट्रांसप्लांट ऑर्गनाइजेशन (एन ओ टी टी ओ) की स्थापना की गयी। इसका मुख्य कार्य होगा देश भर में अंगदान से जुड़ी विभिन्न प्रक्रियाओं एवं गतिविधियों पर नजर  रखना। भारत में प्रति दस लाख  व्यक्ति अंगदान करने वालों की संख्या सिर्फ 0.8 है। यह संख्या विश्व के नया देशों की तुलना में नगण्य है। भारत में इस संख्या के कम होने के पीछे कई कारण हैं जैसे सही जानकारी का अभाव, धार्मिक मान्यताएँ, सांस्कृतिक भ्रांतियाँ और पूर्वाग्रह। विकसित देशों जैसे अमेरिका, ब्रिटेन, नीदरलैंड्स और जर्मनी में यह संख्या औसतन 10 से 30 के बीच है। स्पेन में प्रति दस लाख लोगों में 35.1 अंगदान करते हैं। इसका प्रमुख कारण है की स्पेन, बेल्जियम, सिंगापुर और कुछ अन्य देशों में अंगदान ऐच्छिक  न होकर अनिवार्य है। हालांकि भारत में ऐसा कर पाना फ़िलहाल  संभव नहीं है परंतु उचित जानकारी एवं  जागरूकता पैदा कर इस संख्या को बढ़ाया जा सकता है। हर साल देश में  50,000हजार हार्ट ट्रांसप्लांट , 2,00,000 लीवर ट्रांसप्लांट 30,000 बोन मैरो ट्रांसप्लांट एवं 15,00,00 किडनी ट्रांसप्लांट की जरूरत होती है लेकिन इसका लाभ  दो  प्रतिशत मरीजों को भी नहीं मिल पाता  है |
हिंदुस्तान में 2/12/13 को प्रकाशित 

Thursday, November 28, 2013

बढ़ते ई कचरे से निपटने की चुनौती

सूचना क्रांति के इस युग में इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के बिना जीवन की कल्पना करना भी मुश्किल है। मोबाइल,कम्प्युटर, लैपटॉप, टैबलेट, आदि अब आधुनिक मनुष्य के जीवन का अभिन्न अंग बन गए हैं। पर इन आधुनिक उपकरणों के साथ ई-कचरे के रूप में एक बड़ी समस्या भी हमारे सामने आ खड़ी हुई है। ई-कचरे के अंतर्गत वे सभी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण आते हैं जिनकी उपयोगिता समाप्त हो चुकी है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, भारत सरकार, के अनुसार ई-कचरे से तात्पर्य उन सभी इलैक्ट्रिकल और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, पूर्ण अथवा टुकड़ों मेंतथा उनके उत्पादन और मरम्मत के दौरान निकले उन पदार्थों से, जो कि अनुपयोगी हैं, से है। विगत कुछ वर्षों में ई-कचरे की मात्रा में लगातार तीव्र वृद्धि हो रही है और प्रतिवर्ष लगभग 20 से 50 मीट्रिक टन ई-कचरा विश्व भर फेंका जा रहा है। ग्रीनपीस संस्था के अनुसार ई-कचरा विश्व भर में उत्पन्न होने वाले ठोस कचरे का लगभग पाँच प्रतिशत है। साथ ही विभिन्न प्रकार के ठोस कचरे में सबसे तेज़ वृद्धि दर ई-कचरे में ही देखी जा रही है क्योंकि लोग अब अपने टेलिविजन,कम्प्युटर, मोबाइल, प्रिंटर आदि को पहले से अधिक जल्दी बदलने लगे है। इनमें सबसे ज्यादा दिक्कत पैदा हो रही है कम्प्युटर और मोबाइल से क्योंकि इनका तकनीकी विकास इतनी तीव्र गति से हो रहा है कि ये बहुत ही कम समय में पुराने हो जाते हैं और इन्हें जल्दी बदलना पड़ता है। भविष्य में ई-कचरे की समस्या कितनी विकराल हो सकती है इस बात का अंदाज़ा इन कुछ तथ्यों के माध्यम से लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ वर्षों में विकसित देशों में कम्प्युटर और मोबाइल उपकरणों की औसत आयु घट कर मात्र दो  साल रह गई है। भारत में ट्राई की एक रिपोर्ट के अनुसार लगभग 90 करोड़ मोबाइल उपभोक्ता हैं और यदि इसमें कम्प्युटर उपभोक्ताओं की भी संख्या जोड़ दी जाये तो हम आसानी से अंदाज़ा लगा सकते हैं की आने वाले वर्षों में ई-कचरे की समस्या कितनी भयावह होने वाली है। एसोचैम के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष लगभग 30,000 मीट्रिक टन ई-कचरा पैदा होता है और इसमें लगभग 25 प्रतिशत की दर से वृद्धि हो रही है। एसोचैम का अनुमान है की वर्ष 2015 तक आते-आते यह मात्रा तकरीबन 50,000 मीट्रिक टन प्रतिवर्ष हो जाएगी। घटते दामों और बढ़ती क्र्य शक्ति के फलस्वरूप इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों जैसे मोबाइल, टीवी, कम्प्युटर, आदि की संख्या और प्रतिस्थापना दर में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है|जिससे निकला ई कचरा सम्पूर्ण विश्व में एक बड़ी समस्या के रूप में सामने आ रहा है|भारत जैसे देश में जहाँ शिक्षा और जागरूकता का अभाव है वहां सस्ती तकनीक ई कचरे जैसी समस्याएं ला रही है|
घरेलू ई-कचरे जैसे अनुपयोगी टीवी और रेफ्रिजरेटर में लगभग 1000 विषैले पदार्थ होते हैं जो मिट्टी एवं भू-जल को प्रदूषित करते हैं। इन पदार्थों के संपर्क में आने पर सरदर्द, कै, मतली, आँखों में दर्द जैसी समस्याएँ हो सकती हैं। ई-कचरा हमारे एवं हमारे वातावरण के लिए अत्यंत हानिकारक हैं। ई-कचरे का पुनर्चक्रण एवं निस्तारण अत्यंत ही महत्वपूर्ण विषय है जिसके बारे में गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। भारत सरकार ने ई-कचरे के प्रबंधन के लिए विस्तृत नियम बनाए हैं जो कि मई 2012 से प्रभाव में आ गए हैं। ई-कचरा (प्रबंधन एवं संचालन नियम) 2011 के अंतर्गत ई-कचरे के पुनर्चक्रण एवं निस्तारण के लिए विस्तृत निर्देश दिये गए हैं। हालांकि इन दिशा निर्देशों का पालन किस सीमा तक किया जा रहा है यह कह पाना कठिन है। जानकारी के अभाव में ई-कचरे के शमन में लगे लोग कई  प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त  हो रहे हैं। अकेले दिल्ली में ही एशिया का लगभग 85 प्रतिशत ई-कचरा शमन के लिए आता है परंतु इसके निस्तारण के लिए जरूरी सुविधाओं का अभाव है। आवश्यक जानकारी एवं सुविधाओं के अभाव में न केवल ई-कचरे के निस्तारण में लगे लोग न केवल अपने स्वास्थ्य को  नुकसान पहुंचा रहे हैं बल्कि पर्यावरण को भी दूषित कर  रहे हैं। ई-कचरे में कई जहरीले और खतरनाक रसायन तथा अन्य पदार्थ जैसे सीसा, कांसा, पारा,कैडमियम आदि शामिल होते हैं जो  उचित शमन प्रणाली के अभाव में पर्यवरण के लिए काफी खतरा पैदा करते हैं। एसोचैम की रिपोर्ट के अनुसार भारत अपने ई-कचरे के केवल 5 प्रतिशत का ही पुनर्चक्रण कर पाता है।
ई-कचरे के प्रबंधन की ज़िम्मेदारी उत्पादक, उपभोक्ता एवं सरकार की सम्मिलित हिस्सेदारी होनी चाहिए । उत्पादक की ज़िम्मेदारी है कि वह कम से कम हानिकारक पदार्थों का प्रयोग करें एवं ई-कचरे के प्रशमन का उचित प्रबंधन करें,उपभोक्ता की ज़िम्मेदारी है कि वह ई-कचरे को इधर उधर न फेंक कर उसे पुनर्चक्रण के लिए उचित संस्था को दें तथा सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह ई-कचरे के प्रबंधन के ठोस और व्यावहारिक नियम बनाए और उनका पालन सुनिश्चित करे.
अमर उजाला में 28/11/13 को प्रकाशित 

Tuesday, November 26, 2013

कन्फ्यूजन जी कन्फ्यूजन है

                 
टू बी ऑर नॉट टू बी हालांकि ये लाइन है तो एक विश्व प्रसिद्ध नाटक की पर मामला तो हमारी लाईफ से ही जुड़ा हुआ है.मेरे एक परिचित हैं जो कभी मुझसे बुरी तरह लड़कर अलग हो गए थे  अरसे बाद फिर लौटे हैं और मैं बहुत कन्फ्यूज हूँ कि क्या करूँ.यानि टू बी ऑर नॉट टू बी. कन्फ्यूजन बोलो तो संशय या अनिर्णय की स्थिति. मुझसे अक्सर लोग सलाह मांगते हैं और तब मुझे बड़ी परेशानी होती है की क्या मुझे वाकई सलाह देनी चाहिए ? हमारे एक मित्र एक शहर में अकेले रहते हैं एक दिन उन्होंने मुझसे सलाह माँगी कि वो मकान बदलना चाहते हैं.मैंने पूछा क्यूँ तो वो बोले कि उन्हें बहुत अकेलापन लगता है.मैंने कहा ठीक है अपने किसी दोस्त के साथ रह लो या किसी ऐसी जगह मकान ले लो जहाँ आपके परिचित रहते हों तब उनका जवाब था उन्हें ज्यादा दुलार पसंद नहीं है.जाहिर है वो कन्फ्यूज्ड हैं.वैसे भी कन्फ्यूजन एक ऐसी समस्या है जिसका इलाज समय रहते नहीं किया गया तो इसका सीधा असर हमारी पर्सनाल्टी पर पड़ता है.लेक्चर से आप बोर होते हैं और ज्ञान का खर्रा आपको और कन्फ्यूज करता है तो मैं जो कुछ कहूँगा वो आपकी लाईफ से ही रिलेट कर के कहूँगा.
जिन्दगी के किसी न किसी मोड़ पर हम कन्फ्यूजन का शिकार जरुर होते हैं.कभी रिश्तों में कभी करियर में तो कभी अपनी लाईफ में अक्सर ऐसा होता है और हमें कुछ समझ में नहीं आता कि किया क्या जाए.करियर में आपका इंटरेस्ट तो टीचिंग में है पर पेरेंट्स चाहते हैं कि आप  रेडियो में अपना करियर बनायें.शादी अपनी मर्जी से करना चाहते हैं पर पेरेंट्स को परेशानी होगी .चैटिंग से पढ़ाई में डिस्टर्बेंस होता है पर चैटिंग किये बिना हम रह भी नहीं पाते,वगैरह वगैरह वैसे आजकल स्टेटस अपडेट करने में भी कन्फ्यूजन हो जाता है,क्यूँ होता है न आपके साथ भी, जैसे जैसे जिंदगी आगे बढ़ती है वैसे हमारे कन्फ्यूजन का दायरा भी बढ़ता जाता है.
 बचपने में टॉफी खाई जाए या चॉकलेट तो टीनएज में कौन सा कपडा पहना जाए और फिर जवानी में रिश्ते से लेकर करियर तक न जाने कितने सवाल रोज परेशान करते हैं.क्या करूँ क्या न करूँ है कैसी मुश्किल है भाई.फेसबुक पर भी जब आपको कुछ नहीं समझ आता तो आप भी हम्मम्मम्म कर के रह जाते हैं.ये हम्मम्मम्म का मामला वाकई बड़ा कन्फयूजिंग है,इसका कोई न कोई  सल्यूशन तो होना चाहिए अब कन्फ्यूजन के सल्यूशन की तलाश में अगर किसी से सलाह मांगेंगे और उस पर अमल नहीं करेंगे तो सल्यूशन कैसे निकलेगा.अब ऐसा होता ही क्यूँ है.चलिए इस कन्फ्यूजन को दूर ही कर दिया जाए.कन्फ्यूजन अगर है तो उससे निपटने के दो रास्ते हैं पहला किसी की राय ले ली जाए पर अक्सर होता है कि लोग इतने लोगों से राय ले लेते हैं कि कन्फ्यूजन घटने की बजाय और बढ़ जाता है.ज्यादा लोगों से राय लेने का मतलब ये भी है कि आप जिससे सलाह ले रहे हैं उस पर आपको पूरा भरोसा नहीं है.जब भरोसा नहीं है तो सलाह लेने का क्या फायदा  और अगर सलाह ले रहे हैं  तो उसे मानना चाहिए.बार बार सलाह लेकर अगर आप मानेंगे नहीं तो कोई भी आपको सही सलाह नहीं देगा क्यूंकि उसे पता है कि आप किसी और के पास इस मुद्दे पर राय लेने जायेंगे.दूसरा तरीका है शांत दिमाग से उस समस्या के बारे में सोचा जाए जिसमें आपको कन्फ्यूजन है फिर अपनी लिमिटेशन को ध्यान में रखते हुए अपना आंकलन किया जाए और तब कोई निर्णय लिया जाए पर इसके लिए पहले आपको अपने आप पर पूरा भरोसा होना चाहिए क्यूंकि अपने निर्णय के लिए आप खुद जिम्मेदार होंगे वैसे जिन्दगी में फेसबुक स्टेटस अपडेट की तरह एडिट का कोई ऑप्शन नहीं होता जो बीत जाता है वो बीत ही जाता है.जब भी कभी कोई कन्फ्यूजन हो तो उससे आप ही अपने आप को बाहर निकाल सकते हैं चाहे किसी की सलाह लेकर या अपने आप पर भरोसा रखकर.
                  समझे क्या तो मैंने तो आपका कन्फ्यूजन दूर कर दिया है पर मैं अभी तक कन्फ्यूज्ड हूँ कि अपने उस दोस्त से फिर से दोस्ती करूँ या न करूँ तो आप क्या कहते हैं वैसे जो आप कहेंगे उसे मैं मानूंगा क्यूंकि मैं आप पर भरोसा करता हूँ .
आईनेक्स्ट में 26/11/13 को प्रकाशित 

Friday, November 8, 2013

ताकि बनी रहे रिश्तों में गर्माहट

अच्छा आपकी कभी कोई चीज खोयी है.हाँ खोयी तो होगी ही और उसके खोने का गम भी हुआ होगा.अच्छा कभी आपने सोचा कि हम किस चीज से ज्यादा डरते हैं सोचिये सोचिये जी हाँ कुछ खोने से चाहे वो लोग हों रिश्ते हों या चीजें पर ये एक ऐसा दर्द है जिसे जिंदगी के किसी न किसी मोड पर सबको भोगना ही पड़ता है.देखिये जिंदगी हैं इतना कुछ डेली सिखाती है पर हम ध्यान नहीं देते.खोना बुरा है पर अगर हम कुछ खोयेंगे नहीं तो पाने के सुख का एहसास नहीं कर पायेंगे और जो चीजें हमारे आस पास हैं उनकी कीमत नहीं समझ पायेंगे.अब जिंदगी का सबसे बड़ा सच तो मौत है. अरे हम थोड़ी न कह रहे हैं फिल्म मुकद्दर का सिकंदर ये गाना तो आप सबको याद ही होगा “जिंदगी तो बेवफा है एक दिन ठुकराएगी मौत महबूबा है मेरी साथ लेकर जायेगी”.फिर भी हम हैं कि मानते नहीं एक दम दिल है कि मानता नहीं टाईप भाई आप सबको खोने के दुःख का एहसास है पर जो चीजें हमारे पास हैं क्या हम उनकी कद्र करते हैं चीजों से मेरा मतलब सिर्फ मेटीरियल्सटिक नहीं है. वो आपने सुना तो  होगा न टेकेन फॉर ग्रांटेड वो हम अपने करीबी रिश्तों पर कितना मजबूती से एप्लाई कर देते हैं.अरे वो तो मेरा दोस्त है और न जाने क्या क्या पर जरा सोचिये जब ये रिश्ते न होंगे वो इंसान न होगा तब आप कैसा महसूस करेंगे.यानि जो तेरा है वो तेरा है और जो मेरा है वो मेरा है फिर रिश्ता चलेगा क्या? यानि रिश्ते भी लेन देन पर ही चलते हैं.भले ही वो लेन देन मेटीरियल्सटिक न हो पर आप किसी रिश्ते में तभी रहते हैं जब आपको कुछ अच्छा लगता है और फिर क्या उस एहसास को जीने के लिए आप कुछ भी कर सकते हैं तो ये टू वे प्रोसेस हुआ न. अब आप अगर ये मान कर चलें कि ये तो उसका फ़र्ज़ है क्यूंकि वो तो आपका फलां है तो आपको क्या लगता है कि रिश्ता चलेगा बिलकुल नहीं वो ढोया जाएगा .हम तो भैया जिंदगी से ही सीखते हैं ठण्ड या तो मौसम में अच्छी लगती है या दिमाग में बाकी सब जगह तो गर्मी का ही बोलबाला है तो रिश्ते गर्मी के एहसास  से ही चलते हैंजिससे अपनेपन की इनर्जी मिलती है तो  उनको टेकेन फॉर ग्रांटेड नहीं लिया जा सकता है और अगर आप ऐसा  किसी रिश्ते के साथ  कर रहे हैं तो समझ लीजिए कि आप जल्दी ही फिर कुछ खोने वाले हैं जिसका दर्द आपको जीवन भर परेशान करेगा  मेटीरियल्सटिक चीजें खोती हैं तो उनका सबस्टीयूट मार्केट में मिल जाएगा पर अगर आपने कोई रिश्ता खोया तो उसका सबस्टीयूट किसी दूकान बाजार में नहीं मिलेगा. हम थोड़ी न कह रहे हैं अरे ये गाना भी तो यही कह रहा है कि “जिंदगी के सफर में बिछड जाते हैं जो मुकाम वो फिर नहीं आते” साईंस ने बहुत तरक्की कर ली है पर खोये हुए रिश्ते और बिछड़े लोग दुबारा जीवन में उसी रूप में नहीं आते आप फिर मेरी बात नहीं मानेंगे तो हम कहाँ कह रहे हैं रहीम दास जी ने लिखा था “रहिमन धागा प्रेम का मत तोडो चटकाय,टूटे से फिर न जुड़े,जुड़े गाँठ पड़ जाए”मौसम में ठंडी का मजा लीजिए पर रिश्तों की गर्मी को बचा कर रखिये पर ये कहना जितना आसान करना उतना ही मुश्किल रिश्तों की गर्मी पर अक्सर ईगो की ठंडक हावी हो जाती है और हम नफा नुकसान देखने लग जाते है अब किसी रिश्ते में ऐसा हो रहा है तो उनको खो ही जाने दीजिए पर जिनकी आपको कद्र है बगैर शर्तों को उनको रोक लीजिए मना लीजिए क्यूंकि क्या पता कल हो न हो क्या पता कल वो लोग ही खो जाएँ जिनसे आप कह सकें तुस्सी न जाओ तो मौसम में ठण्ड का पूरा लुत्फ़ उठाइये पर मुझे भरोसा दिलाइये कि आप अपने रिश्तों में अपने पन के एहसास को गर्म रखेंगे जिससे जाड़े की वो सुहानी शाम आपको याद रहेगी.
आई नेक्स्ट में 08/11/13 को प्रकाशित 

Monday, October 28, 2013

अपने ही घर में नज़रअंदाजी झेल रहे बुजुर्ग

जनसंख्या की दृष्टि से दुनिया का दूसरा बड़ा देश होने के नाते भारत की आबादी पिछले 50 सालों में हर 10 साल में 20 फीसदी की दर से बढ़ रही है। 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत की जनसंख्या 1 अरब 20 करोड़ से भी अधिक रहीजो दुनिया की कुल जनसंख्या का 17.5 प्रतिशत है। इस आबादी में आधे लोगों की उम्र 25 से कम है पर इस जवान भारत में   बूढ़े लोगों के लिए भारत कोई सुरक्षित जगह नहीं है,टूटते पारिवारिक मूल्यएकल परिवारों में वृद्धि  और उपभोक्तावाद की आंधी में घर के बूढ़े कहीं पीछे छूटते चले जा रहे हैं|'द ग्लोबल एज वॉच इंडेक्सने दुनिया के 91 देशों में बुज़ुर्गों के जीवन की गुणवत्ता का अध्ययन के अनुसार बुज़ुर्गों के लिए स्वीडन दुनिया में सबसे अच्छा देश है और अफगानिस्तान सबसे बुरा,इस इंडेक्स में चोटी के20 देशों में ज़्यादातर पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमरीका के हैंसूची में  भारत 73वें पायदान पर है| वृद्धावस्था में सुरक्षित आय और स्वास्थ्य जरूरी है|उम्र का बढ़ना एक अवश्यंभावी प्रक्रिया है| इस प्रक्रिया में व्यक्ति का शारीरिकमानसिक एवं सामाजिक बदलाव होता है| पर भारत जैसे देश  में जहाँ मूल्य और संस्कार के लिए जाना जाता है वहां ऐसे आंकड़े चौंकाते नहीं हैरान करते हैं कि इस देश में बुढ़ापा काटना क्यूँ मुश्किल होता जा रहा है |बचपने में एक कहावत सुनी थी बच्चे और बूढ़े एक जैसे होते हैं इस अवस्था में सबसे ज्यादा समस्या अकेलेपन के एहसास की ,भारतीय समाज संक्रमण के दौर से गुजर रहा |डब्लूएचओ के अनुमानित आंकड़े के अनुसार भारत में वृद्ध लोगों की आबादी 160 मिलियन (16 करोड़) से बढ़कर सन् 2050में 300 मिलियन (30 करोड़) 19 फीसद से भी ज्यादा आंकी गई है. बुढ़ापे पर डब्लूएचओ की गम्भीरता की वजह कुछ चैंकाने वाले आंकड़े भी हैं. जैसे 60 वर्र्ष की उम्र या इससे ऊपर की उम्र के लोगों में वृद्धि की रफ्तार 1980 के मुकाबले दो गुनी से भी ज्यादा है| 80 वर्ष से ज्यादा के उम्र वाले वृद्ध सन 2050 तक तीन गुना बढ़कर 395 मिलियन हो जाएंगे| अगले वर्षों में ही 65 वर्ष से ज्यादा के लोगों की तादाद वर्ष तक की उम्र के बच्चों की तादाद से ज्यादा होगी. सन् 2050 तक देश में 14 वर्ष तक की उम्र के बच्चों की तुलना में वृद्धों की संख्या ज्यादा होगी. और सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह कि अमीर देशों के लोगों की अपेक्षा निम्न अथवा मध्य आय वाले देशों में सबसे ज्यादा वृद्ध होंगें. पुराने ज़माने के संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवार लेते जा रहे हैं जिससे भरा पूरा रहने वाला घर सन्नाटे को ही आवाज़ देता है बच्चे बड़े होकर अपनी दुनिया बसा कर दूर निकल गये और घर में रह गए अकेले माता –पिता चूँकि माता पिता जैसे वृद्ध भी अपनी जड़ो से क्त कर गाँव से शहर आये थे इसलिए उनका भी कोई अनौपचारिक सामजिक दायरा उस जगह नहीं बन पाता जहाँ वो रह रहे हैं तो शहरों में यह चक्र अनवरत चलता रहता है गाँव से नगर, नगर से महानगर वैसे इस चक्र के पीछे सिर्फ एक ही कारण होता है बेहतर अवसरों की तलाश ये बात हो गयी शहरों की पर ग्रामीण वृद्धों का जीवन शहरी वृद्धों के मुकाबले स्वास्थ्य सेवाओं के संदर्भ में और ज्यादा मुश्किल है वहीं अकेलापन तो रहता ही है |बेटे बेटियां बेहतर जीवन की आस में शहर चले गए और वहीं के होकर रह गयें गाँव में माता –पिता से रस्मी तौर पर तीज त्यौहार पर मुलाक़ात होती हैं कुछ ज्यादा ही उनकी फ़िक्र हुई थी उम्र के इस पड़ाव पर एक ही इलाज है उन वृद्धों को उनकी जड़ों से काट कर अपने साथ ले चलना |ये इलाज मर्ज़ को कम नहीं करता बल्कि और बढ़ा देता है |जड़ से कटे वृद्ध जब शहर पहुँचते हैं तो वहां वो दुबारा अपनी जड़ें जमा ही नहीं पाते औपचारिक सामजिकता के नाम पर बस अपने हमउम्र के लोगों से दुआ सलाम ऐसे में उनका अकेलापन और बढ़ जाता है |इंटरनेट की आदी यह पीढी दुनिया जहाँ की खबर सोशल नेटवर्किंग साईट्स लेती है पर घर में बूढ़े माँ बाप को सिर्फ अपने साथ रखकर वो खुश हो लेते हैं कि वह उनका पूरा ख्याल रख रहे हैं पर उम्र के इस मुकाम पर उन्हें बच्चों के साथ की जरुरत होती है पर बच्चे अपनी सामाजिकता में व्यस्त रहते हैं उन्हें लगता है कि उनकी भौतिक जरूरतों को पूरा कर वो उनका ख्याल रख रहे हैं पर हकीकत में वृद्ध जन यादों और अकेलेपन के भंवर में खो रहे होते हैं | महत्वपूर्ण ये है कि बुढ़ापे में विस्थापन एक गंभीर मनोवैज्ञानिक समस्या है जिसको नजरंदाज नहीं किया जा सकता है मनुष्य यूँ ही एक सामाजिक प्राणी नहीं है पर सामाजिकता बनाने और निभाने की एक उम्र होती है|विकास की इस दौड़ में अगर हमारी जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा यूँ ही बिसरा दिया जा रहा है तो ये यह प्रवृति एक बिखरे हुए समाज का निर्माण करेगी |

गाँव कनेक्शन साप्ताहिक 27/10/13 के अंक में प्रकाशित 

Friday, October 25, 2013

बुराई के बिना अच्छाई का क्या वजूद

दीपावली आ रही है पर मैं आप को याद क्यूँ दिला रहा हूँ,आप की समझदारी पर मुझे हमेशा भरोसा रहा है.हम तो आपको कुछ और याद दिला रहे हैं अच्छा ये तो आप सब जानते हैं कि दीपावली रात का त्यौहार है पर जरा गौर करिये हम जब दीपावली के बारे में किसी से पूछते हैं तो क्या कहते हैं अरे दीपावली किस दिन है. ट्विस्ट कहानी में यहीं है जब रात का त्यौहार है तो दिन की बात क्यूँ ? तो दीपावली के बहाने ही सही  मैंने जरा सा रात के बारे में सोचा तो न जाने क्या क्या याद आया, वैसे याद से कुछ आपको याद आया क्या ?भाई याद का सीधा कनेक्शन रात से है.जब आप मन से अकेले होते हैं तो कितना कुछ याद आता है. रात के सन्नाटे में मन के किसी कोने से कितनी यादें निकल पड़ती हैं. रात अपने आप में एक फीलिंग है सुबह का इंतज़ार करते हुए रात काटना और बात है लेकिन रात को जीते हुए रात काटना बिल्कुल अलग मामला  है. हमारे जीवन में रात और दिन की सेम इम्पोर्टेंस है पर जब भी हम लाईफ की बात करते हैं तो बात सिर्फ दिन की होती है.फेसबुक हम सब की जिंदगी का हिस्सा है तो आपने ऐसे कई लोगों की प्रोफाईल को देखा होगा जिनके हजारों मैं फॉलोवर्स हैं और मन मैं कसक उठी होगी कि काश हमारी प्रोफाईल मैं भी कुछ ऐसा मामला होता पर जो लोग आगे बढते हैं उसमें उनकी मेहनत और डेडीकेशन के अलावा उनके बहुत सारे फौलोवार्स का भी कंट्रीब्यूशन होता है.बात समझे दिन इसलिए दिन है क्यूंकि रात है.सिंपल समझिए वो फेमस  लोग जो दिन की तरह चमकते हैं उनके पीछे हमारे जैसे कई फालोवर रात की तरह होते हैं. सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर लोगों के फौलोवर्स बनने की बजाय कुछ ऐसा करें कि लोग आपको फोलो करें.मैं बात को थोडा और सिंपल करता हूँ जब हम काले रंग के बारे में जानेगे तभी तो ये जान पायेंगे कि कौन कितना गोरा है.यानि इस जीवन में सबकी अपनी अपनी युटिलिटी है और कोई भी वेस्ट नहीं है.मैंने कहीं पढ़ा था बुराई कि सबसे बड़ी अच्छाई ये है कि वो बुराई है तो अगर कोई आगे बढ़ रहा है और आप उस जगह नहीं पहुँच पा रहें तो फ्रस्टेट न हों,अपने आप को पहचाने हो सकता हो आप उस काम के लिए बने न हों और वो काम करें जिसके लिए आप बने हों. जैसे रात, दिन नहीं हो सकती और दिन, रात नहीं. भाई इस फेस्टिव सीजन में मैं अपनी बात को फेस्टिवल के थ्रू ही कहूँगा तब शायद आप मुझे समझें तो मामला यूँ है कि आप होली में  पटाखे छुडाएं तो लोग आपको क्या कहेंगे पागल तो कोई भी काम शुरू करते जोश के साथ होश का भी इस्तेमाल करें महज इसलिए कि आजकल इसका बड़ा क्रेज है ,इसमें पैसा बहुत है जैसी बातों को ध्यान में रखकर कोई काम मत शुरू कर दीजिए. जिस तरह सारे दिन एक जैसे नहीं होते हैं और उसी तरह से सारी रातें भी एक जैसी नहीं होती हैं किसी रात आप अपने किसी अज़ीज़ दोस्त की पार्टी में नाच गा रहे होतें तो किसी रात आप बिस्तर पर स्ट्रेस के कारण जगते हुए काट देते हैं और किसी रात आप ऐसा खूबसूरत सपना देखते हैं कि सुबह होने ही नहीं देना चाहते हैं.सबसे इम्पोर्टेंट हमारी जिंदगी में बहुत सारे ऐसे लोग है जिनका हमारी सफलता में योगदान होता है तो उनको भी नहीं भूलना चाहिए याद है न रात है तभी तो दिन है,तो दीपावली आपने हर साल मनाई होगी इस साल दीपावली की रात अपने उन दोस्तों के साथ मनाई जाए जो आपकी खुशी के लिए कुछ भी कर सकते हैं. अब तो आप मान ही लीजिए कि दीपावली तभी तक प्रकाश का त्यौहार है जब तक इस धरती पर अँधेरा है क्यूंकि कोई दिन में कोई पटाखे नहीं फोड़ता तो कैसा लगा आपको दीपावली का रात कनेक्शन
आई नेक्स्ट में 25/10/14 को प्रकाशित 

Wednesday, October 23, 2013

डेंगू से निपटने की चुनौती

डेंगू भारत में एक महामारी का रूप लेता जा रहा। डेंगू मच्छरों द्वारा फैलाया जाने वाला एक विषाणुजनित संक्रामक रोग है जिसके लक्षण फ्लू के लक्षणों से मिलते-जुलते हैं और कई मामलों में यह जानलेवा भी सिद्ध हो सकता है। डेंगू विषाणु से संक्रमित होने के बाद संक्रमित व्यक्ति रोग का वाहक हो जाता है जिससे उसके आस-पास के लोगों में इसके फैलने का खतरा बढ़ जाता है। चूंकि डेंगू के लक्षण फ्लू के लक्षणों से काफी मिलते-जुलते हैं अतः कई बार इसका पता लगाना मुश्किल हो जाता है। इसका अभी तक कोई टीका नहीं है।  तमाम सरकारी दावों के बावजूद हर साल डेंगू से प्रभावित होने वाले लोगों का आंकड़ा पिछले साल की अपेक्षा बढ़ता जा रहा है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि आधिकारिक आंकड़ें वास्तविक आंकड़ों की तुलना  में काफी कम हैं क्योंकि इनमें सिर्फ वही  मामले गिने जाते हैं जिसमें मरीज इलाज़ कराने के लिए सरकारी अस्पतालों में जाते हैं, और जिनकी पुष्टि सरकारी प्रयोगशालाओं द्वारा होती है । डेंगू महामारी के बारे में आसियान देशों में जागरुकता फैलाने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन आसियान के सदस्य देशों के साथ मिलकर प्रतिवर्ष 14 जून को आसियान डेंगू दिवस के रूप में मानता है।उष्णकटिबंधीय बीमारियों के विशेषज्ञ डॉ स्कॉट हैलस्टीड का मानना है कि भारत में हर वर्ष अनुमानतः लगभग तीन करोड़ सत्तर लाख लोग इस डेंगू फैलाने वाले वाइरस से संक्रमित होते हैं जिनमें से तकरीबन मात्र 2 लाख 27 हज़ार 500 लोग ही इलाज़ करने के लिए अस्पतालों में भर्ती होते हैं। आंकड़ों को कम करके प्रस्तुत किए जाने की प्रवृत्ति से  डेंगू की विकरालता  का वास्तविक स्तर समझ पाने में समस्या आती है जिससे  इससे निपटने के लिए जिस स्तर की व्यापक तैयारी की जानी चाहिए वह नहीं होती  नतीजा डेंगू से होने वाली मौतों में वृद्धि। भारत मच्छरों द्वारा फैलाई जाने वाली इस घातक बीमारी का केंद्र बनता जा रहा है। स्वास्थ्य प्रबंधन के अभाव में इसने खतरनाक  रूप धर लिया है और पिछले  कुछ वर्षों में डेंगू बच्चों में बीमारी और उनकी असमय मृत्यु का एक प्रमुख कारक बनकर उभरा है। 1970 से पूर्व केवल 9 देशों ने डेंगू को महामारी के रूप में झेला था। परंतु 21 वीं सदी के पहले दशक तक आते आते तकरीबन 100 देशों में इस बीमारी ने अपने पाँव पसार लिए हैं। आंकड़ो भारत में डेंगू के फैलाव की कहानी खुद कह रहे हैं| इस वर्ष तीस सितम्बर तक पूरे देश में डेंगू से अब तक 109 मौतें दर्ज़ की गई हैं जबकि 38,000 से ज्यादा मामले दर्ज किये गए | भारत में हर साल डेंगू और उसके कारण मृत्यु की संख्या बढ़ती जा रही है स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार इस साल डेंगू से दक्षिण भारत  के राज्य  सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए। केरल में डेंगू के 7,000 मामले और 23 मौतेंआंध्र प्रदेश में 5,680 से ज्यादा मामले और 12 मौतेंउड़ीसा में 5,012 मामले और पांच मौतें और तमिलनाडु में 4, 294 मामले दर्ज़ किए गएयहां किसी की डेंगू से मौत नहीं हुई गुजरात और महाराष्ट्र में भी डेंगू के क्रमश: 2,600 से ज्यादा मामले मौतें दर्ज़ किये गये । स्वास्थ्य जागरूकता और स्वास्थ्य सेवाओं की बेहतर व्यवस्था ना होने के कारण डेंगू भारत जैसे तमाम अल्पविकसित देशों के लिए एक ऐसी स्वास्थ्य  चुनौती बनता जा रहा है|जिस पर अगर ध्यान न दिया गया तो नतीजे भयावह होंगें|  जरुरत जागरूकता और स्वास्थ्य सेवाओं को और बेहतर करने की है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार डेंगू सामन्यतः शहरी गरीब इलाकों, उपनगरों तथा ग्रामीण क्षेत्रों को अधिक प्रभावित करता है पर  उष्ण कटिबबंधीय एवं उपोष्णकटिबंधीय देशों के समृद्ध क्षेत्रों में भी इसका काफी प्रभाव पड़ता है। पिछले 50 वर्षों में डेंगू के मामलों में 30 गुना इजाफा हुआ है और प्रतिवर्ष 5 से 10 करोड़ लोग इस बीमारी का शिकार होते हैं।तस्वीर का एक और रुख लोगों के नजरिये और साफ़ सफाई के प्रति जागरूकता का न होना भी है डेंगू जैसी बीमारियाँ तब फैलती हैं जब हम अपने आस पास की जगहों की पर्याप्त सफाई नहीं करते और जलभराव को होने देते हैं|भारत में कूड़ा प्रबंधन जैसी अवधारणायें अभी कागज़ में ही हैं व्यवहार में कुछ ठोस नहीं हुआ है|हमारे महानगर पर्याप्त रूप से गंदे हैं और इसके लिए सबको प्रयास करना होगा|डेंगू का कोई इलाज़ नहीं है। सुरक्षा एवं सावधानी ही इससे निपटने का एकमात्र रास्ता है यही है की इन्हें फैलाने वाले मच्छरों को न पनपने दिया जाये। ठोस कूड़े का सही से निस्तारण, पानी के भंडारण की उचित व्यवस्था तथा पानी को जमा होने से रोकना ही वह प्रमुख कदम हैं जिनके द्वारा हम डेंगू फैलाने वाले मच्छरों को फैलने से रोक सकते हैं।
 अमर उजाला में 23/10/13 को प्रकाशित 

Tuesday, October 8, 2013

हर लाईक बहुत कुछ कहता है

मौसम में ठंडक आनी शुरू हो गयी है लेकिन ये महीना रिश्तों के लिहाज से गर्म रहेगा.अरे भाई  त्योहारों का मौसम जो आ गया है बकरीद ,दशहरा और उसके बाद दीपावली तो यारों दोस्तों से खूब मिलना जुलना होगा.पर एक समस्या है आजकल सब व्यस्त हैं तो हो सकता है कि  कुछ लोग छूट जाएँ जिनसे मुलाकात ना हो पाए पर आपको भी पता है उसके लिए टेंशन लेने की जरुरत नहीं अरे फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साईट्स हैं ना उसपर तो मिलना जुलना होता ही रहता है ना. बस उन दोस्तों को  अपनी याद दिलाने के लिए आपको ज्यादा मेहनत तो करनी नहीं है बस उनके अपडेट या फोटो ग्राफ  को लाईक कर देना है.वैसे लाईक से याद आया ये लाईक भी कमाल की चीज है न सुबह सुबह जब मैं फेसबुक खोलता हूँ तो मेरी न्यूस फीड भरी होती है तस्वीरों और अपडेट से,जिनमें  कुछ जाने पहचाने होते हैं तो कुछ बिलकुल अनजाने, जो जाने पहचाने होते हैं उनकी तस्वीरों और फोटोग्राफ को लाईक करके मैं उनको अपनी याद दिला देता हूँ और जो अनजाने होते हैं उनके अपडेट को लाईक कर एक नए रिश्ते की शुरुवात कर देता हूँ फ़िर जो अनजाने हैं वो जाने पहचाने कब लगने लग जाते हैं मुझे तो पता नहीं पड़ता.अच्छा एक बात बताइए क्या आपके साथ ऐसा होता है ?क्या कहा हाँ, डूड यही तो लाईफ है कितना कुछ कॉमन हैं हम सबमें पर हम हैं कि ध्यान ही नहीं देते, अब देखिये ना कम्युनिकेशन की नयी स्टाईल डेवेलप हो रही है हम बिना बोले कितना कुछ बोल रहे हैं वो भी माउस की एक क्लिक से वैसे आपने गौर भी किया होगा कि लाईक का सिम्बल कितना मोटीवेशनल है (Y)यूँ समझ लीजिए ये जादू की वर्चुअल झप्पी है अब जरूरी नहीं है कि हम हर एक मित्र से गले मिलकर उसे ये एहसास दिलाएं कि वो हमारे लिए खास है उसके बगैर जिंदगी में कुछ कमी सी रहती है,फ़िर दोस्त भी तो खाली नहीं बैठा होगा हमेशा आपकी सेंटी टॉक झेलने के लिए तो आसान तरीका है ना मेसेज बॉक्स में जा के बगैर कुछ कहे एक सिम्बल भेजने का बस अब इस सिम्बल में कितना कुछ शामिल है प्यार, मोटीवेशन, इंस्पीरेशन अब ये हमारे ऊपर है कि इन फीलिंग्स में से अपने लिए क्या चुनते हैं.हमारी जिंदगी में मोटे तौर पर सिचुएयेशन एक जैसी ही आती हैं अब उनमे से कोई अपने लिए अपार्चुनिटी देख कर विनर बन जाते हैं तो कई स्थितियों को कोसते हुए जीवन भर वीक बने रह जाते हैं.अपने आस पास देखिये ऐसे कई विनर लूजर मिल जायेंगे,तो हर लाईक का मतलब लाईक ही नहीं होता है.इस बात को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए और हर बात को लाईक नहीं करना चाहिए आपको भी तो रोज ना जाने कितने इन्वीटेशन मिलते होंगे कि फलां पेज को लाईक करो पर आप हर पेज को तो नहीं लाईक करते हैं तो लाईफ में सिचुयेशन सबको भले ही एक जैसी लगीं पर चोइसेज तो हमारी ही होती हैं कि हमें जिंदगी से क्या चाहिए तो नो युअर लिमिटेशंस् समझाता हूँ अब ये लाईक वाला मामला वहीं काम करेगा जब आपके फेसबुक फ्रेंड के  लिमिटेड फ्रेंड हों जो रिश्ते बनाने और निभाने में यकीन रखता हो या पर्सनली आप उसके  बेस्ट फ्रैंड में से एक हों पर ऐसे लोग जो फेसबुक पर सिर्फ दोस्ती करने आते हैं निभाने नहीं उनके स्टेटस को लाईक करने से कोई फायदा नहीं होगा क्यूंकि वहाँ ऐसी पूरी उम्मीद है कि आप उनके लिए हमेशा अनजाने ही बने रहेंगे तो लाईफ में आगे बढ़ने के लिए उसी प्रोफेशन को चुनें जिसके लिए आप बने हों,जिसमे आपको मजा आता हो, किसी के दबाव में या किसी को सफल देख कर उसके जैसा बनने की कोशिश तब तक ना करें जब तक कि आपका उस प्रोफेशन में इंटरेस्ट ना हो,कुछ समझे क्या वैसे भी मैंने कुछ समझाया तो नहीं सिर्फ आपको एक लाईक की कहानी सुनायी,क्यूंकि हर लाईक बहुत कुछ कहता है और हाँ त्योहारों के मौसम में नए दोस्त जरुर बनाइये पर पुराने को मत भूल जाइए क्यूंकि यही वो लोग हैं जिनके लाईक का कभी आप इन्तजार किया करते थे.
आई नेक्स्ट में 08/10/13 को प्रकाशित 

Monday, September 30, 2013

अवैध खनन द्वारा नदियों से खिलवाड़

रोटी कपड़ा और मकान के संकट से जूझते एक आम भारतीय के लिए पर्यावरण या उससे होने वाला नुकसान अभी भी कोई मुद्दा नहीं है और अवैध बालू खनन भी एक ऐसा ही मामला है जो हमें महज एक कानूनी मसला लगता है। बालू के अवैध खनन के पीछे एक बड़ा कारण इसका भारी होना भी है जिसके कारण बालू को दूर तक ले जाना मुश्किल होता है। इसलिए निर्माण कंपनियां आसपास के इलाकों से बालू निकालने को प्राथमिकता देती हैं। बालू का इस्तेमाल कंक्रीट में मिलाने और ईटें बनाने के लिए किया जाता है। हालांकि सरकार ने बालू खनन के लिए लाइसेंस की व्यवस्था की है, पर मांग बहुत ज्यादा है जिससे लाइसेंस व्यवस्था को लगातार अनदेखा कर अवैध खनन को बढ़ावा मिलता है। बगैर ज्यादा लागत के ये बहुत मुनाफे वाला सौदा है लेकिन अंधाधुंध और अनियंत्रित बालू उत्खनन से नदी के किनारों का घिसाव होता है जिसका परिणाम जैविवविधता के नुकसान के रूप में सामने आता है। किनारे कटने से वहां पनपने वाली वनस्पतियां नष्ट होती हैं और वहां पलने वाले जीव-जंतुओं का प्राकृतिक आवास समाप्त होता है। इसके परिणामस्वरूप नदी के पानी को धारण करने और नदी को दोबारा जल मुहैया कराने वाली व्यवस्था को हानि पहुंचती है। पर अंधाधुंध विकास के चक्कर में इसकी परवाह किसे है क्योंकि विकास का आकलन आर्थिक नजरिए से किया जाता है। यही कसौटी भी है और यही परिणाम भी। उपभोक्तावाद ने हमें इतना अधीर कर दिया है कि विकास का मापदंड सिर्फ भौतिकवादी चीजें और पैसा ही रह गया है। पक्के निर्माण के बढ़ते चलन और प्रकृति प्रदत्त चीजों पर निर्भरता कम होने का परिणाम है बढ़ता शहरीकरण। आज गांव सिमट रहे हैं और शहर भर रहे हैं। चूंकि गांवों में अभी भी आधारभूत ढांचे का अभाव है इसलिए आर्थिक रूप से थोड़ा-बहुत हर ग्रामीण शहर में बसने के सपने देखता है या शहर की तरह गांव में पक्का घर का निर्माण चाहता है। और यह प्रक्रिया आवास निर्माण उद्योग में क्रांति ला रही है और पक्के निर्माण विकसित होने की निशानी माने जा रहे हैं। देश की तरक्की के लिए विकास जरूरी है पर अनियोजित विकास, समस्याएं ही बढ़ाएगा जिसकी कीमत आज नहीं तो कल हम सबको चुकानी ही पड़ेगी। 2009 में निर्माण उद्योग ने देश के सकल घरेलू उत्पाद में 8.9 प्रतिशत का योगदान दिया, जो 2005 के 7.4 प्रतिशत से ज्यादा है। योजना आयोग के अनुसार अगर देश को लगातार बढते रहना है तो 31 मार्च 2017 को खत्म होने वाले वित्त वर्ष में अवसंरचना क्षेत्र में निवेश को जीडीपी का दस प्रतिशत करना होगा, जो पहले पांच साल के आठ प्रतिशत से ऊपर होगा। भारत भले ही गांवों का देश हो, पर आज पूरे देश में शहरीकरण की बयार बह रही है। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक कुल 121 करोड़ की आबादी में से 37.71 करोड़ लोग शहरो में रहते हैं। भविष्य में इस तस्वीर की बहुत तेजी से बदलने की संभावना है। अनुमान के मुताबिक शहरीकरण की वर्तमान दर 31.1 प्रतिशत है जो 2030 तक चालीस प्रतिशत हो जाएगी। बढ़ता शहरीकरण रीयल एस्टेट और आवास जैसे क्षेत्रों में मांग बढ़ा रहा है। आंकड़े के अनुसार पिछले दस सालों में आवास क्षेत्र में बत्तीस प्रतिशत की बढोत्तरी हुई है। जैसे- जैसे भारत का शहरीकरण बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे मकानों वाली भूमि का आकार बढ़ता जाएगा। यह 2005 के आठ अरब वर्ग मीटर से बढ़कर 2030 तक 41 अरब वर्ग मीटर तक फैल सकता है। अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए अगले पांच सालों में एक ट्रिलियन डॉलर सार्वजनिक और निजी निवेश की जरूरत होगी। यह निवेश सड़कों, विमानपत्तन और नौकरियों में होगा। अगर ये अनुमानित निवेश हो जाता है, तो बालू जैसे अवसंरचना में लगने वाले कच्चे माल की मांग तीन गुना तक बढ़ जाएगी और बालू आपूर्तिकर्ताओं पर बेतहाशा दबाव बढ़ेगा और ये दबाव कहीं न कहीं अवैध बालू खनन को बढ़ावा देगा। बात जब निर्माण की होती है तब हम सीमेंट के बारे में सोचते हैं। लेकिन सीमेंट तो मात्र जोड़ने वाला एक पदार्थ है, निर्माण का मुख्य अवयव है बालू और पत्थर या ईट। बालू का कोई और सस्ता सुलभ विकल्प न होने का कारण उसका अवैध खनन होता है जिसकी कीमत हमारी नदियां चुकाती हैं। उत्तराखंड हादसा हुए अभी ज्यादा वक्त नहीं बीता जिसने हमें चेताया। पर इस चेतावनी को समझने के लिए हजारों लोगों को अपनी जान देनी पड़ी, सैकड़ों घायल हुए और बेघर भी। बालू का अवैध खनन मैदानी क्षेत्रों के पर्यावरण को कितनी बुरी तरह प्रभावित कर रहा है इसका वास्तविक आकलन होना अभी बाकी है, पर हम जिस तरह अपने पर्यावरण से खेल रहे हैं वह वास्तव में एक खतरनाक खेल है। कानून में बड़े खनिजों जैसे कोयले, हीरे अथवा सोने के विपरीत रेत को ‘लघु खनिज’ कहा जाता है। कानूनन पांच हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में खनन लीज के लिए पर्यावरण संबंधी अनुमति लेना आवश्यक है। हालांकि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने अपने दिए एक आदेश में अब पांच हेक्टेयर से कम क्षेत्र में भी खनन को केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय या संबंधित राज्य के पर्यावरण प्रभाव आंकलन प्राधिकरण से अनुमति को अनिवार्य कर दिया है। खान और खिनज (विकास और नियामक) एक्ट 1957 (मई 2012 में संशोधित) के मुताबिक रेत खनन करने वालों को राज्य के प्राधिकारियों से एक लाइसेंस लेना होता है और बालू की मात्रा के मुताबिक शुल्क देना होता है। यह बिक्री दाम का करीब आठ प्रतिशत हो सकता है। बगैर अनुमति बालू खोदने की सजा दो साल तक की जेल या 25 हजार रुपए का जुर्माना अथवा दोनों हो सकते हैं। अवैध रेत खनन को रोकने को लेकर समस्या यह है कि निर्माण में बालू के ज्यादा विकल्प नहीं हैं और जो विकल्प हैं भी वे बालू के मुकाबले महंगे हैं। पर्यावरण जागरूकता के अभाव में और ‘जरा-सा बालू निकालने से नदी कौन-सी सूख जाएगी’ वाली मानसिकता नदियों के प्रवाह तंत्र को प्रभावित करके पर्यावरण के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न कर रही है। अब समय आ गया है कि पर्यावरण की दृष्टि के अनुकूल बालू का कोई ऐसा विकल्प ढूंढा जाए जिससे अवैध बालू खनन पर रोक लगे और अवैध बालू जैसे लघु खनिजों से संबंधित कानूनों को और कड़ा किया जाए। हमें अमेरिका और ब्रिटेन जैसे विकसित देशों से सबक लेना होगा जिन्होंने समय रहते अपने पर्यावरण संबंधी कानूनों को कड़ा किया और यह भी सुनिश्चित किया कि इन कानूनों का कड़ाई से पालन हो।

    राष्ट्रीय सहारा में 30/09/13 को प्रकाशित 

Friday, September 27, 2013

उनकी भी सोचें जिन्हें भोजन नहीं मिलता

पर्यावरण एक चक्रीय व्यवस्था है। अगर इसमें कोई कड़ी टूटती है, तो पूरा चक्र प्रभावित होता है। पर विकास और प्रगति के फेर में हमने इस चक्र की कई कड़ियों से खिलवाड़ करना शुरू कर दिया है। पूंजीवाद के इस युग में कोई चीज मुफ्त में नहीं मिलती, इस सामान्य ज्ञान को हम प्रकृति के साथ जोड़कर न देख सके, जिसका नतीजा धरती पर अत्यधिक बोझ के रूप में सामने है, फिर वह चाहे जनसंख्या का हो या अनाज उत्पादन का। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार, हर साल दुनिया भर में भोजन की बर्बादी से करीब सात सौ अरब डॉलर का नुकसान होता है। एफएओ द्वारा कराया गया यह अध्ययन अपनी तरह का पहला है, जिसमें पर्यावरण की दृष्टि से भोजन की बर्बादी के प्रभाव का विश्लेषण किया गया है।
यह अध्ययन साफ तौर पर इंगित करता है कि हम अपनी जनसंख्या का पेट भरने के लिए जितना भोज्य पदार्थ हर वर्ष बनाते हैं, उसका लगभग एक तिहाई हिस्सा बर्बाद हो जाता है। आंकड़ों में यह हिस्सा लगभग एक अरब तीस करोड़ टन होता है। रिपोर्ट के अनुसार, भोजन की चौवन प्रतिशत बर्बादी उत्पादन, कटाई और भंडारण के वक्त होती है, जबकि छियालीस प्रतिशत बर्बादी वितरण और खपत के दौरान होती है। इसी रिपोर्ट के अनुसार, हर दिन दुनिया के लगभग 87 करोड़ लोग भूखे सोते हैं। यह महज खाद्य पदार्थों की बर्बादी नहीं है, बल्कि इस पूरी प्रक्रिया में शामिल सभी प्रकृति प्रदत्त अवयवों की बर्बादी होती है, वह चाहे ऊर्जा हो या पानी, सभी का दोहन होता है। पर उनका उपयोग नहीं होता, जिसका परिणाम पर्यावरण के ऊपर अतिरिक्त दबाव और असंतुलित विकास के रूप में सामने आता है। भारत जैसे विकासशील देश में जहां भुखमरी जैसी समस्या का हल करने के लिए सरकार को खाद्य सुरक्षा कानून लाना पड़ा, वहां अनाज का भंडारण एक बड़ी चुनौती है। संसद को दिए गए एक जवाब के अनुसार, देश में हर साल 13, 309 करोड़ रुपये की फल और सब्जियां बर्बाद हो जाती हैं। इस आंकड़े में अगर गेहूं, चावल व अन्य अनाज की कीमत को भी जोड़ दी जाए, तो यह संख्या बढ़कर 44 हजार करोड़ रुपये हो जाती है। खाद्यान्न उत्पादन का बढ़ना तभी बेहतर माना जाएगा, जब लोग उसका उपयोग कर पाएं और हमारा मानव संसाधन बेहतर हो, लेकिन यदि ऐसा नहीं हो पा रहा है, तो हम दोहरे संकट में हैं। एक ओर जहां हम ज्यादा खाद्यान्न पैदा कर धरती की उर्वरा शक्ति से खिलवाड़ कर रहे हैं, जिसमें पानी और ऊर्जा के लिए लकड़ी, कोयला व गैस जैसे अवयवों का अनियंत्रित दोहन भी शामिल है, वहीं इसका फायदा उन लोगों को नहीं हो रहा है, जिन्हें ज्यादा जरूरत है।
भारत में खाद्यान्न उत्पादन 2,510 लाख टन के साथ अब तक के रिकॉर्ड स्तर पर है, पर ये आंकड़े महज दिल को बहलाने के लिए हैं, क्योंकि तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। योजना आयोग द्वारा 2012 में गठित सुमित्रा चौधरी समिति ने भी माना था कि देश को 613 टन भंडारण क्षमता की जरूरत है, जबकि मौजूदा क्षमता मात्र 290 टन की है, यानी मौजूदा अंतर 320 टन का है। इस समस्या के अन्य आयाम भी हैं। भारत जैसे देश में जहां खाद्य पदार्थों के संरक्षण और बचत को लेकर जागरूकता का अभाव है, वहीं शादी और अन्य सामाजिक आयोजनों में भोजन की बर्बादी आम है। आंकड़ों के आईने में एक बात तो साफ है कि प्रकृति सबका पेट भरने लायक खाद्यान्न पैदा करती है, पर हम उनका समान वितरण कर पाने में विफल रहे हैं, जिसका नतीजा अन्न की बर्बादी के रूप में सामने आ रहा है।
रिपोर्ट का मानना है कि यदि खाद्य पदार्थों की बर्बादी को हम कम कर पाने में सफल हो जाएं, तो गरीबी की समस्या से निपटा जा सकता है। नष्ट होते खाद्यान्न पर लगने वाले खर्च का निवेश कर आर्थिक रूप से बदहाल तबके का जीवन बेहतर किया जा सकता है, लेकिन यह सब इतना आसान नहीं है। इसके लिए सभी को मिलकर प्रयास करना होगा, सरकार जहां भंडारण और परिवहन से होने वाली खाद्यान्न की बर्बादी रोकने के लिए पहल कर सकती है, वहीं लोगों को भी अपनी आदतें बदलनी होंगी, ताकि भोजन की बर्बादी न हो।
अमर उजाला में 27/09/13 को प्रकाशित 

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