Monday, September 30, 2013

अवैध खनन द्वारा नदियों से खिलवाड़

रोटी कपड़ा और मकान के संकट से जूझते एक आम भारतीय के लिए पर्यावरण या उससे होने वाला नुकसान अभी भी कोई मुद्दा नहीं है और अवैध बालू खनन भी एक ऐसा ही मामला है जो हमें महज एक कानूनी मसला लगता है। बालू के अवैध खनन के पीछे एक बड़ा कारण इसका भारी होना भी है जिसके कारण बालू को दूर तक ले जाना मुश्किल होता है। इसलिए निर्माण कंपनियां आसपास के इलाकों से बालू निकालने को प्राथमिकता देती हैं। बालू का इस्तेमाल कंक्रीट में मिलाने और ईटें बनाने के लिए किया जाता है। हालांकि सरकार ने बालू खनन के लिए लाइसेंस की व्यवस्था की है, पर मांग बहुत ज्यादा है जिससे लाइसेंस व्यवस्था को लगातार अनदेखा कर अवैध खनन को बढ़ावा मिलता है। बगैर ज्यादा लागत के ये बहुत मुनाफे वाला सौदा है लेकिन अंधाधुंध और अनियंत्रित बालू उत्खनन से नदी के किनारों का घिसाव होता है जिसका परिणाम जैविवविधता के नुकसान के रूप में सामने आता है। किनारे कटने से वहां पनपने वाली वनस्पतियां नष्ट होती हैं और वहां पलने वाले जीव-जंतुओं का प्राकृतिक आवास समाप्त होता है। इसके परिणामस्वरूप नदी के पानी को धारण करने और नदी को दोबारा जल मुहैया कराने वाली व्यवस्था को हानि पहुंचती है। पर अंधाधुंध विकास के चक्कर में इसकी परवाह किसे है क्योंकि विकास का आकलन आर्थिक नजरिए से किया जाता है। यही कसौटी भी है और यही परिणाम भी। उपभोक्तावाद ने हमें इतना अधीर कर दिया है कि विकास का मापदंड सिर्फ भौतिकवादी चीजें और पैसा ही रह गया है। पक्के निर्माण के बढ़ते चलन और प्रकृति प्रदत्त चीजों पर निर्भरता कम होने का परिणाम है बढ़ता शहरीकरण। आज गांव सिमट रहे हैं और शहर भर रहे हैं। चूंकि गांवों में अभी भी आधारभूत ढांचे का अभाव है इसलिए आर्थिक रूप से थोड़ा-बहुत हर ग्रामीण शहर में बसने के सपने देखता है या शहर की तरह गांव में पक्का घर का निर्माण चाहता है। और यह प्रक्रिया आवास निर्माण उद्योग में क्रांति ला रही है और पक्के निर्माण विकसित होने की निशानी माने जा रहे हैं। देश की तरक्की के लिए विकास जरूरी है पर अनियोजित विकास, समस्याएं ही बढ़ाएगा जिसकी कीमत आज नहीं तो कल हम सबको चुकानी ही पड़ेगी। 2009 में निर्माण उद्योग ने देश के सकल घरेलू उत्पाद में 8.9 प्रतिशत का योगदान दिया, जो 2005 के 7.4 प्रतिशत से ज्यादा है। योजना आयोग के अनुसार अगर देश को लगातार बढते रहना है तो 31 मार्च 2017 को खत्म होने वाले वित्त वर्ष में अवसंरचना क्षेत्र में निवेश को जीडीपी का दस प्रतिशत करना होगा, जो पहले पांच साल के आठ प्रतिशत से ऊपर होगा। भारत भले ही गांवों का देश हो, पर आज पूरे देश में शहरीकरण की बयार बह रही है। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक कुल 121 करोड़ की आबादी में से 37.71 करोड़ लोग शहरो में रहते हैं। भविष्य में इस तस्वीर की बहुत तेजी से बदलने की संभावना है। अनुमान के मुताबिक शहरीकरण की वर्तमान दर 31.1 प्रतिशत है जो 2030 तक चालीस प्रतिशत हो जाएगी। बढ़ता शहरीकरण रीयल एस्टेट और आवास जैसे क्षेत्रों में मांग बढ़ा रहा है। आंकड़े के अनुसार पिछले दस सालों में आवास क्षेत्र में बत्तीस प्रतिशत की बढोत्तरी हुई है। जैसे- जैसे भारत का शहरीकरण बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे मकानों वाली भूमि का आकार बढ़ता जाएगा। यह 2005 के आठ अरब वर्ग मीटर से बढ़कर 2030 तक 41 अरब वर्ग मीटर तक फैल सकता है। अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए अगले पांच सालों में एक ट्रिलियन डॉलर सार्वजनिक और निजी निवेश की जरूरत होगी। यह निवेश सड़कों, विमानपत्तन और नौकरियों में होगा। अगर ये अनुमानित निवेश हो जाता है, तो बालू जैसे अवसंरचना में लगने वाले कच्चे माल की मांग तीन गुना तक बढ़ जाएगी और बालू आपूर्तिकर्ताओं पर बेतहाशा दबाव बढ़ेगा और ये दबाव कहीं न कहीं अवैध बालू खनन को बढ़ावा देगा। बात जब निर्माण की होती है तब हम सीमेंट के बारे में सोचते हैं। लेकिन सीमेंट तो मात्र जोड़ने वाला एक पदार्थ है, निर्माण का मुख्य अवयव है बालू और पत्थर या ईट। बालू का कोई और सस्ता सुलभ विकल्प न होने का कारण उसका अवैध खनन होता है जिसकी कीमत हमारी नदियां चुकाती हैं। उत्तराखंड हादसा हुए अभी ज्यादा वक्त नहीं बीता जिसने हमें चेताया। पर इस चेतावनी को समझने के लिए हजारों लोगों को अपनी जान देनी पड़ी, सैकड़ों घायल हुए और बेघर भी। बालू का अवैध खनन मैदानी क्षेत्रों के पर्यावरण को कितनी बुरी तरह प्रभावित कर रहा है इसका वास्तविक आकलन होना अभी बाकी है, पर हम जिस तरह अपने पर्यावरण से खेल रहे हैं वह वास्तव में एक खतरनाक खेल है। कानून में बड़े खनिजों जैसे कोयले, हीरे अथवा सोने के विपरीत रेत को ‘लघु खनिज’ कहा जाता है। कानूनन पांच हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में खनन लीज के लिए पर्यावरण संबंधी अनुमति लेना आवश्यक है। हालांकि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने अपने दिए एक आदेश में अब पांच हेक्टेयर से कम क्षेत्र में भी खनन को केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय या संबंधित राज्य के पर्यावरण प्रभाव आंकलन प्राधिकरण से अनुमति को अनिवार्य कर दिया है। खान और खिनज (विकास और नियामक) एक्ट 1957 (मई 2012 में संशोधित) के मुताबिक रेत खनन करने वालों को राज्य के प्राधिकारियों से एक लाइसेंस लेना होता है और बालू की मात्रा के मुताबिक शुल्क देना होता है। यह बिक्री दाम का करीब आठ प्रतिशत हो सकता है। बगैर अनुमति बालू खोदने की सजा दो साल तक की जेल या 25 हजार रुपए का जुर्माना अथवा दोनों हो सकते हैं। अवैध रेत खनन को रोकने को लेकर समस्या यह है कि निर्माण में बालू के ज्यादा विकल्प नहीं हैं और जो विकल्प हैं भी वे बालू के मुकाबले महंगे हैं। पर्यावरण जागरूकता के अभाव में और ‘जरा-सा बालू निकालने से नदी कौन-सी सूख जाएगी’ वाली मानसिकता नदियों के प्रवाह तंत्र को प्रभावित करके पर्यावरण के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न कर रही है। अब समय आ गया है कि पर्यावरण की दृष्टि के अनुकूल बालू का कोई ऐसा विकल्प ढूंढा जाए जिससे अवैध बालू खनन पर रोक लगे और अवैध बालू जैसे लघु खनिजों से संबंधित कानूनों को और कड़ा किया जाए। हमें अमेरिका और ब्रिटेन जैसे विकसित देशों से सबक लेना होगा जिन्होंने समय रहते अपने पर्यावरण संबंधी कानूनों को कड़ा किया और यह भी सुनिश्चित किया कि इन कानूनों का कड़ाई से पालन हो।

    राष्ट्रीय सहारा में 30/09/13 को प्रकाशित 

Friday, September 27, 2013

उनकी भी सोचें जिन्हें भोजन नहीं मिलता

पर्यावरण एक चक्रीय व्यवस्था है। अगर इसमें कोई कड़ी टूटती है, तो पूरा चक्र प्रभावित होता है। पर विकास और प्रगति के फेर में हमने इस चक्र की कई कड़ियों से खिलवाड़ करना शुरू कर दिया है। पूंजीवाद के इस युग में कोई चीज मुफ्त में नहीं मिलती, इस सामान्य ज्ञान को हम प्रकृति के साथ जोड़कर न देख सके, जिसका नतीजा धरती पर अत्यधिक बोझ के रूप में सामने है, फिर वह चाहे जनसंख्या का हो या अनाज उत्पादन का। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार, हर साल दुनिया भर में भोजन की बर्बादी से करीब सात सौ अरब डॉलर का नुकसान होता है। एफएओ द्वारा कराया गया यह अध्ययन अपनी तरह का पहला है, जिसमें पर्यावरण की दृष्टि से भोजन की बर्बादी के प्रभाव का विश्लेषण किया गया है।
यह अध्ययन साफ तौर पर इंगित करता है कि हम अपनी जनसंख्या का पेट भरने के लिए जितना भोज्य पदार्थ हर वर्ष बनाते हैं, उसका लगभग एक तिहाई हिस्सा बर्बाद हो जाता है। आंकड़ों में यह हिस्सा लगभग एक अरब तीस करोड़ टन होता है। रिपोर्ट के अनुसार, भोजन की चौवन प्रतिशत बर्बादी उत्पादन, कटाई और भंडारण के वक्त होती है, जबकि छियालीस प्रतिशत बर्बादी वितरण और खपत के दौरान होती है। इसी रिपोर्ट के अनुसार, हर दिन दुनिया के लगभग 87 करोड़ लोग भूखे सोते हैं। यह महज खाद्य पदार्थों की बर्बादी नहीं है, बल्कि इस पूरी प्रक्रिया में शामिल सभी प्रकृति प्रदत्त अवयवों की बर्बादी होती है, वह चाहे ऊर्जा हो या पानी, सभी का दोहन होता है। पर उनका उपयोग नहीं होता, जिसका परिणाम पर्यावरण के ऊपर अतिरिक्त दबाव और असंतुलित विकास के रूप में सामने आता है। भारत जैसे विकासशील देश में जहां भुखमरी जैसी समस्या का हल करने के लिए सरकार को खाद्य सुरक्षा कानून लाना पड़ा, वहां अनाज का भंडारण एक बड़ी चुनौती है। संसद को दिए गए एक जवाब के अनुसार, देश में हर साल 13, 309 करोड़ रुपये की फल और सब्जियां बर्बाद हो जाती हैं। इस आंकड़े में अगर गेहूं, चावल व अन्य अनाज की कीमत को भी जोड़ दी जाए, तो यह संख्या बढ़कर 44 हजार करोड़ रुपये हो जाती है। खाद्यान्न उत्पादन का बढ़ना तभी बेहतर माना जाएगा, जब लोग उसका उपयोग कर पाएं और हमारा मानव संसाधन बेहतर हो, लेकिन यदि ऐसा नहीं हो पा रहा है, तो हम दोहरे संकट में हैं। एक ओर जहां हम ज्यादा खाद्यान्न पैदा कर धरती की उर्वरा शक्ति से खिलवाड़ कर रहे हैं, जिसमें पानी और ऊर्जा के लिए लकड़ी, कोयला व गैस जैसे अवयवों का अनियंत्रित दोहन भी शामिल है, वहीं इसका फायदा उन लोगों को नहीं हो रहा है, जिन्हें ज्यादा जरूरत है।
भारत में खाद्यान्न उत्पादन 2,510 लाख टन के साथ अब तक के रिकॉर्ड स्तर पर है, पर ये आंकड़े महज दिल को बहलाने के लिए हैं, क्योंकि तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। योजना आयोग द्वारा 2012 में गठित सुमित्रा चौधरी समिति ने भी माना था कि देश को 613 टन भंडारण क्षमता की जरूरत है, जबकि मौजूदा क्षमता मात्र 290 टन की है, यानी मौजूदा अंतर 320 टन का है। इस समस्या के अन्य आयाम भी हैं। भारत जैसे देश में जहां खाद्य पदार्थों के संरक्षण और बचत को लेकर जागरूकता का अभाव है, वहीं शादी और अन्य सामाजिक आयोजनों में भोजन की बर्बादी आम है। आंकड़ों के आईने में एक बात तो साफ है कि प्रकृति सबका पेट भरने लायक खाद्यान्न पैदा करती है, पर हम उनका समान वितरण कर पाने में विफल रहे हैं, जिसका नतीजा अन्न की बर्बादी के रूप में सामने आ रहा है।
रिपोर्ट का मानना है कि यदि खाद्य पदार्थों की बर्बादी को हम कम कर पाने में सफल हो जाएं, तो गरीबी की समस्या से निपटा जा सकता है। नष्ट होते खाद्यान्न पर लगने वाले खर्च का निवेश कर आर्थिक रूप से बदहाल तबके का जीवन बेहतर किया जा सकता है, लेकिन यह सब इतना आसान नहीं है। इसके लिए सभी को मिलकर प्रयास करना होगा, सरकार जहां भंडारण और परिवहन से होने वाली खाद्यान्न की बर्बादी रोकने के लिए पहल कर सकती है, वहीं लोगों को भी अपनी आदतें बदलनी होंगी, ताकि भोजन की बर्बादी न हो।
अमर उजाला में 27/09/13 को प्रकाशित 

Monday, September 23, 2013

सरकारी आंकड़ों का सके लिए उपलब्ध होना

इंटरनेट पर सूचनाएं और आंकड़े खोजना और उनका विश्लेषण करना  कभी मुश्किल नहीं रहा पर जब आंकड़े भारत से सम्बन्धित हों तो किसी एक  अधिकृत स्रोत पर भरोसा नहीं किया जा सकता, जहाँ देश से सम्बन्धित सारे  आंकड़े विश्वसनीय तरीके से प्राप्त किये जा सकें|आंकड़ों तक जनता की सर्वसुलभता को बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय आंकड़ा भागिता और अभिगम्यता नीति (एन डी एस ए पी )2012 का निर्माण किया गया  जिसके अनुसार    आंकड़ा प्रबंधन की मौजूदा व्यवस्था सरकार के विभिन्न उपक्रमों में संयोजन के हिसाब से उपर्युक्त नहीं है| इसी दिशा में राष्ट्रीय आंकड़ा भागिता और अभिगम्यता नीति को ध्यान में रखते हुए data.gov.in वेबसाईट का निर्माण किया गया है जहाँ सरकार के समस्त विभागों के गैर संवेदनशील आंकड़ों का संग्रहण किया जा रहा है| माना जाता है कि आंकड़ों तक आम जन की पहुँच से प्रशासन में पारदर्शिता बढेगी  और उनके  तार्किक विश्लेषण से  देश में हो रहे सामाजिक आर्थिक बदलाव पर नजर रखते हुए  योजनाएं बन सकेंगी |सूचना क्रान्ति के युग में भी अब तक सरकार आंकड़ों की अधिकृत  मालिक बनी हुई थी पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र का घोषणा पत्र भी कहता है कि राज्य सूचना को व्यापक रूप से उपलब्ध करा जनजागरूकता और भागीदारी में सुविधा प्रदान कर्रेंगे, सरकार की इस  पहल से भारत की डिजीटल तस्वीर बदलने की उम्मीद की जा रही है.data.gov.in वेबसाईट नेशनल इन्फोर्मेटिक्स सेंटर द्वारा विकसित की गयी है|इस वक्त इस साईट पर सरकार के इक्यावन विभाग के चार हजार अड़सठ डाटा सेट उपलब्ध हैं,भविष्य में इसमें विभिन्न राज्यों और संघ शासित केन्द्रों के आंकड़े भी शामिल किये जायेंगे |स्मार्ट फोन पर इंटरनेट के प्रयोग की अधिकता को देखते हुए इस वेबसाईट में कई तरह के एप भी विकसित किये जा रहे हैं जिन्हें डाउनलोड  कर उनका इस्तेमाल किया जा सकता जैसे किसी शहर के पिनकोड को जानने के लिए बस एक एप अपने फोन या कंप्यूटर में डाउनलोड करना है यह वेबसाईट काफी इंटरेक्टिव है लोगों से प्राप्त सुझाव को वेबसाईट में लगातार जगह दे जा रही है वहीं विभिन्न क्षेत्रों की कम्युनिटी पेज भी हैं जहाँ आप ब्लॉग के माध्यम से अपने अनुभव साझा कर सकते हैं और सम्बन्धित विषयों के विभिन्न एप् डाउनलोड कर सकते हैं यदि आपने कोई एप बनाया है तो उसे सबके साथ साझा भी कर सकते हैं जैसे कृषि समुदाय के पेज पर भारत की समस्त मंडियों के कृषि उत्पाद की कीमत जानने और उनका तुलनात्मक आंकलन करने वाला एप मौजूद है|सूचना अधिकार कानून के बढते इस्तेमाल और लोगों में सूचना प्राप्त करने की बढ़ती प्रवृत्ति में  यह वेबसाईट सरकारी प्राधिकारणों पर सूचना देने के बढते दबाव को कम करने में सहायक सिद्ध हो सकती है| छ भागों में विभाजित इस वेबसाईट में लोगों को नए विचार साझा करने और जनउपयोगी एप बनाने के लिए कंटेस्ट का पेज भी है|अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों में यह पहल क्रमशः2009 और 2010 में की जा चुकी है इन देशों के मुकाबले भारत के  इस प्रयोग  को सफल बनाने के लिए अभी कई कसौटियों पर खरा जाना है |इस प्रयोग की सफलता एप के अधिकाधिक निर्माण और ज्यादा से ज्यादा  लोगों तक उनको साझा किये जाने  पर निर्भर करेगी|हिन्दी के साथ  विभिन्न क्षेत्रीय भाषाई संस्करण अगर जोड़ दिए जाएँ तो ऐसे प्रयास निश्चित रूप से क्रांतिकारी साबित होंगे फिलहाल देश के आंकड़ों को जनता तक पहुँचने का एक पड़ाव तो पार हो ही चुका है |
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 हिन्दुस्तान में 23/09/13 को प्रकाशित 





Friday, September 20, 2013

प्रीपेड मोबाईल सी होती हमारी लाईफ

क्या हुआ सुबह सुबह मोबाईल में बैलेंस खत्म हो गया,नेट पैक रिचार्ज करवाना भूल गए अब ई पेपर कैसे पढ़ें.उफ़ जीवन में कितने मसले हैं भाई लोगों जिंदगी बहुत तेजी से बदल रही है तो प्रीपेड पोस्टपेड और मोबाईल  जैसे कॉन्सेप्ट हमारे जीवन का हिस्सा बन गए हैं पर ये सब मैं आपको क्यूँ बता रहा हूँ.गुड़ क्वेशचन आपको सोल्यूशन चाहिए प्रोब्लम तो सबके साथ है.कभी आपने सोचा हमारी जिंदगी प्रीपेडमोबाईल  ही तो है हम इसका जितना ख्याल रखेंगे वो उतना ही ज्यादा चलेगी.आप नहीं समझे अरे भाई जमाना बहुत तेजी से बदल रहा है.अब शुद्ध घी की बात करने वाले देश में हमने रोमांस को वो भी शुद्ध वाला देशी बना दिया है.शादियाँ प्लान की जाती है और इसका बिजनेस बहुत तेजी से फ़ैल रहा है और फैमली प्लानिंग तो आप सबने सुना होगा.इस दुनिया में अब सबकुछ प्लान किया जा रहा है और प्लानिंग पर खासा जोर है.अब देखिये आपको पता होता है कि महीने में आपका मोबाईल और नेट पैक का कितना खर्चा आप उसी हिसाब से रीचार्ज करवाते हैं जहाँ आपकी प्लानिंग गड़बड़ाती है बैलेंस निल हो जाता है तब हम  भगवान से लेकर किस्मत को ना जाने कितना कोसते हैं पर गलती तो हमारी ही है ना,सोचिये  अगर आप स्टूडेंट हैं तो नेट पैक का यूज पढ़ने के लिए करेंगे ना कि डीफरेंट एप्प पर चैटिंग करते हुए अपना नेट पैक खत्म करेंगे मतलब आपकी प्लानिंग गडबड है.माना कि आप पढते हुए भी अपनी गर्लफ्रेंड या बॉयफ्रेंड से जुड़े रहना चाहते हैं तो कोई सेम नेटवर्क वाला फ्री प्लान ले लीजिए पर एक ही वक्त में आपको कई सारे लोगों से बात करनी है और इसके लिए आपको कई मोबाईल चाहिए तो आपकी प्लानिंग गडबड है क्यूंकि अभी आप पढ़ रहे हैं और आपका ये शौक आपको अपने ऑब्जेक्टिव को अचीव करने से डिस्ट्रेक्त करेगा जब आप कमाने लग जाएँ जितने चाहें मोबाईल रखें कोई आपको रोकने नहीं आएगा .मुझे पता है आप बहुत समझदार हैं तो नो ज्ञान हम फ़िर लौट आते हैं जिंदगी पर वो भी प्रीपेड जिंदगी अरे भाई हमारी जिंदगी भी  तो प्रीपेड मोबाईल जैसी है.हमने अपने लिए जितने सपने देखे हैं अगर उनको पूरा करना है तो उतनी ही शिद्दत से मेहनत करनी पड़ेगी क्यूंकि वो कहावत तो अब पुरानी हो गयी कि जितना गुड़ डालोगे उतना ही मीठा होगा अब तो जितना बैलेंस होगा उतनी ही बात होगी.सपने जितने बड़े होंगे मेहनत उतनी ज्यादा करनी पड़ेगी अगर ऐसा नहीं करेंगे तो जैसे बैलेंस खत्म होने पर बात बीच में कट जाती है वैसी ही आप अपने सपने को हकीकत का जामा नहीं पहना पायेंगे.अच्छा कई बार ऐसा होता है कि आपके मोबाईल में बैलेंस भी होता है और बैटरी चार्ज फ़िर भी कॉल कनेक्ट नहीं होती तो क्या आप जिससे बात करना चाहते हैं उसको फोन नहीं करते है.ना आप फ़िर से कोशिश करते हैं और तब तक कोशिश करते हैं जब तक बात ना हो जाए तो आपकी प्लानिंग सही है फ़िर भी आप असफल हो रहे हैं तो इसका मतलब नहीं है कि आप प्रयास करना छोड़ देंगे बल्कि धीरज के साथ तब तक कोशिश करेंगे जब तक आपको सफलता ना मिल जाए.आपके पास बहुत अच्छा टच वाला थ्री जी मोबाईल है पर उसमें बैलेंस नहीं है तो वो बेकार है यानि बैलेंस के साथ मोबाईल का मेंटीनेंस भी जरूरी है तो इस प्रीपेड लाईफ में अपने शरीर का ध्यान रखना भी जरूरी है अब अब बीमार शरीर के साथ आप अपने सपने कैसे पूरे करेंगे तो लाईफ में एक अनुशासन रखिये समय से सोइए और समय से जागिये तो नो लेट नाईट चैट और नो एक्सेस ईटिंग और ना ही स्लिम रहने के चक्कर में डाइटिंग अरे भाई मोबाईल की बैटरी को ज्यादा चार्ज करेंगे तो क्या होगा और कम चार्ज करेंगे तो क्या होगा.समझ गए ना मैं क्या कह रहा हूँ.क्यूँ मैं बातें अच्छी करता हूँ न. अरे मैंने अपने मोबाईल को चार्ज कर रखा है और उसमें बैलेंस भी है फ़िर आपसे बात करने की कोशिश नहीं छोड़ता और देखिये ना हर महीने आप से बात करके ही मानता हूँ.
आई नेक्स्ट में 20/09/13 को प्रकाशित 

Thursday, September 19, 2013

अंधेर भले ना हो देर बहुत है

अपराध का कोई चरित्र नहीं होता है- अपराध समाजविरोधी वह क्रिया है जो समाज और विधि द्वारा निर्धारित आचरण का उल्लंघन या उसकी अवहेलना है। भारतीय समाज भी अपराधों से अछूता नहीं है। पिछले कुछ सालों में हमारे यहां बलात्कार की घटनाओं में काफी इजाफा हुआ है। बढ़ते बलात्कार सामजिक समस्या के साथ साथ कानूनी समस्या भी हैं। किसी भी सभी समाज में अपराधों के बढ़ने का मतलब है न्याय व्यवस्था पर ज्यादा भार, खासकर भारत जैसे देश में जहां न्यायालयों पर जरूरत से ज्यादा बोझ का असर न्याय में देरी के रूप में सामने आ रहा है। मुकदमों की त्वरित सुनवाई के लिए सरकार ने विशेष मामलों में फास्ट ट्रैक अदालतों के गठन की घोषणा की है। बलात्कार के बढ़ते मामलों का बोझ फास्ट ट्रैक अदालतों पर भी पड़ रहा है क्योंकि मुकदमों की संख्या में वृद्धि हो रही है। महिलाएं मुखरता से अपने साथ हुई ज्यादती को अब बयान कर रही हैं। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित होने के कुछ दिन पूर्व दिल्ली में बलात्कार के चौदह सौ मामले सुनवाई का इंतजार कर रहे थे। अगस्त के मध्य तक, ये आंकड़ा बढ़कर 1,670 हो गया। पर तथ्य यह भी है कि औसत मुकदमे में लगने वाला समय कई सालों से घटकर लगभग 8-10 महीने रह गया है। हालांकि निराशाजनक बात यह है कि अपराध साबित होने की दर नहीं बढ़ी है । 2012 में दिल्ली के विभिन्न न्यायालयों ने बलात्कार के 547 मुकदमों की सुनवाई पूरी की, जिनमें 204 पुरु षों पर अपराध सिद्ध हुए, इस तरह अपराध के साबित होने की दर 37 प्रतिशत रही। इस साल जून तक, फास्ट ट्रैक न्यायालयों में 299 मुकदमों की सुनवाई हुई, जिनमें से 95 पुरुषों पर अपराध साबित हुआ, यानी अपराध साबित होने की दर 32 प्रतिशत रही। राजस्थान, जहां फास्ट ट्रैक न्यायालय 2005 से स्थापित हैं वहां बलात्कार जैसे मामलों में अपराध साबित होने की दर करीब पचीस प्रतिशत है। बलात्कार के अतिरिक्त अन्य अपराधों में पकड़े गए लोग भी अदालतों में इंतजार ही कर रहे हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि साल 2012 में तीन करोड़ से ज्यादा लोग गंभीर अपराधों में मुकदमों पर निर्णय का इंतजार कर रहे थे। देश के कानून मंत्रालय का कहना है कि इनमें से एक-चौथाई मुकदमे पांच साल से भी पुराने मामलों से जुड़े थे, इनमें से करीब एक लाख बलात्कार के मामले थे। 2012 में महज 15 हजार से भी कम बलात्कार के मुकदमों की सुनवाई पूरी हुई। भारतीय न्याय आयोग की सन् 1984 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार उस समय भारत में प्रति दस लाख व्यक्तियों पर 10 न्यायाधीश थे। सन् 2007 तक आते-आते यह संख्या घट कर मात्र छह रह गई, जबकि इसी वक्त बांग्लादेश में प्रति दस लाख व्यक्तियों पर न्यायाधीशों की संख्या 12 थी। हालांकि अप्रैल 2013 तक भारत में प्रति 10 लाख जनसंख्या पर न्यायाधीशों की संख्या बढ़कर 13 हो गई थी, परंतु यह संख्या भारतीय न्याय आयोग द्वारा जारी 120वीं रिपोर्ट में प्रस्तावित संख्या 50 से लगभग चार गुना कम है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की वेबसाइट पर दिए गए आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2012 में 60 लाख से भी अधिक सं™ोय अपराधों के मामले दर्ज किए गए। यदि ऊपर दिए गए इन दोनों आंकड़ों को हम मिलकर देखें तो यह साफ नजर आता है कि स्थिति कितनी चिंताजनक है। सरकार ने 2001 और 2011 के बीच करीब 1,500 फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित किए। लेकिन कोर्ट व्यवस्था से गुजरने वाले मामलों के लिए सरकारी वकीलों और न्यायाधीशों की संख्या अपर्याप्त है। देश की अदालतों में 2 करोड़ 60 लाख से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं। इनमें से कुछ मामले पचास साल से भी ज्यादा पुराने हैं। साफ है कि हमारी न्यायपालिका मुकदमों के अतिशय भार से दबी हुई है। उदाहरण के लिए एक अमेरिकी कोर्ट में सालाना केवल दस हजार के करीब मुकदमे आते हैं जबकि हमारे उच्चतम न्यायालय में लगभग 5500 मुकदमे प्रतिमाह दर्ज होते हैं। पिछले वर्ष तिहाड़ में बंद 12,194 कैदियों में से 73.5 प्रतिशत अपने मुकदमे की सुनवाई शुरू होने का इंतजार कर रहे थे। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक 2010 तक देश के 2.4 लाख कैदियों में 65.1 प्रतिशत अपने मुकदमों के शुरू होने का इंतजार कर रहे थे और 1,659 कैदी यानी कुल कैदियों की संख्या के 0.7 प्रतिशत , बगैर मुकदमा शुरू हुए पिछले पांच सालों से जेल में थे। न्याय मिलने में लेटलतीफी की इस समस्या का कोई त्वरित समाधान नहीं है, पर जो समाधान हमारे पास हैं हम उन्हें भी इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं या नहीं करना चाह रहे हैं। हमारे देश के अधिकतर न्यायालय लगभग एक महीने के ग्रीष्मकालीन अवकाश पर रहते हैं, जबकि माननीय उच्चतम न्यायालय इससे कहीं अधिक पैंतालीस दिन के ग्रीष्मकालीन अवकाश पर रहता है। हालांकि भारतीय न्याय व्यवस्था में अवकाशकालीन न्यायालयों का प्रावधान है, पर वे अत्यंत ही महत्वपूर्ण मुकदमों को छोड़कर और किसी मुकदमें के लिए नहीं हैं। ग्रीष्मकालीन अवकाश की व्यवस्था हमें अपनी अन्य कई व्यवस्थाओं की ही तरह अंग्रेजों से विरासत में मिली है। नियमानुसार माननीय उच्चतम न्यायालय को 185 और उच्च न्यायालयों को 210 दिन कार्य करना चाहिए, पर आमतौर पर यह संख्या कम ही रहती है। मसलन, एक आंकड़े के अनुसार पिछले वर्ष मद्रास उच्च न्यायालय में केवल 155 दिन कार्य हुआ। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि न्यायाधीशों का कार्य अत्यंत ही संवेदनशील होता है और देश में न्यायाधीशों की संख्या कम होने के कारण उन पर आवश्यकता से अधिक बोझ है। मुकदमों की संख्या बढ़ने और उनके सालों घिसटने में कुछ लोगों का अपना स्वार्थ भी होता है। इसके पीछे ज्यादातर यह मानसिकता काम कर रही होती है कि मुकदमे में लगने वाले समय और होने वाले खर्च से कमजोर आर्थिक स्थिति वाले लोग हालात से समझौता कर मुकदमा या तो बीच में छोड़ कर हार मान लेंगे या अदालत के बाहर कोई राजीनामा कर ही लेंगे। हालांकि तथ्य यह भी है कि अगर न्यायाधीश मुकदमों के लिए अनावश्यक तारीख मांगने वाले पक्ष की मंशा को भांप लेते हैं तो वे अपने विवेक से उन्हें रोक सकते हैं। पर मौजूदा स्थिति में इस अधिकार का इस्तेमाल कम ही होता दिखता है। अगर देश में न्याय व्यवस्था की स्थिति बदलनी है और जेलों को सही मायने में सुधार गृह की तरह बनाना है तो न्यायालयों में तेजी से फैसले करने वाले न्यायाधीशों को प्रोत्साहित करने और आदतन मुकदमों को लटकाने वाली व्यवस्था को हतोत्साहित करने के लिए कुछ प्रावधान होने चाहिए। इसमें कोई संशय नहीं है कि देश की अदालतों में मुकदमों के बोझ को कम किया जाना बहुत जरूरी है। हालांकि न्यायतंत्र से जुड़े अति संवेदनशील मुद्दे पर निर्णय इतनी आसानी से नहीं लिया जा सकता, पर अब वह वक्त आ गया है जब हमें गंभीरता से इस बात को समझना पड़ेगा कि मुकदमों का त्वरित निपटारा जहां लोगों को तुरंत न्याय दिलवाएगा, वहीं जेलों को ऐसे विचाराधीन कैदियों की संख्या से छुटकारा मिलेगा जिनको अभी ये पता ही नहीं कि वे दोषी हैं भी या नहीं। तभी हमारी जेलें सही मायने में सुधार गृह बन पाएंगी।
राष्ट्रीय सहारा में 19/09/13 को प्रकशित 

Tuesday, September 3, 2013

जिन्दगी के सरप्राईज़ टेस्ट

एक गाना सुना था कभी जिंदगी इम्तिहान लेती है हमने तो कोर्स का इम्तिहान सुना था पर जिंदगी इम्तिहान लेती है तो जरुर कोई टीचर भी होगा जो हमें जिंदगी का इम्तिहान देना सिखाता होगा पर हम उसे उसका ड्यू कभी नहीं देते क्यूंकि हमें पता ही नहीं होता कि हम किससे क्या सीख रहे हैं.क्यूँ डूड एक डिफरेंट पर्सपेक्टिव दिख रहा है ना अब जब एक्स्जाम की बात चल पडी है तो एक सवाल है ,जिंदगी में सबसे अहम क्या होता दिमाग लड़ाइये कुछ समझ में नहीं आ रहा है चलिए मैं आपकी मदद करता हूँ जिंदगी में सबसे अहम होता है लगातार सीखते जाना यही एक चीज है जो हमें आगे आगे बढाती है.जिस दिन हमें ये लग गया कि हम सब जान गए उसी दिन से हमारा खात्मा शुरू हो जाता है और हम जिससे भी सीखते हैं वो हमारी जिंदगी का मास्टर हो जाता है.अच्छा सोचिये आप जिंदगी में जितने भी लोगों से इम्प्रेस हुए हैं उनसे आपने जरुर कुछ सीखा होगा.सीखने के लिए उसे टीचर होना जरूरी नहीं जिंदगी में हमें ना जाने कितने लोग मिलते हैं जो बगैर कहे हमें बहुत कुछ सीखा कर चला जाते हैं और हमें कभी पता ही नहीं चलता.कोर्स की पढ़ाई से जिंदगी की पढ़ाई बहुत मुश्किल होती है और इस पढ़ाई का ना तो कोई फिक्स्ड सेलेबस होता है ना ही कोई फिक्स्ड टीचर अब देखिये ना अगर आपसे कहा जाए कि आपको प्यार करना किसने सीखाया तो आप किस टीचर का नाम लेंगे मम्मी की प्यार भरी लोरियाँ या पापा का प्यार भरा स्पर्श या वो दोस्त जिसे आप कब का अपने दिल से निकाल चुके हैं पर वो है कि आज भी इस आप के इन्तजार में है.हम अक्सर स्मार्ट बनते है कि हम तो डूड हैं जिसके पाले में जायेंगे उसे भारी कर देंगे पर हमारे आस पास ऐसे बहुत से मिंटू और चिंटू जैसे लोग हैं जिन्हें बगैर स्वार्थ हमारी मदद करना अच्छा लगता है ये वही लोग हैं जिनसे हमें अपने डूड होने का एहसास होता है.एहसास से याद आया हम डेली कितना कुछ कितने लोगों से सीख रहे होते हैं पर ये एहसास नहीं करते.उस दोस्त को याद कीजिये जिससे आपने बगैर किसी कारण से पांच महीने से बात नहीं की और गलती भी आप की है फ़िर भी वो शांति से इन्तजार कर रहा है कि कभी आप उसके अपनत्व और धैर्य को समझेंगे,कितनी सहजता से वो आपको जिंदगी का पाठ पढ़ा रहा है पर आप है कि समझते ही नहीं, तो हम बस उन्हीं टीचर्स को याद रखते हैं जिन्होंने कोर्स का सिलेबस पढाया होता पर जिंदगी का सिलेबस जो आपको अनगिनत लोगों द्वारा सिखाया जा रहा है उन पर भी गौर कीजिये वो दोस्त हैं ,रिश्तेदार हैं और कई बार तो बहुत से लोग बगैर किसी रिश्ते में बंधे हमें सीखा कर चले जाते हैं फ़िर कभी ना आने के लिए.कोर्स का एक्स्जाम साल में एक या दो बार होता है पर जिंदगी तो रोज सरप्राईज़ टेस्ट लेती है. अब मुझे देखिये कहने को तो मास्टर हूँ पर हर दिन अपने स्टुडेंट्स से सीखता हूँ क्यूंकि उनके होने से मैं हूँ. मैं उनके कोर्स का टीचर हूँ पर मेरे जिंदगी के टीचर वो सब हैं जिनके साथ रहकर मैं जिंदगी को समझ पाता हूँ.जिंदगी में सब कुछ हमारे हिसाब से नहीं होता है पर जो कुछ भी होता है उसे कैसे बेहतर बनाये जाए ये तो जिंदगी का टीचर ही सीखा सकता है,पर ऐसे लोग कौन हैं जरुरत है उनको पहचानने की कि ऐसे कौन लोग हैं जो आपका भला चाहते है और जो भला चाहते हैं वो हमेशा मीठी मीठी बातें नहीं करेंगे.असल में जो आपकी कद्र करते हैं उनकी कद्र कीजिये आप अपने आप जिंदगी की पढ़ाई में अव्वल आने लग जायेंगे पर ध्यान रखिये जिंदगी की पढ़ाई कोर्स की पढ़ाई से ज्यादा मुश्किल है तो आज के दिन मैं अपने छात्रों का शुक्रिया करूँगा जिन्होंने मुझे जिंदगी की पढ़ाई करने में मदद की .
हैप्पी टीचर्स डे
आई नेक्स्ट में 03/09/13 को प्रकशित 

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