Sunday, February 13, 2011

"जाने कितने दिनों से मैंने चाँद नहीं देखा"

"न जाने कितने दिनों से मैंने चाँद नहीं देखा
यूँ तो सब कुछ है जीवन में
पर वो हँसता मुस्कुराता आसमान नहीं देखा
युग बीते यूँ ही तारों को देखे हुए
जीवन के खाली पन में अपने आपको परखे हुए
जाने कितने दिनों से मैंने चाँद नहीं देखा



(सौमित्र का ब्लॉग पढते हुए अचानक ये पंक्तियाँ मन में आ गयी तो सोचा आपके साथ बाँट लिया जाए इस अधूरी कविता की पहली पंक्ति सौमित्र की कविता से ली गयी है सौमित्र अपने आपको व्यक्त करने के लिए एक पंक्ति देने के लिए आभार  )

Saturday, February 12, 2011

मीडिया की विश्वसनीयता

बी बी सी की हिंदी सेवा के बंद होने से ये साफ़ हो गया है कि सरकार समर्थित मीडिया तंत्र चाहे वो बी बी सी की तरह कितना ही स्वतंत्र और स्वायत्त ही क्यों न हो पर मीडिया का इस्तेमाल सिर्फ लोगों को सूचित करने के लिए नहीं किया जा सकता है सरकारें भी हानि लाभ से इसे देखती हैं अगर ऐसा न होता तो बी बी सी की रेडियो हिंदी प्रसारण सेवा को बंद करने का फैसला न किया जाता हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बी बी सी की भारत में लोकप्रियता का आधार भारतीय ग्रामीण वर्ग है जो सूचना विस्फोट के इस युग में आज भी खबरों के लिए रेडियो जैसे यन्त्र पर ही निर्भर है .

           यह डिजिटल डिवाइड यह दर्शाता है भारत जैसे लोकतंत्र में सूचनाओं को आम जन तक पहुँचाने की कसौटी को आर्थिक सम्पन्नता से देखा जाता है चूँकि भारत का आम आदमी बड़ा उपभोक्ता नहीं है इसलिए उसकी सूचना जरूरतों को पूरा करने के लिए हम बाध्य नहीं हैं .सारी दुनिया में ग्लोबलाइजेसन के बाद हर जगह बाजार की शक्तियां ज्यादा शक्तिशाली हुई हैं इसका असर मीडिया में भी दिख रहा है एक तरफ गुणवत्ता बनाये रखने और पाठकों /दर्शकों को रोकने के लिए बेहतर से बेहतर प्रतिभा की जरुरत वहीं उन प्रतिभाओं को बेहतर जीवन स्तर देने के लिए ज्यादा धन देने का दबाव खुला बाजार होने के कारण यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो दूसरा करेगा तो फिर हम ही क्यों न करें वाली मनोवृति आज का मीडिया इतनी केंद्रीय भूमिका में किसी भी वक्त में नहीं रहा जहाँ ये लोगों के बीच उसकी बढ़ती पहुँच को दिखाता है वहीं वो सबसे ज्यादा सवालों के घेरे में भी है .
              मीडिया के उपर उठते सवालों के मूल में है उसका चरित्र जो मिशनरी से अब पूर्णता व्यवसयिक हो गया है अब इसके फायदे हैं या नुक्सान यही बहस का मुद्दा है जिस तरह हमारा समाज और उसकी संस्थाएं बदल रही हैं मीडिया भी इनसे अछूता नहीं है अभी पिछले दिनों मीडिया के वेतन लिए आयी मजीठिया आयोग की रिपोर्ट पर किसी ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया पर मीडिया को लेकर जितने प्रश्न आज उठाये जा रहे हैं सभी के मूल में धन ही है .यदि पत्रकारों की जीवन शैली बेहतर हुई है और वेतन आकर्षक तो इसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए वेतन अगर आकर्षक चाहिए तो अखबारों को ज्यादा विज्ञापन और चैनलों को टी आर पी की आस होती है और होनी भी चाहिए .विज्ञापन और टी आर पी के लिए एक सामान्य सी व्यवस्था है और इसमें छेड़ छाड नहीं हो सकती क्योंकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुद्दा भी महतवपूर्ण है पर बगैर लाभ के यह व्यवसाय चल भी नहीं सकता इसलिए लाभ ज्यादा महतवपूर्ण हो गया है और सार्वजनिक हित कहीं पीछे छूटता सा दीखता है .
        सवाल कई हैं मीडिया के लिए कौन सा वित्तीय मोडल अपनाया जिससे इस पेशे की शुचिता भी बरक़रार रहे और लाभ की गुंजाईश भी ,पेड न्यूज़ ने भारतीय मीडिया की गरिमा को जहाँ ठेस पहुंचाई है वहीं सिर्फ मुनाफे की आस में इस क्षेत्र में आये लोगों को दो को चार बनाने का आसान रास्ता भी सुझाया है .अगर औडिएंस के नज़रिए से बात की जाय तो कम से कम भारत में औडिएंस सूचना और मनोरंजन के लिए ज्यादा धन नहीं खर्च करना चाहता और अगर करता भी है तो मजबूरी में लेकिन वो गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं चाहता यहाँ वह एकदम आम उपभोक्ता वाला व्यवहार मीडिया से करता है लेकिन जब वही उपभोक्ता एक आम इंसान के नज़रिए से मीडिया को तौलता है तो वह उम्मीद करता है कि मीडिया पेशे की नैतिकता को बनाये रखेगी और व्वसाय गत नज़रिए से उठकर देश और सार्वजनिक हित की कसौटी से अपने कार्यक्रम और संदेशों को परखकर लोगों को पहुंचायेगी ऐसे में वह भूल जाता है कि वैश्वीकरण के इस युग में बाजार से बचना मुश्किल है और बाजार में टिकना है तो मुनाफा कमाना पड़ेगा और वह मुनाफा सिर्फ और सिर्फ विज्ञापनों से ही अर्जित किया जा सकता है
              औडिएंस का यह दोहरा रवैया और मीडिया संस्थानों की ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की प्रवृति मीडिया की साख पर उठते सवालों का कारण है सरकारीकरण से दूरदर्शन और आकाशवाणी का क्या हश्र हुआ यह सभी के सामने है प्रसार भारती बोर्ड बन जाने के बावजूद स्थतियों में कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं आया है ये एक बानगी भर है कि सरकारी समर्थन के बावजूद हमारा प्रसारण तंत्र वो विश्वसनीयता हासिल नहीं कर पाया जो बी बी सी को हासिल हुई इसके लिए सरकारी दबाव भी जिम्मेदार है लेकिन वहीं जब रेडियो और टेलीविजन को निजी क्षेत्रों के लिए खोला गया तो उल्लेखनीय परिणाम देखने को मिले कार्यकर्मों की गुणवत्ता में सुधार हुआ और वे ज्यादा प्रयोगधर्मी हुए लेकिन समस्या फिर उठ खड़ी हुई कि वे बेडरूम में घुस रहे हैं अश्लीलता फैला रहे हैं अब इसकी मर्यादा कौन तय करेगा समाचार पत्रों को सरकारी हस्तक्षेप से पूर्णता मुक्त रखा गया लेकिन अब वो भी पेड न्यूज़ को लेकर सवालों को घेरे में हैं .
               देखा जाए तो अभी तक हम लोग मीडिया के किसी सार्थक रेवन्यू मोडल की तलाश नहीं कर पायें हैं जिसमे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन की गुंजाईश न हो और व्यवसायिक रूप से फलने फूलने का रास्ता भी हो .सामुदायिक रेडियो की अवधारणा पूरे मीडिया जगत में लागू नहीं की जा सकती क्योंकि आर्थिक संसाधनों का अभाव विस्तार में एक बड़ी बाधा है और इस तेज बदलती दुनिया के हिसाब से ऐसे प्रयोग उन क्षेत्रों के लिए तो ठीक हैं जहाँ किसी तरह के संचार साधनों का अभाव है या उनकी पहुँच नहीं है पर ऐसे प्रयोग मुख्य धारा की मीडिया का स्थान नहीं ले सकते हैं .सहकारी आंदोलन की तर्ज़ पर मीडिया का इस्तेमाल भारत जैसे बहु भाषीय समाज में सफलता की गारन्टी नहीं हो सकते इसका एक कारण तकनीक का तेजी से बदलना और इसका महंगा होना भी है वेब मीडिया एक उम्मीद की किरण जगाता तो है पर वह भी विज्ञापनों के माया जाल से बच नहीं सका और हमारे देश में अभी इन्टरनेट प्रयोग करने वालों की संख्या काफी कम है .सिर्फ मीडिया को इन तमाम समस्याओं के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता पाठकों /दर्शकों की मनोवृति भी एक बड़ा कारण है यदि आप मीडिया से अपेक्षा करते हैं तो इस व्यवसाय की समस्याओं और सीमाओ को भी समझें पहल दो तरफ़ा होगी तभी मीडिया की विश्वसनीयता में बढोतरी होगी ,चैनल और अखबार अपनी लक्ष्मण रेखा खुद ब खुद तय कर लेंगे और ऐसा उनहोंने किया भी है .
अमर उजाला के सम्पादकीय पृष्ठ पर १२ फरवरी को प्रकाशित

Wednesday, February 9, 2011

कठिन कार्य

एक दिन पढाई से जी उकताया
तब मन में विचार ये आया
कार्य ऐसा करूँ मैं अभी
जो किया न हो किसी ने कभी
इस प्रश्न ने मुझे किया परेशान
पढ़ना लिखना मेरा सब हो गया हराम
सोच -सोच कर मैं घबराया
कार्य ऐसा कुछ समझ न आया
मन में उभरा एक दार्शनिक प्रश्न
क्या इतना आसान है मानव जीवन
तभी हृदय से निकली एक आवाज़
आसान नहीं है बजाना जीवन का साज

प्रतिदिन धरती पर लाखो आते जाते हैं
कुछ दुनिया का कुछ ले जाते हैं
कुछ दुनिया को कुछ दे जाते हैं
अचानक मन में कौंधा एक विचार
जीवन जीना ही सबसे दुरूह कार्य
मैं दुनिया को कुछ दे जाऊँगा
सद्कर्मों से जीवन अपना सफल बनाऊंगा

जीवन की पहली कविता जब मैं दसवीं में पढता था 

दुल्हन

कुछ सहमी कुछ सकुचाई
जब तुम बैठी हो शरमाई
जब ह्रदय में तुम्हारे हो स्पंदन
अंग अंग में हो प्रीत का गुंजन
जब सांस में तुम्हारी हो गरमाहट
मन में भी जब हो अकुलाहट
नयन करे जब नयनों से बातें
जगते जगते  कटती हो रातें

मन में जब कोई प्यास जगी हो
आने की किसी की आस लगी हो
यूँ ही जब तुम मुस्काती हो
अपने से ही जब तुम शरमाती हो


तब प्रीत की डोली लेकर
मैं द्वार तुम्हारे आऊंगा
अपने अरमानों के वरमाला से
दुल्हन तुम्हें बनाऊंगा 

Tuesday, February 8, 2011

फिर कविता लिखी न गयी

ज्यों मधुर स्वप्न बिना हर नींद अधूरी
त्यों मधुर भाव बिना हर प्रीत अधूरी
क्योंकि
कुछ भावों के आगे शब्द तनिक फीके लगते हैं
शब्द बिना अर्थ किंचित रीते लगते हैं
इसलिए
प्रीत की बूंदें छलकाने को
मीठी भावनाएं दर्शाने को
इन शब्दों में कई कल्पनाएँ समावेशित हैं
कुछ हर्षित है
कुछ पुलकित हैं
कुछ आवेशित हैं
कुछ ओस जितनी कोमल हैं
कुछ गंगा जितनी निर्मल हैं
कुछ हिरनी जितनी चंचल हैं
इनको न कभी ह्रदय से जुदा कीजियेगा
जब भी हो कहीं आप असफल
चुपके से कोई भाव चुरा लीजियेगा
हम भी होंगे भावों में
साथ तुम्हारे आयेंगे
फिर पैर तले मंजिल क्या
हम आसमान ले आयेंगे


"इस कविता के बाद कोई कविता न लिख पाया न जाने क्यों "

तुम्हारी याद में

जब चटकी कली कोई
जब महका कोई उपवन
मदमस्त बहती चली जब पवन
तुम्हारी याद से सुरभित हुआ मेरा मन
भंवरों ने किया जब फूलों का आलिंगन
नीले गगन से करती जब धरती स्नेह मिलन
मेघ बूंदों ने चूमा जब वसुधा आँगन
तुम्हारी याद में भीगे मेरे चितवन
चूम चली जब किसी पुष्प को महकी पवन
किया किसी खग ने जब कहीं प्रणय निवेदन
नयन मेरे देखें जब कोई सुहाना स्वप्न
तुम्हारी याद में धडके मेरा मन

महकता आँचल के जनवरी ९६ अंक में प्रकाशित 

तुम्हारी याद में

जब चटकी कली कोई
जब महका कोई उपवन
मदमस्त बहती चली जब पवन
तुम्हारी याद से सुरभित हुआ मेरा मन
भंवरों ने किया जब फूलों का आलिंगन
नीले गगन से करती जब धरती स्नेह मिलन
मेघ बूंदों ने चूमा जब वसुधा आँगन
तुम्हारी याद में भीगे मेरे चितवन
चूम चली जब किसी पुष्प को महकी पवन
किया किसी खग ने जब कहीं प्रणय निवेदन
नयन मेरे देखें जब कोई सुहाना स्वप्न
तुम्हारी याद में धडके मेरा मन

महकता आँचल के जनवरी ९६ अंक में प्रकाशित 

Thursday, February 3, 2011

सुर्ख़ियों का चलन


मीडिया यूँ तो हमेशा दूसरों की खबरों को हमारे सामने लाता है पर हाल के दिनों में एक नए तरीके का चलन शुरू हुआ वह है मीडिया पर मीडिया बात को थोडा आसान करते हैं|पिछला दशक मीडिया के विस्तार का दशक रहा है और इस विस्तार का असर मीडिया के विभिन्न माध्यमों में भी दिखता है अखबार जहाँ इस विषय पर नियमित लेख छाप रहे हैं कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया में क्या दिखाया जा रहा है वहीं इलेक्ट्रोनिक मीडिया अखबारों की सुर्ख़ियों पर ध्यान डे रहा है और इस चलन से हिंदी फ़िल्में भी अछूती नहीं रहीं.आमतौर पर हमारी फिल्मों के कथानक में मीडिया की कोई भूमिका नहीं रहा करती थी  पर अब  यह स्थिति बदली है खबरों में मनोरंजन कहें या मनोरजन में ख़बरें पिछले एक दशक में इनके बीच की सीमा रेखा और पतली हुई है एक तरफ फिल्मों में समाचार पत्र और चैनलों को ध्यान में रखकर फ़िल्में बनीं तो वहीं दूसरी और समाचार चैनलों व समाचार पत्रों में मनोरंजन की दुनिया की खबरों की भरमार हुई .इसी साल प्रदर्शित हुई फिल्म नो वन किल्ड जेसिका एक ऐसी ही फिल्म है जिसका विषय मीडिया से जुड़ा हुआ है मीडिया एक्टि विसम से ही जेसिका के हत्यारों को सजा हुई.
पिछले साल आयी  फिल्म रण का पूरा कथानक भारतीय इलेक्ट्रोनिक मीडिया के इर्द गिर्द घूमता है शायद इसके पीछे यही कारण हो कि अब टेलीविजन लगातार चलता रहता है वो वक्त अब इतिहास हो चुका है जब टेलीविजन देखने का एक वक्त हुआ करता था और इस फैलाव का असर पूरी दुनिया पर हो रहा है इस फिल्म में पहली बार समाचारों के  परदे के पीछे की सच्चाइयों से दर्शकों को रुबरु कराया गया यानि खबरों  की दुनिया में किस तरह काम होता है और हर खबर को दिखाने के पीछे एक मकसद होता है अपने आप में मीडिया के प्रति काफी  आलोचनात्मक  रही ये फिल्म ने एक नयी बहस को जनम दिया इसके बाद आयी फिल्म पीपली लाइव ने एक संवेदनशील विषय को उठाया ही नहीं बल्कि उसका प्रस्तुतीकरण भी जोरदार था किसान की समस्याओं के बहाने इस फिल्म ने स्ट्रिंगरों की खराब हालत का जिक्र किया और दिखाया कि वो कैसे बड़े पत्रकारों के शोषण का शिकार होते हैं इसी कड़ी में २००७ में प्रदर्शित हुई फिल्म शोबिज़ का नाम भी महत्व पूर्ण है जिसमे टी वी चैनल टी आर पी प्राप्त करने के लिए किस तरह के हथकंडे अपनाते हैं इस बात को फिल्म का कथानक बनाया गया था हालांकि फिल्म बहुत सफल नहीं रही थी . ये बात तो थी इलेक्ट्रोनिक मीडिया की पर भारत में पहली बार किसी फिल्म में प्रिंट मीडिया की ताकत को जिस फिल्म में दिखाया गया था उसका नाम है न्यू दिल्ली टाईम्स अपने समय की विवादस्पद फिल्म में भ्रष्ट राजनीतिज्ञों और पत्रकारों के गठजोड़ को एक संपादक तोड़ता है जिसकी उसे काफी कीमत चुकानी पड़ती है १९८६ में प्रदर्शित हुई इस फिल्म को तीन राष्ट्रीय पुरूस्कार मिले थे चूँकि उस वक्त प्रिंट मीडिया का ही बोलबाला था इसलिए पहली बार समाचार पत्र को किसी फिल्म के कथानक का आधार बनाया गया था .
१९८९ में अमिताभ बच्चन् की बहुचर्चित फिल्म मैं आज़ाद हूँ भी ऐसी ही फिल्मों की श्रेणी में आती है जिसमे अपनी खबर के लिए एक पत्रकार गाँव के एक भोले भाले व्यक्ति को आत्म हत्या करने के लिए मजबूर किया जाता है  पर आलोचकों की नज़र में मीडिया के विषय को ध्यान में रखकर फ़िल्में बनाना सराहा गया वहीं  समाचार चैनलों पर फ़िल्में और उससे जुडे समाचारों पर हाय तौबा मच जाती है यहाँ हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि खबर और मनोरंजन के बीच मुख्या विभाजन क्या है असल में फ़िल्में भले ही वास्तविकता के कितने करीब हों पर उन्हें फंतासी ही माना जाता है वहीं समाचारों के साथ प्रामाणिकता जुडी होती है जैसे जैसे दुनिया बदली मीडिया भी लोगों की प्राथमिकता में आ गया और एक नए तरह के सूचना समाज का निर्माण हुआ ये फिल्म कुछ बानगी है जो ये बताती हैं कि एक तरफ हमारा फिल्म मीडिया कितना सजग है जो समाज में हो रही है हर छोटी बड़ी घटना  पर पैनी नज़र रखता है.
आई नेक्स्ट में ३ फरवरी २०११ को प्रकाशित 

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