Friday, March 30, 2018

रिश्ते का इतिहास बन जाना

मेरे एक खुशमिजाज मित्र थे.’थे’ इसलिए लिख रहा हूँ कि अब उनसे बात नहीं होती है पर एक वक्त ऐसा भी गुजरा है कि जब  हम बेमतलब की ढेर सारी बातें किया करते थे. फिर हम दोनों के रिश्तों में समस्या आयी क्योंकि उनकी प्राथमिकता बदलने लग गयी थी लेकिन  उस दौर में जब बात करने के सिलसिले काफी कम हो गए  थे .जब कभी उनसे बात होती  थी तो वो  मुझसे कहते थे कि काश सब पहले जैसा हो जाए और मैं अक्सर ये सोचा करता था कि क्या सब पहले जैसा हो सकता है ?इस प्रश्न का जवाब  कभी मिला  नहीं क्योंकि  ज़िन्दगी की कहानी बदल चुकी थी और हमारी दोस्ती इतिहास हो गयी .
वैसे  आपने भी  ज़िन्दगी के किसी न किसी मोड़ पर कोई कहानी जरुर पढी या सुनी होगी. ज़िन्दगी के साथ साथ हमारे साथ चलने वाली कहानियों के नायक नायिका बदलते जाते हैं पर हर कहानी में एक चीज समान  रहती है.वह  यह कि हर कहानी में ‘था’ या ‘थी’ शब्द की भरमार होती है यानि कहानी में जो कुछ भी होता है वो बीत चुका होता है पर उन कहानियों के माध्यम से हम इंसानी रिश्तोंसंघर्षों,तकलीफों को समझ कर आने वाले कल को बेहतर करने की कोशिश कर सकते  हैं.
 जब सवाल  कहानियों का हो तो इतिहास का जिक्र आना स्वाभाविक है .बात कहानी से शुरू हुई तो बगैर रिश्ते के कोई कहानी नहीं बनती और हर इतिहास की अपनी एक  कहानी होती है,मतलब कहानी ,रिश्ते और इतिहास तीनों एक दूसरे से जुड़े  हैं. इतिहास आम लोगों की नजर में से दुनिया का सबसे बोरिंग विषय हो सकता  है  पर असल में ऐसा है नहीं  इतिहास को समझे बगैर हम जिन्दगी और रिश्तों की कहानी नहीं समझ सकते .क्या समझे ? समय अच्छा हो या बुरा बीतने को  तो बीत जाता है पर अपने बीतने के निशान जरुर छोड़ जाता है हम कभी सोचते ही नहीं  जो कुछ ‘था’ या ‘थे’ हो जाता है वो सब इतिहास की कहानी बन जाता है. बगैर इतिहास की नींव के हम भविष्य की ईमारत तो नहीं खडी कर सकते .
बात इतिहास की हो रही हैतो   देखिये न हर रिश्ते का एक इतिहास होता है पर जबतक रिश्ते सामान्य रहते हैं हम इस इतिहास पर ध्यान ही  नहीं देते कि ये रिश्ता कैसे बना,कैसे कोई पति ,दोस्त रिश्तेदार बन जाता है  पर जब रिश्ते बिगड़ते हैं तब हम सोचते हैं ऐसा क्यूँ हुआ.जो अपनी गलती से सबक सीख लेते हैं वो इतिहास बना देते हैं  और जो नहीं सीखते हैं वो दूसरों के इतिहास को रटते हैं.कभी बचपने में पढ़ा था की इतिहास अपने आप को दोहराता है पर उसका दुहराव हर बार अलग तरीके से होता है.कहानियां हम सब पढ़ते ,सुनते हैं कुछ सच्ची होती हैं कुछ काल्पनिक पर उनसे सीख क्या लेते हैं ये ज्यादा महत्वपूर्ण है,रिश्ते बनाना इंसानी फितरत है पर रिश्ते निभाना सबको नहीं आता है . इसको सीखना पड़ता है.रिश्ते प्यार की नींव,अपनेपन के एहसास और समर्पण की ऊर्जा से चलते हैं. अगर इनमें कमी आती है तो रिश्तों का इतिहास बनते देर नहीं लगती .
प्रभात खबर में 30/03/18 को प्रकाशित 

Monday, March 26, 2018

मोबाईल स्क्रीन अब एक हकीकत है

लम्बे समय तक  स्क्रीन का मतलब घरों में सिर्फ टीवी ही  होता था पर आज उस स्क्रीन के साथ एक और स्क्रीन हमारी जिन्दगी का महत्वपूर्ण  हिस्सा बन गयी है वो है हमारे स्मार्ट फोन की स्क्रीन जहाँ मनोरंजन से लेकर समाचारों तक सब कुछ मौजूद है | यह मोबाईल स्क्रीन अभिभावकों के लिए एक अंतहीन गुस्से का कारण बन रही हैएक तरफ बच्चे मोबाईल चाहते हैं दूसरी तरफ अभिभावक भले ही मोबाईल के लती बन चुके हैं और यह जानते हुए भी कि मोबाईल इंटरनेट में बहुत सी अच्छी चीजें बच्चों के लिए हैंवे उन्हें देना भी चाहते हैं और नहीं भी ,यह सब मिलकर भारतीय घरों में  मानसिक द्वन्द का एक ऐसा वातावरण रच रहे हैं जिससे हर परिवार पीड़ित  है | हालंकि माध्यमों के चुनाव को लेकर भारतीय घरों में यह द्वन्द नया नहीं है पहले रेडियो सुनने फिर टीवी जब घर घर पहुंचा तो ऐसा ही कुछ टेलीविजन के साथ हुआ कि टेलीविजन बच्चों को बिगाड़ देगा उन्हें ज्यादा टीवी नहीं देखना चाहिए ऐसी बहसें हर घर की कहानी हुआ करती थी पर मोबाईल स्क्रीन  की कहानी इन सब माध्यमों से अलग है |यह एक बहुत शक्तिशाली माध्यम है जिसके साथ फोन और कैमरा लगा हुआ है जो हमारी जेब में आ जाता है या यूँ कहें यह हमें व्यस्त रहने के लिए उकसाता है और फिर हमारे व्याकुलता के स्तर को बढ़ाता है और अंत में हमें अपना लती (व्यसनी )बना देता है |

बच्चों के मामले में यह स्थिति और गंभीर होती है क्योंकि मोबाईल एक माध्यम के रूप में  ज्यादा व्यक्तिगत और मांग पर उपलब्ध कंटेंट प्रदान करता है जो अंतर वैयक्तिक सम्बन्धों की गतिशीलता  को प्रभावित करता है अतः इससे दूर हो पाना किसी के लिए भी मुश्किल होता है | टेलीफोन कम्पनी टेलीनॉर द्वारा समर्थित वेब वाईस द्वारा  किये गए एक शोध में यह तथ्य निकल कर आया कि एक शहरी भारतीय बच्चा औसत रूप में कम से कम चार घंटे इंटरनेट पर बिता रहा है जिसमें सबसे ज्यादा संख्या मोबाईल इंटरनेट की है|2017 के अंत तक दस करोड़ चौंतीस लाख (134 मिलीयन )भारतीय बच्चे इंटरनेट से जुड़ चुके होंगे| कोलोरेडो विश्वविद्यालय,अमेरिका  के एक शोध में यह निष्कर्ष निकला है कि दुनिया के नब्बे प्रतिशत बच्चे (पांच साल से सत्रह साल की उम्र वाले )मोबाईल स्क्रीन पर ज्यादा समय बिता रहे हैं जिससे वे देर से सो रहे हैं और  उनकी नींद की गुणवत्ता  प्रभावित हो रही है नतीजा बच्चों की नींद और  एकाग्रता में कमी के रूप में सामने आता है|मोबाईल स्क्रीन से निकलने वाले  प्रकाश की  तरंग दैर्ध्य और गुणवत्ता,शरीर की आन्तरिक घड़ी और नींद लेने की प्रक्रिया पर असर डालती है जो शरीर के मेलाटोनिन हार्मोन को कम करता है यह हार्मोन ही हमारे शरीर को बताता है कि यह नींद लेने का समय है।स्क्रीन पहले की तुलना में लगातार छोटे होते जा रहे हैं इसलिए उनका इस्तेमाल व्यक्तिगत स्तर पर होता जा रहा है इसलिए बच्चों के लिए उनका इस्तेमाल ज्यादा आसान है जिस वक्त उन्हें सोना चाहिए वे मोबाईल पर वीडियो देख रहे होते हैं |मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बचपन और किशोरवस्था में अच्छी नींद का आना मोटापे के खतरे को कम करता है और बच्चों के संज्ञानात्मक व्यवहार को बेहतर करता है | इंटरनेट पर वीडियो देखे जाने की सुविधा का आगमन और अमेजन प्राईम वीडियोनेट फ्लिक्स और यूट्यूब  जैसे वीडियो आधारित इंटरनेट चैनलों के आ जाने से स्क्रीन पर बिताया जाने वाला समय वीडियो कार्यक्रमों के लिए हमारी दिनचर्या का मोहताज नहीं रहा ,जब जिसको जैसे मौका मिले वो अपने मनपसन्द कार्यकर्मों का लुत्फ़ उठा सकता है,यह सुविधा अपने साथ कुछ समस्याएं भी ला रही है और इसका सबसे ज्यादा शिकार बच्चे हो रहे हैं जो देर रात तक अपने मनपसन्द कार्यक्रम मोबाईल पर देख रहे हैं | यह अलग बात है कि हम मोबाईल स्क्रीन के मोह में ऐसे बंधे हैं कि इस बात पर गौर ही नहीं कर पा रहे हैं कि हमारे बच्चे भी मोबाईल स्क्रीन के चंगुल में फंसते  जा रहे हैं जो कि उनके स्वास्थ्य के लिए बिलकुल अच्छा नहीं है | ब्लू व्हेल गेम को खेलने के दौरान हुई बच्चों की मौतों ने मोबाईल इंटरनेट का बच्चों द्वारा कैसा और कितना इस्तेमाल होना चाहिए इस बहस को चर्चा में ला दिया है |भारत में इस माध्यम के इस्तेमाल का बहुत ज्यादा पुराना इतिहास नहीं है एक ही वक्त में माता –पिता और बच्चे साथ -साथ इसके प्रयोग से परिचित हो रहे हैं |इसका प्रभाव समाज के हर वर्ग पर पड़ रहा है और उसमें बच्चे भी शामिल हैं |व्हाट अबाउट द चिल्ड्रेन (वॉच) संस्था का मानना  है कि बच्चों को कुर्सियों पर बैठाना और स्ट्रैप लगा देना या फिर स्मार्टफोन और टैबलेट देना खेलने के लिएये सब बच्चों के लिए घातक साबित हो रहे हैं|

Wednesday, March 21, 2018

उपभोक्तावाद की और बढ़ती अर्थव्यवस्था

आधुनिक अर्थव्यवस्था की सबसे क्रांतिकारी  अवधारणा ने मानवों को उपभोक्ता में तब्दील कर दिया.उपभोक्तावाद की जड़ें औद्योगिक क्रांति में निहित हैं उसके पूर्व इंसान परस्पर सहयोग से इस धरती पर अपने दिन काट रहा था.जिसमें सभी कृषक थे कोई छोटा तो कोई बड़ा.जिसमें सभी लोग अपनी सामर्थ्य से योगदान देते थे.जो भूमिहीन थे उनके पास भी पेट पालने का एक मात्र साधन कृषि से जुड़े ही कार्य होते थे पर औद्योगिक क्रांति ने इंसानों को उपभोक्ता में तब्दील कर दिया और इसके वाजिब कारण थे.अर्थव्यवस्था कृषि से उद्योगों की तरफ उन्मुख हो गयी और इस दुनिया में जीने के लिए कृषि से जुड़े कार्य करने की अनिवार्यता जाती रही और इसी के साथ एक ऐसे समाज का निर्माण प्रारम्भ हुआ. जहाँ जीवन को सुखमय और विलासी बनाने पर जोर दिया जाने लगा क्योंकि मशीनी क्रांति से चीजें कम समय में बहुतायत में बनने लग गयीं और उन को खपाने के लिए लोगों को खर्च करने के लिए प्रेरित किया जाने लग गया.जिससे विज्ञापन और उससे जुडी स्कीमों की शुरुआत पश्चिमी देशों में शुरू हुई .भारत भी इन बदलावों से अछूता नहीं रहा और बदलाव की इस बयार को तेजी तब मिली जब 1991 में देश की अर्थव्यवस्था को उदार बनाया गया जिससे हमारे बाजार दुनिया के सारे देशों के लिए खुल गए.इस परिवर्तन ने समाज पर बहुआयामी असर डाला.पहले जहाँ लोग “सहेजे और बचाओ” की नीति पर चलते थे क्योंकि चीजों की कमी थी और वे महंगी भी थीं अब “इस्तेमाल करो और फेंको” का ज़माना आ गया.हमारे जैसी पीढी के लोग एक रिफील और निब वाले पेन की कीमत जानते होंगे .नब्बे के दशक से पहले पेन इतनी तेजी से नहीं बदले जाते थे पर आज शायद ही कोई होगा जो पेन की रिफील बदलता होगा.पेन की रिफील खत्म तो पेन का भी काम खत्म,तुरंत नया ले लो.जब चीजें ज्यादा हो और पूंजीपतियों  का सारा जोर अपने मुनाफे को अधिकतम करने पर हो तो उपभोक्ता कहीं न कहीं शिकार होगा ही क्योंकि वो संगठित नहीं है उसके हितों की सुरक्षा के लिए पूरे विश्व में उपभोक्ता अधिकारों के प्रति मांग और जागरूकता दोनों बढ़ी है पर यह सब इतना आसान नहीं रहा. आज से करीब  पैंतीस साल पहले 1983 में उपभोक्ता अधिकार दिवस मनाने की शुरूआत कंज्यूमर्स इंटरनेशनल नाम की संस्था ने की थी. इसके पीछे उद्देश्य था कि दुनिया भर के सभी उपभोक्ता यह जानें कि बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए उनके क्या अधिकार हैं. साथ ही सभी देशों की सरकारें उपभोक्ताओं के अधिकारों का ख्याल रखें और उनको यह एहसास कराएँ कि अपने अधिकारों की लड़ाई में वे अकेले नहीं हैं बल्कि उनको सरकार का पर्याप्त विधिक समर्थन हासिल है .उपभोक्ता अधिकारों के बारे में पहल इससे कहीं पहले ही हो चुकी थी जब उपभोक्ता आन्दोलन का प्रारंभ अमेरिका में रल्प नाडेर द्वारा शुरू किया गया था.नाडेर के आन्दोलन के कारण  अमेरिकी कांग्रेस में तत्कालीन राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी द्वारा उपभोक्ता संरक्षण पर पेश विधेयक को अनुमोदित किया था. अमेरिकी कांग्रेस में पारित विधेयक में चार विशेष प्रावधान थे.जिनमें शामिल थे  उपभोक्ता सुरक्षा का अधिकार, उपभोक्ता को सूचना प्राप्त करने का अधिकार. उपभोक्ता को चुनाव करने का अधिकार एवं  उपभोक्ता को सुनवाई का अधिकार
 भारत में सन् 1986 में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम विधेयक पारित हुआ और समय समय पर इसमें संशोधन होते रहे पर पिछले एक दशक में भारतीय उपभोक्ता बाजार मे बहुत परिवर्तन आया है हालाँकि सजे हुए परंपरागत बाजार अभी इतिहास की चीज नहीं हुए हैं, शायद होंगे भी नहीं, पर ऑनलाइन शॉपिंग ने उनको कड़ी टक्कर देनी शुरू कर दी है. परंपरागत दुकानों की तरह ही ऑनलाइन खुदरा व्यापारियों के पास हर सामान उपलब्ध हैं. किताबों से शुरू हुआ यह सिलसिला फर्नीचर, कपड़ों, बीज, किराने के सामान से लेकर फल, सौंदर्य प्रसाधन तक पहुंच गया है. यह लिस्ट हर दिन बढ़ती जा रही है. इस खरीदारी की दुनिया में घुसना इतना आसान है कि आप अपने बेडरूम से लेकर दफ्तर या गाड़ी से, कहीं से भी यह काम कर सकते हैं. इस साल के अंत तक 2018 में भारत का ई-कॉमर्स बाजार 2.4 लाख करोड़ से बढ़कर 3.2 लाख करोड़ हो जाएगा.जितना तेजी से यह बाजार बढ़ रहा है उतना ही तेजी से उपभोक्ता अधिकारों का हनन ऑर्डर कुछ किया जाता  है और आ जाता है कुछ और बेचारा उपभोक्ता इन ऑन लाइन कम्पनियों के काल सेंटर पर फोन और ई मेल करके परेशान होता है वैसे भी ऑनलाईन कम्पनियों के चेहरे नहीं होते हैं सिर्फ फोन नंबर और ई मेल आई डी होती है.
वैसे भी देश में उपभोक्ता अधिकारों की लड़ाई आसान नहीं होती और फैसला आने में सामान्य मुकदमों की तरह बहुत वक्त लगता है.इन स्थतियों को देखते हुए सरकार ने संसद के शीत सत्र में उपभोक्ता संरक्षण विधेयक, 2018 लोकसभा में पेश किया है और यह नया विधेयक उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 का स्थान लेगा. इस विधेयक में एक केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण अथॉरिटी गठित करने का प्रावधान है ताकि उपभोक्ता संरक्षण के लिए संवैधानिक निकाय की कमी को पूरा किया जा सके. यह अथॉरिटी उत्पादों को वापस लेने के लिए दबाव डालने, खरीदी गई वस्तुओं की कीमतों की वापसी और उत्पाद को लौटाने जैसे प्रावधानों लागू करेगा। यह बरगलाने वाले विज्ञापनों पर भी लगाम लगाएगा.
      अथॉरिटी को दस लाख रुपए तक का जुर्माना लगाने का अधिकार होगा और इसके बाद क़ानून का दूसरे बार उल्लंघन होने पर उसको हर ऐसे उल्लंघन के लिए पचास  लाख रुपए तक का जुर्माना लगाने  का अधिकार होगा.उपभोक्ता इन फोरम पर अपनी शिकायात ऑनलाइन कर सकतेहैंऔर सुनवाई वीडिओ कांफ्रेंसिंग के द्वारा भी हो सकेगी.ऑनलाईन उपभोक्ता अधिकारों के संरक्षण के लिए सरकार का यह नया कानून उम्मीद जरुर जगाता है पर इसकी असली परीक्षा व्यवहार के धरातल पर अभी होनी बाकी है क्योंकि समस्या वादों के निपटारे में अत्यधिक समय लगने और वाजिब मुवाअजा न मिलने की है.
आई नेक्स्ट में 21/03/18 को प्रकाशित 

Tuesday, March 13, 2018

टेलीविजन को पछाड़ता इंटरनेट

अब एक आम भारतीय के दिन की शुरुआत सुबह चाय पीते हुए अखबार पढने की बजाय इंटरनेट पर वीडियो देखने से होती है |मोबाईल एडवरटाइजिंग फर्म इनमोबी के एक शोध के मुताबिक़ एक औसत भारतीय सबसे ज्यादा वीडियो सुबह साढ़े छ से साढ़े नौ के बीच सबसे ज्यादा इंटरनेट पर वीडियो देखते हैं और सप्ताहांत में यह उपभोग सबसे चरम पर होता है एक जन माध्यम के रूप में टेलीविजन अब ज्यादा खतरे में है जबकि उसे समाचार पत्रों के मुकाबले ज्यादा मज़बूत माध्यम माना जाता रहा है वह भी तब जब वीडियो की लोकप्रियता अपने चरम पर है |
पिछले कुछ वर्षों  में मोबाईल वीडियो उपभोग बहुत तेजी से बढ़ा है और यह आंकड़ा 2017 में 2016 के मुकाबले दुगुना हो गया है जिसका बड़ा कारण सस्ते स्मार्टफोन और किफायती  इंटरनेट डाटा प्लान है |इनमोबी,ई मार्केटियरकॉम स्कोर और एम् एम् ए रिसर्च का संयुक्त शोध यह बताता है कि एक भारतीय औसतन साढ़े चार घंटे अपने स्मार्टफोन पर इंटरनेट एक्सेस करने में बिताता है जो उसके कुल माध्यम उपभोग का सैंतीस प्रतिशत है जो उसके टीवी देखने के समय से ज्यादा है इसी रिपोर्ट के अनुसार देश 2021 में कुल इंटरनेट डाटा उपभोग का दो तिहाई हिस्सा वीडियो पर खर्च किया जाएगा |भारतीय अपने स्मार्ट फोन का ज्यादा इस्तेमाल बात करने या सन्देश भेजने की बजाय इंटरनेट खंगालने में बिता रहे हैं जिसमें विभिन्न एप का इस्तेमाल शामिल है |एप इस्तेमाल में सबसे ज्यादा समय क्रमश: ई शॉपिंग ,यात्रा और तकनीक जैसी श्रेणियों में है |साल 2017 में विभिन्न एप डाउनलोड करने के मुकाबले में भारत का स्थान तीसरा रहा है जो कुल एप डाउनलोड का बारह प्रतिशत हिस्सा था |
उल्लेखनीय है कि साल 2017 में ही भारत इंटरनेट डाटा उपभोग के मामले में अमेरिका और चीन को पिछाड कर दुनिया में पहले नम्बर पर आ चुका है |  एरिक्सन मोबिलीटी रिपोर्ट के अनुसार देश में डाटा की खपत किस तेजी  से बढ़ रही है इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है की अभी  लोग हर माह औसतन 3.9 जी बी इंटरनेट डाटा की खपत कर रहे हैंजो साल 2023 में 18 जीबी तक पहुँच जाएगा  जबकि  साल 2014 में  यह आंकड़ा  मात्र 70 एम् बी प्रति माह  थायह बढ़ोत्तरी साल 2014 के मुकाबले 360 प्रतिशत ज्यादा होगी |
एक माध्यम के रूप में वीडियो की बढ़त देश में ज्यादा इंटरनेट डाटा उपभोग के लिए प्राथमिक रूप से उत्तरदायी है |भारत जैसे देश में जहाँ अभी भी निरक्षरों की एक बड़ी संख्या है वहां वीडियो उनको मोबाईल इंटरनेट से जोड़ने का सबसे सुलभ विकल्प है |वो चाहे मनोरंजन का मामला हो या सूचनाओं का इसी कड़ी में शिक्षा भी शामिल  है जहाँ वीडियो का जादू सर चढ़कर बोल रहा है |मनोरंजन और सूचना के लिए वीडियो के हजारों विकल्प मौजूद हैं और ये हर बीतते दिन के साथ बढ़ते ही जा रहे हैं पर शिक्षा के क्षेत्र में बाईजू एप की सफलता भी यह बताती है लोगों को सीखाने के लिए वीडियो माध्यम से बेहतर विकल्प अभी हमारे सामने नहीं है |मोबाईल वीडियो की सफलता और टेलीविजन के एक माध्यम के रूप में पिछड़ने का बड़ा कारण कार्यक्रमों की विविधता है |
मोबाईल वीडियो उपभोक्ता की रुचियों के हिसाब से पर्संलाईज्ड कंटेंट उपलब्ध कराता है जबकि टेलीविजन अपनी लीक को तोड़ने के लिए नहीं तैयार है वो चाहे सूचना के क्षेत्र हो  जहाँ अब  टेलीविजन ख़बरें -परिचर्चा  बासी और उबाऊ हो चली हैं क्योंकि वो गति के मुकाबले में  इंटरनेट से मुकाबला नहीं कर पा रही हैं और कंटेंट के स्तर पर हमारी जानकरियों में कुछ नया नहीं जोड़ पा रही हैं वैसा ही हाल मनोरंजन के क्षेत्र में टीवी धारावाहिकों का भी है पर इंटरनेट धारावाहिक नवोन्मेष और नवाचारों से भरे हुए हैं |
टीवी ने शिक्षा के क्षेत्र में तो पाँव ही नहीं पसारे जो कुछ हुआ भी वो सरकारी टेलीविजन चैनलों में जो खासे नीरस और अपना प्रभाव छोड़ने में असफल साबित हुए पर यू ट्यूब ऐसे किसी भी मुद्दे पर आपको लाखों वीडियो का विकल्प देता है जिस मुद्दे पर आप कुछ सीखना या समझना चाहते हैं |वीडियो की ये सफलता में कुछ सवाल हैं जिनके जवाब अभी ढूंढे जाने हैं |टीवी एक व्यवस्थित माध्यम है जबकि इंटरनेट वीडियो को अभी व्यवस्थित होना है |लाभ  के लिए अभी भी विज्ञापन एक बड़ा स्रोत है हालाँकि अमेजन प्राईम और नेटफ्लिक्स के सब्सक्रिप्शन प्लान की सफलता ने इस मिथक को तोडा है कि लोग माध्यमों पर पैसा नहीं खर्च करना चाहते हैं पर अभी यह काफी शुरुआती  अवस्था में है |
अमर उजाला में 13/03/18 को प्रकाशित 

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