हाल ही में आई प्रकाश झा की वहुचर्चित फिल्म आरक्षण ने एक बार फिर से आरक्षण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर बहस छेड़ दी है. फिल्म में आरक्षण को लेकर प्रकाश झा ने एक नजरिया प्रस्तुत करने की कोशिश की है. आरक्षण पर चलरही बहस में किसी न किसी रूप में एक बार फिर से दलितों और उनके अधिकारों को लेकर एक बहस चल निकली है पर इस बार बहस का मुद्दा ललित कलाएं हैं आमतौर पर साहित्य संगीत और कलाओं में दलित प्रतिनिधित्व कम मिलता है साहित्य में दलित साहित्यकारों ने इस निर्वात को भरने की कोशिश की है पर
हिंदी फिल्मों में अभी भी सार्थक दलित हस्तक्षेप का इन्तिज़ार है . आरक्षण फिल्म के बहाने ही सही पर अब इस मुद्दे पर गौर करने की जरूरत है कि हमारी फिल्मों में दलित और दलितों से जुड़े मुद्दे किस तरह से गायब हैं.अगर बॉलीबुड की फिल्मों का अवलोकन करें तो साफ पता चलता है कि किस तरह से फिल्मों में जातीय वर्चस्व गहराई से बैठा हुआ है. हमारी फिल्में मीडिया की कल्टीवेशन थ्योरी के अनुरूप कैसे बार बार एक ही विचारधारा का संदेश हमारे मस्तिष्क में ठूंस रही हैं. कलाएं समाज से जन्म लेती हैं और अंतत: समाज को प्रभावित करती हैं. हिन्दी फिल्में भी कहीं से इसका अपवाद नहीं हैं हिन्दी फिल्मों के इतिहास में समाज में होते हुए सांस्कृतिक परिवर्तनों को पकड़ा जा सकता है किन्तु यह अलग बात है कि ये परिवर्तन फिल्मों में ज्यों के त्यों नहीं आये जाहिर है कथानक के साथ लेखक और निर्देशक की सोच भी उसमे जुड गयी .यूँ तो फिल्मों को समाज का ही प्रतिबिंब माना जाता रहा है. इस लिहाज से देखा जाए तो समाज और साहित्य में जैसा भेदभाव दलितों के साथ हुआ वहीं फिल्मों में भी बदस्तूर जारी रहा. लंबे समय तक फ़िल्में रामायण और महाभारत की कहानियों के इर्द गिर्द बनती और हिट होती रहीं जहाँ सब कुछ अच्छा और सुहाना था अंत में सत्य की जीत होती है और असत्य पराजित होता है नायक अपने नायकत्व के कारण कुछ गलत कर ही नहीं सकता और खलनायक कभी सही हो ही नहीं सकता पर जीवन में सब कुछ स्याह और सफ़ेद के आईने से नहीं देखा जाता पर फ़िल्में बरसों से इसे आईने से समाज को आइना दिखाती आयी हैं .
हिंदी फिल्मों में अभी भी सार्थक दलित हस्तक्षेप का इन्तिज़ार है . आरक्षण फिल्म के बहाने ही सही पर अब इस मुद्दे पर गौर करने की जरूरत है कि हमारी फिल्मों में दलित और दलितों से जुड़े मुद्दे किस तरह से गायब हैं.अगर बॉलीबुड की फिल्मों का अवलोकन करें तो साफ पता चलता है कि किस तरह से फिल्मों में जातीय वर्चस्व गहराई से बैठा हुआ है. हमारी फिल्में मीडिया की कल्टीवेशन थ्योरी के अनुरूप कैसे बार बार एक ही विचारधारा का संदेश हमारे मस्तिष्क में ठूंस रही हैं. कलाएं समाज से जन्म लेती हैं और अंतत: समाज को प्रभावित करती हैं. हिन्दी फिल्में भी कहीं से इसका अपवाद नहीं हैं हिन्दी फिल्मों के इतिहास में समाज में होते हुए सांस्कृतिक परिवर्तनों को पकड़ा जा सकता है किन्तु यह अलग बात है कि ये परिवर्तन फिल्मों में ज्यों के त्यों नहीं आये जाहिर है कथानक के साथ लेखक और निर्देशक की सोच भी उसमे जुड गयी .यूँ तो फिल्मों को समाज का ही प्रतिबिंब माना जाता रहा है. इस लिहाज से देखा जाए तो समाज और साहित्य में जैसा भेदभाव दलितों के साथ हुआ वहीं फिल्मों में भी बदस्तूर जारी रहा. लंबे समय तक फ़िल्में रामायण और महाभारत की कहानियों के इर्द गिर्द बनती और हिट होती रहीं जहाँ सब कुछ अच्छा और सुहाना था अंत में सत्य की जीत होती है और असत्य पराजित होता है नायक अपने नायकत्व के कारण कुछ गलत कर ही नहीं सकता और खलनायक कभी सही हो ही नहीं सकता पर जीवन में सब कुछ स्याह और सफ़ेद के आईने से नहीं देखा जाता पर फ़िल्में बरसों से इसे आईने से समाज को आइना दिखाती आयी हैं .
फिल्मों के नाम से ही पता पड़ता है कि सवर्ण मानसिकता की गुलामी से अभी हमारा हिंदी सिनेमा बाहर नहीं निकला है मि.सिंह vs मिसेज मित्तल (२०१० ), मित्तल v/s मित्तल (२०१० ) , रोकेट सिंह सेल्स मैन ऑफ दा इयर (२००९ ), सिंह इस किंग (२००८ ), मंगल पांडे (२००५ ), भाई ठाकुर (२००० ), अर्जुन पंडित (१९७६, १९९९ )क्षत्रिय (१९९३ ), राजपूत (१९८२) ,जस्टिस चौधरी (१९८३),पंडित और पठान (१९७७ ) ये कुछ उदाहरण हैं जो बता रहे हैं कि हमारे फिल्मकारों के दिमाग में क्या चल रहा होता है चलिए सृजनात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर इन सारे नामों को स्वीकार कर लिया जाए फिर भी क्या कारण है कि दलित ,दुसाध ,मंडल पासवान जैसी दलित जातियों के नाम पर फिल्म नहीं बनती क्या दलित हमारे समाज का हिस्सा नहीं हैं ,अगर हैं तो वो फिल्मों में क्यों नहीं दिखते और अगर दिखते भी हैं तो हमेशा की तरह पीड़ित सताए हुए इसका क्या अर्थ निकला जाए या तो धरातल पर सामजिक परिवर्तन के नाम पर कुछ ठोस नहीं हुआ है और अगर हुआ है तो भी हम इसे सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त हो स्वीकार नहीं पाए हैं तथ्य यह भी है कि राजनैतिक रूप से दलित लामबंद होकर उभर रहे हैं और उन्हें एक वोट बैंक के रूप में देखा जा रहा है जो सरकारों की तकदीर बना बिगाड़ सकते हैं लेकिन एक औडिएंस के रूप में उनकी इच्छाओं ,अपेक्षाओं और जरूरतों को महत्व नहीं दिया जा रहा है
सिनेमा में क्या दिखाया जा रहा है यह महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि कैसे दिखाया जा रहा है यह महत्वपूर्ण है और इसी से दिखाने वाले की मानसिकता का पता चलता है यूँ तो उँगलियों पर गिनी जा सकने वाली संख्या में ऐसी कई फिल्मे में हैं जिनका कथानक आधार दलित रहे हैं जिनके नाम की महज़ चर्चा करना सिर्फ स्थान की बर्बादी ही होगी पर दुनिया में सबसे ज्यादा फ़िल्में बनाने वाला हमारा फिल्म उद्योग देश की सबसे बड़ी आबादी को कैसे नज़रंदाज़ कर सकता है ये सवाल जरुर विचारणीय है . कहते हैं सिनेमा बदल रहा है बदल तो रहा है नयी तकनीक तेजी से आ रही है फिल्मों के डिजीटल प्रिंट धड़ा धड रिलीज हो रहे हैं रोज नए मल्टीप्लेक्स खुल रहे हैं सिनेमा तो बदल रहा है एक चीज जो नहीं बदल रही है वह है सिनेमा का जातिगत स्वरुप अपने आप को प्रगतिशील कहने वाला मुंबई फिल्म उद्योग हमेशा सवर्णों पर मेहरबान रहा है आजादी के बाद सोचिये कितने दलित अभिनेता फिल्म में आये हैं या उन्हें मौके मिले है.अछूतकन्या,सुजाता,अंकुर,पार .सद्गति,दीक्षा,समर जैसे कुछ अपवाद नामों को छोड़ दें तो हिंदी सिनेमा जाति प्रथा पर प्रहार करता कभी नज़र नहीं आया.हमेशा की तरह हमारी फ़िल्में टैलेंट की क़द्र करती हैं और दलित टैलेंटेड नहीं होते अन्यथा क्या कारण है कि फिल्मों की दुनिया में कुछ परिवारों का राज चलता है उसके बाद अगर किसी के लिए जगह बचती है तो वो भद्र कुलीन सवर्ण जातियों के लोग ही होते हैं. फिल्म के कथानक में भी दलित पात्रों को विकसित होने का पूरा मौका नहीं दिया जाता उन्हें जिंदगी में जो कुछ भी हासिल हो रहा है उसके लिए उनकी उधम शीलता नहीं बल्कि लोगो की दया और भगवान के आशीर्वाद का महत्त्व ज्यादा होता है इस तरह हमारा फिल्म मीडिया एक सवर्ण एजेंडा सेटिंग सिद्धांत के अनुसार कार्य करता है.सिर्फ तकनीक के बेहतर हो जाने से फिल्म उद्योग का भला नहीं होने वाला है कथानक के साथ होने वाले प्रयोगों के लिहाज़ से हिंदी फिल्म जगत को अभी एक लंबा रास्ता तय करना है .
23/08/11 को अमर उजाला के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित