प्रिय दोस्त अनूप
दिन बीत रहे हैं यादों में फिर वो बीते दिन फिल्म के फ्लैश बैक की तरह सामने आ रहे हैं जब हम वाकई साथ थे जेबें खाली होने के बाद भी साथ फिल्में देखने का मौका और पैसा जुटा लेते थे... और आज.... । जेबों में उतने पैसे पड़े रहते हैं, जितनी उस समय कल्पना में भी नहीं थे, पर समय? साथ? बीते दिनों के धुंधलकों में कहीं खो गए हैं कुछ सवाल हैं, जो अपना जवाब चाहते हैं, पर कारणों की कसौटी पर कुछ भी ऐसा नहीं कि जो समझा कर उसे शांत कर सकूं...। इन्हीं बातों की वजह से आज सालों बाद तुम्हें कुछ लिखने का फैसला किया मोबाइल के कीपैड और कंप्यूटर के की-बोर्ड पर नाचती अंगुलियों में वह मजा नहींआता जो कभी 25 पैसे के पोस्टकार्ड में था पर समय बदल चुका है और तुम भी तब लिखना इतना मुश्किल भी नहीं था लाईफ में इतने कॉम्प्लीकेशन नहीं थे |आज भी पानी बरस रहा है। पानी की बूंदें की टपटप वो दिन याद दिला रही हैं, जब हम भीगते हुए साइकिल से पूरे शहर का चक्कर लगाते थे। वो समोसे याद हैं,यूनिवर्सिटी के आज फिर मन हो रहा खाने का और साइकिल चलाते हुए भीगने का, मगर....। साइकिल नहीं अब तो कार है, भीग नहीं सकते हम... सुना है वहां अब समोसे भी वैसे नहीं रह गए ठीक हमारी दोस्ती की तरह| वो सरकारी स्कूल की दीवारें हमें कभी मिलने से नहीं रोक पाईं| मै हमेसा तुम्हारे साथ बंक मार कर वहीँ पहुँच जाता जहाँ साइकिलें हमारा इंतजार करतीं थीं और फिर शहर का कोई सिनेमा हाल हमारी पहुँच से दूर नहीं होता । इन पलों में हमारी साइकिलें भी ना जाने कितने ख्वाब बुन लिया करती थीं|ख्वाब तब हम लोग भी खूब देखते थे स्कूल में छुट्टी हो जाए इसके लिए किसी के भी मरने की दुवा मांग लेते थे कितने भोले थे सोचते थे बड़े हो कर हम खूब फ़िल्में देखेंगे साथ घूमेंगे दोस्ती के रिश्ते की वो गर्मी कहाँ गयी जब जाड़े में बगैर स्वेटर पहने तुमसे मिलने निकल पड़ते थे कितनी दीवारें फांद लेते थे आज फेसबुक और ट्वीटर जैसी वर्चुअल दीवारों को नही लाँघ पा रहे हैं | जिंदगी में हमारे पैदा होते ही ज्यादातर रिश्ते हमें बने बनाये मिले और उसमे अपनी च्वाईस का कोई मतलब था ही नहीं तुमसे हुई दोस्ती ही ऐसी थे जिसे मैंने खुद बनाया था फिर दोस्ती की नहीं हो जाती है दोस्ती तो हो जाती है |
कॉलेज और हमारी पढ़ाई का मिजाज़ बदले लेकिन हम नही बदले।जो बदल जाएँ वो हम कहाँ तब किसी ने कहा था रिश्ते हमेशा एक जैसे नहीं रहते तो कैसा मजाक उडाया था उसका हमने,ये नहीं जानते थे कि जिंदगी की राहों में दौड़ते दौड़ते कब हम अपना मजाक खुद बना बैठे पता ही नहीं चला |तुम हमेशा कहा करते थे कि जिंदगी जब सिखाती है अच्छा ही सिखाती है जिंदगी ने सिखाया तो पर बड़ी देर से कम्पटीशन की इस रेस में कब हम एक दूसरे के कमपटीटर बन गए पता ही नहीं चला| आज ऑफिस का टारगेट शब्द सोते जागते कानो में गूंजता है साल दर साल पूरा भी होता है लेकिन एक दूसरे से मिलने की हसरत कहाँ गुम हो गयी इसकी तलाश है| इतने पुराने रिलेशन में कुछ शेयर करने जैसा था ही नहीं सब कुछ इतना स्वाभाविक था कि न मुझे कुछ बोलना पड़ता और न तुम्हें कुछ समझाना |मैं कहा भी करता था अनूप आँखों की भाषा पढ़ लेता है पर दोस्त जीवन में सब कुछ पा लेने की चाह में हम कब अजनबी बन गए पता ही नहीं चला तुमने अपने आप को साइलेंस के परदे में लपेट लिया और मैं कुछ कह ही नहीं पाया |गैंग्स ऑफ वासेपुर पार्ट टू रिलीज हो रही है टिकट बुक कर रहा हूँ तुम्हारा इंतज़ार करूँगा मुझे उम्मीद है फेसबुक पर मुझे वर्चुअल देख कर बोर हो चुके होगे आज रीयल में मिलते हैं और पुराने लम्हों को जीते हैं .
तुम्हारा मुकुल
आई नेक्स्ट में 27/07/12 को प्रकाशित