Saturday, October 27, 2012

सवाल सिर्फ हिरासत में मौत का नहीं


पुलिस किसी भी संवैधानिक तंत्र का वह अहम हिस्सा है जो देश की आंतरिक  नागरिक सुरक्षा व्यवस्था के लिए जिम्मेदार है |सूचना क्रांति के इस युग ने लोगों को जवाबदेही के प्रति जागरूक किया है और राज्यों की पुलिस भी इससे अछूती नहीं है |मित्र पुलिस, आपके साथ सदैव जैसे नारे हमें मुंह चिढाते लगते हैं,आंकड़े एक त्रासदी की तस्वीर पेश करते हैं |एशियाई मानवाधिकार केन्द्र नई दिल्ली द्वारा तैयार रिपोर्ट के मुताबिक, देश  में पिछले एक दशक से ज्यादा समय में कम से कम 14,231 लोग हिरासत में मारे गए,जिसका मतलब है प्रति दिन औसत रूप में चार व्यक्ति से ज्यादा पुलिस हिरासत में मरे ये आंकड़े जेल में हुई मौतों से अलग हैं | इस  अध्ययन का आधार भारत सरकार के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा दिए गए आंकड़ों पर आधारित है। पुलिस हिरासत में हुई मौत  गंभीर सवाल खड़े करती है रिपोर्ट के मुताबिक इन मौतों  का बड़ा कारण हिरासत में दी गयी  प्रताडना है जिससे पीड़ित व्यक्ति की मृत्यु हिरासत में आने के 48 घंटे के अंदर हो गयी | उल्लेखनीय है कि हिरासत में मौत उन राज्यों में ज्यादा हुई  है जहाँ आम तौर पर शांति है और किसी आंतरिक संघर्ष का इतिहास नहीं है | महाराष्ट्र में पिछले दशक में पुलिस हिरासत में सबसे ज्यादा 250 लोगों की मौत हुई।पुलिस की कार्यप्रणाली हमेशा पर अक्सर सवालिया निशान लगते रहे हैं|पुलिस को लोकतान्त्रिक मूल्यों के प्रति सजग और आम लोगों का भरोसा जीतेने वाला होना चाहिए| देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में एक लाख जनसंख्या पर मात्र 74 पुलिसकर्मी हैं जबकि बिहार में इतनी ही आबादी पर सिर्फ 63 पुलिस वाले हैं। देश में एक लाख की  आबादी पर स्वीकृत पुलिस कर्मियों की संख्या का राष्ट्रीय औसत 177.67 है लेकिन वास्तव में 134.28 पुलिस कर्मी ही तैनात है। संयुक्त राष्ट्र संघ के  मानक  के अनुसार एक लाख पर कम से कम 220 पुलिस कर्मी होने चाहिए।इस मामले में पूर्वोत्तर क्षेत्र के राज्यों में पुलिस जनता अनुपात सर्वाधिक है। मिजोरम में प्रति एक लाख पर 1084.99, नागालैंड में 1034.68, त्रिपुरा में 936.69, सिक्किम में 602.68 और अरुणाचल प्रदेश में 568.82 पुलिस कर्मी हैं। देश की राजधानी दिल्ली में  प्रति एक लाख पर 390.55 पुलिस कर्मी हैं जबकि इनकी स्वीकृत संख्या 431.29 है।
देश में पुलिस सुधार के लिए बनी कमेटियों का एक लंबा इतिहास रहा है| व्यवहार में कुछ भी होता न देख सुप्रीम कोर्ट ने पांच साल पहले राज्य सरकारों को पुलिस व्यवस्था में सुधार  के लिए व्यापक  सुझाव दिए थे,जिसमें 'पुलिस स्थापना बोर्ड' का गठन, पुलिस उत्पीड़न की सुनवाई के लिए राज्यों व जिला स्तर पर 'पुलिस शिकायत प्राधिकरण' गठित करना और सबसे महत्वपूर्ण अपराध की विवेचना और कानून एवं व्यवस्था का काम अलग अलग  करना भी शामिल था |जिससे पुलिस व्यवस्था पर पड़ रहे काम के बोझ को कम किया जा सके पर राज्यों की राजनैतिक इच्छा शक्ति की कमी के अभाव में यथा स्थिति जारी है और पुलिस व्यवस्था सत्ताधारी राजनैतिक दल की हितपूर्ति का साधन मात्र बनी हुई है |लोगों को अभी भी सही मायनों में मित्र पुलिस का  इन्तजार है | 
हिन्दुस्तान में 27/10/12 को प्रकाशित 

Monday, October 15, 2012

बच्चों के गोद लेने का गुणा भाग

आप लोगों ने सड़कों पर अक्सर ऐसे बच्चों को भीख मांगते ,सड़कों पर घूमते ऐसे न जाने कितने अबोध बच्चों को देखा होगा और उनके लिए कुछ करने की कसक भी मन में जगी होगी फिर दुनियादारी और नियम कानून के कठोर धरातल ने उस कसक को अचानक समाप्त कर दिया होगा |बच्चा गोद लेना या किसी बच्चे को अपनाना भारत में अभी भी सामान्य व्यवहार का हिस्सा नहीं बन पाया है और शायद इसीलिये बच्चों को अवैध रूप से गोद लेने का चलन भी बढ़ा है और बच्चों की तस्करी भी जिनकी पुष्टि बचपन बचाओ संस्था के शोध द्वारा जुटाये गए वह  आंकड़े करते हैं जिनके अनुसार वर्ष 2008 से 2010 के मध्य117480 बच्चों की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज़ कराई गयी| इनमें से 74209 बच्चों को तो ढूंढ लिया गया पर 41546 का आज तक कोई सुराग नहीं लग सका है|सामान्य तौर पर एक  बच्चे को गोद लेना एक नए सम्बन्ध  की शुरुआत कही जा सकती है। यह एक ऐसी कानूनी प्रक्रिया है जिसमें एक दम्पति या एकल अभिभावक को एक बच्चाउनके बेटे या बेटी के रूप मेंहमेशा के लिए सौंप दिया जाता है। एकल पुरुष अभिभावक  को गोद के रूप में बेटी दिए जाने का प्रावधान नहीं है।याद रखें! जब आप किसी बच्चे को गोद लेते हैं तो आप इस बात को अच्छी तरह और दिल से मानते हैं कि उसे अपने बेटे/बेटी जैसा प्यार देंगे और अब उसकी अच्छी तरह से परवरिश एवं अच्छी शिक्षा की सारी जिम्मेदारी आप की है जिसे आप ख़ुशी-ख़ुशी निभाएंगे। गोद लेने की प्रक्रिया उस वक़्त से शुरू होती है जब बच्चे की जैविक माता या माता-पिता बच्चे का पालन-पोषण कर पाने में खुद को असमर्थ पातें हैं या किसी मजबूरी वश बच्चे को अपने पास  नहीं रख पाते। ऐसा बच्चे के जन्म के पहले भी हो सकता है और बच्चे के जन्म के बाद भी ।
पिछले साल भारत सरकार ने भारत में बच्चा गोद लेने का शुल्क बीस हजार रुपैये दुगुना से बढाकर कर चालीस हजार रुपैये कर दिया सेन्ट्रल एडॉप्शन रिसोर्स अथोरिटी के मुताबिक भारतीय गणराज्य तो गोद लेने के लिए कोई शुल्क नहीं लेता  पर चिल्ड्रन केयर फंड के लिये कुछ राशि सहयोग के रूप में ली जाती है|आंकड़ों की अगर बात करें तो पिछले पांच सालों में बच्चा गोद लेने वाले लोगों की संख्या में इजाफा हुआ है| सेन्ट्रल एडॉप्शन रिसोर्स अथोरिटी के अनुसार 2006 में जहाँ कुल 3262 बच्चे गोद लिए गए वहीं ये संख्या साल 2011 आते आते यह आंकड़ा 6494 हो गया था इन आंकड़ों में देश के भीतर और विदेश में गोद लिए बच्चे शामिल हैं इन आंकड़ों के आगे भी कुछ तथ्य हैं जो वास्तविक हैं बस फर्क यह है कि आंकड़ों में भाव नहीं होते संवेदनाएं नहीं होतीं वे कोरे आंकड़े होते हैं पर गोद लेकर किसी बच्चे का अभिभावक बनना सीधे सीधे मानवीय संवेदनाओं से जुड़ा मामला है|गोद लेने का शुल्क दुगुना कर देना यह बताता है कि संवेदनाएं भी मुफ्त में नहीं मिलती और इस शुल्क वृद्धि के निहितार्थ पर जरुर कुछ सवाल खड़े होते हैं|
संतति सुख अपने आप में पूर्ण शब्द है जिसको मुद्रा और माल बना कर बाजारतंत्र के हवाले कर देने का परिणाम निम्न  व मध्यम वर्ग के परिवारों की  संवेदनाओं पर आर्थिक रूप से उच्च वर्ग का हक होगा|  पूंजी के आधार पर वर्गीकरण के इस समय में हमारे मानवीय सूत्र लगातार परिजीवता  की  तरफ बढ़ रहें हैंहमारे स्व के अस्तित्व पर इन निर्णयों के जरिये बार बार हस्तक्षेप किया जा रहा है. नब्बे के दशक के बाद आये कथित बाजारवादी भूमंडलीकरण ने व्यक्ति के जीवन के हर पहलू को कहीं ना कहीं स्पर्श जरुर किया हैहम आँखे बंद कर कितना भी अनजान बनने कि कोशिश कर लें ऐसे निर्णय हमें आंखे खोलने ना सही पर आँखें मिचमिचाने को मजबूर जरुर करते हैंसमाज में उपभोक्तावादी  सरकारी निर्णयों में ‘’सहयोगराशि’’ शब्द का प्रयोग अध्ययन का विषय हो सकता है| इसमें कोई शक नहीं कि अनाथालय में गए बच्चों को एक बेहतर जीवन मिलना चाहिए और गोद देने पूर्व उनके भावी अभिभावकों की आर्थिक स्थिति का अच्छा होना उनके बेहतर भविष्य का संकेत हो सकता है पर आर्थिक  स्थिति बेहतर होने से यदि बच्चों का भविष्य सुधर रहा होता तो ये देश कब का बदल गया होता देश बनता है नागरिकों से जो संस्कारवान हों जिनको जीवन मूल्यों का ज्ञान हो पर मूल्य और संस्कार जैसे शब्द खरीदे बेचे नहीं जाते इनको जीना सीखाया जाता है |सिक्के का दूसरा पहलु यह भी है कि दुनिया की उभरती हुई आर्थिक शक्ति में ये बच्चे कहाँ से आ जाते हैं जिन्हें गोद लेने की जरुरत पड़ती है क्यों इनके माता पिता इनको त्याग देते हैं ? इन  बच्चों के लिए हमारा सामजिक आर्थिक ढांचा जिम्मेदार है गरीबी, अशिक्षा लिंग विशेष के प्रति पूर्वाग्रही रवैया और ज्यादा बच्चे एक ऐसा दुष्चक्र रचते हैं कि कुछ लोगों के लिए बच्चे बोझ हो जाते हैं|हमारा समाज भी इन ठुकराए हुए बच्चों के प्रति कोई खास संवेदनशील भूमिका नहीं निभाता ऐसे में इन बच्चों का एकमात्र ठिकाना अनाथालय ही होता भले ही सरकार ये दावा करे कि ये शुल्क वृद्धि बच्चों को गोद लेने की प्रक्रिया को सरल करेगी और बच्चों को एक बेहतर भविष्य मिलेगा पर तथ्य यह है कि भारत में किसी नवजात को गोद लेने में कम से कम चार से पांच माह का समय लग जाता है|हम सोंचना होगा कि क्या जीवन के अस्तित्व का एक मात्र आधार अर्थ ही है ? या अर्थ ही ऐसा घटक है जिससे हम संवेदनाओं का मूल्यांकन करें संतति सुख सार्वभौमिक है |शुल्क वृद्धि का ये फैसला न्याय संगत नहीं है इससे बच्चा गोद लेने वाले मध्य आय वर्ग के लोग हतोत्साहित होंगे|इस शुल्क वृद्धि का इस्तेमाल अगर गोद लेने वाले बच्चे पर ही किया जाए तो ज्यादा बेहतर होगा इस शुल्क का एक हिस्सा ब्याज के साथ उन अभिभावकों को तब मिले जब बच्चा अट्ठारह साल की उम्र पूरी कर ले|इससे मध्य आयवर्ग के लोग भी बच्चा गोद लेने के लिए उत्साहित होंगे पर मध्य वर्ग की चिंता किसे है क्योंकि ये सारी व्यवस्था कुछ साधन संपन्न लोगों के लिए ही है|सरकार वैसे भी अपने निर्णयों से ये जाहिर कर चुकी है कि भारत का मध्यवर्ग आर्थिक रूप से संपन्न है जोमंहगा पानी खरीद कर पीता है, मंहगी आइसक्रीम खाता है,मगर गेहूं या चावल महंगा नहीं खरीदना चाहताहै |मानव संतति का अंगीकरण(गोद लेना ) किसी कोरे कागज को अपनाने जैसा है जो हमें बिना किसी लिखावट के मिलता है गोद लेने का यह पक्ष मनुष्यता कि गरिमा को बढाता है और मनुष्यता व पशुता के बीच भेद स्थापित करने वाली परिपाटी भीआर्थिक स्थिति के आधार पर प्राण का वर्गीकरण करना निश्चित रूप के मनुष्यता और पशुता के अंतर को कम करने जैसा ही है |
राष्ट्रीय सहारा में 15/10/12 में प्रकाशित 

Tuesday, October 9, 2012

जानलेवा बीमारियों से लड़ते बच्चे

स्वास्थ्य किसी भी देश की महत्वपूर्ण प्राथमिकता का क्षेत्र होता है पर आंकड़ों के हिसाब से भारत की तस्वीर  इस मायने में बहुत साफ़ नहीं है बाल स्वास्थ्य इसका कोई अपवाद नहीं है बच्चे देश का भविष्य हैं पर उन बच्चों का क्या जो भविष्य में बढ़ने की बजाय अतीत का हिस्सा बन जाते हैं | साल 2011 मेंदुनिया के अन्य देशों की मुकाबले भारत में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की सबसे ज्यादा मौतें हुईं।ये आंकड़ा समस्या की गंभीरता को बताता है जिसके अनुसार भारत में  प्रतिदिन 4,650 से ज्यादा पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु होती है|संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ की नई रिपोर्ट यह बताती है कि बच्चों के स्वास्थ्य के मामले में अभी कितना कुछ किया जाना है |संयुक्त राष्ट्र का यह  अध्ययन यह आंकलन करता  है कि भारत में जन्म लेने वाले प्रत्येक 1,000 बच्चों में से 61 बच्चे अपना  पांचवा जन्मदिन नहीं मना पाते हैं। महत्वपूर्ण बात ये है कि ये संख्या रवांडा (54 बच्चों की मृत्यु) नेपाल (48 बच्चों की मृत्यु) और कंबोडिया (43 बच्चों की मृत्यु) जैसे आर्थिक रूप से पिछड़े देशों के मुकाबले ज्यादा है|सियेरा लियोन में बच्चों के जीवित रहने की संभावनाएं सबसे कम रहती हैं,जहां प्रत्येक 1,000 बच्चों में मृत्यु दर 185 है।दुनिया भर में बच्चों की मृत्यु की सबसे बड़ी वजह न्यूमोनिया है जिनसे १८ प्रतिशत मौतें होती हैं और दूसरी वजह डायरिया है जिससे ११ प्रतिशत मौतें होती हैं भारत डायरिया से होने वाली मौतों के मामले में सबसे आगे  है। 2010 में जितने बच्चों की मृत्यु हुईउनमें 13 प्रतिशत की मृत्यु वजह की डायरिया ही था  दुनिया में डायरिया से होने वाली मौतों में अफगानिस्तान के बाद भारत का ही स्थान  है।रिपोर्ट के मुताबिक भारत जैसे देशों में डायरिया की मुख्य वजह साफ़ पानी की कमी, और निवास के स्थान के आस पास गंदगी का होना है जिसकी एक वजह खुले में मल त्याग भी है |गंदगी ,कुपोषण और मूल भूत स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव मिलकर एक ऐसा दुष्चक्र रचते हैं जिनका शिकार ज्यादातर गरीब घर के बच्चे होते हैं |तथ्य यह भी है आर्थिक आंकड़ों और निवेश के नजरिये से भारत तरक्की करता दिखता है पर इस आर्थिक विकास का असर समाज के आर्थिक रूप कमजोर तबके पर नहीं हो रहा है जिसका परिणाम पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की ज्यादा मृत्यु ,वह भी डायरिया जैसी बीमारी से जिसका बचाव थोड़ी सावधानी और जागरूकता से किया जा सकता है | बढते शहरीकरण ने शहरो में जनसँख्या के घनत्व को बढ़ाया है| निम्न आयवर्ग के लोग रोजगार की तलाश में उन शहरों का रुख कर रहे हैं जो पहले से ही जनसँख्या के बोझ से दबे हैं नतीजा शहरों में निम्न स्तर की जीवन दशाओं के रूप में सामने आता है |गाँव जहाँ जनसंख्या का दबाव कम हैं वहां स्वास्थ्य सेवाओं की हालत दयनीय है और स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों पर जागरूकता का पर्याप्त अभाव है|
 विकास संचार के मामले में अभी हमें एक लंबा रास्ता तय करना है जिससे लोगों में जागरूकता जल्दी लाई जाए विशेषकर देश के ग्रामीण इलाकों में| इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जिसका प्रभाव ज्यादा है पर वह अपने मनोरंजन एवं सूचना में संतुलन बना पाने में असफल रहा है जिसका नतीजा संचार संदेशों में कोरे मनोरंजन की अधिकता के रूप में सामने आता है |सरकार का रवैया इस दिशा में कोई खास उत्साह बढ़ाने वाला नहीं रहा है देश के सकल घरेलु उत्पाद (जी डी पी ) का 1.4 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं  पर खर्च किया जाता है जो कि काफी कम है सरकार ने इसे बढ़ाने का वायदा तो किया पर ये कभी पूरा हो नहीं पाया | भारत सरकार के सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य के अनुसार वह साल 2015 तक शिशु मृत्यु दर को प्रति 1,000 बच्चों पर 38 की संख्या  तक ले आयेगी |बढ़ती शिशु मृत्यु दर का एक और कारण कुपोषण भी है 'सेव द चिल्ड्रन'संस्था  का एक अध्ययन बताता  है कि भारत बच्चों को पूरा पोषण मुहैया कराने के मामले में बांग्लादेश और बेहद पिछड़े माने जाने वाले अफ्रीकी देश डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो से भी पिछड़ा हुआ है| हालांकिभारत में पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर 1990 के मुकाबले  46 प्रतिशत कम हुई है पर इस आंकड़े पर गर्व नहीं किया जा सकता|सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य को तभी प्राप्त किया जा सकता है  जब गरीबों में स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता पैदा की जाए  और उनकी जीवन दशाओं को बेहतर किया जाए. इस दिशा में सरकार को सार्थक पहल करनी होगी  पर यूनिसेफ की यह रिपोर्ट बताती है कि यह आंकड़ा प्राप्त करना आसान नहीं होगा| 
अमरउजाला में 09/10/12 को प्रकाशित 

Monday, October 8, 2012

कहानी कागज की



बदलती दुनिया के साथ बदलते हुए यांगिस्तानियों बदलाव नेचर का नियम है पर ये चेंज हमें इस बात का एहसास भी कराता है कि हम आगे बढ़ रहे हैं पर परिवर्तन का मतलब पुरानी चीजों से पीछा छुड़ाना नहीं है सुनहरे  वर्तमान की नींव इतिहास पर ही रखी जाती है.मैं बिलकुल भारी भरकम बात करके आपको बोर नहीं करना चाहता .आज की दुनिया इंटरनेट की दुनिया जिसमे काफी कुछ आभासी है पर कितना कुछ इसने बदल दिया है पर ये बदलाव यूँ ही नहीं हुआ है एक छोटा सा उदहारण है इंटरनेट ने कागज़ पर हमारी निर्भरता को कम किया है वो कागज़ जिससे हमारी ना जाने कितनी यादें जुडी हैं वो स्कूल की नयी किताबें जिससे आती खुशबू आज भी हमें अपने बचपने में ले जाती है और हम उस दौर को एक बार फिर जी लेना चाहते हैं वो कॉलेज की डिग्री का कागज़  जिसने हमें पहली बार एहसास कराया कि हमने जीवन का अहम पड़ाव पार कर लिया फिर वो शादी के कार्ड का कागज जब हम एक से दो हो गएअपने  पहले अपोइंटमेंट लेटर को कौन भूल सकता है जब आपने पहली बार फाइनेंशियल इंडीपेंडेंस का लुत्फ़ उठाया और ये सिलसिला चलता रहता है पर अब सबकुछ ऑन लाइन है .पर कभी कभी तो प्रिंट आउट भी  निकलना पड़ता है भले ही सब कुछ ऑन लाइन हो रहा है पर कागज़ तो हमारे जीवन का हिस्सा है ही ना अब इस लेख को कुछ लोग अखबार में पढेंगे कुछ नेट पर तो हो गया न ओं लाइन और ऑफ लाइन का कोम्बिनेशन .गुड ओब्सर्वेशन क्यूँ सही कह रहा हूँ ना .तो ये पेज जल्दी ही इतिहास का हिस्सा हो जायेंगे जब बच्चे लिखना पढ़ना कॉपी और कागज़ से नहीं टेबलेट और लैपटॉप पर सीखेंगेअब ग्रीटिंग कार्ड से लेकर शादी के कार्ड और अपोइंटमेंट लेटरसीधे   ई मेल किये जाते हैं पर वो कागज़ के कुछ टुकड़े ही थे जिनपर भविष्य के कंप्यूटर और इंटरनेट की इबारत लिखी गयी बोले तो कागज़ ही ने  जिन्होंने हमें ऑफ लाइन से ऑन लाइन होने का जरिया दिया तभी तो किसी भी वेबसाईट के खास हिस्से को वेबपेज ही कहते हैं  जबकि इस वेब पेज में उस पेज जैसा कुछ नहीं होता जिसे हम जानते हैं तो डायरेक्ट दिल से जब हम जड़ों से जुड़े रहेंगे तो आगे बढते रहेंगे पर उनसे कट कर हम कभी तरक्की के रास्ते पर नहीं बढ़ पायेंगे .
पर ये तो आधी बात हुई मैं तो कुछ और ही कहना चाहता हूँ  कि जीवन में कितनी बातें ऐसी होती हैं जिन्हें हम ओबियस मानकर छोड़ देते हैं पर जरा सा जोर डालने पर हमें पता पड़ता है कि उनकी हमारे जीवन में कितनी अहमियत होती है और कागज़ तो बहाना भर है आपको ये समझाने को हम कितने भी आगे क्यूँ ना निकल जाएँ  पर अपने बेसिक्स को न भूलें और  मॉडर्न हो जाने का मतलब पुरानी चीजों  को भूल जाना नहीं है बल्कि उनको याद करके आने वाली दुनिया को और बेहतर करना है अब उस मामूली कागज़ को लीजिए उसके साथ हम क्या करते हैं.हर मेल का प्रिंट आउट निकलना जरूरी तो नहीं है .प्रिंट आउट निकले पन्ने के दूसरी तरफ भी कुछ लिखा जा सकता है पर हम उन्हें रद्दी मानकर फैंक देते हैं .हम जितना कागज़ ज्यादा इस्तेमाल करते हैं उतना ही पेड ज्यादा काटे जाते हैं तो कागज का इस्तेमाल सम्हाल कर कीजिये तभी हम अपने  पर्यावरण को बचा पायेंगे तो कागज़ की इस कहानी के साथ आज के लिए इतना ही......
आई नेक्स्ट में 8/10/12  को प्रकाशित 

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