विकास एक बहुआयामी धारणा है जिसके केंद्र में है मानव और उससे
जुड़ा हुआ परिवेश जिसमें वह उपलब्ध संसाधनों की सहायता से अपना जीवनस्तर
बेहतर कर सके |संसाधनों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है प्राकृतिक संसाधन जो कि
इंसानों के अस्तित्व के लिए सर्वाधिक आवश्यक है | किसी भी
विकास का अंतिम लक्ष्य मानव मात्र का जीवन स्तर बेहतर करना ही होता है पर उसके मूल
में प्रकृति का साथ भी होता है |दुर्भाग्य से भारत में विकास
की जो अवधारणा लोगों के मन में है उसमें प्रकृति कहीं भी नहीं है,हालाँकि हमारी विकास की अवधारणा पश्चिम की विकास सम्बन्धी अवधारणा
की ही नकल है पर स्वच्छ पर्यावरण के प्रति जो उनकी जागरूकता है उसका अंश मात्र भी
हमारी विकास के प्रति जो दीवानगी है उसमें नहीं दिखती है |भारत
में आंकड़ा पत्रकारिता की नींव रखने वाली संस्था इण्डिया स्पेंड की रिपोर्ट के
अनुसार भारत के शहर लगातार गर्म होते जा रहे हैं कोलकाता में पिछले बीस सालों में
वनाच्छादन 23.4 प्रतिशत से गिरकर 7.3 प्रतिशत
हो गया है वहीं निर्माण क्षेत्र में 190 प्रतिशत की वृद्धि
हुई है साल 2030 तक कोलकाता के कुल क्षेत्रफल का मात्र 3.37प्रतिशत हिस्सा ही वनस्पतियों के क्षेत्र के रूप में ही बचेगा |अहमदाबाद में पिछले बीस सालों में वनाच्छादन 46 प्रतिशत
से गिरकर 24 प्रतिशत पर आ गया है जबकि निर्माण क्षेत्र में 132
प्रतिशत की वृद्धि हुई है साल 2030 तक
वनस्पतियों के लिए शहर में मात्र तीन प्रतिशत जगह बचेगी |भोपाल
में पिछले बाईस वर्षों में वनाच्छादन छाछट प्रतिशत से गिराकर बाईस प्रतिशत हो गया
है और 2018 तक यह वनाच्छादन ग्यारह प्रतिशत रह जाएगा |भोपाल उन छोटे शहरों में है जो अभी मेट्रो शहर की श्रेणी में नहीं पर उस
होड़ में शामिल हो चुके हैं जहाँ शहर को स्मार्ट होना है |इसका
बड़ा कारण हमारी वह मानसिकता है जो विकास को कंक्रीट या पक्के निर्माण से जोडती है |गाँव में पक्के मकान का ज्यादा होना मतलब गाँव विकसित है |ऐसी सोच सरकारों को ज्यादा से ज्यादा पक्के निर्माण के लिए प्रेरित करती
है चूँकि पर्यावरण भारत जैसे देश में उतनी प्राथमिकता अभी नहीं रखता जितना कि
लोगों के जीवन स्तर में उठाव इसलिए विकास पर्यवरण की कीमत पर लगातार हो रहा है |विकसित देशों ने जहाँ एक संतुलन बनाये रखा वहीं भारत जैसे दुनिया के तमाम
अल्पविकसित देश विकास के इस खेल में अपनी जमीनों को कंक्रीट और डामर के घोल पिलाते
जा रहे हैं जिसका नतीजा तापमान में बढ़ोत्तरी गर्मियां ज्यादा गर्म और ठण्ड और
ज्यादा ठंडी |पेड़ ,घास झाड़ियाँ और
मिट्टी सूर्य ताप को अपने में समा लेती हैं जिससे जमीन ठंडी रहती है पर इस कंक्रीट
केन्द्रित विकास में यह सारी चीजें हमारे शहरों से लगातार कम होती जा रही हैं |यह एक चक्र है कुछ शहर रोजगार और अन्य मूलभूत सुविधाओं के हिसाब से अन्य
शहरों के मुकाबले ज्यादा बेहतर होते हैं लोग वहां रोजगार की तलाश में पहुँचने लगते
हैं |गाँव खाली होते हैं चूँकि वहां ज्यादा लोग नहीं होते
हैं इसलिए सरकार की प्राथमिकता में नहीं आते शहरों में भीड़ बढ़ती है|कोलतार या डामर से नई सड़कें बनती हैं पुरानी चौड़ी होती हैं नए मकान
और फ़्लैट बनते हैं |सार्वजनिक यातायात के लिए कंक्रीट के
खम्भों पर कोलतार की सडक के ऊपर मेट्रो दौडती है शहरों में भीड़ बढ़ती है और कंक्रीट
के नए जंगल वानस्पतिक जंगलों की जगह लेते जाते हैं और खेती योग्य जमीन की जगह ऊँची
ऊँची अट्टालिकाएं लेती हैं आस –पास
के जंगल खत्म होते हैं |पानी के प्राकृतिक स्रोत सूख जाते
हैं या सुखा दिए जाते हैं कंक्रीट केन्द्रित निर्माण के लिए चूँकि जगह
लगातार कम होती जाती है इसलिए मौसम की मार से बचने के लिए ऐसी जगह एयरकंडीशनर का
बहुतायत से प्रयोग किया जाता है जो गर्म हवा छोड़ते हैं और वातावरण को और गर्म करते
हैं एयरकंडीशनर और अन्य विद्युत जरूरतों को पूरा करने के लिए नदियों का प्रवाह
रोका जाता है और विशाल कंक्रीट के बाँध बनाये जाते हैं लोगों के घर डूबता हैं पशु
पक्षियों और वनस्पतियों को हुआ नुक्सान अकल्पनीय होता है |ऐसे
पर्यावरण में रहने वाला इंसान तनाव और गुस्से के कारण बहुत सी स्वास्थ्य संबंधी
समस्याओं का शिकार होता है और विकास की यह दौड़ जारी रहती है पर अब इस दौड़ का
परिणाम वनस्पतियों के खत्म होने, जंगली जानवरों के लुप्त
होने और मौसम के बड़े बदलाव में दिख रहा है |इस तेजी से
स्मार्ट होते हुए भारत में जहाँ हर चीज तकनीक के नजरिये से देखी जा रही हो वहां
प्रकृति के बगैर स्मार्ट शहरों की अगर कल्पना हो रही हो तो यह अंदाजा लगाना बिलकुल
मुश्किल नहीं है कि वहां का जीवन आने वाली पीढीयों के लिए कैसा कल छोड़ जाएगा |
अमर उजाला में 08/12/16 को प्रकाशित