Thursday, December 8, 2016

यहाँ विकास का अर्थ कंकरीट है

विकास एक बहुआयामी धारणा है जिसके केंद्र में है मानव और उससे जुड़ा हुआ परिवेश जिसमें वह उपलब्ध संसाधनों की सहायता से अपना जीवनस्तर  बेहतर कर सके |संसाधनों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण  है प्राकृतिक संसाधन जो कि इंसानों के अस्तित्व के लिए सर्वाधिक आवश्यक है | किसी भी विकास का अंतिम लक्ष्य मानव मात्र का जीवन स्तर बेहतर करना ही होता है पर उसके मूल में प्रकृति का साथ भी होता है |दुर्भाग्य से भारत में विकास की जो अवधारणा लोगों के मन में है उसमें प्रकृति कहीं भी नहीं है,हालाँकि हमारी विकास की अवधारणा  पश्चिम की विकास सम्बन्धी अवधारणा की ही नकल है पर स्वच्छ पर्यावरण के प्रति जो उनकी जागरूकता है उसका अंश मात्र भी हमारी विकास के प्रति जो दीवानगी है उसमें नहीं दिखती है |भारत में आंकड़ा पत्रकारिता की नींव रखने वाली संस्था इण्डिया स्पेंड की रिपोर्ट के अनुसार भारत के शहर लगातार गर्म होते जा रहे हैं कोलकाता में पिछले बीस सालों में वनाच्छादन 23.4 प्रतिशत से गिरकर 7.3 प्रतिशत हो गया है वहीं निर्माण क्षेत्र में 190 प्रतिशत की वृद्धि हुई है साल 2030 तक कोलकाता के कुल क्षेत्रफल का मात्र 3.37प्रतिशत हिस्सा ही वनस्पतियों के क्षेत्र के रूप में ही बचेगा |अहमदाबाद में पिछले बीस सालों में वनाच्छादन 46 प्रतिशत से गिरकर 24 प्रतिशत पर आ गया है जबकि निर्माण क्षेत्र में 132 प्रतिशत की  वृद्धि हुई है साल 2030 तक वनस्पतियों के लिए शहर में मात्र तीन प्रतिशत जगह बचेगी |भोपाल में पिछले बाईस वर्षों में वनाच्छादन छाछट प्रतिशत से गिराकर बाईस प्रतिशत हो गया है और 2018 तक यह वनाच्छादन ग्यारह प्रतिशत रह जाएगा |भोपाल उन छोटे शहरों में है जो अभी मेट्रो शहर की श्रेणी में नहीं पर उस होड़ में शामिल हो चुके हैं जहाँ शहर को स्मार्ट होना है |इसका बड़ा कारण हमारी वह मानसिकता है जो विकास को कंक्रीट या पक्के निर्माण से जोडती है |गाँव में पक्के मकान का ज्यादा होना मतलब गाँव विकसित है |ऐसी सोच सरकारों को ज्यादा से ज्यादा पक्के निर्माण के लिए प्रेरित करती है चूँकि पर्यावरण भारत जैसे देश में उतनी प्राथमिकता अभी नहीं रखता जितना कि लोगों के जीवन स्तर में उठाव इसलिए विकास पर्यवरण की कीमत पर लगातार हो रहा है |विकसित देशों ने जहाँ एक संतुलन बनाये रखा वहीं भारत जैसे दुनिया के तमाम अल्पविकसित देश विकास के इस खेल में अपनी जमीनों को कंक्रीट और डामर के घोल पिलाते जा रहे हैं जिसका नतीजा तापमान में बढ़ोत्तरी गर्मियां ज्यादा गर्म और ठण्ड और ज्यादा ठंडी |पेड़ ,घास झाड़ियाँ और मिट्टी सूर्य ताप को अपने में समा लेती हैं जिससे जमीन ठंडी रहती है पर इस कंक्रीट केन्द्रित विकास में यह सारी चीजें हमारे शहरों से लगातार कम होती जा रही हैं |यह एक चक्र है कुछ शहर रोजगार और अन्य मूलभूत सुविधाओं के हिसाब से अन्य शहरों के मुकाबले ज्यादा बेहतर होते हैं लोग वहां रोजगार की तलाश में पहुँचने लगते हैं |गाँव खाली होते हैं चूँकि वहां ज्यादा लोग नहीं होते हैं इसलिए सरकार की प्राथमिकता में नहीं आते शहरों में भीड़ बढ़ती है|कोलतार या डामर से  नई सड़कें बनती हैं पुरानी चौड़ी होती हैं नए मकान और फ़्लैट बनते हैं |सार्वजनिक यातायात के लिए कंक्रीट के खम्भों पर कोलतार की सडक के ऊपर मेट्रो दौडती है शहरों में भीड़ बढ़ती है और कंक्रीट के नए जंगल वानस्पतिक जंगलों की जगह लेते जाते हैं और खेती योग्य जमीन की जगह ऊँची ऊँची अट्टालिकाएं लेती हैं आस पास के जंगल खत्म होते हैं |पानी के प्राकृतिक स्रोत सूख जाते हैं या सुखा दिए जाते हैं कंक्रीट केन्द्रित निर्माण के लिए  चूँकि जगह लगातार कम होती जाती है इसलिए मौसम की मार से बचने के लिए ऐसी जगह एयरकंडीशनर का बहुतायत से प्रयोग किया जाता है जो गर्म हवा छोड़ते हैं और वातावरण को और गर्म करते हैं एयरकंडीशनर और अन्य विद्युत जरूरतों को पूरा करने के लिए नदियों का प्रवाह रोका जाता है और विशाल कंक्रीट के बाँध बनाये जाते हैं लोगों के घर डूबता हैं पशु पक्षियों और वनस्पतियों को हुआ नुक्सान अकल्पनीय होता है |ऐसे पर्यावरण में रहने वाला इंसान तनाव और गुस्से के कारण बहुत सी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का शिकार होता है  और विकास की यह दौड़ जारी रहती है पर अब इस दौड़ का परिणाम वनस्पतियों के खत्म होने, जंगली जानवरों के लुप्त होने और मौसम के बड़े बदलाव में दिख रहा है |इस तेजी से स्मार्ट होते हुए भारत में जहाँ हर चीज तकनीक के नजरिये से देखी जा रही हो वहां प्रकृति के बगैर स्मार्ट शहरों की अगर कल्पना हो रही हो तो यह अंदाजा लगाना बिलकुल मुश्किल नहीं है कि वहां का जीवन आने वाली पीढीयों के लिए कैसा कल छोड़ जाएगा |
अमर उजाला में 08/12/16 को प्रकाशित 

Wednesday, December 7, 2016

भुलक्कड़ बना रहा है इंटरनेट

इंटरनेट ने उम्र का एक चक्र पूरा कर लिया है। इसकी खूबियों और इसकी उपयोगिता की चर्चा तो बहुत हो लीपर अब वक्त है इसके और आयामों पर चर्चा करने का |आज हमारी  पहचान का एक मानक वर्च्युअल वर्ल्ड में हमारी उपस्थिति भी है और यहीं से शुरू होता है फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग से जुड़ने का सिलसिलाभारत में फेसबुक के सबसे ज्यादा प्रयोगकर्ता हैं पर यह तकनीक अब भारत में एक चुनौती बन कर उभर रही है चर्चा के साथ साथ आंकड़ों से मिले तथ्य साफ़ इस ओर इशारा कर रहे हैं  कि स्मार्टफोन व इंटरनेट लोगों को व्यसनी बना रहा है|  चीन के शंघाई मेंटल हेल्थ सेंटर के एक अध्ययन के मुताबिकइंटरनेट की लत शराब और कोकीन की लत से होने वाले स्नायविक बदलाव पैदा कर सकती हैलोगों में डिजिटल तकनीक के प्रयोग करने की वजह बदल रही है। शहर फैल रहे हैं और इंसान पाने में सिमट रहा है|नतीजतनहमेशा लोगों से जुड़े रहने की चाह उसे साइबर जंगल की एक ऐसी दुनिया में ले जाती हैजहां भटकने का खतरा लगातार बना रहता हैभारत जैसे देश में समस्या यह है कि यहां तकनीक पहले आ रही हैऔर उनके प्रयोग के मानक बाद में गढ़े जा रहे हैं|
मोबाइल ऐप (ऐप्लीकेशन) विश्लेषक कंपनी फ्लरी के मुताबिकहम मोबाइल ऐप लत की ओर बढ़ रहे हैं। स्मार्टफोन हमारे जीवन को आसान बनाते हैंमगर स्थिति तब खतरनाक हो जाती हैजब मोबाइल के विभिन्न ऐप का प्रयोग इस स्तर तक बढ़ जाए कि हम बार-बार अपने मोबाइल के विभिन्न ऐप्लीकेशन को खोलने लगें। कभी काम सेकभी यूं ही। फ्लरी के इस शोध के अनुसारसामान्य रूप से लोग किसी ऐप का प्रयोग करने के लिए उसे दिन में अधिकतम दस बार खोलते हैंलेकिन अगर यह संख्या साठ के ऊपर पहुंच जाएतो ऐसे लोग मोबाइल ऐप एडिक्टेड की श्रेणी में आ जाते हैं। पिछले वर्ष इससे करीब 7.करोड़ लोग ग्रसित थे। इस साल यह आंकड़ा बढ़कर17.करोड़ हो गया हैजिसमें ज्यादा संख्या महिलाओं की है।
 वी आर सोशल की डिजिटल सोशल ऐंड मोबाइल 2015 रिपोर्ट के मुताबिकभारत में इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं के आंकड़े काफी कुछ कहते हैंइसके अनुसारएक भारतीय औसतन पांच घंटे चार मिनट कंप्यूटर या टैबलेट पर इंटरनेट का इस्तेमाल करता है। इंटरनेट पर एक घंटा 58 मिनटसोशल मीडिया पर दो घंटे 31 मिनट के अलावा इनके मोबाइल इंटरनेट के इस्तेमाल की औसत दैनिक अवधि है दो घंटे 24 मिनटइसी का नतीजा हैं तरह-तरह की नई मानसिक समस्याएं- जैसे फोमोयानी फियर ऑफ मिसिंग आउटसोशल मीडिया पर अकेले हो जाने का डर। इसी तरह फैडयानी फेसबुक एडिक्शन डिसऑर्डरइसमें एक शख्स लगातार अपनी तस्वीरें पोस्ट करता है और दोस्तों की पोस्ट का इंतजार करता रहता है। एक अन्य रोग में रोगी पांच घंटे से ज्यादा वक्त सेल्फी लेने में ही नष्ट कर देता है। इस वक्त भारत में 97|8 करोड़ मोबाइल और14 करोड़ स्मार्टफोन कनेक्शन हैंजिनमें से 24|3 करोड़  इंटरनेट पर सक्रिय हैं और 11|8 करोड़ सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं|
 कैस्परस्की लैब द्वारा इस वर्ष किए गए एक शोध में पाया गया है कि करीब 73 फीसदी युवा डिजिटल लत के शिकार हैंजो किसी न किसी इंटरनेट प्लेटफॉर्म से अपने आप को जोड़े रहते हैंसाल 2011 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ कोलंबिया द्वारा किए गए रिसर्च में यह निष्कर्ष निकाला गया था की युवा पीढ़ी किसी भी सूचना को याद करने का तरीका बदल रही हैक्योंकि वह आसानी से इंटरनेट पर उपलब्ध है। वे कुछ ही तथ्यों को याद रखते हैंबाकी के लिए इंटरनेट का सहारा लेते हैंइसे गूगल इफेक्ट या गूगल-प्रभाव कहा जाता है|
इसी दिशा में कैस्परस्की लैब ने साल 2015 में डिजिटल डिवाइस और इंटरनेट से सभी पीढ़ियों पर पड़ने वाले प्रभाव के ऊपर शोध किया हैकैस्परस्की लैब ने ऐसे छह हजार लोगों की गणना कीजिनकी उम्र 16-55 साल तक थी। यह शोध कई देशों में जिसमें ब्रिटेनफ्रांसजर्मनीइटली, स्पेन आदि देशों के 1,000 लोगों पर फरवरी 2015 में ऑनलाइन किया गयाशोध में यह पता चला की गूगल-प्रभाव केवल ऑनलाइन तथ्यों तक सीमित न रहकर उससे कई गुना आगे हमारी महत्वपूर्ण व्यक्तिगत सूचनाओं को याद रखने के तरीके तक पहुंच गया हैशोध बताता है कि इंटरनेट हमें भुलक्कड़ बना रहा हैज्यादातर युवा उपभोक्ताओं के लिएजो कि कनेक्टेड डिवाइसों का प्रयोग करते हैंइंटरनेट न केवल ज्ञान का प्राथमिक स्रोत हैबल्कि उनकी व्यक्तिगत जानकारियों को सुरक्षित करने का भी मुख्य स्रोत बन चुका हैइसे कैस्परस्की लैब ने डिजिटल एम्नेशिया का नाम दिया हैयानी अपनी जरूरत की सभी जानकारियों को भूलने की क्षमता के कारण किसी का डिजिटल डिवाइसों पर ज्यादा भरोसा करना कि वह आपके लिए सभी जानकारियों को एकत्रित कर सुरक्षित कर लेगा। 16 से 34 की उम्र वाले व्यक्तियों में से लगभग 70 प्रतिशत लोगों ने माना कि अपनी सारी जरूरत की जानकारी को याद रखने के लिए वे अपने स्मार्टफोन का उपयोग करते हैइस शोध के निष्कर्ष से यह भी पता चला कि अधिकांश डिजिटल उपभोक्ता अपने महत्वपूर्ण कांटेक्ट नंबर याद नहीं रख पाते हैं|एक यह तथ्य भी सामने आया कि डिजिटल एम्नेशिया लगभग सभी उम्र के लोगों में फैला है और ये महिलाओं और पुरुषों में समान रूप से पाया जाता है|
वर्चुअल दुनिया में खोए रहने वाले के लिए सब कुछ लाइक्स व कमेंट से तय होता है|वास्तविक जिंदगी की असली समस्याओं से वे भागना चाहते हैं और इस चक्कर में वे इंटरनेट पर ज्यादा समय बिताने लगते हैंजिसमें चैटिंग और ऑनलाइन गेम खेलना शामिल हैं। और जब उन्हें इंटरनेट नहीं मिलतातो उन्हें बेचैनी होती और स्वभाव में आक्रामकता आ जाती है और वे डिजीटल डिपेंडेंसी सिंड्रोम (डी डी सी ) की गिरफ्त में आ जाते हैं |इससे निपटने का एक तरीका यह है कि चीन से सबक लेते हुए भारत में डिजिटल डीटॉक्स यानी नशामुक्ति केंद्र खोले जाएं और इस विषय पर ज्यादा से ज्यादा जागरूकता फैलाई जाए
नवोदय टाईम्स में 07/12/16 को प्रकाशित 


Saturday, December 3, 2016

मोरक्को छोडिये ,भारत भी अपवाद नहीं

मोरक्को  के सरकारी टेलिविजन चैनल 2M को मेकअप पर एक प्रोग्राम दिखाना भारी पड़ गया है. इस प्रोग्राम में दिखाया गया के कैसे मेकअप के जरिए महिलाओं पर होने वाली घरेलू हिंसा के निशानों को कैसे छुपाया जा सकता है|इस कार्यक्रम के प्रसारित होने के बाद इसे लेकर काफी विवाद खड़ा हो गया और बड़ी संख्या में लोगों ने तीखी प्रतिक्रिया दी. सोशल मीडिया पर भी इसे लेकर लोगों ने बहुत नाराजगी जताई. इतनी आलोचनाओं के बाद टीवी चैनल को  दर्शकों से माफी मांगनी पडी |इस तरह के कार्यक्रमों का बनना और प्रसारित होना यह साफ़ बताता है कि दुनिया के तमाम अल्पविकसित देश महिलाओं और घरेलु हिंसा के प्रति क्या सोच रखते हैं |भारत भी इसमें अपवाद नहीं है |घरेलू हिंसा कानून लागू होने से पहले यह माना ही नहीं जाना जाता था कि घरों में भी हिंसा होती है और इसका सबसे ज्यादा शिकार महिलायें होती हैं वो चाहे विवाहित हों या अविवाहित|26 अक्टूबर 2006 को जब से यह कानून लागू हुआ तब से लेकर आज तक घरेलू हिंसा से होने वाले नुकसान का आंकलन विभिन्न शोधों से लगातार किया जा रहा है इन शोधों से प्राप्त आंकड़े डराते  हैं|एसेक्स यूनिवर्सिटी  की शोध छात्रा सुनीता मेनन द्वारा किये गए शोध से पता चलता है कि भारत में होने वाली कुल बाल मौतों के दसवें हिस्से का कारण घरेलू हिंसा है |इस शोध का आधार नेशनल फैमली एंड हेल्थ सर्वे 2007 का वह आंकड़ा है जिसमें सोलह से उनचास वर्ष की 124,385 महिलाओं का साक्षात्कार किया गया था|शोध में शामिल किये गए सैम्पल को अगर सिर्फ ग्रामीण जनसँख्या तक सीमित कर दिया जाये तो यह आंकड़ा दुगुना होकर हर पांच में से एक पर जा सकता है | महिलाओं को अधिकारों की सुरक्षा को अंतर्राष्‍ट्रीय महिला दशक (1975-85) के दौरान एक पृथक पहचान मिली थी। सन् 1979 में संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ में इसे अंतर्राष्‍ट्रीय कानून का रूप दिया गया था। विश्‍व के अधिकांश देशों में पुरूष प्रधान समाज है। पुरूष प्रधान समाज में सत्‍ता पुरूषों के हाथ में रहने के कारण सदैव ही पुरूषों ने महिलाओं को दोयम दर्जे का स्‍थान दिया है। यही कारण है कि पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं के प्रति अपराध, कम महत्‍व देने तथा उनका शोषण करने की भावना बलवती रही है।राष्ट्रीय अपराध रिकोर्ड ब्यूरो के 2014 आंकडो के अनुसार पति और सम्बन्धियों द्वारा महिलाओं के प्रति किये जाने वाली क्रूरता में साढ़े सात प्रतिशत की वृद्धि हुई है |घरेलू हिंसा अधिनियम भारत का  पहला ऐसा कानून है जो भारतीय महिलाओं को उनके घर में सम्मानजनक एवं गरिमापूर्ण तरीके से रहने के अधिकार को सुनिश्चित करता है |प्रचलित अवधारणा के विपरीत समाजशास्त्रीय नजरिये से हिंसा का मतलब सिर्फ शारीरिक हिंसा नहीं है इसलिए घरेलू हिंसा अधिनियम में महिलाओं को सिर्फ शारीरिक हिंसा से बचाव का अधिकार नहीं दिया गया  है बल्कि इसमें  मानसिक ,आर्थिकएवं यौन हिंसा भी शामिल हैं | पुरुष प्रधान भारतीय समाज में महिलाओं को दिवीतीय दलित की संज्ञा दी जा सकती है जो सामाजिक ,आर्थिक और राजनैतिक दृष्टि से शोषित की भूमिका में हैं |हिंसा कैसी भी हो वह महिलाओं के मनोविज्ञान को प्रभावित करती है |
घरेलू हिंसा अपने आप में एक ऐसी हिंसा जिनसे व्यवहारिक दृष्टि से सामाजिक रूप से मान्यता मिली हुई है यानि घर में हुई हिंसा को हिंसा की श्रेणी में नहीं माना जाता है ऐसी स्थिति में घर की लड़कियां ,महिलाएं उसे अपनी नियति मान लेती हैं |महिलाओं के नजरिये से उनके प्रति हुई हिंसा इसलिए ज्यादा गंभीर हैं क्योंकि वे जननी होती हैं ,देश का भविष्य उनके गर्भ में ही पलता है |गर्भवस्था के दौरान हुई हिंसा का असर महिला के बच्चे पर भी पड़ता है|मोरिसन और ओरलेंडो के एक शोध के अनुसार विकासशील देशों में महिलाओं के साथ हुई   हिंसा में कैंसर ,मलेरिया,ट्रैफिक एक्सीडेंट और युद्ध में हुई मौतों के मुकाबले ज्यादा मौत होती है |दुनिया की ज्यादातर सभ्यताओं में लिंग आधारित हिंसा पाई जाती है पर भारतीय स्थतियों में ज्यादातर ऐसी हिंसा को सामाजिक व्यवहार,सामूहिक मानदंडों और धार्मिक विश्वास का आधार मिल जाता है जिससे स्थिति काफी जटिल हो जाती है |दूसरे घरेलू हिंसा का साथ अपने सगे सम्बन्धियों से होता है इसलिए इसमें निजता और शर्म का घालमेल हो जाता है |इस विषय पर बात करना मुनासिब नहीं समझा जाता है और लोग खुल कर बोलने से कतराते हैं जिससे इस समस्या से संबंधित व्यवस्थित आंकड़े नहीं उपलब्ध हो पाते हैं |जागरूकता की कमी,सामाजिक रूप से बहिष्कृत किये जाने का डर समस्या को और विकराल बनाता है शहरों की हालात से ग्रामीण इलाकों की स्थिति का महज अंदाजा लगाया जा सकता है जहां जागरूकता और शिक्षा की खासी कमी है |इससे यह बात सिद्ध होती है कि घरेलू हिंसा के दर्ज कराये जा रहे आंकड़े और घरेलू हिंसा की वास्तविक स्थिति में जमीन आसमान का अंतर हैघरेलू हिंसा से महिलाओं  की सार्वजनिक भागीदारी में बाधा होती है उनकी कार्य क्षमता घटती है, और वे  डरी-डरी भी रहती है। परिणामस्‍वरूप प्रताडि़त महिला मानसिक रोगी बन सकती  है जो कभी-कभी पागलपन की हद तक पहुंच जाती है। यह तो स्थापित तथ्य है कि महज कानून बनाकर किसी सामाजिक समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है |महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा का सीधा संबंध उनकी वित्तीय आत्मनिर्भरता से जुड़ा हुआ है |वह महिलायें ज्यादा प्रताड़ित होती हैं जो वित्तीय रूप से किसी और संबंधी पर निर्भर हैं |वित्तीय आत्मनिर्भरता का सीधा संबंध शिक्षा से है जैसे –जैसे भारतीय महिलायें शिक्षित होती जायेंगी वे अपने अधिकार के लिए लड़ पाएंगी|घरेलू हिंसा का शिकार होने पर उन्हें पता होगा कि उन्हें क्या करना है |
नवोदय टाईम्स में 03/12/16 को प्रकाशित लेख 

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