Thursday, February 13, 2025

फर्जी समाचारों के लिए फैक्ट चेकिंग व्यवस्था

फेक न्यूज यानी झूठी और फर्जी खबरें, आज के डिजिटल युग का एक डरावना पहलू हैं। हर दिन हम सोशल मीडिया पर ऐसी खबरों का सामना करते हैं जो पूरी तरह से आधारहीन होती हैं या किसी खास मकसद से उनके तथ्यों के साथ छेड़छाड़ की जाती है। ये खबरें न केवल हमारे विश्वास को प्रभावित करती हैं बल्कि समाज में भय, भ्रम और नफरत का बीज भी बोती हैं। ऐसे में दुनियाभर के फैक्टचैकर्स इन फर्जी खबरों को पर्दाफाश करने के लिए दिनरात मेहनत करते हैं ताकि हमें सही जानकारी मिल सके। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर फैलने वाली फर्जी खबरों से निपटने के लिए साल 2016 में फेसबुक अब मेटा ने एक फैक्ट  चैकिंग प्रोग्राम की शुरुआत की थी जिसका उद्देश्य था सोशल मीडिया पर फैल रही गलत खबरों की पहचान करना और सही जानकारी यूजर्स तक पहुँचाना। मेटा की यह पहल फेक न्यूज से निपटने के लिए एक मजबूत कदम था, जिसने सोशल मीडिया पर फर्जी खबरों को नियंत्रित करने का प्रयास किया था। लेकिन हाल ही में कंपनी ने अचानक अपने फैक्ट चैकिंग प्रोग्राम को बंद करने की घोषणा कर दी है।
 जिससे दुनियाभर के विशेषज्ञों, पत्रकारों और फैक्ट चैकर्स में चिंता और आसमंजस की स्थिति पैदा हो गई है। सवाल यह उठता है कि क्या ये सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हटने की कोशिश कर रहे हैं ? वो भी ऐसे समय जब एआई, डीप फेक जैसी तकनीकों ने सही और गलत में पहचान करना और भी अधिक मुश्किल कर दिया है। प्रोग्राम को बंद करने के पीछे कंपनी की दलील है कि फैक्ट चैकिंग प्रोग्राम की जगह फेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हाट्सअप पर अब कम्यूनिटी नोट्स मॉडल शुरू किया जाएगा। जिससे प्लेटफॉर्म्स का उपयोग कर रहे यूजर्स को यह अधिकार मिलेगा कि वे फेक न्यूज फैला रहे पोस्ट्स को खुद उजागर कर सकेंगे। फिलहाल के लिए फैक्ट चैकिंग प्रोग्राम को सिर्फ अमेरिका में बंद करने का निर्णय लिया गया है लेकिन इस फैसले ने दुनिया भर में फेक न्यूज के खिलाफ चल रही लड़ाई को एक बड़ा झटका दिया है।साल 2016 में मेटा ने थर्ड-पार्टी फैक्ट-चेकिंग प्रोग्राम शुरू किया था जिसके तहत कंपनी स्वतंत्र फैक्ट-चेकिंग संगठनों के साथ मिलकर सोशल मीडिया कंटेंट का सटीकता से मूल्याकंन करती है। इसका उद्देश्य चुनाव, महामारी और संवेदनशील विषयों पर गलत सूचना के प्रसार को रोकना है। मेटा ने इस प्रोग्राम के तहत 100 मिलियन डॉलर से अधिक का निवेश किया है। इस साझेदारी में दुनियाभर के 80 से अधिक मीडिया संगठन शामिल हैं। जिनमें भारत में कंपनी ने अकेले 11 फैक्ट चैकिंग संस्थानों से करार किया था। प्रोग्राम में थर्ड पार्टी फैक्ट चैकर्स संभावित फर्जी खबरों और पोस्ट को चिह्नित करते हैं जिसके बाद फीड में एल्गोरिदम की मदद से ऐसे पोस्ट की रीच को कम या खत्म कर दिया जाता था। लेकिन हाल में मेटा के सीईओ मार्क ज़करबर्ग ने इस पुराने प्रोग्राम को राजनीतिक रूप से पक्षपाती करार देते हुए इसे बंद करने का निर्णय लिया और उन्होंने नए कम्युनिटी नोट्स मॉडल को अधिक लोकतांत्रिक और बेहतर बताया है। 

हालांकि मेटा के इस कदम को कई विशेषज्ञ आलोचनात्मक नजरों से देख रहे हैं और इसे राजनीतिक दबाव के चलते लिया गया फैसला बता रहे हैं। इस निर्णय की घोषणा नए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के शपथ ग्रहण से ठीक पहले होना भी इस फैसले को कटघरे में खड़ा करता है। नया कम्यूनिटी नोट्स मॉडल, माइक्रो ब्लॉगिंग साइट एक्स के सामुदायिक नोट्स कार्यक्रम की तरह काम करेगा। जिसे ट्विटर ने 2021 में बर्डवॉच नाम से शुरू किया था। इसके तहत यूजर्स पोस्ट्स पर नोट्स जोड़ सकते हैं और यूजर्स की रेटिंग्स से कंटेंट की गुणवत्ता सुनिश्चित की जाती है। पांरपरिक फैक्ट चैकिंग प्रोग्राम के विपरीत नोट्स को कर्मचारियों या एक्सपर्ट्स द्वारा संपादित नहीं किया जाता, यह पूरी तरह यूजर्स पर निर्भर है। कंपनी के मुताबिक थर्ड पार्टी फैक्ट-चेकिंग में विशेषज्ञों का पूर्वाग्रह, पक्षपाती रवैया हो सकता है, जिससे वे एक पक्ष की ओर झुक सकते हैं।यह बदलाव खासतौर पर भारत जैसे देश में फेक न्यूज के प्रसार को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है। साल 2024 में विश्व आर्थिक मंच द्वारा जारी ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में फेक न्यूज और गलत सूचना प्रसार के जोखिम के मामले में भारत पहले स्थान पर है। देश में फैक्ट चैकिंग पेशेवरों की माँग लगातार बढ़ रही है, वहीं इन संस्थानों का एक बड़ा हिस्सा मेटा की वित्तीय सहायता पर निर्भर है। 

थर्ड पार्टी फैक्ट चैकिंग प्रोग्राम के बंद होने से इन संस्थानों की आर्थिक स्थिरता पर भी खतरा मंडरा रहा है, जिससे फर्जी खबरों और गलत सूचनाओं के प्रसार को रोकने में चुनौतियाँ काफी बढ़ सकती हैं। हालांकि अभी कंपनी ने भारत में इस प्रोग्राम को बंद करने की घोषणा नहीं की है, लेकिन इस कदम से इन फैक्ट चैकिंग संस्थानों की चिंता बढ़ गई है। इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस और साइबरपीस द्वारा किये गये एक शोध ने भारत में बढ़ते फेक न्यूज प्रसार और डीपफेक जैसी चिंताओं को लेकर बड़ा खुलासा किया है। अध्ययन के मुताबिक गलत सूचना के प्रसार के मामले में सोशल मीडिया एक प्रमुख स्त्रोत है। सोशल मीडिया पर फैलने वाली फेक न्यूज में 46 प्रतिशत राजनीति से जुड़े, 16.8 प्रतिशत धर्म से जुड़े और 33.6 प्रतिशत सामान्य मुद्दे हैं। शोध में ट्विटर 61 प्रतिशत और फेसबुक 34 प्रतिशत फेक न्यूज फैलाने वाले प्रमुख प्लेटफ़ॉर्म के रूप में पहचाने गये। वहीं 2019 में  माइक्रोसॉफ्ट के एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि  भारत में 64% इंटरनेट यूजर्स ने फर्जी खबरों का सामना किया है, जो विश्व स्तर पर सबसे अधिक है। पीआईबी की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2024 में देश में 583 भ्रामक समाचारों की पहचान की गई, जिनमें से 36 प्रतिशत खबरें सरकारी योजनाओं से जुड़ी थीं। पिछले कुछ सालों में कई बार ये फर्जी खबरें लोगों के लिये जानलेवा भी साबित हुई, उदाहरण के लिए अमेरिकन जर्नल ऑफ ट्रापिकल मेडिसिन एंड हाइजीन में छपे एक शोध के मुताबिक कोविड महामारी के दौरान कई तरह की अफवाहों और गलत सूचनाओं के चलते करीब 800 लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी थी। वहीं भारत में 2018 में झारखंड और उत्तर प्रदेश में सोशल मीडिया पर अफवाह फैलने पर मॉब लिंचिंग की घटनाएं बढ़ गई थी। सीएए आंदोलन, दिल्ली दंगे और किसान आंदोलन के वक्त भी अफवाहों से स्थिति तनावपूर्ण हो गई थी।

पर आखिर मेटा के इस फैसले के क्या खतरे हो सकते हैं? दरअसल एक्सपर्ट्स और फैक्ट चैकर्स के बिना अप्रशिक्षित यूजर्स को फेक न्यूज की पहचान करने में कठिनाई हो सकती है, और निगरानी के बगैर राजनीतिक या प्रोपागेंडा आधारित कंटेंट प्लेटफॉर्म पर हावी हो सकता है जो बड़ी जनसंख्या को प्रभावित भी कर सकता है। आज के दौर में  फे़सबुक और वाट्सऐप जैसे प्लेटफॉर्म्स पर फ़ेक न्यूज़ और ग़लत सूचनाओं की बाढ़ आई हुई है। किस पर भरोसा करें और किस पर नहीं, यह बड़ी चिंता का विषय है। तटस्थ और फैक्ट चेक के बिना के कंटेंट से राजनीतिक पार्टियों और विचारों को हेरफेर और ध्रुवीकरण करने का मौका मिल सकता है, विशेष रूप से यह बहुसंख्यकवादी  विचारों को लागू कर सकता है। ऐसा देखा गया है  कि कई बार फेक न्यूज को आंकने में मुख्यधारा की मीडिया तक चकमा खा जाती है, ऐसे में पेशेवर फैक्ट चैकर्स, पत्रकारों और एक्सपर्ट्स को छोड़ आम यूजर्स पर यह जिम्मेदारी डालना खतरनाक हो सकता है। और एआई, डीप फेक के दौर में फेक न्यूज के खिलाफ चल रहा दुनियाभर में संघर्ष कमजोर हो सकता है। भारत जैसे देश में जहाँ सांस्कृतिक और राजनीतिक विविधता कम्यूनिटी फैक्ट चैकिंग  को चुनौतीपूर्ण बनाती है, क्योंकि जटिल मुद्दों, भाषणों की सटीक व्याख्या के लिए पेशेवर विशेषज्ञों की आवश्यकता जरूरी रहती है ।  इंडिया टुडे फ़ैक्ट चेक, द क्विंट,बूम, एल्ट न्यूज जैसी भारतीय फैक्ट चैकिंग संस्थाओं के लिए मेटा के थर्ड पार्टी चैकिंग प्रोग्राम का हिस्सा फंडिंग का अहम स्रोत है अगर यह बंद हो जाता है तो हजारों फैक्ट चैकर्स के लिए रोजगार का संकट भी खड़ा हो सकता है और अब इन संस्थाओं को अन्य वैकल्पिक वित्तीय स्रोत भी बनाने होंगे। ऐसे में भले ये कंपनियाँ अपनी जिम्मेदारी से भागने की कोशिश कर रही हों, यह जिम्मेदारी अब सरकार और पत्रकारों और स्वतंत्र फैक्ट चैकर्स की है कि वह कैसे मीडिया की विश्वसनीयता सुनिश्चित करते हैं और झूठे दावों, खबरों और अफवाहों को सामने लाकर फेक न्यूज के मकड़जाल का सामना करते हैं।

 दैनिक जागरण में 13/02/2024 को प्रकाशित 


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