Wednesday, November 5, 2025

जेन जी और बेड रॉटिंग संस्कृति

 

इस तेजी से डिजिटल होती संस्कृति में हमारी पीढ़ी एक बड़े विरोधाभास से जूझ रही है। यूँ कहने को तो हम इंसानी सभ्यता की सबसे ज्यादा कनेक्टेड पीढ़ी हैं लेकिन फिर भी सबसे ज्यादा अकेली है। ऐसा लगता है कि सोशल मीडिया, रील्स की शोर-शराबे वाली दुनिया ने हमें अंदर से थका दिया है। इसी थकान और तनाव से बचने के लिए आज की जेन जी पीढ़ी ने एक नया तरीका ढूंढ लिया है जिसे बेड रॉटिंग कहते हैं। यह शब्द सुनने में जितना अजीब लगता है इसका अर्थ उतना ही सीधा है। इसका मतलब है जानबूझकर घंटों या दिनभर बिस्तर पर पड़े रहना और निष्क्रिय गतिविधियों में लिप्त रहना जैसे फोन स्क्रॉल करना, फिल्म देखना या बस लेटे रहना। हालांकि जेन जी इसे सेल्फ केयर यानी आत्म देखभाल का नया और क्रांतिकारी तरीका बताते हैं। भारत में हैशटैग बेड रॉटिंग पर आज लाखों व्यूज इस बात का सबूत है कि अब यह आदत भारतीय युवाओं के जीवन में भी गहरी पैठ बना रही है। लेकिन सवाल यह भी उठता है कि क्या यह सच में तनाव या बर्नआउट से लड़ने का एक कारगर तरीका है या फिर अपने जीवन से मुँह मोड़ लेना एक खतरनाक बहाना जो व्यक्ति को अवसाद और निष्क्रियता के अंधेरे कुएँ में धकेल रहा है।

बेड रॉटिंग शब्द का पहली बार इस्तेमाल 2023 में एक अमेरिकी टिकटॉक यूजर ने अपने वीडियो में किया था। देखते-देखते यह शब्द जेन जी शब्दावली का हिस्सा हो गया , जो हफ्ते में एक दिन बेड रॉटिंग करके एंटी प्रोडेक्टिविटी और सेल्फ केयर जीवन शैली को अपनाने लगे। दुनिया भर के मनोवैज्ञानिक भी युवाओं की इस प्रवृत्ति के प्रति अपनी दिलचस्पी जाहिर कर रहे हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक बेड रॉटिंग के पीछे कई कारण हैं, एक ओर बदलती जीवनशैली और बढ़ता तनाव इसका एक कारण है वहीं दूसरी ओर छात्रों के बीच हसल कल्चर भी इसमें बड़ी भूमिका निभा रहा है। ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी की मनोचिकित्सक निकोले होलिंग्सहेड बताती है कि हमारा समाज हमेशा से खुद को व्यस्त करने और अत्यधिक उत्पादक होने पर जोर देता है। ऐसे में उस सामाजिक दबाव को  जो हर पल कुछ न कुछ उत्पादक करने के लिए मजबूर करता है, को आज के युवा खारिज कर रहे हैं।

लेकिन इसके पीछे एक जटिल और गंभीर समस्या भी उभर रही है। मनोवैज्ञानिक इसे सिर्फ आराम नहीं बल्कि एक तरह के इमोशनल शटडॉउन की तरह भी देखते हैं, जहाँ व्यक्ति अपनी भावनाओं, तनाव और जिम्मेदारियों से बचने के लिए बिस्तर को एक सुरक्षित किले की तरह इस्तेमाल करने लगता है। जिससे मानसिक थकावट, बेचैनी, अवसाद जैसी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। भारत और दुनियाभर में मानसिक स्वास्थ्य के आंकड़े चिंताजनक हैं। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वे के अनुसार लगभग 10 प्रतिशत वयस्क किसी न किसी प्रकार के मानसिक विकार से ग्रसित हैं वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में प्रति एक लाख जनसंख्या पर करीब 21 आत्महत्याएं होती हैं जो वैश्विक औसत से कहीं अधिक है। साल 2024 में आई विश्व खुशहाली रिपोर्ट में भारत ने 118वां स्थान प्राप्त किया था जो कि मानसिक चिंता को दर्शाता है।

हाल ही में ऑस्ट्रैलिया की एक मनोवैज्ञानिक संस्था जीएम5 की ओर से तेलंगाना और कर्नाटक के स्कूली छात्रों का सर्वेक्षण किया गया। रिपोर्ट के मुताबिक 24 प्रतिशत छात्रों में किसी न किसी तरह की मानसिक संकट के लक्षण मिले वहीं 6 से 10 प्रतिशत ऐसे छात्र मिले जो गंभीर या अति गंभीर श्रेणी में आते हैं जिन्हे तत्काल सहायता की आवश्यकता है। ऐसा ही एक रिपोर्ट रिसर्च संस्था सेपियंस लैब की ओर से भी जारी की गई । जिसमें कोविड महामारी के बाद 18-24 साल के भारतीय युवाओं में मानसिक स्वास्थ्य की जुड़ी समस्याओं  का उल्लेख था। रिपोर्ट के मुताबिक साल 2020 में इस आयु वर्ग का औसत एमएचक्यू यानी मेंटल हेल्थ क्वोशियंट 28 था जो 2023 में गिरकर 20 हो गया साथ ही ज्यादातर युवाओं में किसी न किसी प्रकार की मानसिक समस्या मिली। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में साल 2024 में सामने आये एक बहुराष्ट्रीय शोध के मुताबिक दुनियाभर के किशोर प्रतिदिन औसतन 8 से 10 घंटे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का उपयोग करने, वीडियो गेम खेलने जैसी गतिहीन गतिविधियों में बिता रहे हैं।

हालांकि भारत में बेड रॉटिंग को लेकर सोशल मीडिया पर लगातार ट्रैंड बना हुआ है , कुछ युवा इसके लिए एक्सटेंशन ऑफ द स्लीप, स्लीप वीकेंड या वीकेंड कोमा जैसे शब्दों का भी प्रयोग करते हैं। आज कल छुट्टियाँ घूमने फिरने या परिवार के साथ वक्त बिताने का समय नहीं रहीं बल्कि बिस्तर पर पड़े रहने का बहाना बन गई हैं । आज की जेन-ज़ी पीढ़ी अपने कमरे की चारदीवारी में सिमटकर, मोबाइल या लैपटॉप की स्क्रीन के सामने पूरा दिन बिताना ज्यादा सहज महसूस करती है। खाना ऑर्डर करना हो तो ऑनलाइन, दोस्तों से बात करनी हो तो ऑनलाइन, जैसे वास्तविक दुनिया से जुड़ने की उनकी इच्छा धीरे-धीरे मिटती जा रही हो। दरअसल आज का युवा सूचनाओं के ऐसे महासागर में जी रहा है, जो कभी शांत नहीं होता, अंतहीन फीड्स, नेटफ्लिक्स, असीमित कंटेंट यह सब मिलकर डिजिटल ओवरस्टिम्यूलेशनका माहौल बनाते हैं। जिससे दिमाग को कभी आराम नहीं मिलता और बिस्तर एक आरामदायक ठिकाना बन जाता है। वहीं सोशल मीडिया पर सेल्फ केयर की गलत व्याख्या से इसे और अधिक बल मिलता है।

कभी-कभार भले बिस्तर पर आराम करना शरीर और दिमाग को तरोताजा कर सकता है, लेकिन एक नियमित आदत से गंभीर परिणाम हो सकते हैं। बेड रॉटिंग से न्यूरोट्रांसमीटर्स विशेषकर डोपामिन और सेरोटोनिन के स्तर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इनकी कमी से मोटिवेशन में गिरावट, उदासी, और ऊर्जा की कमी महसूस होती है , जो व्यक्ति को और निष्क्रिय बनाती है, और अंत में यह एक दुष्चक्र हो जाता है जिससे उदासी और बढ़ जाती है और उदासी से निष्क्रियता । पर इसका ये मतलब नहीं है कि हमें आराम नहीं करना चाहिए। तनावपूर्ण जीवन से एक ब्रेक लेना और खुद को रिचार्ज करना अत्यंत आवश्यक है। हालांकि इसके साथ घर के बाहर निकलना, शारीरिक क्रियाएं करना, दोस्तों या परिवार के लोगों से बात करना भी उतना ही जरूरी है। आखिर में हमें एक संतुलन की आवश्यकता है जहाँ हम बिस्तर पर लेटकर फोन स्क्रॉल करने के बजाय, किताबें पढ़ना, संगीत सुनना या मेडिटेशन जैसी चीजें भी कर सकते हैं। इससे व्यक्ति में निष्क्रियता कम और सक्रियता बढ़ेगी। और यदि कोई इस चक्र से बाहर नहीं निकल पा रहा है तो किसी मनोवैज्ञानिक या काउंसलर से बात करने में तनिक भी संकोच नहीं करना चाहिए। तभी हम अपनी युवा पीढ़ी को एक स्वस्थ, उत्पादक और खुशहाल भविष्य दे पाएंगे।
अमर उजाला में  05/11/2025 को प्रकाशित 

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